पहले, ‘पत्रिका’ (इन्दौर, नगर संस्करण) के दिनांक 17 दिसम्बर 2008 के पृष्ठ 15 पर, ‘दलित दूल्हे को नहीं चढ़ने दिया घोड़ी पर’ दो कालम शीर्षक से प्रकाशित यह समाचार -
‘छतरपुर, पत्रिका ब्यूरो । प्रशासनिक तन्त्र की लाख कोशिशों के बावजूद बुन्देलखण्ड में सामन्तशाही ताकतों पर अंकुश नहीं लग रहा । इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब एक दूल्हे को दबंगों ने सिर्फ इसलिए घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया क्योंकि वह दलित था । हालांकि दूसरे दिन उसकी शादी तो हुई लेकिन पुलिस की संगीनों के साए में ।
बक्स्वाहा थाना क्षेत्र के ग्राम सुनवाहा निवासी नन्नू अहिरवार के पुत्र गणेश (25) का विवाह मंगलवार को उड़ीसा निवासी बालकिन अहिरवार की पुत्री सुषमा के साथ होना तय हुआ था । लड़की पक्ष पुत्री के साथ सुनवाहा आ गया था । बुन्देलखण्ड में विवाह के एक दिन पूर्व दूल्हे को घोड़े पर बैठा कर गाँव में घुमाने की रस्म है, जिसे राच कहा जाता है । सोमवार को दूल्हे को घोड़ी पर बैठाकर गाँव में घुमाया जा रहा था जो गाँव के दबंगों को नागवार गुजरा । दबंग कोमलसिंह लोधी, काशी राम, हरबल लोधी आदि ने दूल्हे परिजनों से उसे घोड़े से उतारने को कहा लेकिन परिजनों के मना करने पर वे भड़क गए । उन्होंने दूल्हे को घोड़े से उतारकर पीटना शुरु कर दिया । कारण पूछने पर आरोपियों ने कहा कि गाँव में दलितों को घोड़े पर घुमाने का रिवाज नहीं है । घटना के बाद भयभीत दलित परिवार पूरे समाज सहित बक्स्वाहा थाने पर पहुँच गया । पुलिस के वरि’ठ अधिकारी बक्स्वाहा पहुँचे और पुलिस के साए में वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न कराने का आ”वासन दिया । मंगलवार को एसडीओपी व थाना प्रभारी के. सी. छाड़ी की मौजूदगी में समस्त वैवाहिक कार्यक्रम हुए ।’
यह कोई अनूठा और असामान्य समाचार नहीं है । ऐसे समाचार, देश में (विशेषकर उत्तर भारत में) कहीं न कहीं, प्रतिदिन बनते/छपते रहते हैं । समाचारों के शीर्षक बनने से अधिक कहीं कुछ होता होगा, ऐसा अब तक अनुभव नहीं हुआ । विवाद का विषय जैसे ही निपटा कि समूचा प्रकरण ठण्डे बस्ते में चला जाता है । न तो पिटने वाले को याद रहता है, न पीटने वाले को । पुलिस भी ऐसे प्रकरणों को ‘रूटीन’ की तरह, उदासीनता और अनमनेपन से निपटाती रहती है (क्योंकि पुलिसकर्मियों में भी अधिसंख्य ‘सवर्ण हिन्दू’ ही होते हैं )। अधिसंख्य मामलों में तो, न्यायालय में साक्षी ही नहीं पहुंचते और अन्ततः प्रकरण येन-केन-प्रकारेण' अपनी ‘गति’ प्राप्त कर लेता है ।
लेकिन कल्पना कीजिए, इस मामले में आरोपी यदि कमरुद्दीन, कमसिनअली और हकीम होते तो ? तो हिन्दू धर्म संकट में आ जाता, दोषियों को जीते जी मार डालने की सीमा तक पीटा जाता, उनके घर, खेत-खलिहान, दुकानें जला दी जातीं, आ”चर्य नहीं कि इसका प्रतिशोध उनके परिवार की स्त्रियों को सार्वजनकि रूप से अपमानित कर, लिया जाता, गाँव में प्रलय आ जाता और ‘कानून-व्यवस्था की स्थिति’ बन जाती ।
