पूरे देश के लिए यह अच्छी खबर है और मुझे इस यह आत्म सन्तोष है कि इस खबर के पीछे मैं भी कहीं न कहीं हूँ ।
कुछ चुनाव सुधारों की माँग करते हुए हम कुछ लोग कोई तीन-साढ़े तीन वर्षों से एक ‘मूक अभियान’ चलाए हुए हैं । इस अभियान की शर्त है कि हम इसकी माँगों को सार्वजनिक नहीं करेंगे (विशेषतः समाचार पत्रों में नहीं देंगे) और जिस बात को हम ठीक समझ रहे हैं, उसके लिए निरन्तर प्रयास करते रहेंगे ।
मतदान की उपेक्षा करने वालों में शिक्षितों की संख्या भरपूर है । ऐसे समस्त लोग, उनके समक्ष प्रस्तुत प्रत्याशियों को ‘चुने जाने योग्य’ नहीं मानते और मानते हैं कि उन्हें ‘निकृष्टों में से कम निकृष्ट प्रत्याशी’ को चुनने के लिए विवश किया जाता है । यह शिकायत केवल उन्हीं लोगों की नहीं है जो मतदान की उपेक्षा करते हैं । मतदान करने वालों में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में होते हैं किन्तु वे ‘मतदान को अपना उत्तरदायित्व’ मान कर, प्रायः ही अनिच्छापूर्वक मतदान करते हैं । ऐसे समस्त लोगों की भावना है कि मतदाताओं को, समस्त प्रत्याशियों को निरस्त/अस्वीकार करने का अधिकार मिलना चाहिए ।
हममें से कितने लोग जानते हैं कि हम भारत के लोगों को यह अधिकार, सम्वैधानिक स्तर पर 1961 से ही उपलब्ध कराया हुआ है ? जन सामान्य की बात तो दूर रही, भारतीय प्रशासकीय/पुलिस सेवाओं के सदस्यों (अर्थात् कलेक्टर और एस पी) सहित, निर्वाचन प्रक्रिया सम्पन्न कराने वाले, लगभग शत-प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि, समस्त प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का अधिकार मतदाताओं को दिया गया है ।
मताधिकार कानून की धारा 49 (ओ) के अधीन मतदाता, मतदान न करने के अधिकार का उपयोग कर, विकल्पहीनता अंकित करा सकता है । अर्थात् आप मतदान केन्द्र पर जाकर, मत-पत्र प्राप्त कर, उसका उपयोग किए बिना, उसे जस का तस, पीठासीन अधिकारी को सौंप कर कह सकते हैं कि आप, प्रस्तुत प्रत्याशियों में से किसी को भी निर्वाचन योग्य नहीं मानते इसलिए, मतदान हेतु अपनी उपस्थिति अंकित कराने के बाद भी मतदान नहीं करना चाहते । किन्तु अपना यह मन्तव्य प्रकट करने के लिए आपको, पीठासीन अधिकारी से फार्म 17-ए प्राप्त कर, उसे भरकर, पीठासीन अधिकारी को सौंपना पड़ेगा । चुनाव परिणाम घोषित करते समय, ऐसे मतों की संख्या पृथक से सूचित करने का स्पष्ट प्रावधान है । किन्तु, जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस अधिकार की सार्वजनिक जानकारी शून्य प्रायः ही है । इसलिए इस महत्वपूर्ण अधिकार का उपयोग कोई नहीं कर पाता ।
हमारी सुनिश्िचत धारणा है कि उपरोक्त अधिकार का उपयोग करने के लिए प्रक्रिया जान बूझ कर अदृश्य जैसी, अवास्तविक, अत्यधिक क्लिष्ट और असुविधाजनक है । इतनी असुविधाजनक कि कोई इसके बारे में जानना भी नहीं चाहता - न तो मतदाता और न ही मतदान प्रक्रिया सम्पन्न कराने पाले लोग । ऐसे में यह अधिकार उपलब्ध कराना, औपचारिकता का निर्वाह मात्र है और इसका अनुभूत लक्ष्य है कि भारतीय मतदाता इसका उपयोग न करें ।
