धार्मिक भावनाओं की हकीकत


हमारी धार्मिक भावनाएँ सचमुच में विचित्र हैं। जिन बातों पर इन्हें अपनी सम्पूर्ण तीव्रता से भड़कना (भड़कना ही नहीं, भभकना) चाहिए, उन बातों पर इनमें सिहरन भी नहीं होती और जिन बातों की अनदेखी करने की बुद्धिमत्ता बरतनी चाहिए, उन पर ये आग लगा देती हैं।

तीन और चार सितम्बर की ‘सेतु-रात्रि’ में, मेरे कस्बे के एक मुहल्ले की मस्जिद की बाहरी दीवार पर किसी ने गोबर फेंक दिया। प्रतिक्रिया में भड़की धार्मिक भावनाओं के परिणामस्वरुप, 12-15 मुहल्लों में कर्यू लगा। कर्यू में पहली ढील पूरे तैंतीस घण्टों के बाद दी जा सकी, वह भी मात्र दो घण्टों के लिए। कर्यू को पूरी तरह से हटाने लायक दशा छठवें दिन हो पाई। इस बीच जैसा कि होता है, पुलिसिया कार्रवाई को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगे। मुस्लिम समुदाय ने पारम्परिक रूप से ईद न मना कर अपना आक्रोश जताया। लोग न केवल सिवैयों से वंचित रहे अपितु गणेश चतुर्थी के मोदकों की मीठास में भी भरपूर कमी आई। स्थिति अभी नियन्त्रण में अवश्य है किन्तु सामान्य नहीं। केवल उन 12-15 मुहल्लों के ही नहीं, पूरे कस्बे के लोग अभी भी भयभीत हैं-अनन्त चतुर्दशी का जन समारोह सामने जो है।

यह घटना मस्जिद से जुड़ी है किन्तु यह किसी मन्दिर की भी हो सकती थी। तब भी यही सब होता। अन्तर केवल प्रत्यक्षतः प्रभावित होनेवाले समुदाय का होता।

इस घटना को याद रखते हुए अब जरा (‘जनसत्ता’ के दिनांक 22 अगस्त 2010 के रविवारी परिशिष्ट में प्रकाशित) महिलाओं के प्रति हुए अपराधों के इन आँकड़ों को ध्यान से पढ़ें - 2004 से लेकर 2008 की अवधि में महिलाओं के विरुद्ध हुए अपराधों की संख्या क्रमशः 154333, 155553, 164756, 185312 और 195856 थी। अर्थात् महिलाओं के विरुद्ध हुए अपराधों में प्रति वर्ष बढ़ोतरी हुई। इन आँकड़ों के अनुसार 2004 की तुलना में 2008 में अपराधों की वृद्धि दर 26 प्रतिशत रही।

उपरोक्त आँकड़े सभी प्रकार के अपराधों के संयुक्त आँकड़े हैं। किन्तु ‘अपराधों के प्रकार’ में ‘प्रत्येक प्रकार’ में भी वृद्धि हुई। 2007 में बलात्कार के 20737 प्रकरण दर्ज हुए थे जो 2008 में बढ़कर 21467 हो गए। छेड़छाड़ के मामले 38734 से बढ़कर 40413, यौन उत्पीड़न अपराध 10950 से बढ़कर 12214, पति/सम्बन्धियों द्वारा निर्दयता बरतने के मामले 75930 से बढ़कर 81344, दहेज मृत्यु के मामले 8093 से बढ़कर 8172 हो गए। प्रतिशत के मान से 2007 के मुकाबले 2008 में बलात्कारों में 3.5, अपहरणों में 12.4, छेड़छाड़ में 4.3, यौन उत्पीड़न मे 11.5, पति/सम्बन्धियों की निर्दयता में 7.1 तथा दहेज मौतों में एक प्रतिशत की वृद्धि हुई।

वर्ष 2008 में, देश में महिलाओं के विरुद्ध प्रतिदिन 537 अपराध हुए। अर्थात् प्रति घण्टे 22 अपराध। देश में प्रतिदिन बलात्कार के 59 दर्ज होते हैं, 63 महिलाओं का अपहरण होता है, 33 महिलाएँ यौन उत्पीड़न की शिकार होती हैं, 111 महिलाओं से छोड़छाड़ की जाती है, 223 महिलाएँ पति/रिश्तेदारों से प्रताड़ित होती हैं, 22 महिलाओं की दहेज हत्या होती है और 15 बहुओं को अधिक दहेज की माँग के कारण उत्पीड़ित किया जाता है।

मेरे कस्बे की घटना को और उपरोक्त आँकड़ों को याद रखते हुए, अपने दिमाग पर भरपूर जोर दीजिए। लाख कोशिशों के बाद भी याद नहीं आएगा कि उपरोक्त घटनाओं ने किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत किया हो। यहाँ यह याद रखिएगा कि इन महिलाओं में सभी धर्मों, वर्गों, समाजों, जातियों की महिलाएँ शामिल हैं।


हमारी धार्मिक भावनाएँ सचमुच में विचित्र हैं। कोई मुसलमान यदि किसी हिन्दू स्त्री की तरफ आँख उठाकर देख ले तो भूचाल आ जाता है और कोई हिन्दू किसी मुसलमान स्त्री को बुरी नजर से देख ले तो इस्लाम खतरे में आ जाता है। किन्तु हिन्दू महिलाओं को हिन्दू समाज के ही लोग निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाते हैं तो किसी हिन्दू की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं होतीं और मुसलमान औरतों के झूठे हस्ताक्षर बनाकर मुल्लों-मौलवियों द्वारा तलाकनामे जारी कर दिए जाते हैं तो किसी भी मुसलमान की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं होतीं। क्या मतलब निकाला जाए? यही कि हमारा धर्म तभी खतरे में आता है जब कोई विधर्मी उस पर अंगुली उठाए? या फिर यह कि किसी धर्म का अपमान करने का अधिकार उस धर्म के ही अनुयायियों के पास सुरक्षित है? याने हिन्दू स्त्री पर कोई हिन्दू बलात्कार करे या मुसलमान स्त्री पर कोई मुसलमान बलात्कार करे तो वह अधर्म नहीं होता?

हमारे किसी धार्मिक ग्रन्थ या प्रतीक पर कोई अंगुली उठा दे तो हम मरने-मारने पर उतर आते हैं किन्तु उन ग्रन्थों के निर्देशों/आदेशों पर अमल करने के मामले में हमारा आचरण क्या है? हम अपने-अपने धर्म ग्रन्थों को, रंगीन कपड़ों में कस कर बाँध कर रखते हैं (इतना कस कर कि खोलने में भरपूर श्रम करना पड़े क्यों कि खोल दिए तो पढ़ने पड़ेंगे और पढ़ लिए तो फिर उनका कहा मानना पड़ेगा) और उनकी पूजा करते हैं। उनके निर्देशों/आदेशों की अवहेलना हम पूरी बेशर्मी से करेंगे किन्तु कोई विधर्मी उन पर अंगुली उठाए, यह हम बिलकुल सहन नहीं करेंगे। याने? मतलब वही कि हमारे धर्म ग्रन्थों की अवमानना, उपेक्षा करने का अधिकार हमें ही है, किसी विधर्मी को नहीं।

प्रायः सभी धर्मों ने ब्याज का निषेध किया है। किन्तु ब्याजखोरी के कारण पूरे देश में असंख्य लोग आत्महत्या करने की दशा में आ जाते हैं। सरकारों ने ब्याजखोरी के विरुद्ध कानून बना रखे हैं किन्तु ब्याजखोरी न केवल बनी हुई है अपितु अधिक सेहतमन्द भी हो रही है। समय-समय पर ब्याजखोर साहूकारों पर छापे पड़ते हैं, गिरफ्तारियाँ होती हैं। किन्तु इस मुद्ददे पर किसी भी समुदाय की धार्मिक भावनाएँ आज तक आहत नहीं हुईं।


ये तो कुछ ही उदाहरण हैं। यदि बारीक नजर से देखना शुरु किया जाए तो ‘धार्मिक भावनाओं’ के आहत होने के नाम पर हमारी कारगुजारियों का ऐसा ग्रन्थ रचा जा सकता है जिसके वार्षिक खण्ड निरन्तर प्रकाशित करने पड़ जाएँ।

धार्मिक भावानाओं के नाम पर जो ध्वंस किया जाता है, वह अधर्म के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। इस नाम पर यदि यही सब कुछ किया जाता रहा तो लोग धर्मविहीन रहना पसन्द करने लगेंगे और धार्मिक भावनाओं का नाम लेते ही मैले से बजबजाती गटर की बदबू नथुनों में घुस आएगी।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.


इतना तो मेरे बस में है


अभी-अभी, 15 अगस्त को हमने अपने चौंसठवें स्वाधीनता दिवस का उत्सव मनाया है। अपने राष्ट्र प्रेम को प्रकट करने में हम न तो कंजूसी करते हैं और न ही देर। ऐसे में प्रसंग जब स्वाधीनता दिवस का हो तो हमारा यह ‘प्रकटीकरण’ चरम पर होता है। राष्ट्र भक्ति के वादे करने और कसमें खाने के मामले में, अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यदि कोई पुरुस्कार स्थापित हो तो मुझे भरोसा है कि प्रति वर्ष उस पर हम भारतीय ही कब्जा करते रहेंगे। इसके समानान्तर मुझे यह भी विश्वास है कि वादों-कसमों पर अमल करने के लिए स्थापित कोई भी पुरुस्कार हम एक बार भी हासिल नहीं कर पाएँगे। बोलने और बताने-जताने में अव्वल और कर गुजरने में फिसड्डी - यही हमारी पहचान बन गई है।

जो मुझसे असहमत हों और जिन्हें मेरी बात पर गुस्सा आ रहा हो, उन्हें एक स्वर्णिम अवसर मिल रहा है-मुझे झूठा साबित करने का।

तीन अक्टूबर से शुरु होनेवाले राष्ट्रकुल खेलों का प्रतीक ‘क्वीन्स बेटन’ (जिसे शालीन शब्दावली में ‘साम्राज्ञी का राजदण्ड’ और मुझ जैसे कुटिल लोगों की शब्दावली में ‘महारानी का डण्डा’ कहा जा सकता है) नई दिल्ली ले जाया जा रहा है। रास्ते भर इसका राजसी स्वागत किया जा रहा है। यह ‘राजसी शोभा यात्रा’ पन्द्रह सितम्बर को मध्य प्रदेश में प्रवेश करेगी। मेरा कस्बा रतलाम इसका पहला मुकाम है। हम सब जानते हैं कि ‘राष्ट्र कुल’ का गठन अंग्रेजों ने किया था और इसमें वे सारे देश शामिल हैं जो कभी अंग्रेजों के गुलाम थे। ये सारे देश आज आजाद हो चुके हैं किन्तु सब के सब, अंग्रेजों की यह मानसिक गुलामी ढो रहे हैं। राष्ट्र कुल सम्मेलनों और खेलों में काम की बातें कितनी होती हैं, इस पर भरपूर बहस की जा सकती है किन्तु इसके माध्यम से अंग्रेज अपनी श्रेष्ठता और प्रभुता साबित करने में सफल होते हैं, इसमें रंच मात्र भी सन्देह नहीं। व्यक्तिगत स्तर मैं ‘राष्ट्र कुल’ की अवधारणा को हमारी स्वतन्त्रता पर कलंक मानता हूँ। इसे स्वीकार कर हम लोग सार्वजनिक रुप से अपनी आजादी का अस्वीकार और अंग्रेजों की मानसिक गुलामी का स्वीकार ही प्रकट करते हैं।

