हताशाजनक उदासीनता


मेरे कस्बे रतलाम का माणक चौक स्कूल (वर्तमान अभिलेखीय नाम - शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-1) अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरे कर रहा है। यहाँ पढ़े लोग पूरे देश में फैले हुए हैं और अपने-अपने क्षेत्र में ‘नामचीन’ हैं। होना तो यह चाहिए था कि इस स्कूल के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर ऐसा भव्य और व्यापक समारोह मनाया जाता जिसमें पूरा कस्बा शामिल होता-विशेषतः वे तमाम जीवित लोग अपने परिवार सहित शामिल होते जो यहाँ पढ़े हैं, इस स्कूल की ऐतिहासिकता के बारे में, स्वाधीनता संग्राम में इसकी साक्ष्य के बारे में, नगर विकास में इसकी भूमिका के बारे में विस्तार से वर्तमान पीढ़ी को बताया जाता।


लेकिन इसके विपरीत जो कुछ हो रहा है वह ‘चौंकानेवाला’ से कोसों आगे बढ़कर ‘हताश करनेवाला’ है। हमारे नगर नियन्ताओं ने घोषणा कर दी है कि वे इसे ध्वस्त कर यहाँ ‘शापिंग मॉल’ बनाएँगे। उन्होंने केवल घोषणा ही नहीं की, जिला योजना समिति से तत्सम्बधित प्रस्ताव पारित करवा कर प्रदेश सरकार को भी भेज दिया है।


इस समाचार से जिन कुछ लोगों को अटपटा लगा, उनमें मैं भी शरीक रहा। किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने पाया कि अटपटा लगने वाले इन लोगों में रतलाम का मूल निवासी एक भी नहीं है - हम सबके सब वे लोग हैं जो बाहर से आकर रतलाम में बसे हैं। न तो हम लोग और न ही हमारे बच्चे इस स्कूल में पढ़े हैं। सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि बेचैन हो रहे हम लोगों का इस स्कूल से कोई लेना-देना नहीं है।


लेकिन इससे क्या अन्तर पड़ता है? जो मिट्टी मेरी कर्म स्थली है, जिसने मुझे पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दी, वह अकड़ दी कि मैं लोगों से आँखें मिलाकर बदतमीजी से बात कर लेता हूँ - उस मिट्टी के प्रति मेरी सहज नैतिक जिम्मेदारी बनती है। फिर, मेरी बात को आगे पहुँचाने के लिए मेरे पास ‘उपग्रह’ नामका अखबार भी है - भले ही उसका प्रसार और प्रभाव सीमित हो! यही सोच कर मैंने ‘पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्कूल को ध्वस्त करने को उतावला ‘बनिया शहर’ शीर्षक से एक विस्तृत समाचार ‘उपग्रह’ में दिया। बदले में जो कुछ हुआ उसने मेरी यह धारणा मिथ्या साबित कर दी कि ( 33 वर्षों से यहाँ रह रहा) मैं अपने कस्बे को जानता-पहचानता हूँ।


मुझे लगा था कि मेरे समाचार से ‘अच्छी-खासी’ भले ही न हो, ऐसी और इतनी हलचल तो होगी ही कि हमारे नेताओं और प्रशासन को अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार के लिए कम से कम बार तो सोचना ही पड़ेगा।


किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गिनती के लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की-वह भी, समाचार के लिए मुझे बधाई और धन्यवाद देने के लिए। केवल, श्री नवीन नाहर नामके एक सज्जन ने लोगों के नाम एक पत्र लिखकर उसकी कुछ फोटो प्रतियाँ कस्बे में बँटवाई हैं। किन्तु श्री नाहर को मेरे कस्बे ने कभी भी गम्भीर आदमी नहीं माना।


समाचार को छपे आज नौंवा दिन है। कस्बे में जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग समाचार के लिए मुझे धन्यवाद देकर प्रश्नवाचक नजरों से दखने लगते हैं - ‘स्कूल भवन को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?’ मैं उनसे कहता हूँ - ‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’ उत्तर मिल रहा है - ‘आप कर तो रहे हैं? आपने काम हाथ में लिया है तो पूरा हो ही जाएगा।’ देख रहा हूँ अपनी भागीदारी की बात करने से हर कोई बड़ी चतुराई से बच रहा है।


ले-दे कर एक जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) हैं जो लगभग अस्सी का आँकड़ा छूते हुए भी कह रहे हैं - ‘आप निराश मत होईए। अपने से जो बन पड़े, करेंगे।’


मुझे अकुलाहट हो रही है। क्या कोई पूरा का पूरा कस्बा, अपनी ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों के प्रति इस तरह उदासीन हो सकता है?


किसी को क्या कहूँ? अपने लिए ही कह सकता हूँ - अभागा।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

लोकतन्त्र का नया स्वरूप?

कल शाम हम चारों पहले तो हतप्रभ हुए, फिर उदास और फिर निराश। बैठे तो थे ‘वक्त कटी’ के लिए। किन्तु पता नहीं, एक दूसरे की टाँग खिंचाई करते-करते, कब और कैस हमारा ‘फुरसतिया चिन्तन’ गम्भीर अन्त पर पहुँच गया। कुछ इस तरह मानो ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ साकार हो गया।

कड़ाके की सर्दी चल रही है। पारा चार डिग्री तक लुड़क गया है। ढेर सारा काम निपटाना है किन्तु कोई काम करने का जी नहीं कर रहा। ऐसी ही मनःस्थिति में हम चारों, सड़क किनारे, मनोज के चाय ठेले पर मिल बैठे। चारों के चारों साठ पार - याने चारों के चारों ‘श्रेष्ठ आदर्श बघारु।’ कॉलेज के दिनों की अपनी-अपनी आदिम हरकतों का गर्व-गौरव बखान करते-करते हम, प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ पर आ गए। बाजना बस स्टैण्ड, लक्कड़पीठा, चाँदनी चौक, न्यू रोड़, सैलाना रोड़, कोर्ट चौराहा, छत्री पुल, बाल चिकित्सालय आदि इलाकों की शकलें बदल गईं। सड़कें अचानक ही चौड़ी हो गईं। जिन सड़कों, चौराहों से निकलने के लिए ‘पीं-पीं’ करते हुए सरकस और कसरत करनी पड़ती थी, वहाँ से अब, हार्नों के शोरगुल के बिना ही ‘सर्र’ से निकला जा सकता था। साफ-सुथरा कस्बा देख कर अब लग रहा है कि पहले यही कस्बा गितना गन्दा और विकृत बना हुआ था।

किन्तु इस सुन्दरता को उजागर करने के लिए हजारों नहीं तो सैंकड़ों लोगों को तो अपने-अपने रोजगार के लिए नई जगहें तलाश करनी पड़ेंगी। विस्थापितों ने सरकार से नई जगह माँगनी शुरु कर दी है।

अचानक ही यह तथ्य उभर कर सामने आया कि अतिक्रमण हटाने और कस्बे को सुन्दर बनाकर यातायात सुगम बनाने का यह अभियान पूरी तरह से ‘प्रशासकीय’ है। इसमें ‘शासन’ याने हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं दे रहे - न तो अभियान का समर्थन करते हुए और न ही विस्थापितों को वैकल्पिक जगहें दिलाने के लिए। जिन्हें हटाया गया उनके प्रतिवाद-प्रतिकार में भी याचना ही प्रमुख है, आक्रोश नहीं। और तो और, अतिक्रमण हटाने में प्रशासन द्वारा पक्षपात बरतने का पारम्परिक आरोप भी नहीं लगा।

हम लोग धीरे-धीरे निष्कर्ष पर पहूँच रहे थे। हमें लगने लगा कि ‘शासन’ याने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने अपनी भूमिका बिलकुल ही नहीं निभाई। उनके जरिए ‘जन अभिलाषाओं का प्रकटीकरण’ होता है किन्तु हमें लग रहा था उन्होंने ‘अपनेवालों की अभिलाषाओं’ की चिन्ता की। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को उपकृत किया और ऐसा करने में व्यापक जन हितों की अनदेखी और उन पर कुठाराघात किया। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को अतिक्रमण करने के लिए प्रोत्साहन, खुली छूट भी दी और राजनीतिक संरक्षण भी। कस्बे को विकृत-विरूप किया। व्यापक जनहितों की रक्षा करने के अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व को वे सब भूल गए। तुर्रा यह कि ये सबके सब ‘नगर का विकास’ करने की दुहाई देकर चुने गए थे।

इसके ठीक विपरीत, जो ‘प्रशासन’ मनमानी, अधिकारों के दुरुपयोग, लोगों की बातें न सुनने जैसे पारम्परिक आरोपों से घिरा रहता है उसी प्रशासन ने मानो जनभावनाएँ समझीं और तदनुरूप कार्रवाई कर सरकारी जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराया, कस्बे की सुन्दरता लौटाई और लोगों को सुगम यातायात उपलब्ध कराने की कोशिश की। उल्लेखनीय बात यह रही कि इन कोशिशों में प्रशासन ने समानता बरती। न तो किसी को छोड़ा और न ही किसी को अकारण छेड़ा। इस समानता और निष्पक्षता के कारण ही तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की बोलती बन्द रही। एक भी माई का लाल मैदान में नहीं आया।

तो क्या अब ‘जनभावनाओं का प्रकटीकरण’ हमारे अफसर करेंगे? तब, हमारे जनप्रतिनिधि क्या करेंगे? वे अनुचित, अनियमितताओं, अवैधानिकताओं को प्रोत्साहित-संरक्षित करेंगे? और, उनकी इन हरकतों से मुक्ति पाने के लिए हमें अफसरों के दरवाजे खटखटाने पड़ेंगे? उन अफसरों के, जो जनसामान्य से दूर रहने, मनमानी करने, भ्रष्टाचार कर अपनी जेबें भरने जैसी बातों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं और बदनाम हैं? तो क्या, हमारे जनप्रतिनिधियों और अफसरों ने अपनी-अपनी भूमिकाएँ बदल ली हैं?
हम चारों ही अचकचा गए। हमारी बोलती बन्द हो गई। हम एक दूसरे की ओर देख रहे थे - चुपचाप।

शायद हम चारों, एक दूसरे से पूछने से बच रहे थे - यह लोकतन्त्र का कैसा स्वरूप है?

