यह ‘आसमानी-सुलतानी’ ही थी । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ।
यह परसों, 12 दिसम्बर की रात की बात है । एक विवाह भोज में उपस्थित होना था । समूचा आयोजन ‘भव्य’ की परिभाषा को अधूरी और अपर्याप्त साबित कर रहा था । अगहन पूर्णिमा का चन्द्रमा, मध्याकाश की यात्रा पूरी कर रहा था । घड़ी के काँटे नौ-सवा नौ बजने की सूचना दे रहे थे । भोजन तो करना नहीं था किन्तु मेजबान के भय से, चुपचाप खड़े रह पाना भी सम्भव नहीं था । सो, ‘चना-चबैना’ की तरह ‘कुछ-न-कुछ’ खाते दिखते हुए हम कुछ लोग, अभी-अभी ही सम्पन्न हुए विधान सभा चुनाव की बातों के सहारे खड़े, बतिया रहे थे ।
तभी मेरा मोबाइल घनघनाया । व्यस्त दिखने के लिए यह भी बड़ा सहारा था । अविलम्ब ही फोन ‘अटेण्ड’ किया । उधर से बड़े ही औपचारिक अन्दाज में (मानो मशीनी)आवाज आई - ‘विष्णु बैरागीजी बोल रहे हैं ?’ आसपास खड़े मित्रों पर, व्यस्त होने का रौब गालिब करने के लिए, तनिक इतराते-इठलाते हुए मैं ने जवाब दिया - 'जी हाँ ! विष्णु बैरागी बोल रहा हूँ ।' उधर से इस बार जो आवाज आई उसमें से औपचारिकता मानो अन्तर्ध्यान हो गई और उसका स्थान ‘ऊष्मापूर्ण आत्मीयता और सहजता’ ने ले लिया । नमस्कार-अभिवादन को परे ठेलते हुए आवाज आई - ‘विष्णु भाई ! जबलपुर से समीर बोल रहा हूँ ! समीरलाल ।’
आवाज ने जादुई प्रभाव किया । मित्रों पर रौब गालिब करने के लिए ओढ़ी गई इतराहट-इठलाहट, गर्म तवे पर पड़ी पानी की बूँद की तरह ‘छन्न’ करती हुई अचानक ही गायब हो गई । मेरी मुख-मुद्रा ही नहीं, बोली और बोलने का अन्दाज ऐसे बदल गया मानो मेरा कायाकल्प हो गया । ‘भव्य’ को परास्त कर रहे आयोजन की चकाचौंध मानो कोसों दूर चली गई, शहनाइयाँ बजने लगीं और मेरे आसपास शहद की नदियाँ बहने लगी हों ।
यह मेरे लिए अकल्पनीय था । चिट्ठाकारों के उत्सावर्ध्दन का मसीहा, अनुकरणीय आदर्श पुरुष मुझसे बात कर रहा था । पल-दो पल तो मेरे बोल ही नहीं फूटे । आनन्दावेग ने मानो गूँगा कर दिया । लेकिन मेरी चुप्पी मेरे लिए अवर्णनीय क्षतिकारक हो सकती थी । सो, उत्तर तो दिया लेकिन मैं ने तत्क्षण ही अनुभव किया कि उत्तर देते समय मेरे अन्दर बैठा अबोध शिशु ऐसे किलकारी मारता उछल कर बाहर आ गया मानो उसे मुँह-माँगा खिलौना मिल गया हो । मैं विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि ‘उड़न तश्तरी’ मेरे माथे पर मँडरा रही है ।
बात शुरु हुई और समाप्त भी हो गई - मुश्िकल से दो-ढार्द मिनिट का सिलसिला रहा । लेकिन मुझे लग रहा था कि मेरे जिह्वाग्र पर जिज्ञासाओं का अनियन्त्रित प्रलय आ गया है जो एक पल में ही मोबाइल पर उतर जाने को मचल रहा है, समीरजी की कोई बात सुनने से पहले, अपनी सब कुछ सुना देना की चाहत में । समीर भाई ने सम्भवतः मेरी दशा का अनुमान पूरी तरह लगा लिया था । उनकी खनकदार, बारीक हँसी बार-बार मेरे कान में गूँज रही थी और मैं बावलों की तरह ‘कुछ तो भी’ बोले जा रहा था ।