देश का बड़ा तबका, बरसों से इस अवधारणा का विरोध करता चला आ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी के विकास का लाभ यह हुआ है कि इस विरोध की व्यापकता अब सहजता से मालूम होने लगी है। इसका विरोध करनेवाले धीरे-धीरे एकजुट होने लगे हैं। लगभग सभी राजनीतिक दलों में इस अवधारणा का विरोध करनेवाले लोग बड़ी संख्या में मौजूद हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान तो अपना विरोध और असहमति सार्वजनिक रूप से प्रकट कर ही चुके हैं।

ऐसे में, मुझे लगता है कि राष्ट्र प्रेम की अपनी कसमों-वादों पर अमल करने का यह सुनहरा मौका है। महारानी के डण्डे की इस यात्रा की उपेक्षा और बहिष्कार से आगे बढ कर इसका विरोध कर हम अपनी सचाई साबित कर सकते हैं। महारानी का यह डण्डा, 17 सितम्बर को भोपाल पहुँचेगा। वहाँ इसका विरोध करने की जोरदार तैयारियाँ चल रही हैं। यह अच्छा ही है।

चूँकि शिवराज सिंह चौहान सार्वजनिक रूप से इसके प्रति अपना विरोध प्रकट कर चुके हैं इसलिए तमाम भाजपाइयों की यह ‘राजनीतिक जिम्मेदारी’ बनती है कि वे अपने नेता के समर्थन में खुल कर सड़कों पर आएँ। कांग्रेस ने तो आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था! ऐसे में तमाम कांग्रेसियों की यह 'सहज नैतिक जिम्मेदारी' बनती है कि अंग्रेजों की मानसिक गुलामी के इस प्रतीक का वैसा ही विरोध करें जैसा कि उस जमाने में अंग्रेजी सल्तनत का किया था। जो लोग न कांग्रेसी हैं और न ही भाजपाई, वे और कुछ हो न हों, ‘भारतीय’ तो हैं ही। सो, सच्चा भारतीय होने के नाते उन सबने भी, अंग्रेजों की गुलामी के इस प्रतीक का प्रतिकार करना चाहिए।

मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं अकेला कैसे और कहाँ, ‘महारानी के डण्डे’ का मुँह चिढ़ाऊँ। सो, तय किया है कि यदि कोई संगठन ‘महारानी के डण्डे’ का विरोध कार्यक्रम आयोजित करेगा तो उसमें प्रसन्नतापूर्वक भागीदारी करूँगा, फिर भले यह कार्यक्रम कोई भी आयोजित करे - कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी, साम्यवादी या और कोई भी।

इतना तो मेरे बस में है ही। यह करने को उतवाला हूँ।

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पागलों ने ही इतिहास बनाए हैं

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्‍द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। आज अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को आज से अपने ब्‍लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर रहा हूँ। ये मेरे ब्‍लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।



05 सितम्बर 2010, रविवार
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, 2067

माननीय श्रीयुत श्रीमालजी,

सविनय सादर नमस्कार,

कल, 04 सितम्बर 2010, शनिवार के ‘नईदुनिया’ में, आपका, ‘माँ के सम्मान में शर्म कैसी?’ शीर्षक पत्र पढ़ा।

पत्र भले ही आपका है किन्तु बातें सब मेरे मन की हैं। पत्र पढ़कर पहली बात जो मन में आई, वह थी - ‘काश! इस पत्र में, अरविन्द श्रीमाल के नाम के स्थान पर मेरा नाम लिखा होता।’

कृपया हिन्दी के प्रति अपनी इन भावनाओं को न केवल बनाए रखें अपितु पागलपन की हद तक बनाएँ। इश्क में पागल हुए लोगों ने ही इतिहास बनाए हैं।

आज ही लिखे मेरे दो पत्रों की प्रतिलिपियाँ संलग्न हैं। अनुमान है कि आपको न केवल भला लगेगा अपितु यह भरोसा भी होगा कि इस लड़ाई में आप अकेले नहीं हैं।

बिना थके, अविराम यात्रा की मंजिल तक पहुँचने की शुभ-कामनाएँ स्वीकार करें। ईश्वर आपके प्रयत्नों को सफलता अवश्य प्रदान करेगा।

धन्यवाद।

विनम्र,
विष्णु बैरागी

संलग्न-उपरोक्तानुसार।

प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत अरविन्दजी श्रीमाल,
22/1, शक्कर बाजार,
इन्दौर
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इस पत्र में उल्‍लेखित दो पत्र ये हैं -

‘माता’ कभी ‘सुमाता’ या ‘कुमाता’ नहीं होती


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बस! हम सब लगे रहें

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्‍द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। आज अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को आज से अपने ब्‍लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर रहा हूँ। ये मेरे ब्‍लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।



05 सितम्बर 2010, रविवार
भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, 2067

माननीय श्रीयुत संघवीजी,

सविनय सादर नमस्कार,

कल, 04 सितम्बर 2010, शनिवार के ‘नईदुनिया’ में, आपका, ‘इच्छा है...पर अँग्रेजी की मजबूरी है’ शीर्षक पत्र पढ़ा।

आपकी पीड़ा को मैं नमन करता हूँ। विश्वास कीजिएगा कि आपकी (और आप जैसे तमाम लोगों की) यह पीड़ा ही हिन्दी की शक्ति है और यह शक्ति ही हिन्दी का सम्मान लौटाएगी।

हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् तक सीमित है। इसलिए जो भी करना है, हमें, अपने स्तर पर ही करना है। सरकार तो दूर की बात रही, अपने साथवालों और अपने आस-पासवालों पर भी हमारा नियन्त्रण नहीं है। सरकार पर तो उसी काम को छोड़ दिया जाना चाहिए जो हमें कभी नहीं करवाना हो। इसलिए हिन्दी को सरकार की दया पर छोड़ने का विचार तो मन में लाइएगा ही नहीं।

हिन्दी के लिए आप अभी जो कुछ भी कर रहे हैं और कर पा रहे हैं, कृपया उसे निरन्तर रखिएगा। इस विषय की गम्भीरता को आम आदमी तो समझ भी नहीं पा रहा है। ऐसे में आपका संघर्ष सचमुच में विकट है। अनुरोध और आग्रह यही है कि कृपया लगे रहिएगा, थकिएगा मत। हिन्दी के लिए मन में पीड़ा पालनेवालों को रुकने और थकने का अधिकार तथा सुविधा इस देश में अभी उपलब्ध नहीं है।

मैं भी अपने स्तर पर जितना कुछ बन पाता है, करने का प्रयास करता रहता हूँ। उदासी, हताशा की सीमा तक निराशा और थकान भी अनुभव होती है। किन्तु वह सब क्षणिक ही होता है। फिर काम में लग जाता हूँ। आज ही, मन्दसौर निवासी श्रीयुत वासु भाई को लिखे पत्र की प्रतिलिपि संलग्न कर रहा हूँ, इस भावना से कि आपके संघर्ष के प्रति आपके विश्वास और उत्साह में नाम मात्र की बढ़ोतरी हो सके।

हिन्दी मुझे रोटी, पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दे रही है। ऐसे में हिन्दी के प्रति मेरी जितनी जवाबदारी बनती है उसके मुकाबले तो मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ।

विश्वास कीजिएगा कि आप अकेले नहीं हैं। कुछ पागल लोग हैं जो इस फालतू काम में लगे हुए हैं। यह पागलपन रंग लाएगा जरूर। बस! हम सब लगे रहें और जब भी अवसर मिले, एक-दूसरे को ढाढस बँधाते रहें, हौसला बढ़ाते रहें।

आपका संघर्ष अकारथ नहीं रहेगा। आज नहीं तो कल, आपका संघर्ष अपना मुकाम हासिल करेगा-यह भरोसा रखिएगा। कोशिश करनेवालों की हार नहीं होती। प्रयत्नों को ही परिणाम मिलते हैं।

मेरी शुभ-कामनाएँ स्वीकार करें। ईश्वर आपको सफलता दे और आप हिन्दी की पहचान बनें।

धन्यवाद।

विनम्र,

विष्णु बैरागी

संलग्न-उपरोक्तानुसार।


प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत प्रदीपजी संघवी,
83, लक्ष्मीबाई मार्ग,
झाबुआ

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(श्रीयुत वासु भाई, मन्‍दसौर को लिखा पत्र : ‘माता’ कभी ‘सुमाता’ या ‘कुमाता’ नहीं होती)

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

‘माता’ कभी ‘सुमाता’ या ‘कुमाता’ नहीं होती

अखबारों और पत्र/पत्रिकाओं में आए दिनों कभी ‘हिंगलिश’ के पक्ष में सीनाजोरी से दिए तर्क सामने आते हैं तो कभी हिन्दी के पक्ष में, गाँव-खेड़ों, कस्बों से उठते एकल स्वर सुनाई देते हैं। सीनाजोरी का विरोध करने और एकल स्वरों में अपना स्वर मिलाने को मैंने अपनी फितरत बना रखी है ताकि सीनाजोरों की निर्द्वन्‍द्वता, नाम मात्र को ही सही, बाधित हो और एकल स्वरों को अकेलापन न लगे। ऐसे सैंकड़ों पत्र मैंने लिखे किन्तु उनका कोई रेकार्ड नहीं रखा। आज अचानक ही विचार आया कि इन पत्रों का रेकार्ड रखा जाना चाहिए। इसीलिए इन पत्रों को आज से अपने ब्‍लॉग पर पोस्ट करना शुरु कर रहा हूँ। ये मेरे ब्‍लॉग की पोस्टों में शरीक नहीं हैं। मैं जानता हूँ इनकी न तो कोई सार्वजनिक उपयोगिता है और न ही महत्व। यह जुगत मैंने केवल अपने लिए की है।


05 सितम्बर 2010, रविवार
भाद्रपद कृष्‍ण द्वादशी, 2067

प्रिय श्रीयुत वासु भाई,

सविनय सप्रेम नमस्कार,

मेरे इस अनपेक्षित पत्र के कारण आपको होनेवाली असुविधा के लिए मुझे क्षमा कर दीजिएगा। अपनी याददाश्त के गोदाम के किसी कोने में, यादों के गट्ठर के तले दबे मेरे नाम को तनिक झाड़-पोंछ लीजिएगा। मुझे भरोसा है कि मेरा नाम याद आने में आपको अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ेगा।

