मेरे दा' साहब



ये माणक भाई हैं ।


पूरा नाम माणक लाल अग्रवाल है किन्तु सब इन्हें माणक भाई के नाम से ही जानते, पहचानते और सम्बोधित करते हैं । लेकिन मेरे लिए ये माणक भाई नहीं हैं । ये मेरे ''दा’ साहब'' हैं । मेरे ही नहीं, हमारे समूचे परिवार के दा' साहब । आयु इस समय 90 के आसपास है । भरे-पूरे परिवार के मुखिया हैं, अपनी अगली तीन पीढ़ियों को अपने सामने खेलते-खाते देख रहे हैं । समृध्दि इनकी सहोदर बनी हुई है । ईश्‍वर की कृपा है कि इन्होंने दिया ही दिया है, लिया किसी से नहीं । ‘सुपात्र’ की सहायता के लिए इनके दोनों हाथ खुले रहते हैं और ‘कुपात्र’ के लिए इनकी मुट्ठियाँ तनी रहती हैं ।


मैं इस समय अपनी आयु के 62वें वर्ष में चल रहा हूँ और जब से मैं ने होश सम्हाला है तब से लेकर यह पोस्ट लिखने के इस क्षण तक मेरी नितान्त व्यक्तिगत, अनुभूत, सुनिश्‍िचत धारणा है कि दा' साहब ‘पारस’ हैं । इनका स्पर्श पाकर भी यदि कोई ‘कंचन’ नहीं बनता है तो आँख मूँदकर मान लीजिए कि वह ‘लोहा’ भी नहीं है । हम लोग यदि दा' साहब का स्पर्श नहीं पाते तो आज मैं यह पोस्ट लिखने की स्थिति में नहीं होता ।



दा' साहब स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे हैं और 1957 में, दूसरी लोकसभा के सदस्य भी । इन्दिराजी के प्रधानमन्त्रित्व काल में जब स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को ताम्र-पत्र दिए गए और आजीवन पेंशन उपलब्ध कराई गई तो दा' साहब ने दोनों ही विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिए - यह कहकर कि इस सबके लिए वे अंग्रेजों के विरुध्द मैदान में नहीं उतरे थे । दा' साहब के नाम वाला ताम्र-पत्र इस समय, रामपुरा नगर पालिका के माल गोदाम में कहीं, कोने-कचरे में पड़ा होगा । दा' साहब मूलतः रामपुरा निवासी हैं जो पहले मन्दसौर जिले में था और अब नीमच जिले में आता है ।



अभी-अभी दा' साहब के छोटे पौत्र (दा' साहब के मझले बेटे, डाक्टर सुभाष अग्रवाल के छोटे बेटे) चिरंजीव आदित्य का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ है । मुझ पर मँडरा गई ‘उड़न तश्‍तरी’ शीर्षक वाली मेरी पोस्ट में मैं ने जिस समारोह को ‘भव्य की परिभाषा को अधूरी और अपर्याप्त साबित करनेवाला’ तथा ‘भव्य को परास्त करनेवाला’ बताया है, वह समारोह चिरंजीव उदित के ही विवाह प्रसंगवाला था ।

दा' साहब की 'सादगी-पसन्दगी और ढकोसलों से नापसन्दगी', उनके आसपास के अधिसंख्य लोगों के लिए ‘संकट समान दुखदायी’ बनती रहती है । अकारण और अनावश्‍यक प्रदर्शन को वे सामाजिक विसंगतियों का आधारभूत कारण और मध्यम/निम्न वर्गों के लिए प्राणलेवा संकट मानते हैं । इसीलिए वे, चकाचैंध वाले आयोजनों/समारोहों से परहेज करते हैं । गए कई वर्षों से उन्होंने नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर कुछ अघोषित निर्णय ले रखे हैं । शोभा यात्राओं के आगे बजने वाले बैण्ड पर लगे लाउडस्पीकरों और बारातों के आगे, सड़कों पर नाचने का बहिष्‍कार, दा' साहब ने अपनी ओर से कर रखा है । ये दोनों ही बातें जहाँ होती है, दा' साहब वहाँ नहीं होते । इसके ठीक विपरीत, आज की पीढ़ी का काम, इन दोनों के बिना नहीं चलता ।

