दलाल केवल दलाल नहीं होता

दलाल कथा-01

हर बार की तरह यह वाकया भी, यादवजी ने माणक चौकवाली अपनी दुकान पर ही सुनाया।

हुआ यूँ कि हिन्दी के प्रति मेरे आग्रह के मजे लेने के लिए यादवजी ने अचानक पूछ लिया - “आप खुद को ‘अभिकर्ता’ कहते हो। हिन्दी में अभिकर्ता को क्या कहते हैं?” मैंने हँस कर कहा - “अभिकर्ता को हिन्दी में अभिकर्ता ही कहते हैं क्यों कि अभिकर्ता हिन्दी शब्द ही है।” यादवजी तनिक झुंझला कर बोले - ‘वो तो मुझे भी मालूम है। लेकिन वो तो आपकी हिन्दी में है। हम आम लोगों की हिन्दी में बताइए।’ मैंने कहा - ‘दलाल कहते हैं।’ यादवजी चिहुँक कर बोले - “अरे! मैं भी कमाल करता हूँ। आप तो एलआईसी के एजेण्ट हैं और एजेण्ट को दलाल ही कहते हैं, यह तो मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ। आपके इस ‘अभिकर्ता’ ने मुझे चक्कर में डाल दिया।” पल भर के लिए खुद पर हँस कर बोले - ‘दलाल होना आसान नहीं। दलाल केवल दलाल नहीं होता। दलाल से पहले वह एक ईमानदार आदमी और ईमानदार पेशेवर होता है।’ मैंने कहा - ‘आपने सूत्र तो बता दिया। इसे सोदाहरण, व्याख्या सहित समझाइए।’ यादवजी उत्साह से बोले - ‘यह आपने खूब कही। आपको दलालों के कुछ सच्चे किस्से सुनाता हूँ जिन्हें सुनकर आप दलाल होने का मतलब और महत्व आसानी से समझ सकेंगे।’ कह कर उन्होंने एक के बाद एक, तीन किस्से सुनाए।

लेकिन किस्से सुनने से पहले, रतलाम के सन्दर्भ में दलाल को लेकर तनिक लम्बी भूमिका।

रतलाम केवल सोना और सेव के लिए ही नहीं जाना जाता। यह ब्याज के धन्धे के लिए भी जाना जाता है। ब्याज यहाँ के मुख्य धन्धों में से एक है। कम से कम तीन ऐसे परिवारों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ जो केवल ब्याज की आय पर निर्भर हैं। वास्तविकता तो भगवान ही जाने लेकिन कहा-सुना जाता है यहाँ गुवाहाटी और चैन्नई तक का पैसा ब्याज पर लगा हुआ है। लेकिन मुख्यतः, रतलाम की ही पूँजी ब्याज के लिए लेन-देन में काम आती है। यह ब्याज का धन्धा पूरी तरह से दलालों के सहारे ही चलता है। 

जैसा कि कहा है, लगभग सारी पूँजी रतलाम की ही है तो उसका लेन-देन भी रतलाम के लोगों में ही होता है। जब रतलाम के लोगों में ही लेन-देन होना है तो फिर दलाल की जरूरत भला क्योंकर होती है? जवाब है - ‘ब्याज पर दी गई पूँजी की सुरक्षित वापसी के लिए।’ ‘उधारी मुहब्बत की कैंची है।’ इस वाक्य के ‘चिपकू’ (स्टीकर) किसी जमाने में पान की दुकानों पर प्रमुखता से नजर आते थे। वही बात यहाँ भी लागू होती है। किसी अपनेवाले को उधार दी गई पूँजी वापस माँगना तनिक कठिन हो जाता है। सम्बन्ध बिगड़ने की आशंका बनी रहती है। इसीलिए दलाल काम में आता है। दलाल को ‘तिनके की ओट’ कह सकते हैं। देनेवाले को खूब पता होता है कि उसका पैसा किसके पास जा रहा है। यही दशा लेनेवाले की भी होती है। किन्तु बीच में दलाल होने से लिहाज बना रहता है। कभी-कभी स्थिति ऐसी रोचक और अविश्वसनीय भी हो जाती है कि पति से छुपाकर की गई पत्नी की  बचत की रकम, उसके पति को ही ब्याज पर चढ़ जाती है। 

अब, यादवजी के निर्देशानुसार, तमाम किस्सों के तमाम पात्रों की पहचान छुपाते हुए पहला किस्सा। 

फकीरचन्दजी रतलाम के अत्यन्त प्रतिष्ठित, विश्वसनीय, अग्रणी दलाल थे। साख इतनी कि व्यापारी एक बार खुद पर अविश्वास करले लेकिन फकीरचन्दजी पर नहीं। फकीरचन्दजी का बीच में होना याने समय पर ब्याज मिलने की और निर्धारित समयावधि पर पूँजी की वापसी की ग्यारण्टी। 

इन्हीं फकीरचन्दजी को बुलाकर सेठ मधुसूदनजी ने कुछ रकम दी। एक अपनेवाले को ब्याज पर देने के लिए। फकीरचन्दजी ने कहा कि मधुसूदनजी का वह अपनेवाला तो सप्ताह भर के लिए बाहर गया हुआ है। तब तक रकम पर ब्याज नहीं मिलेगा। मधुसूदनजी ने कहा - ‘रकम आपके पास ही रहने दो। वह आए तब दे देना। ब्याज की चिन्ता नहीं।’ 

आठवें दिन शाम को फकीरचन्दजी, सेठ मधुसूदनजी की पेढ़ी पर पहुँचे। थैली में से रकम निकाली  और सेठ मधूसदनजी ओर बढ़ा दी। मधुसूदनजी ने रकम नहीं ली। पूछा - ‘क्यों? वो नहीं आया?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘आ गए। आज सुबह ही आ गए। उन्हीं की दुकान से आ रहा हूँ।’ सेठ मधुसूदनजी ने हैरत से पूछा - ‘वहीं से आ रहे हो और रकम मुझे दे रहे हो? यह रकम तो उसे ही देनी थी!’ फकीरचन्दजी गम्भीरता से बोले - ‘हाँ। आपको वापस सौंप रहा हूँ। नहीं दी। मैं तो दूँगा भी नहीं। आपको, उन्हीं को दिलवाना हो तो किसी दूसरे दलाल से दिला दो।’

सेठ मधुसूदनजी को झटका सा लगा। जिसे रकम दिलवा रहे थे, वो अपनेवाला जरूरतमन्द था।  हैरत से बोले - ‘क्यों? ऐसी क्या बात हो गई?’ गम्भीरता यथावत् बनाए रखते हुए फकीरचन्दजी बोले - ‘ऐसी बात हो गई तभी तो रकम नहीं दी। आपको लौटाने आया हूँ!’ 

फकीरचन्दजी ने बताया कि वे रकम लेकर सामनेवाले की दुकान पर पहुँचे। वे दुकान के सामने, सड़क पर ही खड़े थे और दुकान में जा ही रहे थे कि वो दुकानदार, रकम लेने के लिए दुकान से उतर कर सड़क पर, फकीरचन्दजी के पास आ गया। अनुभवी फकीरचन्दजी ने पल भर में उस सामनेवाले को तौल लिया और बहाना बना कर, बिना रकम दिए सेठ मधुसूदनजी के पास आ गए। 

फकीरचन्दजी ने कहा -‘सेठजी! दलाली मेरा धन्धा है। मुझे तो आपसे और उनसे दलाली मिल ही रही थी। लेकिन मुझे गैरवाजिब व्यवहार की दलाली नहीं चाहिए। जो व्यापारी ब्याज की, उधार की पूँजी लेने के लिए गादी से उतर कर दलाल के पास सड़क पर आ जाए, वह व्यापारी पानीदार नहीं। ऐसे व्यापारी से मैं तो लेन-देन नहीं करता। मेरी दलाली की पूँजी डूबे, ऐसी दलाली मुझे नहीं करनी। मुझे आपकी पूँजी की नहीं, दलाली के मेरे धन्धे की इज्जत की फिकर है। मैं दिवालियों का नहीं, साहूकारों का दलाल हूँ।’

कह कर फकीरचन्दजी ने रकम सेठ मधुसूदनजी को थमाई, आत्म-सन्तोष की लम्बी साँस ली और नम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।

यादवजी बोले - ‘यह किस्सा सेठ मधुसूदनजी ने मेरे पिताजी को सुनाया था और पिताजी ने मुझे।’ मैंने पूछा - ‘सेठजी ने आपके पिताजी को केवल किस्सा ही सुनाया था? फकीरचन्दजी के बारे में कुछ नहीं कहा?’ यादवजी बोले - “ठीक यही सवाल मैंने पिताजी से पूछा था। उन्होंने कहा - ‘मधुसूदनजी ने कहा था - ऐसे दलाल केवल दलाल नहीं होते। वे तो सेठों के भी सेठ होते हैं।”

किस्सा सुनाकर यादवजी भेदती नजरों से मुझे देखने लगे। कुछ इस तरह कि मुझे घबराहट होने लगी। मेरी बेचारगी देख ठठाकर हँसे और बोले - ‘घबराइए नहीं। किस्से को खुद पर मत लीजिए। आप बीमा कम्पनी के दलाल हैं, ब्याज का व्यवहार करनेवाले, व्यापारियों के दलाल नहीं।’ मेरी साँस में साँस आई। मेरी हालत यह हो गई कि मैं पानी माँग गया। 

यादवजी ने मेरे लिए पहले पानी मँगवाया और हम दोनों के लिए चाय। चाय खत्म कर, ताजा दम हो, उन्होंने दूसरा किस्सा शुरु किया।

वह दूसरा किस्सा अगली बार। 
-----  
   

हरिद्वार के मजबूर दुकानदार

कल हमारे वरिष्ठ शाखा प्रबन्धक क्षिरेजी का जन्म दिन था। वे बड़ौदा के रहनेवाले हैं और रतलाम में यह उनका पहला जन्म दिन था। सोचा,  उनके लिए गुलाब के फूलों की एक ठीक-ठाक माला ठीक रहेगी। यही सोच कर माणक चौक पहुँचा। मैं गया तो था गुलाब के फूलों की एक माला लेने लेकिन मिल गई यह कथा। यह कथा न तो नई है न ही अनूठी। इसे हम सब रोज ही कहते सुनते हैं। यह है ही इतनी रोचक कि कभी पुरानी नहीं होती।

पहली ही नजर में एक माला मुझे जँच गई। कीमत पूछी और बिना किसी मोल-भाव के, बाँधने को कह दिया। उम्मीद थी कि दुकानदार पुराने अखबार में लपेट कर देगा। किन्तु उसने पोलीथीन की थैली में दी। दुकानदार जब माला, थैली में रखने लगा तो मैंने टोका - ‘थैली में दे रहे हो? कागज में बाँध दो।’ वह बोला - ‘मैं तो कागज में ही देता था। लेकिन आप जैसे लोग ही पन्नी की थैली माँगते हैं। दुकानदारी का मामला है। कागज में दूँ और ग्राहक चला जाए तो?’ मैंने कहा - ‘दे दो! दे दो! कुछ दिन और दे दो! एक मई से शिवराज ने थैली पर रोक लगाने का आर्डर दे दिया है।’ फीकी हँसी हँसते हुए वह बोला - ‘निकाल दे आर्डर! कोई पहली बार नहीं निकल रहा साब। उनसे पहले नगर निगम निकाल चुका ऐसा आर्डर। क्या हुआ? दो-चार दिन पकड़ा-धकड़ी हुई। हम पाँच-सात छोटे दुकानदारों पर जुर्मान किया। फिर सब बराबर हो गया। आप देख ही रहे हो! यहाँ बैठे हम तमाम लोग पन्नी की थैलियाँ वापर रहे हैं। और तो और, नगर निगम वाले भी पन्नी की थैलियों में ही हार-फूल ले जा रहे हैं।’

दुकानदार की बातों में मुझे रस आने लगा। भुगतान करने के बाद भी रुक गया। पूछा - ‘तो तुम्हारा मतलब है कि शिवराज के आर्डर से कुछ नहीं होगा?’ उसी तरह, बेजान हँसी हँसते बोला - ‘होगा क्यों नहीं सा‘ब? होगा। लेकिन वही! फिर कुछ अफसर-बाबू आएँगे। पकड़ा-धकड़ी करेंगे। हम छोटे दस-बीस लोगों पर जुर्माना करेंगे। फिर सब बराबर। पहले जैसा। चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर शिवराज क्या करे?’ उसने मुझे ऐसा देखा जैसे मैं धरती का नहीं, किसी दूसरे ग्रह का जीव हूँ। बोला - ‘आप जैसे लोग ऐसी बातें करते हैं यही तो लफड़ा है। सब लोग, सब-कुछ जानते हैं लेकिन अनजान बनते हैं। अरे! सब जानते हैं कि चोर को मारने से चोरियाँ नहीं रुकती। रोकना है तो चोर की माँ को मारो। पन्नी की थैलियाँ बन्द करनी हैं तो इनका बनना बन्द करो! इनकी फैक्ट्रियाँ बन्द करो! लेकिन वो तो करेंगे नहीं। करेंगे भी नहीं। सबकी धन्धेबाजी है।’

वह गुस्से में बिलकुल नहीं था। साफ लग रहा था कि वह भी पोलीथिन की थैलियाँ नहीं वापरना चाहता किन्तु ‘बाजार’ उसे मजबूर कर रहा।  व्यथित स्वरों में बोला - ‘अब क्या कहें साब! सबको हरिद्वार के दुकानदारों की बदमाशी नजर आती है लेकिन गंगोत्री को भूल जाते हैं। गंगोत्री पर रोक लगाओ। घाट पर दुकानें लगनी अपने आप बन्द हो जाएँगी।’

उसकी बातें मुझे मजा दे रही थीं किन्तु उसकी निर्विकारिता उदास भी कर रही थी। उसका ‘सब लोग सब कुछ जानते हैं’ वाला वाक्यांश मुझे खुद पर चुभता लगा। यही छटपटाहट ले कर चला। लेकिन दस-बीस कदम जाकर लौटा। उसका फोटू लिया और नाम पूछा तो अपना काम करते हुए, उसी निर्विकार भाव से बोला - ‘जुर्माने से ज्यादा और क्या करोगे? कर लेना। मेरा नाम रामचन्द्र खेर है और तीस-पैंतीस बरस से यहीं पर, यही धन्धा कर रहा हूँ।’ उसकी बात ने मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट बढ़ा दी। मेरा ‘मजा’, मेरा ‘बतरस’ हवा हो गया। मैं चला आया।  

