लोकतन्‍त्र का समीकरण : दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं

1965  का भारत-पाकिस्तान युद्ध कोई नहीं भूल सकता। न हम, न पाकिस्तान। उस समय शास्‍त्रीजी  प्रधान मन्त्री थे। अनेक प्रतिकूलताओं और अभावों के बीच भारतीय सेना ने वह युद्ध जीता था। सेना और भारतीय जन मानस को यह जीत समर्पित करते हुए शास्त्रीजी ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। तब हम खाद्यान्न के मामले में आत्म-निर्भर नहीं थे। अमरीका का मुँह देखते थे। अमरीका पाकिस्तान के साथ था। उसने खाद्यान्न आपूर्ति रोकने की धमकी दी। इससे निपटने के लिए शास्त्रीजी ने देश के लोगों से मदद माँगी और प्रति सोमवार (एक समय भोजन करने का) व्रत लेने का आह्वान किया। व्रत की शुरुआत शास्त्रीजी ने खुद से की। शास्त्रीजी के इस आह्वान को पूरे देश ने सर-माथे लगा कर स्वीकार किया। जन-जन की भागीदारी से किसी राष्ट्रीय संकट का सामना करने का यह अनूठा उदाहरण था। पचास बरस से अधिक के बाद, आज भी अनेक लोग ‘शास्त्री सोमवार’ करते मिल जाएँगे।   

यही युद्ध जीतने के बाद शास्त्रीजी को, पाकिस्तान से वार्ता के लिए ताशकन्द जाना था। तैयारी करते हुए अपने कपड़ों में उन्हें एक फटी धोती रखते देख परिजनों और परिचारकों ने टोका और दूसरी ‘ढंग-ढांग’ की धोती रखने की सलाह दी। शास्त्रीजी ने कहा कि देश के अनगिनत लोग फटी धोती पहन रहे हैं और उनसे भी अधिक लोगों के पास तो पहनने के लिए पूरे कपड़े ही नहीं हैं। ऐसे में वे भला ‘ढंग-ढांग’ की धोती के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं? वे वही फटी धोती लेकर गए। 

इससे पहले, नेहरूजी के समय केन्द्रीय मन्त्री होते हुए भी शास्त्रीजी रेल के साधारण डिब्बे में सफर किया करते थे। सफर के दौरान वे सरकार के और अपने विभाग के बारे में लोगों की राय जानते रहते थे। कोई निजी सचिव या सरकारी अमला साथ में नहीं होता। लोगों की शिकायतें/समस्याएँ/सुझाव, उनके नाम-पते खुद ही लिखते थे और दिल्ली पहुँच कर जो कार्रवाई करते, उसकी जानकारी सम्बन्धितों को पत्र के जरिए देते थे। वे अपनी बात नहीं कहते थे, कोई उपदेश नहीं देते थे, लोगों से आग्रह, अपेक्षा नहीं जताते थे। खुद चुप रहते और लोगों की बात सुनते थे।

लोगों से जुड़ाव के मामले में गाँधी आज तक ‘अनुपम और इकलौते’ बने हुए हैं। उनके तमाम चित्रों में वे ‘अधनंगे’ ही नजर आते हैं-कमर से ऊपर निर्वस्त्र और घुटनों तक की धोती पहने हुए। अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने से, भारत को जानने के लिए वे जब देशाटन पर निकले थे तो पारम्परिक काठियावाड़ी पोषाख (माथे पर खूब मोटा पग्‍गड, घेरदार अंगरखा और धरती छूती धोती) पहने हुए थे। लेकिन यात्रा के दौरान ही वे ‘अधनंगे’ हो गए। दक्षिण भारत के एक गाँव में उन्हें मालूम हुआ कि एक परिवार में तीन महिलाएँ हैं लेकिन वे तीनों चाहकर भी गाँधीजी की प्रार्थना सभा में एक साथ नहीं आ पा रहीं। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है जिसे वे बारी-बारी से पहनती हैं। सुनकर गाँधीजी ने उसी दिन से पूरे कपड़े पहनना बन्द कर दिया। एक, अधूरी धोती को अपनी पोषाख बना लिया और आजीवन इसी स्वरूप में बने रहे।

उसी समय-काल में भारत ने विनोबा नामक एक और ‘लोक पुरुष’ को देखा। वे सम्भवतः अब तक के एकमात्र भारतीय होंगे जिन्होंने पूरे भारत को अपने पाँवों नापा। उनके कहने पर देश के अनेक भूमिपतियों, जागीरदारों, जमीदारों ने अपनी हजारों एकड़ जमीन विनोबा के ‘भूदान यज्ञ’ की समिधा बना दी।

सन् 1954 की इस घटना का तो मैं खुद साक्षी हूँ। उस समय मेरी उम्र आठ साल भी नहीं थी। गाँधी सागर बाँध का शिलान्यास करने के लिए जाते समय जवाहरलालजी की एक आम सभा मेरे गाँव मनासा के ऊषागंज में हुई थी। वे क्या बोले, न तो उस समय समझ थी न इस समय याद है। बस! इतना याद है कि बहुत ऊँचा मंच बना था और काँटेदार तारों की बागड़ जैसी घेराबन्दी कर लोगों के बैठने की जगह बनाई गई थी। लेकिन भाषण देते-देते जवाहरलालजी अचानक ही तेजी से उतरे और काँटेदार तारोेंवाले दो खम्भों को उखाड़ फेंका। उनकी शेरवानी फट गई। पुलिसवाले और दूसरे लोगों ने दौड़कर उन्हें पकड़ा और कार में बैठाया। बाद मालूम हुआ कि वे काँटेदार तार देख कर गुस्सा हुए थे। कह रहे थे कि उनके और उनके लोगों के बीच ऐसे काँटेदार लगाने की बेवकूफी और जुर्रत किसने, कैसे, क्यों की। 

ये सब वे लोग थे जिनके पीछे देश के लोग खुद को, अपना सब कुछ भूल कर चल देते थे। इनके कहे को सर-माथे चढ़ाते थे। लोगों को भरोसा था कि ये लोग खुद के लिए नहीं, देश और लोगों के भले के लिए निस्वार्थ भाव से जी रहे हैं।

लेकिन इन सब बातों का आज क्या मतलब? क्या सन्दर्भ? दरअसल एक समाचार पढ़कर ये सारी बातें एक के बाद एक याद आ गईं। समाचार था कि देश में दालों की कमी दूर करने के लिए हमारी सरकार अफ्रीकी देश मोजाम्बिक से सम्पर्क कर रही है। एक अखबार ने तो वहाँ कुछ जमीन लीज पर लेने की बात भी कही। यही समाचार पढ़कर ये सब बातें याद आ गईं। कल तक अमरीकी लाल गेहूँ के लिए झोली फैलानेवाले हम वह देश हैं जिसने पहले हरित क्रान्ति का और बाद में श्वेत क्रान्ति का अजूबा कर दिखाया। लेकिन हमारे नेताओं की पुण्याई इतनी भी नहीं रह गई कि ऐसे संकट के समय वे लोगों से ‘त्याग’ करने का आग्रह कर सकें? निश्चय ही केवल इसलिए कि इसके लिए जो नैतिक साहस और आचरणगत शुचिता चाहिए होती है, वह हमारे नेताओं में दूर-दूर तक नजर नहीं आती। रक्षा मन्त्री मनोहर पर्रीकर ने एक समय भोजन करने का विचार दिया भी तो इतनी अगम्भीरता, इतनी आत्मविश्वासहीनता से कि वह समाचार माध्यमों में यथेष्ट जगह ही नहीं पा सका। कारण? हमारे नेता अपनी असलियत खूब अच्छी तरह जानते हैं। अपनी अपील पर एक करोड़ लोगों द्वारा गैस सबसिडी छोड़ने का उल्लेख हमारे प्रधानमन्त्री जब अपनी उपलब्धि की तरह करते हैं तो मुझे ताज्जुब होता है। इससे कई गुना अधिक तो उनकी पार्टी की सदस्य संख्या होने का दावा किया जाता है!

यह दरिद्रता भला क्यों कर आ गई? देश के तमाम दलों के तमाम नेताओं की यह दशा क्यों कर हो गई? नेता तो ‘वे’ भी थे और नेता तो ‘ये’ भी हैं? टैक्स तो ‘वे’ भी लेते थे और ‘ये’ भी ले रहे हैं? उनकी बात सब क्यों मानते थे और आज के नेताओं की क्यों नहीं? निश्चय ही इसलिए कि  ‘उन्होंने’ कभी भी खुद को राजा या शासक नहीं माना। किलों-महलों में कैद होकर नहीं बैठे रहे। ‘वे’ खुद चल कर सड़कों, पगडण्डियों पर आए, लोगों से मिले, उनके जैसे बने, धूल-मिट्टी में सने। उन्होंने दुहाइयाँ नहीं दीं, अपना किया नहीं गिनवाया, सदैव इसी संकोच में रहे कि वे जितना कुछ कर सकते थे, उतना नहीं कर पाए। उन्होंने कभी भी अपने ‘पूर्ण’ होने की गर्वोक्तियाँ नहीं की, सदैव खुद को अपूर्ण ही माना। वे अपनी हाँक कर, अपनी कह कर नहीं रह गए। उन्होंने अपनी या तो कही ही नहीं और कही तो बहुत कम। लोगों की अधिक सुनी-समझी-गुनी।

पूँजी को मिल रही निर्लज्ज, अशोभनीय और आपराधिक प्रमुखता के बावजूद यह देश भले और भोले लोगों का देश है। लोग सुनते भी हैं और मानते भी हैं। लेकिन भले और भोले होने का अर्थ मूर्ख होना कभी नहीं होता। वे उसी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हैं जो अपना ‘स्व’ उनमें विसर्जित कर दे। मालवी की कहावत है - ‘राख पत तो रखा पत।’ तुम मेरा मान रखो, मैं तुम्हारा मान रखूँ। दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं। लोग तभी सुनते हैं, जब लोगों की सुनी जाए। लोकतन्त्र का समीकरण बहुत ही सीधा -सपाट, सहज-सरल है: लोगों के मन की सुनो, मानो और अपने मन की सुनाओ, मनवाओ।
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शुद्धता ने हमें दूसरे गाँधी से वंचित कर दिया

या तो अस्पताल में भर्ती रहना या अस्पतालों और पेथालॉजी प्रयोगशालाओं के चक्कर लगाना, कोई तीन महीनों से यही क्रम बना हुआ है। रतलाम-बड़ौदा की यात्राओं ने ऊब पैदा कर दी। बाहर आना-जाना प्रतिबन्धित। घर में या तो बिस्तर पर रहो या फिर चहल कदमी कर लो। चिढ़ और झुंझलाहट का गोदाम बन गया है मन। न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही न कुछ लिखने की। अपने मन से मेरे मन की बात को अनुभव करनेवाले मित्र ईश्वर की तरह मदद कर रहे हैं। लगता है, सबने तय कर लिया है कि कौन, कब आएगा। जो भी आता है, पठन-पाठन की कुछ न कुछ सामग्री लेकर आता है। मैं पढ़ने से इंकार कर देता हूँ।  वे पढ़कर सुनाने लगते हैं। मैं चिढ़ जाता हूँ। कहता हूँ - ‘पढ़कर नहीं, किसी किस्से की तरह, किसी बात की तरह सुनाओ-कहो।’ दुनिया से अलूफ रहना चाहता हूँ। वे मुझे दुनियादार बनाकर लौटते हैं।

इसी क्रम में एक मित्र ने किसी अखबार के रविवारी परिशिष्ट में छपा, अल्लामा आरजू और ए. हमीद का किस्सा सुनाया। आरजू साहब, भाषा के निष्णात् विद्धान थे और हमीद साहब उर्दू के जाने-माने लेखक। आरजू साहब ने फिल्म निदेशक नितिन बोस के लिए एक गीत लिखा था। हमीद साहब ने कहा कि उस गीत में एक शब्द गलत प्रयुक्त हुआ है। सुनकर आरजू साहब ने विस्फारित नेत्रों से देखा। उस शब्द को रेखांकित कर बोले कि वे उस शब्द का बेहतर पर्यायी/वैकल्पिक शब्द सोचेंगे।

हमीद साहब चले तो आए किन्तु आरजू साहब की भेदती नजर ने उनका आत्मविश्वास हिला दिया। शाम को घर पहुँच कर दीवान-ए-गालिब देखा तो पाया कि गालिब ने वही शब्द ठीक उसी तरह प्रयुक्त किया था जिस तरह आरजू साहब ने किया था। हमीद साहब को अपने ज्ञान के सतहीपन अनुभव हुआ और खुद पर शर्म हो आई। वे बेकल हो गए। घर पर रुकना कठिन हो गया। वे तीन ट्रामें बदल कर देर रात आरजू साहब के घर पहुँचे। हमीद साहब को बेवक्त अपने दरवाजे पर देख कर आरजू साहब को हैरत हुई। आने का सबब पूछा। हमीद साहब ने अपने अल्प ज्ञान आधारित दुस्साहसी अपराध के लिए क्षमा माँगी। आरजू साहब कुछ भी नहीं बोले और ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए नमाज पढ़ने बैठ गए।

किस्सा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। कुछ क्षणों के लिए अपनी बीमारी भूल गया। हमीद साहब की भाषाई चिन्ता, सावधानी और अपनी गलती को तत्क्षण स्वीकार कर, क्षमा याचना करनेे के साहस के प्रति मन में आदर का समन्दर उमड़ पड़ा तो आरजू साहब के बड़प्पन और भाषाई उत्तरदायी-भाव ने एक पल में ही आरजू साहब को बीसियों बार प्रणाम करवा दिया। 

किन्तु भाषा के प्रति यह सतर्कता भाव अब नजर नहीं आता। कम से कम हिन्दी में तो नहीं। यदि कोई ऐसी चिन्ता करता भी है तो या तो उसकी अनदेखी कर दी जाती है या उसे उपहास झेलना पड़ता है। इस किस्से ने मुझे कुछ किस्से याद दिला दिए।

कविता के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए जी-जान झोंके हुए एक युवा ने मुझसे सैलाब का अर्थ पूछा। मैंने कहा कि इसका सामान्य अर्थ तो बाढ़ होता है किन्तु यदि वह प्रयुक्त करने का सन्दर्भ, प्रसंग बता दे मैं शायद कुछ अधिक सहायता कर सकूँ। उसने उत्तर दिया कि अपनी कविता में वह सैलाब को प्रयुक्त तो कर चुका। मैं तो बस, उसका अर्थ भर बता दूँ। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे एक मित्र का पचीस वर्षीय बेटा, कोई दो बरस पहले अचानक ही फेस बुक पर प्रकट हुआ। उसने अपनी कविताएँ, एक के बाद एक, धड़ाधड़ कुछ इस तरह भेजी मानो कोई फैक्टरी खुल गई हो। उसने अपनी कविताओं पर मेरी राय पूछी। सारी कविताएँ पढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। पाँच-सात कविताएँ पढ़ कर मैंने कहा कि कविताओं में विचार तो अच्छा है किन्तु वर्तनी की अशुद्धियाँ सब कुछ मटियामेट कर रही हैं। उसने पूछा - ‘अंकल! ये वर्तनी क्या होता है?’ मैं एक बार फिर अवाक् हो गया। 

यह गए बरस की ही बात है। एक शाम, मेरे एक और मित्र का, तीस वर्षीय बेटा, तीन डायरियाँ लेकर मेरे घर आया। तीनों डायरियाँ अच्छी-खासी मोटी और मँहगी जिल्द वाली थीं। उसने कहा कि अपनी शायरी से उसने ये तीनों ही डायरियाँ भर दी हैं। मैं देख लूँ। मैंने गालिब, फैज से लेकर मौजूदा वक्त के कुछ शायरों के नाम लेकर पूछा कि उसने अब तक कितना, क्या पढ़ा है। जवाब में उसने तनिक हैरत से पूछा कि ये सब कौन हैं और इन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए? उसने कहा कि उसने पढ़ा-वढ़ा कुछ नहीं। सीधा लिखना शुरु कर दिया। उसके यार-दोस्तों को उसकी शायरी खूब पसन्द आ रही है और उसने फिल्मों में जाने की कोशिशें शुरु कर दी हैं। मैंने कहा कि वह यहाँ अपना वक्त खराब नहीं करे। फौरन मुम्बई पहुँचे। मुम्बई खुद ही सब कुछ दुरुस्त कर देगी।