चिरंजीव आदित्य के विवाह प्रसंग पर यह संकट सामने आया तो दा' साहब ने दो टूक कहा कि यह संकट उनका (दा' साहब का) नहीं है । यह संकट तो उनका है जो इन बातों का समर्थन, आयोजन कर रहे हैं और इनमें भागीदारी कर रहे हैं ।

और मैं ने देखा कि दोनों ही बातें, अपने-अपने स्तर पर हुईं । बारात जब निकली तो बैण्ड पर ‘डीजे’ सहित लाउडस्पीकर लगा हुआ था और नाचने के लिए, आदित्य के मित्र लड़के-लड़कियों, परिवार के पुरुषों-महिलाओं में होड़ लगी हुई थी । ‘चलने’ के नाम बारात सरक भी नहीं रही थी । विवाह का मुहूर्त साधने को व्यग्र, वर के पिता डाक्टर सुभाष अग्रवाल और उनके जैसे दो-चार और परिजन, इस सबसे कभी परेशान तो कभी प्रसन्न होते नजर आते रहे ।

लेकिन दा' साहब इस सबमें कहीं नहीं थे । वे, आदित्य की ‘वर निकासी’ के फौरन बाद, उल्टे पाँवों घर चले गए और तभी लौटे जब बारात वधु के द्वार पर पहुँची । चूँकि नाच-गाना और धूम-धड़ाका तब भी निरन्तर था, सो दा' साहब (बारात की औपचारिक अगवानी से) पहले ही मण्डप में पहुँच गए थे ।
‘सासू आरती’ के बाद जब आदित्य मण्डप के लिए आ रहा था तब रतलाम के प्रख्यात दो ढोल अपने चरम पर बज रहे थे । लेकिन दा' साहब ने उनका बजना भी बन्द करा दिया । दा' साहब के मना करने के बाद किसी की हिम्मत नहीं रही कि ढोल बजाने की कहे ।

इससे एक रात पहले, इसी विवाह प्रसंग पर गीत-संगीत का आयोजन हुआ था । उसके लिए परिवार के बच्चों और बहने-बेटियों-बहुओं ने, महीनों पहले से अच्छी-खासी से तैयारी की थी । ‘मास्टरजी’ से ‘डांस स्टेपिंग’ सीखी थी । व्यावसायिक एंकर इस हेतु बुलाया गया था । अपनी आदत के अनुसार दा' साहब, निमन्त्रण-पत्र में दिए गए समय पर, सबसे पहले आयोजन स्थल पर पहुँच गए थे । उन्होंने तमाम अतिथियों की अगवानी की । लेकिन जैसे ही ‘एंकर‘ ने माइक थामा, वैसे ही दा' साहब चुपचाप उठ कर चले आए । उन्हें उठते देख दो-चार लोग दौड़े, उनमें मैं भी था लेकिन सब उनकी सहायता के लिए दौड़े थे, उनसे रुकने का आग्रह करने के लिए नहीं । यह आत्मघाती मूर्खता न करने का विवेक सबमें समान रुप से प्रकट हुआ ।

विवाह के समस्त कार्यक्रम और आयोजन निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास सम्पन्न हो चुके हैं । सारे मेहमान जा चुके हैं । दा' साहब अपने कमरे में परम् प्रसन्न, मुदित और सन्तुष्‍ट बैठे ईश्‍वर को धन्यवाद ज्ञापित कर रहे हैं ।

उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है । उनकी मानसिकता और वैचारिकता के विपरीत हंगामा करने वाले अपने बच्चों से भी नहीं और हंगामे में शरीक न होने के लिए अपने आप से भी नहीं ।
कैसे लगे आपको मेरे दा' साहब ?