इस बात को चौबीस घण्टे होनेवाले हैं लेकिन वह चुभन, वह छटपटाहट जस की तस बनी हुई है। 

लेकिन मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट मेरे पास। आपको तो कहानी रोचक लगेगी। लगी ही होगी।

रामचन्‍द्र खेर
----

आशंका में लिपटा अभिनन्दन

अड़सठवाँ गणतन्त्र दिवस सामने है। सरकारी स्तर पर की जानेवाली तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकी हैं। परेड का अन्तिम पूर्वाभ्यास हो चुका है। सरकारी स्कूलों, कॉलेजों में ‘यह काम राजी-खुशी निपट जाए’ की चिन्ता छाई हुई है तो निजी स्कूल, कॉलेज ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली कैसे’ के तनाव में हैं। एक अखबार, घर-घर पर तिरंगा फहराने की, खुद ही ओढ़ी जिम्मेदारी पूरी करने में जुटा हुआ है। निजी संगठनों, संस्थाओं ने ध्वजारोहण के अपने-अपने पारम्परिक कब्जेवाले चौराहों पर झण्डा वन्दन के कार्यक्रम घोषित कर दिए हैं। राजनीति में जगह और पहचान बनाने के महत्वाकांक्षी, सम्भावनाखोजियों ने पहली बार किसी सार्वजनिक स्थान पर झण्डा फहराने के कार्यक्रम घोषित किए हैं। स्कूली बच्चे उत्साह और उल्लास से छलक रहे हैं किन्तु उनके माँ-बाप असहज, तनाव में हैं। 

दो दिनों से योजनापूर्वक पूरे कस्बे में घूम रहा हूँ। किन्तु तमाम कोशिशों के बाद भी कस्बे का बड़ा हिस्सा छूट गया है। किन्तु जितना भी घूमा हूँ, उतना ताज्जुब से भरता गया हूँ। चारों ओर, एक सामान्य दिन और सामान्य दिनचर्या। केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के लिए यह गणतन्त्र दिवस एक दिन (शुक्रवार) की छुट्टी लेकर चार दिनों की छुट्टी का अवसर बनकर सामने आया है। उनमेें से कुछ मेरे पॉलिसीधारक, अपने ‘देस’ चले गए हैं। राज्य सरकार के कर्मचारी उनसे ईर्ष्या कर रहे हैं। गण्तन्त्र दिवस का उल्लास कहीं नजर नहीं आ रहा। और तो और, अब तक वाट्स एप पर ग्रुप पर या व्यक्तिगत रूप से एक भी अभिनन्दन-बधाई सन्देश नहीं। सब लोग, तारीख बदलने के लिए शायद आधी रात की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तब, भारतीय संस्कृति की दुहाई देनेवाले भी ‘अंग्रेजों से अधिक अंग्रेज’ बन कर ‘मुझसे अधिक देशभक्त कौन’ के प्रतियोगी भाव से टूट पड़ेंगे। जब 2017 का साल शुरु होनेवाला था तब 30 दिसम्बर को मोबाइल कम्पनी का सन्देश आया था कि मैंने थोक में एसएमएस करने का जो ‘पेक’ ले रखा है, उसका फायदा मुझे नहीं मिलेगा और 30 की आधी रात से लेकर पहली जनवरी की आधी रात किए जानेवाले एसएमएस का सामान्य शुल्क लिया जाएगा। लेकिन गणतन्त्र दिवस पर ऐसा सन्देश अब तक नहीं मिला है। 

मैं उल्लास तलाश रहा हूँ लेकिन मुझे या तो सामान्यता मिल रही है या निस्पृहता, उदासीनता। ‘गणतन्त्र’ के सबसे बड़े दिन पर ‘गण’ की यह निस्पृहता, उदासीनता मुझे चौंका भी रही है और असहज भी कर रही है। यह शिकायत तो मुझे बरसों से बनी हुई है कि अंग्रेजी शासन पद्धति अपनाने की वजह से ‘तन्त्र’ ने हमारे ‘गण’ पर सवारी कर ली है और हमारा गणतन्त्र केवल वोट देने की खनापूर्ति बनकर रह गया है। किन्तु इस बरस तो मुझे कुछ और ही अनुभूति हो रही है। इस बरस तो मुझे लग रहा है कि हमने गणतन्त्र का एक नया स्वरूप दुनिया को दे दिया है - एकाधिकारवादी गणतन्त्र या कि तानाशाहीवादी गणतन्त्र। 

देश की स्थितियाँ गणतान्त्रिक नहीं लग रहीं। अब तक ‘गण’ की उपेक्षा की जाती रही है। किन्तु लगता है, अब ‘गण’ की उपस्थिति ही या तो अनुभव नहीं की जा रही या फिर उसे अनावश्यक मान लिया गया है। इतना अनावश्यक कि उसकी चिन्ता करने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की जा रही। जनता जीए या मरे, यह तो मानो सोच का विषय ही नहीं रह गया है। कहने को सब समान हैं किन्तु कुछ लोग या कि एक तबका ‘समानों में अधिक समान’ हो गया है और सब कुछ इन ‘अधिक समानों’ की चिन्ता के अधीन किया जा रहा है। लोग अपना पैसा बैंक से अपनी इच्छानुसार नहीं निकाल पा रहे। शादी के लिए पैसा चाहिए तो पचास प्रमाण और खर्चे की सूचियाँ अग्रिम पेश करो। लेकिन गड़करियों, रेड्डियों को सब छूट है। नोटबन्दी के चलते दिहाड़ी मजदूर, अपनी मजदूरी छोड़ कर बैंक के सामने पंक्तिबद्ध हो मरने के लिए अभिशप्त कर दिया गया। किन्तु एक भी पैसेवाला, एक भी अधिकारी, एक भी धर्म गुरु, एक भी नेता, यहाँ तक कि एक भी पार्षद या पार्षद प्रतिनिधि एक भी दिन, किसी भी बैंक के सामने खड़ा दिखाई नहीं दिया। नोटबन्दी के चलते किसानों की उपज का मोल दो कौड़ी से भी गया-बीता हो गया, उन्हें अपनी उपज सड़कों पर फेंकनी पड़ गई लेकिन कोलगेट, लीवर के टूथ पेस्ट का या कि कोका कोला पेप्सी की बोतल का भाव एक पैसा भी कम नहीं हुआ। और तो और, ‘स्वदेशी’ की दुहाई देकर माल बेच रहे पतंजलि के बिस्कुट का भी भाव एक पैसा भी कम नहीं हुआ। 

बात इससे भी काफी आगे जाती दीख रही है। संविधानिक संस्थाओं को पालतू बनाने की कोशिशें सहजता से, खुले आम की जा रही हैं। नोटबन्दी जिस तरह से लागू की गई और उसके क्रियान्वयन में जो मनमानी बरती गई उसने भारतीय रिजर्व बैंक की व्यर्थता अत्यधिक प्रभावशीलता से रेखांकित की। इसके गवर्नर उर्जित पटेल की छवि एक फूहड़, देहाती विदूषक जैसी बन कर रह गई। न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर चल रही खींचातानी, प्रतिबद्ध न्यायपालिका की स्थापना का श्रमसाध्य यत्न अनुभव हो रहा है। सेना का राजनीतिक उपयोग अधिकारपूर्वक किया जा रहा है। आठ नवम्बर को, प्रधान मन्त्रीजी द्वारा नोटबन्दी के घोषित चारों के चारों लक्ष्य औंधे मुँह धूल चाट रहे हैं। यह सब हो रहा है किन्तु कहीं पत्ता भी नहीं खड़क रहा। बरबस ही डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की, कोई डेड़-दो बरस पहले, किसी समाचार चैनल की बहस में भाग लेते हुए कही बात याद आ रही - ‘अब आपातकाल की औपचारिक घोषणा की आवश्यकता नहीं रह गई।’

चारों ओर पसरी, बेचैन चुप्पी मानो मुखरित होने के लिए इधर-उधर देख रही है। प्रतिपक्षी राजनीतिक दल ऐसे समय अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। लेकिन देश के तमाम प्रतिपक्षी राजनीतिक दलों की दाल पतली है। वे तो अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए ही जूझ रहे हैं। जिन्दा रहेंगे तो ही तो जनता की बात कर पाएँगे? उस पर नुक्ता यह कि एक भी दल में आन्तरिक लोकतन्त्र नहीं रह गया है। मूक जनता की जबान बनने की जिम्म्ेदारी निभानेवाले अखबार/मीडिया की दशा, दिशा अजब-गजब हो गई है। किसी जमाने में जनता को अखबार का वास्तविक स्वामी कहा जाता था और पाठकों की नाराजी अखबारों के लिए सबसे बड़ी चिन्ता होती थी। आज ऐसा कुछ भी नहीं है। अखबार/मीडिया ने मानो अपनी कोई नई भूमिका तलाश कर ली है।  सम्पादक के नाम पत्र स्तम्भ समाप्त कर दिए गए हैं और यदि किसी अखबार में है भी तो खानापूर्ति करते हुए। प्रकाशित होने वाले पत्र ‘कफन के अनुसार मुर्दा’ की तरह होते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो दर्शकों/श्रोताओं की बात के लिए जगह शुरु से ही कभी रही ही नहीं। 

एक सन्तुष्ट गुलाम, आजादी का सबसे बड़ा शत्रु होता है। चारों ओर देखने पर मन में सवाल उठता है - देश ने आत्मीय प्रसन्नतापूर्वक खुद को एक अधिनायक को तो नहीं सौंप दिया? कभी-कभी परिहास में सुनने को मिल जाता है कि लोकतन्त्र को ढंग-ढांग से चलाने के लिए एक तानाशाह की जरूरत होती है। हम उसी स्थिति मेें तो नहीं आ रहे? हमने सचमुच में एकाधिकारवादी गणतन्त्र या कि तानाशाहीवादी गणतन्त्र ईजाद तो नहीं कर लिया? हमारी यह नई खोज कहाँ खत्म होगी?

अपनी यह आशंका मैंने राजनीति शास्त्र के एक अध्येता को कही तो वे भी विचार में पड़ गए। बोले - ‘इण्डियन केरेक्टर कुछ कह भी कर सकता है। हकीकत तो 2019 के चुनावों के समय ही मालूम हो सकेगी।’

लेकिन व्याप्त दास भाव और अखबारों/मीडिया, राजनीतिक दलों की भूमिका को देख आशंका उपजी - 2019 के चुनाव होंगे भी?

इस आशंका के साथ गणतन्त्र दिवस की बधाइयाँ।
----

(दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल के 26 जनवरी 2017 के अंक में मुखपृष्‍ठ पर प्रकाशित।)

मोदी से माफी माँग लें गाँधी प्रेमी

कठोर मुख-मुद्रा और हाथ में पोनी लिए बिना, चरखे पर सूत कातने का उपक्रम कर रहे, प्रधान मन्त्री मोदी के चित्र को लेकर उनके विरोधी और अनेक गाँधी-प्रेमी मोदी पर टूट पड़े हैं। मुझे हैरत नहीं हो रही न ही गुस्सा आ रहा। मुझे दोनों पर तरस और हँसी आ रही है। गुस्सा करनेवाले यदि केवल मोदी ही नहीं, समूचे संघ परिवार के संकट और हीनताबोध का अनुमान लगा पाते तो वे भी हँसतेे।

संघ और भाजपा सहित उसके तमाम अनुषांगिक संगठनों का सबसे बड़ा संकट है-उनके पास अपना एक भी महापुरुष नहीं। सारी दुनिया जानती है कि भारत के स्वाधीनता संग्राम से संघ ने खुद को घोषित रूप से दूर रखा क्योंकि वह  ‘हिन्दू भारत’ चाहता था जबकि गाँधी और काँग्रेस ऐसे स्वतन्त्र भारत के लिए संघर्षरत थे जिसमें सब धर्मों, मतों, सम्प्रदायों, समुदाय के लोगों के लिए बराबर की जगह थी। 

महापुरुषविहीन ऐसी स्थिति में कोई भी वही करता जो संघ परिवार और मोदी कर रहे हैं। उन्हें ऐसा अतीत और ऐसे व्यक्तित्व चाहिए जिनके सहारे गर्वपूर्वक लोगों के बीच जा सके। हीनताबोध से कभी मुक्ति नहीं पाई जा सकती क्योंकि हम खुद से झूठ नहीं बोल सकते। इसलिए संघ परिवार समय-समय पर ऐसे व्यक्तित्वों का अवलम्बन लेता रहता है जो जनमानस में श्रेष्ठ चरित्र, उत्कृष्ट देशभक्ति और प्रतिभा-वैशिष्ट सम्पन्न हों। लेकिन इसके समानान्तर वह यह चतुराई भी बरतता है कि किसी भी व्यक्तित्व को अपनी स्थायी पहचान कभी नहीं बनाता। कभी वह सरदार पटेल को लेकर आता है, कभी विवेकानन्द को, कभी भगतसिंह को, कभी महाराणा प्रताप को, कभी शिवाजी को, कभी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस आदि-आदि को। संघ भली प्रकार जानता है कि यदि किसी एक को भी अपनी स्थायी सम्पत्ति बनाया तो लेने के देने पड़ जाएँगे क्योंकि ये तमाम चरित्र संघ के सिद्धान्तों, मतों, बातों को सिरे से खारिज करते हैं। 

यह तथ्य इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि सरदार पटेल ने संघ को भारत की साम्प्रदायिक एकता के लिए हानिकारक बताते हुए उसे प्रतिबन्धित करने की सलाह दी थी। गाँधी हत्या में भी सरदार पटले ने संघ की भूमिका का अन्देशा जताया था। भला ऐसे आदमी को संघ अपना स्थायी गर्व पुरुष कैसे बना सकता है?