दैनन्दिन व्यवहार में, अंग्रेजी के अकारण और अनावश्यक उपयोग के पक्ष में और अपनी दुकान का ‘साइन बोर्ड’ अंग्रेजी में लिखवाने के पक्ष में, कल या परसों के ‘नईदुनिया’ में आपके चित्र सहित आपकी कुछ बातें पढ़ीं।

किसी भी भाषा से बैर रखना समझदारी नहीं। भाषा तो ज्ञान की खिड़कियाँ खोलती हैं हमारी दुनिया विस्तारित करती है। बात ‘मानसिकता’ की है। मुझे भरोसा है कि यदि इस कोण से आप अपनी बातों पर आत्म मन्थन करेंगे तो नाम मात्र के पुनर्विचार के बाद ही आपको अपने तर्कों की निर्बलता अनुभव हो जाएगी।

मेरे मतानुसार कोई भी व्यापार, दुकान या संस्थान इस कारण और इस आधार पर कभी नहीं चलता कि उसका नाम और साइनबोर्ड किस भाषा में है। जिन कुछ प्रमुख कारकों के आधार पर व्यापार, दुकान या संस्थान चलता है उनमें सामान का प्रतियोगी मूल्य, सामान की गुणवत्ता, ग्राहक के प्रति हमारा व्यवहार, विक्रयोपरान्त सन्तोषजनक ग्राहकसेवाएँ आदि प्रमुख हैं। नया ग्राहक बनाना एक बार आसान काम हो सकता है किन्तु उस ग्राहक को स्थायी रूप से अपना ग्राहक बनाए रखना किसी ‘साधना’ से कम नहीं होता, यह बात मुझसे पहले और मुझसे बेहतर आप जानते हैं। ऐसे में, क्या आप यह कहना चाहते हैं कि आपकी दुकान चलने का (और आपकी ‘पेढ़ी की साख’ बनने और बनी रहने का) कारण, अंग्रेजी में लिखाया गया आपकी दुकान का ‘साइन बोर्ड’ है?

दुनिया के किसी भी देश में अपनी मातृ भाषा के प्रति वैसा और उतना उपेक्षा भाव नहीं है जैसा और जितना हिन्दी भाषियों में है। कितने मजे की बात है कि अंग्रेजी का सामर्थ्‍य बखान भी हम हिन्दी में कर रहे हैं? है कि नहीं?

बात इतनी हल्की और मामूली नहीं है जितनी लोग समझ रहे हैं। आप तो व्यापारी हैं! जमा-नामे और लाभ-हानि के मायने खूब समझते हैं। जरा हिसाब लगाइएगा कि हिन्दी ने हमें कितना दिया और हमने हिन्दी को कितना दिया? हिन्दी ने हमें रोटी, पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दी है और लगातार दे रही है। और हैसियत भी ऐसी कि हम हिन्दी को दोयम दर्जा देने की ‘सीनाजोरी’ आसानी से कर लेते हैं! और देखिए ना! अंग्रेजी के पक्ष में कही गई आपकी ये बातें हिन्दी अखबार के माध्यम से ही लोगों तक पहुँची! यदि ये बातें किसी अंग्रेजी अखबार में, अंग्रेजी भाषा में छपती तो, विचार कीजिए, कितने लोग इन्हें पढ़ पाते?
यह आपका अधिकार है कि आप अपना दैनन्दिन व्यवहार अंग्रेजी में करें, अपनी दुकान का नाम अंग्रेजी में रखें, दुकान का ‘साइन बोर्ड’ और तमाम ‘स्टेशनरी’ अंग्रेजी में ही लिखवाएँ/छपवाएँ। किन्तु हिन्दी पर इतनी कृपा अवश्य कीजिए कि उसे निर्बल और दोयम दर्जे की, उपेक्षनीय भाषा साबित न करें। आप यदि हिन्दी की इज्जत बढ़ाना नहीं चाहते तो न बढ़ाएँ किन्तु हिन्दी की इज्जत कम भी न करें।

मेरी इन बातों का यह अर्थ कदापि न लगाएँ कि हिन्दी के सन्दर्भों में मैं ‘दुराग्रही शुद्धतावादी’ हूँ। हिन्दी में अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं के शब्दों से मुझे रंचमात्र भी परहेज नहीं है। परहेज की बात तो दूर रही, मैं इस बात का कायल हूँ कि दुनिया को गाँव में बदल रहे, संचार क्रान्ति के इस समय में अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने से हिन्दी सहित किसी भी भाषा की शक्ति बढ़ती ही है, कम नहीं होती। किन्तु यह सब ‘सहज’ और ‘प्राकृतिक’ होना चाहिए, असहज और नकली नहीं। आप मेरे इस पत्र में ही अंग्रेजी, उर्दू, फारसी के कई शब्द पाएँगे। किन्तु वे सब सहज रूप से आएँ है। हिन्दी के नाम पर अकारण और क्लिष्ट अनुवाद का पक्षधर मैं पल भर को भी नहीं हूँ। । इसीलिए रेल, बस, मोटर, सिगरेट, टिकिट, पासपोर्ट, लेटर हेड, साइन बोर्ड, स्टेशनरी जैसे असंख्य अंग्रेजी शब्दों को मैं इनके इन्हीं रूपों में प्रयुक्त करता हूँ और करता रहूँगा क्योंकि इनके हिन्दी अनुवाद ‘अप्राकृतिक’ और ‘असहज’ होंगे। किन्तु छात्र/छात्राएँ के स्थान पर ‘स्टूडेण्ट्स’, माता-पिता के स्थान पर ‘फादर-मदर’, पालकों के स्थान पर ‘पेरेण्ट्स’, अखबार (मुझे पता है कि ‘अखबार’ हिन्दी शब्द नहीं है) के स्थान पर ‘न्यूज पेपर’ आदि के पक्ष में पल भर को भी नहीं हूँ।

अंग्रेजी के पक्ष में एक अत्यन्त निर्बल और हास्यास्पद तर्क ‘बोलचाल की भाषा’ का दिया जाता है। तनिक विचार कीजिएगा कि अंग्रेजी को ‘बोलचाल की भाषा’ बनाया किसने? हम ही ने तो? जब आप-हम हिन्दी में बात कर सकते हैं तो अंग्रेजी बीच में कहाँ से आ गई? इसी बिन्दु पर ‘मानसिकता’ वाली बात सामने आती है।

मेरी बातों को आप बिलकुल न मानें किन्तु जिस ‘नईदुनिया’ में अपना चित्र और अपनी बात छपी देखकर आपको प्रसन्नता हुई होगी, उसी ‘नईदुनिया’ के कल, 04 सितम्बर 2010, शनिवार के अंक के छठवें पृष्ठ पर ‘भाषा नीति’ शीर्षक स्तम्भ में, ‘आँखों ही आँखों में’ शीर्षक टिप्पणी की ये प्रारम्भिक पंक्तियाँ शायद मेरा काम आसान कर दें - ‘हिन्दी की शक्ति को जानने के लिए उसका उपयोग करना आवश्यक है। भाषा कोई भी हो, वह कभी शक्तिहीन नहीं होती है। लेकिन प्रत्येक भाषा की अपनी विशिष्टता होती है, पहचान होती है। यह पहचान उसके उपयोग में शब्दों, अर्थों, भावों के माध्यम से मिलती है और इसीलिए भाषा का उपयोग करने पर ही उस भाषा के सामर्थ्‍य को पहचाना जा सकता है।’

हम अंग्रेजी सीखें और ऐसी सीखें कि अंग्रेज शर्मा जाएँ। किन्तु हिन्दी के सम्मान की चिन्ता नींद में भी करें। जरा सोच कर खुद ही खुद को उत्तर दीजिएगा कि कितने अंग्रेज अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी से अलग हट कर किसी दूसरी भाषा में करते हैं? यदि हम अंग्रेज बनना ही चाहते हैं तो फिर पूरी तरह अंग्रेज क्यों न बनें? अपनी मातृ भाषा के प्रति अंग्रेजों जैसा प्रेम और सम्मान क्यों न बरतें?
बात लम्बी होती जा रही है। कठिनाई यह है कि यह मेरा प्रिय विषय है और आप तो जानते ही है कि अपने ‘प्रिय’ का बखान करने में कोई भी, कभी भी कंजूसी नहीं करता। किन्तु आप मेरी तरह फुरसती नहीं हैं।

सो, मेरे इस ‘थोड़े’ लिखे को बहुत मानिएगा और अपनी बातों पर आत्म मन्थन करने के बारे में कम से के एक बार विचार अवश्य कीजिएगा। ‘माता’ कभी ‘कुमाता’ या ‘सुमाता’ नहीं होती। वह तो सदैव ही ‘माता’ ही होती है। ये तो ‘पूत’ ही हैं जो ‘सपूत’ या ‘कपूत’ होते हैं।

मेरी कोई बात कड़वी, अनुचित, अन्यथा, आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसका बुरा मानिएगा ताकि मेरा यह पत्र लिखना सार्थक हो।

कभी रतलाम पधारें तो सम्पर्क करने का जतन कीजिएगा। आपसे मिलकर, ‘भूली-बिसरी’ को सहलाने का अवसर और उससे उपजा सुख मिलेगा। रतलाम में मेरे योग्य कोई काम हो तो अवश्य बताइएगा।

धन्यवाद।

विनम्र,

विष्णु बैरागी


प्रतिष्ठा में,
श्रीयुत वासु भाई चश्मेवाले,
(जिनकी दुकान का नाम सम्भवतः ‘रॉयल आप्टीकल्स’ है।)
टाउन हाल के सामने,
मन्दसौर - 458001

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कुछ तो रखा है नाम में


टेलीफोन बन्द करते ही साहिल के ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरफ ध्यान गया। लगा, या तो मैंने गलत सुन लिया है या साहिल ने ही गलत कह दिया है।
साहिल गाजियाबाद से बोल रहा था। एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करता है। अभी-अभी, 26 जून को एक बिटिया का पिता बना है। पूछने पर बताया - ‘अयरा नाम रखा है।’ ‘अयरा’ का अर्थ पूछने पर बोला - ‘विदेशी भाषा का शब्द है। अर्थ है - ‘आदरणीय।’ पिता बने अभी दो महीने नहीं हुए किन्तु साहिल ने अयरा के भविष्य के बारे में सोचना शुरु कर दिया। उसकी उच्च शिक्षा के लिए बीमा योजनाओं की जानकारी चाह रहा था। मैंने साहिल के ब्यौरे लिखे और कहा कि वांछित बीमा योजनाओं के ब्यौर मैं उसे अगले दिन भेज दूँगा। उसका पूरा नाम-पता पूछा तो बताया - साहिल कुक्कड़। मैंने पता लिख कर फोन बन्द कर दिया और जैसा कि शुरु में ही कहा, फोन बन्द करते ही उसके ‘कुलनाम’ ‘कुक्कड़’ की तरफ ध्यान गया। अब तक मैंने ‘कक्कड़’ सुना/पढ़ा था। ‘कुक्कड़’ पहली बार सुनने को मिला। कहीं कुछ गलत न कर बैठूँ, यह सोच कर फौरन ही साहिल का नम्बर फिर से लगाया। पूछा - ‘तुम्हारा सरनेम ‘कुक्कड़’ है या ‘कक्कड़?’ साहिल जोर से हँसा और बोला - ‘अंकल, मेरा सरनेम ‘कुक्कड़’ ही है।’ मैंने ‘कक्कड़’ का हवाला दिया तो उसने मेरा ज्ञान-वर्द्धन किया।