जलजजी भाषा विज्ञान के प्राधिकार हैं। मैं उनके यहाँ जाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। जब भी जाता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ। ऐसी ही एक बैठक के दौरान एक नौजवान आया और चुपचाप बैठ गया। हम लोग हिन्दी और इसके व्याकरण के साथ हो रही छेड़छाड़ पर बात कर रहे थे। अनुस्वार के उपयोग में बरती जा रही उच्छृंखलता हमारा विषय थी। अचानक ही नौजवान बोल उठा - ‘सर! यह बिन्दु कहीं भी लगा दो। क्या फर्क पड़ता है?’ जलजजी निश्चय ही उसके बारे में विस्तार से जानते थे। उन्होंने एक कागज उसके सामने सरकाया और बोले-‘लिखो! मेरी साँस से बदबू बाती है।’ उसने लिख दिया। जलजजी बोले-‘ अब इसमें साँस के ऊपरवाला बिन्दु हटा दो और जोर से पढ़ो।’ नौजवान ने आज्ञापालन किया। जलजजी ने कहा-‘कोई अन्तर लगा? अब बिना बिन्दुवाला यही वाक्य, दस लोगों के बीच, अपनी पत्नी की मौजूदगी में जोर से पढ़ना और फिर आकर मुझे बताना कि क्या हुआ?’ नौजवान को पसीना आ गया। घबरा कर बोला-‘अरे! सर! बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मेरा तो घर टूट जाएगा!’ जलजजी हँस कर बोले-‘यह होता है बिन्दु के साथ मनमानी करने से। यह घर बना भी देता है और तोड़ भी देता है।’ 

यह तो अभी-अभी की ही बात है। एक अखबार के दफ्तर में बैठा था। एक अतिमहत्वाकांक्षी और उत्साही नेता आया। सहायक सम्पादक को अपनी प्रेस विज्ञप्ति थमाते हुए बोला-‘जरा ढंग-ढांग से छाप देना। झाँकी जम जाएगी।’ सहायक सम्पादक ने प्रेस विज्ञप्ति पढ़कर मेरी ओर सरका दी। नेता ने खुद के लिए एक स्थान पर ‘नेताद्वय’ प्रयुक्त किया था। सहायक सम्पादक ने दूसरे नेता का नाम पूछा। नेता बोला कि अपने समाचार में वह किसी और का नाम भला क्यों देगा? सहायक सम्पादक ने पूछा-‘तो फिर नेताद्वय क्यों लिखा?’ नेता बोला कि अच्छा शब्द है। इससे नेता और समाचार दोनों का वजन बढ़ जाएगा। 

लोग बिना सोचे-विचारे बोलते ही नहीं, लिखते भी हैं। आशीर्वाद लिखो तो प्रेस वाला सुधार कर आर्शीवाद कर देता है। किसी संस्थान के दो-तीन वर्ष पूरे होने पर पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में बड़े गर्वपूर्वक ‘सफलतम दो वर्ष’ लिखा जाता है। इसका अर्थ न तो विज्ञापन लिखनेवाला जानता है और संस्थान का मालिक। अनजाने में ही घोषणा की जा रही होती है कि संस्थान को जितनी सफलता मिलनी थी, मिल चुकी। 

जानता हूँ कि शुद्धता सदैव संकुचित करती है। सोने की सिल्लियाँ या बिस्किट लॉकर में ही हैं रखे जाते हैं। आभूषण में बदलने के लिए सोने में न्यूनतम मिलावट अपरिहार्य होती है। मिलावट सदैव विस्तार देती है। भाषाई सन्दर्भों में संस्कृत इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। व्यापक शब्द सम्पदा और क्रियाओंवाली यह देव-भाषा यदि संकुचित हुई है तो उसका एक बड़ा कारण उसकी शुद्धता भी है। इसी शुद्धता के चलते हम अब तक दूसरा गाँधी नहीं पा सके हैं।

विस्तार के लिए मिलावट अपरिहार्य है। किन्तु इसकी आवश्यकता, मात्रा और प्रतिशत का ध्यान नहीं रखा जाए तो विस्तार के बजाय विनाश होने की आशंका बलवती हो जाती है। कम से कम समय में अधिकाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लक्ष्य से बोलचाल की भाषा के नाम पर हिन्दी शब्दों का जानबूझकर, सायास किया जा रहा विस्थापन इस अनुपात का अनुशासन भंग कर रहा है। मिलावट यदि सहज और प्राकृतिक न हो तो वह न केवल बाजार से बल्कि चलन से ही बाहर कर देती है।
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पूछ लेते तो मुझे हार्ट अटेक नहीं होता

तरालीस डिग्री की, चमड़ी झुलसा देनेवाली गर्मी-धूप की सुनसान दोपहरी में वे पाँचों मेरे घर आए तो उनकी शकलों पर गर्मी के कोप की छाया के स्थान दहशत छायी हुई थी। गर्मजोशी भरे मेरे ‘आओ! आओ!!’ स्वागत के जवाब में पाँचों ने ‘नमस्कार दादा’ कहा तो सही किन्तु मरी-मरी आवाज में। कुछ इस तरह मानो कोई उनसे जबरन कहलवा रहा हो।

उनकी यह दशा देख मैं घबरा गया। रुक नहीं पाया और उनमें से कोई कुछ बोलता उससे पहले ही पूछा बैठा - ‘सब ठीक-ठाक तो है? कोई बुरी खबर तो लेकर नहीं आए?’ मेरे सवाल ने मानो उन्हें हिम्मत दी। प्रदीप जादोन बोला - ‘नहीं। कोई बुरी खबर नहीं। लेकिन आप बताओ! यह कब हुआ?’ मैंने कहा - ‘जैसा कि तय था, अभी आठ दिन पहले। बीस मई को।’ प्रदीप तनिक चिहुँक कर बोला - ‘तय था मतलब? हार्ट अटेक और उसका ऑपरेशन कब से पहले से तय होने लगा?’ अब मैं चिहुँका। प्रतिप्रश्न किया - ‘कौनसा हार्ट अटेक? किसे हुआ? कब हुआ?’ जवाब में सवाल इस बार कैलाश शर्मा ने किया - ‘क्यों? आप बड़ौदा नहीं गए थे? आपका ऑपरेशन नहीं हुआ?’ मैंने कहा - ‘हाँ। मैं बड़ौदा गया था और मेरा ऑपरेशन भी हुआ। लेकिन आपसे किसने कहा कि वह ऑपरेशन हार्ट अटेक की वजह से था?’ मेरी यह बात सुनते ही पाँचों ने मानो राहत की साँस ली। सबके चेहरे तनिक खिल गए। 

लेकिन अब मैं उलझन में था। मैंने कैलाश की ओर सवालिया मुद्रा में मुण्डी उचकाई। तनिक झेंपते हुए कैलाश बोला - ‘वो, परसों शाम को आपके घर आया था। ताला लगा था। गुड्डू भैया (अक्षय छाजेड़, जिसका मैं पड़ौसी हूँ) की मिसेस बाहर ही थीें। उन्होंने बताया कि आप बड़ौदा गए हैं, आपका ऑपरेशन हुआ है और कल शाम को आप लौटनेवाले हैं। मैंने सोचा कि अब आपको फोन करके क्या कहूँ और क्या पूछूँ? सीधे मिल कर बात करूँगा।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही राजेन्द्र मेहता ने ‘मैं गुनहगार नहीं हूँ’ का उद्घोष करने की तरह हस्तक्षेप किया - ‘मुझे तो दादा! इसीने (कैलाश ने) कहा कि आपका हार्ट का ऑपरेशन हुआ है और बताया कि आप कल आनेवाले हो। मैंने भी सोचा कि अब फोन करने के बजाय खुद मिलना ही अच्छा। इसीलिए आपको फोन नहीं किया।’ मेरी हँसी तो चल गई किन्तु मेरे ऑपरेशन को हार्ट अटेक से जोड़नेवाली बात अब भी समझ में नहीं आई थी। मैंने कैलाश से पूछा - ‘उन्होंने (गुड्डू की मिसेस ने) कहा था कि मेरा हार्ट ऑपरेशन हुआ है?’ तनिक याद करते हुए कैलाश बोला - ‘नहीं। यह तो उन्होंने नहीं कहा था।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आपने कैसे कह दिया कि मेरा हार्ट का ऑपरेशन हुआ?’ कैलाश अब मानो सफाई देता हुआ बोला - ‘क्यों! सर? आप तो जानते हो कि अपने रतलाम का कोई आदमी अगर ऑपरेशन कराने बड़ौदा जाता है तो उसका एक ही मतलब होता है कि उसे हार्ट अटेक हुआ है। फिर, आपको तो साल-डेड़ साल पहले हार्ट अटैक हो चुका है जिसका इलाज आपने बड़ौदा में ही कराया था! तो बस! मैंने सोचा कि आपको हार्ट अटेक हुआ है और ऑपरेशन भी उसी का हुआ है। आप ही बताओ! मैंने क्या गलत सोचा?’ कैलाश की बात से इंकार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। हमारे रतलाम में, बड़ौदा जाकर ऑपरेशन कराने का लोक प्रचलित अर्थ ‘हार्ट का ऑपरेशन’ ही होता है। इस लिहाज से कैलाश ने कुछ भी गलत नहीं सोचा।

बाकी चारों मानो कैलाश पर टूट पड़ना चाहने लगे। मैंने उन्हें ‘नियन्त्रित’ किया। तनिक झंुझलाहट और ढेर सारी प्रसन्नताभरे स्वरों में प्रदीप बोला - ‘चलो! इससे (कैलाश से) तो हम बाद में निपट लेंगे। पहले आप बताओ कि यदि यह ऑपरेशन हार्ट का नहीं था तो किस बात का था?’

मैंने सविस्तार बताया कि मेरी मूत्रेन्द्री की बाहरी चमड़ी संक्रमित हो गई थी। उसे कटवाने के लिए फरवरी 2015 में एक छोटा सा ऑपरेशन डॉक्टर यार्दे से करवाया था। ऑपरेशन के बाद उन्होंने कहा था मेरी उम्र को देखते हुए उन्होंने संक्रमित चमड़ी सारी की सारी नहीं काटी है। इस ऑपरेशन के बाद दवाइयों से उस संक्रमण को दूर करने की कोशिश करेंगे और यदि सफलता नहीं मिली तो फिर एक ऑपरेशन और करना पड़ेगा। डॉक्टर यार्दे का आशावाद फलीभूत नहीं हुआ और मेरा दूसरा ऑपरेशन जनवरी 2016 में बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत ने किया। ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा। संक्रमित चमड़ी पूरी काट दी गई। बायोप्सी रिपोर्ट भी पक्ष में आई। अब मैं संक्रमण मुक्त था। इस बीच इसी बारह मार्च को मुझे अचानक तेज बुखार आया। गुड्डू ने ही मुझे सुभेदार साहब के अस्पताल में भर्ती कराया। विभिन्न परीक्षणों का निष्कर्ष रहा कि मैं ‘मूत्र नली संक्रमण’ (यूरीनरी ट्रेक इंफेक्शन) का मरीज हो गया हूँ। सत्रह मार्च को छुट्टी हुई तो इस हिदायत के साथ कि मैं किसी यूरोलाजिस्ट से सलाह हूँ। मैंने ऐसा ही किया तो यूरोलाजिस्ट ने कहा कि संक्रमण ने मेरी मूत्र नली को बहुत सँकरा कर दिया है। अब मैं उनका नहीं, किसी ‘यूरोसर्जन’ का केस हो गया हूँ। मुझे फौरन ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए।

यह संयोग ही रहा कि जनवरी में मेरा ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर कामत ने ‘फॉलो-अप’ के लिए मुझे सत्ताईस अप्रेल को बड़ौदा  बुलाया था। डॉक्टर कामत ने मेरे, यूटीआई उपचार के और यूरोलाजिस्ट के कागज देखे। मेरी जाँच की और यूरोलाजिस्ट के निष्कर्ष की पुष्टि की। मैंने तत्क्षण कहा - ‘ऑपरेशन की तारीख तय कीजिए।’ उन्होंने बीस मई तय की। निर्धारित तारीख और समय पर मेरा ऑपरेशन हुआ और निर्धारित कार्यक्रमानुसार सत्ताईस मई की शाम मैं रतलाम लौट आया।

पाँचों ने तसल्ली की साँस ली। ईश्वर को धन्यवाद दिया। अमृत जैन ने कहा - ‘अन्त भला सो सब भला दादा! आप राजी-खुशी हो, यही ऊपरपावले की मेरबानी है। आप तो मेरे जैसा कोई काम हो तो जरूर बताना।’ लेकिन पाँचवा, संजय शर्मा इन चारों से अलग निकला। ‘हो! हो!’ कर हँसता हुआ बोला- ‘दादा! मजा आ गया। आपसे जब भी मिलना होता है, आप मजा ला देते हो।’ लेकिन इस बीच वे चारों कैलाश को कनखियों से देखते रहे। मैंने ‘कुछ ठण्डा-गरम’ की मनुहार की तो राजेन्द्र बोला - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं! ठण्ठा पीएँगे। जरूर पीएँगे। लेकिन यहाँ नहीं। अब यह (कैलाश) हम सबको जूस पिलाएगा।’ पाँचों ने विनम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।

लेकिन कैलाश को ‘हार्ट अटेक’ वाली बात सूझने के पीछे मुझे रतलाम में व्याप्त लोकधारणा के अतिरिक्त ‘सम्पर्कहीनता/सम्वादहीनता’ भी लगी। ये पाँचों ही भारतीय जीवन बीमा निगम के ऐसे एजेण्ट हैं जिनसे रोज का मिलना-जुलना है। कोई काम हो, न हो, मैं थोड़ी देर के लिए ही सही, हमारे शाखा कार्यालय जरूर जाता हूँ। सबसे मिलना-जुलना हो जाता है। बाजार की और हमारे धन्धे की काफी-कुछ जानकारियाँ मिल जाती हैं। लेकिन मैं एक काम ऐसा करता हूँ जो बाकी एजेण्ट नहीं करते हैं। (आप इस ‘नहीं करते हैं।’ को ‘निश्चय ही नहीं करते हैं।’ पढ़ सकते हैं।) नियमित रूप से शाखा कार्यालय आनेवाले एजेण्टों में से कोई एजेण्ट यदि तीन-चार दिन लगातार नजर नहीं आता है तो मैं या तो सीधे उसे ही फोन लगाकर या फिर उसके अन्तरंग किसी एजेण्ट से उसका कुशल क्षेम पूछ लेता हूँ।

इस बार मैं खुद बीमार रहा। शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। मेरी अनुपस्थिति सबने देखी और अनुभव की। आपस में जिक्र और पूछताछ भी की किन्तु किसी ने मुझसे सम्पर्क करने कर कोशिश नहीं की क्योंकि यह उनकी आदत में नहीं। सो, इस ‘सम्पर्कहीनता और सम्वादहीनता’ ने मुझे हृदयाघात से ग्रस्त रोगी और एक छोटे से ऑपेरशन को ‘हार्ट ऑपरेशन’ में बदल दिया।

अब मैं ठीक हूँ। दो नलियाँ लगी होने से घर से बाहर निकलना नहीं हो पा रहा। एक नली, जिसके कारण प्रायः ही मर्मान्तक पीड़ा होती थी, कल चार जून को निकाल दी गई है। तेरह जून को फिर बड़ौदा जाना है। तब दूसरी नली भी निकल जाएगी। उम्मीद है कि उसके बाद, जल्दी ही एक बार फिर अपना ब्रीफ केस लेकर ‘लो ऽ ऽ ऽ ओ! बीमा करा लो!’ की फेरी लगाता नजर आने लगूँगा।  

वास्तविकता जानने से जैसी राहत और प्रसन्नता मेरे मित्रों को (और उनके प्रसन्न हो जाने से मुझे भी) मिली, ईश्वर करे, वही सब आप सबको और आपके आसपास के तमाम लोगों को मिले।

