कल रात को कोई साढ़े बारह बजे सोया और आज सवा चार बजे ही नींद खुल गई । नींद भी भरपूर आई । कोई कमी अथवा उनींदापन तनिक भी अनुभव नहीं हो रहा । ऐसा चाह कर भी नहीं हो पाता । आज ऐसा क्यों हुआ-सोचना चाहा किन्तु मस्तिष्क ने साथ देने से इंकार कर दिया ।
टेबल पर कोई विशेष काम पेण्डिंग नहीं था । क्या किया जाए ? पहले तो श्रीयुत दिनेशजी द्विवेदीजी को ‘धन्यवाद और क्षमा-याचना’ का एक मेल किया । फिर सोचा, टेबल की साफ-सफाई कर ली जाए । यही करते हुए कुछ पुराने नोट्स मिल गए । दो कागज ऐसे मिले जो लिखे गए थे अलग-अलग समय पर किन्तु दोनों की विषय वस्तु संयोग से एक ही है - यश अथवा प्रशंसा ।
कल भर्तहरी नीति पर आधारित, ज्ञानजी की पोस्ट भर्तृहरि का नीति शतक – दो पद पढ़ी थी - चाहे जो कर लें, दम्भी-मूर्ख को प्रसन्न नहीं किया जा सकता । मुझे मिले दोनों कागजों की बात भी कहीं न कहीं उससे जुड़ती है ।
पहले कागज के नोट्स किन्हीं जैन सन्त की बातें सुनते हुए लिए गए है । महाराजजी के अनुसार, संसार तीन ‘एषणाओं’ से लिपटा हुआ है । इनसे मुक्ति पाने का परामर्श दिया गया है ।
पहली है - पुत्रेषणा । प्रत्येक व्यक्ति की लालसा होती है कि उसे कम से कम एक बेटा हो जाए ताकि वह अपनी वंश-बेल बढ़ा कर ‘पितृ-ऋण’ से मुक्त हो जाए । किन्तु ऐसा न होने पर मनुष्य येन-केन-प्रकारेण अपने आप को समझा लेता है, पुत्रहीनता को अपना भाग्य मानकर इसे ईश्वर पर छोड़ देता है ।
दूसरी है - अर्थेषणा । हर व्यक्ति अकूत धन-सम्पत्ति चाहता है और इस हेतु दिन-रात लगा रहता है । नीति-अनीति को ताक पर रखकर, सम्बन्धों की अनदेखी कर, उचित-अनुचित की चिन्ता किए बिना, जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा धन कमा लेना चाहता है । इस ‘प्राप्ति’ को लेकर उसे सदैव लगता रहता है कि उसके प्रयत्नों का समुचित प्रतिदेय उसे नहीं मिला है । इस 'कमी' को भी मनुष्य अपना प्रारब्ध और ‘ईश्वरेच्छा’ मान कर अपने आप को समझाने की चेष्टा कर लेता है ।
अन्तिम है - यशेषणा । महाराजजी के अनुसार, इससे कोई नहीं बच पाता । इसके अपवाद भी परापवाद ही होंगे । मनुष्यों की बात छोड दीजिए, देवता भी इस यशेषणा से नहीं बच पाते । यह तीसरी एषणा मनुष्य को बार-बार, सर्वाधिक स्खलित करती है और प्रायः ही लोक-उपहास का पात्र बनाती रहती है । यश प्राप्ति के चक्कर में कई बार मनुष्य अपयश का भागीदार होकर सबकी नजरों में हँसी का पात्र बन जाता है - बिलकुल वैसे ही जैसे कि सड़क पर चलते हुए कोई, केले के छिलके पर पाँव रखने से फिसल कर लोक परिहास का विषय बन जाता है । महाराजजी के अनुसार - यह यशेषणा मनुष्य को सदैव ही मूर्खता की ओर धकेलती रहती है । इसलिए, इससे सर्वाधिक सावधान रहना चाहिए और इससे दूरी बनाए रखना चाहिए । जो इस 'असम्भव को सम्भव' कर दिखाए वह ‘नरोत्तम’ बन जाता है ।