साहिल के कहे अनुसार पंजाबी समुदाय के जितने भी लोग ‘कक्कड़’ लिखते हैं, वे सब ‘कुक्कड़’ ही हैं। पंजाबी भाषा में ‘कुक्कड़’ का मतलब ‘मुर्गा’ होता है। सो, साहिल के अनुसार, ‘जगहँसाई’ (एम्बरेसमेण्ट) से बचने के लिए लोगों ने ‘कुक्कड़’ से पीछा छुड़ा कर ‘कक्कड़’ का दामन थाम लिया। मैंने पूछा - ‘तुम्हें जगहँसाई’ की चिन्ता नहीं हुई?’ ‘बिन्दास भाव’ से चहकते हुए साहिल ने कहा - ‘जो जगहँसाई की परवाह में दुबला होता रहता है, ‘जग’ (दुनिया) उसे जीने नहीं देता। और जो ‘जग’ की परवाह नहीं करता, -‘जग’ उसकी परवाह में दुबला होता रहता है।’ बात को आगे बढ़ाते हुए साहिल बोला - ‘अंकल! कोई कितना ही, कुछ भी कर ले, हकीकत तो सब जानते हैं। फिर यह सब उठापटक क्यों और किसके लिए? इसलिए मैं तो कुक्कड़ ही हूँ।’

बात आई-गई हो जानी चाहिए थी। किन्तु नहीं हुई। मुझे कुछ ऐसे ही नाम याद आने लगे जो लोगों को छेड़खानी करने के लिए उकसाते थे।

1975-76 में मैं, भोपाल में, अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ में काम करता था। पत्रकारों में एक था मजहर उल्ला खान। खेल गतिविधियाँ उसीके जिम्मे थी। एक ‘लाइनो-ऑपरेटर’ से उसकी तनातनी बनी रहती थी। इस ‘लाइनो-ऑपरेटर’ की ड्यूटी में जब भी कोई समाचार मजहर उल्ला खान के नाम सहित जाता तो वह ‘लाइनो-ऑपरेटर’, ‘मजहर उल्ला खान’ को जान बूझ कर ‘जहर उल्ला खान’ कर दिया करता था। प्रूफ रीडरों को इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता था। किन्तु इसके बाद भी, महीने में एक-दो बार ‘मजहर उल्ला’ के स्थान पर ‘जहर उल्ला’ छप ही जाया करता था। हमारे सम्पादक नटेश राजन जब-जब भी यह चूक देखते तब हर बार खुल कर हँसते और मजहर से कहते - ‘मियाँ, उससे दोस्ती कर लो वर्ना वो तुम्हें ताजिन्दगी ‘जहर’ बनाए रखेगा।’ मजहर जिन्दादिल नौजवान था। अपनी इस दुर्गत के मजे लेता था। कहता - ‘सर! फिकर वो करे। वो महादेव तो है नहीं कि नीलकण्ठ बन जाए। मैं जिस दिन सचमुच में जहर बनने पर उतर आया तो ‘बीबी का प्यारा’ यह बन्दा, ‘खुदा का प्यारा’ हो जाएगा।’

नाम के साथ हुई छेड़खानी से उकता कर हमारे एक सीनीयर ने अपना कुलनाम ही बदल लिया था। यह सन् 1967 की बात है। मैं रामपुरा (जिला नीमच, म. प्र.) में, बी. ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रहा था। महाविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में ‘डबकरा’ कुलनाम वाले हमारे एक सीनीयर ने अध्यक्ष पद के लिए अपनी उम्मीदवारी ठोक दी। उसकी उम्मीदवारी से हम सब चौंके थे। वह चुनाव मैदान का खिलाड़ी कभी नहीं रहा। पता नहीं क्यों चुनाव मैदान में उतर आया था! आश्चर्य की बात यह थी कि वह पूरी गम्भीरता से चुनाव लड़ भी रहा था। तब ‘प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली’ लागू थी - महाविद्यालय के प्रत्येक छात्र को मतदान करना था।

रामपुरा बहुत छोटा कस्बा है। आबादी इतनी कम कि कस्बे के सारे लोग एक दूसरे को भली प्रकार जानते थे। ऐसे में चुनाव प्रचार का कोई अर्थ नहीं था। किन्तु जगदीश ने पूरे कस्बे की तमाम गलियों की दीवारों पर लिखवा दिया - ‘अध्यक्ष पद के लिए डबकरा को वोट दीजिए।’ चूँकि वह शुरु से ही गम्भीर उम्मीदवार नहीं था सो हर कोई उसके मजे लेने लगा था। उसके प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार ने पूरे कस्बे को मजा दिला दिया। उसने पूरे कस्बे में ‘डबकरा’ में से ‘ड’ को मिटवा दिया। अब पूरे कस्बे में, गली-गली में लिखा हुआ था - ‘अध्यक्ष पद के लिए बकरा को वोट दीजिए।’ पूरे कस्बे में हालत यह हो गई कि आगे-आगे डबकरा और पीछे-पीछे ‘बकरा-बकरा’ कहते हुए बच्चों का झुण्ड।

चुनाव परिणाम तो सबको पता ही था। किन्तु उसके ठीक बाद डबकरा ने अपना कुलनाम बदलकर ‘गुप्ता’ कर लिया। लेकिन अतीत पीछा नहीं छोड़ता। वह अपना परिचय ‘गुप्ता’ कह कर देता तो सामनेवाला चेहरे पर गम्भीरता और मासूमियत ओढ़कर दुष्टतापूर्वक पूछता -‘वही गुप्ता ना जो पहले बकरा था?’

मेरे कुलनाम के साथ भी भाई लोगों ने खूब छेड़छाड़ की और मेरे खूब मजे लिए। ‘बैरागी’ को कभी ‘बैरा’ (जी हाँ, ‘होटल बैरा’) तो कभी ‘बैर’ कर दिया जाता था। कभी-कभी ‘रागी’ कहा जाता किन्तु ‘रागी’ में भाई लोगों को मजा नहीं आता। उल्टे लगता, मेरी इज्जत बढ़ा दी। सो, मुझे ‘बैरा’ और ‘बैर’ ही बनाया जाता रहा। कभी-कभी ‘बेरा’ बना दिया जाता जो मालवी बोली में ‘बहरा’ का अपभ्रंश होता। शुरु-शुरु तो मैं भी चिढ़ता रहा किन्तु चण्डीगढ़ से आए, राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर केवल कुमार वर्मा ने जो ‘गुरु ज्ञान’ दिया उससे भाई लोग परास्त हो गए। भाई लोग मुझे जिस भी नाम से पुकारते, वर्माजी के निर्देशानुसार मैं तत्काल ऐसे जवाब देता जैसे सामनेवाले ने मेरा सही नाम ही पुकारा है। वर्माजी के कारण मेरे मजे लेने का, मेरे मित्रों का मजा नष्ट हो गया।

ये तो वे प्रकरण हैं जिनमें लोगों ने नाम के साथ छेड़खानी की। किन्तु क्या कोई कुलनाम ऐसा भी हो सकता है जिसके साथ छेड़खानी करने की न तो आवश्यकता हो और न ही कोई गुंजाइश और फिर भी आप मजे ले सकें? ऐसे एक नाम से मेरा वास्ता पड़ा है।

यह 1987 की बात है। मैं सम्भागीय उद्योग संघ का सचिव था। सरकारी दफ्तरों में जाना और अधिकारियों से मिलना मेरी जिम्मेदारियों में शरीक था। कुछ उद्योगों के कारण रतलाम को पर्यावरण प्रदूषण के सन्दर्भ में काफी संघर्ष करना पड़ रहा था। तब यहाँ, म. प्र. प्रदूषण निवारण मण्डल ने अपना एक कार्यालय खोल कर एक सहायक वैज्ञानिक की पदस्थापना की थी। पहली बार उनका नाम सुनकर हर किसी को लगता था कि उसने सुनने में कोई गलती कर ली है। सो, खातरी करने के लिए दूसरी बार पूछता था। तब समझ पड़ती थी कि पहली बार सही ही सुना था। इन सज्जन का कुलनाम था - गधेवाड़ीकर। नाम सुनकर हम सब पहले तो चौंकते और बाद में मुस्कुराते और गधेवाड़ीकर के पीठ फेरते ही पेट पकड़ कर हँसते।

उन दिनों सम्‍भवत: राकेश बंसल रतलाम के कलेक्टर हुआ करते थे। कलेक्टोरेट में आयोजित बैठक में गधेवाड़ीकर पहली बार पहुँचे तो बंसल साहब ने परिचय जानना चाहा। सहायक वैज्ञानिक महोदय ने खुल कर, गर्वपूर्वक कहा - ‘सर! मैं गधेवाड़ीकर हूँ। यहाँ पोल्यूशन कण्ट्रोल बोर्ड के सब-ऑफिस में असिस्टण्ट साइंटिस्ट हूँ।’ कुलनाम सुनकर बंसल साहब के पेट में मरोड़ उठने लगे। आई ए एस के वजन से हँसी को दबाने की कोशिश तो की किन्तु कामयाब नहीं हुए। कलेक्टरी एक ओर धरी रह गई और जो हँसी चली तो बंसल साहब की आँखों और नाक से पानी बहने लगा। बमुश्किल हँसी को थोड़ी देर के लिए काबू किया और कहा - ‘यार! यह भी कोई नाम है? वाकई में गधेवाड़ीकर ही नाम है?’ और इससे पहले कि गधेवाड़ीकर कोई जवाब दे, बंसल साहब की हँसी फिर से, पूरे जोर से छूट गई। उस दिन वह बैठक नहीं हो पाई सो तो ठीक किन्तु उसके बाद जब-जब भी बैठक में गधेवाड़ीकर मौजूद होता, बंसल साहब अनजान बन कर - ‘अरे! मिस्टर पोल्यूशन कण्ट्रोलवाले! वो, क्या नाम तुम्हारा.....’ कहकर मानो नाम याद कर रहे हों, इस तरह मुख-मुद्रा बनाकर गधेवाड़ीकर की ओर देखने लगते। गधेवाड़ीकर फौरन ही, तन कर कहता - ‘गधेवाड़ीकर, सर।’ सुनकर बंसल साहब जोर से हँसते और देर तक हँसते रहते। बाद-बाद में यह होने लगा कि यदि गधेवाड़ीकर बैठक में नहीं होता तो बंसल साहब कहते - ‘अरे! आज कैसे हँसेंगे भाई? देखो! देखो!! आते ही होंगे। कुछ देर राह देख लेते हैं।’ लब्बोलुआब यह कि जब तक गधेवाड़ीकर रतलाम में पदस्थ रहा, बंसल साहब का झुनझुना बना रहा।

मुझे लगता है, हममें से प्रत्येक के आसपास ऐसे दस-बीस किस्से तो होंगे ही। इन किस्सों को संग्रहीत करना कैसा रहेगा? और संग्रहीत कर लिया तो संग्रह का का नाम क्या रखा जाएगा?