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राजा व्यापारी (तो) प्रजा भिखारी

मेरी स्थायी शिकायत है -‘लोग नहीं बोलते। चुपचाप सब सह लेते हैं।’ लेकिन कल लगा, मुझे अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करना चाहिए। लोग भले ही न बोलते हों किन्तु ‘लोक’ बोलता है।

यह कल सुबह कोई साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे की बात है। पाँच डिग्री से भी कम तापमान में ठिठुर रहे मेरे कस्बे का बाजार मानो अभी भी रजाई में ही पड़ा हुआ था। नाम मात्र की दुकानें खुली थीं। शकर और पिण्ड खजूर लेने के लिए मैं पारस भाई पोरवाल की दुकान पर पहुँचा। दो ग्राहक पहले से ही वहाँ बैठे थे। दुकान खुली ही खुली थी। पारस भाई, मुझसे पहलेवाले ग्राहकों के सामान की सूची बना तो रहे थे किन्तु कुछ इस तरह कि ‘यार! कहाँ सुबह-सुबह चले आए?’ दुकान के कर्मचारियों के काम की गति पर भी ठण्ड का जोरदार असर था। सो, कुल मिलाकर ठण्ड के मारे हम ग्राहक और खुद पारस भाई मानो जबरिया फुरसत में आ गए थे।

‘फुरसतिया चिन्तन’ की शुरुआत ही मँहगाई से हुई। बीएसएनएल वाले नारलेजी बोले - ‘यहाँ सर्दी जान ले रही है और उधर चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है। पता नहीं, यह मँहगाई कहाँ जाकर रुकेगी?’

पारस भाई ने बात इस तरह लपकी मानो ऐसे सवाल की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। मानो मुझसे सवाल पूछ रहे हों, इस तरह, मेरी ओर देखते हुए तपाक से बोले - ‘नहीं रुकेगी। और रुकेगी भी क्यों? जिसके जिम्मे जो काम किया था, वह उस काम के सिवाय बाकी सब काम कर रहा है! ऐसे में मँहगाई क्यों रुके और कैसे रुके?’

पारस भाई प्रबुद्ध व्यापारी हैं। मैंने प्रायः ही अनुभव किया है कि बाजार की बातें करते समय वे बाजार की मूल प्रवृत्ति को प्रभावित करनेवाले तत्वों और तथ्यों पर बहुत ही सटीक टिप्पणियाँ करते हैं। उनके पास जब भी जाता हूँ, किराना सामान के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ लेकर ही लौटता हूँ। मुझसे सवाल कर मानो उन्होंने मुझे मौका दे दिया। तनिक अधिक लालची होकर मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘क्या मतलब?’

पारस भाई ने ऐसी गर्मजोशी से बोलना शुरु किया कि लुड़के पारे को भी गर्माहट आ गई। बोले - ‘मतलब यह कि जैसे अपने शरद पँवार को ही लो। उन्हें काम दिया था कि हमारी खेती-बाड़ी की और किसानों की फिकर करें। लेकिन वे लग गए दूसरे कामों में। उन्हें क्रिकेट भी खेलनी है, पास्को (यह शायद कोई विराट् औद्योगिक परियोजना है) भी चलानी है, शुगर मिलों की चेयरमेनशिप और डायरेक्टरशिप भी करनी है, अपनी बेटी और भतीजे का राजनीतिक भविष्य भी मजबूत करना है। इन सबसे उन्हें उस काम के लिए फुरसत ही नहीं मिल रही है जिसके लिए उन्हें मनमोहन सिंह ने बैठाया है। ऐसे में मँहगाई क्यों नहीं बढ़े?’

नारलेजी चूँकि बीएसएनएल से जुड़े हैं सो बात ए. राजा पर आने में पल भर भी नहीं लगा। नारलेजी और पारस भाई का निष्कर्ष था कि राजा तो बेवकूफ बन गया। उसने तो सोचा कि वह सरकार को खूब कमाई करवा रहा है लेकिन टाटा जैसे व्यापारियों ने उसे और सरकार को मूर्ख बना लिया। सरकार को और राजा को कितना क्या मिला यह तो गया भाड़ में, असल खेल तो व्यापारियों ने खेला। अकेले टाटा ने ही हजारों करोड़ रुपये कमा लिए और राजा तथा सरकार का मुँह काला हो गया और दोनों ही आज कटघरे में खड़े हैं।

प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह अब तक बचे हुए थे। लेकिन कब तक बचते? हमारा ‘लोक’ तो अच्छे-अच्छों को निपटा देता है। उसे तो मौका मिलना चाहिए! इन्दिरा गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी तक को एक-एक बार कूड़े में फेंक चुका है। सो, मनमोहन सिंह के लिए सर्वसम्मत राय आई - ‘उन्हें शासन करना था किन्तु वे धृतराष्ट्र बन गए हैं। उनकी उपस्थिति में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा है और वे अपनी ईमानदारी को बचाने की चिन्ता में चुप बैठे हैं। उन्हें चाहिए कि वे शरद पवार और दूसरे मन्त्रियों पर अंकुश लगाएँ।’

और इसके बाद पारस भाई ने जो कुछ कहा, उसने मानो हमारे ‘लोक’ के सुस्पष्ट चिन्तन और परिपक्वता का परचम फहरा दिया। बोले - ‘इन्हें राज करना था। लोगों की बेहतरी, खुशहाली की चिन्ता करनी थी। लेकिन ये तो वायदे के सौदे कराने लगे! राजा का काम है, राज करना। लेकिन ये तो व्यापार करने लगे! ऐसे में वही होगा जो अभी हो रहा है। राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी।’

मैं या नारलेजी कुछ कहते उससे पहले ही पारस भाई के कर्मचारी ने, नारलेजी का सामान बाँध देने की सूचना दी। पारस भाई, सूची से मिलान और रकम का मीजान करने लगे। कर्मचारी ने मुझसे मेरे सामान की सूची माँगी। मुझे तो दो ही चीजें लेनी थीं। जबानी ही कह दी। पारस भाई, नारलेजी का हिसाब करते उससे पहले ही मैं निपट गया था।

अपना सामान लेकर चला तो पारस भाई की कही उक्ति - ‘राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी’ भी मेरे सामान की पोटली में बँधी थी। मुझे अच्छा लगा। भरोसा हुआ। लोग भले ही नहीं बोलते किन्तु ‘लोक’ तो बोलता है। और केवल बोलता ही नहीं, मौका मिलते ही अच्छे-अच्छों को निपटा भी देता है।
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आज मेरे भरोसे मत रहिएगा

इकतीस दिसम्बर और पहली जनवरी की सेतु रात्रि के ग्यारह बजने वाले हैं। एक विवाह भोज में शामिल होने के लिए कोई साढ़े आठ बजे घर से निकला ही था कि मोबाइल में, एसएमएस दर्ज होने की ‘टन्-टन्’ होने लगी थी जो भोजन करते समय और जाते-आते रास्ते भर बजती रही। घर आकर देखा - मेसेज बॉक्स छोटा पड़ चुका था और कुछ सन्देशों के हवा में तैरते रहने की सूचना पर्दे पर टँगी हुई थी।

सन्देश पढ़-पढ़ कर ‘डीलिट’ करने लगा तो हवा में तैरते सन्देश एक के बाद एक ऐसे मोबाइल में समाने लगे मानो दिल्ली के चाँदनी चौक मेट्रो रेल्वे स्टेशन पर खड़े लोग डिब्बे में घुस रहे हों। सन्देश पढ़ने और मेसेज बॉक्स खाली करने में भरपूर समय और श्रम लग गया। सन्देश पढ़ते-पढ़ते हँसी आती रही - एक ही सन्देश सात बार पढ़ना पड़ा। भेजनेवाले ने तो ‘अनूठा’ (यूनीक) ही भेजा होगा किन्तु ‘फारवर्डिंग कृपा’ से, पानेवाले तक आते-आते वह ‘औसत’ (कॉमन) बन कर रह गया। पता ही नहीं पड़ता कि तकनीक की विशेषता कब विवश-साधारणता में बदल जाती है!

कुछ सन्देश देखकर उलझन में पड़ गया। ये उन लोगों के थे जो वेलेण्टाइन डे का विरोध करते हैं और नव सम्वत्सर पर्व पर, सूर्योदय से पहले जल स्रोतों पर पहुँचकर, सूर्य को अर्ध्य देकर नव वर्ष का स्वागत खुद करते हैं और एक दिन पहले, कस्बे में ताँगा घुमा कर, लाउडस्पीकर के जरिए लोगों से, ऐसा ही करने का आह्वान करते हैं। भारतीयता और भारतीय संस्कृति की चिन्ता में दुबले होने वाले ऐसे ही दो ‘सपूतों’ ने तो अपने-अपने ‘फार्म हाउस’ पर आज विशेष आयोजन किए हैं। इन्हीं जैसे एक अन्य संस्कृति रक्षक ने अपनी होटल में, नव वर्ष स्वागत हेतु विशेष आयोजन किया है। मैं इन तीनों आयोजनों में निमन्त्रित हूँ। किन्तु मैं नहीं गया।

मैं नहीं मनाता पहली जनवरी को नया साल। इसे नया साल मानता भी नहीं। यह मेरा निजी मामला है और मुझ तक ही सीमित है। ऐसा करने के लिए किसी से आग्रह नहीं करता। मेरे आसपास के अधिकांश लोग मेरी इस मनःस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश मुझे ‘ग्रीट’ करते हैं। मैं सस्मित उन्हें धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देता हूँ। मैं अशिष्ट नहीं होना चाहता।

जान रहा हूँ और भली प्रकार समझ भी रहा हूँ कि अब हमारे जन मानस ने, पहली जनवरी से ही नया साल शुरु होना मान लिया है और चैत्र प्रतिपदा के दिन नव-सम्वत्सर का उत्सव मनाना, यदि आत्म वंचना नहीं है तो इससे कम भी नहीं है। दोहरा जीवन तो हम सब जीते हैं। जी ही रहे हैं। जीना ही पड़ता है। मैं भी सबमें शामिल हूँ - घर में कुछ, बाहर कुछ और।

किन्तु कुछ मामलों में मैं ऐसा नहीं कर पाता। नव वर्ष प्रसंग ऐसा ही एक मामला है मेरे लिए। मैं चैत्र प्रतिपदा पर भी नव वर्ष नहीं मनाता। केवल दीपावली पर ही नव वर्ष मनाता हूँ। मेरे अन्नदाताओं (बीमाधारकों) में सभी धर्मों के लोग हैं। बीमा व्यवसाय शुरु करने के शुरुआती दिनों में मैं उन सबको, उनके नव वर्षारम्भ पर बधाई सन्देश भेजता था। साल-दो-साल तक ही यह सिलसिला चला पाया। उसके बाद बन्द कर दिया। मुझे लगा, मैं ‘धर्म’ को ‘धन्धे का औजार’ बना रहा हूँ। मेरी आत्मा ने ऐसा करने से मुझे टोका और रोक दिया। तबसे बन्द कर दिया। उसके बाद, अन्य धर्मावलम्बियों में से जिन-जिन से मेरे सम्पर्क घनिष्ठ हैं, उनके नव वर्ष पर बधाइयाँ देने के लिए उनके घर जाता हूँ। अब मैं अपने तमाम अन्नदाताओं को केवल दीपावली पर ही नव वर्ष अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र भेजता हूँ। मुझे यही उचित लगता है।