शहीद-ए-आजम भगतसिंह संघ के प्रमुख गर्व पुरुष हैं। भगतसिंह ने खुद को कम्युनिस्ट और नास्तिक घोषित किया। वे ईश्वर को खारिज करते थे। उनके कारावास काल में जिस महिला (जिसे वे ‘बेबे’ याने माँ कहते थे) ने उनका मल-मूत्र साफ किया, उसके हाथ का बनाया भोजन करना उनकी अन्तिम इच्छा थी। जबकि संघ मनु स्मृति आधारित वर्ण व्यवस्था का समर्थन करता है। इसीलिए संघ भगतसिंह को भी सदैव ही ‘ठीक समय और प्रसंग’ पर ही काम में लेता है। 

शिवाजी और राणा प्रताप को संघ हिन्दू रक्षक रूप में पेश करता है। किन्तु जैसे ही लोग इन दोनों के मुसलमान सेनापतियों के बारे में बताना या पूछना शुरु करते हैं तो फौरन ही विषय बदल दिया जाता है। विस्तार से बात करने पर मालूम होता है कि इन दोनों की विजय में मुसलमान सेनापतियों का अमूल्य योगदान है। 

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को लेकर भी संघ का संकट कम नहीं है। उनकी मृत्यु को लेकर संघ परिवार शुरु से ही नेहरू और काँग्रेस को अपराधी घोषित करता रहा। किन्तु पहले अटलजी की सरकार और अब मोदी सरकार के होते हुए ऐसा कोई दस्तावेज सामने नहीं लाया जा सका। नेताजी से जुड़ी दस्तावेजी सामग्री किश्तों में दे कर सनसनी बनाए रखी जा रही है किन्तु अब तक एक भी ऐसा दस्तावेज सामने नहीं लाया जा सका जो नेहरू की फजीहत कर सके। खास बात यह है कि नेताजी को हिन्दू प्रतीक के रूप में कभी पेश नहीं किया गया क्योंकि सारी दुनिया जानती है कि उनकी आजाद हिन्द फौज में सभी धर्मों के लोग शरीक थे।

विवेकानन्द संघ के सर्वाधिक प्रिय हिन्दू प्रतीक हैं। विवेकानन्द को अन्तरराष्ट्रीय पहचान दिलानेवले, सितम्बर 1893 में, शिकागो में सम्पन्न, 17 दिवसीय धर्म सम्मेलन में उन्होंने 12 व्याख्यान दिए किन्तु एक भी व्याख्यान में किसी धर्म कह निन्दा या आलोचना नहीं की न ही किसी धर्म को छोटा कहा।  उन्होंने कहा कि किसी इसाई को हिन्दू या बौद्ध नहीं बनना है न ही किसी हिन्दू या बौद्ध को इसाई बनना है। उन्होंने प्रत्येक धर्म को अपनी स्वतन्त्रता और विशिष्टता बनाए रखकर दूसरे धर्मों के भाव ग्रहण करते हुए चलने को उन्नति और विकास का मन्त्र बताया। विवेकानन्द ने रोटी को धर्म से पहले माना और उस ईश्वर में अनास्था जताई जो रोटी न देकर स्वर्ग में सुख देता है। 

अपने महापुरुष के नाम पर संघ के पास केवल सावरकर का नाम है। किन्तु यह दुःखद और अप्रिय संयोग है कि अंग्रेजों को पेश किया लिखित माफीनामा और खुद को अंग्रेजों का निष्ठावान सहयोगी घोषित करने वाले पत्र इतिहास के पन्ने बने हुए हैं। इसलिए सावरकर भी बहुत थोड़ी दूर तक संघ के लिए उपयोगी साबित हो पाते हैं।

संघ के इतिहास में दीनदयाल उपाध्याय अब तक के इकलौते ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने आर्थिक चिन्तन किया। किन्तु उनका ‘अन्त्योदय’ भी अन्ततः गाँधी के ‘अन्तिम आदमी की चिन्ता’ के विचार की नकल कह दिया जाता है।

ये कुछ छोटे-छोटे उदाहरण हैं जिनसे संघ का संकट समझा जा सकता है। गाँधी पहले ही क्षण से संघ के गले की फाँस बना हुआ है। वह न निगलते बनता है न उगलते। गाँधी की सर्वकालीनता और वैश्विकता सारी दुनिया मानती है। स्थिति यह है कि गाँधी भारत से अधिक शेष दुनिया में जाने-माने-पूजे जाते हैं। संघ की उलझन इसी से समझी जा सकती है कि वह गाँधी को जहाँ ‘प्रातः स्मरणीय’ कहता है वहीं गाँधी-हत्या को ‘गाँधी-वध’  कहता है। 

इस देश में गाँधी के बिना किसी का काम नहीं चल पाता। गाँधी सर्वप्रिय, सर्वस्वीकार और सर्व-सुलभ हैं। उनसे खुद को जोड़कर हर कोई अपना कद बढ़ा सकता है। बाजार की भाषा में कहें तो गाँधी ‘बेस्ट सेलेब्रिटी’ हैं। इसकी सबसे ज्यादा बिक्री और सर्वाधिक लाभ-अर्जन काँग्रेस ने किया और कुछ इस तरह किया कि वह इसे अपनी जागीर समझने लगी जबकि गाँधी तो सबके हैं।

इसीलिए, मोदी यदि खुद को गाँधी से जोड़ने से नहीं रोक सके तो यह सहज स्वाभाविक है। इस उपक्रम पर नाराज होनेवाले भूल जाते हैं कि किसी से भी जुड़ने पर गाँधी का कद कम नहीं होता। गाँधी यदि होते तो वे भी नाराज नहीं होते। हाँ! बड़ा अन्तर यह रहा कि काँग्रेसियों ने कभी खुद को गाँधी की तरह पेश नहीं किया जबकि अपने इस विवादित उपक्रम में मोदी खुद को गाँधी साबित करते हुए गाँधी से आगे जाते हुए लगते हैं। 

मेरे विचार से मोदी गुस्से के नहीं, सहानुभूति के पात्र हैं। पता नहीं किन क्षणों में उन्हें (या उन्हें इस स्थिति में प्रस्तुत करनेवाले को) यह विचार आया और उनकी दशा, गाँवों-कस्बों के मेले में, लम्बे बाँसों पर चढ़कर चलनेवाले विज्ञापनी-व्यक्ति जैसी हो गई जिसकी असामान्य ऊँचाई को ताज्जुब से देखते तो सब हैं किन्तु जानते हैं कि यह उसकी नहीं, बाँसों की ऊँचाई है। हमारा जनमानस बोलता भले न हो किन्तु जानता खूब है कि फूलों के साथ धागा और कीट-पतंग भी देवताओं के कण्ठ तक पहुँच जाते हैं। धागा तो दिखाई नहीं देता। कीट-पतंग दिखाई देते हैं। तकलीफ की बात यह है कि उन्हें देखते समय लोगों को उनकी उपयोगिता याद नहीं आती। याद आता है, उनका काटना और उससे उपजी खुजलाहट।

मेरा तो मत है कि मोदी पर गुस्सा होनेवालों और गाँधी प्रेमियों ने गाँधी की आत्मा की प्रसन्नता के लिए मोदी से सार्वजनिक क्षमा याचना कर लेनी चाहिए। 
---

(दैनिक सुबह सवेरे, भोपाल में 18 जनवरी 2017 को प्रकाशित)

सूचना हासिल कर लो तो जानें

शेखरजी के अनुभवों को आधार बनाया जाए तो मानना पड़ेगा कि मध्य प्रदेश सरकार, यदि सूचना के अधिकार अधिनियम और प्रधान मन्त्री मोदी के, डिजिटल इण्डिया के इरादे विफल नहीं कर रही तो इन दोनों को साकार करने को तो बिलकुल ही उत्सुक अनुभव नहीं होती।

शेखरजी ने पेट्रोलियम पदार्थों पर आरोपित विभिन्न करों के ब्यौरे जानने के लिए, वाणिज्यिक कर कार्यालय इन्दौर से दो प्रश्न और गए पाँच वर्षों म्ों पेट्रोलियम पदार्थों के जरिए संग्रहित कर राशि जानने के लिए तीसरे प्रश्न के जरिए, सूचना के अधिकार के अन्तर्गत जानकारी माँगी।

इस हेतु आवेदन शुल्क 10/- रुपयों के पोस्टल आर्डर के साथ अपना आवेदन पंजीकृत-पत्र के रूप में  भेजा जिस पर 22/- रुपये खर्च हुए। जवाब में वाणिज्यिक कर विभाग ने 25/- रुपयों के खर्चवाले पंजीकृत पत्र द्वारा शेखरजी से 10 पन्नों की सूचना के लिए 20/- रुपयों का सूचना शुल्क और जवाब के लिए डाक व्यय भेजने को कहा। सरकार ने यदि ऑन लाइन व्यवस्थाएँ अपनाई होती तो यह खर्च और समय बचाया जा सकता था। शेखरजी ने रजिस्ट्री के 22/- रुपये खर्च कर 20/- रुपयों का पोस्टल आर्डर तो भेज दिया किन्तु डाक व्यय भेजने से यह कह कर इंकार कर दिया कि यह उनकी जिम्मेदारी नहीं है और कहा कि विभाग, वांछित सूचनाएँ शेखरजी को उनके ई-मेल पते पर भेज दे।

विभाग ने 30/- रुपये खर्च कर शेखरजी को सूचनाएँ भेज दीं। ऑन लाइन और डिजिटल व्यवस्था होती तो यहाँ भी डाक डाक खर्च, मँहगा कागज और समय बचाया जा सकता था।  शेखरजी ने उत्सुकता से लिफाफा खोला तो पाया कि विभाग ने पहले दो प्रश्नों की ही जानकारी भेजी और सबसे महत्वपूर्ण सूचना (पेट्रोलियम पदार्थों पर लगाए गए करों से गत पाँच वर्षों में प्राप्त रकम) बतानेवाले तीसरे प्रश्न का उत्तर ही नहीं दिया।

चूँकि प्रथम लोक सूचना अधिकारी अपनी ओर से आवेदन का निपटान कर चुका था इसलिए अपील करने के सिवाय शेखरजी के पास कोई विकल्प नहीं था। सो शेखरजी ने अभी-अभी ही, आवश्यक शुल्क 50/- रुपयों और आवश्यक जानकारियाँ 22 पन्नों में तैयार करवा कर अपनी अपील, अपीलीय अधिकारी को भेजी है और जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

पहली ही नजर में साफ अनुभव हो जाता है कि पहला लोक सूचना अधिकारी, शेखरजी की चाही गई सूचना देने में देर करना चाहता था। क्योंकि अपीलीय अधिकारी भी जो उत्तर देगा वह प्रथम लोक सूचना अधिकारी से ही हासिल करेगा। सूचना के अधिकार को विफल और  अनुपयोगी साबित करने की इस कोशिश को आप अपनी इच्छा और सुविधा से, जो भी नाम देना चाहें दे सकते हैं।

इस मामले में यह भी महत्वपूर्ण है कि मध्य प्रदेश सरकार ने डिजिटल व्यवस्था अपनाई होती तो भरपूर समय, मानव श्रम, मँहगा कागज और डाक खर्च बचाया जा सकता था। किन्तु यह मामला बताता है कि यह सब बचाना तो दूर, समय पर वांछित सूचनाएँ उपलब्ध न कराने में मध्य प्रदेश सरकार की रुचि अधिक है। इस मामले में अपील करने की स्थिति पैदा करना, इस रुचि का ही प्रत्यक्ष प्रमाण है।

इसके समानान्तर शेखरजी के अनुभवों के आधार पर यह जानकारी महत्वपूर्ण और उत्साहजनक है कि केन्द्र सरकार, राजस्थान सरकार और पंजाब सरकार ऐसी सूचनाएँ ई-मेल पर, डिजिटल स्वरूप में, ऑन लाइन उपलब्ध कराती हैं। केन्द्र सरकार तो ऑफ लाइन भी उपलब्ध करा देती है जबकि पंजाब सरकार ने एक बार 10 पन्नों की सूचना निःशुल्क ही भेज दी।

डिजिटल इण्डिया और सूचना के अधिकार को अपनाने और प्रोत्साहित करने के मामले में मध्य प्रदेश सरकार से जुड़े, शेखरजी के ये दो अनुभव जानकर गालिब का यह शेर, (एक छोटे से घालमेल सहित सहित) लागू होता लगता है -

                                        यह ‘राज्य’ नहीं आसाँ, बस इतना समझ लीजे
                                        इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
                                                                  ----

सूचना का अधिकार और डिजिटल इण्डियाः कबूल नहीं! कबूल नहीं!!

मध्य प्रदेश का एक नगर है-नीमच। जिला मुख्यालय है। अंग्रजों के जमाने में सेना का बड़ा केन्द्र था। आज सीआरपीएफ का बड़ा केन्द्र है। यहीं रहते हैं चन्द्र शेखर गौड़। एक निजी संस्थान में काम करते हैं। संस्थान के कर्मचारियों की भीड़ में उनकी कोई अलग पहचान शायद ही हो। लेकिन उनकी एक पहचान उन्हें भीड़ से अलग करती है। यह पहचान है - आरटीआई एक्टिविस्ट की। सूचना के अधिकार के तहत लोकोपयोगी जानकारियाँ माँगना उनका शौक था जो आज व्यसन बन गया है। इसके पीछे किए जानेवाले मासिक खर्च का आँकड़ा वे निश्चय ही अपनी उत्तमार्द्धजी से छुपाते होंगे। मालूम हो जाए तो शायद, बाल-बच्चों पर खर्च की जानेवाली रकम फालतू कामों में खर्च करने पर झगड़ा कर लें। लेकिन शेखरजी के पास आई सूचनाओं का मोल, खर्च की गई रकम से कई गुना अधिक है। मैं यदि किसी अखबार का या समाचार एजेंसी का सम्पादक होता तो शेखरजी से अनुबन्ध कर लेता और बीसियों-पचासों नहीं, सैंकड़ों से भी आगे बढ़कर अनगिनत ‘एक्सक्लूसिव’ समाचार (इतने कि महीनों तक दैनिक स्तम्भ के रूप में) छापने का श्रेय हासिल कर लेता। 

इन्हीं शेखरजी से मेरा सम्पर्क बना रहता है। बातों ही बातों में इन्होंने दो ऐसे किस्से सुनाए जो, राष्ट्रीय स्तर के दो महत्वपूर्ण मुद्दों, मोदी के डिजिटल इण्डिया के सपने और सूचना के अधिकार की सफलता, के प्रति मध्य प्रदेश सरकार की ‘नीयत’ उजागर करते हैं।