सोचिएगा। आखिर नाम में कुछ तो रखा है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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आयतन ही नहीं, अपना घनत्व भी बढ़ाया भारतीय जीवन बीमा निगम ने

भारत सरकार के कुबेर, भारतीय जीवन बीमा निगम ने, जीवन बीमा कारोबार में एक बार फिर न केवल अपना पहला स्थान पूर्ववत बनाए रखा है अपितु इसने जीवन बीमा का कारोबार कर रही निजी क्षेत्र की तमाम बीमा कम्पनियों को धक्का देकर बाजार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ा कर 73.02 प्रतिशत कर ली है जो गत वर्ष 70.52 प्रतिशत थी। प्रथम प्रीमीयम आय के सन्दर्भ में यह हिस्सेदारी 64.86 प्रतिशत कर ली जो गए वर्ष 60.79 प्रतिशत थी।

पॉलिसियाँ बेचने के मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम ने गत वर्ष के मुकाबले 8.21 प्रतिशत की शानदार वृध्दि करते हुए कुल 3.88 करोड़ पॉलिसियाँ बेच कर अपनी सकल ग्राहक संख्या 28 करोड़ से अधिक कर ली जो दुनिया के (तीन देशों को छोड़कर) किसी भी देश की जनसंख्या से अधिक है।

भारतीय जीवन बीमा निगम ने कामकाज के प्रत्येक पक्ष में अपनी कीर्ति पताका की ऊँचाई में बढ़ोतरी ही की है। वर्ष 2008-09 में ‘निगम’ की सकल प्रीमीयम आय 1,57,186 रुपये थी जो वर्ष 2009-10 मे बढ़कर 1,85,985 रुपये हो गई। अर्थात् ‘निगम’ ने सकल प्रीमीयम आय में 49.15 प्रतिशत की अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की। प्रथम प्रीमीयम आय में भी निगम ने 33.87 प्रतिशत की वृद्धि करते हुए 70,891 करोड़ रुपये संग्रह किए जो गत वर्ष 52,964 करोड़ रुपये थी।

किसी भी बीमा कम्पनी की विश्वसनीयता का पैमाना उसका भुगतान प्रदर्शन होता है। इस मामले में भारतीय जीवन बीमा निगम ने न केवल निजी क्षेत्र की तमाम बीमा कम्पनियों को चारों कोने चित्त कर दिया बल्कि खुद से ही प्रतियोगिता कर अपना पिछला रेकार्ड तोड़ दिया। वर्ष 2009-10 में ‘निगम’ ने, मृतक बीमाधारकों के परिजनों द्वारा प्रस्तुत कुल 6,64,619 मृत्यु दावों पर 7033.68 करोड़ रुपयों का भुगतान किया। वर्ष के दौरान प्राप्त सकल मृत्यु दावों के और निपटाए गए मृत्यु दावों के अन्तिम आँकड़े यद्यपि अभी आने बाकी हैं किन्तु विश्वास किया जा रहा है कि अपनी कीर्तिमानी परम्परा को बनाए रखते हुए ‘निगम’ ने 99 प्रतिशत से अधिक मृत्यु दावों का निपटान किया है। यहाँ यह उल्लेख समीचीन होगा कि लम्बित दावों में ऐसे दावे भी शामिल हैं जो मार्च 2010 के अन्तिम दिनों में प्रस्तुत किए गए हैं और जिन्हें निपटाने के लिए ‘निगम’ को न्यूनतम अनिवार्य समयावधि भी प्राप्त नहीं हुई होगी।

इसी क्रम में ‘निगम’ ने 2,05,17,870 पूर्णावधि दावों (अर्थात् पॉलिसी अवधि पूरी होने पर भुगतान की जानेवाली रकम) तथा प्रत्याशित दावों (अर्थात् विभिन्न मनी बेक तथ अन्य पॉलिसियों की अवधि के दौरान निर्धारित समय पर भुगतान की जानेवाली रकम) पर अपने पॉलिसीधारकों को 46921.22 करोड़ रुपयों का भुगतान किया।

बीमा करोबार करते हुए भारतीय जीवन बीमा निगम को अतिशेष (सरप्लस) के रूप में 23478 करोड़ रुपये प्राप्त हुए जिसकी 5 प्रतिशत रकम, 1029 करोड़ रुपये, लाभांश (डिविडेण्ट) के रूप में ‘निगम’ ने भारत सरकार को सौंप दी । भारत सरकार को दी गई डिविडेण्ट की यह रकम, गत वर्ष की रकम के मुकाबले 18.32 प्रतिशत अधिक है। अतिशेष (सरप्लस) की शेष रकम 22,449 करोड़ रुपये, ‘निगम’ के पॉलिसीधारकों को बोनस के रूपमें अर्पित कर दिए गए हैं।

वर्ष 2009-10 के वित्तीय परिणामों के अनुसार, भारत सरकार के इस कुबेर की सकल परिसम्पत्तियाँ, गत वर्ष के मुकाबले 31.88 प्रतिशत बढ़कर 11,52,057 करोड़ रुपये हो गई है।

किन्तु इससे भी अच्छी खबर अभी बाकी है। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों ने ‘अहर्निशं सेवामहे’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए, चालू वित्त वर्ष 2010-11 की पहली तिमाही (अप्रेल'10 से जून'10) में 18740 करोड़ रुपये प्रथम प्रीमीयम आय अर्जित कर दिखाई है। यह रकम, गत वर्ष की इसी तिमाही के मुकाबले 107.57 प्रतिशत अधिक तो है ही, पूरे देश में कार्यरत, तमाम बीमा कम्पनियों की प्रथम प्रीमीयम आय का 73.43 प्रतिशत है। अर्थात् देश के महानगरों से लेकर गाँव-खेड़ों की गलियों-पगडण्डियों में सक्रिय, भारत सरकार के इस कुबेर के कर्मठ एजेण्टों ने अपनी शानदार संस्था के कीर्तिमान को अक्षुण्ण बनाए रखने की पीठिका अभी से ही रच दी है।

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मोबाइल का कृपा-प्रसाद

जस्सु भाई ने टोका तो ‘मोबाइल कृपा’ का एक नया आयाम उद्घाटित हुआ। उन्होंने उलाहने के लहजे में कहा - ‘लगता है, अब हमारे यहाँ से आपको बीमे की या तो जरूरत नहीं रह गई है या फिर उम्मीद नहीं रह गई है।’ मैं चकरा गया। जस्सु भाई का मन्तव्य समझ नहीं पाया। मेरी आँखें पढ़ कर बोले -‘आपके पत्र तो बराबर आ जाते हैं किन्तु दो-तीन बरसों से आपने फोन करना बन्द कर दिया है।’ बात फौरन मेरे भेजे में आ गई।

भरे-पूरे संयुक्त परिवार के मुखिया हैं जस्सु भाई। वे, उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएँ, दो पोते और एक पोती। कुल नौ सदस्यों का परिवार। ऐसे परिवार इन दिनों देखने में नहीं आते। अनूठे बन गए हैं। मनुष्य वही तलाशता है जो उसके पास नहीं होता। परिवार के नाम पर हम मियाँ-बीबी ही रह गए हैं गए कुछ बरसों से। सो, ऐसे अनूठे, संयुक्त परिवार मुझे अतिरिक्त रूप से आकर्षित करते हैं, ललचाते हैं और कभी-कभार ईर्ष्‍यालु भी बना देते हैं। मेरे सम्पर्क-क्षेत्र के ऐसे संयुक्त परिवारों में जाने के लिए मैं बहाने भी तलाश नहीं करता। जब जी चाहा, बिना पूर्व सूचना दिए ऐसे परिवारों चला जाता हूँ। धमा-चौकड़ी मचाते बच्चे और उन्हें डाँटते-हड़काते बड़े-बूढ़े मेरे खालीपन को दूर कर देते हैं। मेरी थकान दूर हो जाती है। ताजादम कर देते हैं मुझे ऐसे दृश्य। इन्हीं कारणों से जस्सु भाई के यहाँ अकारण ही गाहे-ब-गाहे जाता रहता हूँ।

एक कारण और है जस्सु भाई के यहाँ जाते रहने का। उनके दोनों बेटे, अपने पूरे परिवार सहित मेरे पॉलिसीधारक याने मेरे ‘अन्नदाता’ हैं। मैं अपने ‘अन्नदाताओं’ और उनके परिजनों के जन्म दिनांक और विवाह वर्ष गाँठ पर अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र तो भेजता ही हूँ, उस दिन टेलीफोन पर भी बधाई देने का जतन करता हूँ। जस्सु भाई इसी की शिकायत कर रहे थे।

मैंने कहा - ‘नहीं जस्सु भाई! मैं तो सबके जन्म दिन और शादी की सालगिरह पर बराबर फोन कर रहा हूँ। विश्वास न हो तो अपने दोनों बेटे-बहुओं से पूछ लीजिए।’ जस्सु भाई को सचमुच में विश्वास नहीं हुआ। अपनी बात को गिरता देख असहज हो गए। बोले -‘कहाँ करते हैं? आपके फोन तो आते ही नहीं!’