हमारे मंगल प्रसंग भी मेरे लिए ऐसे ही मामले हैं। मेरे बेटे के वाग्दान (सगाई) के समय हमारी होनेवाली बहू सहित हमारे समधीजी, सपरिवार उपस्थित थे। दोनों पक्षों की रस्म एक ही साथ पूरी की थी हम लोगों ने। किसी ने ‘मुद्रिका पहनाई’ (रिंग सेरेमनी) की बात कही। मुझे उसी समय मालूम हुआ कि दोनों के लिए अँगूठियाँ भी तैयार हैं। किन्तु मैंने इसके लिए दृढ़तापूर्वक निर्णायक रूप से मना कर दिया। ‘रिंग सेरेमनी’ हमारा न तो संस्कार है और न ही परम्परा। मुमकिन है, मेरे बेटे-बहू को (और मेरे परिजनों को भी) मेरी यह ‘हरकत’ ठीक नहीं लगी हो किन्तु इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि उस दिन उपस्थित तमाम लोग आजीवन इस बात को याद रखेंगे कि ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय संस्कार/परम्परा नहीं है।

मैं देख रहा हूँ कि हम अपना ‘काफी-कुछ’ खो जाने का रोना तो रोते हैं किन्तु यह याद नहीं रखना चाहते कि ‘वह सब’ खो जाने देने में हम खुद या तो भागीदार होते हैं या फिर उसके साक्षी। हम बड़े ‘कुशल’ लोग हैं। जब भी हमारी ‘आचरणगत दृढ़ता’ का क्षण आता है तो हम बड़ी ही सहजता से, कोई न कोई तार्किक-औचित्य तलाश लेते हैं और वह सब कर गुजरते हैं जो हमारा ‘काफी-कुछ’ हमसे छीन लेता है।

हमारे नेता ऐसे कामों में माहिर होते हैं और चूँकि हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं, इसलिए आँख मूँदकर अपने नेताओं के उन अनुचित कामों का भी अनुकरण कर लेते हैं जिनके (अनुचित कामों के) लिए हमने उन नेताओं को टोकना चाहिए। मसलन, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान। वे चैत्र प्रतिपदा के दिन ‘हिन्दू नव वर्ष’ मनाने के लिए अपनी पूरी सरकार के सरंजाम लगा देते हैं और खुद, नया साल मनाने के लिए 31 दिसम्बर को किसी प्रसिद्ध पर्यटक या धार्मिक स्थल पर पहुँच जाते हैं।

ऐसे स्खलित आचरण के लिए हम अपनी ‘उत्सव प्रियता’ का तर्क देने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यदि ऐसा ही है तो हम भारत में ही प्रचलित अन्य धर्मों के मतानुसार उनके नव वर्षारम्भ पर उत्सव क्यों नहीं मनाते? मैं जानना चाहता हूँ कि जन्म दिन पर केक काटना कब से भारतीय संस्कार और परम्परा बन गया? मुझे हैरत होती जब मैं अटलजी के जन्म दिन पर उनके समर्थकों को केक काट कर जश्न मनाते देखता हूँ।

अपने आप को ‘अपने समय में ठहरा हुआ’ करार दिए जाने का खतरा उठाते हुए मैं, पहली जनवरी को नव वर्षारम्भ मानने को भी हमारी गुलाम मानसिकता का ही प्रतीक मानता हूँ - बिलकुल, राष्ट्र मण्डल खेलों की तरह ही।

सो, पहली जनवरी को मेरा नया साल शुरु नहीं हो रहा है। इस प्रसंग पर मैं अपनी ओर से किसी को बधाइयाँ, अभिनन्दन, शुभ-कामनाएँ नहीं देता। जो मुझे यह सब देता है, शिष्टाचार निभाते हुए मैं भी उसे यह सब कहता तो हूँ लेकिन अपने स्थापित चरित्र को कायम रखते हुए साथ में व्यंग्योक्ति भी कस देता हूँ - ‘जी हाँ, हम हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों का नया साल मुबारक हो।’

इसलिए, जो भी महरबान पहली जनवरी से अपना नया साल शुरु होना मानते हों, वे मेरे भरोसे बिलकुल न रहें। वे अपना जश्न मनाने के लिए फौरन ही मेरे मुहल्ले में चले आएँ। क्योंकि यह सब लिखते-लिखते रात के बारह कब के बज चुके हैं और मेरे अड़ोस-पड़ौस के बच्चे, सड़क पर पटाखे छोड़ते हुए खुशी में चीखते हुए एक-दूसरे को ‘ग्रीट’ कर रहे हैं।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

एसएमएस में पहली जनवरी

नव वर्षारम्भ पहली जनवरी को मानूँ या नहीं, इस पर शायद कल कुछ कहूँ। लेकिन कोई पाँच दिन पहले से ही बधाइयों और शुभ-कामनाओं के एसएमस आने लगे। यह क्रम बना हुआ है। अधिकांश सन्देश बहुत ही सामान्य हैं जो बताते हैं कि फारवर्डिंग की सुविधा ने कल्पनाशीलता को जकड़ लिया है। किन्तु कुछ सन्देश मुझे अच्छे लगे।


लेकिन एसएमएस केवल पहली जनवरी को लेकर ही नहीं आ रहे। कुछ मित्र नियमित रूप से सन्देश भेजते हैं। एक दिन सबको मिला कर देखा तो लगा, आनेवाले दिनों में साहित्य की दुनिया में ‘एसएमएस साहित्य’ का नया आयाम जुड़ जाए तो आश्चर्य नहीं। सोच रहा हूँ, मुझे मिले ऐसे सन्देशों को पोस्ट के रूप में दे दिया जाए।


लेकिन ऐसा करूँगा तब करूँगा। फिलहाल तो, पहली जनवरी के सन्दर्भ में मिले कुछ सन्देश यहाँ परोसने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ।


जयपुर में रहते हैं श्री अशोक कुमार यादव (मोबाइल नम्बर 099288 69692)। पहले, भारतीय जीवन बीमा निगम में, शाखा प्रबन्धक थे। ‘निगम’ की नौकरी छोड़कर एक निजी बीमा कम्पनी में चले गए। इन दिनों आंचलिक प्रबन्धक के पद पर हैं। ‘निगम’ में बने रहते तो निश्चय ही इस पद पर अभी तो नहीं ही पहुँचते। वे मुझे नियमित और निरन्तर सन्देश भेजते हैं। परिहास प्रिय हैं और गम्भीर बात को भी हलके-फुलके अन्दाज में कहना उनकी अपनी शैली है।


27 दिसम्बर को यादवजी का सन्देश मिला - ‘2010 खत्म होने में 5 दिन बाकी हैं। अगर कोई गलती, गुस्ताखी, खता हो गई हो तोे माफी माँग लेना। मैं आज अच्छे मूड में हूँ।’


इस सन्देश के असर से उबरा भी नहीं था कि 28 दिसम्बर को सन्देश आया - ‘तमाम सबूतों और गवाहों को मद्देनजर रखते हुए आपको धारा 1/1/2011 के तहत 3 दिन पहले ‘हेप्पी न्यू ईयर’ कहते हुए जिन्दगी भर खुश रहने की सजा दी जाती है।’


दो दिन के मौन के बाद 30 दिसम्‍बर की रात यादवजी का सन्देश आया -

‘पहली जनवरी के लिए नोट करें -
हम उठ गए हैं।
जिसको गुड मार्निंग करना है, करो।
धक्का-मुक्की मत करना।
लाइन से विश करना।
हमारे दर्शन बारह बजे तक होंगे,
फिर तो
गुड आफ्टरनून वालों की भीड़ लगेगी।’


भारतीय जीवन बीमा निगम की मेरी शाखा में सहायक के पद पर कार्यरत प्रेम नारायण वासेन (मोबाइल नम्बर 098273 26221) भी यदा-कदा सन्देश भेजता रहता है। यह प्रेमी अपना नाम कभी नहीं लिखता। इसने बहुत ही प्रेमल सन्देश भेजा - ‘हे! ईश्वर, जो इस एसएमएस को पढ़ रहा है उसे दुनिया की हर खुशी देना क्योंकि कुछ लोग हमेशा खुश अच्छे लगते हैं।’


त्यौहारों के दिनों में मोबाइल कम्पनियाँ एसएमस के शुल्क में मनमानी बढ़ोतरी कर देती हैं। एसएमएस के व्यसनी और दास बन चुके लोगों को यह बढ़ोतरी बिलकुल ही अच्छी नहीं लगती। नहीं जानता कि साहिल कुक्कड़ (मोबाइल नम्बर 098109 28505), एसएमस का व्यसनी है या नहीं किन्तु उसका यह सन्देश, मोबाइल कम्पनियों की इस मनमानी के प्रति लोगों की चिढ़ बखूबी बयान करता है -

‘आपको और आपके परिवार को अभी से नए वर्ष की बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ। क्योंकि, 31 और 1 तारीख को दुनिया की 6 याचक कम्पनियाँ टाटा, रिलायन्स, एयरटेल, बीएसएनएल, वोडाफोन, आइडिया अपनी-अपनी असलियत पर आ जाएँगी।’


लेकिन सबसे अच्छा सन्देश मुझे मिला डॉक्टर जयन्त सुभेदार साहब (मोबाइल नम्बर 094251 03822) से। आत्मा को निर्मल कर देनेवाला यह सन्देश सबसे अन्त में जानबूझकर दे रहा हूँ ताकि यह याद में बना रहे -

इस वर्ष के इस अन्तिम दिन -


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मुझसे नफरत की।
उन्होंने मेरा आत्म बल बढ़ाया।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मुझे प्यार किया।
उन्होंने मेरा हृदय विशाल किया।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मेरी चिन्ता की।
उन्होंने मुझे अनुभव कराया कि वे वास्तव में मेरा ध्यान रखते हैं।


‘धन्यवाद उन्हें, जिन्होंने मेरा साथ छोड़ा।
उन्होंने मुझे अहसास कराया कि हमेशा के लिए कुछ भी खत्म नहीं होता।


‘धन्यवाद उन्हें, जो मेरी जिन्दगी में आए।
उन्होंने मुझे वैसा बनाया जैसा कि मैं आज हूँ।


‘मेरी जिन्दगी में कहीं न कहीं बने रहने के लिए आप सबको धन्यवाद।’

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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दो धर्म: दो आयोजन: दो अनुभव


कोई धर्म अपने अनुयायियों के आचरण से कैसे पहचाना जाता है, इसके दो अनुभव मुझे अभी-अभी एक साथ, मेरे मुहल्ले में ही हुए। दोनों ही अनुभव इतने सुस्पष्ट है कि वे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं रहने देते।


मेरे मकान से मात्र तीस कदम दूर मकान है सरदार श्री अमरसिंहजी अरोड़ा का। उन्होंने अपने घर पर, श्री गुरु ग्रन्थ साहब का, तीन दिवसीय अखण्ड पाठ करवाया। उनके परिवार ने पूरे मुहल्ले में व्यक्तिशः घर-घर जाकर, इस पाठ में शामिल होने का न्यौता दिया। आग्रह किया कि तीन दिनों में कभी भी, कम से कम एक बार आने की कोशिश करें और पाठ समाप्ति पर अवश्य आएँ तथा समापनोपरान्त ‘गुरु का लंगर‘ जरूर ‘छकें।’