इस परिप्रेक्ष्य में हमारी माँग रही है कि मतदाताओं को यह अधिकार प्रत्यक्षतः, स्पष्टतः और असंदिग्ध रूप से उपलब्ध कराया जाए । इस हेतु, लोक सभा/विधान सभा चुनावों के मतपत्रों/इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में, प्रत्याशियों के नामों/चुनाव चिह्नों के बाद ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प भी मतदाताओं को उपलब्ध कराया जाए । हमारा तर्क है कि इस सन्दर्भ में मतदाताओं को राजनीतिक दलों की मनमानी (इसे ‘तानाशाही’ कहना अधिक उपयुक्त होगा) झेलनी पड़ रही है । प्रत्याशियों के चयन का प्रमुख आधार ‘जीतने की सम्भावना’ बन गया है । फलस्वरूप भले, ईमानदार, चरित्रवान्, विषय के ज्ञाता, कर्मठ लोग नेपथ्य में धकेले जा रहे हैं और ‘धन-बली’, ‘बाहु-बली’, ‘अपराध-बली’ विधायी सदनों में छा गए हैं । मतदाताओं को, ‘प्रस्तुत प्रत्याशियों में सबसे कम खराब’ को चुनने के लिए विवश कर दिया गया है । सम्भवतः यही कारण है कि असंख्य लोग मतदान नहीं करते ।
हमारी माँग है कि मताधिकार का उपयोग करने वालों में से 50 प्रतिशत अथवा अधिक मतदाता यदि ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प चुनते हैं तो उस दशा में वह निर्वाचन निरस्त कर वहाँ पुनर्निवाचन कराया जाना चाहिए और तब, अस्वीकार किए जा चुके प्रत्याशी इस पुनर्निवाचन में प्रत्याशी नहीं बन सकेंगे ।
हमारे समूह के कुछ मित्रों ने सूचित किया कि, भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री गोपालस्वामी ने गत दिनों पत्रकारों से सामुख्य में सूचित किया कि, ‘आयोग’ ने भारत शासन को जिन चुनाव सुधारों की सूची भेजी है उनमें ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प, मत पत्र पर उपलब्ध कराने का सुझाव भी शामिल है ।
हम लोगों ने परस्पर बधाई दी । लेकिन हम सब भली भाँति जानते हैं कि लक्ष्य प्राप्ति अत्यधिक कठिन है । 'शासन' इस सुझाव को सहजता से स्वीकार नहीं करेगा । इसे विडम्बना कहें, विसंगति कहें, विरोधाभास कहें अथवा विद्रूप, किन्तु सत्य (और सबसे बड़ी बाधा भी) यही है कि इस सुझाव को स्वीकार करने न करने का अधिकार उन्हीं को है जिन्हें निरस्त/अस्वीकार करने का अधिकार माँगा गया है । वे भला इसे कैसे और क्यों स्वीकार करेंगे ?
लेकिन, चूँकि ‘जन्नत की हकीकत’ हम सब जानते हैं इसलिए हम लोग तनिक भी निराश नहीं हैं । इस समाचार ने हमारा उत्साह सहस्रगुना कर दिया है ।
हम सब जानते हैं कि हमारा नियन्त्रण केवल प्रयत्नों पर है, परिणाम पर नहीं । यह दोहा हमारा उत्साहवर्द्धन कर रहा है -
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।
रसरी आवत-जात ते, सिल पर होत निसान ।।
हमें सफलता मिलनी ही है । वह जल्दी मिल जाए, यही हमारा प्रयत्न है ।
मुझे विश्वास है कि आपमें से अधिसंख्य लोग भी इस माँग से सहमत होंगे । यदि वास्तव में ऐसा हो तो मेरा आपसे आग्रह है कि आपमें से प्रत्येक, अपनी ओर से, भारत सरकार को लिखे कि भारत निर्वाचन आयोग का यह प्रस्ताव अविलम्ब जस का तस स्वीकार कर, आज के बाद फौरन आने वाले चुनावों में मतदाताओं को यह अधिकार उपलब्ध कराए ।
कृपया याद रखिएगा कि हमारी व्यवस्था कागज से चलती है । इसलिए, केवल कहने से काम नहीं चलेगा, लिख कर ही देना पड़ेगा - जैसे कि हम लोग गए तीन-साढ़े तीन वर्षों से लगातार लिख रहे हैं । आपका एक पत्र, देश के राजनीतिक चित्र और चरित्र को अपेक्षित (और सर्व प्रतीक्षित) स्वरूप प्रदान करने में सहायक होगा ।
(चूँकि हमारी यह माँग, चुनाव आयोग ने चुनाव सुधारों के अपने प्रस्तावों में सम्मिलित कर ली है इसलिए हम लोग इसे सार्वजनिक कर रह हैं ।)
कृपया मेरा दूसरा ब्लाग मित्र-धन
मैं सहमत हूं। दो महिने पहले एक सुलझे हुए पत्रकार ने यह जानकारी दी थी। उन्होने इस पर एक अच्छी रिपोर्ट भी बनाई मगर किन्ही जालों में वह फंस गई।
ReplyDeleteबैरागी जी, वैसे तो फॉर्म १७ की बात हमें मालूम ही नहीं थी, पर ऐसे किसी विकल्प के बारे में मैं सोचा ज़रूर करता था. पर एक कसर आपसे रह गई..............