पहला किस्सा। 

मध्य प्रदेश की जेलों में बन्द कैदियों से जुड़ी मानवीय स्थितियों की कुछ सूचनाएँ उपलब्ध कराने के लिए शेखरजी ने जेल मुख्यालय को आवेदन भेजा। जवाब में उनसे, सूचना के चार पन्नों का शुल्क आठ रुपये जमा कराने को कहा गया। साथ ही, जवाब प्राप्त करने के लिए पर्याप्त डाक टिकिट लगा लिफाफा भी भेजने को कहा गया। 

आठ रुपये भेजने के लिए शेखरजी ने खूब माथा खुजाया। बैंक ड्राफ्ट बनवाएँ तो ‘सोने से घड़ावन मँहगी’ और मनी आर्डर करें तो, पत्र और मनी आर्डर अलग-अलग भेजने पर (दोनों का प्राप्ति समय अलग-अलग होने से) जवाब मिलने में देर होने का खतरा। सो, शेखरजी ने दस रुपयों का पोस्टल भेजा और साथ में रजिस्टर्ड पत्र से जवाब पाने के लिए सत्ताईस रुपयों के डाक टिकिट लगा लिफाफा भेजा। इसमें रजिस्‍ट्री खर्च आया 22/- रुपये। जवाब में शेखरजी को चार पन्नों की सूचना मिल गई।

पहली नजर में, देखने-सुनने में इसमें सब कुछ नियमानुसार, सामान्य ही लगता है। कुछ भी अटपटा और आपत्तिजनक नहीं लगता। किन्तु बकौल शेखरजी, इस मामले को तनिक ध्यान से और प्रधान मन्त्री मोदी के ‘डिजिटल इण्डिया’ की भावना के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कुछ अलग ही तस्वीर सामने आती है।

यदि सरकार ने अपने कामकाज में ऑन लाइन या कि डिजिटल व्यवस्था अपनाई होती तो शेखरजी आठ रुपयों का सूचना शुल्क ऑन लाइन जमा कर देते और शेखरजी को वांछित सूचनाएँ पहली ही बार में डिजिटल स्वरूप में मिल जातीं। 

यह तो विलम्ब की बात हुई। खर्चे का हिसाब तो और भी रोचक तो है ही, धन और संसाधनों के अपव्यय का मामला भी बनता है। विस्तृत ब्यौरे इस प्रकार हैं -

शेखरजी ने आवेदन शुल्क 10/- रुपयों के पोस्टल आर्डर सहित अपना आवेदन रजिस्टर्ड डाक से भेजा जिसका खर्च आया - 22/- रुपये। 

उत्तर में जेल मुख्यालय ने रजिस्टर्ड पत्र भेजकर शेखरजी से आठ रुपये सूचना शुल्क माँगा जिसका खर्च आया  22/- रुपये।

तदनुसार शेखरजी ने 27/- रुपयों के डाक टिकिट लगे लिफाफों सहित 10/- रुपयों का पोस्टल आर्डर रजिस्ट्री से भेजा। रजिस्ट्री का खर्च आया 22/- रुपये।

जेल मुख्यालय ने रजिस्टर्ड पत्र से शेखरजी को चार पन्नों में सूचना भेजी। इसमें रजिस्ट्री खर्च आया 22/- रुपये। 

इस तरह कुल खर्च आया 135/- रुपये। भरपूर समय, लिखा-पढ़ी का मानव श्रम और कागज-लिफाफे लगे सो अलग।

शेखरजी के मुताबिक सरकार ने यदि ऑन लाइन/डिजिटल व्यवस्था अपनाई होती और सूचना शुल्क 8/- रुपये ऑन लाइन जमा कराने की सूचना ई-मेल पर दी होती तो पहली बार आवेदन शुल्क 10/- रुपये, रजिस्ट्री शुल्क 22/- रुपये और बाद में 8/- रुपये सूचना शुल्क की सकल रकम केवल 40/- रुपये खर्च होते और सूचनाएँ डिजिटल स्वरूप में उपलब्ध करा दी जातीं। इसमें समय, मानव श्रम और संसाधनों के खर्च की जो बचत होती वह ‘शुद्ध मुनाफा’ होती। 

किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात यह होती कि यदि मध्य प्रदेश सरकार ने ऑन लाइन व्यवस्थाएँ अपनाई होतीं तो यह जहाँ एक ओर सूचना के अधिकार की पारदर्शिता की भावना के अनुकूल होता वहीं मोदी के, डिजिटल इण्डिया के विचार को भी साकार करता।

लेकिन यह उदाहरण बताता है कि मध्य प्रदेश सरकार को इन दोनों बातों से कोई लेना-देना नहीं है। 

दूसरा किस्सा अगली कड़ी में।
-----

पेटीएम तो नहीं करोगे?


09 जनवरी 2017. 

मैं इन्दौर में हूँ। कनाड़िया मार्ग स्थित शहनाई-2 के सामने, सर्व सुविधा नगर से मुझे और मेरी उत्तमार्द्धजी को ए. बी. रोड़ पर, सीएचएल अपोलो अस्पताल जाना है। मेरा परम मित्र रवि शर्मा वहाँ भरती है। सोमवार सुबह ही उसका, हर्निया का ऑपरेशन हुआ है।

मेरे बड़े बेटे वल्कल ने मेरे मोबाइल पर जुगनू ऑटो रिक्शा का एप स्थापित कर मुझे उसका उपयोग सिखा दिया है। उसी का उपयोग कर मैं एक ऑटो बुलाने का उपक्रम करता हूँ। मेरे मोबाइल के पर्दे पर एक ऑटो का नम्बर और ड्रायवर का नाम उभर आता है। कुछ ही क्षणों में मेरा मोबाइल घनघनाता है। उधर से ऑटो रिक्शा का ड्रायवर जानना चाह रहा है कि मैं कहाँ खड़ा हूँ। मैं अपनी जगह बताता, समझाता हूँ। वह पूछता है - ‘कहाँ जाओगे?’ मैं कहता हूँ - ‘अपोलो अस्पताल।’ वह पूछता है - ‘कौनसे वाला? विजय नगरवाला या एलआईजीवाला?’ मैं मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि मुझे दूसरे अस्पताल की जानकारी है। मैं ठसके से कहता हूँ - ‘एलआईजीवाला।’ वह कहता है - ‘अच्छा। थोड़ी ही दूर पर हूँ। बस! दो मिनिट में पहुँचता हूँ।’

दो मिनिटि, दो मिनिट में ही पूरे हो जाते हैं लेकिन उसका अता-पता नहीं। हम दोनों इन्दौर के भूगोल से अपरिचित हैं। नहीं जानते कि वह कौन सी दिशा से आएगा। सड़क किनारे खड़े हम दोनों दाँये-बाँये देखते हैं। कोई दस-बारह मिनिट बाद वह आता है। हम दोनों बैठने को होते हैं। वह पूछता है- ‘पेमेण्ट केश करोगे या पेटीएम करोगे?’ मैं कहता हूँ - ‘नगद करूँगा।’ वह शायद ‘नगद’ का मतलब समझ नहीं पाता है। तनिक ऊँची आवाज में कहता है - ‘नहीं! नहीं! मैं पूछ रहा हूँ कि पेमेण्ट केश करोगे या पेटीएम करोगे?’ मुझे अपनी चूक समझ में आ जाती है। कहता हूँ - ‘केश करेंगे।’ वह मानो राहत की साँस लेता है। कहता है - ‘तो ठीक है। बैठो।’

हम दोनों बैठ जाते हैं। रिक्शा चल पड़ता है। उसके सवाल मेरे पत्रकार को जगा भी देते हैं और उकसा भी देते हैं। रास्ते भर मैं उसके सवाल को लेकर उसे कुरेदता रहता हूँ। टुकड़ों-टुकड़ों में उसके जवाबों का समेकित जवाब कुछ इस तरह होता है - ‘पेटीएम में यूँ तो कोई तकलीफ नहीं सा’ब लेकिन भुगतान सात-सात दिन में मिलता है। अब, सात दिनों के लिए दाना-पानी कहाँ से लाऊँ। घर में तो रोज पैसे चाहिए होते हैं। पेटीएम के भरोसे रहने के लिए घर में एक मुश्त रकम चाहिए होती है। वो कहाँ से लाऊँ? कागजी बातें छोड़ दो तो ये रिक्शा भाड़े का है। मालिक को तो अपना भाड़ा रोज ही चाहिए। बहुत हुआ तो चौबीस घण्टों की उधारी कर ले। लेकिन उसके बाद? उसे तो भाड़ा चाहिए ही चाहिए और वो भी केश में। वो पेटीएम-वेटीएम नहीं जानता। इसलिए पेमेण्ट केश में लेना मेरी मजबूरी है। इस कारण कभी-कभी ग्राहक छोड़ भी देता हूँ। हम लोग ग्राहक के लिए घण्टों राह देखते हैं। इसलिए सामने आया धन्धा छोड़ने में बहुत तकलीफ होती है लेकिन क्या करूँ सा’ब! मेरी भी मजबूरी है।’

उसकी बात सुनकर मन में करुणा उपजती है। उसने मेरे सारे सवालों के जवाब दे दिए हैं। उससे असहमत होना कठिन है। फिर भी मैं कहता हूँ - ‘अपने मोदीजी तो भारत को केशलेस बनाना चाहते हैं। तुम उनकी मदद नहीं करोगे?’ निर्विकार भाव से वह कहता है - ‘मोदीजी की क्या बात करें सा’ब! वो तो बड़े आदमी हैं। उनके सामने तो, वो नहीं माँगें तो भी काजू-किशमिश आ जाते हैं। वो हमारी बात क्या समझेंगे! उनके बाल-बच्चे होते तो समझते। तब वो केशलेस की बात करने से पहले हजार बार सोचते सा’ब।’ मैं कहता हूँ - ‘तुम ऐसी बातें करोगे तो देश केशलेस कैसे बनेगा?’ उसी तरह, निर्विकार भाव से वह कहता है - ‘बन जाएगा सा’ब। पीएम ने कहा है तो कैसे नहीं बनेगा? मोदीजी हमारे जैसे लोगों के भरोसे थोड़े ही हैं। सब बड़े लोग उनके दोस्त हैं। वो सब मिलकर बना देंगे सा’ब।’

बात-बात में हम अस्पताल पहुँच जाते हैं। वह मोबाइल उठाकर ‘राइड एण्ड’ कर दो पल बाद रकम बताता है। मैं भुगतान करता हूँ। वह जाने के लिए ऑटो स्टार्ट करता है। मैं अस्पताल की ओर जाने को होता हूँ कि वह मुझसे कहता है - ‘सा’ब! आप मोदीजी की पार्टी के हो। उनसे कहना कि कोई भी फैसला लेने से पहले कम से कम एक बार हम गरीबों की जरूर सोच लें।’

मैं कुछ कहूँ, उससे पहले ही वह गाड़ी को गीयर में डाल, तेजी से चल देता है। उसे क्या पता कि मैं कहना चाहता था कि भाई! मोदीजी तक मेरी पहुँच नहीं है। लेकिन, होती तो भी नहीं कहता। वे किसी सुनते ही कहाँ हैं?
-----

नामुमकिन है खुद से आँखें चुराना

मुझे, चाँदनी चौक में, एक व्यापारी मित्र को भुगतान करना थ। मेरे कस्बे का प्रख्यात सराफा बाजार, चाँदनी चौक में ही है। दोपहर एक बजे का समय था। ग्राहक एक भी नहीं था। आसपास के चार-पाँच, सराफा व्यापारी, अपनी-अपनी दुकान छोड़कर बैठे हुए थे। छोटी-मोटी गोष्ठी जमी हुई थी। भरपूर आत्मीयता और ऊष्मा से मेरी अगवानी हुई। मुझे बैठाया बाद में, चाय मँगवाने के निर्देश पहले दिए गए। मैंने भुगतान की बात की। व्यापारी ने हाथ पकड़ लिया - ‘आप अच्छे आए। सुबह से बोहनी नहीं हुई है। लेकिन आप तो बैठो। भुगतान होता रहेगा। आपके पैसे कहीं नहीं जाते।’ मैं बिना कुछ कहे, समझदार बच्चे की तरह बैठ गया। 

जैसी कि मुझे उम्मीद थी, ‘मोदी और मोदी की नोटबन्दी’ के आसपास ही सारी बातें हो रही थीं। मेरा कस्बा, प्रादेशिक स्तर पर, बरसों से भाजपा की जागीर बना हुआ है। याद करने में तनिक मेहनत करनी पड़ती है कि गैर भाजपाई निर्वाचित जनप्रतिनिधि कब और कौन था। इसलिए, समवेत स्वरों में ‘राग भाजपा’ में ‘मोदी गान’ चल रहा था। फर्क यही था कि इस ‘मोदी गान’ में हर्षोल्लास या जीत की किलकारियों की जगह ‘आत्म प्रताड़ना’ और ‘किससे करें शिकायत, किससे फरियाद करें’ के ‘वेदना के स्वर’ प्रमुख थे। कुछ इस तरह मानो सबके सब अपनी फजीहत के मजे ले रहे हों।

शरारतन इरादे से किए गए मेरे ‘और सुनाइये सेठ! क्या हाल हैं?’ के जवाब में सब ‘हो! हो!!’ कर हँस पड़े। कुछ इस तरह कि मैं झेंप गया। एक ने मानो मुझे रंगे हाथों पकड़ने की घोषणा की - ‘क्यों अनजान बनने का नाटक कर रहे हो बैरागीजी? हमसे क्या पूछते हो? आप हमारी हालत राई-रत्ती जानते हो। हमारे जितने मजे लेने हो! सीधे-सीधे ले लो यार! आप कितना भी, कुछ भी कर लो, भोलेपन की नोटंकी करने में हमारे मोदीजी की बराबरी नहीं कर पाओगे। इसलिए घुमा-फिरा कर बात मत करो।’ मैंने खिसियाये स्वरों में सफाई दी - ‘नहीं! नहीं! ऐसा मत कहिए। मैं आपके मजे क्यों लूँगा? मुझे सच्ची में कुछ पता नहीं।’ दूसरे ने तड़ाक् से कहा - ‘चलो! आपके झूठ को सच मान लेते हैं। हमारे मुँह से ही सुनना है तो सुनो! बुरे हाल हैं। बहुत बुरे। न रोते बन रहा है न हँसते। न मर पा रहे हैं न जी पा रहे हैं। अब तो आप खुश?’ कह कर जोर से हँस पड़े। निश्चय ही मैं रूँआसा हो आया होऊँगा। मेरी शकल देख कर बोले - ‘अरे! रे! रे! आप तो दिल पर ले बैठे! सीरीयस हो गए! मैं आपकी मजाक नहीं उड़ा रहा। इन दिनों हम सब यही कर रहे हैं। काम-धाम तो सब बन्द पड़ा है! मोदीजी ने सबको फुरसतिया बना रखा है। इसलिए इकट्ठे हो कर एक-दूसरे के बहाने अपनी ही मजाक उड़ाते रहते हैं।’