अखण्ड पाठ अरोड़ाजी के मकान में, बरामदे के ठीक बादवाले कमरे में (ड्राइंग रूम में) हुआ। लाउडस्पीकर लगाया गया। दो ‘बॉक्स स्पीकर’ बरामदे में, मकान की बाउण्ड्री वाल के अन्दर, दीवार की ऊँचाई से तनिक अधिक ऊँचाई पर लगाए गए। अब तक भुगते हुए धार्मिक आयोजनों के अनुभवों के आधार पर मैंने अनुमान लगाया कि इन तीन दिनों तक मुझे अपने घर के दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखने के बाद भी भारी शोर-गुल सहना पड़ेगा। लेकिन आश्चर्य! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।


पाठ के लिए आए ग्रन्थीजी की आवाज तो सुनाई देती रही किन्तु उनके उच्चारण को समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं। ग्रन्थीजी की आवाज इतनी धीमी और बिना किसी आरोह-अवरोह के ऐसी सधी हुई थी मानो कोई शिष्य, अपने गुरु के सामने बैठकर, ‘होम वर्क’ के लिए दिया गया अपना पाठ पढ़कर सुना रहा हो। हिन्दी साहित्य में जिस ‘शान्त रस’ का उल्लेख आता है, उसकी जोरदार मिसाल था यह पाठ।


पाठ समाप्ति वाले दिन, निर्धारित समय पर पूरा मोहल्ला अरोड़ाजी के आँगन में हाजिर था। अपने-अपने जूते-चप्पल, घर के बाहर ही खोलने का लिखित अनुरोध बाउण्ड्री वाल के जंगले पर लटका दिया गया था। हम सबने इस अनुरोध का पालन किया। पाठ की समाप्ति पर हुई आरती और अरदास की आवाज, लाउडस्पीकर लगा होने के बाद भी, बाहर सड़क तक नहीं आ पाई। पाठ समाप्ति के बाद, ‘गुरु का लंगर’ अरोड़ाजी के मकान में ही शुरु हुआ। अन्य सेवकों और उनके पूरे परिवार को मिला कर कोई तीस लोग छोले-भटूरे और गुलाब जामुन परोस रहे थे। किसी भी अतिथि को, कोई भी सामान ठण्डा नहीं मिला और न ही सामान की प्रतीक्षा में किसी को अपना हाथ रोकना पड़ा। दो मंजिला मकान की छत पर रसोई बन रही थी। ड्राइंग रूम से छत तक की, दो मंजिला सीढ़ियों पर अरोड़ाजी के परिजन और सेवक खड़े थे और कढ़ाई से निकल रहे गरम-गरम भटूरे और गुलाब जामुन पहुँचा रहे थे।


हम सबने, जी भर कर लंगर ‘छका’ और अरोड़ाजी को ‘लख-लख बधाइयाँ’ और धन्यवाद देकर बाहर आए तो देखा कि हम सबके जूते-चप्पल, करीने से जम हुए थे। अरोड़ाजी का पूरा परिवार तो आमन्त्रितों की सेवा में लगा था। मालूम हुआ कि सिख समाज के आगन्तुक अतिथियों और उनके बच्चों ने यह ‘सेवा’ की थी। अरोड़ाजी के मकान के मुख्य द्वार के दोनों ओर, करीने से जमाए गए जूते-चप्पलों के चित्र सारी कहानी खुद ही कह रहे हैं।


दूसरा आयोजन था - श्रीमद् भागवत कथा का वाचन। यह आयोजन भी मेरे मुहल्ले में ही, मेरे मकान से लगभग ढाई सौ कदम दूर (याने अरोड़ाजी के मकान की दूरी से, लगभग सात गुना अधिक दूरी पर) था। अरोड़ाजीवाले आयोजन से दो दिन पहले यह आयोजन शुरु हुआ और दो दिन बाद तक चलता रहा। याने, पूरे एक सप्ताह का आयोजन रहा। इसका समय था - दोपहर एक बजे से चार बजे तक। इस आयोजन के लिए सड़क बन्द कर, पाण्डाल खड़ा किया गया। पूरे सात दिन रास्ता बन्द रहा। लाउडस्पीकर यहाँ भी लगे। फर्क इतना ही रहा कि तीस कदम दूर, अरोड़ाजी के मकान पर लगे लाउडस्पीकर की आवाज सुनने-समझने के लिए मुझे अपने मकान के दरवाजे-खिड़कियाँ खुली रखनी पड़ीं जबकि ढाई सौ कदम दूर चल रहे भागवत पाठ को सुनने-समझने के लिए मुझे दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रखनी पड़ीं। सातों ही दिन लाउडस्पीकर ‘फुल वॉल्यूम’ पर रहा - कर्कश और कर्ण-कटु आवाज में चिंघाड़ते हुए। पण्डितजी इस तरह कथा बाँच रहे थे मानो किसी से झगड़ा कर रहे हों और वह भी इस तरह कि सामनेवाले को बोलने का मौका न मिले। पाण्डाल यद्यपि दिखाई देता था किन्तु चूँकि चारों ओर से बन्द था, इसलिए मुझे सातों ही दिन, प्रति-पल लगता रहा कि पाण्डाल खाली है और कथा वाचक पण्डितजी, अपनी पूरी ताकत से इसलिए बोल रहे हैं ताकि घरों में बैठे लोगों को कथा-श्रवण का पुण्य लाभ करा सकें।


चार घण्टों का यह दैनिक सत्र ‘गीत-संगीत मय’ रहा जिसमें फिल्मी धुनों पर भजन गाए गए। मुझे धुन तो समझ में आती रही लेकिन चिंघाड़ते स्वरों के कारण भजनों के शब्द समझ नहीं पड़े। लिहाजा, मैं फिल्मी गीतों का ही आनन्द लेने को विवश रहा। वैसे भी, इस आयोजन में गीत-संगीत प्रमुख रहा और भागवत कथा मानो, गीत-संगीत की प्रस्तुति का प्रयोजन रही। भागवत कथा समापन वाले दिन फिल्मी धुनोंवाले भजन देर तक बजते रहे और (जैसाकि अगले दिन अखबारों से मालूम हुआ) महिलाएँ भजनों पर ‘जम कर’ नाचीं।


दोनों आयोजनों का मेरा अनुभव मुझे चकित कर रहा है। अरोड़ाजी के घर में आयोजित अखण्ड पाठ के दौरान हम मुहल्ले के लोग अपने-अपने घरों में और घरों के बाहर भी आराम से बातें करते रहे जबकि हमारे मकानों से भरपूर दूरी पर आयोजित भागवत पाठ ने हम लोगों को, मुहल्ले में, बाहर सड़कों पर तो दूर रहा, घरों में भी सहजता से बातें नहीं करने दीं।


मुझे नहीं लगता कि इसके बाद भी कुछ कहने-सुनने को रह जाता है।
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इसलिए ‘इन्हें’ नींद नहीं आती

‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’ कह कर गालिब ने शायद स्थिति का सामान्यीकरण कर दिया। लेकिन हमारा ‘लोक मनीषी’ ऐसा नहीं करता। उसने तो पीढ़ियों के अनुभवों के निचोड़ से विशेषज्ञता प्राप्त की है। इसीलिए वह, अनिद्रा से त्रस्‍त लोगों का, अधिकारपूर्वक वर्गीकरण करते हुए सुस्पष्ट कारण बता देता है।

यह सब बताया था मेरे दा' साहब माणक भाई अग्रवाल ने। उन्होंने एक मालवी कहावत भी सुनाई थी जिसे मैंने उत्साहपूर्वक तत्काल ही लिख लिया था लेकिन अपनी असावधानी के चलते, उससे अधिक उत्साहपूर्वक गुमा भी दिया था।

इस बार इन्दौर यात्रा में सबसे पहले दा’ साहब से ही मिला और उसी कहावत की फरमाइश की। उन्होंने तनिक खिन्नता से मुझे देखा और पूछा - ‘पहले लिखी थी तो तूने?’ मैंने कहा - ‘हाँ। लेकिन गुमा दी।’ वे सस्मित बोले - ‘तुझे जरूर गहरी और भरपूर नींद आती होगी।’

दा’ साहब की बताई मालवी कहावत यह है -

‘‘नींद नी आवे नौ जणा।
कणाँ-कणाँ?
गोयरे खेत, मार में चणा।
थोड़ी पूँजी, वणज घणा।
मोटी बेटी, करज घणा।
रोगी, जोगी, धन घणा।’’

मालवी शब्दों के अर्थ जानने के चक्कर में न पड़ते हुए, इस कहावत का अर्थ इस प्रकार है -

इन नौ लोगों को नींद नहीं आती -

- जिसका खेत, गाँव (बस्ती) से सटा हुआ हो।
- जिसके खेत में चने की फसल खड़ी हो।
- जो कम पूँजी से व्यापार कर रहा हो।
- जिसने अपने व्यापार का विस्तार, अपनी क्षमता से अधिक कर लिया हो।
- जिसके घर में अनब्याही जवान बेटी हो।
- जिसके सर पर कर्ज हो।
- रोगी।
- भोगी।
- अत्यधिक धनी/सम्पन्न।

‘लोक मनीषी’ ने जिस सहजता और सुस्पष्टता से यह वर्गीकरण किया है, उसके बाद यह कहावत विस्तृत व्याख्या की माँग नहीं करती।

इस मालवी कहावत में अनिद्रा के केवल कारण ही नहीं बताए गए हैं। बड़ी चतुराई से इन कारणों में ही इस रोग के निदान भी बता दिए गए हैं। कहना न होगा कि ये निदान ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाली हमारी हमारी मूल भारतीय अवधारणा को ही पुष्ट करते हैं।

हमारा ‘लोक’ तो हमें सदैव और निरन्तर ही, समझाता और सतर्क करता रहता है। ये तो हम ही हैं जो उससे आँख से आँख मिलाकर, मुस्कुराते हुए, उसकी बातें, अनसुनी, अनदेखी कर अपनी समझ पर इतराते हैं और बाद में दुःख पाते हैं।

इस लोक मनीषी को प्रणाम।
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मेरा ‘बच्चा साधु’

यह तन्मय है। मेरे मझले साले का छोटा बेटा। हम सब इसे तन्ना कहते हैं लेकिन घर में कोई नहीं जानता कि मैं अकेले में इसे ‘बच्चा साधु’ कहता हूँ।

गए छह दिनों में कुछ नहीं लिखा। तीन दिन तो आलस्य के नाम रहे और तीन दिन इस मेरे ‘बच्चा साधु’ के नाम।

यह जब घर में होता है तो घर से बाहर निकलने का या कुछ करने का मन नहीं होता। घर में इसके होने का मुझ पर जो असर होता है उसे व्यक्त कर पाना मेरे लिए बिलकुल ही मुमकिन नहीं। मैं खुद ही आज तक नहीं समझ पाया तो भला बताऊँ कैसे?