हाँ। अब तक एक काम आप न कर रहे हों तो करना शुरु करने पर विचार कीजिएगा। अपने मिलनेवालों से मिल कर या उन्हें फोन कर ‘कैसे हो? सब ठीक तो है? घर में सब राजी खुशी है? काम काज बढिया चल रहा है ना? बहुत दिनों से नजर नहीं आए। कुछ मिलने-मिलाने की जुगत करो यार! अच्छा लगेगा।’ जैसी पूछताछ कर लिया करें। सच मानिए, उनसे अधिक अच्छा खुद आप को लगेगा।

आदमी खुद को गुदगुदी कर हँस नहीं सकता लेकिन ऐसे छोटे-छोटे उपक्रम कर खुद ही खुश जरूर हो सकता है।
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मन्दोदरी! काश! तुम वोट दिला पाती


दैनिक भास्कर के, 15 मई के रविवारी जेकेट पर आठ कॉलम में प्रकाशित इस विस्तृत सचित्र समाचार के अनुसार, गाँधीजी के हत्यारेे नाथूराम गोड़से को, जान पर खेलकर पकड़नेवाले बहादुर सिपाही रघु नायक की पत्नी, 85 वर्षीया मन्दोदरी अपनी बेटी के घर, बदहाली की जिन्दगी जी रही है। उसे सरकार से कुल एक सौ रुपया मासिक सहायता मिल रही है। यह रकम 50 रुपये मासिक थी। कोई तीन साल पहले बढ़ाकर 100 रुपये की गई है। यह रकम साल भर में एकमुश्त दी जाती है। रघु नायक को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 500 रुपये पुरुस्कारस्वरूप दिए थे। 1983 में रघु नायक की मृत्यु के बाद उसका पुलिसकर्मी बेटा भी एक हादसे का शिकार हो गया। जीने के लिए बेटी के पास रहना एकमात्र विकल्प बचा था। सो, बेटी के यहाँ आ गई। लेकिन दुर्दिनों ने पीछा नहीं छोड़ा। बेटी बासन्ती का पति भरी जवानी में केंसर का शिकार हो गया। उसके तीन बच्चे हैं-बड़ा बेटा डेड़ एकड़ का खेत सम्हाल रहा है। छोटा बेटा गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाया। कोई पन्द्रह बरस पहले पंचायत ने इन्दिरा आवास योजना के तहत मकान बनाने के लिए जमीन दी। साल भर बाद, बेटी की मदद से दो कमरे बनवाने चाहे लेकिन ढाँचा खड़ा करने से आगे बात नहीं बनी। बिना छत, बिना खिड़की-दरवाजे, बिना प्लास्टर की दीवारोंवाला  मकान भी खण्डहर हो गया है। इस बीच मन्दोदरी मधुमेह और मोतियाबिन्द की मरीज हो गई। बेटी बासन्ती ने माँ से सरकार के नाम चिट्ठी लिखवाई। कोई साल भर पहले अचानक सरकारी बुलावा आया और उड़ीसा सरकार ने अभी ही उसे पाँच लाख रुपये दिए हैं। अखबार के मुताबिक, बेटी के साथ जोरल गाँव में रह रही मन्दोदरी, अपने ‘मकान’ के दो कमरों में 20-30 वाट के बल्बों की रोशनी में जी रही है। सामान के नाम पर कुछ पुराने बर्तन हैं। ज्यादातर सामान टूटा-फूटा है।

मेरे परिचय क्षेत्र के लोगों ने समाचार को अपनी-अपनी मानसिकता और मनःस्थिति के अनुसार पढ़ा और समझा। अधिकांश की प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही। सबने मन्दोदरी के प्रति दया, करुणा जताई और अपनी-अपनी पसन्द की सरकारों का बचाव करते हुए बाकी सरकारों को और सरकारी तन्त्र को धिक्कारा।

ऐसा यह इकलौता और अनूठा समाचार नहीं है। भीख माँग रहे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, सायकलों के पंक्चर पकाते हुए, पानी पूरी का ठेला लगाए, बरफ के गोले बेचते हुए, हम्माली करते हुए, चाय की दुकानों, ढाबों पर झूठे कप-प्लेट, बरतन साफ करते हुए राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महिला-पुरुष खिलाड़ियों, कलाकारों के सचित्र समाचारों की अब हमें आदत हो गई है। ऐसे सचित्र समाचार अब हमें न तो चौंकाते हैं न ही सिहरन पैदा करते हैं। अखबारों के लिए वे ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ होते हैं और हमारे लिए ‘च्च्च! च्च्च! च्च्च!’ की ध्वनि निकालने की औपचारिकता पूरी करने के काम आते हैं। 

मन्दोदरी की दुर्दशा 1983 में पति की मृत्यु के बाद शुरु हुई। याने, लगभग तैंतीस बरस पहले। इस बीच लोक सभा, विधान सभाओं, स्थानीय के निकायों के चुनाव अपने समय पर होते रहे, उनके खर्चे चुनाव-दर-चुनाव बढ़ते रहे, नेताओं के आश्वासनों, वादों के ढेर लगते रहे, सरकारें बनती रहीं, गिरती रहीं, फिर और फिर-फिर बनती गईं, कलफदार कुर्तों/शेरवानियों की भीड़ बढ़ती गई। इसी चलन को मजबूत करते हुए, राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक व्यक्तियों की दुर्दशा के समाचार भी बढ़ते रहे। 

मन्दोदरी का यह समाचार छपने के कोई एक पखवाड़े के बाद मैंने इस समाचार के बारे में लगभग साठ लोगों से उनकी राय पूछी। लगभग 95 प्रतिशत तो इसे भूल चुके थे। शेष में से अधिकांश ने ‘अच्छा! वो समाचार? हाँ। ऐसा समाचार पढ़ा तो था किन्तु ठीक-ठीक याद नहीं।’ जैसा जवाब दिया।

मन्दोदरी ऐसी अकेली ‘समाचार कथा’ (याने कि ‘न्यूज स्टोरी’) नहीं है। प्रत्येक कस्बे की ऐतिहासिकता और महत्व से जुड़े ऐसे कई लोग हमें हर जगह मिल जाएँगे। मेरे कस्बे के भी कम से कम चार लोगों के नाम तो मेरे जिह्वाग्र पर हैं। ऐसे सब लोगों के गम्भीर अपराध शायद यही हैं कि इनमें से कोई भी वोट दिलाऊ नहीं है और न ही ये लोग हमें ‘दो पैसे’ का लाभ दिला सकते हैं। 

हम बरस-दर-बरस शिक्षित होते जा रहे हैं। देश प्रगति के सापान, एक के बाद एक चढ़ता जा रहा है, देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हम दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय भावना नसों में बहती थम नहीं रही, हमारी सम्वेदनशीलता का स्तर यह कि शौच-मूत्र-त्याग जैसी बातों पर भी हमारी भावनाएँ आहत हो रही हैं, राष्ट्र के प्रति निष्ठा का ज्वार ऐसा कि जिसे जी चाहे, देशनिकाला दे रहे हैं, राष्ट्र के सपूतों और शहीदों की रंचमात्र अवमानना हमें पल भर भी सहन नहीं हो रही और धर्म गंगा तो इतने वेग और इतनी विशालता/विकरालता से बहने लगी कि देश की जमीन कम पड़ती लग रही है। नहीं हुए तो बस दो काम नहीं हुए। पहला-हमारी सरकारें और सरकारी मशनरी मानवीय सन्दर्भों में जिम्मेदार नहीं हो पाईं और दूसरा हमारी सामाजिक चेतना-सम्वेदनशीलता और उत्तरदायित्व बोध नष्ट होने के कगार पर आ गया।

गए दिनों मेरे कस्बे के एक मन्दिर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का वार्षिक समारोह सम्पन्न हुआ। एक सप्ताह चले इस समारोह में प्रभातफरियाँ, झाँकियाँ, धर्म यात्राएँ निकलीं। कस्बे के जिस-जिस क्षेत्र में ये उपक्रम सम्पन्न हुए वहाँ, जगह-जगह पर स्वागत मंच बने, फूल बरसाए गए, उपक्रमों में शामिल भक्तों की यथाशक्ति (‘प्रसादस्वरूप’) खान-पान सेवा की गई। मन्दिर के देवता पर केन्द्रित नाटक खेले गए, नृत्य नाटिकाएँ प्रस्तुत की गईं। समारोह का समापन ‘विशाल सार्वजनिक भण्डारा’ से हुआ। भण्डारे में ‘प्रसादी’ ग्रहण करनेवाले भक्तों का कोई अधिकृत आँकड़ा तो सामने नहीं आया किन्तु (लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे कस्बे में) सबसे छोटा आँकड़ा सवा लाख लोगों का आया। 

मेरी गणित बहुत कमजोर है। मैंने मन्दिर और समारोह की प्रबन्ध व्यवस्था से जुड़े कुछ लोगों से पता करने की कोशिश की। ‘फायनल अकाउण्ट’ तो अभी नहीं हुआ है किन्तु, अलग-अलग लोगों द्वारा बताए गए आँकड़ों का औसत कम से कम सोलह लाख रुपये रहा। इसमें से भण्डारे पर कम से कम सात लाख रुपये तो खर्च हुए ही होंगे।

किन्तु यह तो एक उपक्रम मात्र की बात हुई। ऐसे उपक्रम (कम से कम मेरे कस्बे में तो) अब ‘बारहमासी’ हो गए हैं। कभी कोई कलश यात्रा, कभी कोई चुनरी यात्रा, विभिन्न देवोत्सव और पर्वोत्सव, विशाल संगीतमय सुन्दरकाण्ड’, किसी नेता के जन्म दिन पर या किसी राजनीतिक उपलब्धि पर, भारी भरकम डीजेवाली संगीत/भजन निशा। नवरात्रि और गणेशोत्सव पर गली-गली में ‘झकास’ पण्डाल। यह सब तो केवल हिन्दू धर्म के हैं। दूसरे धर्मों के भी ऐसे ही उपक्रम अब प्रतियोगिता भाव से होने लगे हैं। प्रत्येक उपक्रम भारी-भरकम खर्चीली साज-सज्जा वाला। एक के बाद होनेवाला दूसरा उपक्रम मानो, ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज से ज्यादा उजली क्यों?’ की तर्ज पर पहलेवाले से प्रतियोगिता करता हुआ। इस सबके लिए अखबारों के पूर-पूरे पन्नों के रंगीन विज्ञापन। अधिक हैसियत हुई तो विशेष परिशिष्ट।

हकीकत मैं नहीं जानता किन्तु आकण्ठ विश्वास है कि केवल मेरा कस्बा एकमात्र ऐसा सौभाग्यशाली और गौरवशाली कस्बा नहीं होगा। इन्दौर में तो कुछ नेताओं की तो पहचान ही केवल धार्मिक आयोजनों और विशाल सार्वजनिक भण्डारों की बन चुकी है।

लेकिन केवल ये ही पहचान के प्रतीक नहीं हैं। अतिक्रमण से घिरे, बिना बिजली-पानी, बाउण्ड्रीवालवाले सरकारी स्कूल, मोहल्ले में चल रहे, ‘अनाथ दशा’ वाले सरकारी उप-चिकित्सालय, कूड़े के भारी भरकम ढेर, गन्दगी से बजबजाते शौचालय, सड़ांध मारती नालियाँ, दुर्गन्ध के भभके मार रहे सार्वजनिक मूत्रालय, और....और.....और......। लगता है, ऐसे कितने ही ‘और’ लिखे जा सकते हैं। यह सब हममें से प्रत्येक को अपने-अपने कस्बे, शहर, नगर, महानगर का ही ब्यौरा लगता है।

यह सब देख-देख कर मन्दोदरी पर केन्द्रित यह समाचार (और ऐसा प्रत्येक समचार) और कुछ नहीं, हमारे पाषाण हृदय, सम्वेदनाहीन, बेशर्म-गैर जिम्मेदार हो जाने के प्रमाण-पत्रों, तमगों के सिवाय भला और क्या है? 

आईए! अपने-अपने घरों के अगले कमरे में इन्हें सजाएँ।  
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मुझे ही लड़नी होगी, अपनी यह लड़ाई

वे उम्र में मुझसे दो बरस बड़े, रेल्वे के सेवा निवृत्त कर्मचारी हैं। ‘तू-तड़ाक’ से ही बतियातेे हैं। मैं ‘आप’ से नीचे नहीं उतर पाया। बरसों का हमारा परिचय अनौपचारिकता में बदल गया किन्तु हम दोनों एक-दूसरे के घर नहीं गए। मैं अपने धन्धे के कारण दिन भर बाहर ही रहता हूँ। सो उनसे बाहर ही मिलना हो जाता है। वे सुबह कोई दस-साढ़े दस बजे तक भोजन कर घर से निकल जाते हैं। मिलनेवालों के घर, छापामार शैली में पहुँच कर चौंकाने में उन्हें मजा आता है। मैं पूछता हूँ-ऐसा क्यों करते हैं? जवाब मिलता है-अचानक पहुँचने से सामनेवाले को सम्हलने का मौका नहीं मिलता। उसकी असलियत मालूम हो जाती है। उनकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। मेरा अच्छा न लगना और उनका अपनी आदत न बदलना, दोनों अपनी-अपनी जगह कायम हैं।

आज वे अकस्मात मेरे घर आ गए। मैं अपने घर में बने देवस्थान पर, ‘पाठ-मुद्रा’ में सुन्दरकाण्ड पढ़ कर उठ ही रहा था। मुझे इस तरह और देवस्थान देखकर वे चौंके। अत्यधिक असहजता से, तनिक मुश्किल से बोले-यह क्या? तुमने तो चारों धाम स्थापित कर रखे हैं! कोई जवाब दिए बिना मैं अगले कमरे में आ गया। मेरे पीछे-पीछे वे भी।
उनकी असहजता और चौंकना मुझे बहुत स्वाभाविक लगा। मैंने कहा-अब कहिए। तनिक कठिनाई से बोले-तुम तो पक्के धार्मिक हो! मैंने कहा-अब तक क्या मानते थे? बोले-बातें तो तुम हमेशा हिन्दू धर्म के विरोध की करते, लिखते हो। मैं बोला-अपने जानते तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया। आपने ऐसा कैसे मान लिया? वे बोले-मैंने जब भी हिन्दू धर्म-रक्षा की और मुसलमानों, इसाइयों को मार भगाने की बात की तब तुमने हर बार विरोध किया! मैंने कहा-वो तो मैं अब भी करता हूँ और आगे भी करता रहूँगा। 

उन्हें हैरत हुई और चिढ़ भी। मैंने पूछा-आपकी उलझन, क्या है? तनिक झुंझलाकर बोले-तुम मेरी बात या तो समझ नहीं रहे या जानबूझकर समझना नहीं चाहते हो। मैंने कहा-तो आप खुल कर समझाते क्यों नहीं? वे बोले-तुम हिन्दू हो? मैंने कहा-हाँ। फिर पूछा-हिन्दू धर्म मानते हो। मैंने कहा-हाँ। वे उकता कर बोले-तो फिर हिन्दू धर्म का विरोध क्यों करते हो? दूसरेे धर्मों में जो कट्टरता, खराबियाँ हैं, उनका विरोध क्यों नहीं करते? मैंने कहा-मुझे तो अपने धर्म की ही इतनी चिन्ता बनी रहती है कि दूसरों के धर्म की ओर ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिलती। वे हैरत से बोले-क्या मतलब? मैंने कहा-सीधी बात है, मुझे दूसरों के धर्म से कोई लेना-देना नहीं। मेरा धर्म कहता है कि मैं अपने ही अन्दर झाँकूँ और अपनी आत्मा को निर्मल, निष्‍कलुष बनाऊँ। मैंने जितना भी देखा, पढ़ा, सुना और समझा उसका एक ही मतलब निकला कि मैं अपने धर्म से मतलब रखूँ, अपने धर्म का पालन करूँ, दूसरों के नहीं, अपने दोष देखूँ और आत्म परिष्कार करूँ। मैं शायद उनके मनमाफिक उत्तर नहीं दे रहा था। तनिक आवेश में बोले-तुम कैसे हिन्दू हो? घर में तो भजन-पूजन, सुन्दरकाण्ड पाठ करते हो और बाहर मुसलमानों का समर्थन! मैंने कहा-मैंने कब मुसलमानों का समर्थन किया? मैं तो धर्मोपदेश पर अमल करने की कोशिश करता हूँ। मेरा धर्म आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा का निषेध करता है। मैं तो सीधी बात कहने और सीधे रास्ते चलने की कोशिश करता हूँ। 