पूरी बात अब साफ-साफ समझ में आई। मैंने कहा - ‘जस्सु भाई! पहले पूरे घर में एक ही फोन था। लेण्ड लाइनवाला। तब मैं जब भी फोन करता तो आप ही उठाते थे। पहले आपसे बात होती थी और फिर मेरे कहने पर आप सम्बन्धित सदस्य को बुलाते थे ताकि मैं उसे बधाई दे सकूँ। लेकिन अब तो आपके बेटों-बहुओं के पास ही नहीं, दोनों पोतों के पास भी मोबाइल आ गए हैं। अब तो सीधे उन्हीं से बात हो जाती है।’

जस्सु भाई की असहजता तनिक घनी हो गई। शायद इस कारण कि यह ‘छोटी सी बात’ उन्हें क्यों नहीं सूझ पड़ी। तनिक पीड़ा से बोले - ‘अरे! हाँ। यह बात तो मुझे कभी सूझी ही नहीं। अब समझ में आया कि मेरे फोन की घण्टी पहले जैसी क्यों बार-बार नहीं बजती।’ फिर कुछ इस तरह बोले, मानो एक-एक बात या तो याद कर रहे हों या बात खुद-ब-खुद याद आ रही हो - ‘तभी मैं कहूँ कि समधीजी के फोन भी क्यों नहीं आते? अब तो वो भी सीधे अपने बेटी-जमाई से बात कर लेते होंगे। अब यह भी समझ में आ रहा है कि फोन की घण्टी तभी क्यों बजती है जब सामनेवाले को मुझीसे बात करनी होती है। इसीलिए अब घर के किसी मेम्बर के लिए कोई फोन नहीं आता।’

जिन स्वरों में जस्सु भाई ने यह सब कहा, सुन कर लगा, मानो वे बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भरे-पूरे घर में एकाएक, एकदम अकेले हो गए हैं। ऐसे घने बीहड़ जंगल में खड़े हो गए जहाँ कोई पगडण्डी भी नजर नहीं आती। मानो, यहाँ से वे कहीं जा नहीं सकते और न ही कोई और उन तक पहुँच सकता। खुद का जा पाना या किसी और का आ पाना तो दूर रहा, शायद उनकी पुकार भी किसी को सुनाई न दे। मानो, शेष जीवन के लिए एकान्त भोगने को अभिशप्त हो गए हों - उनके बेटे-बहुएँ, पोते-पोती सब उन्हें इस निर्जन में अकेला छोड़ कर चले गए।

वे सहज नहीं हो पा रहे थे। वे खुद भी ऐसी कोशिश नहीं कर पा रहे थे। इस उखड़ी मुद्रा और मनःस्थिति ने मानो उनकी वाणी छीन ली हो। बड़ी कठिनाई से उनकी घरघराती आवाज आई - ‘यह तो गजब हो गया बैरागीजी! हम पूरे नौ जने इस घर में हैं लेकिन इस मोबाइल ने तो हम सबको अकेला कर दिया! इसे बनानेवाले ने तो सोचा होगा कि उसने लोगों को जोड़ने वाली मशीन बनाई है। लेकिन यह तो एकदम उल्टा हो गया! सब एक साथ होते हुए भी अलग-अलग हो गए! है कि नहीं?’

उनकी दशा और बातों ने मुझे अवाक् कर दिया। मेरी साँसें घुटने लगीं। लगा, यहीं प्राणान्त हो जाएगा। जस्सु भाई मेरी ओर ऐसे देख रहे थे मानो अचानक मालूम पड़ी इस विपदा से उन्हें छुटकारा मैं ही दिला सकता हूँ। दिला सकता हूँ नहीं, छुटकारा दिलाना ही है। यदि मैं ऐसा किए बिना चला गया तो मानो जस्सु भाई के प्राण पखेरु उड़ जाएँगे, कुछ इसी तरह से जस्सु भाई मुझे देखे जा रहे थे। छाती में उठते गुबार को रोक पाना मेरे लिए असम्भव होता जा रहा था। जस्सु भाई की जड़वत् दशा मुझे परेशान, हलकान किए जा रही थी। यदि मैंने बिलख-बिलख कर रोना शुरु नहीं किया तो मेरी छाती फट जाएगी।

जस्सु भाई को मानो मुझ पर दया आ गई। मेरी दशा देखकर, निःश्वास छोड़ते हुए बोले - ‘अच्छा बैरागीजी! आते रहना और फोन करते रहना भैया।’

मैं वहाँ से चला तो जरूर किन्तु पाँव नहीं उठ रहे थे। लग रहा था, सारी दुनिया का बोझ किसी ने मेरी पीठ पर लाद दिया हो। मैंने अपनी पीठ पर हाथ फेरा। कुछ भी नहीं था। फिर यह वजन कैसा?

नहीं। यह वजन नहीं था। ये तो जस्सु भाई थे मेरी पीठ पर - अपने आशंकित एकान्त के साथ।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

बात बोलती है, असर होता है


यह उन्नीस अगस्त की रात है। पौने ग्यारह बज रहे हैं जब मैंने यह पोस्ट लिखनी शुरु की है। सर्वथा अनपेक्षित और उससे भी अधिक आकस्मिकता से मिली सफलता से उपजी प्रसन्नता मुझसे समेटे नहीं बन रही। बात ही ऐसी है। मन को आह्लाद से लबाबल कर देनेवाली और आत्मा को उजास से भर देनेवाली।

पन्द्रह अगस्तवाली मेरी पोस्ट कॉमन वेल्थ की प्रेरणा, ‘साप्ताहिक उपग्रह’ (रतलाम) के पन्द्रह अगस्तवाले अंक में, मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपी थी। ‘उपग्रह’ का वह अंक मैंने सत्रह अगस्त को उन एजेण्ट बन्धु को पढ़वाया जो ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल बनवा कर अपना घरेलू फर्नीचर बनवाने में मेरी मदद चाह रहे थे।

उन्होंने पूरा आलेख पढ़ा और सकपका कर आसपास देखा। एजेण्टों के कक्ष में हम कोई सात-आठ एजेण्ट बैठे थे। उन्हें तसल्ली हुई यह देखकर कि हम दोनों की ओर देखने की फुर्सत किसी को नहीं थी। बोले-‘बाहर चलिए।’ हम दोनों बाहर आए और पॉवर हाउस मार्ग पर, एलआईसी के हमारे शाखा कार्यालय के सामने, सड़कपार, चाय के ठेले के पास लगी बेंच पर बैठे गए। यहाँ हम दो ही थे। तीसरा था ठेलेवाला जो चाय बनाने में मगन था। वे बोले - ‘तेरह अगस्त को तो मैंने आपसे बात की थी और पन्द्रह को आपने वह सब छाप दिया?’ परिहास करते हुए मैंने कहा - ‘कहाँ ‘सब’ छाप दिया? आपका नाम तो रह ही गया।’ वे तनिक खिसिया कर बोले - ‘आपके साथ यही बात अच्छी है। आप यदि इज्जत बढ़ाते नहीं तो कम भी नहीं करते। लेकिन बताइए, यह किस्सा मुझे क्यों पढ़वाया?’ मैंने कहा-‘उस दिन तो आप नाराज होकर चले गए थे। आज अपने मन पर हाथ रख कर तनिक तटस्थ भाव से बताइए, पढ़कर कैसा लगा?’ जवाब आया-‘अच्छा तो नहीं ही लगा किन्तु गुस्सा बिलकुल नहीं आया। सच बात तो यह है कि तेरह की शाम को, आपके पास से लौटने के बाद से ही बराबर लगने लगा था कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ।’ मुझे तसल्ली तो हुई ही, हिम्मत भी बढ़ी। पूछा-‘तो मैं समझूँ कि अब आपने मुझ माफ कर दिया और अब आप मुझसे नाराज नहीं हैं?’ निष्प्राण हँसी हँसते हुए वे उदासीन स्वरों में बोले-‘क्या तो माफी और क्या नाराजी? आपने तो अपनी आदत के मुताबिक ही व्यवहार किया। तेरह अगस्त को पहले तो मुझे सचमुच में गुस्सा आ गया था किन्तु जैसा मैंने कहा, बाद में अपनी गलती का अहसास होने लगा था। किन्तु आज तो आपका यह लेख पढ़कर बेचैनी होने लगी है।’ बुझे-बुझे और तनिक घबराए मन से मैंने कहा-‘मैं आपका अपराधी हो गया हूँ। माफी माँगता हूँ। मुझे माफ कर दीजिए।’ वे असहज हो गए। बोले-‘अरे! कैसी बातें कर रहे हैं? आपकी बातें मुझे भले ही अच्छी नहीं लगी हों किन्तु इतना भरोसा तो मुझे है कि आपने मेरा बुरा नहीं चाहा। जो भी कहा, मेरा भला चाह कर ही कहा।’ कुछ क्षणों के लिए हम दोनों के बीच मौन पसर गया। लम्बी साँस लेकर बोले-‘चलता हूँ। अब आज कुछ भी काम नहीं कर पाऊँगा।’ और वे चले गए। न तो नमस्कार किया और न ही एक बार भी पलट कर देखा।

आज (उन्नीस अगस्त को) जब वे आए तो बदले-बदले तो लग रहे थे किन्तु उनकी शकल देख कर बदलाव की दिशा और स्वरूप समझ पाना सम्भव नहीं हुआ। लपक कर मेरी ओर आए। ऐसे, मानो पचीसों ग्राहकों और बीसियों एजेण्टों के होने का रंचमात्र भी अहसास न हो। कुछ इस तरह से मिले मानो बियाबान में मिल रहे हों। बिना किसी भूमिका के बोले-‘मैं केवल आपसे मिलने के लिए और यह कहने के लिए आया हूँ कि ऑफिस फर्नीचर का झूठा बिल लगा कर घर का फर्नीचर बनाने का विचार मैंने छोड़ दिया है। और, ऑफिस फर्नीचर तो मुझे चाहिए ही नहीं! सो, अब मैं फर्नीचर ऋण ही नहीं ले रहा हूँ।’ कहते हुए उनका गला भर्रा गया किन्तु उनकी आवाज में विक्टोरीयायुगीन चाँदी के ‘कलदार सिक्के’ की खनक थी।

मैं हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था कि क्या कहूँ। पता नहीं कैसे मुँह से निकला-‘आपकी निष्कलुष आत्मा को मैं प्रणाम करता हूँ। ईश्वर आप पर आजीवन ऐसा ही कृपालु बना रहे।’ मैंने सुना, मेरी आवाज भी रुँधी हुई थी।


हम दोनों कुछ क्षण यूँही खड़े रहे, बिना बोले, एक दूसरे के आर-पार देखते हुए, अपने आसपास से बेखबर। चुप्पी उन्होंने ही तोड़ी। सस्मित बोले-‘आपको क्या हो गया? आपकी सिट्टी-पिट्टी क्यों गुम हो गई? आपका उपदेशक कहाँ चला गया?’ मुझसे कोई उत्तर नहीं बन पड़ा। इस बार तनिक अधिक जोर से हँसते हुए बोले-‘चलिए! चाय पिलाइए।’

हम दोनों एक बार फिर उसी ठेलेवाली बेंच पर बैठे। आज भी हम दो ही थे और ठेलेवाला उसी तरह चाय बनाने में मगन था। थोड़ी देर में ठेलेवाला ने हम दोनों को ‘डिस्पोजेबल’ के नाम पर ‘नान डिस्पोजेबल’ कप थमा दिए। पहली सिप लेकर उन्होंने बात शुरु की-‘एक काम बताऊँ? बुरा तो नहीं मानेंगे?’ मुझसे अभी भी नहीं बोला जा रहा था। उन्होंने अपनी बात बढ़ाई-‘ऐसे ही बने रहिएगा और यही सब करते रहिएगा। लोग आप पर हँसे तो भी, आपको नुकसान उठाना पड़े और बुरा बनना पड़े तो भी। होता यह है कि जब कोई टोकता ही नहीं तो आदमी अपनी हर बात को, अपने हर फैसले को सही मानने लगता है। कोई टोका-टाकी करेगा तो ही तो वह अपनी बात पर फिर सोचेगा, विचार करेगा! अपना फैसला बदला तो मैंने ही किन्तु इसके पीछे आप हैं। आपकी बात मुझे ‘लग’ गई। परसों, मैंने अपने बेचैन होने की बात कही थी। वह बेचैनी तभी खत्म हुई जब मैंने परसों शाम को, यह ऋण न लेने का फैसला किया। फैसला लेते ही मुझे लगा मानो मैं गौ हत्या के अपराध से बच गया हूँ। मैं कल भी आपके पास आ सकता था किन्तु नहीं आया। कल दिन भर और रात में नींद आने तक अपने फैसले को तौलता रहा। डरता रहा कि कहीं अपना फैसला बदल न दूँ। किन्तु एक मिनिट के लिए भी मन नहीं डिगा। सो, आज आया और आपको अपना फैसला सुनाया।