लेकिन 'ईश्वर की कृपा' है कि इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । याने, 'हिन्दू द्वारा हिन्दू पर किया गया अत्याचार' ईश्वर की कृपा' मान लिया जाना चाहिए ? रेखा गणित का सिध्दान्त तो इसी पर मुहर लगाता है ।
इस घटना के आवरण के पीछे से यह पक्ष अचानक ही सामने आ जाता है । हिन्दू समाज इसे ‘जाति व्यवस्था’ या ‘वर्ण व्यवस्था’ या ‘गाँवों की अपनी स्थापित परम्पराएँ’ कह कर मुक्ति पा लेता है । लेकिन इसका कड़वा पक्ष यह है कि हम यह भूल जाना चाहते हैं कि जाति, वर्ण, परम्परा, रूढ़ियाँ जैसे समस्त कारक, ‘धर्म’ की पालकी से ही हमारे आँगन में उतरते हैं ।
कोई अहिन्दू (विशेषकर इतर धर्मानुयायी) किसी हिन्दू पर अत्याचार करे तो वह धर्म पर आक्रमण और यदि कोई हिन्दू किसी हिन्दू पर अत्याचार करे तो वह रीति-रिवाज, परम्परा, वर्ण व्यवस्था का अंग ! यह उचित है ? यदि हाँ तो हम ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ वाली उक्ति को ही चरितार्थ नहीं कर रहे हैं ? क्या अत्याचार का निर्धारण भी धार्मिक आधारों पर होगा ? धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने वालों को ऐसे प्रकरण क्यों नहीं आकर्षित करते ? ऐसे प्रकरणों में अपेक्षित, सकारात्मक और प्रभावी हस्तक्षेप करना उनकी क्षमता से बाहर है या निहित स्वार्थों की परिधि से बाहर ?
जिस प्रकार, ‘इस्लामिक आंतकवाद’ और/अथवा ‘मुस्लिम आतंकवादी’ जैसे ठप्पे से मुक्ति पाने के प्रयास, इस्लाम मतावलम्बियों/मुसलमानों का सहज उत्तरदायित्व है उसी प्रकार हिन्दू धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे अमानुषिक अत्याचारों से मुक्ति पाने का जिम्मा उन लागों/संगठनों का क्यों नहीं है जो हिन्दू धर्म की ठेकेदारी करते हैं ?
मैं जानता हूँ कि इस बात पर मेरी ‘जमकर धुनाई और धुलाई’ होगी किन्तु ऐसे समय यह याद रखा जाना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर ऐसे अधार्मिक दुष्कृत्य करने वालों में सभी राजनीतिक दलों के समर्थक होते हैं ।
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बुंदेलखंड में तो किसी ठाकुर के घर के सामने से कोई दलित चप्पल या जूते पहन कर नहीं जा सकता.
ReplyDelete"जिते देखो उते राजा" इतने सारे राजा हमने भारत में कहीं नही देखे. और पीड़ित है प्रजा जिनमे दलित ही अधिक हैं.
बडे शर्म की बात है भाई। ऐसे लोगों को तो भगवान ही इंसाफ देगा देखते रहना। इन ज़ालिमों के ख़िलाफ आप अपनी कलम का युद्ध जारी रखना आपकी लेखनी रंग लाएगी।
ReplyDeleteचलिये इसी बहाने आपने भी इस्लामिक आतंकवाद का नाम लिया तो सही. सारी दुनिया इसे मान रही है लेकिन कांग्रेसी, चाराचोर और दलालों के दल वोटो की दलदल में फंसे खुर्राट राजनेता इसके लिये आंखें मूंदते रहे हैं.
ReplyDeleteजिन्होंने एसे कृत्य किये हैं उन्हें जेल में भेजने के साथ जूते भी मारने चाहिये और साथ ही कांग्रेसियों को भी जिनके साठ साला कुशासन में देश सठियाया तो लेकिन इन अपराधों को नहीं मिटा सका जबकि तुर्की जैसा पोंगापंथी पर चलने वाला देश अपनी पोंगापंथी का लबादा उतार कर फैंक चुका है.