अब उनका धीरज छूटता लगा। बोले-तुम जैसे लोगों के कारण तो हिन्दू धर्म नष्ट हो जाएगा। हिन्दुओं के देश में हम हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे। मुसलमान हम पर राज करेंगे। हमें गुलाम बना लेंगे। मेरी हँसी चल गई। बोला-कमाल करते हैं आप! ऐसे-कैसे नष्ट हो जाएगा? अपने धर्म की शक्ति पर आपको विश्वास हो-न-हो, मुझे तो है। आप ही तो कहते हैं कि अपना धर्म सनातन है! प्रलय तक रहेगा। और रही मुसलमानों की हम पर राज करने की बात तो हम मुगलों की गुलामी झेल चुके हैं लेकिन आज भी वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। आप बेकार ही परेशान हो रहे हैं। अरे! जब मुगलों के राज में भी भारत को मुसलमान राष्ट्र नहीं बनाया जा सका तो अब क्या बनेगा? उनकी अधीरता बढ़ गई। तनिक तैश में बोले-और वो जो मुसलमानों के छोरे हमारी लड़कियों को भगा-भगा कर ले जाते हैं? उनसे शादी करने के नाम पर उन्हें मुसलमान बना देते हैं। वो? मेरी हँसी फिर चल गई। वे चिढ़ गए। उनकी चिढ़ की परवाह किए बिना मैंने कहा-ये तो राजी-बाजी के सौदे हैं भाई साहब! इन्हें धर्म से मत जोड़िए। अपनी सल्तनतें बचाने के लिए हमने तो अपनी बेटियाँ तश्तरी में रख कर मुगलों को परोसी हैं। देश के अनेक बड़े लोग अन्तरधर्मी विवाह किए बैठे हैं। धर्म का ठेका लेनेवालों की बहन-बेटियाँ मुसलमानों के घर की जीनत बनी हुई हैं तो अनेक मुसलमान महिलाएँ हिन्दुओं की वंश-बेल बढ़ा रही हैं। आपके ही एक पट्ठे की मुसलमान बीबी के बनाए पकौड़े मैंने आपके साथ खाए हैं। एक अन्तरधर्मी विवाह में मैं खुद ही एक मुसलमान लड़की का धर्म-पिता बना बैठा हूँ और बरसों से बेटी-दामाद को नेग चुकाए जा रहा हूँ। 

वे ‘निरुत्तर’ से आगे, ‘अवाक्’ की स्थिति में आ गए। थोड़ा सोच कर बोले-और वो जो धर्मान्तरण करवा रहे हैं! उसका क्या? क्या वो ऐसे ही चलने दें? मैंने कहा-किसीका जबरिया धर्मान्तरण केवल अपराध ही नहीं, आपने आप में अधार्मिक दुष्कृत्य है। धर्म प्रचार सब करें। किन्तु जबरिया धर्मान्तरण की अनुमति तो मैं नहीं देता। मैं ऐसा पाप कर्म न तो कभी करूँगा और नहीं उसमें कभी शरीक होऊँगा। वे प्रसन्न हो गए। बोले-वो तुमने रायगढ़वाले दिलीपसिंह जू देवजी का नाम तो सुना ही होगा। उन्होंने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की। इसाइयों ने हजारों हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। जूदेवजी ने ऐसे अनेक लोगों की हिन्दू धर्म में वापसी कराई। उसे तुम क्या कहोगे? मैंने कहा-यदि उन सबने दोनों ही बार अपनी इच्छा से धर्मान्तरण किया है तो किसी को भला कोई आपत्ति क्यों और कैसे हो सकती है? उनकी प्रसन्नता बढ़ गई। बोले-याने कि यह तो मानते हो कि धर्मान्तरण करवाया जा रहा है। मैंने कहा-हाँ। ऐसे छुटपुट समाचार, कभी सच्चे तो कभी झूठे आते रहते हैं। वे बोले-तो क्या चुप बैठे रहना चाहिए? मैंने कहा-बिलकुल नहीं। हमें चौबीसों घण्टे चौकन्ने और सक्रिय रहकर यह जानने की कोशिश करते रहना चाहिए कि आखिर वे क्या कारण हैं कि हमारे हिन्दू भाई दूसरे धर्म की शरण लेते हैं। जब वे कारण ही नहीं रहेंगे तो धर्मान्तरण अपने आप ही रुक जाएगा। 

वे फिर अवाक् मुद्रा में बैठ गए। मैंने कहा-भाई साहब! मैं आपको समझाऊँ तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी। लेकिन अपने धर्म की रक्षा हम दूसरों के धर्म का विरोध कर, उसे घृणित बताकर, उसके खिलाफ नफरत फैलाकर कभी नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसका धर्म उसकी जिम्मेदारी है। मैं अपनी इसी जिम्मेदारी को निभाने की कोशिश करता हूँ जिसे आप मेरा हिन्दू धर्म विरोध कहते हैं। मेरे धर्म को विकृतियों से बचाना मेरी जिम्मेदारी है। मेरे लिए मेरा धर्म दुनिया का सबसे सुन्दर धर्म है। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दूसरों के धर्म को असुन्दर या घिनौना साबित करूँ। मुझे हिन्दू और हिन्दू धर्म विरोधी माननेवाले आप जैसे लोग प्रचण्ड बहुमत में हैं और मैं अल्पसंख्यकों में अल्पसंख्यक। यह मेरी अपनी लड़ाई है जो मुझे ही लड़नी है। बोलना और लिखना ही मेरे हथियार हैं। मैं इन्हीं का उपयोग कर सकता हूँ। सो कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा।

उन्होंने दोनों हाथों से अपना माथा थाम लिया। विचारमग्न हो गए। मैंने चाय की मनुहार की। बोले-अब तो पीनी ही पड़ेगी। तुमने कुनैन जो दे दी है। 
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(शीर्षक, कुमार अम्बुज की एक कविता पंक्ति है।)

नहीं किया लेकिन कर दिया

अपनी ‘व्यवस्था’ (याने कि सरकारी तन्त्र) की माया सचमुच में अपरम्परापार है। कभी कहो तो भी काम न हो और कभी न करने की कह कर भी काम कर दे।

कोई तीस बरस हो गए होंगे इस बात को। श्री गोपाल कृष्ण सारस्वत हमारे रतलाम जिले के अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी (एडीएम) थे। वे मेरे पैतृक गाँव मनासा से बारह-तेरह किलो मीटर दूर स्थित ग्राम कुकड़ेश्वर के दामाद थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री सुन्दरलालजी पटवा का पैतृक गाँव कुकड़ेश्वर ही है। सारस्वतजी के ससुर सूरजमलजी जोशीजी मनासा में भारतीय जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। प्रायः रोज का मिलना-जुलना। यह वह जमाना था जब एक का जमाई, पूरे गाँव का जमाई। सो, मैं भी सारस्वतजी को जमाईजी या कुँवर सा’ कह कर ही सम्बोधित करता था। वे भी मुझे उतना ही मान देते थे।

इस यादगार घटना के समय विधान सभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सारस्वतजी पूरे जिले के प्रभारी थे। अचानक एक सुबह जावरा रेल्वे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर खान सा‘ब आए। उनकी बिटिया अध्यापक थी और चुनावों में उसकी ड्यूटी लग चुकी थी। खान साहब मेरे ‘ज्यामितीय मित्र’ थे - मेरे मित्रों के मित्र। उन्होंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा कि मैं उनकी बेटी की यह ड्यूटी निरस्त करवा दूँ। चुनावों को मैं ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ और उसकी ड्यूटी को ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानता हूँ। सो, मैंने हाथ जोड़ते हुए, तनिक अधिक विनीत भाव से खान सा’ब से क्षमा याचना कर ली। मैंने कहा कि उसे ड्यूटी करनी चाहिए। आखिर हर्ज ही क्या है? खान सा’ब ने कहा-’मैं भी आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ लेकिन ऐन मतदान के दिन बिटिया का निकाह तय हो गया है।’ मैंने अपना आग्रह तत्क्षण त्याग दिया और वादा कर दिया - ‘तब तो ड्यूटी निरस्त करवानी ही पड़ेगी। आप बेफिक्र होकर जाएँ। निकाह की तैयारियाँ करे। बिटिया की ड्यूटी निरस्त हो ही गई समझिए।’ 

खान साहब को भेज कर मैं फौरन ही ‘जमाईजी’ के पास पहुँचा। खान सा’ब की बिटिया की ड्यूटी वाला आदेश उनके सामने रखा और कहा - ‘यह ड्यूटी निरस्त कर दीजिए।’ सारस्वतजी ने कागज देखे बिना ही, विनम्रता से कहा - ‘नहीं करूँगा।’ मैं आसमान से जमीन पर गिरा - धड़ाम। मैं बार-बार सारस्वतजी को कहूँ, समझाऊँ और वे हैं कि मानने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं। थोड़ी देर तो मैं परिहास ही मानता रहा लेकिन खुशफहमी टूटी तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तमक कर कहा-‘मैं तो आपको एडीएम सा'ब, एडीएम सा'ब, जमाईजी, जमाईजी किए जा रहा हूँ और आप हैं कि भाव ही नहीं दे रहे। मत करो ड्यूटी केंसिल। बच्ची ड्यूटी पर नहीं जाएगी। क्या कर लोगे आप?’ सारस्वतजी ने पूरे शान्त भाव से मुस्कुराते हुए जवाब दिया - ‘कुछ नहीं करेंगे। मत भेजिए अपनी बच्ची को।’ 

मैं एक बार फिर आसमान से जमीन पर गिरा। इस बार चारों कोने चित। मैं अचकचा गया। बोल नहीं फूटे मेरे मुँह से। बौड़म की तरह उनको देखते हुए तनिक मुश्किल से बोला - ‘क्या मतलब आपका?’ इस बार मुस्कुराहट से आगे बढ़ कर सारस्वतजी तनिक हँस कर बोले - ‘मेरे कहने का मतलब यह कि रखिए अपनी बच्ची को अपने पास। मत भेजिए चुनावी ड्यूटी पर।’ सारस्वतजी ने बात तो मेरे मन की कही किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। भला ड्यूटी केंसिल हुए बिना बच्ची गैर हाजिर रही तो उसकी  नौकरी पर नहीं बन आएगी? मेरी शकल यकीनन, देखने लायक हो गई होगी। 

मेरी दशा देख सारस्वतजी इस बार खुल कर हँसे। बोले - ‘आप क्या समझते हैं कि एक मास्टरनी के दम पर चुनाव हो रहे हैं। अरे! हमने स्पेशल पोलिंग पार्टियाँ बना रखी हैं। कोई ड्यूटी पर नहीं आएगा तो क्या चुनाव का काम रुक जाएगा? अरे! भाई सा’ब। किसी न किसी को भेज दिया जाएगा।’ मैंने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘लेकिन उसकी नौकरी?’ सारस्वतजी इस बार ठहाका मार कर हँसे। बोले - ‘कुछ नहीं होगा उसकी नौकरी को। आपने पूछा था न कि हम क्या कर लेंगे? तो सुनिए! हम उसे एक कारण शो-काज नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण माँग लेंगे। वो जवाब दे देगी कि उस दिन उसका निकाह था इसलिए ड्यूटी पर नहीं आ पाई। कागज फाइल में लग जाएगा। बस। बात खतम।’ 

सब कुछ मेरे मन का हो रहा था किन्तु जिस अन्दाज में हो रहा उससे मेरी धुकधुकी बन्द नहीं हो रही थी। सारस्वतजी ने दिलासा देते हुए कहा - ‘भाई सा’ब! आप तो जेन्युइन केस लेकर आए हो। लेकिन यदि मैंने यह एक ड्यूटी केंसिल कर दी तो मेरे दफ्तर के बाहर लाइन लग जाएगी और अपात्रों की लॉटरी लग जाएगी। इसलिए आप तो  बेटी के बाप से कहिए कि ड्यूटी-व्यूटी को भूल जाए और बेटी के हाथ पीले करे।’

सारस्वतजी के कमरे से बाहर आते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सारस्वतजी को धन्यवाद दूँ या उन पर गुस्सा करूँ? उन्होंने मेरा कहा तो माना नहीं लेकिन मेरा काम कर दिया था।
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नफा एक पैसे का, हानि एक रुपये की




इन्दौर से प्रकाशित सान्ध्य दैनिक ‘प्रभात किरण’ के 14 मई के अंक में प्रकाशित इस समाचार को फेस बुक पर साझा करते हुए मैंने लिखा था कि यदि इस समाचार का हजारवाँ हिस्सा भी सच हो तो यह बड़ी निश्चिन्तता की बात है। राजनीति के ऐसे उपयोग ने मुझ ठेठ भीतर तक असहज और व्याकुल कर दिया था। इसे पढ़ते-पढ़ते मुझे कुछ बातें याद आ गईं।


पहली बात राजीव गाँधी के प्रधान मन्त्री काल की है। अटलजी की तबीयत खराब थी। बीमारी ऐसी थी कि उनका उपचार अमेरीका में ही हो सकता था और बीमार अटलजी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटा सकें। राजीव गाँधी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अटलजी को बुला कर सूचित किया कि वे (राजीव गाँधी) सरकारी स्तर पर अटलजी की अमरीका यात्रा की व्यवस्था कर रहे हैं। उन्होंने अटलजी से आग्रह किया कि वे (अटलजी) अमरीका जाएँ, निश्चिन्तिता से अपना इलाज करवाएँ और पूर्ण स्वस्थ होने के बाद ही लौटें क्योंकि अटलजी का स्वस्थ बने रहना देश के लिए जरूरी है। राजीवजी के अवचेतन में निश्चय ही यह बात रही होगी कि अटलजी इसे कहीं उन्हें बदनाम करने के लिए, उनके विरुद्ध कोई राजनीतिक षड़यन्त्र न समझें। अटलजी ने अत्यन्त भावुक होकर अपनी स्वीकृती दी। यह बात राजीव गाँधी ने कभी सार्वजनिक नहीं की। दुनिया को बताया तो खुद अटलजी ने ही बताया। 

दूसरी बात सम्भवतः पी. वी. नरसिंहराव के प्रधान मन्त्री काल की है। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले में भारत का पक्ष प्रस्तुत किया जाना था। नरसिंह राव, लगभग सात भाषाओं के ज्ञाता विद्वान व्यक्ति थे। किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण और गम्भीर मामले में उन्होंने पहले ही क्षण अटल बिहारी वाजपेयी को चुना। अटलजी ने तनिक हिचकिचाहट जताई किन्तु नरसिंह राव अपने आग्रह पर बने रहे। सारी दुनिया ने देखा कि अटलजी ने नरसिंह राव को निराश नहीं किया। उन्होंने अपना काम खूब किया और बखूबी किया। किन्तु अटलजी ने इस बात का राजनीतिक लाभ कभी नहीं लिया। और तो और चुनावी अभियान में भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया जबकि इस बात से अटलजी को और भाजपा को पर्याप्त ‘वोट-लाभ’ मिल सकता था। इस बात का जिक्र या तो किसी के पूछने पर किया या फिर तब, जब ऐसा करना अपरिहार्य हुआ।

इन दोनों मामलों में सम्बन्धित लोगों ने श्रेष्ठ आचरण करते हुए, ‘राजनीति’ (और विशेषतः ‘वोट की राजनीति’) को परे धकेलकर ‘देश’ की चिन्ता की थी।