'मैं जानता हूँ कि एक मेरे भ्रष्टाचार न करने के फैसले से देश में भ्रष्टाचार समाप्त नहीं होगा। किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि भ्रष्टाचार की कोई क्लास या केटेगरी नहीं होती। वह केवल भ्रष्टाचार होता है, मैं करूँ या कोई और करे। मुझे बुरा तो लगा था किन्तु आपने मुझे समझा दिया कि यदि दूसरों का भ्रष्टाचार अनुचित है तो मेरा भ्रष्टाचार भी अनुचित है। मैं कोई साधु-सन्त नहीं हूँ। बाल-बच्चेदार आदमी हूँ। कल के लिए मैं कोई वादा नहीं करता किन्तु कोशिश करुँगा कि अपनी ओर से भ्रष्टाचार नहीं करूँ और यदि करना पड़ा तो फिर पक्का मानिए कि उसी मिनिट से, भ्रष्टाचार का रोना-गाना तो बन्द कर ही दूँगा।’

यह सब कहते-कहते वे अपनी चाय खत्म कर चुके थे जबकि मैं जड़वत्, चाय का कप थामे, उन्हें देख-सुन रहा था। मेरी दशा देख वे एक बार फिर हँसे। मेरा कन्धा थपथपाते हुए खड़े हुए। ठेलेवाले से कहा-‘चाय के पैसे इनसे लेना।’

और वे चले गए। किन्तु मैं उन्हें जाते हुए देर तक और दूर तक नहीं देख पाया। वे बमुश्किल बीस-पचीस कदम ही चले होंगे कि उनकी आकृति धुँधला गई। आँखों के रास्ते चले नमक ने मेरी चाय खारी कर दी थी।

वे चले गए हैं। बेंच पर मैं अकेला बैठा हूँ। मैं कुछ भी साफ नहीं देख पा रहा हूँ। सब कुछ धुँधलाया हुआ है-एकदम ‘आउट ऑफ फोकस।’

मेरे आँसू थम नहीं रहे हैं। मुझे क्यों लग रहा है कि मैंने चार धाम तीर्थ यात्रा कर ली है?
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मैं : नासमझ, नादान और पिछड़ा


यह शायद नौंवी या दसवीं बार हुआ जब मैं ‘नासमझ, नादान और पिछड़ा हुआ’ एजेण्ट घोषित किया गया। यह भी नौंवी या दसवीं बार हुआ कि अपनी इस नासमझी, नादानी और पिछड़ेपन पर आत्म सन्तोष हुआ। मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मुझे इस तरह प्रमाण-पत्र दिए जाने पर मुझे न तो गुस्सा आया और न ही हीनता-बोध हुआ।

उन्नीस वर्ष और सात महीने उम्र है मेरी बीमा एजेन्सी की। लगभग चौदह सौ पॉलिसियों और लगभग साढ़े नौ सौ ‘अन्नदाताओं’ की परिसम्पत्तियों का स्वामी हूँ मैं। इस अवधि में मेरे खाते में नौ या दस मृत्यु दावे ही लिखे गए हैं। मुझसे बड़े, बेहतर और समझदार बीमा एजेण्ट और बीमा अधिकारियों के मुताबिक यह आँकड़ा ‘बहुत-बहुत कम’ से भी बहुत कम है। इतना कम जिस पर एजेण्ट गर्व कर सके। किन्तु मुझे इसमें गर्व करने जैसी कोई बात नजर नहीं आती। बीमा करने से पहले एजेण्ट यदि सारी बातें खुद जान ले, वास्तविकता से आश्वस्त हो जाए और बीमा प्रस्ताव में सब कुछ सच-सच लिख दे, कोई तथ्यात्मक सूचना छिपाए नहीं, तो उसे कभी भी असुविधाजनक स्थिति का सामना नहीं करना पड़े। यही सब तो मैंने भी किया! कोई अनूठा काम नहीं किया। यह तो मेरी न्यूनतम जिम्मेदारी थी। अपनी जिम्मेदारी निभाने में भला गर्व करने की बात कहाँ से आती है? बहुत हुआ तो आदमी आत्म सन्तोष कर सकता है।

अन्य क्षेत्रों/अंचलों की जानकारी तो मुझे नहीं किन्तु मालवा अंचल में चलन है कि मृत्यु दावे की रकम का चेक समारोहपूर्वक दिया जाता है। एजेण्ट और/अथवा एल आई सी यह समारोह आयोजित नहीं करते। सम्बन्धित एजेण्ट और एल आई सी के लोग मृतक के बारहवें/तेरहवें पर पूरी की जानेवाली ‘पगड़ी’ की रस्म के दौरान पहुँच कर, मृतक के परिवार को दावा राशि का चेक सौंपते हैं। इससे शोकग्रस्‍त परिवार के, जाति-पंचायत तथा नाते-रिश्तेदारों के उपस्थित जन समूह के कुछ लोगों के बीमे मिलते ही मिलते हैं। इसके पीछे के कारण आसानी से समझे जा सकते हैं।

किन्तु मुझे यह आज नहीं रुचा। मेरी एजेन्सी में जितने भी मृत्यु दावों का भुगतान हुआ, उनके चेक मैंने अकले ही, शोकग्रस्त परिवार में जाकर, चुपचाप परिजनों को सौंपे। शोक के प्रसंग और वातावरण को व्यवसाय में भुनाना मुझे अब तक गले नहीं उतरा है। एक बीमा एजेण्ट के रूप में मैंने खुद को अपने ‘अन्नादाताओं’ के परिवार का सदस्य ही माना। लिहाजा, अपने परिजनों के वाजिब हक का नगदीकरण कैसे किया जा सकता है? यह तो परायों के साथ भी उचित नहीं!

बीमे का अर्थ ही है - अनुबन्धित वचनबद्धता का निष्ठापूर्वक, समयबद्ध पालन। ऐसा कर हम (बीमा एजेण्ट और बीमा कम्पनी) किसी पर अहसान नहीं करते। अपना कर्तव्यनिर्वहन हमने नम्रतापूर्वक करना चाहिए, गर्वपूर्वक नहीं - यही तो सिखाया है हमें हमारे पुरखों ने! सो, मृत्यु दावे की रकम का चेक मैं चुपचाप ही सौंपता हूँ - कुछ इस तरह कि शोकग्रस्त परिवार और मेरे सिवाय किसी और को मालूम न हो।
वैसे भी, काम करने का आनन्द भी तो तब ही आता है जब उसकी चर्चा कोई और करे! अपने किए की चर्चा करने को, वह भी समारोहपूर्वक करने को ‘अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना’ ही कहा गया है हमारे यहाँ तो। मैं आत्म-प्रशंसा से बचने की कोशिश करता हूँ और मेरी इस कोशिश को मेरे साथी एजेण्ट और बीमा अधिकारी मेरी नासमझी, नादानी और पिछड़ापन मानते/कहते हैं।
मैं चुपचाप सुन लेता हूँ। प्रतिवाद, प्रतिकार नहीं करता।

मैं अपने ईश्वर, अपनी आत्मा के प्रति जवाबदेह हूँ। इन्हीं से मुझे डरना चाहिए। नहीं, डरना नहीं चाहिए, इन्हीं की साक्षी में अपना काम करना चाहिए। इन दोनों से भय कैसा? ये ही तो मेरे परम् मित्र हैं।

मैं अपने इन्हीं परम् मित्रों से शक्ति, आत्म-बल पाता हूँ। ये दोनों ही मुझे कहते हैं कि मैं जो कर रहा हूँ, ठीक कर रहा हूँ।

मुझे अपनी नासमझी, नादानी और पिछड़ेपन से कोई शिकायत नहीं। मैं ऐसा ही बना रहना चाहूँगा और इसीके लिए कोशिशें करता रहूँगा।

मैं नासमझ, नादान और पिछड़ा हुआ ही भला। मुझे नहीं बनना समझदार, दुनियादार और अगड़ा।

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पायल को बेड़ी बनानेवाले


ताऊजी की बात सुनकर मुझे हँसी आ गई और साथ ही याद आ गए रमाकान्तजी। बात बाद में। पहले रमाकान्तजी के बारे में।

मेरे कस्बे से चौंतीस किलो मीटर दूर स्थित जावरा में रहते हैं रमाकान्तजी। एक शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के प्राचार्य हैं। विक्रम विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में एम. एससी. परीक्षा स्वर्ण पदक सहित पास की। कर्मकाण्डी ब्राह्मण अवश्य हैं किन्तु कर्मकाण्ड को वास्तविकताओं और व्यावहारिकताओ की कसौटी पर कसते हैं। वे कर्मकाण्ड को जितनी ‘पारम्परिक आवश्यकता’ मानते हैं उतनी ही आवश्यक इस परम्परा को व्यक्तिशः निभाना भी मानते हैं। याने, जो भी कर्मकाण्ड करना है, खुद को ही करना है। खुद के लिए किसी और से कर्मकाण्ड करवाना न तो उचित और न ही फलदायी मानते हैं। साफ-साफ कहते हैं - ‘आपके नाम पर मैं भोजन कर लूँ तो पेट तो मेरा ही भरेगा। आपका नहीं। इसी प्रकार यदि अपने लिए या अपने किसी कष्ट निवारण के लिए कोई मन्त्र जाप करना है तो खुद को ही करना पड़ेगा। तभी उसका लाभ मिलेगा। जावरा में बैठकर उज्जैन में बैठे किसी पण्डित से जाप करवाने से आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा। वह लाभ तो जाप करनेवाले पण्डित को ही मिलेगा।’ रमाकन्तजी यह सब उन लोगों से कहते हैं जो अपने लिए विभिन्न मन्त्रों के जाप के लिए रमाकान्तजी से आग्रह करते हैं। वस्तुतः कुण्डली ज्योतिष में रमाकान्तजी का यथेष्ठ हस्तक्षेप भी है। सो, कुण्डली अध्ययनोपरान्त जब वे किसी अनिष्टकारक योग की सूचना देते हैं तो लोग उसके निवारण का उपाय भी पूछते हैं और तब ही वे सारी बातें सामने आती हैं जो मैंने ऊपर लिखी हैं।

ताऊजी की यह बात भी ऐसी ही थी - भूख किसी और को लगी थी और भोजन किसी और को कराने की।