वैसे अगर ये अपराध करने वाले मुसलमान होते तो कुछ नहीं होता. आरोपी यदि कमरुद्दीन, कमसिनअली और हकीम होते तो कुछ भी नहीं होता. इनके लिये कांग्रेसी, चाराचोर और दलाल सेकूलरिये और एनजीओ वाले छाती पीटना शुरू कर देते. आप भी तो कांग्रेसियों के साथी रहे हैं इसे अच्छी तरह समझते और जानते होंगे.
आपको अन्तुले की पुरानी यादें तो होंगीं! ये बेईमान कांग्रेसी इन्दिरा प्रतिष्ठान के नाम पर रकम चुराते "पकड़ा" गया था और इसे इंदिरा ने लात मार कर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद से लात मार कर बाहर कर दिया था. (चुराया था सो सही क्योंकि कांग्रेसी चोर तो होते हैं लेकिन पकड़ा क्यो गया?)
कल इसने मुसलमानों के अठारह प्रतिशत वोटों के लालच में जो खटराग छेड़ा है इस पर आपकी क्या राय है?
जिस प्रकार, ‘इस्लामिक आंतकवाद’ और/अथवा ‘मुस्लिम आतंकवादी’ जैसे ठप्पे से मुक्ति पाने के प्रयास, इस्लाम मतावलम्बियों/मुसलमानों का सहज उत्तरदायित्व है उसी प्रकार हिन्दू धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे अमानुषिक अत्याचारों से मुक्ति पाने का जिम्मा उन लागों/संगठनों का क्यों नहीं है जो हिन्दू धर्म की ठेकेदारी करते हैं ?
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न मुसलमान अपना दायित्व निभाते हैं, न हिन्दू।
क्या हम वाकई आज़ाद है।
ReplyDeleteबाप रे बाप! अब बुन्देल खंड में भी दलित घोडी़ पर बैठ तोरण मारने लगे। सवर्णों को तो डूब मरना चाहिए या फिर घोड़ी का ही त्याग कर देना चाहिए।
ReplyDeleteआखिर हम घोड़ी पर बैठ तोरण मारने के इस नाटक का क्यों अनुशीलन करते जा रहे हैं। जब की अब तो अंतरिक्ष यान बैठने के लिए उपलब्ध हैं। इस झूठी शान से ही मुक्ति प्राप्त कर लेनी चाहिए। आखिर वह व्यवहार जो मनुष्यों को श्रेणियों में विभाजित करता है निन्दनीय है।
आमूल मानसिक परिवर्तन के बाद ही सामाजिक सुधार सँभव होगा
ReplyDeleteये झूठी शान क्या काम की जब तक इतने सारे भूखे और बेरोजगार
भरे पडे हैँ ?
जो उनका उध्धार करेगा
वही उच्च स्तर का मानव
कहलाने के काबिल है
बाकि तो जन्म जात
सवर्ण के वर्ण से
क्या लाभ होगा पिछडे समाज को ?
- लावण्या
आपने हिन्दू जीवन के एक बड़े विपर्यय की और इंगित किया है - हमारी सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि हम अपनों से ही बैर रखते आए हैं और इसलिए ही आक्रान्ताओं के विरूद्ध कभी भी एकजुट नही हो सके हैं ! आज भी ये घटनाएँ घट रही हैं कितना क्षोंभजनक है !
ReplyDeleteSuch a shame! कहाँ गए भारतीय संस्कृति के वे मूल्य जिनसे पशु-पक्षियों-पौधों में भी ईश्वर दीखता था?
ReplyDeleteहिन्दू धर्म में जाति के आधार पर भेद भावः तथा कास्ट सिस्टम को किसी भी प्रकार से justify नहीं किया जा सकता. यह एक बड़ा कलंक है भारतीय (हिन्दू) समाज पर. लेकिन इसलाम आतंकवाद एक अलग महामारी है जो विशव को उगलने को तैयार खड्डी है, उसका इस बात से कोई प्रसंग नहीं.
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