किन्तु लगता है, नदियों में बहते पानी की गहराई भी कम होती जा रही है। ‘देश’ और ‘श्रेष्ठ आचरण’ या तो ओझल हो गए हैं या फिर उनकी अनदेखी की जाने लगी है। ‘लोकलाज’ का भय समाप्त हो गया लगता है। यह स्थिति किसी के भी लिए अच्छी नहीं है-न व्यक्ति के लिए, न समाज के लिए, न देश के लिए और राजनीतिक दलों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। क्योंकि ऐसा आचरण सदैव ‘बुमरेंग’ की तरह होता है। दुष्कर्म के फल आज नहीं तो कल, भुगतने पड़ते ही हैं।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि वर्ण/जाति व्यवस्था हमारी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा और समस्या है। यह हमारी असफलता ही है कि आजादी के लगभग सत्तर वर्ष बाद भी इससे मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुक्ति पाना तो दूर, इसे कम भी नहीं कर पा रहे हैं। दुर्भाग्यपूण यह कि इसे दूर करने के बजाय हम इसे दिन-प्रति-दिन बढ़ाते ही जा रहे हैं। जाति आधारित आरक्षण के विरोध में पूरे देश में चल रहा अघोषित अभियान इस बात का परिचायक है। इस आरक्षण को इस तरह प्रचारित और प्रस्तुत किया जा रहा है मानो देश ने, दलितों, शोषितों को उपकार भाव से यह दिया है। जबकि हम सब (इसका विरोध करनेवाले भी) भली प्रकार जानते हैं कि यह और कुछ नहीं, हजारों बरस से की जा रही हमारी क्रिया की सम्वैधानिक प्रतिक्रिया ही है। यह सचमुच में आश्चर्यजनक है कि हजारों बरसों तक, पीढ़ियों-पीढ़ियों को अधिकार से वंचित करनेवाले हम, अब अपने इन्हीं लोगों को मिल रहे अधिकार के कारण खुद को वंचित अनुभव कर क्रन्दन कर रहे हैं। हजारों बरस की क्षतिपूर्ति गिनती के कुछ बरसों में ही कर दी गई मानने लगे हैं। यदि हमें अपनी इस ‘स्वअर्जित/स्वघोषित दुर्दशा’ से मुक्ति पानी है तो उपचार हमें ही करने होंगे। यह उपचार करने से जब ‘लोक’ आँखें चुराने लगता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे सम्विधान ने यह जिम्मेदारी राज्य को सौंपी। मेरी दृढ़ धारणा है कि ‘समरसता स्नान’ (जिसे अब ‘कथित समरसता स्नान’ कहना पड़ेगा) की अवधारण के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने दलितों, वंचितों, शोषितों को सामाजिक स्तर पर अलग होने का अहसास कराया और ‘अतिरिक्त, अघोषित फलित’ के रूप में, नफरत भरे अभियान को बढ़ावा ही दिया।   

‘राज्य’ अशरीर है। संसदीय लोकतन्त्र में वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा चयनित व्यक्ति (या व्यक्तियों) के जरिए ही बोलता है। यही व्यक्ति हमारा मुखिया होता है। निश्चय ही वह किसी एक राजनीतिक दल से चुनकर आता है किन्तु वह केवल अपने दल (और अपने दल के समर्थकों) का ही मुखिया नहीं होता। समूचे राज्य का होता है। उन लोगों का भी, जो उसे पसन्द नहीं करते और जो उसमें विश्वास नहीं करते। और मुखिया का आचरण कैसा होना चाहिए - यह किसी को बताने की जरूरत नहीं। तुलसीदासजी दो पंक्तियों में मुखिया का व्यक्तित्व, चरित्र और कर्तव्याधारित आचरण बता गए हैं -

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान में एक।
पाले, पोसे सकल जग, तुलसी सहित विवेक।।

ऐसे में जब कोई मुखिया या उसके प्रभावी संगी-साथी, सत्ता या वोट की खातिर इस ‘मुखियापन’ के सर्वथा प्रतिकूल आचरण करें तो किसी का कल्याण नहीं हो सकता। तब यह ‘एक पैसे के लाभ के लिए बरती गई ऐसी बुद्धिमानी होती है जो अन्ततः एक रुपये का नुकसान करने की मूर्खता’ ही होती है।

मुझे ‘समरसता स्नान’ ऐसा ही, ‘एक रुपये का नुकसान’ अनुभव हुआ। जाति आधारित आरक्षण के कारण परस्पर प्रेम और सौहार्द्र भाव पल-पल कम होता जा रहा है। नफरत खुल कर खेल रही है। खेदजनक यह है कि जिन पर इसे नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी है, वे ही, अपने आचरण से इसे बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं। वे कहते कुछ और हैं और कर रहे कुछ और। निश्चय ही ‘सत्ता’ महत्वपूर्ण है। किन्तु किस कीमत पर? नफरत के साथ कोई कैसे और कब तक जी सकता है? 

इसमें सुखद बात यह रही कि कुछ साधु-सन्तों-महन्तों ने इस समरसता स्नान पर असहमति और आपत्ति जताई जिससे विवश होकर इसका नया नाकरण करना पड़ा। किन्तु तब तक, जो नुकसान होना था, वह हो चुका था। उधर ‘सीकरी’ के मोह से बच पाना ‘सन्तन’ के लिए भी असम्भव नहीं तो दुसाध्य तो होता ही है। ऐसा ही हुआ भी। नए नामकरण के बहाने वे इसमें शामिल हुए। लेकिन ‘सीकरी’ अपना चरित्र नहीं बदलती। समूचा उपक्रम पूरा होने पर इन साधुओं-सन्तों-महन्तों ने खुद को ठगा हुआ और अपमानित अनुभव किया। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरिजी तो इतने व्यथित हुए कि उन्होंने अपने आचरण के लिए उन तमाम साधुओं-सन्तों से माफी माँगी जो उनके (नरेन्द्र गिरिजी के) कहने पर इस उपक्रम में शरीक हुए थे। आश्चर्य इस बात का है कि वे, सन्त कुम्भनदास के ‘सन्तन को कहाँ, सीकरी से काम/आवत-जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसर गयो हरि नाम’ वाली बात कैसे भूल गए!

सामाजिक विभेद दूर करना, सबकी समान रूप से देख-भाल और रक्षा करना ‘राज्य’ की जिम्मेदारी है। इसमें मुखिया की विफलता, पूरे देश की विफलता होती है। ‘सब सम्पन्न रहें’ के प्रयत्नों में आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता हो सकती है। किन्तु ‘सब प्रेमपूर्वक, परस्पर निर्भय होकर रहें’ इसमें केवल सदाशयता भरे सदाचरण की ही आवश्यकता होती है। हमें याद रखना चाहिए कि अब हम ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनानेवाले अंग्रेजों के दास नहीं हैं।

मैं अत्यधिक व्यथित भाव से कह रहा हूँ कि ‘समरसता स्नान’ की अवधारणा के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने जाति/वर्ण व्यवस्था को प्रोत्साहित ही किया। इससे बचा जाना चाहिए था। ‘वोट’ यदि ‘देश’ से बड़ा हो जाएगा तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।

हमें यदि जातिगत आरक्षण से मुक्ति पाना है तो उसकी एक ही शर्त होगी कि हम जाति/वर्णविहीन समाज बनाएँ। जातियों/वर्णों के आधार पर विभाजन करनेवाला कोई भी कदम हममें से किसी के भी लिए, कभी भी कल्याणकारी नहीं होगा।
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जल्दी याने जल्दी नहीं

यह आपबीती मुझे आज, 12 मई को मन्दसौर के एक ठेकेदार ने सुनाई।

मध्य प्रदेश सरकार ने अपना एक काम अपने एक उपक्रम से कराने का फैसला किया। याने कि सरकारी भाषा में उस उपक्रम को, ‘नोडल एजेन्सी’ बनाया।

काम कराने के लिए इस नोडल एजेन्सी ने दिसम्बर 2014 में निविदा निकाली। इस काम के अनुभवी, प्रदेश के कुछ ठेकेदारों ने अपने-अपने भाव प्रस्तुत किए। सबसे कम भाव होने के कारण मन्दसौर के इस ठेकेदार को ठेका मिला। शर्तों के मुताबिक इस ठेकेदार ने, निविदा की शर्तें पूरी करते हुए, जनवरी 2015 में 8,00,000/- रुपये अमानत राशि के रूप में जमा कराए। लेकिन उसके नाम पर कार्यादेश (वर्क आर्डर) जारी होता उसके पहले अचानक ही सरकार ने नोडल एजेन्सी बदल दी।

नई निविदा में किसी और ठेकेदार को काम मिल गया। मन्दसौर के इस ठेकेदार ने मार्च 2015 में, विधिवत आवेदन प्रस्तुत कर अपनी, अमानत की रकम माँगी।

ठेकेदार जानता था कि सरकार आसानी से रकम वापस नहीं करती। सो, आवेदन देकर प्रतीक्षा करने लगा। ‘सामान्य प्रतीक्षा अवधि’ निकल जाने पर ठेकेदार ने सम्बन्धित कार्यालय से फोन पर सम्पर्क किया। जवाब मिला-‘रकम जल्दी ही वापस कर रहे हैं।’ लेकिन इस ‘जल्दी’ को ‘बहुत जल्दी’ (शायद फोन पर जवाब देने के अगले ही क्षण) भुला दिया गया। ठेकेदार यह जानता था। सो, हर महीना-पन्द्रह दिन में फोन करता रहा। लेकिन पूरा एक साल बीत जाने के बाद भी वह ‘जल्दी’ किसी को याद नहीं आई। 

हारकर ठेकेदार ने मार्च 2016 में पंजीकृत पत्र भेज कर अपनी रकम माँगी। जवाब आया तो जरूर लेकिन कागज पर नहीं। फोन पर कहा गया कि (प्रक्रिया के अधीन) स्टाम्प पेपर पर रकम की अग्रिम पावती (एडवांस रसीद) भेजें। ठेकेदार ने अगले ही दिन अग्रिम पावती भेज दी। लेकिन भरपूर समय निकल जाने के बाद भी कोई खबर नहीं मिली। ठेकेदार ने फोन किया। जवाब मिला - ‘पावती तो मिल गई किन्तु वह एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर होनी थी।’ ठेकेदार ने याद दिलाया कि निविदा के समय पचास रुपयों के स्टाम्प पेपर पर ही पावती दी जाती थी। जवाब मिला - ‘तब की बात तब गई। आज की बात करो।’ अप्रेल 2016 में ठेकेदार ने एक सौ रुपयों के स्टाम्प पेपर पर पावती भेज दी।

लेकिन कोई महीना भर बाद भी न तो रकम मिली और न ही कोई खबर तो ठेकेदार ने आज फोन किया। जवाब मिला - ‘बहुत जल्दी पड़ी है आपको! चलो! खुश हो जाओ। आपको रकम लौटाने के आदेश पर आज साहब के दस्तखत हो गए हैं। जल्दी ही आपको आपकी रकम मिल जाएगी।’

जवाब में यह ‘जल्दी’ सुनकर खुश होने के बजाय ठेकेदार चिन्तित हो गया है। इस कार्यालय का, उसका अनुभव कह रहा है - ‘जल्दी’ का मतलब है, कम से कम एक साल बाद।
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लोकतन्त्र और शैक्षणिक योग्यता

एक हुआ करते थे तामोटजी। पूरा नाम गुलाब चन्द तामोट। खाँटी समाजवादी थे। सरकार में रहकर समाजवादी व्यवस्था लाने के लक्ष्य से, जब देश के समाजवादियों के एक बड़े धड़े ने काँग्रेस प्रवेश किया, उसी दौर में तामोटजी काँग्रेस में शामिल हुए थे। काँग्रेस में आए जरूर थे लेकिन उनका ‘चाल-चरित्र-चेहरा’ बराबर समाजवादी ही बना रहा। द्वारिकाप्रसादजी मिश्र ने उन्हें केबिनेट मन्त्री का दर्जा देकर अपनेे मन्त्रि मण्डल में शामिल किया था। वे चौथी कक्षा तक ही पढ़े थे। अपनी यह ‘शैक्षणिक योग्यता’ वे भरी सभा में खुलकर बताते थे और परिहास करते हुए, लोगों से कहते थे - ‘अपने बच्चे को अफसर-बाबू बनाना हो तो खूब पढ़ाओ और मन्त्री बनाना हो तो चौथी से आगे मत पढ़ाओ।’ किन्तु अपने अल्प शिक्षित होने को लेकर क्षणांश को भी हीनता-बोध से प्रभावित नहीं रहे। प्रशासकीय कौशल, चीजों को समझने और अपनी जिम्मेदारियों को क्षमतापूर्वक तथा सफलतापूर्वक निभाने में तामोटजी की यह ‘अल्प शिक्षा’ कभी बाधक नहीं हुई। वे आजीवन एक लोकप्रिय और कामयाब जन नेता के रूप में ही पहचाने गए।

मेरे पैतृक कस्बे मनासा में, हमारे मोहल्ले में एक थे - मोड़ीराम पुरबिया। वे हम सब के ‘मोड़ू काका’ थे। मेरे पिताजी के परम मित्र थे। दिन में कम से कम दो बार मेरे पिताजी से मिलना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था। यदि वे नहीं आते तो दो में से कोई एक ही कारण होता - या तो मनासा से बाहर हैं या फिर बीमार। हमारे ये ‘मोड़ू काका’ निरक्षर थे। अंगूठा छाप। कभी स्कूल की ओर मुँह नहीं किया। किन्तु बुद्धि, ज्ञान, प्रतिभा, दूरदर्शिता और ‘नीर-क्षीर विवेक’ के मानवाकार थे। अनुभवी और इतने परिपक्व कि सतह से नीचे की चीजों को पहली ही नजर में भाँप लेते। अपनी जाति की पंचायत में तो सदैव अग्रणी रहे ही, अपनी इसी ‘नीर-क्षीर विवेक’ छवि के कारण गैर जाति की पंचायतों में भी आदर पाते थे। उन्होंने अपनी निरक्षरता को कभी नहीं छुपाया और न ही इस कारण कभी खुद को कमतर माना।

भारतीय जीवन बीमा निगम में एक अधिकारी हैं - राकेश कुमारजी। दो-एक बरस पहले तक भोपाल (क्षेत्रीय प्रबन्धक) कार्यालय में) क्षेत्रीय विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) थे। अब तक क्षेत्रीय प्रबन्धक (झोनल मैनेजर) या तो बन चुके होंगे या बनने के रास्ते में होंगे। भोपाल से दिल्ली स्थानान्तरित हुए तो उन्होंने अपने अधूरे कामों को पूरा करने के क्रम में सबसे पहले एमबीए किया। यह उपाधि प्राप्त करते समय वे अपनी आयु के 52वें वर्ष में थे। इस उपाधि के न होने से उनकी नौकरी में कोई बाधा नहीं थी और यह उपाधि प्राप्त करने के बाद न ही उनकी पदोन्नति में कोई सहायता मिलेगी। उनकी नौकरी जैसी चलनी है, चलती रहेगी। ये ही तर्क देकर मैंने उनसे (नौकरी के सन्दर्भ में) पूछा कि इस उम्र में अब इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा कि नौकरी के लिए नहीं, खुद को समृद्ध करने के लिए उन्होंने यह किया।

मैं द्वितीय श्रेणी में कला स्नातक हूँ और मेरी उत्तमार्द्ध प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधिधारी हैं। किन्तु शैक्षणिक योग्यताओं के इस अन्तर ने हमारे जीवन में क्षणांश को भी (जी। सचमुच में क्षणांश को भी) हस्तक्षेप नहीं किया। मुझसे अधिक शिक्षित मेरी उत्तमार्द्ध, हमारे विवाह के पहले दिन से लेकर इस क्षण तक मुझे दुनिया का सबसे शानदार, सबसे सुन्दर, सबसे अधिक स्मार्ट आदमी मानती हैं और आदर्श भारतीय गृहिणी की ‘पहले आप’ की परम्परा का निर्वाह किए जा रही हैं। हाँ! इसी परम्परा निर्वहन के अधीन वे मुझे दुनिया का सबसे नासमझ और गैर जिम्मेदार आदमी भी मानती हैं और ‘ये तो मैं हूँ जो निभा रही हूँ। कोई और होती अब तक, कभी का छोड़ कर चली जाती।’ वाला, समस्त भारतीय गृहिणियों का स्थायी सम्वाद, अपनी सुविधानुसार मुझे सुनाती रहती हैं। समझदारी और जिम्मेदारी वाले मामलों में मेरी बोलती बन्द हो जाती है किन्तु अपेक्षया कम शिक्षित होने के कारण हीनता बोध से कभी ग्रस्त नहीं हुआ और खुद को यथेष्ठ प्रगतिशील और पुरुष-नारी समता का नारा बुलन्द करते हुए अपने ‘पतिपन’ का उपयोग किए जा रहा हूँ। 