तीसरे ने तनिक संजीदा हो कहा - ‘आप बुरा मत मानो। आपने तो हमसे पूछ भी लिया। हम किससे पूछें? क्या पूछें? हम पर तो ठप्पा लगा हुआ है। हमें भी अपने भाजपाईपन पर खूब भरोसा रहा है। भरोसा क्या, घमण्ड रहा है कि भाजपा हम व्यापारियों की पार्टी है। हम जो कहेंगे, जो चाहेंगे, मनवा लेंगे। पार्टी चाहे जो कर ले, व्यापारी का नुकसान कभी नहीं करेगी। लेकिन हमारा यह घमण्ड तो मार्च में ही टूट गया। आपने तो सब कुछ अपनी आँखों देखा। सरकार ने जेवरों पर टैक्स लगा दिया। हमने विरोध किया। भरोसा था कि हमारी बात पहले ही झटके में मान ली जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हमें लगा, हमारी माँग फौरन ही मानने में सरकार को शरम आ रही होगी। कुछ दिनों के विरोध की नूरा-कुश्ती के बाद मान लेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हमने दबाव बनाया। कोई दो सौ परिवारों ने भाजपा से सपरिवार त्याग-पत्र देने की चेतावनी दी। किसी ने ध्यान नहीं दिया। हम त्याग-पत्र लेकर, जुलूस बनाकर भाजपा पदाधिकारियों के दरवाजे खटखटाते रहे। कोई हमारे त्याग-पत्र हाथ में लेने को तैयार नहीं हुआ। हमने डाक से भेज दिए। लेकिन पूछताछ करना तो दूर, किसी ने पावती भी नहीं भेजी। पार्टी ने हमारी औकात बता दी। हमारा घमण्ड धरा का धरा रह गया। यह सब हम किससे कहें? कहें तो भी किस मुँह से? हम कहीं और जा भी नहीं सकते। कोई हमारा विश्वास नहीं करेगा। हम व्यापारी हैं। इतनी समझ तो हममें हैं कि अब सब-कुछ चुपचाप सहन करते रहें। आपने ही एक बार अंग्रेजी की वो भद्दी कहावत सुनाई थी कि जब बलात्कार टाला न जा सके तो उसका आनन्द लेना चाहिए! तो समझ लो! हम वही आनन्द ले रहे हैं।’ वातावरण अत्यधिक गम्भीर हो गया। गुस्सा इस तरह भी जाहिर किया जा सकता है? समूचा परिहास और उपहास, मानो करुणा की नदी बन कर बहने लगा। 

वह व्यापारी मित्र निश्चय ही अत्यधिक भावाकुल हो गया था। ग्राहकों की मौजूगी तलाश रहे बाजार की वह दोपहर मानो सन्नाटेभरे  जंगल  में बदल गई। पता नहीं वह अपराध-बोध था या अपनों के अत्याचार से उपजी पीड़ा का प्रभाव कि मानो सबके सब गूँगे हो गए। मुझे अपनी धड़कन और साँसों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। मुझे घबराहट होने लगी। लगा, घुटी-घुटी साँसों के कारण मेरी छाती फट जाएगी और मेरा प्राणान्त हो जाएगा। मैंने उबरने की कोशिश करते हुए कहा - ‘अब तो आप दिल पर ले बैठे। मैं माफी माँगता हूँ। आप तो व्यापारी हैं। इसे भी व्यापार का हिस्सा ही समझिए। ऐसी ऊँच-नीच तो चलती रहती है।’ लम्बी साँस लेकर वह व्यापारी मित्र बोला - ‘आप ठीक कह रहे हैं। हम सब भी यही कह-कह कर एक-दूसरे को समझा रहे हैं। लेकिन सच तो यह है कि हम सब अपने आप से झूठ बोल रहे हैं। संगठन के प्रति निष्ठा बरतने के नाम पर हम उन सारी बातों पर चुप हैं जिनके विरोध में हम लोग झण्डे-डण्डे उठा कर सड़कों पर उतर कर आसमान-फाड़ नारेबाजी करते रहे हैं। हम काले धन और भ्रष्टाचार के विरोध में सबसे ज्यादा बोलते हैं लेकिन हमारा एक प्रभाग प्रमुख (उन्होंने बैरागढ़ के किसी व्यक्ति का नाम लिया)  करोड़ों के काले धन के साथ पकड़ा गया तो चुप हैं। चुप ही नहीं हैं, उसे निर्दोष और ईमानदार भी कह रहे हैं। यह सब हम किससे कहें? यही हमारी तकलीफ है बैरागीजी! हमारी दशा तो उस लड़के जैसी हो गई है जिसकी माँ ने अपने पति की हत्या कर दी। लड़के का संकट यह कि बोले तो माँ को फाँसी हो जाए और चुप रहे तो बाप की लाश सड़ जाए। यह सब किससे कहें बैरागीजी? कौन अपनी माँ को डायन कहे? कौन अपनी ही जाँघ उघाड़कर अपनी हँसी उड़वाए?’

मेरी बोलती बन्द हो चुकी थी। मैं मानो ‘संज्ञा शून्य’, जड़वत् हो गया। क्या कहूँ? क्या करूँ? मुझे कुछ भी सूझ नहीं  रहा था। मेरी दशा देख, वह व्यापारी मित्र ‘हो! हो!’ कर हँस पड़ा। बोला - ‘सब लोग कहते हैं कि अपनी बातों से आप सबकी बोलती बन्द कर देते हो। लेकिन यहाँ तो उल्टा हो गया। आपकी बोलती बन्द हो गई! होता है बैरागीजी! ऐसा भी होता है। कहते हैं कि हर सेर को सवा सेर मिलता है। हर ऊँट पहाड़ के नीचे आता है। लेकिन यह शायद ही कोई जानता होगा कि यह सवा सेर और यह पहाड़ ईमानदारी और सच की शकल में होता है। हो न हो, इसीलिए हमारे मोदीजी ने नोट बन्दी के मामले में संसद में मतदान कराने की बात नहीं मानी कि कहीं हमारे लोगों की आत्माओं को झकझोर रहा यही सवा सेर और पहाड़ उनकी बोलती बन्द न कर दे।’
-----

एके साधे सब सधे

(भारतीय जीवन बीमा निगम के अधिकारियों, कर्मचारियों और अभिकर्ताओं को समृद्ध करने के लिए ‘निगम’ अपनी मासिक गृह-पत्रिका ‘योगक्षेम’  प्रकाशित करता है। उसी में प्रकाशनार्थ मैंने दिनांक 13 दिसम्बर 2013 को यह आलेख भेजा था। उसके बाद एक बार याद भी दिलाया था किन्तु अब तक कोई जवाब नहीं मिला। निश्चय ही इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया होगा। मेरे मतानुसार यह आलेख मुझ जैसे छोटे, कस्बाई अभिकर्ताओं के लिए तनिक सहयोगी और उपयोगी हो सकता है। इसी भावना से इसे अब अपने ब्लॉग पर दे रहा हूँ। इसके अतिरिक्त इसका न तो कोई सन्दर्भ है, न उपयोगिता और न ही प्रसंग।)




एक लोकोक्ति है कि लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं। किन्तु समझदार वे होते हैं जो दूसरों की गलतियों से सीखते हैं। मैं, भारतीय जीवन बीमा निगम के मुझ जैसे तमाम अभिकर्ताओं को न्यौता दे रहा हूँ - मेरी गलतियों से सीखकर समझदार होने के लिए। 

महानगरों की स्थिति तो मुझे नहीं पता किन्तु कस्बाई स्तर पर हमारे अभिकर्ता साथी एकाधिक संस्थाओं की एजेन्सियाँ लिए होते हैं। ‘निगम’ का अभिकर्ता बनने के शुरुआती कुछ बरसों तक मैं भी यही करता था। किन्तु मैंने, एक के बाद एक बाकी सारे काम छोड़ दिए और केवल ‘एलआईसी एजेण्ट’ ही बन कर रह गया। 

मैंने पाया कि ऐसा करने के बाद न केवल मेरी आय बढ़ी बल्कि मेरी सार्वजनिक पहचान और प्रतिष्ठा (वह जैसी भी है) में मेरी अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी हुई। 
मेरे पास भारतीय यूनिट ट्रस्ट, डाक घर और साधारण बीमा (जनरल इंश्योंरेंस) कम्पनी की भी एजेन्सी थी। मेरी बात को किसी संस्था की आलोचना न समझी जाए किन्तु मेरा अनुभव रहा है कि ग्राहक सेवाओं के मामले में ‘निगम’ से बेहतर कोई संस्था नहीं। हर कोई जानना चाहेगा कि मैंने शेष तीनों एजेन्सियाँ क्यों छोड़ीं। मैं भी बताने को उतावला बैठा हुआ हूँ।

मैंने काम शुरु किया उस समय मेरे कस्बे में भारतीय यूनिट ट्रस्ट का कार्यालय नहीं था। तब यह इन्दौर में था - मेरे कस्बे से सवा सौ किलोमीटर दूर। एक निवेशक के नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) दुरुस्त कराने में मुझे सात महीनों से अधिक का समय लग गया और इस दौरान मैंने  प्रति माह कम से कम चार-चार पत्र लिखे। याने प्रति सप्ताह एक पत्र। ग्राहक का नाम तो आखिरकार दुरुस्त हो गया किन्तु ग्राहक की नजरों में मेरे लिए विश्वास भाव में बड़ी कमी आई। वह जब भी मिलता, कहता - ‘क्या! बैरागी सा’ब! मेरा नाम दुरुस्त कराने में यह हालत है तो अपना भुगतान लेने में तो मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ जाएगा! ऐसे में आपसे बीमा कैसे लें?’ ऐसे प्रत्येक मौके पर मुझे  चुप रह जाना पड़ता था। अन्ततः नाम ही दुरुस्त नहीं हुआ, मैं भी दुरुस्त हो गया।  मैंने वह एजेन्सी छोड़ दी।

डाक घर के साथ मेरा अनुभव तनिक विचित्र रहा। डाक घर के बचत बैंक पोस्ट मास्टर मेरे पड़ौसी थे। हम दोनों रोज सुबह, अपना-अपना अखबार बदल कर पढ़ते थे। कभी मेरे यहाँ नल में पानी नहीं आता तो मैं उनके नल का उपयोग करता और कभी उनके नल में पानी नहीं आता तो वे मेरे नल से पानी लेते। किन्तु मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब मेरे सगे भतीजे के एक निवेश की परिपक्वता राशि का भुगतान मुझे करने से उन्होंने इंकार कर दिया - वह भी तब जबकि मेरे पास मेरे भतीजे द्वारा मेरे पक्ष में दिया गया आवश्यक, औपचारिक अधिकार-पत्र था। कुछ देर तो मुझे लगा कि वे मुझसे परिहास कर रहे हैं। किन्तु वे तो गम्भीर थे! स्थिति यह हो गई कि मुझे लिहाज छोड़ कर, शिकायत करने की धमकी देनी पड़ी। मुझे भुगतान तो मिल गया किन्तु इस घटना के बाद से हम दोनों के बीच की अनौपचारिकता, सहजता समाप्त हो गई और हम अपने-अपने अखबार से ही काम चलाने को मजबूर हो गए। मेरे मन में विचार आया कि जो साहब मुझे और मेरे बारे में व्यक्तिगत रूप से भली प्रकार जानते हैं, जब वे भी मुझे, मेरे भतीजे का भुगतान करने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं तो किसी सामान्य ग्राहक का भुगतान कराने में, एक अभिकर्ता के रूप में मेरी दशा क्या होगी? ऐसी घटनाओं का प्रभाव मेरे दूसरे कामकाज पर अच्छा नहीं पड़ेगा। मुझे ग्राहकों से हाथ धोना पड़ जाएगा। मेरा मोह भंग हो गया और मैंने उस एजेन्सी को नमस्कार कर लिया।

साधारण बीमा (जनरल इंश्योरेंस) कम्पनी से मेरा ऐसा कोई अप्रिय अनुभव तो नहीं रहा किन्तु दावा भुगतान को लेकर वहाँ की कार्यप्रणाली ने मुझे निरुत्साहित कर दिया। मैंने देखा कि अपने दावों का भुगतान प्राप्त करने के लिए ग्राहकों को बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। कुछ मामलों में मैंने पाया कि ग्राहक जब भी अपना भुगतान लेने आता तब उसे कोई न कोई कागज लाने के लिए कह दिया जाता। इसके सर्वथा विपरीत, ‘निगम’ ने मेरी आदत खराब कर रखी थी। मेरी इस बात से तमाम अभिकर्ता और अन्य लोग भी सहमत होंगे कि दावा भुगतान को ‘निगम; सर्वाेच्च प्राथमिकता देता है और स्थिति यह है कि हम ग्राहकों को ढूँढ-ढूँढ कर भुगतान करते हैं। कई बार तो ग्राहक को पता ही नहीं होता कि उसे कोई बड़ी रकम मिलनेवाली है। ऐसे पचासों भुगतान का माध्यम तो मैं खुद बना हूँ जो पालिसियाँ मैंने नहीं बेचीं और जिनका अता-पता मेरे शाखा कार्यालय ने मुझे दिया, मैंने सारी औपचारिकताएँ पूरी करवाईं और ग्राहक को भुगतान कराया। ऐसे प्रत्येक मामले में ग्राहक ने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया तो दिया ही, दुआएँ भी दीं। मुझे लगा कि एक ओर कहाँ तो हम भुगतान करने के लिए उतावले रहते हैं और कहाँ दूसरी ओर ग्राहक चक्कर लगाता रहता है! मुझे लगा कि कभी मेरा कोई ग्राहक नाराज हो गया तो उसका प्रतिकूल प्रभाव मेरी, जीवन बीमा एजेन्सी पर पड़ सकता है और मुझे व्यावसायिक नुकसान हो सकता है। यह ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। यह विचार आते ही मैंने चुपचाप वह एजेन्सी भी छोड़ दी।