मेरा यह ‘बच्चा साधु’ और बच्चों से एकदम हटकर। इतना हटकर कि कभी-कभी डर जाता हूँ - यह बीमार तो नहीं? लेकिन शुक्र है भगवान का कि ऐसा बिलकुल ही नहीं है।

मेरा यह ‘बच्चा साधु’ जल्दी ही ग्यारह बरस का हो जाएगा। इन वर्षों में यह जब-जब भी मेरे घर आया है, मैंने इसे एक बार भी रोते नहीं देखा-सुना। इसने कभी भी घर में धमा-चौकड़ी नहीं मचाई। एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि हम सबसे कहे बिना, चुपचाप घर से बाहर निकला हो। खाने-पीने की किसी भी चीज के लिए जिद नहीं की। इसके माता-पिता को एक बार भी शिकायत करते नहीं सुना कि तन्ना कहना नहीं मानता। घर में होता है तो या तो कार्टून चेनल देखता रहता है या चुपचाप अपने में खोया बैठा रहता है। अपनी ओर से कभी कोई बात, कोई पूछताछ नहीं करता। पूछो तो जवाब दे देता है वर्ना मौनी बाबा बना रहता है। आसपास का कोई बच्चा आकर इसे खेलने के लिए बाहर बुलाता है तो यह अपनी माँ की ओर देखता है। माँ कहती है - ‘जा। जल्दी वापस आ जाना।’ और हर बार मैंने देखा, यह सचमुच में बहुत जल्दी वापस आ जाता है।

घर में इसके होने का अहसास, आम बच्चों के होनेवाले अहसास से एकदम अलग होता है। इसकी नीरव उपस्थिति घर में किलकारियाँ मारती हैं। मानो, इसकी साँसों की धक-धक मेरे घर की धड़कन बन जाती है। यह नजर नहीं आता किन्तु इसके होने का अहसास बराबर बना रहता है - बिलकुल शकर में घुले बताशे की तरह। मैं बिना देखे बता सकता हूँ कि यह घर के किस कमरे में बैठा होगा और क्या कर रहा होगा। तन्ना की यह विचित्र उपस्थिति ही मुझे घर में बाँधे रखती है।

मेरे घर यह हर मौसम और लगभग हर वार-त्यौहार के दिनों में आया है। मेले-ठेलों वाले मौसम में भी। अपने माता-पिता और बुआ के साथ यह जब-जब भी किसी मेले में गया तो मुझे लगता था कि मेले में यह किसी खिलौने के लिए या खाने-पीने की किसी चीज के लिए जिद करेगा। लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं हुआ। जो खिलौना दिला दिया, चुपचाप ले लिया। खाने की किसी चीज के लिए पूछा तो या तो हाँ कर दी या इंकार। मेरा कस्बा, ‘खाउओं का कस्बा’ है। यहाँ के नमकीन व्यंजनों और सर्दी के मौसम में गराड़ू (एक जमींकन्द) - जलेबी की महक सारे कस्बे पर तब भी तैरती रहती है जब लोग रजाइयों में दुबके होते हैं। मैं पूछता हूँ - ‘तन्ना! गराड़ू खाएगा?’ निर्विकार, ठण्डे स्वरों में तन्ना कहता है - ‘खा लूँगा।’ मैं पूछता हूँ - ‘और जलेबी?’ उसी निरपेक्ष भाव-मुद्रा में तन्ना कहता है - ‘वह भी खा लूँगा।’ उसकी परीक्षा लेने के लिए पूछता हूँ - ‘कभी जलेबी-गराड़ू नहीं मिले तो?’ तन्ना के स्वरों में और मुख-मुद्रा में रंच मात्र भी अन्तर नहीं आता। जवाब आता है - ‘तो नहीं खाऊँगा।’ मेरा मजा किरकिरा हो जाता है। मैं मन नही मन झुंझला जाता हूँ - ‘कैसा बच्चा है यह? न तो जिद करता है, न चिढ़ता है। न तो खुश होता है और न ही दुखी।’ इसका यह असामान्य व्यवहार मुझे बरबस ही ‘सदा दीवाली सन्त की, बारहों मास बसन्त’ वाली उक्ति याद दिला देता है और शायद इसीलिए मैं इसे ‘बच्चा साधु’ कह बैठता हूँ।

24 की अपराह्न, अपनी माँ (मेरी सलहज) के साथ तन्ना आया था। तीन दिनों की छुट्टियाँ जो थीं! मैंने जिद की तो इसके पिता, (मेरे मझले साले साहब) भी परसों अपराह्न पहुँच गए थे। आज दोपहर ये तीनों अपने घर लौट रहे हैं। मुझ पर उदासी छा रही है।

लेकिन ऐसा न तो पहली बार हो रहा है और न ही आखिरी बार। तन्ना जाएगा नही तो लौटेगा कैसे? तन्ना के लौटने की यही सम्भावना मेरी उदासी को परे धकेल रही है।
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ब्लॉगवाणी: मेरा अभाग्य है यह शोकान्तिका

माननीय मित्रों,
मेरे तकनीकी अज्ञान के कारण आपको तनिक अधिक पढ़ना पड़ेगा। सम्भवतः वह सब भी, जो आप पढ़ चुके हैं - मुझे पर्मालिंक देना जो नहीं आता।
20 दिसम्बर की रात को मुझे माननीया निर्मलाजी कपिला का यह सन्देश मिला -
आदरणीय बैरागीजी, नमस्कार। आपसे सविनय एक अनुरोध है कि आप ब्लागवाणी के संचालन के लिये मैथिलीजी और सिरिल जी से बात करें। अच्छे लोग क्षमादान में आस्था रखते हैं। अगर इतनी संख्या मे लोगों ने उन्हें स्नेह दिया है तो मात्र कुछ लोगों के बुराई करने से वो सब को सजा नही दे सकते। हम जैसे, तकनीक से अनजान कितने लोगों को उन्होंने आगे बढने का अवसर दिया है। आज सब माँग कर रहे हैं कि ब्लागवाणी फिर से वापिस आये तो ये उनका बडप्पन होगा कि इस माँग को मान लें। ये हिन्दी के और साहित्य के भाविष्य के लिये उनका उपकार होगा। मुझे आशा है मैथिली जी सुहृदय व्यक्ति हैं आपकी बात जरूर मानेंगे। आप जोर दे कर सब की तरफ से कहें। मुझे सतीश जी का भी मेल आया था कि आपसे विनती करूँ। अगर आप इसके लिये और लोगों की मेल चाहते हैं तो वो भी ली जा सकती है। आपका ब्लागजगत पर उपकार होगा। धन्यवाद। शुभकामनायें।

उसी रात मैंने उत्तर दिया -
माननीया निर्मलाजी,
सविनय सादर नमस्‍कार,
यह सचमुच में 'ब्‍लॉग' का चमत्‍कार ही है कि आपने मुझे ऐसा सन्‍देश भेजा। ब्‍लॉग की दुनिया में अभी मेरी उम्र ही क्‍या है? मई 2007 में मेरा जन्‍म हुआ है इस दुनिया में और आपने मुझे इतने बडे काम लायक समझा!
ब्‍लॉगवाणी के बन्‍द होने का कारण बना विवाद तो कोसों दूर की बात रही, ब्‍लॉगवाणी के बारे में ही मुझे कुछ पता नहीं है। बस, इतना ही जानता रहा हूँ कि ब्‍लॉगवाणी ने मुझे असंख्‍य लोगों तक पहुँचाया। और यह भी कि ब्‍लॉगवाणी हम सबकी सॉंस की तरह रही है।
मुझे नहीं पता कि मैं आपके विश्‍वास पर कितना खरा उतर पाऊँगा। उतर पाऊँगा भी या नहीं? मैं प्रयत्‍नवादी आदमी हूँ। सो, आपके चाहे अनुसार मैं प्रयत्‍न अवश्‍य करूँगा। मेरा नियन्‍त्रण केवल प्रयत्‍नों पर है। परिणाम पर नहीं। आप ईश्‍वर से प्रार्थना कीजिएगा कि आपकी और आप जैसे तमाम कृपालुओं की मनोकामना पूरी होने का निमित्‍त मैं बन सकँ।
मैं कल सवेरे ही मैथिलीजी से बात करूँगा और आपको बताऊँगा।
ईश्‍वर हम सबकी इच्‍छा पूरी करें।
आपने मुझे इतना अच्‍छा काम बताया, इसके लिए मैं अपने अन्‍तर्मन से आपका आभारी हूँ।
विनम्र,
विष्‍णु
21 की सुबह पौने आठ और आठ बजे के बीच मैंने मैथिलीजी को फोन किया। नो रिप्लाय हुआ।
दोपहर लगभग दो बजे फिर फोन लगाया। उधर से ‘हैलो‘ कहने के साथ ही आवाज आई - ‘मैं सिरिल बोल रहा हूँ।’ मैंने अपना परिचय देना चाहा तो उन्होंने रोक दिया। बोले कि वे मुझे नाम से और मेरे ब्लॉग से जानते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि निर्मलाजी का और मेरा सन्देश आदान-प्रदान ही नहीं, मेरे सन्देश पर सतीशजी की शुभेच्छा का प्रकटीकरण भी वे देख चुके हैं और इन तीनों सन्देशों पर अपना जवाब भी भेज चुके हैं।
मैं फौरन ही मुद्दे पर आ गया। कुल जमा आठ मिनिट और चार सेकेण्ड हुई हमारी बातों को विस्तार में देने का कोई अर्थ नहीं होगा। सिरिलजी ने जो कुछ कहा वह कुछ इस प्रकार है -
- उन्होंने (पिता-पुत्र ने) किसी की बात से खिन्न या दुखी होकर, प्रतिक्रियास्वरूप, ब्लागवाणी का अद्यतनीकरण (अपग्रेडेशन) बन्द नहीं किया है। क्योंकि कहना-सुनना तो चलता रहता है। यह सहज, स्वाभाविक है। ऐसे कहने-सुनने का क्या नोटिस लेना? इस सब पर पर क्या नाराज होना?
- जो तकनीक वे प्रयुक्त करते रहे हैं, उसकी सीमा और क्षमता चुक गई है।
- उनकी व्यस्तताओं में वृद्धि हो गई है। फलस्वरूप वे चाहकर भी अब ब्लॉगवाणी को समय नहीं दे सकेंगे।
- ब्लॉगवाणी का अद्यतनीकरण बन्द करने के पीछे कोई कारण नहीं तलाशे जाने चाहिए। यदि इसे निरन्तर कर पाना मुमकिन होता तो वे पूर्ववत्, प्रसन्नतापूर्वक यह करते रहते।- ब्लॉगवाणी के (अद्यतनीकरण के) बन्द होने के जो-जो कारण बताए, बनाए, कल्पना किए जा रहे हैं, उससे दोनों, पिता-पुत्र दुखी, असहज और कुछ सीमा तक अपरोध-बोध से ग्रस्त हो रहे हैं क्यों कि, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, ऐसा कुछ भी नहीं है। जिन अज्ञात, अनजान लोगों पर दोषारोपण किया जा रहा है, वह अत्याचार है।
- ब्लॉगवाणी (का अद्यतनीकरण) शुरु किए जाने के आग्रह उन्हें व्यथित कर रहे हैं, पीड़ा पहुँचा रहे हैं और उनके अपराध-बोध को गहरा कर रहे हैं।
- यह अध्याय निर्णायक रूप से बन्द किया जाए।
मैं बीमा एजेण्ट हूँ और आसानी से सामनेवाले को नहीं छोड़ता हूँ। ‘प्रयत्नवादी’ होने की अपनी पहचान के चलते, अन्तिम क्षण तक कोशिश करता हूँ, हर दाँव-पेंच वापरता हूँ, वास्तविकता की टोह लेने में कोई कसर नहीं छोड़ता हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि सिरिलजी के साथ भी मैंने यह सब किया और यह भी स्वीकार करता हूँ कि ऐसा करते हुए मैं सिरिलजी के साथ क्रूरता बरतता रहा। सिरिलजी मुझे क्षमा करें। ‘बहुजन हिताय’ की व्यापक शुभेच्छा के अधीन, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से मैंने यह अत्याचार किया है।
बात हममें से किसी को भी अच्छी नहीं लगेगी किन्तु सच का सामना करने का साहस हमें जुटाना ही चाहिए। इसीलिए, अपने अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि ब्लॉगवाणी के अद्यतनीकरण की आशा-अपेक्षा हम लोगों ने छोड़ देनी चाहिए। सिरिलजी के स्वरों में जितनी विनम्रता थी, उससे कई गुना अधिक दृढ़ता थी। मैंने कहा - ‘ब्लॉगवाणी के इस स्थगन को मैं अस्थायी या अल्पविराम मान रहा हूँ, पूर्ण विराम नहीं।’ सिरिलजी ने तत्क्षण उत्तर दिया - ‘यह सब आपकी ओर से है। मैं तो अपनी ओर से तथा पिताजी की ओर से अपनी बात कह चुका।’ मैंने फिर कहा - ‘यदि एक प्रतिशत भी सम्भावना हो तो कृपया शत-प्रतिशत पुनर्विचार करें।’ उन्होंने कहा - ‘मैंने अपना उत्तर शत-प्रतिशत ही दिया है और आप मुझे इस प्रकार संकोच में न डालें। मुझे मानसिक स्तर पर अत्यधिक असुविधा हो रही है।’
रात को अपना लेपटॉप खोला तो निर्मलाजी के और मेरे सन्देशों पर सतीशजी का, 21 दिसम्बर की सुबह आया, शुभेच्छापूर्ण सन्देश और हम तीनों के सन्देशों के उत्तर में सिरिलजी का सन्देश देखा/पढ़ा। सतीशजी का सन्देश तो आप सबने पढ़ा ही होगा। सिरिलजी का सन्देश यहाँ प्रस्तुत है -