मेरे कस्बे रतलाम में एक डॉक्टर दम्पति हैं - डॉ. जयन्त सुभेदार और डॉ. पूर्णिमा सुभेदार। उम्र में मुझसे छोटे हैं किन्तु मुझ पर अत्यन्त कृपालु औ उदार। 21 नवम्बर 1987 को उन्होंने अपना दवाखाना शुरु किया। उद्घाटन हेतु प्रख्यात डॉक्टर (अब स्वर्गीय) डी. आर. सोनार (पूरा नाम दीनानाथ रामचन्द्र सोनार) आमन्त्रित थे। कार्यक्रम का संचालन मेरे जिम्मे था। मुझे बताया गया कि वे, बिड़लाजी (घनश्याम दासजी बिड़ला) के निजी चिकित्सक हैं। यह वह समय था जब देश में औद्योगिक घरानों की गिनती ‘टाटा-बिड़ला-डालमिया’ से शुरु होती और इन्हीं पर समाप्त हो जाती थी। कार्यक्रम समाप्ति के बाद भोजन के दौरान मैंने उनसे बिड़लाजी के निजी जीवन के बारे में जानना चाहा। उन्होंने कई बातें बताईं किन्तु एक बात ने मुझे रोमांचित किया। बिड़लाजी को अन्तरंग हलकों में ‘बाबू’ सम्बोधित किया जाता था। सोनारजी ने वह बात कुछ इस तरह सुनाई - गर्मी, सर्दी, बरसात, कोई भी मौसम हो, बाबू सोते समय अपने कमरे की खिड़कियाँ खोलकर रखते थे। यह उनकी सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकता था। मैंने उन्हें, ऐसा न करने के लिए बार-बार कहा लेकिन उन्होंने हर बार मेरी बात अनसुनी कर दी। एक दिन मैं अपनी बात पर लगभग अड़ ही गया। बाबू बोले - ‘डॉक्टर तुम्हारी बात पहली ही बार मेरी समझ में आ गई थी। मैंने तुम्हारी बात पर कभी भी न तो हाँ किया न ना। लेकिन आज तुम जिद कर रहे हो तो सुनो। सारी दुनिया जानती है कि घनश्यामदास की पत्नी अब दुनिया में नहीं है। रात दो बजे मैं पेशाब करने उठूँ, बत्ती जलाऊँ तो सारी दुनिया देखती है कि रात दो बजे घनश्यामदास के कमरे की बत्ती जली। पचास सवाल खड़े हो जाएँगे। खिड़कियाँ खुली रखने से ऐसे सवाल पैदा ही नहीं हो सकते। 

प्रधान मन्त्री मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर देश-दुनिया के चाय के प्याले में आया तूफान चौंकाता है। इस देश ने एक ओर अनेक पढ़े-लिखे अज्ञानियों को स्वीकार कर, पदासीन किया और अपनी चूक समझ पड़ने पर प्रतीक्षा की और समय आने पर अपनी चूक का परिष्कार कर उनसे मुक्ति पाई तो दूसरी ओर अशिक्षित/अल्प शिक्षित गुणियों को माथे का मौर बनाया। उन्हें सराहा और अपने चयन को दुहराया। हम जिस लोकतन्त्र में जी रहे हैं उसमें सबका समावेश है। किसी को योग्यता के आधार पर पदांकन मिलता है तो कोई पदासीन होने के बाद अपनी योग्यता/अयोग्यता प्रमाणित करता है। पदासीन व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यता  पर उसकी, लोकतन्त्र-संचालन की क्षमता, योग्यता और आचरण सदैव भारी पड़ता है। पद पर पद के योग्य आदमी है या अयोग्य को बैठा दिया है? बड़ी कुर्सी पर बड़ा आदमी बैठा है या बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी बैठ गया है? बड़े आदमी ने बड़ी कुर्सी पर बैठकर कुर्सी को छोटा तो नहीं कर दिया? बड़ी कुर्सी पर छोटा आदमी तो नहीं बैठ गया? बैठ गया तो कोई बात नहीं, कुर्सी को छोटा नहीं कर दिया?

हम सबकी इच्छा होती है कि सारी दुनिया हमें देखे और सम्भव हो तो केवल हमें ही देखे। किन्तु व्यक्ति जब शिखर पर होता है तो सारी दुनिया को नजर तो आता है, तब उसका एकान्त भी बढ़ता जाता है। शिखर पर जाना जितना मुश्किल होता है, वहाँ बने रहना उससे कम मुश्किल नहीं होता। प्राण दाँव पर लग जाते हैं क्योंकि प्राण-वायु (ऑक्सीजन) भी कम होने लगती है। शिखरस्थ होने पर आप चूँकि सारी दुनिया की नजरों में आते हैं तो इसकी कीमत भी चुकानी ही पड़ती है। तब आपका निजत्व समाप्त हो जाता है और आपकी हर बात, हर साँस, हर हरकत सार्वजनिक हो जाती है और यह तो हम सब जानते हैं कि सार्वजनिकता और पारदर्शिता एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। 

सिक्का बाजार में चलता रहे, इसके लिए दोनों पहलुओं का चमकदार बने रहना अनिवार्य शर्त होता है। मुझे लगता है, मोदी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर मचा घमासान इन दोनों पहलुओं के चमकदार होने की सत्यता जानने की जिज्ञासा के सिवाय और कुछ नहीं है।
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ ने यह आलेख आज, 11 मई 2016 को अपने पाँचवें पृष्ठ पर छापा है।)

‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित'

इन दिनों फेस बुक पर मेरी खूब पिटाई हो रही है। कारण है - जातिगत आरक्षण को लेकर की जा रही मेरी प्रस्तुतियाँ। देश भर में, देहातों में, जातिगत कारणों से अछूतों, अस्पृश्यों पर सवर्णों, अगड़ों द्वारा प्रायः प्रतिदिन ही किए जा रहे अत्याचारों को लेकर छपनेवाले, समाचारों की कतरनें मैं इन दिनों फेस बुक पर, ‘जातिगत आरक्षण का विरोध करनेवालों को सस्नेह अर्पित’ लिख कर लगा रहा हूँ। आरक्षण के समर्थक तो प्रायः ‘लाइक’ तक ही सीमित रहते हैं किन्तु विरोधियों की तिलमिलाहट शब्दों में आ ही जाती है। प्रायः सबके सब इसे केवल और केवल मोदी-विरोध मानते हैं और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की भूमिका और मुद्रा में पूछते हैं-‘यह सब दो सालों में ही हो रहा है? इसके पहले साठ सालों तक कुछ नहीं होता था?’ मेरी हँसी चल जाती है। मुझे ‘मूर्ख मित्र से समझदार दुश्मन बेहतर’ वाली कहावत याद आ जाती है। मैं पूछता हूँ-‘मैंने ऐसा कहा? मेरे लिखे को पूरे ध्यान से फिर पढ़ें और बताएँ-मैंने ऐसा कहा? यदि नहीं तो जाहिर है कि आप अपना अपराध-बोध ही उजागर कर रहे हैं।’ इसके बाद कोई जवाब नहीं आता।

लेकिन बात केवल परिहास की नहीं है। इसे परिहास में उड़ा देना या सिरे से खारिज कर देना अत्यधिक घातक है। अन्ध समर्थक और अन्ध विरोधी समान रूप से घातक हैं। हमें तथ्यों और वास्तविकताओं से सामना करना पड़ेगा।

मैं आरक्षण का समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यह आधी बात है। इसके विरोध में जाने से पहले मुझे अपनी जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। यह जिम्मेदारी है-जिस समाज में मैं बैठा हूँ वह ऐसा बने कि किसी को आरक्षण की आवश्यकता ही न हो। यह जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाए बिना आरक्षण का विरोध करना याने जंगल के कानून का समर्थन करना। 

जाति प्रथा हमारा बहुत ही कुरूप और कड़वा सच है। यह अमानवीय और ईश्वर विरोधी कुप्रथा हमने ही बनाई है। मेरी पृष्ठभूमि देहाती है। मैंने देखा है कि जाति के कारण अनगिनत बच्चे स्कूल तक भी नहीं पहुँच पाते। पहुँच भी गए तो उपेक्षा, अवमानना, व्यंग्योक्तियों के दंश सहते हैं। रोटी-पानी से भी दूर रखा जाता है। कई बार शिक्षक भी इस सबमें कभी सक्रियता से तो कभी चुप रहकर शामिल हो जाते हैं। वातावरण और स्थितियाँ ऐसी बना दी जाती हैं कि छोटी जातियों के बच्चे खुद ही स्कूल आना बन्द कर दें। ऐसे कुत्सित प्रयासों से अनेक प्रतिभावान बच्चों से देश वंचित हो जाता है। जाति और वर्ण व्यवस्था के चलते इस देश ने वह दौर भी देखा है जिसमें शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करना तो दूर रहा, शिक्षा के स्वरों से भी वंचित रखा गया था और उनके कानों में वेद वाक्यों के स्थान पर गरम-गरम सीसा उँडेल देने के निर्देश दिए गए थे। हजारों बरसों से चल रही इस व्यवस्था पर आजादी के बाद रोक तो लगी किन्तु स्थितियाँ ऐसी नहीं हो पाई कि निश्चिन्त या सन्तुष्ट हुआ जाए। देहातों में तो यह सब अभी भी प्रचुरता से प्रभावी है। इन्हीं कारणों से हमारे सम्विधान निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण का प्रावधान किया था। उन्होंने हम पर भरोसा किया था कि हम उनकी भावनाओं को समझ कर पन्द्रह बरसों में जातिविहीन समाज बना देंगे। किन्तु हम अपनी भूमिका निभाने में न केवल असफल हुए बल्कि जातिवाद को बनाए रखने में और अधिक तेजी से जुट गए। जाहिर है, जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी तब तक जाति आधारित आरक्षण भी बना रहेगा। इसलिए, जातिगत आरक्षण समाप्त करने की माँग तब ही की जा सकेगी जब जाति प्रथा समाप्त हो जाए।

यहीं से समाज की जिम्मेदारी शुरु होती है। खास कर उन लोगों की जो जातिगत आरक्षण समाप्त करने में प्राण-पण से जुटे हैं। वे चाहें, न चाहें, उन्हें यह जिम्मेदारी निभानी ही पड़ेगी। जब समाज यह जिम्मेदारी निभाने में असफल हो जाता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी लेनी पड़ती है। 

ऐसी जिम्मेदारी सफलतापूर्वक निभाने के अनेक उदाहरण हमें हमारे आसपास ही मिल जाएँगे। अधिक जाने-माने नामवाला उदाहरण है बड़ौदा के राजा सयाजीराव गायकवाड़। जिस जमाने में अस्पृश्यों की छाया से भी दूर रहा जाता था उस जमाने में उन्होंने ऐसे अस्पृश्यों को न केवल बराबरी की जगह दी बल्कि उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित, संरक्षित भी किया। स्त्री शिक्षा का अलख जगाने में ‘हरावल’ बने, महाराष्ट्र के ज्योति फुले आज किसी पहचान के मोहताज नहीं। छोटी जातियों के प्रति व्याप्त सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयासों पर झेले गए उनके प्रतिरोध को सम्मानित करते हुए सयाजीराव ने ही उन्हें ‘महात्मा’ कह कर सम्बोधित किया और ज्योतिबा फुले के मरणोपरान्त उनकी पत्नी और बेटे के लिए बड़ौदा राज्य से आर्थिक सहायता की व्यवस्था की। महर्षि शिन्दे के नाम से ख्यात हुए श्री विट्ठलराव शिन्दे को मेनचेस्टर (इंगलैण्ड) में उच्च शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति दी। आज अम्बेडकर के नाम का डंका बज रहा है। लेकिन यदि सयाजीराव गायकवाड़ नहीं हुए होते तो दुनिया को अम्बेडकर शायद ही मिले होते। डॉक्टरेट हेतु प्रस्तुत उनका शोध-पत्र जब ‘द इवोल्यूशन ऑफ प्राविंशियल फायनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ तो अम्बेडकर ने वह सयाजीराव को ही अर्पित किया। अम्बेडकर आजीवन खुद को सयाजीराव का ऋणी मानते रहे। 19 मार्च 1918 को मुम्बई में हुई, ‘आल इण्डिया कौंसिल ऑफ? फॉर रेमेडी ऑफ अनटचेबिलीटी’ की अध्यक्षता करते हुए इन्हीं सयाजीराव ने कहा था - ‘अस्पृश्यता ईश्वर ने नहीं बनाई। यह तो अज्ञान और जातिगत अहम् से ग्रस्त मनुष्य ने ही बनाई है।’ 

सामाजिक स्तर पर अपनी जिम्मेदारी निभानेवालों में अपने आसपास मुझे, स्वाधीनता सेनानी माणक भाई अग्रवाल नजर आते हैं। मन्दसौर जिले के (अनुसूचित जातियों हेतु आरक्षित) सुवासरा विधान सभा क्षेत्र से दो बार विधायक रहे श्री रामगोपाल भारतीय को माणक भाई ने ही ‘पोषित और विकसित’ किया। यदि माणक भाई नहीं होते तो भारतीयजी भी यह मुकाम शायद ही हासिल कर पाते।

कोई प्रतिभावान है या नहीं यह तब ही तय किया जा सकता है जब सबको समान अवसर, समान वातावरण, समान स्थितियाँ और समान जीवन स्तर मिले। यह सब न मिलने के बाद भी कुछ लोग अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति और संकल्प-शक्ति के बूते, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, आलोचकों की आँखों में अंगुलियाँ गड़ाकर अपनी उपस्थिति जता देते हैं। ऐसे लोगों में मुझे डॉक्टर अशोक कुमार भार्गव सदैव याद आते हैं। वे आरक्षित वर्ग से रहे किन्तु उन्होंने सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रुप में, 1986 की राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षा के सफल उम्मीदवारों की सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। ऐसा पहली बार (और अब तक आखिर बार भी) हुआ कि आरक्षित वर्ग के किसी उम्मीदवार ने, सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के रूप में शामिल हो कर सम्पूर्ण सूची में पहला स्थान पाया। इस उल्लेख सहित तत्कालीन मुख्य मन्त्री श्री मोतीलाल वोरा ने उन्हें विशेष रूप से सराहना-पत्र प्रदान किया। ऐसा सराहना-पत्र न उससे पहले किसी को मिला न अब तक किसी को मिल पाया। डॉक्टर भार्गव आज भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के सदस्य हैं और भोपाल में ही, अपर सचिव के पद पर पदस्थ हैं। 

जातिगत आरक्षण में विसंगतियाँ हो सकती हैं। इस व्यवस्था में समयानुसार बदलाव आवश्यक अनुभव किया जा सकता है। किन्तु हमें यह याद रखना पड़ेगा कि जातिगत आरक्षण उपलब्ध करवा कर हम अपनी गलतियाँ ही सुधार रहे हैं। यदि पूर्वजों का गौरव हमारा भी गौरव है तो पूर्वजों की गलतियाँ, हमारी भी गलतियाँ हैं। दादा के रोपे आम के पौधे के फल यदि पोता खाता है तो दादा की चूकों का परिष्कार भी पोते को ही करना पड़ेगा। हमें यदि आज लग रहा है कि जातिगत आरक्षण से हमें अवसरों से वंचित किया जा रहा है तो हमें यह याद करना पड़ेगा कि हमारे पूर्वजों ने कितने हजार बरसों तक, समाज के कितने बड़े वर्ग के लोगों की कितनी पीढ़ियों को अवसरों से वंचित किया है।

लिहाजा, मैं खुद भी किसी भी प्रकार के आरक्षण का समर्थक न होकर भी जातिगत आरक्षण का विरोध नहीं कर पाता। यह आरक्षण, वृक्ष की फुनगियों की तरह जरूर नजर आ रहा है किन्तु फुनगियों की छँटाई समस्या का निदान नहीं है। जड़ें काटे बिना हमारा उद्धार नहीं।
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(मेरी यह पोस्‍ट आज ही, भोपाल से प्रकाशित दैनिक 'सुबह सवेरे' में प्रकाशित हुई है।)