उन्होंने मुझसे मेरा मोबाइल नम्बर माँगा था - मेरी किसी पोस्ट को लेकर या उनकी किसी पोस्ट पर की गई मेरी टिप्पणी को लेकर । मैं ने यही ‘मान कर’ अपना मोबाइल नम्बर उन्हें दिया था कि छोटों को प्रोत्साहित करने का, यह भी एक तरीका होता है बड़े लोगों का । धारणा यही बनी हुई थी कि वे भारत आएँगे तो अपने बीसियों काम और असंख्य अपनेवालों से मिलने की पूर्व निर्धारित व्यस्तता लेकर आएँगे । उस सबके बीच, मुझे फोन करने की बात तो दूर रही, मेरा मोबाइल नम्बर भी वे साथ लेकर आएँगे, यह विश्वास किंचित मात्र भी नहीं था ।
लेकिन समीर भाई ने मरा ‘मानना’ और मेरी ‘धारणा’ दोनों का ध्वंस कर दिया था । मेरा शरीर अगहन पूर्णिमा की चाँदनी में स्नान कर रहा था तो मन, उपरोक्त ‘ध्वंस’ से उपजी चाँदनी से भीगा हुआ था । कोई ‘ध्वंस’ भी आनन्ददायी हो सकता है, यह मैं ने पहली ही बार जाना ।
चर्चाओं में मैं ने समीर भाई को रतलाम आने का न्यौता दिया । जब मालूम हुआ कि वे फरवरी तक भारत में रहेंगे तभी याद आया कि फरवरी में मुझे भी जबलपुर जाना पड़ सकता है । सोचा, यदि जाना पड़े तो कितना अच्छा हो कि उन्हीं तारीखों में जाना हो जब समीर भाई जबलपुर में ही हों । उन्होंने रतलाम यात्रा की सम्भावनाएँ टटोलने का आश्वासन दिया । उन्हीं ने बताया था कि वे अपने जीवन के प्रारम्भिक समय में, रतलाम रह चुके हैं और ‘अपना वतन’ देखने की ललक उनके मन में है ।
मुझे नहीं पता कि हम दोनों आमने-सामने हो पाएँगे अथवा नहीं । यह भी सच है कि इस फोन सम्वाद से हम दोनों के जीवन में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आएगा । लेकिन मुझे यह फोन सम्पर्क तनिक महत्वपूर्ण लगता है ।
ब्लाग पर प्रदर्शित उनके चित्रों से अनुमान लगा रहा हूँ कि आयु में वे मुझसे कम ही होंगे । लेकिन उनसे मेरे सम्पर्क का कारण और माध्यम ‘ब्लाग’ है और ‘ब्लाग जगत्’ में मेरी आयु तो अभी दो वर्ष की भी नहीं है । इस लिहाज से, समीर भाई मेरे ‘वरिष्ठ’ और ‘अग्रज’ जैसे विशेषणों को ‘योजनों कोस’ पीछे धकेल कर मेरे ‘जीवित पूर्वज’ की श्रेणी में आते हैं ।
कोई ‘कुल पुरखा’ अपने वंशजों की पूछ-परख करे, उनका कुशल क्षेम जाने, उनकी बेहतरी की चिन्ता करे - यही तो है भारतीयता और भारतीय परम्परा ! अपनी मिट्टी का और अपनी परम्पराओं का मोल और महत्व, अपनी मिट्टी से दूर रहने पर अधिक सम्वेदनशीलता से अनुभव होता है ।
अगहन पूर्णिमा की रात, मोबाइल के जरिए, यही अनुभव मुझ तक पहुँचा है । अनुभव तो समीर भाई का और इससे उपजा आनन्द मेरा रहा ।
अपने से बेहतर कोई आदमी जब आगे रहकर आपसे सम्पर्क करे - इसे ही तो सौभाग्य कहते हैं ! धन्यवाद समीर भाई ! आपने मुझे समृध्द किया । रतलाम में आपकी अगवानी करने के लिए मैं उतवाला बैठा हूँ ।
सूचित कीजिए, कब आ रहे हैं ।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
कृपया मेरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com पर भी एक नजर डालें ।
बधाई हो उडनतश्तरी आने के लिये! शायद यह शुभ अवसर मेरे जीवन में भी आयेगा! :)
ReplyDeleteमैं आपके आह्लाद की अनुभूति कर सकता हूँ क्योंकि अभी कुछ दिनं पहले ही मैं भी ऐसे ही आह्लाद भरे क्षणों से गुजरा हूँ -एक बहुत ही लाऊड एंड क्लियर अनौपचारिक सी आवाज ने मुझे भी सहसा सर्वान्गरूपेण सचेष्ट कर दिया था -मैं समीर लाल बोल रहा हूँ !