ReplyDeleteवह यह की अगर कोई भी उम्मीदवार पसंद न आए तो मतदाताओं को उन्हें नापसंद करने का अधिकार हो. साथ ही उम्मीदवारों सहित उक्त सीट की चुनावी प्रक्रिया में भाग ले रहे सभी राजनैतिक दलों को भी पुनः करवाई जाने वाली चुनाव प्रक्रिया से वंचित कर दिया जाए. इससे सभी पार्टियाँ अच्छी छवि वाले उम्मीदवार उतारने बाध्य होंगी.
विष्णु भाई , १७ अ फार्म भरने वाले 'मत' दाताओं के मतों की गिनती होगी अथवा नहीं (मौजूदा नियमों के तहत), यह बतायें । फिलहाल मतदान एजेन्टों द्वारा किसी के मताधिकार को चुनौती दिए जाने पर , मतपत्र लिफाफे में सील किया जाता है तथा हार जीत का अन्तर लिफाफे वाले वोटों से कम होने पर ही उसकी गिनती होती है । एक समूह द्वारा १९८० के चुनाव में 'अस्वीकृति का अधिकार' का प्रयोग करने की जानकारी थी ।
ReplyDeleteसकारात्मक राजनीति का तकाजा है कि आप अच्छे दल और उसके सही उम्मीदवार को जनता के समक्ष प्रस्तुत कर सकें । राजनीति के प्रति नकारात्मक भाव को बढ़ावा देना लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा। लंगड़ा-लूला जैसा भी हो लोकतंत्र अन्य शासन प्रणालियों से बेहतर है ।
कोई नहीं के विकल्प की उपलब्धता एक क्रांतिकारी कदंम होगा। हमें इस के लिए अधिकाधिक प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ तक कि प्रत्येक भाग के मतदाताओं का एक विधिक संगठन भी होना चाहिए, जिस के माध्यम से चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी प्राप्त हो।
ReplyDeleteलोकतंत्र में चुनाव की प्रक्रिया के दौरान, बिना इलेक्ट्रानिक मशीन के जब किसी भी प्रत्याशी को वोट न देने की इच्छा हो, तो सभी चुनाव चिन्हों पर सील लगाकर अपने मत को खारीज करवाते हुए भी वोटींग में शामिल हुआ जा सकता था।
ReplyDeleteलेकिन उसका अर्थ इनमें से कोई नहीं के स्थान पर खारिज मत निकलता था पर अब इनमें से कोई नहीं का एक अलग चिन्ह और मशीन पर एक अलग बटन होने से चुनाव के पश्चात् निष्कर्ष निकालने में आसानी होगी।
लेकिन क्या यह सैनिक शाशन व तानाशाही की और पहला कदम है? इसी सन्दर्भ में मेरा एक आलेख आतंकवाद पर मीडिया और नेताओं की भूमिका देखें।
यह तो वाकई उत्साहवर्धक खबर है. कम से कम प्रस्ताव स्तर पर तो आया. बहुत बधाई. इन्तजार रहेगा जब यह कानून बन कर ’कोई नहीं का विकल्प सामने आये और लोग उसका खुल कर प्रयोग करें.
ReplyDeleteइस प्रावधान की जानकारी तो थी लेकिन उसके नियम क़ायदे देख उत्साह जाता रहा. "इनमे से कोई नहीं" वाला प्रावधान यदि आ जावे तो वास्तव में यह एक क्रांतिकारी व्यवस्था बन जाएगी. अंतरजाल के माध्यम से संयुक्त पेटिशन का भी प्रावधान है. संभवतः द्विवेदी जी सहायक हो सकेंगे.
ReplyDeleteजयप्रकाश नारायण जी ने राइट टु रिकाल का मुद्दा उछाला था. परंतु तब के नेताओं ने इसे रद्द कर दिया था। अब भी नेता लोग आडे आएंगे ही।
ReplyDeleteमताधिकार कानून की धारा 49 (ओ)का प्रयोग मुझे उपयुक्त जान पड़ता है। इसका प्रयोग मैं सम्भवत: करूं। जानकारी के लिये धन्यवाद।
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