सिंहस्थ से भयभीत


एक से पन्द्रह मई के बीच, दो दिनों के लिए उज्जैन जाना है लेकिन घबराहट अभी से बनी हुई है। नहीं। न तो सिंहस्थ का पुण्य-लाभ लेना है न ही महाकाल दर्शन का या अन्य किसी साधु-महात्मा के दर्शनों का। एक प्रियात्मा की भावनाओं के अधीन जाना (ही) है। किन्तु अखबारों की सुर्खियाँ और उज्जैनी मित्रों/परिचितों से मिल रही सूचनाएँ विकर्षित और हतोत्साहित कर रही हैं। सुन-सुन कर पहला निष्कर्ष निकल रहा है कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए बरती जानेवाली अत्यधिक और अतिरिक्त सतर्कता के कारण ही अव्यवस्था हो रही है। दूसरा निष्कर्ष निकल रहा है - व्यवस्थाओं के नाम पर सिंहस्थ को ‘हाई-टेक’ बनाने के चक्कर में व्यवस्थाओं के घुटने टिक रहे हैं। 

मेरे एक उज्जैनी मित्र के लिए यह पाँचवाँ सिंहस्थ है। वे व्यवस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं। उनका कहना है कि अन्तिम निर्णय लेने के लिए जिन अधिकारियों को कमान थमा दी गई है उनमें से शायद ही कोई उज्जैन को और सिंहस्थ के मिजाज को जानता-समझता है। सफलता का साफा बँधाने के लिए (और नौकरी में आगे तरक्की सुनिश्चित करने के लिए) नेताओं ने अपनेवालों को आगे कर दिया है जो ‘राजकीय संरक्षण और सुरक्षा से उपजे अतिरिक्त आत्म-विश्वास’ के चलते, पुराने और सिंहस्थ के अनुभवी लोगों की नहीं सुन रहे हैं। हर बात को ‘पहले जो ठीक और कामयाब था, जरूरी नहीं कि आज भी ठीक और कामयाब हो’ कह कर सब ‘मेनेजमेण्ट के अपने-अपने फण्डे’ आजमा रहे हैं। पहले शाही स्नान वाले दिन इसी कारण ‘सब कुछ होते हुए भी सब कुछ ध्वस्त हो जाने’ के पीछे भी यही मनमानी रही। मेरे एक और परिचित, इन्दौर निवासी एक प्रशासकीय अधिकारी का यह दूसरा सिंहस्थ है। उनका भी यही कहना है कि सिंहस्थ से अनजान अधिकारी, सिंहस्थ के जानकार अधिकारियों को हँसी में खारिज कर रहे हैं और मुख्यमन्त्री की भद पिटवा रहे हैं। उनका भी यही कहना है-‘छप्पन व्यंजन तैयार रखे हैं और लोग भूखे जा रहे हैं।’

यातायात व्यवस्था को लेकर डरावनी खबरें सर्वाधिक आ रही हैं। हर कोई कह रहा है कि पाँच-सात किलो मीटर तो चलना ही पड़ेगा। हम दोनों पति-पत्नी उम्र से भले ही आँखें चुरा लें लेकिन अपने थुलथुलपन से कैसे इंकार करें? इस कारण भी घबराहट हो रही है। ऐसे में कोढ़ में खाज की तरह, मेरे प्रिय मित्र, ‘उज्जैनी’ भाई अनिल देशमुख की इस पोस्ट ने अभी से नींद हराम कर दी है। शाही स्नान के दो दिनों बाद, 24 अप्रेल की उनकी यह फेस बुक पोस्ट पढ़कर आप भी हमारे डर को वाजिब ही कहेगें -

”उज्जैन में सिंहस्थ को ले कर अनावश्यक बैरिकेटस इतने लगा दिए गए हैं कि बिना बात लोगों को परेशान होना पड़ रहा है। जो पुल और चौड़ी सड़कें सिंहस्थ के लिए विशेष रूप से बनी हैं, उन पर ही बैरिकेट लगा कर जाने नहीं दे रहे और लोगों को सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट किया दिया जा रहा है। इससे बिना बात जाम की स्थिति बन रही है। 

कल मैं मेरी पत्नी के साथ, अपने दुपहिया से रामघाट जाने के लिए हरिफाटक ब्रिज पर बने, हरसिद्धि को ओर जाने वाले नए पुल पर पहुँचा तो पुलिस ने जाने नहीं दिया। शाम साढ़े आठ का वक्त था और ट्रैफिक बिलकुल नहीं था। काफी देर वहाँ खड़े रहने पर जब कहा कि यह पुल तो बनाया ही इसलिए गया है कि लोग  महाकाल क्षेत्र के सँकरे मार्ग के बजाय सीधे हरसिद्धि जा सकें। अभी जरा भी ट्रैफिक नहीं है। आप क्यों रोक रहे हैं? तब एक पुलिस वाले ने हमें जाने दिया। पर पुल उतरते ही वहाँ बैरिकेट लगा कर 10-15 पुलिसवाले खड़े थे जो किसी को भी नहीं जाने दे रहे थे जबकि पूरी सड़क खाली थी। उन्होंने लोगों को जयसिंहपुरा की और डाइवर्ट कर दिया। याने चौड़ी और नई सड़क के बजाय बेहद सँकरे, पुराने रास्ते पर, जहाँ आगे चौराहे पर अच्छा-खासा जाम लग गया। जैसे-तैसे आगे बढ़े तो नरसिंह घाट से तीन किलो मीटर पहले फिर बैरिकेट्स लगे हुए थे। वहाँ दुपहिया वाहनों की पार्किंग व्यवस्था भी नहीं थी और पुलिस भी बड़ी अभद्रता से पेश आ रही थी। यह रात साढ़े नौ बजे का समय था और मेला क्षेत्र बिलकुल खाली पड़ा था। पार्किंग न होने से कई लोगों ने फुटपाथ पर अपने दुपहिया वाहन चढ़ा रखे थे। मुझे भी वहाँ से आधा किलो मीटर आगे जा कर अपना वाहन खड़ा करना पड़ा जहाँ चाय की दुकाने थीं। पर वाहन सुरक्षा की चिन्ता बराबर बनी रही। 

न तो शाही स्नान का दिन और न ही ट्राफिक का दबाव, न किसी ई-रिक्शा को जाने दे रहे न किसी ऑटो रिक्शा को। फिर भी जाम की स्थिति यदि बन रही है तो वह बिना बात ट्रैफिक-फ्लो को बार-बार अवरुद्ध करने और वाहनों को चौड़ी सड़कों के बजाये सँकरे रास्तों पर डाइवर्ट करने से बन रही है । हम लोग तो खैर स्थानीय, ‘उज्जैनी’ हैं इसलिए इधर-उधर के रास्‍तों से किसी  भी घाट पर जा सकते हैं। पर बाहर से आनेवालों के लिए सिंहस्थ यात्रा किसी प्रताड़ना से कम नहीं है। घर में 80 -85 वर्ष के बुजुर्ग, जो ज्यादा चल नहीं सकते वे ई रिक्शा या अन्य साधन के अभाव में आम दिनों में भी घाट पर स्नान से वंचित हैं। 

यह सब इसलिए पोस्ट किया कि हमारे ग्रुप के कुछ साथी, जरूर प्रशासन के उच्च अधिकारियों के सम्पर्क में रहते हैं। वे ऐसी असुविधाओं (बिना बात की अव्यवस्थाओं) की बात अगर आगे तक पहुँचा सकें तो उज्जैन नगर का गौरव बना रहेगा। अन्य साथी भी यह पोस्ट अधिकतम शेयर करें ताकि आने वाले समय में लोग इस भव्य आयोजन का सपरिवार आनन्द ले सकें।

इन डरावनी और हतोत्साहित करनेवाली खबरों के बीच आज एक परिचित ने कहा कि यह सब सौ प्रतिशत सच नहीं है। स्थिति इतनी भयवह नहीं है। लेकिन अधिसंख्य समाचार फिर भी डरा ही रहे हैं।

आपमें से किसी को कोई अनुभव हुआ तो बताइयेगा।
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कौन किस पर गर्व करे?

यह अभी-अभी, सप्ताह भर पहले की बात है। एक जन समारोह में एक केन्द्रीय राज्य मन्त्री ने दूसरे केन्द्रीय राज्य मन्त्री की उपस्थिति में, भारत सरकार से सम्राट अशोक की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करने की माँग की। यह माँग जाति-समाज आधारित थी। मुझे अचरज भी हुआ और पीड़ा भी। मंजूरी देनेवाला सरे बाजार माँग कर रहा है! यदि मन्त्री ही इस तरह माँग करें तो आम आदमी किससे माँगे? लोकतान्त्रिक और साम्विधानिक मर्यादाओं और आचरण के प्रति यह हमारा अज्ञान है या हम ज्ञान-पापी हैं? लेकिन इससे आगे बढ़कर मुझे कष्ट इस बात से हुआ कि सस्ती लोकप्रियता और वोट केन्द्रित राजनीति के चलते ऐसी माँग कर हम अपने महापुरुषों, इतिहास पुरुषों, आदर्शों, नायकों का मान बढ़ाते हैं या कम करते हैं? ऐसी माँग करते समय हम अपने नायकों के बारे में कितना जानते हैं?

सम्राट अशोक के बारे में मैं उतना ही जानता हूँ जितना  मुझे, स्कूल की परीक्षाएँ पास करने के लिए पढ़ना पड़ा था। मैं भी सम्राट अशोक को ‘अशोक महान्’ कहता तो रहा लेकिन कभी नहीं जाना कि भारत के अनेक राजाओं के बीच अशोक को ‘महान्’ क्यों कहा गया। बस! किताब में छपा था इसलिए मेरे लिए ‘अशोक महान्’ बना रहा और अब तक बना हुआ है।
केन्द्रीय राज्य मन्त्री द्वारा यह माँग उठाने के बाद मैंने अपने आसपास के ज्ञानियों के यहाँ हाजरी लगाई तो सम्राट अशोक के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं। इन जानकारियों के बाद मैं और ज्यादा चिन्तित हो गया। आखिरकार हम अशोक महान् के किस स्वरूप को अपना आदर्श मानते हैं या मानना चाहेंगे?

चन्द्रगुप्त मौर्य के पोते और राजा बिन्दुसार के बेटे अशोक वर्द्धन मौर्य को हम लोग सामान्यतः कलिंग विजय हेतु किए गए युद्ध के कारण ही जानते हैं। लेकिन उसने अपने राज्य विस्तार के लिए युद्ध नहीं किए। उसके सामने अपने दादा की तरह न तो किसी राजा नन्द की चुनौती थी और न ही चाणक्य जैसा दूरदर्शी, रणनीतिकार गुरु। उसे देवनाम प्रिय अशोक, प्रियदर्शी अशोक, चक्रवर्ती सम्राट अशोक के साथ ही साथ चण्ड अशोक याने अत्यधिक गुस्सैल अशोक भी कहा गया है। उसके जीवन का अधिकांश समय परिजनों से संघर्ष में बीता, राज्य विस्तार के संघर्ष में नहीं। उसके बड़े भाई ने उससे मुक्ति पाने के लिए और गद्दी की दावेदारी से दूर रखने के लिए युद्ध हेतु भेजा। सोचा था, अशोक असफल हो जाएगा। किन्तु उल्टा हो गया। स्थितियों ने उसे राज गद्दी की प्रतियोगिता में धकेल दिया जिसके लिए उसे अपने भाइयों की हत्या करनी पड़ी।

सब कुछ ठीक ही चलता किन्तु लेकिन कलिंग युद्ध के नतीजे ने सब कुछ बदल दिया। कलिंग युद्ध के बाद, (वर्तमान भुवनेश्वर से कोई दस किलोमीटर दूर स्थित) धौली की पहाड़ियों से दया नदी को देख अशोक का हृदय लज्जा, अपराध-बोध, विरुचि और घृणा से भर गया। जहाँ तक नजर जाती थी, क्षत-विक्षत सैनिकों के शवों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आया। सैनिकों के खून से नदी का पानी लाल हो गया था। कलिंग युद्ध की बर्बरता और नृशंसता देख अशोक की पत्नी देवी उसे छोड़ गई। इन स्थितियों और मनोदशा से मानो एक नए अशोक ने जन्म लिया - यही अशोक, ‘अशोक महान्’ के नाम से जाना गया। युद्ध के नतीजे ने सम्राट अशोक को बुद्ध का श्रेष्ठ अनुयायी बना दिया। उसने खुद को और अपने बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा को, बुद्ध को और बौद्ध धर्म को अर्पित कर दिया। उसने अपना ‘स्व’ बुद्ध में विसर्जित कर दिया।

यह सब जानकर मैं उलझन में पड़ गया। अशोक महान् की जयन्ती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित करनेवाले आखिर अशोक के किस स्वरूप को मानेंगे? सत्ता के लिए प्रतियोगिता में धकेल दिए गए अशोक को? उसके योद्धा स्वरूप को? या फिर युद्ध की विभीषिका से उपजी विरुचि के अधीन, राज सिंहासन को त्याग कर बौद्ध भिक्षु बने स्वरूप को? 

मध्य प्रदेश मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान से मध्य प्रदेश के ब्राह्मण बहुत खुश हैं। ब्राह्मणों की प्रदेशव्यापी माँग को मंजूर कर शिवराज ने सन् 2015 से परशुराम जयन्ती का सार्वजनिक अवकाश घोषित करना शुरु कर दिया है। मैंने अपने ब्राह्मण मित्रों से परशुरामजी के बारे में जानना चाहा। मुझे यह देख निराशा हुई कि कुछ अपवादों को छोड़कर सब के सब परशुरामजी को एक ही बात से जानते हैं कि उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रीयविहीन किया था। मैंने इसका कारण जानना चाहा और जानना चाहा कि एक बार क्षत्रीयविहीन हो जाने के बाद धरती पर क्षत्रीय फिर कैसे आ गए? वह भी एक के बाद, इक्कीस बार! किसी के पास कोई जवाब नहीं था। कोई नहीं जानता था कि सहस्रबाहु अर्जुन नामक एक क्षत्रीय राजा  द्वारा परशुराम की माता रेणु से कामधेनु नामक गाय जबरन छीन लेने से कुपित परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन का वध किया था जिसका बदला लेने के लिए सहस्रबाहु अर्जुन के बेटों द्वारा (परशुराम की अनुपस्थिति में) परशुराम के पिता जमदाग्नि की हत्या कर देने से क्रुद्ध परशुराम ने सहस्रबाहु अर्जुन के समस्त पुरुष रिश्तेदारों को मौत के घाट उतार दिया था। वस्तुतः परशुराम ने, ब्राह्मणों को पीड़ित करनेवाले, आपराधिक प्रवृत्ति के क्षत्रियों का संहार किया था और यह काम उन्होंने लगातार इक्कीस वर्षों तक किया। आज परशुराम की पहचान केवल ‘हाथ में फरसा लिए, क्षत्रियों का वध करने को उद्धत योद्धा’ की बन कर रह गई है। शायद ही कोई जानता  हो कि वे क्षत्रियों के विरुद्ध नहीं, ब्राह्मणों के ब्राह्मण-कर्म में बाधक बननेवाले क्षत्रियों के विरुद्ध थे? वे इतने ‘पितृ आज्ञाकारी’ थे कि कुपित पिता के आदेश पर अपनी माँ का सिर काट दिया था और इतने मातृ प्रेमी कि, अपने आज्ञा पालन से प्रसन्न पिता ने जब उनसे कोई वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ को जीवित करने को कह दिया। इन्हीं परशुराम की जयन्ती की पहली छुट्टी पर ही मेरे अनेक ब्राह्मण मित्र सैरसपाटे पर निकल गए थे।

यह सचमुच में दुःखद और लज्जाजनक है कि हमने अपने राष्ट्रीय नायकों को अपनी आवश्यकता और सुविधा से ‘अपने-अपने महापुरुष’ बना लिए हैं। शहीद हेमू कालानी केवल सिन्धी समाज तक सीमित हो गए हैं। क्या उन्होंने केवल सिन्धियों के लिए खुद को होम किया था? देशी रियासतों और रजवाड़ों का आत्म-समर्पण करवाकर गौरवशाली भारत बनानेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल  पाटीदारों/पटेलों में सिमटे जा रहे हैं। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के साथ जो हो रहा है वह तो शायद चरम है। जाति प्रथा को उन्होंने देश की प्रगति का सबसे बड़ा रोड़ा कहा था और इसका नाश करने के लिए जाति तोड़ा आन्दोलन शुरु किया था। लेकिन उनकी जयन्ती और पुण्य तिथि पर कुछ शहरों में अग्रवाल समाज द्वारा आयोजन करने के समाचार चौंकाते हैं। आजादी के बाद गैर काँग्रेसवाद की अवधारणा  और ‘जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।’ जैसे सर्वकालिक आप्त वचन क्या लोहिया ने केवल अग्रवाल समाज के लिए दिए थे?