ReplyDeleteहिन्दी ब्लागिंग ने एक नयी ब्लागिंग बिरादरी को जन्म दिया है। यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है।
ReplyDeleteadarniya visnu ji sadar namaskar blog par tippani ke liye dhanyawad apka blog dekha aur maja aa gaya ab regular visit karta rahunga aur apki lekhni ka anand uthata rahunga
ReplyDeleteब्लोगिस्थान के अमिताभ बच्चन अपने समीर जी से हुई वार्तालाप जो आपने शब्दों मे उकेरी उसके लिए आप बधाई के पात्र है .होने वाली मुलाक़ात का भी आँखों देखा हॉल का इंतज़ार है .
ReplyDeleteद्विवेदी जी से सहमत हूँ.ब्लागर एक-दुसरे के करीब आ रहे है और एक परिवार् का रूप ले रहे हैँ.
ReplyDeleteपुसदकर जी से सहमत और बैरागी जी को बधाईयाँ…
ReplyDeleteयह सच है कि ब्लाग्स आपसी मेल मिलाप और भाई चारा स्थापित करने के लिए सशक्त माध्यम साबित हो रहा है. ब्लागजगत के माध्यम से मेरा भाई समीर से परिचय हुआ उसके पश्चात उनसे मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है . अभी समीर जी जबलपुर में है . भाई समीर जी नव ब्लागर्स के लिए प्रेरणाश्रोत है और काफी मिलनसार है .
ReplyDeleteकभी मेरे ब्लॉग समयचक्र और निरंतर में पधारने कष्ट करे.
महेंद्र मिश्रा,
जबलपुर.
उडन तश्तरी हमेशा ही हम सभी के लिए कौतूहल का विषय रही है । आपने चलायमान यंत्र के माध्यम से हुए आकाशीय मेल मिलाप का अद्भुत शब्द चित्र उकेरा है । हम तो इस आलेख से ही उस मुलाकात की गर्माहट को महसूस करके हर्षित हो रहे हैं ।
ReplyDeleteउडन तशतरी जैसे आप पर टूटी[प्रसन्न] ,वैसे ही सब पर टूटे । कह्ते को , सुनते को , हुंकारे भरते को ...। चंदन की चौकी मोतियों के हार । अथ श्री ’उडन तश्तरी कथ” ब्लागरों के जीव को आधार ..... ।
क्या चीज है ऊड़न तश्तरी! और मैने श्रीमती उड़न तश्तरी को और भी आकर्षक व्यक्तित्व का धनी पाया!
ReplyDelete
ReplyDeleteमैं भी अपना नम्बर वम्बर देकर कान बिछाये बैठा हूँ !
देखिये वह शुभ घड़ी कब आती है ?
कुछ लोगों को मित्रों की ही पत्नियाँ अच्छी क्यों लगने लगती हैं, जी ?
.
ReplyDeleteऐसा सजीव चित्रण देख कर बिना टिप्पणी दिए नही रहा गया| अत्यन्त सुंदर आलेख है|
ReplyDeleteउड़न-तश्तरी से मिलने के लिए बधाई|
अमित
पुसदकर जी दिनेश जी से सहमत..
ReplyDeleteचिपलूनकर जी पुसदकर जी से सहमत..
और मैं चिपलूनकर जी से सहमत..
जब समीर जी आयें और आप उनसे मिलें तो आगे का किस्सा सुनाना ना भूलें.. :)
वैरागियों को इतना मोह उचित नही ,वर्जित भी है | खैर तपस्या का प्रथम चरण सफल हुआ अभी "आकाश - वाणी " हुई है ,तपस्या करे साक्षात् भी हो जायेगा !
ReplyDeletetumare lekh ache lagate the. par tumaaree aesi polsanbazi dekh tumare chhichhalepan kaa gyan mil gayaa. itana to koi bhagwaan milane par bhi n uchhale. dhikar hai.
ReplyDelete