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10 comments:

  1. ऐसे व्यक्तित्व को हमारा नमन.

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  2. विष्णुजी,
    "दा" साहब को हमारा चरण स्पर्श | काश उनके जैसे मुखिया का दिशा निर्देश हर परिवार को मिलता रहे, विवाह के अवसर पर आडम्बर अब बढ़ते ही जा रहे हैं | उससे भी अधिक कष्ट है कि इन सब आडम्बरों को समाज भी धीरे धीरे खुशी से ग्रहण कर रहा है |

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  3. दा’साहब मूल भारतीय संस्कृति के जीते जागते प्रतिमान हैं । वास्तव में जियो और जीने दो के सिद्धांत से ही यह वैदिक संस्कृति प्रवाहमान है । लेकिन हाल की पीढियों में एक दूसरे की जीवन शैली में हस्तक्षेप से ही परिवार और समाज में बिखराव बढा है । दा’साहब का जीवन अनुकरणीय है ।

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  4. अनुकरणीय है दा साब की बातें। मुझे कष्ट हुआ यह जानकर कि दा साब जैसा पारस होने के बावजूद उनके परिजन इसके स्पर्श से वंचित कैसे है ? उत्सव का उल्लास अपनी जगह है मगर प्रदर्शन की फूहड़ लालसा पर काबू पाना चाहिए।
    संतोष है कि मेरे परिवार में पल रही नई पीढ़ी इससे दूर है।

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  5. अजित भाई का सवाल मेरे मन में भी घुमड़ रहा है... दिया तले अंधेरा...?

    मेरे एक मित्र का मित्र था. उसकी जिस दिन बेहद सादगी से शादी हुई, उस दिन भी उसने आधा दिन दफ़्तर में काम किया.

    पारस बहुत होते हैं, आजकल सही, शुद्ध लोहा ही नहीं मिलता...

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  6. अच्छा बैरागी जी, हम माणक दादा जैसे बन पायेंगे? अपनी सोचता हूं तो पाता हूं कि व्यक्तित्व में इतना रजस-तमस है कि उसे मिटा कर पूरा व्यक्तित्व सत्वस युक्त कैसे बन पायेगा?
    पर चलिये, ऐसी विभूतियों से परिचय कराते रहिये!

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  7. दा' साहब जैसे व्यक्तित्व ही समाज में परिवर्तन के उत्प्रेरक बनते हैं। उन की हिम्मत हमारी प्रेरणा है। वैवाहिक समारोह अत्यन्त सादा हों और उन में दिखावा कम से कम हो। हमें विवाह की ईसाई, सिख और आर्य समाजी पद्दतियों से सीखना चाहिए। यदि दा' साहब उन के पूरे परिवार को अपने आदर्श के अनुरूप ढाल सकते तो शायद समाज में परिवर्तन के लिए प्रेरक हो सकते थे।

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  8. message in Hindi -
    इस पोस्ट के माध्यम से माणक दादा का चेहरा एक अरसे बाद देखने को मिला . रामपुरा जैसे छोटे कस्बे मे
    कालेज स्थापना मे उनकी महती भूमिका सदैव स्मरणीय है . तत्कालीन मध्यभारत कॉंग्रेस का यह सुद्रढ स्तंभ
    अपनी स्पष्टवादिता और सिंद्धांत प्रियता के कारण अवसरवादी राजनीति का शिकार हो गया . दादा तक मेरा
    प्रणाम पहुँचायें . उनके उत्तम स्वास्थ्य एवं शतायु होने की मंगलकामना करता हूँ !

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  9. कितना कठिन होता होगा अपनी ही संतानों को अपने सिद्धांतों से किनाराकशी करते हुए देखना!

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