ताऊजी के छोटे भाई की बेटी सरला का विवाह अभी-अभी, इसी सात जुलाई को सम्पन्न हुआ है। मायका महू में है। बारात इगतपुरी से आई थी। बारात आठ जुलाई को रवाना हुई। धवला नौ की सुबह अपनी ससुराल पहुँची। आज के जमाने से सब कुछ पहले से ही तय कर लिया जाता है। सो, हनीमनू के लिए नव दम्पति का, 14 जुलाई का रेल-आरक्षण पहले से ही करवाया हुआ था। नव दम्पति की यात्रा की तैयारियों के बीच ही एक परम्परा सवाल बन कर खडी़ हो गई - ‘पग-फेरा हुए बिना सरला कैसे जा सकती है?’ ‘पग-फेरा’ याने, विवहोपरान्त लड़की का पहली बार मायके जाना। देहातों में तो यह बहुत ही सामान्य बात है किन्तु सम्पन्न शहरी समाज ने इसे अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ कर, तामझामवाली परम्परा में बदल दिया है। देहातों में लड़की का पग-फेरा किसी पर आर्थिक भार नहीं होता। किन्तु शहरी समाज ने ‘पग-फेरा’ से अधिक आवश्यक इसके तामझाम को बना दिया। यह तामझाम अच्छा-भला खर्चीला हो गया है। हममें से प्रत्येक, अपनी हैसियत को बढ़-चढ़कर ही जताता है। सो, आर्थिक सन्दर्भों में यह परम्परा भी ‘नाक से भारी नथ’ बन गई है। सो, सरला का पग फेरा केवल एक रस्म मात्र नहीं थी, दोनों परिवारों की हैसियत जताने का जरिया और अवसर भी थी। किन्तु, नौ को पहली बार ससुराल पहुँची धवला, पग-फेरा के लिए महू जाए तो कब जाए और यदि जाए तो चौदह की शाम तक वापस इगतपुरी पहुँचे तो कैसे पहुँचे? सो, नव दम्पति का हनीमून-प्रस्थान संकट में पड़ गया।

ऐसे में, जैसा कि होता आया है, परम्परा निभाने की खानापूर्ति करने की सम्भावना पर विचार किया। अगले ही पल समस्या का निदान मिल भी गया। धवला की बुआ भी इगतपुरी में ही रहती है। तय किया गया कि चौदह जुलाई की सुबह सरला, बुआ के घर चली जाएगी जहाँ से शाम को ‘कुँवर साहब’ उसे लिवा लाएँगे। इस तरह ‘पग-फेरा’ भी हो जाएगा और नव दम्पति का हनीमून प्रस्थान भी समय पर हो जाएगा।

सरला के ससुरालवालों ने सारी बात सरला के माता-पिता को बताई, समझाई। ‘समझाई’ इसलिए कि ‘पग-फेरा’ भले ही इगतपुरी में हो ही रहा हो किन्तु तामझाम तो पूरा करना ही पड़ेगा। ‘समझाइश’ न केवल, परम्परा की खानापूर्ति हेतु सहमति देने की थी बल्कि इसी तामझाम की भी थी। हम कितने भी प्रगतिशील क्यों न हों, लड़कीवाले आखिरकार लड़कीवाले ही होते हैं। मजबूरी में दी गई सहमति को समझदारी की शकल में परोसनी पड़ती है। सो, सरला के माता-पिता ने यही समझदारी दिखाई और कोर बैंकिंग की सुविधा के चलते, पग-फेरा के तामझाम की कीमत हाथों हाथ ही, बुआ के खाते में जमा करा दी।

सब कुछ ठीक समय पर, ‘ढंग-ढांग’ से निपट गया। सरला का पग-फेरा हो गया। वह हनीमून-प्रवास से ससुराल के लौट आईं है। सब खुश हैं - यहाँ ताऊजी, महू में सरला के माता-पिता और ससुराल में सब के सब।

किन्तु मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ। रमाकान्तजी की बातें याद कर शुरु-शुरु मे आई हँसी दूर जा चुकी है। जो पग-फेरा दोनों परिवारों के लिए एक आह्लाददायक वास्तविकता होना चाहिए था, वह नीरस खानापूर्ति में बदल कर रह गया। माँ-बाप ने पग-फेरा का मूल्य चुकाया किन्तु बेटी तो माँ-बाप के आँगन में लौटी नहीं ? ब्याही बेटी को पहली बार ससुराल से लौटी देखने की जो खुशी माँ-बाप को मिलनी चाहिए थी वह तो मिली ही नहीं! ‘पग-फेरा’ कोई संस्कार नहीं है। सरला का पग-फेरा यदि हनीमनू के बाद हो जाता तो कौन सा अनिष्ट, क्या अशुभ हो जाता?

परम्पराएँ हमने ही बनाई हैं और हमारी प्रसन्नता के लिए ही बनाई हैं। किन्तु सब कुछ उल्टा हो रहा है। जिन परम्पराएँ को हमारी संस्कृति की पायल बन कर हमारे जीवन के आँगन में में ‘रुन-झुन’ करनी चाहिए, उन परम्पराओं को हम प्रसन्नता और उत्साहपूर्वक रुढ़ि की बेड़ियों में बदल रहे हैं - बिना सोचे समझे।

गलत तो नहीं कह रहा?
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आवश्यकता और जुगत


मेरे कस्बे के एक भक्त मण्डल ने दीर्घावधि के लिए रामचरित मानस पाठ शुरु किया था किन्तु पहले ही दिन व्यवधान आ गया। भक्त मण्डल ने लाउडस्पीकर लगा कर, चारों दिशाओं में भोंगे तान दिए थे। मानस-पाठ करनेवाले तो हॉल में बैठे थे। उन्हें केवल अपनी ही आवाज सुनाई दे रही थी। सो, मान कर चल रहे थे कि बाहरवालों को भी उतनी ही आवाज आ रही होगी। वास्तविकता इसके ठीक उलट थी। लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर चल रहा था। सो, भोंगों से आ रही आवाज तेजाब की तरह कानों को जला रही थी। किसी ‘अधर्मी’ से यह सहन नहीं हुआ। उसने पुलिस में शिकायत कर दी। यह ‘अधर्मी’ अवश्य की ‘छोटी-मोटी पहुँचवाला’ रहा होगा। सो, पुलिस तत्काल ही मौके पर पहुँची और लाउडस्पीकर तथा भोंगे समेट कर ले आई। मालूम हुआ कि भोंगे लगाने की अनुमति भी नहीं ली गई थी।

जैसा कि होना था, इस घटना की तीखी प्रतिक्रिया हुई। भक्त मण्डल ने पुलिस की इस ‘हरकत’ को ‘धर्म पर प्रहार’ निरुपित किया, कहा कि पुलिस के इस दुष्कृत्य से धार्मिक भावनाएँ आहत हुई हैं। कहा कि, लाउडस्पीकर के अभाव में रामचरित मानस पाठ करना असम्भव हो गया है। ऐसे मामलों में जैसी चेतावनियाँ दी जाती हैं, दी गईं।

बाद में क्या हुआ, नहीं पता। अखबारों में कुछ भी नहीं छपा सो अनुमान लगा रहा हूँ कि पुलिस ने क्षमा-याचना करते हुए सारा साज-ओ-सामान लौटा दिया होगा। ज्यादा से ज्यादा यह सलाह दी होगी कि लाउडस्पीकर की आवाज नियन्त्रित रखें। किन्तु भक्त मण्डल ने ऐसा नहीं किया होगा (मुझे विश्वास है कि वास्तव में ऐसा नहीं किया होगा। मामला ‘धर्म’ का जो ठहरा!) और ‘छोटी-मोटी पहुँच’ वाले उस ‘मूर्ख अधर्मी’ को समझ में आ गया होगा कि अत्याचार का विरोध करने का धर्म निभाना उसकी गलती थी और धर्म का अत्याचार उसे तब तक प्रसन्नतापूर्वक झेलते रहना होगा जब तक कि रामचरित मानस पाठ पूरा नहीं हो जाता।

समाचार ने मुझे प्रभावित तो नहीं किया किन्तु ध्यानाकर्षित तो किया ही। पूरे समाचार में जो बात उभर कर सामने आई वह यह कि रामचरित मानस के मुकाबले लाउडस्पीकर अधिक महत्वपूर्ण था। भक्त मण्डल के लिए यदि रामचरित मानस (और उसका पाठ) ही लक्ष्य होता तो लाउडस्पीकर के होने न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु इस धर्म ग्रन्थ का पाठ उनका लक्ष्य शायद ही रहा हो। उनका लक्ष्य रहा होगा - लोग देखें-जानें-समझें कि वे रामचरित मानस का पाठ कर रहे हैं। जाहिर है कि वे आत्म सन्तोष या आत्म शोधन के लिए रामचरित मानस का आश्रय नहीं ले रहे थे। वे तो खुद को धार्मिक साबित करने के लिए रामचरित मानस का ‘उपयोग’ कर रहे थे। गोया, रामचरित मानस कोई धर्म ग्रन्थ न होकर, धार्मिकता प्रदर्शन का प्रभावी औजार हो गया।

रामचरित मानस और महाभारत, भारतीय समाज में विशिष्ट स्थान रखते हैं। महाभारत को ‘नीति शास्त्र’ का और रामचरित मानस को ‘आचरण शास्त्र’ का दर्जा मिला हुआ है। प्रभु श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा ही इसलिए गया है क्योंकि जो कुछ कर पाने कि कल्पना आप-हम नहीं कर सकते, वह सब प्रभु श्रीराम ने जीया। इस दृष्टि से रामचरित मानस हमें आदर्श आचरण की प्रेरणा देता है। किन्तु मेरे कस्बे के भक्त मण्डल ने रामचरित मानस के परामर्श को ताक पर रख दिया और लाउडस्पीकर को धर्म-पीठ पर स्थापित कर दिया। जो रामचरित मानस, मनुष्य को ‘उत्तम मनुष्य’ बनाता है, वही रामचरित मानस, मनुष्य द्वारा बनाए गए एक यान्त्रिक उपकरण के मुकाबले दोयम स्थान पर रख दिया गया। रामचरित मानस अपने आप में मनुष्य के परिष्कार का उपकरण है किन्तु मनुष्य निर्मित उपकरण के सामने मात खा गया - यह करिश्मा है धर्म के प्रति हमारी जड़ मानसिकता का। यह सब केवल इसलिए कि लोग हमें धार्मिक मानें, समझें।

रामचरित मानस पूर्णतः आचरण केन्द्रित ग्रन्थ है, उपदेश केन्द्रित नहीं। प्रदर्शन केन्द्रित तो बिलकुल ही नहीं। लेकिन इस मामले में इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को ही प्रदर्शन का औजार बना दिया गया।

कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे ही कारणों से, हमें धार्मिक होने की आवश्यकता चैबीसों घण्टे बनी रहती है जबकि हम धार्मिक दिखने की जुगत में लगे हुए हैं।
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