सच तो यह है कि या तो हमें अपने इरादों, अपने कर्मों, अपने पुरुषार्थ और अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं रह गया है या फिर हम अपनी वास्तविकता जानते हैं। इसीलिए हमें अपनी पहचान के लिए कोई एक महापुरुष आवश्यक हो गया है। ऐसे महापुरुषों के विचार को आचरण में उतारने के बजाय हम उनका उपयोग  अपना दबदबा बनाने के लिए करते हैं। जिन महापुरुषों का नाम सुनकर ही मन में श्रद्धा भाव उपजना चाहिए, अपने आचरण से हम उनके प्रति भय और आतंक पैदा करने में ही अपनी सफलता मानने लगे हैं। हम इन पर अपना अधिकार जताते हुए इनके नाम की दुहाइयाँ देते हैं लेकिन इनकी चिन्ता खुद नहीं करते। इनकी मूर्तियाँ लगवाने के लिए और बाद में उन मूर्तियों के रखरखाव के लिए स्थानीय निकायों से माँग करते हैं, दबाव बनाते हैं और (वोट की राजनीति के चलते) सफल होकर गर्व से फूले, इतराते घूमते हैं। लेकिन वास्तव में हम अपने महापुरुषों का कद घटा रहे होते हैं। हम सागर को पोखर में बदलने का आपराधिक दुष्कर्म करते हैं। हम उनके नाम पर सार्वजनिक छुट्टी घोषित करवाते हैं और खुद ही उस दिन पिकनिक मनाने निकल पड़ते हैं।


हम अपने पुरखों पर गर्व करें, यह तो अच्छी बात है। किन्तु क्या अधिक अच्छा यह नहीं होगा कि हम ऐसा कुछ करें कि हमारे पुरखे हम पर गर्व करें?
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उधार की जिन्दगी : एक बार फिर

1991 के अप्रेल से मैं उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - मित्रों की दी हुई जिन्दगी। तब मैं चरम विपन्नता की स्थिति में आ गया था। मैं पत्राचार का व्यसनी किन्तु पोस्ट कार्ड के लिए पन्द्रह पैसे भी नहीं रह गए थे मेरे पास तब। लगने लगा था कि छठवीं-सातवीं कक्षा तक की गई, घर-घर जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगने की भिक्षा-वृत्ति नहीं अपनानी पड़ जाए। तब मित्रों ने मुझे सम्हाला था। खड़े रहने के लिए पाँवों के नीचे जमीन नहीं थी। मित्रों ने अपनी हथेलियाँ बिछा दी थीं। उन्हीं के दम पर अब तक जिन्दा हूँ। हाँ! मेहनत मैंने की, चौबीस घण्टों में अट्ठाईस घण्टे काम किया। जिन्दा रहने के लिए जान झोंक दी थी मैंने अपनी। ‘जीना हो तो मरना सीखो’ का मतलब तभी समझ में आया था। आज मैं अभाव-मुक्त स्थिति में हूँ। लेकिन इस सबका निमित्त मेरे मित्र ही हैं। मेरी साँसे, मेरी धड़कन, मेरे पाँवों के नीचे की जमीन - सब कुछ मित्रों का दिया हुआ है। मैं केवल जी रहा हूँ - उधार की जिन्दगी। जैसे मित्र मुझे मिले, भगवान सबको दे। मुझ जैसा मित्र किसी को न दे जो सब पर जिम्मेदारी बना और बना हुआ है। 

अभी-अभी, 17 सितम्बर से, उधार की जिन्दगी का दूसरा खण्ड शुरु हुआ है। 

13-14 सितम्बर की सेतु-रात्रि को दो बजे नींद खुल गई। कण्ठ के नीचे और सीने से थोड़ा ऊपर दर्द हो रहा था। मानों, अनगिनत सुइयाँ चुभ रही हों। दर्द चूँकि छाती में नहीं था सो अनुमान किया - और भले ही कुछ हो, ‘दिल का दर्द’ तो नहीं ही है। लिखा-पढ़ी का छुट-पुट काम करते हुए सुबह तक का समय निकाला और 06 बजे ही आशीर्वाद नर्सिंग होम पहुँच गया। जाने से पहले डॉक्टर सुभेदार साहब को मोबाइल लगाया लेकिन बात नहीं हो पाई। उन्होंने ‘काल डाइवर्ट’ की व्यवस्था कर रखी थी। सो, बात हुई भी तो नर्सिंग होम की रिसिप्शनिस्ट से। पूरी तरह से मशीनी बात हुई। फौरन ही, सुभेदार साहब के सहायक डॉक्टर समीर व्यास को फोन लगाया। उनसे बात हो गई। वस्तुतः मैंने उन्हें नींद से उठा दिया। सब कुछ सुनकर बोले - ‘आप नर्सिंंग होम पहुँचिए। मैं फौरन आ रहा हूँ।’ हुआ भी यही। मैं पहुँचा और मेरी पूछ-परख शुरु हुई ही थी कि डॉक्टर समीर पहुँच गए। मुझे आईसीयू में लिटाया। ईसीजी मशीन और हृदय की हरकतों पर निगरानी करनेवाले मॉनीटर से मुझे जोड़ा। तब तक डॉक्ट सुभेदार भी पहुँच गए। डॉक्टर समीर ने रास्ते से ही उन्हें खबर कर दी थी। फटाफट ईसीजी लिया। सब कुछ सामान्य था। अनुमान रहा कि एसिडिटी का प्रभाव रहा होगा। इसी से जुड़ी दवाइयाँ दी गईं। मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ गई - खूब गहरी और लम्बी। कोई दो-ढाई घण्टों की। दूसरा ईसीजी हुआ। वह भी सामान्य। मेरा दर्द तो आने के कुछ ही देर बाद काफूर हो ही चुका था। याने, खतरा तो दूर की बात रहा, चिन्ता की भी कोई बात नहीं थी।

पन्द्रह-सोलह सितम्बर के दिन-रात पूरी तरह सामान्य
निकले। सत्रह की सुबह भी और सुबहों की तरह ही सामान्य रही। नित्य कर्मों से फारिग हो, प्राणायाम किया। कुछ कागजी काम निपटाया। दस बजते-बजते सोचा - ‘अब नहा लिया जाए।’ तभी वही दर्द शुरु हुआ जो 13-14 की सेतु- रात्रि को हुआ था। इस बार चुभन तनिक अधिक थी। दो दिन पहले के अनुभव के दम पर इसकी अनदेखी करने की कोशिश की लेकिन कर नहीं पाया। चौदह की सुबह तो मैं खुद स्कूटर चला कर गया था लेकिन आज वैसा कर पाना सम्भव नहीं लगा। उत्तमार्द्ध से कह कर गुड्डू (अक्षय छाजेड़) को फोन-सन्देश दिया कि मुझे आशीर्वाद नर्सिंंग होम ले जाने के लिए तैयार रहे। फटाफट कपड़े बदले, बाहर आया। सवा दस बज रहे थे। गुड्डू एकदम तैयार खड़ा था - मोटर सायकल स्टार्ट किए हुए। गुड्डू के पीछे बैठते-बैठते लगा - दर्द कम हो रहा है, राहत हो रही है। उतरने का उपक्रम करते हुए बोला - ‘अब ठीक लग रहा है। अस्पताल चलने की जरूरत नहीं लग रही।’ गुड्डू ने सख्ती से रोक दिया - ‘नहीं अंकल! बैठे रहिए। अस्पताल चलिए। और कुछ नहीं तो डॉक्टर साहब से यही पूछेंगे कि आपको यह सब क्या हुआ और क्यों हुआ।’ गुड्डू के स्वर और मुख-मुद्रा ने मुझे ‘आज्ञाकारी’ बना दिया। 

नर्सिंग होम चहुँचते-पहुँचते तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी। डॉक्टर सुभेदार साहब और डॉक्टर समीर को खबर कर ही दी थी। दोनों ने मुझे हाथों-हाथ लिया। आईसीयू में भर्ती किया और पहले ही क्षण में ‘हृदय रोगी’ बन चुका था। आईसीयू में भागदौड़ मच गई। सब कुछ ‘पहली प्राथमिकता’ पर हो रहा था। मेरी तकदीर वाकई में अच्छी थी कि ‘एलेक्सिम 40 एमजी’ इंजेक्शन फौरन उपलब्ध हो गया। साढ़े दस बजे मैं भर्ती हुआ था और बारह बजते-बजते मैं पूरी तरह खतरे से बाहर हो चुका था। डेड़ घण्टे में मेरा पुनर्जन्म हो चुका था। लेकिन इस पूरे डेड़ घण्टे तक डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर और उनका अधीनस्थ समूचा अमला, बिना साँस लिए, पण-प्राण से लगा रहा ताकि मेरी साँसें चलती रहें, मेरे प्राण बच सकें।

दो बजते-बजते समूचा तनाव समाप्त हो चुका था। लेकिन अब मैं ‘घोषित हृदय रोगी’ था। तनाव का स्थान चिन्ता ने ले लिया था। उत्तमार्द्ध तो नर्सिंग होम में थीं ही। शाम होते-होते दोनों बेटे एक साथ  पहुँच गए। बड़ा बेटा वल्कल पुणे से और छोटा बेटा तथागत मुम्बई से, वायु सेवा से अलग-अलग इन्दौर पहुँचे थे। इन्दौर से एक साथ घर आए।

17 की रात अच्छी-भली निकली। लेकिन 18 की सुबह से रक्त चाप कम होने लगा। यह असामान्य बात थी। डॉक्टरों को एक बार फिर मेहनत करनी पड़ी। दोपहर होते-होते, मुझे अगली जाँचों के लिए बड़ौदा भेजने का निर्णय ले लिया गया। सुभाष भाई जैन ने आरक्षित-रेल-टिकिट वल्कल को थमा दिए। यह चमत्कार से कम नहीं था। 19 को मेरी एंजियोग्राफी हुई। मालूम हुआ कि बाँयी ओर की तीनों मुख्य धमनियों में कोई बाधा नहीं है। बस, सबसे पहली धमनी के छोर से निकली दो,  उप-धमनियों के जोड़ पर बाधा है। किन्तु इसे दवाइयों/गोलियों से ही उपचारित किया जा सकेगा - ऑपरेशन की कोई आवश्यकता नहीं। मुख्य कारण रहा - दाहिनी धमनी का, सामान्य से छोटा होना। किन्तु उसके लिए भी एंजियोग्राफी की आवश्यकता नहीं रही। परहेज, सावधानी और नियमित दिनचर्या से सब कुछ नियन्त्रित किया जा सकेगा - बशर्तें मैं ऐसा चाहूँ और ऐसा करूँ। याने, गेंद अब मेरे पाले में है।

वल्कल ने पूरे मामले को अतिरिक्त चिन्ता और सम्वेदना से लिया। उसने डॉक्टरों की सलाहों में अपना ‘पुट’ जोड़ते हुए मुझ पर कुछ अतिरिक्त निषेध आरोपित कर दिए - महीने भर तक फेस-बुक से दूरी, फोन पर या तो बात करूँ ही नहीं और करूँ तो उतनी ही जितनी कि काम-धन्धे के लिए अनिवार्य हो, काम-काज भी वही और उतना ही जितना और जो अपरिहार्य हो। शुरु-शुरु में तो गुस्सा आया। बतरस जिस आदमी की जिन्दगी हो, गप्प-गोष्ठियाँ से जिसे ऊर्जा और स्पन्दन मिलता हो, उस आदमी को चुप रहने और घर में बन्द होकर बैठने को कहा जा रहा है। लेकिन जल्दी ही अपनी नासमझी समझ में आ गई। ये सब मुझे प्यार करते हैं। मुझे अच्छा-भला, चंगा, घूमते-फिरते, ठहाके लगाते देखना चाहते हैं। यह समझ में आते ही मैं भी इन सबके साथ हो गया - ‘अच्छे बच्चे’ की तरह। 

अब सब कुछ लगभग सामान्य है। जिन्दगी ढर्रे पर लौट रही है। काम-काज के लिए बाहर निकलना, लोगों से मिलना-जुलना शुरु कर दिया है। वैसे भी, घर में जब काम करनेवाला और कोई नहीं हो तो अपने काम तो खुद को करने ही पड़ते हैं। (दोनों बेटे अपने-अपने काम पर लौट गए हैं।) सो, बाजार से सौदा-सुल्फ लाना, बिजली-फोन के बिल जमा कराना जैसे काम हाथ में अपने आप ही आ गए हैं।

हाँ! दो बातें जरूर विशेष हुईं - मेरा भ्रम दूर करने और मेरा दम्भ चूर करनेवाली। हृदयाघात के बाद से मुझे लगा था कि मेरे साथ कुछ अनोखा घटित हुआ है और मैं  सबसे अलग, असाधारण हो गया हूँ। लेकिन मेरा यह भ्रम शुरुआती तीन-चार दिनों में ही दूर हो गया। मिलनेवालों में से प्रत्येक चौथा-पाँचवा आदमी ‘हृदयाघात का अनुभवी’ मिला। इनमें से भी अधिकांश वे जिनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है। ऐसे लोगों ने मुझे कुछ तो सन्तोष-भाव से और कुछ ने दया-भाव से देखा। सन्तोष-भाव यह कि मैं एंजियोग्राफी में ही निपट गया, एंजियोप्लास्टी नहीं करानी पड़ी। दया-भाव यह कि देखो हम तो एंजियोप्लास्टी तक पहुँच गए और यह बेचारा एंजियोग्राफी से आगे नहीं बढ़ पाया।

मित्रों के बीच मैं गर्व से कहा करता था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। तत्व-ज्ञानी की मुद्रा में शेखी बघारता था - ‘मौत तो आदमी के जन्म लेते ही उसके साथ हो लेती है। फिर भला मौत की क्या बात करना और मौत से क्या डरना?’ लेकिन इस दुर्घटना के बाद मेरा यह दम्भ चूर-चूर हो गया है। मैं मौत से डरने लगा हूँ और अपना यह डर सबके सामने कबूल भी कर रहा हूँ। लेकिन अपनी झेंप मिटाने के लिए शब्दाडम्बर रच रहा हूँ - ‘मृत्यु-भय और जीवन की लालसा, एक सिक्के के दो पहलू हैं और इन दिनों में यही सिक्का जेब में लिए चल रहा हूँ।’

लेकिन ईश्वर की कृपा है कि इस सबके बीच मैं क्षण भर भी नहीं भूला कि मेरा यह पुनर्जन्म गुड्डू, डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर व्यास जैसे मित्रों के कारण ही हुआ है। सत्रह की सुबह यदि गुड्डू जिद करके मुझे आशीर्वाद नर्सिंग होम नहीं ले गया होता और डॉक्टर सुभेदार तथा डॉक्टर समीर ने नहीं सम्हाला होता तो आज यह सब लिख रहा होता? बिलकुल नहीं। तब, मैं स्वर्गीय हो चुका होता। उठावना, पगड़ी जैसी तमाम उत्तरक्रियाएँ हो चुकी होतीं, मेरी उत्तमार्द्ध, दोनों बेटे मेरी अनुपस्थिति में की जानेवाली तमाम कानूनी खानापूर्तियाँ कर रहे होते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और केवल मित्रों की कृपा के कारण ही नहीं हुआ।

सो, इस 17 सितम्बर से मैं एक बार फिर उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - पूरी तरह से मित्रों की दी हुई जिन्दगी।

लगता है, उधार की जिन्दगी मुझे मेरी अपनी जिन्दगी के मुकाबले अधिक मुफीद होती है। 

सबसे ऊपरवाले चित्र में बाँयी ओर डॉक्टर सुभेदार तथा दाहिनी ओर डॉक्टर समीर व्यास। मध्यवाले चित्र में गुड्डू (अक्षय छाजेड़)।