अब मैं केवल एलआईसी का काम कर रहा हूँ। शुरु में तो मुझे लगा था कि मुझे नुकसान हुआ है किन्तु मेरी आय के आँकड़े मेरी इस धारणा पर मेरा मुँह चिढ़ाते हैं। मेरी आय प्रति वर्ष बढ़ी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि ग्राहक सेवाओं को लेकर मेरे ग्राहक मुझसे असन्तुष्ट नहीं हैं।

सारे काम छोड़कर एक ही काम करने के दो प्रभाव मैंने सीधे-सीधे अनुभव किए। पहला तो यह कि मैं अपने काम में अधिक दक्ष हुआ और दूसरा यह कि मेरे परिचय क्षेत्र में मुझे अतिरिक्त सम्मान से देखा जाने लगा। ग्राहकों से मेरा जीवन्त सम्पर्क बढ़ा और आज स्थिति यह है कि प्रति वर्ष मेरे ग्राहक बुला कर मुझे बीमा देते हैं। अपना परिचय देते हुए जब मैं कहता हूँ ‘‘मैं एलआईसी एजेण्ट हूँ और यही काम करता हूँ। इसके सिवाय और कोई काम नहीं करता।’ तो सामनेवाले पर इसका जो अनुकूल प्रभाव होता है उसे शब्दों में बयान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा।

यह सब देखकर और अनुभव कर मुझे अनायास ही कवि रहीम का दोहा याद आ गया -

         एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
         जो तू सींचौ मूल को, फूले, फले, अघाय।।

अर्थात् थोड़े-थोड़े पाँच-सात काम करने की कोशिश में एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि कोई एक ही काम हाथ में लिया जाए तो वह पूरा होता है उसके समस्त लाभ भी मिलते हैं और इस सीमा तक मिलते हैं कि हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। 

इसी क्रम में मुझे कवि गिरधर की एक कुण्डली याद आ रही है जो हमारी मातृसंस्था ‘एलआईसी’ पर पूरी तरह लागू होती है। कुण्डली इस प्रकार है -

         रहिये लटपट काटि दिन, अरु घामे मा सोय।
         छाँह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय।।
         जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहे।
         जा दिन बहे बयारी, टूटी तब जर से जैहे।
         कह गिरधर कविराय, छाँह मोटे की गहिये।
         पाता सब झरि जाय, तऊ छाया में रहिये।।

अर्थात्, ‘चाहे तकलीफ में दिन काट लीजिए, चाहे धूप में सोना पड़े लेकिन किसी कमजोर-पतले वृक्ष की छाया में मत बैठिए। पता नहीं कब धोखा दे दे! किसी दिन आँधी में जड़ से उखड़ जाएगा। इसलिए किसी विशाल, मोटे, घनी वृक्ष की छाया में बैठिए। ऐसे वृक्ष के सारे पत्ते भी झड़ जाएँगे तो भी सर पर छाया बनी रहेगी।’ मुझे लगता है कि ‘आर्थिक सुरक्षा और संरक्षा’ के सन्दर्भों में कवि गिरधर एलआईसी की ओर ही इशारा कर रहे हैं।

पूर्णकालिक (फुल टाइमर) अभिकर्ता के रूप में काम करने का सुख और सन्तोष अवर्णनीय है। इससे क्षमता और दक्षता में वृद्धि होती है जिसका अन्तिम परिणाम होता है - आय में वृद्धि। लेकिन इससे आगे बढ़कर एक और महत्वपूर्ण काम होता है - अधिकाधिक लोगों तक पहुँचकर उन्हें बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का। 

यही तो ‘निगम’ का लक्ष्य है!
-------------

(सर्वाधिकार लेखकाधीन।)


नोटबन्‍दी के खलनायक : सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक

तय कर पाना कठिन हो रहा है कि इस सब को क्या मानूँ - आश्चर्यजनक, निराशाजनक या हताशाजनक? क्या यह मात्र संयोग है कि अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग घरों में बैठे लोग किसी विषय पर अलग-अलग समय पर बात करते हुए लगभग एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते अनुभव हों? क्या सबको पूर्वाग्रही या सन्देही मान लिया जाए? क्या परस्‍पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं के लोग एक ही मुद्दे पर, समान-पूर्वाग्रही या समान-संशयी हो सकते हैं?

एक पारिवारिक प्रसंग में इस बार पूरे सात दिन ससुराल में रहना पड़ा। बहुत बड़ा कस्बा नहीं है। ऐसा कि घर पर नियमित रूप से आ रहे अखबार के अतिरिक्त कोई और अखबार नहीं मिल सकता। सब अखबारों की गिनती की ग्राहक-प्रतियाँ ही आती हैं। अतिरिक्त प्रति उपलब्ध नहीं। सो पूरे सात दिन एक ही अखबार पर आश्रित रहना पड़ा। काम-धाम कुछ नहीं। पूरी फुरसत। ऐसा कोई व्यक्तिगत सम्पर्क भी नहीं जहाँ जाकर दस-बीस मिनिट बैठ सकूँ। मैं आराम कर-कर थक गया। अखबार में, नए नोटों की थोक में बरामदगी की खबरों ने विचार दिया-अपने परिचय क्षेत्र के अधिकाधिक बैंककर्मियों से बात की जाए। मेरे सम्पर्क क्षेत्र में यूँ तो सभी विचारधारााओं के लोग हैं किन्तु संघी-भाजपाई अधिसंख्य हैं जबकि बैंक कर्मचारी संगठनों में वामपंथी अधिसंख्य हैं। किन्तु अनेक बैंककर्मी ऐसे हैं जो सुबह शाखा में जाते हैं और दिन में, प्रबन्धन के विरुद्ध प्रदर्शनों में ‘लाल सलाम! लाल सलाम!’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हैं। सुबह वैचारिक निष्ठा और दिन में रोटी बचाने की जुगत। कुछ कर्मचारी ऐसे हैं जो लिपिक के रूप में नियुक्त हुए थे और पदोन्नत होते-होते शाखा प्रबन्धक बन गए हैं। मैंने  यथासम्भव अधिकाधिक परिचितों से बात की। अपनी फुरसत और पिपासा शान्ति की भरपूर कीमत चुकानी पड़ मुझे। कुल मिलाकर कम से कम पाँच घण्टे तो बात की ही होगी मैंने। 

दो बातें समान अनुभव हुईं - लिपिक वर्ग के कर्मचारियों ने सामान्यतः आक्रामक हो कर बात की तो अधिकारी बन चुके कर्मचाािरयों ने मुद्दों पर, गम्भीरता से, लगभग तटस्थ भाव से बात की। किन्तु निष्कर्ष सबका एक ही था - ‘यह सब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के विरुद्ध, इन्हें बदनाम कर ध्वस्त करने का, कार्पोरेट घरानों और सरकार में बैठे पूँजीवादियों का सुनियोजित, गम्भीर षड़यन्त्र है जिसमें पूरा मीडिया तीव्र उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।’ मैंने अधिकारी बन चुके मित्रों की बातों को तनिक अधिक महत्व दिया।

अधिकारी बन चुके मित्रों का कहना रहा कि सरकारी बैंकों के कर्मचारियों में न तो सबके सब ‘पवित्र गायें’ हैं न ही सबके सब ‘काली भेड़ें’ हैं। सब तरह के लोग सब जगह हैं। भले, ईमानदार, कर्तव्य निष्ठ लोग अधिक हैं और बेईमान, कामचोर बहुत कम। किन्तु जैसा कि होता है, जिक्र बेईमानों का ही होता है, ईमानदारों का नहीं। ऐसे लोग निजी बैंकों में भी हैं। किन्तु सरकारी और निजी बैंकों में बहुत बड़ा अन्तर यह है कि सरकारी बैंकों में यह बेईमानी व्यक्तिगत स्तर पर है जबकि निजी बैंकों में संस्थागत रूप से है। इसका मतलब यह भी नहीं कि सारे के सारे निजी बैंक संस्थागत रूप से बेईमान हैं। इन मित्रों ने कहा - ‘किन्तु तनिक ध्यान से देखिए! थोक में नए नोट सामान्यतः निजी बैंकों से ही बरामद हो रहे हैं। किसी बैंक से इतनी बड़ी मात्रा में नए नोट कोई अकेला कर्मचारी, ‘प्रबन्धन’ की सहायता और सुरक्षा के बिना, व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्ध नहीं करा सकता।’ इन्होंने याद दिलाया कि कम से कम दो निजी बैंक अतीत में एण्टी मनी लाण्डरिंग अधिनियम के गम्भीर उल्लंघनकर्ता के रूप में चिह्नित और चर्चित हो चुके हैं। एक साथी ने याद दिलाया तो मुझे याद आया कि गत वर्ष ही भोपाल में एक बीमा एजेण्ट ने एक निजी बैंक की सहायता से, एण्टी मनी लाण्डरिंग एक्ट का उल्लंघन करते हुए, बिना पान कार्ड और बिना ग्राहक-पहचान-पत्रों के, अपने ग्राहकों के लाखों रुपये एक निजी बैंक में जमा करवा दिए थे। चूँकि देश में सरकारी बैंकों की उपस्थिति सर्वाधिक है इसलिए जनसामान्य का साबका इन्हीं से पड़ता है। यही इनका दोष है। जबकि सरकारी बैंकों के कर्मचारी अधिक मानवीय, अधिक सम्वेदनशील होकर काम करते हैं। 

इन इधिकारी मित्रों ने बड़ी पीड़ा से कहा - ‘हमारी कठिनाई यह है कि हमारी स्थिति कोई समझने को तैयार नहीं। समझे तो तब जब सुने!  सरकार ने 85 प्रतिशत मुद्रा वापस ले ली। इसके एवज में दस प्रतिशत मुद्रा ही बैंकों को उपलब्ध कराई है। यह सामान्य बात कोई सुनने-समझने को तैयार नहीं कि 85 प्रतिशत की पूर्ति दस प्रतिशत से होगी तो हल्ला तो मचेगा ही! यह तो सब कहते हैं कि सरकार ने 24 हजार रुपये निकालने का अधिकार दिया है। लेकिन लाइन में लगे प्रत्येक व्यक्ति को इतनी रकम देने जितनी रकम कितने बैंकों को उपलब्ध कराई जा रही है? ऐसे में, बैंकों की कोशिश यह है कि अधिकाधिक लोगों को रकम दी जाए। इसके लिए बैंक मेनेजर लोग अपनी सोच-समझ के अनुसार कहीं दस हजार तो कहीं पाँच हजार प्रति व्यक्ति दे रहे हैं। लेकिन इसके बाद भी कतार में खड़े तमाम लोगों को रकम दे पाना सम्भव नहीं है। आखिकार बैंक उतनी ही रकम तो देगा जितनी उसे मिली है! ऐसे में सरकारी बैंक अपना उत्कृष्ट देने के बाद भी लोगों की घृणा झेलने को अभिशप्त हैं। कुछ निजी बैंकों के किए की सजा तमाम सरकारी बैंकों को केवल इसलिए मिल रही है वे देश में सर्वाधिक नजर आ रहे हैं। सरकारी बैंकों की सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, कर्मचारियों के साथ मारपीट हो रही है। 

अधिकांश कर्मचारियों ने कहा-‘कोई रिजर्व बैंक से पूछताछ क्यों नहीं करता? उनके पास तो पूरी सूची है कि उन्होंने किस जगह, किस बैंक को, कितनी रकम उपलब्ध कराई है! यह सूची जगजाहिर हो जाए तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जाएगा। थोक में नए नोट उपलब्ध कराने के मामले में अब तो रिजर्व बैंक के कर्मचारी भी पकड़े जा रहे हैं।’ इन लोगों ने बहुत बारीक बात कही-‘आप ध्यान से देखिए। तमाम चैनलों पर बहस के लिए, वर्तमान/भूतपूर्व अधिकारी हों या कर्मचारी संगठनों के लोग, केवल सरकारी बैंकों से जुड़े लोगों को ही बुलाकर सवाल पूछे जा रहे हैं। सवाल भी ऐसी भाषा और अन्दाज में मानो किसी अपराधी से सफाई माँगी जा रही हो। रिजर्व बैंक या निजी बैंक के एक भी अधिकारी, कर्मचारी को कभी, किसी चेनल ने बुलाकर अब  तक पूछताछ नहीं की। पूरी दुनिया जानती है कि अधिकांश चेनलें कार्पोरेट घरानों की मिल्कियत हैं। ये सब सरकारी बैंकों को बदनाम कर अपने मालिकों की स्वार्थ-पूर्ति कर रही हैं।’

अपने राजनीतिक रुझान छुपाने में असमर्थ मित्रों ने खुल कर कहा कि नोटबन्दी के समस्त चार लक्ष्य (नकली नोटों से मुक्ति, काला धन उजागर करना, भ्रष्टाचार दूर करना और आतंकियों की फण्डिंग) विफल हो चुके हैं। सरकार अपनी विफलता सरकारी बैंकों पर थोप कर गंगा स्नान करना चाह रही हैं। दो कर्मचारियों ने आकर्षक शब्दावली प्रयुक्त की - ‘खलनायक बन चुका विफल नायक, एक निर्दोष को खलनायक साबित करने हेतु प्रयत्नरत है।’ और ‘मलिन हो चुकी अपनी सूरत को उजली साबित करने के लिए बैंकों की सूरत पर कालिख पोती जा रही है।’

मैं इन सारी बातों पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं कर रहा। सब कुछ एक पक्षी है। किन्तु इनमें वे लोग भी शरीक हैं जो ‘अपनी सरकार’ का लिहाज पाल पाने में असुविधा महसूस कर रहे हैं। ऐसे में इन सारी बातों को खारिज भी नहीं कर पा रहा। न सबकी सब सच और न ही सबकी सब झूठ। इन दोनों के बीच में आपको क्या नजर आता है?
-----
  

घटती ब्याज दरों की दहशत

आदमी खुद से अधिक किसी को प्यार नहीं करता। निश्चय ही इसीलिए, नोट बन्दी के तुमुल कोलाहल के बीच अपने कल की चिन्ता मेरी धड़कन बढ़ा रही है। तसल्ली है तो केवल यही कि मेरा भय, मुझ अकेले का नहीं, अधिसंख्य बूढ़ों का है।