नमस्कार,

मुझे लगता है कि सबको ऐसा महसूस हो रहा है कि ब्लागवाणी को बंद करने का कारण यह है कि किसी कुछ कहा.

ऐसा नहीं है... ब्लागवाणी न जारी रखने का कारण कोई विवाद नहीं है बल्कि निजी समस्यायें हैं. अगर हमारे लिये संभव होता इसको जारी रखना तो जरूर हम ऐसा करते. लेकिन इस समय यह संभव नहीं है.

आप लोगों के पत्र पढ़कर शर्मिंदगी होती है कि हम आपकी अपेक्षाओं पर पूरे नहीं उतर सके. इस असफलता के लिये कृपया हमें क्षमा करिये. हमारी क्षमतायें इस विशाल ब्लागजगत को नहीं समेट सकीं. इसके लिये बेहतर उपक्रम की आव्यशकता है.

सब दोस्तों से गुजारिश है कि कृपया इस मुद्दे को विराम दें क्योंकि इस पर जारी संवाद बार-बार असुविधाजनक एहसास कराता है.

आपके सहयोग के लिये ह्रदय से धन्यवाद.

आपका दोस्त
सिरिल

सो, मित्रों! मैं सखेद सूचित कर रहा हूँ कि मैं आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया। असफल रहा। किन्तु विश्वास कीजिएगा, अपनी ओर से मैंने कोई कसर नहीं रखी। अमानवीयता तक बरत गया।

यह मेरा अभाग्य ही है कि ब्लॉगवाणी का यह ‘शोकान्तिका-पाठ’ मेरे हिस्से में आया।
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आना समझ में, बरसों बाद कोई बात

कभी-कभी कुछ बातें काफी देर से समझ पड़ती हैं। तब समझ पड़ता है कि बरसों से उन्हें बिना समझे ही कहते, सुनते और पढ़ते रहे हैं। तब पहले तो खुद पर झेंप आती है और उससे लगी-लगी, सहोदरा की तरह आती है हँसी। अपने आप पर। अपनी नासमझी पर। चार दिन पहले मैं इसी दशा को प्राप्त हुआ था और अब तक उसी दशा में बना हुआ हूँ।
बात है सत्रह दिसम्बर की। मोक्षदा एकादशी, गीता जयन्ती की। मैं इन्दौर में नितिन भाई के यहाँ बैठा हुआ था। उनकी माताजी भी मौजूद थीं। नितिन भाई अपनी भार्या पूर्णिमा को एक धार्मिक पुस्तक केन्द्र का पता बताते हुए, वहाँ के लिए तैयार होने को कह रहे थे। मालूम हुआ कि नितिन भाई गए कुछ बरसों से प्रति वर्ष गीता जयन्ती पर, श्रीमद् भागवत गीता की एक सौ प्रतियाँ अपने परिचितों/मित्रों को भंेट करते चले आ रहे हैं। इन प्रतियों की खरीदी वे गीता जयन्ती पर ही करते हैं। उस दिन भी इसी काम के लिए जा रहे थे।
मैंने सहज भाव से पूछा - ‘नितिन भाई! कभी आपने जानने की कोशिश की है कि जिन्हें आप ये प्रतियाँ भेंट करते हैं, वे इनका क्या करते हैं?’ नितिन भाई के बोलने से पहले ही उनकी माताजी ने निर्विकार भाव से कहा - ‘क्या करते होंगे? किताबों के ढेर में रख देते होंगे और बहुत हुआ तो पूजा में रख देते होंगे।’
नितिन भाई कुछ बोलते उससे पहले ही मैंने दूसरा सवाल उछाला - ‘कभी आपने किसी से पूछा भी है उन्होंने या उनमें से किसी ने इसे पढ़ा भी है या नहीं?’ लेकिन मेरा यह सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि मैं खुद ही असहज हो गया। यह सवाल मैंने नितिन भाई से नहीं, अपने आप से ही पूछ लिया था!
ग्ए साल भर से मैं बच्चों, किशोरों और नव दम्पतियों को गाँधी आत्म कथा की प्रतियाँ भेंट कर रहा हूँ। सीधे नवजीवन प्रेस से इस पुस्तक की एकुमश्त प्रतियाँ मँगवा ली थीं। कोई स्कूली प्रतियोगिता हो, जन्म दिन हो या विवाह प्रसंग पर आयोजित स्वागत/भोज समारोह - व्यवहार के लेन-देन के साथ, इस पुस्तक की एक प्रति भी भेंट करता चला आ रहा हूँ।
जैसे-जैसे गाँधी को पढ़ता जा रहा हूँ वैसे-वैसे मेरा यह विश्वास प्रगाढ़ होता जा रहा है कि गाँधी के रास्ते पर चलकर ही हम अपनी मुश्किलों से पार पा सकते हैं। इसी मनःस्थिति के चलते, गाँधी विचार को अधिकाधिक प्रसारित करने की मंशा से मैं यह काम कर रहा हूँ और पुस्तक भेंट कर हर बार खुश होता रहा हूँ।
किन्तु नितिन भाई से किया सवाल, उनके जवाब देने से पहले ही ‘बूमरेंग’ बनकर मुझ पर वार कर गया। मैंने भी तो कभी कोशिश नहीं की यह जानने की कि जिन-जिन को मैंने गाँधी आत्म कथा की प्रति भेंट की है उनमें से कितनों ने उसे पढ़ा है? पढ़ा भी है या नही?
नितिन भाई की माताजी की बात मुझे गाँधी आत्म कथा पर भी लागू होती अनुभव हुई। श्रीमद् भागवत गीता हमारा पवित्र और पूज्य ग्रन्थ है। किन्तु हम सब उसे लाल कपड़े में बाँध कर रखते हैं। परिहास से आगे बढ़ कर मैं व्यंग्योक्ति कसता रहता हूँ - ‘‘हम ‘गीता को’ मानते हैं। ‘गीता की’ नहीं मानते।’’ और यह भी कि - ‘‘हम उसे कस कर कपड़े में इसलिए बाँध कर रखते हैं ताकि उसके उपदेश/निर्देश पालन करने के झंझट से बचे रह सकें।’’
गाँधी आत्म कथा बेशक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है किन्तु उसकी स्थिति कमोबेश ऐसी ही बन गई है। हममें से कोई भी उपदेश सुनना पसन्द नहीं करता और ये दोनों पुस्तकें तो आदमी को उपदेश ही उपदेश देती हैं! उपदेश देने के लिए मैं हरदम तैयार रहता हूँ किन्तु उपदेश सुनने के लिए मुझे फुरसत कहाँ?
मेरी आदर्शवादी भावना धड़ाम् से औंधे मुँह पड़ी हुई है। कहाँ तो मैं गाँधी विचार को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के अपने ‘सुकृत्य’ पर मन ही मन गर्वित हो रहा था और कहाँ अब परेशान हो रहा हूँ? कैसे जानूँ कि जिन्हें मैंने यह पुस्तक भेंट दी है उन्होंने इसके साथ क्या किया? लग रहा है कि एक ने भी पन्ने भी नहीं पलटे होंगे। मैंने प्रत्येक प्रति पर अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर और ई-मेल पता चिपका रखा है। लगभग साल भर हो गया है प्रतियाँ भेंट करते-करते। एक ने भी पलट कर फोन नहीं किया। मैं खुद को समझदार मानता रहा लेकिन इस इशारे को अब तक नहीं समझ पाया! कैसा समझदार हूँ मैं?
अब क्या करूँ। पुस्तकों के पक्ष में अनेक उक्तियाँ इस समय याद आ रही हैं किन्तु विश्वास किसी पर नहीं हो रहा। कारण भी समझ में आ रहा है कि गाँधी आत्म कथा केवल पुस्तक नहीं है। यह तो ग्रन्थ है! ग्रन्थ भी ऐसा जिसमें आचरण ही केन्द्रीय विषय है। वह सब तो केवल गाँधी ही कर सकते थे! इसीलिए तो वे ‘गाँधी’ बन पाए! गाँधी बेशक आज प्रासंगिक, अपरिहार्य और अनिवार्य हैं किन्तु वैसा बन पाना अब मुमकिन कहाँ?
विचारों के इसी झंझावात में मुझे उस बात का वास्तविक अर्थ समझ पड़ा जिसे अब तक मैं बिना समझे कहता, सुनता और पढ़ता चला आ रहा हूँ। वह यह कि - ‘उससे विवाह मत करो जिसे तुम चाहते/चाहती हो। उससे करो, जो तुम्हें चाहता/चाहती है।’ मैं अपनी पसन्द की पुस्तक भेंट में दिए जा रहा हूँ - यह सोचे, जाने बिना कि जिन्हें मैं यह भेंट दे रहा हूँ, उन्हें यह पसन्द है भी या नहीं? यदि उन्हें यह पसन्द नहीं है तो वे इसे भला क्योंकर पढ़ेंगे?
तो अब क्या करुँ? शेष प्रतियाँ इस तरह से भेंट में दूँ या नही? सवाल मुझ पर भारी पड़ रहा है। बिलकुल कुछ इस तरह कि ‘ये तेरी जुल्फ की लट है, दुनियाँ के पेंच-ओ-खम नहीं कि जिन्हें मैं सुलझा लूँ।’
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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छुटकू का क्या दोष?