महाराजजी की यह व्याख्या निस्सन्देह अनमोल परामर्श है । किन्तु मुझे यह 'अकादमिक' या कि 'शास्त्रोक्त' अधिक लगी । सहज कम । इसकी अपेक्षा, दूसरे कागज की बातें मुझे अधिक सहज लगीं । इस कागज पर, राजस्थान के लोक-सन्त, पीपाजी महाराज का एक दोहा लिखा हुआ है । पीपाजी महाराज के बारे में मेरी जानकारी बिलकुल ही शून्य है । इतना याद आ रहा है कि दर्जी समाज के लोग इन्हें अधिक मानते हैं । वे कबीर की परम्परा के वाहक माने जा सकते हैं क्योंकि पीपाजी भी गृहस्थ थे और कपड़ों की सिलाई के उद्यम से जीविकोपार्जन करते थे ।
यश अथवा प्रशंसा को लेकर इन्हीं पीपाजी महाराज का यह दोहा मुझे किसी अनमोल निधि से कम नहीं लगता । थोड़े में, बिना भाषिक आलंकारिकता या शाब्दिक चमत्कारिकता के, अत्यन्त सरलता से कही बात, सीधे आदमी के मन-मस्तिष्क के दरवाजे खोल देती है । पीपीजी महाराज कहते हैं -
परसंसा हतभागीनी, दर-दर भटकन जाय ।
ज्ञानी जन नहीं रोचते, मूरख इस नहीं भाय ।।
अर्थात् - यह प्रशंसा बड़ी ही अभागी है । पहले ही दिन से यह दर-दर भटक रही है किन्तु आज तक इसे कहीं ठौर नहीं मिल पाया है, यह कहीं भी अपना स्थायी निवास नहीं बना पाई है । क्यों कि ज्ञानी-समझदार तो इसे अपने पास फटकने नहीं देते और मूर्खों के पास यह जाती नहीं है ।
दिमाग को दुरुस्त कर देने वाली यह अनमोल बात मैं जान लूँ और इस पर अमल करने का ‘विवेकी साहस’ जुटा सकूँ - शायद यह सन्देश देने के लिए ही ईश्वर ने मुझे आज, मुझे इतनी जल्दी नींद से उठा दिया ।
आप सबको ‘गुड मार्निंग’ जब कि मेरी तो ‘मार्निंग गुड’ हो गई है ।
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हमारी भी मार्निंग गुड-गुड हो गयी!
ReplyDeleteपरसंसा हतभागीनी, दर-दर भटकन जाय ।
ReplyDeleteज्ञानी जन नहीं रोचते, मूरख इस नहीं भाय ।।
धन्यवाद!
परसंसा हतभागीनी, दर-दर भटकन जाय ।
ReplyDeleteज्ञानी जन नहीं रोचते, मूरख इस नहीं भाय ।।
"बिल्कुल सच कहा की यह प्रशंसा बड़ी ही अभागी है , क्यूंकि ये स्थिर नही है शायद और चंचल भी है बस भटकना जानती है और यही इसकी विवशता भी है , सुंदर आलेख "
regards
घुमा फिरा कर बात फिर टिप्पणियों पर पहुँचती है. हम क्यों चाहते हैं कि हमारे ब्लॉग पर लोग टिप्पणी करें? क्या यह एक प्रकार से प्रशंसा लोलुपता नहीं है? वैसे आपका ३ बजे उठ जाना सार्थक रहा. आभार.
ReplyDeleteachha laga lekh.
ReplyDeleteआप की गुडमॉर्निंग ने हमारी गुड इवनिंग कर दी। प्रशंसा जरूरी चीज है यदि यह पाने वाले में अहंकार न भर दे।
ReplyDeleteघूम फिर कर ‘चर्चा’ फिर येशणा पर आ गई। चलिए, टिप्पणी संख्या बढाइए।
ReplyDeleteबैरागी जी, मैने तो यूं ही दो पद उतारे थे भर्तृहरि के, पर सही मायने में सार्थक पोस्ट तो आपने लिखी।
ReplyDeleteयह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।
तारीफ़ किसे पसंद नहीं ? तारीफ़ को भी तारीफ़ की चाहत होती है । शायद इसी की तलाश में वो दर - दर भटकती है । लेकिन ये भी सच है कि प्रशंसा को ना सही प्रशंसा करने वाले को तो बेहतरीन ठौर - ठिकाना मिल ही जाता है मौजूदा दौर में ..।
ReplyDeleteगुड मार्निंग’ जब कि मेरी तो ‘मार्निंग गुड’ हो गई है ।
ReplyDeleteant bhala to sab bhala...
wese agar koi prashansha ka hakdar hai to use jarur milni chahiye isse margdarshan aur prerana dono milti hai,,...
regards
arsh