सरकार का सारा ध्यान और सारी कोशिशें विकास दर बढ़ाने की हैं। उद्योगों को बढ़ावा देने और व्यापार को अधिकाधिक आसान बनाकर ही यह किया जा सकता है। इसके लिए अधिकाधिक पूँजी, कम से कम कठिनाई से इन क्षेत्रों को उपलब्ध कराना पहली शर्त है। सो, सरकार यही कर रही है। उर्जित पटेल के, भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बनने के बाद सबसे पहला काम इसी दिशा में हुआ। फलस्वरूप बैंकों ने अपनी ब्याज दरें घटा दीं। तमाम अखबार और चैनलों पर मकान और कारों की ईएमआई कम होने की शहनाइयाँ बजीं। अब सुन रहे हैं कि नोट बन्दी के के कारण तमाम बैंकों के पास अतिरिक्त पूँजी आ जाएगी और वे एक बार फिर अपनी ब्याज दरें घटा देंगे। 

लेकिन ये घटती ब्याज दरें मुझ जैसे बूढ़ों के दिल बैठा रही है। हम बूढ़े विचित्र से नैतिक संकट में हैं। अपने बच्चों को कम दर पर पूँजी मिलने की खुशी मनाएँ या बुढ़ापे में कम होती अपनी आमदनी पर दुःखी हों? आँकड़े और तथ्य तो ऐसा ही कहते लग रहे हैं।
केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय की महानिदेशक सुश्री अमरजीत कौर ने 22 अप्रेल 2016 को रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि 2001 से 2011 के बीच देश में 60 वर्ष से अधिक आयुवाले नागरिकों की  वृद्धि दर अभूतपूर्व रही है। वर्ष 2001 में देश की सकल जनसंख्या में वृद्धों की संख्या 7.6 प्रतिशत थी जो 2011 में बढ़कर 8.6 प्रतिशत (कुल 10.39 करोड़) हो गई। यह वृद्धि दर 35.5 प्रतिशत है जो न केवल अब तक की सर्वाधिक है बल्कि राष्ट्रीय जनसंख्या वृध्दि दर से दुगुनी भी है। तब से अब तक के पाँच वर्षों में इस संख्या में निश्चय ही वृद्धि हुई ही होगी। 

छोटे होते परिवार, बच्चों का घर से दूर रहकर नौकरी करना और छिन्न-भिन्न हो रहा हमारा सामाजिक ताना-बाना। इस सबके चलते बूढ़े लोग अकेले होते जा रहे हैं। पूँजीवाद हमें लालची बना रहा है। हमारी सम्वेदनाएँ भोथरी होती जा रही हैं। बच्चों द्वारा अपने माता-पिता की जिम्मेदारी से पल्ला झटकने के समाचार अब आम होने लगे हैं। अपने भरण-पोषण के लिए और अपने ही बनाए मकान में जगह पाने के लिए बूढ़े लोग अदालतों के दरवाजे खटखटाते मिल रहे हैं। वृद्धाश्रमों की और उनमें रहनेवालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। पूर्णतः निराश्रितों के बारे में सोेचने की हिम्मत नहीं होती। लेकिन सेवानिवृत्त बूढ़े भी अब अपनी आय में होती कमी से भयभीत हैं।

बैंकों द्वारा ब्याज में कमी करने का सीधा असर इन बूढ़ों पर पड़ने लगा है। अगस्त 2016 के आँकड़ों के मुताबिक रेल, रक्षा, अर्द्ध सैनिक बलों, सार्वजनिक उपक्रमों, परिवार पेंशनधारियों और केन्द्र सरकार के पेंशनरों की कुल संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। राज्य सरकारों के और निजी क्षेत्र के पेंशनर इनमें शामिल नहीं हैं। ये तमाम लोग बैंक एफडी और डाक घर की विभिन्न लघु बचत योजनाओं से मिलनेवाले ब्याज की रकम पर आश्रित हैं। कम हुई (और निरन्तर कम हो रही) ब्याज दरों का सीधा प्रभाव इन सब पर पड़ेगा ही। आय में कमी और मँहगाई में वृद्धि इन बूढ़ों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेगी। म्युचअल फण्डों में बेहतर आय मिल सकती है किन्तु वहाँ, बैंकों और डाकघर जैसी पूँजी की सुरक्षा और निश्चिन्तता नहीं। उम्र भी ऐसी नहीं कि अपनी रकम खुले बाजार में ब्याज पर लगाने की जोखिम ले सकें। ऐसे में ये बूढ़े अपने चौथे काल में राम-नाम भूल कर जीने के अधिक ठोस आधार की तलाश में लग जाएँगे। लेकिन सुरक्षित निवेश की विकल्पहीनता इन्हें निराश ही करेगी। मैं भी इन्हीं में से एक हूँ। अपने बेटों की संस्कारशीलता पर भरोसा होते हुए भी मुझे भी घबराहट हो रही है। लेकिन करूँ क्या? इस यक्ष प्रश्न का सामना करने में पसीने छूट रहे हैं।

किन्तु कम होती ब्याज दरों का यह असर केवल बूढ़ों पर ही नहीं होगा। मुझे एक खतरा और नजर आ रहा है। जैसा कि मैं बार-बार कहता हूँ, मैं अर्थ शास्त्र का विद्यार्थी नहीं हूँ किन्तु बीमा व्यवसाय के कारण फौरी तौर पर कुछ बातें समझ में आने लगी हैं। मुझे लग रहा है कि कम होती ब्याज दरों का सीधा असर हमारी अल्प बचत पर पड़े बिना नहीं रहेगा। हमारी लघु बचतों में सबसे बड़ा हिस्सा घरेलू बचत का है। जो लोग जोखिम लेने की उम्र और दशा में हैं वे तमाम लोग बैंक एफडी और डाकघर की लघु बचत योजनाओं से पीठ फेर कर म्युचअल फण्डों की ओर मुड़ जाएँगे। हम सब जानते हैं कि बैंकों और डाक घर में जमा रकम का सीधा लाभ सरकार को मिलता है। लोक कल्याणकारी योजनाओं में यह रकम बड़ी सहायता करती हैं। किन्तु म्युचअल फण्डों की रकम पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं होता। वर्ष 2008 में हमारा बचत का राष्ट्रीय औसत 38.1 प्रतिशत था जो 2014 में घटकर 31.1 रह गया। आज यह और भी घटकर 30.1 प्रतिशत रह गया है।  गए तीस वर्षों में यह सबसे कम प्रतिशत है। हम भारतीय भूलने में विशेषज्ञ हैं इसलिए शायद ही किसी को याद होगा कि 2007 और 2008 के वर्षों में जब दुनिया मन्दी के चपेट में आ गई थी, दुनिया की सबसे ताकतवर अमरीकी अर्थ व्यवस्था अस्त-व्यस्त-ध्वस्त हो गई थी, लोगों की नौकरियाँ चली गई थीं तब भी हमारी अर्थ व्यवस्था जस की तस बनी रही। तनिक भी नहीं लड़खड़ाई। यह हमारी, अल्प बचतों में जमा पूँजी के दम पर ही सम्भव हुआ था। आज वे ही लघु बचतें मौत की ओर धकेली जा रही हैं। मैं डर रहा हूँ। लेकिन यह डर क्या मुझ अकेले का है?

मैं भारतीय जीवन बीमा निगम का अभिकर्ता हूँ। इसी कारण देश की प्रगति और विकास में इसके योगदान की और इसके महत्व की जानकारी हो पाई है। अपनी शाखाओं के जरिए यह ‘निगम’ प्रतिदिन तीन सौ करोड़ रुपये संग्रहित करता है। 1956 में इसकी स्थापना के समय भारत सरकार ने इसे पाँच करोड़ रुपये दिए थे। यह ‘निगम’ प्रति वर्ष अपने मुनाफे की पाँच प्रतिशत रकम भारत सरकार को देता है। अपनी स्थापना से लेकर अब तक यह संस्थान इस तरह अब तक भारत सरकार को एक पंचवर्षीय योजना के आकार की रकम भुगतान कर चुका है। अपने कोष का 75 प्रशित भाग इसे भारत सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्यतः देना पड़ता है। यह वस्तुतः भारत सरकार का कुबेर है। घटती ब्याज दर का असर इसकी पालिसियों के बोनस पर भी पर पड़ेगा। 1991 में बीस वर्षीय मनी बेक पालिसी की बोनस दर 67 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष और बन्दोबस्ती पालिसी की बोनस दर 72 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष थी। 1997 के आसपास ब्याज दरों में कमी शुरु हुई। आज यह बोनस दर 42 रुपये प्रति हजार, प्रति वर्ष रह गई है। जाहिर है यह दर और कम होगी। केवल निवेश के लिए बीमा पालिसियाँ लेनेवाले तमाम लोग इससे दूर जाएँगे। जाहिर है, सरकार का कुबेर दुबला होगा ही। बढ़ते पूँजीवाद के समय में, इसकी इस भावी दशा को सरकार की ‘निजीकरण प्रियता’ से भी जोड़ा जा सकता है।

बात बूढ़ों से शुरु हुई थी और दूर तलक, अगली पीढ़ियों तलक चली गई। मेरा डर आपको वाजिब लगता है? और क्या यह डर मुझ अकेले का है?
-----    

इन्दिरा काल की ऋण मुक्ति की वापसी

नोट बन्दी लागू होने के बाद मची अफरा-तफरी के बार से, अपनी योजना को लेकर सरकार द्वारा लगभग रोज ही कोई न कोई बदलाव करने या स्पष्टीकरण देने के बावजूद मैं मानकर चल रहा था कि सरकार ने सब कुछ सुविचारित-सुनियोजित किया है। किन्तु शनिवार तीन दिसम्बर को मुरादाबाद में हुई भाजपा रैली में प्रधान मन्त्री मोदी के भाषण में जन-धन खातों में जमा धन को लेकर खताधारकों को दी गई लोक-लुभावन सलाह और उसके बाद कही बात ने मुझे अपनी धारणा पर सन्देह होने लगा है। जन-धन खाताधारकों को जमा रकम (उसके वास्तविक स्वामियों को) वापस न करने की सलाह देने के बाद मोदी ने कहा कि वे अपना दिमाग खपा रहे हैं कि जन-धन खातों में जमा धन कैसे गरीबों का हो जाए। यह बात पढ़ कर मैं चौंक गया। अपने पढ़े पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास नहीं हुआ कि देश में उथल-पुथल मचा देनेवाले निर्णय को लेकर कोई प्रधान मन्त्री ऐसा कह सकता है।

मुझे सयानों की वह बात याद आ गई जिसके अनुसार दुनिया में तीन तरह के लोग होते हैं। श्रेष्ठ श्रेणी के लोग सोच कर बोलते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग बोल कर सोचते हैं और निकृष्ट श्रेणी के लोग न तो सोच कर बोलते हैं न ही बोलने के बाद सोचते हैं। इसके समानान्तर ही मुझे एक श्लोक याद आने लगा जो मैंने भानपुरा पीठ के शंकराचार्यजी से सुना था जिसमेें कहा गया था कि राजा के चित्त का अनुमान देवता भी नहीं कर पाते।  किन्तु श्लोक मुझे याद नहीं रहा। मैंने जलजजी, भगवानलालजी पुरोहित और मन्दसौर में रह रहे मेरे कक्षा पाठी रामप्रसाद शर्मा को टटोला। रामप्रसाद पुरोहिती-पण्डिताई करता है। पहली बार में सबने हाथ खड़े कर दिए। लेकिन कोई दो घण्टों बाद जलजजी ने और अगली सुबह रामप्रसाद ने मेरा मनोरथ पूरा कर दिया। मनुस्मृति का यह श्लोक इस प्रकार है -

नृपस्य चित्तम्, कृपणस्य वित्तम्, मनोरथ दुर्जन मानुषानाम्।
त्रिया चरित्रम्, पुरुषस्य भाग्यम्, दैवो न जानाती, कुतो मनुष्यः।।

अर्थात् राजा के मन की बात, कंजूस व्यक्ति के धन, दुर्जन व्यक्ति की मनोकामना, स्त्री के स्वभाव-व्यवहार और पुरुष के भाग्य के बारे में देवता भी नहीं जान पाते तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात कि यह सब जान ले। मोदी देश के प्रधान मन्त्री, देश के राजा हैं। वे वैसे भी इस गुण के कारण अलग से पहचाने जाते हैं कि उनके मन की बात का अनुमान कोई नहीं कर पाता। यहाँ तक कि उनके सहयोगी मन्त्री भी चौबीसों घण्टे ‘मोदी सरप्राइज’ के लिए तैयार रहते हैं। किन्तु मुरादाबाद में कही बात से तो साफ लगता है कि खुद उन्हें ही पता नहीं कि वे क्या चाहते हैं। परोक्षतः उन्होंने देश को सूचित किया है कि वे निर्णय पहले लेते हैं और योजना (और उसके क्रियान्वयन) पर बाद में सोचते हैं। उनकी यह बात, नोटबन्दी लागू होने के बाद आए, योजना में रोज-रोज किए गए बदलावों और दिए गए स्पष्टीकरणों से अपने आप जुड़ जाती है और लोगों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने की छूट देती है कि यह योजना सुविचारित-सुनियोजित नहीं है। योजना लागू होने के बाद से आज तक एक दिन भी सामान्य नहीं बीता है। योजना के प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभावों से प्राण गँवानेवालों की संख्या सौ के आँकड़े की ओर सरकती नजर आ रही है। अब तो लगता है मानो ‘तब की तब देखी जाएगी’ वाली मनःस्थित में योजना लागू कर दी गई हो। निश्चय ही यह सब न तो सरकार के लिए अच्छा है न ही ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा ‘वर्ष का नायक’ (मेन ऑफ द ईयर) जैसे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्रतीक से नवाजे जानेवाले मोदी के लिए। 

जन-धन खातों में जमा रकम उसके मूल स्वामियों को न लौटाने की सलाह देते समय मोदी यदि इन्दिरा गाँधी की ’ऋण-मुक्ति’ योजना और उसके परिणामों को याद कर लेते तो सबके लिए अच्छा होता। इन्दिरा गाँधी की इस महत्वाकांक्षी योजना के अन्तर्गत गाँवों के लोगों को साहूकारों के कर्ज से तो मुक्ति मिल गई थी किन्तु उसके बाद ऋण-मुक्त लोगों की सुध किसी ने नहीं ली और वे अनाथों से भी बदतर दुर्दशा में आ गए थे। हमारी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था आज भी कर्ज पर ही आश्रित है। इन्दिरा गाँधी के काल में किसानों को बैंकों से इतनी आसानी से और इतना सुविधाजनक कर्ज नहीं मिलता था। किसान मँहगी दर पर ब्याज देनेवाले साहूकारों पर ही निर्भर थे। इन्दिरा गाँधी की योजना से साहूकारों ने ब्याज ही नहीं अपना मूल धन भी खो दिया था। इससे नाराज हो  साहूकारों ने किसानों को कर्ज देना ही बन्द कर दिया। दूसरी ओर बैंकों से कर्ज मिलना शुरु नहीं हुआ। हालत यह हो गई थी कि किसान अपने खेत तैयार कर खाद-बीज से खाली हाथों अपना माथा टेके खेत की मेड़ पर बैठे मिलते थे। बैंक और सरकार मदद को सामने आए नहीं और दूध के जले साहूकारों ने पीठ फेर ली। परिणामस्वरूप, ‘गरीबी हटाओ’ का लोक-लुभावन नारा देने वाली इन्दिरा के राज में गरीब पूरी तरह भगवान भरोसे हो गए थे। जन-धन खातों में जमा रकम वापस न करने की सलाह देकर मोदी उसी इतिहास को नहीं दोहरा रहे?