इस किशोर का वास्तविक नाम क्या है, इस पर मत जाईए। इसके नाम से हमें कोई लेना-देना नहीं। बस, काम चलाने के लिए इसे छुटकू कहेंगे। वह भी इसलिए कि अपने कुटुम्ब की, इसकी पीढ़ी में यह सबसे छोटा सदस्य है। इसका कुटुम्ब अपने कस्बे का अग्रणी व्यापारी परिवार है-कस्बे के प्रथम पाँच बड़े व्यापारियों में शामिल।

बरहवीं उत्तीर्ण कर, बी. कॉम. और उसके साथ ही साथ सी ए करने के लिए यह अपने कस्बे के पासवाले, महानगर होने को कुलबुला रहे बड़े नगर में गया था। लेकिन जल्दी ही इसका मन उचट गया। सी ए करने का इरादा छोड़ दिया है। व्यक्तिगत परीक्षार्थी (प्रायवेट स्टूडेण्ट) के रूप में बी. कॉम. की तैयारी अभी भी कर रहा है। किन्तु मुख्यतः अपने पारिवारिक व्यापार में हाथ बँटा रहा है। पढ़ाई बीच में छोड़ने के अपने निर्णय पर इसे और इसके परिवार को रंच मात्र भी कष्ट नहीं है। सब इस बात पर प्रसन्न हैं कि इसने सब कुछ जल्दी ही समझ लिया और ‘समय धन’ बचा लिया।

अपने काम से इसके संस्थान् पर गया तो उस दिन सेठ की कुर्सी पर यही बैठा हुआ था। मैं अपनी बात कहता उससे पहले ही कूरीयर सेवा का आदमी आया और पत्रों का ढेर और पावती के लिए हस्ताक्षर करनेवाला कागज इसके सामने रख दिया। इसे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करता देख मैंने टोका - ‘छुटकू! तू हिन्दी में हस्ताक्षर क्यों नहीं करता?’ वह चौंका भी और घबराया भी। तनिक सहम कर बोला - ‘अंकल! हिन्दी में सिगनेचर? बुरा मत मानना, हिन्दी में सिगनेचर करना तो दूर, मैं हिन्दी में छुटकू का छ नहीं लिख पाऊँगा।’ मुझे सदमा लगा। ऐसे उत्तर की तो कल्पना भी नहीं की थी मैंने! पूछा - ‘क्यों भला?’ जवाब मिला - ‘आज से पहले इस बारे में न तो किसी ने कहा न ही मैंने कभी सोचा। अब तो यह पॉसीबल ही नहीं।’

जवाब भले ही मेरे लिए आघात से कम नहीं था किन्तु छुटकू ने कोई बहाना नहीं बनाया। दो-टूक सच कह दिया। उससे ज्यादा पूछताछ करना उसके साथ अत्याचार ही होता। मैं विचार में पड़ गया।

छुटकू के परिवार की पृष्ठभूमि में अंग्रेजी कहीं नहीं है। घर में भी हिन्दी कम और मालवी अधिक बोली जाती है। अंग्रेजी में कोई सम्वाद, कोई व्यवहार नहीं होता। इसके परिवर के प्रायः समस्त पुरुष सदस्य, हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। इसकी माँ एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में, बरसों से प्रधानाध्यापिका है और पिता ठेठ मालवी।

फिर वह क्या कारण रहा होगा कि छुटकू ने ऐसा जवाब दिया? शायद किसी ने, कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया होगा। ध्यान देना तो दूर की बात रही होगी, इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं की होगी। बच्चा पढ़ रहा है और परीक्षाओं में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो रहा है - इतना ही पर्याप्त रहा होगा। लेकिन भाषा के भी संस्कार होते हैं, इस बारे में किसी ने, कभी नहीं सोचा होगा।

निश्चय ही, घर-घर का यही किस्सा होगा। होगा क्या, है ही। हम अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता करते हैं और उसी पर सारा ध्यान केन्द्रित करते हैं। किन्तु परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के अतिरिक्त भी तो उसका जीवन है! उसके सामाजिक व्यवहार, भाषिक संस्कार आदि के बारे में हम कभी नहीं सोचते। मान कर चलते हैं कि इन बातों पर सोचनेे की आवश्यकता ही नहीं। ये बातें तो या तो बच्चा खुद-ब-खुद सीख-समझ जाएगा या फिर इन बातों को सीखने-समझने की जरुरत ही क्या?

मुझे लग रहा है कि हिन्दी के नाम पर स्यापा करनेवाले और आत्म धिक्कार में जीनेवाले हम तमाम लोगों को अपने-अपने घर में ही सबसे पहले देखना चाहिए। हम तब चिन्तित होते हैं जब सुधार की सम्भावनाएँ लगभग धूमिल हो जाती हैं। बच्चे जब कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं तभी हमने इन सन्दर्भों में उनकी तरफ देखना चाहिए। लेकिन तब हमें फुरसत नहीं होती। हमें फुरसत मिलती है तब तक वे हाँडे पक चुके होते हैं और उनमें मिट्टी न लगा पाने की अपनी अक्षमता को हम हिन्दी की अस्मिता का सवाल बना कर प्रलाप शुरु कर देते हैं।

दोष तो हमारा ही है। छुटकू का क्या दोष?

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एक मन्दिर: धार्मिकतावाला

उत्तर भारत के मन्दिरों के बारे में बनी मेरी धारणा टूटने की मुझे बहुत खुशी है। यह अलग बात है कि यह धारणा मध्य भारत में टूटी। यह भी अलग बात है कि मुझे यह खुशी देने में हमारे पारम्परिक सनातनी (जिसे हम आदतन ‘हिन्दू’ कहते हैं) समाज का कोई योगदान नहीं है।

उत्तर भारत के जितने भी मन्दिरों में मुझे जाने का अवसर मिला है, उनमें से एक की भी व्यवस्था से मैं ‘मुदित मन’ नहीं लौटा। रखरखाव हो या पण्डों-सेवकों का व्यवहार, वहाँ अव्यवस्था ही व्यवस्था है और दर्शनार्थियों/भक्तों/पर्यटकों के साथ मनमानी ही धर्मिकता है। इसके सर्वथा विपरीत, दक्षिण भारत के मन्दिरों ने मुझे सदैव प्रभावित भी किया और दूसरी बार आने के लिए आकर्षित भी।

लेकिन उज्जैन के इस्कान मन्दिर ने मेरी धारणा बदली। इस मन्दिर को मैं परम्परागत सनातनी समाज का मन्दिर नहीं मानता।

मेरे मामिया ससुरजी की बरसी-प्रसंग पर गए दिनों उज्जैन जाना हुआ। हम लोग समय से बहुत अधिक पहले पहुँच गए। इतने पहले कि वहाँ आए सारे रिश्तेदारों से भली प्रकार मिल लेने, उनके साथ नाश्ता और भरपूर गप्प गोष्ठी करने के बाद चर्चाओं के लिए मौसम के अतिरिक्त कोई विषय नहीं बचा फिर भी कार्यक्रम शुरु होने में घण्टों बाकी थे। मिलने और गपियाने के उत्साह का उफान उतर जाने से उपजे खालीपन ने ही मेरी उत्तमार्द्ध (जीवनसंगिनी) को इस्कान मन्दिर जाने की प्रेरणा दी। मैं उनके साथ चला तो किन्तु बिलकुल ही बेमन से। एक तो मन्दिरों के बारे में मेरे अपने पूर्वाग्रह उस पर मन्दिर इस्कान का! इस्कान के बारे में मेरी धारणा यही है कि वहाँ सब कुछ विदेशी है। भारतीय और भारतीयता वहाँ दूसरे क्रम पर आती है। मेरे मन में इस्कान मन्दिर की छवि में विदेशी भक्तों/भक्तिनों की प्रचुर उपस्थिति, प्राधान्य और देसी समाज के प्रति उपेक्षाभरा बर्ताव ही बन हुआ रहा।

सुबह लगभग साढ़े नौ बजे हम मन्दिर पहुँचे तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं पाया जैसा मैं मन में लेकर गया था। पूरा मण्डप खाली था। दस-बारह स्त्री-पुरुष भक्त मौजूद थे। कोई साष्टांग दण्डवत मुद्रा में था, कोई सुमरिनी में माला जप रहा तो कोई ध्यान मग्न था। कोई भी आपस में बतिया नहीं रहा था। सब अपने में और अपने काम में मगन। ‘विदेशी’ के नाम कुल जमा एक महिला थी जिसे बहुत ध्यान से देखने पर ही मालूम हो पा रहा था कि वह विदेशी है। गेरुआ वस्त्रों में कुछ पण्डित किस्म के नौजवान और अधेड़ इधर-उधर आते-जाते दिखे। सब किसी न किसी काम में व्यस्त। फुरसत में बैठा कोई नहीं मिला।

जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी वहाँ की ध्वनि व्यवस्था। विशाल मण्डप में, आमने-सामने की दीवारों पर कुल-जमा आठ स्पीकर लगे हुए थे - प्रत्येक दीवाल पर चार-चार। बंगाली संगीत प्रभाववाले, ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ की पहचान जतानेवाले भजन बज तो रहे थे किन्तु आवाज इतनी मद्धिम कि भजनों के बोल सुनने-समझने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ जाए। इतनी धीमी और मन्द ध्वनि मानो कोसों दूर, किसी गाँव मे हो रहे जलसे की रेकार्डिंग की आवाज आ रही हो। मुझे भजन का एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था किन्तु इससे रचा वातावरण जो शान्ति, जो आनन्दानुभूति दे रहा था वह मेरे लिए किसी स्वर्गीय सुख से कम नहीं थी। भजनों की रेकार्डिंग इतनी सुखदायी और मन को ठण्डक देनेवाली भी हो सकती है, यह मुझे पहली बार ही अनुभव हुआ।

इस व्यवस्था से उपजी मेरी प्रसन्नता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि यहाँ मैं देव-मूर्तियों की, उनकी दिव्यता-भव्यता की, उनके समृद्ध श्रृंगार की, मन्दिर की भव्यता-सुन्दरता, किसी की भी चर्चा नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे सचमुच में बड़ी खुशी है कि उत्तर भारत के मन्दिरों को लेकर मेरी धारणा टूटी।

मन्दिरों को लेकर मेरी चिढ़ से भली प्रकार परिचित मेरी उत्तमार्द्ध ने थोड़ी ही देर में कहा - ‘चलिए। घर चलें।’ मेरे जवाब ने उन्हें चौंका दिया। मैंने कहा - ‘थोड़ी देर और बैठते हैं। अच्छा लग रहा है।’ वे खुश हो गईं। मुझमें आए इस परिवर्तन को उन्होंने निश्चय ही ‘प्रभु की देन’ समझा होगा और मन ही मन कहा होगा - ‘चलो! आखिरकार भगवान ने इस आदमी को कुछ तो अकल दे दी।’ मेरा जवाब सुनकर उन्होंने दुगुने भक्ति-भाव से मूर्तियों को प्रणाम किया।
काश! मन्दिरों के रख-रखाव और व्यवस्थाओं के बारे में हमारा पारम्परिक सनातनी समाज, इस्कान मन्दिरों से कोई सबक ले।

मैं इस मन्दिर में फिर जाना चाहूँगा।
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भ्रष्टाचार: परछाई पर प्रहार

भले ही यह सच हो कि भ्रष्टाचार देश की सबसे बड़ी समस्या है और यह भी कि इसी के चलते विकास (वह जितना भी, जहाँ भी हो पा रहा है) के लाभ वाजिब लोगों तक नहीं पहुँच पा रहे हैं किन्तु इससे भी बड़ा सच यह है कि हममें से कोई भी भ्रष्टाचार को शायद ही नष्ट करना चाहता है। भ्रष्टाचार निर्मूलन के लिए ईमानदारी भरा निरपेक्ष अभियान अपरिहार्य होता है और इस बारे में हम सब सापेक्षिक सोच से काम करते हैं।
एक रोचक उदाहरण मेरी बात को तनिक अधिक प्रभाव से स्पष्ट कर सकेगा।
मेरे कस्बे के पास करमदी नामका एक गाँव है। अखबारों के अनुसार यहाँ ‘करमदी विकास समिति’ के नामसे एक समिति काम कर रही है। समिति की विशेषता यह है कि इसमें जितने लोग करमदी के हैं उनसे यदि ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं, करमदी से बाहर के लोग सदस्य हैं। शायद करमदी के लोगों में इतनी सूझ-समझ-क्षमता नहीं रही होगी कि वे अपने गाँव के विकास के बारे में समुचित रूप से सोच-विचार सकें, काम कर सकें। इसीलिए बाहर के लोगों की आवश्यकता अनुभव हुई होगी।लेकिन इस समिति के काम को इसके नाम से जोड़ कर वैसी ही शुभ धारणा बनाना तनिक जल्दीबाजी होगी। शायद अविवेक भी। इस समिति ने मेरे कस्बे में (याने अपने गाँव से कुछ किलो मीटर दूर आने का विकट परिश्रम कर) 16 दिसम्बर से, ‘बड़े घोटालों के विरुद्ध, भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम’ छेड़ी है। इसके तहत, जन सामान्य से, राष्ट्रपति को एक हजार पोस्ट कार्ड भिजवाए जाएँगे जिनमें यह जन भावना राष्ट्रपति तक पहुँचाई जएगी कि भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले सामने आने के बाद भी प्रधान मन्त्री द्वारा कोई कार्रवाई न करने से आम जनता त्रस्त है। यह रोचक और ध्यानाकर्षित करनेवाला संयोग है कि समिति के सारे के सारे सदस्य संघ और/या भाजपा से जुड़े हैं। जाहिर है कि समिति का यह अभियान ‘भ्रष्टाचार के विरुद्ध’ न होकर ‘केन्द्र की कांग्रेस नीत सरकार के भ्रष्टाचार’ के विरुद्ध है। यही इस देश का संकट है और इसी कारण मैं कह पा रहा हूँ कि भ्रष्टाचार से दुखी इस देश मे कोई भी भ्रष्टाचार समाप्त करने को उत्सुक नहीं है।
यदि हम सचमुच में भ्रष्टाचार के विरोध में हैं तो हमें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि भ्रष्टाचार कौन कर रहा है या किसने किया है। किन्तु यदि हमारे विरोध का आधार निरपेक्ष नहीं है, केवल सामनेवाले को अपराधी करार देना है या केवल सामनेवाले के भ्रष्टाचार को उजागर करना है तो यह अभ्यिान और ऐसी कोई भी लड़ाई कभी भी कामयाब नहीं हो सकती क्योंकि इसका लक्ष्य भ्रष्टाचार निर्मूलन नहीं, सामनेवाले के भ्रष्टाचार से अपना राजनीति लाभ लेना होता है। सुनिश्चत और निहित राजनीतिक लाभ के लिए चलाए जानेवाले ऐसे अभियान न केवल अन्ततः भ्रष्टाचार को ही मजबूत करते हैं अपितु ईमानदार लोगों/संगठनों द्वारा चलाए जानेवाले भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों को कमजोर भी बनाते हैं।
सारे राजनीतिक दलों ने देश पर एक उपकार अवश्य किया है। उन्होंने एक दूसरे की पोल खोलकर सारे देश को बता दिया है कि नागरिकों को इनमें से किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहिए। देश के तमाम राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के मामले में एक दूसरे को पछाड़ने की प्रतियोगिता में लगे हुए हैं। हर कोई प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए जी-जान से लगा हुआ है। इसीलिए इनमें से किसी को भी अपना भ्रष्टाचार नजर नहीं आता। अपने भ्रष्टाचार का औचित्य साबित कर खुद को निरपराध साबित करने के लिए वे अपने प्रतिस्पर्धी (ध्यान दीजिए, मैं यहाँ ‘विरोधी’ शब्द प्रयुक्त नहीं कर रहा हूँ) को अपराधी साबित करने में ही लगे हुए हैं।
आदर्शों की दुहाइयाँ देने में हम भारतीयों का कोई मुकाबला नहीं। दुहाइयाँ देने की किसी भी वैश्विक प्रतियोगिता में हम प्रथम स्थान पर, आजीवन अधिकार बनाए रखने की क्षमता और दम-कस रखते हैं। किन्तु आचरण की बात आते ही हम पुरुस्कार-सूची में, सबसे अन्तिम स्थान पर आ जाते हैं। श्रीमद् भागवत गीता की दुहाई देना हमारा फैशन और उसके निर्देशों की अवहेलना हमारा आचरण बन गया है।गीता में कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा है - ‘केवल प्रयत्नों पर तुम्हारा नियन्त्रण है, परिणामों पर नहीं। इसलिए, कर्म करो।’ हमारे राजनीतिक दलों ने इसे ‘केवल दूसरों को सुधारने के प्रयत्नों ही पर तुम्हारा नियन्त्रण है’ बना लिया है जबकि योगीराज श्रीकृष्ण ने यह नियन्त्रण ‘स्वयम्’ के लिए उल्लेखित किया है। याने, तुम्हारा नियन्त्रण यदि है तो केवल तुम पर ही है। दूसरों पर नहीं। इसलिए यदि सुधार करना चाहते हो तो खुद को सुधारो। दूसरों को सुधारने की कोशिशें मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं। इसलिए, हमारे राजनेता यदि सचमुच में भ्रष्टाचार समाप्त करने में ईमानदार हैं तो यह शुभारम्भ अपने-अपने घरों से करें। कांग्रेसियों पर भाजपाइयों का और भाजपाइयों पर कांग्रेसियों का क्या नियन्त्रण? लेकिन कांग्रेसियों का कांग्रेसियों पर और भाजपाइयों का भाजपाइयों पर तो नियन्त्रण है। दूसरे के भ्रष्टाचार की दुहाई देकर अपने भ्रष्टाचार का औचित्य सिद्ध करने के बजाय खुद को भ्रष्टाचार रहित कीजिए। यह अधिक आसान है क्योंकि यदि आप अपना सुधार करेंगे तो आपको रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं होगा। यदि आप भ्रष्टाचारविहीन होंगे तो आपकी बात हर कोई न केवल ध्यान से सुनेगा बल्कि आपके साथ शरीक भी होगा। दूसरे की गरेबान में झाँकने के लिए आपको अधिक तथा अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा जबकि अपनी गरेबान में झाँकने में तो पल भर भी नहीं लगेगा। दूसरे को दुरुस्त करने के मुकाबले खुद को दुरुस्त करने में समय भी कम लगेगा और मेहनत भी। सामनेवाले के भ्रष्टाचार की गन्दगी बताकर आप कोई अनोखा काम नहीं कर रहे। सबको पता है। उसकी सड़ाँध को समाप्त करने के लिए आपको अपनी खुशबू फैलानी पड़ेगी।
हमारे दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल, कांग्रेस और भाजपा, गाँधी की दुहाई देने का कोई मौका नहीं छोड़ते। किन्तु गाँधी की कही बात पर अमल करने को कोई भी तैयार नहीं। गाँधी ने आत्म-चिन्तन से शुरु होकर आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण, आत्म-विश्लेषण से गुजरते हुए आत्मोन्नयन की बात कही थी। गाँधी का प्रत्येक विचार खुद से शुरु होकर खुद पर समाप्त होता है। गाँधी विचार में जो भी है वह है - आचरण। वहाँ आरोप, प्रत्यारोप, आग्रह, अपेक्षा का कोई स्थान नहीं है। सत्याग्रह का आग्रह भी वहीं है जब सत्याग्रही स्वयम् उस विकार से मुक्त हो जिसके विरोध में वह सत्याग्रह कर रहा है।
इसे मैं यूँ कहना चाहूँगा कि रिश्वत देना मेरी मजबूरी हो सकती है किन्तु लेना नहीं। यदि मैं रिश्वत लेने की स्थिति में हूँ और रिश्वत नहीं लेता हूँ तभी मैं रिश्वत देने का विरोध करने का नैतिक अधिकार और आत्म बल पा सकता हूँ। बेटे के विवाह में दहेज लेकर, बेटी के विवाह में दहेज विरोधी कैसे हो सकता हूँ?
इसलिए, बेहतर यही होगा (और आवश्यक भी यही है) कि विरोधी के भ्रष्टाचार को नहीं, अपनी भ्रष्टाचारविहीनता को अपनी ताकत बनाएँ। तभी आपकी लड़ाई वास्तविक भी होगी और अपेक्षित परिणामदायी भी। तभी आपकी लड़ाई ईमानदार और नैतिक स्तर बलशाली होगी। यदि ऐसा नहीं है तो आप जो भी कर रहे हैं, वह झूठ है, ढोंग है, पाखण्ड है।
सारे राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को समझना चाहिए कि जरूरत जडों को काटने की है। आप फुनगियों पर प्रहार कर रहे हैं। आप खलनायक पर नहीं, उसकी परछाई पर तलवारें भाँज रहे हैं और चाहते हैं कि लोग आपकी ईमानदारी पर शक न करें।
यह आपकी मासूमियत नहीं, निर्लज्ज सीनाजोरी है।
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