काला धन सारे जन-धन खातों में जमा नहीं हुआ है। सामने आए आँकड़ों के मुताबिक ऐसे खाते एक प्रतिशत ही हैं। याने, मोदी यदि इसे गरीबों को नोटबन्दी से होनेवाला लाभ मानते हैं तो लगभग निन्यानबे प्रतिशत गरीब तो इस लाभ से वंचित रह गए। दूसरी बात, जिनके खातों में रकम जमा हुई है, वे सब के सब अपनी रोजी-रोटी के लिए उन्हीं पर निर्भर हैं जिनकी रकम है। अपवादस्वरूप ही किसी खाते में इतनी रकम जमा हुई होगी कि जो जिन्दगी बना दे। आज की तारीख में कोई भी अपनी रकम एक साथ पूरी की पूरी नहीं निकाल सकता। अपना काम-धन्धा शुरु करने के लिए एक मुश्त रकम चाहिए। रकम न लौटानेवाले को रकम का मूल स्वामी हमेशा के लिए नमस्कार कर लेगा। रकम ने यदि जिन्दगी भर साथ न दिया तो रोजगार के लिए कोई नया मालिक तलाश करना पड़ेगा। नए मालिक तक यदि विश्वासघात की कहानी पहुँच गई तो? इन सारी बातों से बढ़कर और सबसे पहले, अन्तरात्मा का भय। लोक अनुभव है कि गरीब आदमी लालची नहीं होता। गरीब की ईमानदारी के अनगिनत किस्से हमारे आसपास ही बिखरे हुए हैं। रोटी के लिए वह भीख माँग लेगा लेकिन चोरी नहीं करेगा। हम देख रहे हैं कि (चोरी करने का) यह काम भरे पेटवाले बड़े लोग ही करते हैं। ऐसे में, रकम का मूल स्वामी न भी कहेगा तो भी लोग यह रकम लौटा देंगे। तब हो सकता है कि कार्पोरेट घरानों की मदद से सिंहासन तक पहुँचने की सफलता हासिल करनेवाले मोदी के इस मनोरथ को देश के गरीब विफल कर दें। मोदी के आह्वान पर यदि लोगों ने अमल करने की हिम्मत कर भी ली तो ‘मालिक-मजदूर’ का रिश्ता संदिग्ध हो जाएगा। यह सर्वथा नया, अकल्पनीय सामाजिक-आर्थिक संकट होगा। गिनती के कुछ गरीब जरूर सम्पन्न हो जाएँगे।  किन्तु गरीब की ईमानदारी संदिग्ध हो जाएगी और लोगों को मजदूरी हासिल करने में मुश्किल होने लगेगी। यह विचित्र स्थिति होगी।

पता नहीं ‘राजा’ के मन में क्या है। कोई कल्पना करे भी तो कैसे? अभी तो राजा खुद ही अपने मन की बात नहीं जानता! यह स्थिति किसी के लिए सुखद नहीं है। यह ठीक समय है जब नोटबन्दी की विस्तृत योजना देश के सामने सुस्पष्ट तरीके से रख दी जाए। योजना संदिग्ध हो, चलेगा। किन्तु अपने अनिश्चय, अस्पष्टता के कारण ‘राजा’ पर सन्देह करने की स्थिति बने, यह किसी के लिए हितकारी नहीं है। न देश के लिए, न ही खुद ‘राजा’ के लिए।
-------

सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान

कल एक डॉक्टर मित्र के पास बैठा था। एक रोगी हर सवाल का जवाब बड़े ही अटपटे ढंग से दे रहा था। वह शायद शरीरिक नहीं, मनोरोगी था। तनिक विचार कर डॉक्टर मित्र ने अपनी दराज से एक शीशी निकाली और मरीज को कहा कि वह बाहर जाए और शीशी की बाम माथे पर लगा कर दस मिनिट बाद आए। मरीज ने निर्देश पालन तो किया किन्तु दस मिनिट के बजाय दो मिनिट में ही लौट आया। बोला कि उसे ललाट पर असहनीय जलन हो रही है। डॉक्टर ने बड़े ही प्यार से फटकारते हुए कहा कि वह बाहर ही बैठे और दस मिनिट बाद ही आए। मरीज ने कहा कि जलन बर्दाश्त से बाहर है, दस मिनिट तो क्या वह एक पल भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता। डॉक्टर ने अचानक ही पूछा कि वह जो समस्या लेकर आया था, उसका क्या हाल है। मरीज झुंझलाकर बोला कि वह समस्या तो गई भाड़ में, डॉक्टर पहले उसे बाम की जलन की इस नई झंझट से मुक्त कराए। डॉक्टर ने दूसरा लेप देकर उसे कष्ट मुक्त किया। वह सन्तुष्ट और प्रसन्न हो चला गया। मुझे बात समझ नहीं आई। डॉक्टर ने कहा कि उसने रोगी की मौजूदा परेशानी से बड़ी परेशानी पैदा कर दी। रोगी अपनी सारी परेशानियाँ भूल गया और इस नई परेशानी से मुक्ति की कामना करने लगा। अपनी बात स्पष्ट करते हुए डॉक्टर मित्र ने कहा-‘‘मोदीजी बहुत समझदार डॉक्टर हैं। लोग नोटबन्दी में ऐसे व्यस्त हो गए हैं कि अपनी और देश की बाकी सारी समस्याएँ भूल गए हैं। देश के चर्चित सारे मुद्दे भूलकर अब उनकी एक ही चिन्ता है कि सुबह जल्दी से जल्दी बैंक की लाइन में लगें, उनका नम्बर जल्दी आए और वे दो-चार हजार रुपये प्राप्त कर सकें। रुपये मिलने की खुशी के साथ ही साथ वे अगले सप्ताह फिर लाइन में लगने की योजना और चिन्ता में व्यस्त हो जाते हैं। मैंने यही ‘मोदीपैथी’ अपनाई। किया कुछ नहीं और मरीज खुश। मेरी फीस भी वसूल।‘‘

और यह आज सुबह की बात है। एक वामपंथी मित्र मिल गए। भुनभुनाते हुए मोदी माला जप रहे थे। बोले-‘पूरा देश परेशान है। समूचा सर्वहारा वर्ग दाने-दाने को तरस गया है। काम पर जाने के लिए रोटी चाहिए और रोटी के लिए काम। लेकिन रोटी और काम-धाम छोड़ कर, भूखा-प्यासा बैंकों के सामने लाइन में खड़ा है। मध्यम वर्ग अपना ही पैसा पाने के लिए भिखारी बन गया है। ताज्जुब यह कि फिर भी नाराज नहीं है। छù देशभक्ति के नशे में मद-मस्त हैं। मार्क्स आज होते तो खुद की बात को अधूरा अनुभव करते और कहते कि धर्म के साथ-साथ देशभक्ति भी अफीम के नशे की तरह होती है।’

लोगों को बाम लगा दी गई है या देशभक्ति की अफीम पिला दी गई है? पता नहीं सच क्या है। लेकिन मैं ‘जेबी’ की बातों से दहशतमन्द हूँ और ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि ‘जेबी’ की कोई बात सच न हो। छप्पन वर्षीय, इजीनीयरिंग स्नातक ‘जेबी’ मुझ पर अति कृपालु रहा है। उद्यमी भी है और व्यापारी भी। व्यापार ऐसा कि न चाहे तो भी सौ-दो सौ लोगों से रोज मिलना ही पड़ता है।  अर्थशास्त्र और मौद्रिक नीति भले ही न जानता हो लेकिन बाजार की और लोगों के व्यवहार की समझ उसके खून में है। सिद्धान्त और व्यवहार में समन्वय बैठाने में माहिर। कुछ लोग नोटबन्दी से उपजी परेशानियों का रोना रोने लगे तो बोला-‘अब तक जो भोगा-भुगता उसे भूलो और अगले सप्ताह की तैयारी करो। अगला सप्ताह और अधिक भयावह होगा।’ मित्रों की कृपा के कारण नोटबन्दी के कष्ट मुझे शून्यवत ही भुगतने पड़े। दो बार बैंकों की कतार में खड़ा हुआ जरूर लेकिन अनुभव प्राप्त करने के लिए। अनुभव सुखद नहीं रहे। सो, ‘जेबी’ की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए और दिल अधिक तेजी से धड़कने लगा। ‘जेबी’ के मुताबिक अगले सप्ताह लोगों के हाथों में पैसा होने के बावजूद चिल्ला-चोट मचेगी। पहली तारीख को लोगों को वेतन मिलेगा। वेतन खाते में जमा हो या नगद मिले, मिलेंगे दो-दो हजार के नोट ही। खुद सरकार के मुताबिक, चलन में हजार-पाँच सौ के नोट 86 प्रतिशत थे। याने, सौ, पचास, बीस, दस पाँच और दो रुपये के सारे नोट मिला कर कुल 14 प्रतिशत बाजार में उपलब्ध हैं। बन्द किए गए बड़े नोटों के बराबर नोट बाजार में आए नहीं। छोटे नोटों की उपलब्धता 14 प्रतिशत ही है। यहाँ अर्थशास्त्र का जगजाहिर, ‘माँग और पूर्ति’ का सिद्धान्त लागू होगा। रिजर्व बैंक खुद कह रहा है कि नए नोट समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। सरकार संसद में कुछ भी कहे लेकिन बाहर सरकार के मन्त्री सार्वजनिक रूप से कबूल कर रहे हैं कि नोटों की कमी है। ऐसे में छोटे नोटों की माँग एकदम बढ़ेगी। लोग अपनी पत्नी के हाथ में वेतन देते हैं और पिछले महीने की छोटी-छोटी उधारियाँ चुकाते हैं। घर-गृहस्थी का रोज का खर्च छोटी-छोटी रकमों में होता है। लेकिन बाजार में 100 के नोट के बाद सीधे 2000 का नोट है। पाँच सौ के नए नोट सरकार ने बाजार में उतारे जरूर हैं लेकिन वे न तो पूरे देश में एक साथ उपलब्ध हैं न ही उनकी संख्या पर्याप्त है। ऐसे में सौ के नोट की माँग एकदम बढ़ेगी और उसकी काला बाजारी शुरु हो जाएगी। नोटबन्दी के पहले दौर में लोग रुपये न मिलने के कारण रोटी हासिल नहीं कर पा रहे थे। लेकिन इस दूसरेे दौर में हो सकता है कि हम, हाथ में रुपये होते हुए लोगों को रोटी के लिए तरसते हुए देखें। 

‘जेबी’ के मुताबिक, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों, मजदूरों में से अधिकांश के बैंक खाते नहीं हैं। उन्हें नगद भुगतान होता है। यदि बैंक खातों की बाध्यता हुई तो ऐसे तमाम लोग ‘सम्पन्न भिखारी’ की दशा में आ जाएँगे। ऐसे लोगों के खाते तत्काल ही खोलना आसान नहीं है। बैंक कर्मचारी पहले ही काम के बोझ से दबे हुए हैं। छोटे नोटों की कमी से उपजी इस नई स्थिति में उनकी और अधिक दुर्दशा होना तय है। ऐसे में नए खाते खोलने का काम उनके लिए ‘कोढ़ में खाज’ जैसा होगा। इन नए खातों के लिए छोटे नोट उपलब्ध कराना याने एक और मुश्किल। ‘जेबी’ ताज्जुब करता है कि एक छोटे व्यापारी को नंगी आँखों नजर आ रही इन सारी बातों का पूर्वानुमान सरकार क्यों नहीं कर पाई? ‘जेबी’ इस बात पर भी चकित है कि सरकार को दो हजार के बजाय दो सौ रुपयों का नोट निकालने का विचार क्यों नहीं आया। सरकार यदि दो सौ रुपयों का नोट निकाल देती तो इस अनुमानित संकट की भयावहता दस प्रतिशत ही रह जाती। 
‘जेबी’ की बातें सुन-सुन कर मेरा दिल बैठा जा रहा है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी कभी नहीं रहा। रुपये-पैसों की समझ अब तक भी नहीं हो पाई है। उत्तमार्द्ध का कुशल प्रबन्धन और मित्रों के अतिशय-कृपापूर्ण और चिन्तापूर्ण सहयोग के कारण मुझे आटे-दाल का भाव कभी-कभीर ही मालूम हो पाता है। लेकिन बैंकों के सामने कतारों में खड़े आकुल-व्याकुल लोग नजर आते हैं, उनके पीड़ाभरे अनुभव व्यथित करते हैं। बाजार की स्थिति यह कि मेरे व्यापारी बीमा ग्राहक भी पुराने बीमों की किश्तें जमा नहीं कर पा रहे हैं। सत्तर से अधिक मौतें चित्त से ओझल नहीं होती। ये और ऐसी तमाम बातें उदास और निराश करती हैं।

उलझन में हूँ। यही सोचकर सन्तुष्ट होने की कोशिश कर रहा हूँ कि पूरे देश की प्रबल अपेक्षा-आकांक्षा बनी हुई नोटबन्दी को हम ‘सुखद भविष्य की प्रतीक्षा में दुःखद वर्तमान’ समझ कर सहयोग करें। 
-----