उजास की काली परछाइयां
































ये चित्र एक बारात की शोभा-यात्रा के हैं । इनमें उजाले की काली परछाइयाँ और सम्पन्नता के भव्‍‍‍य प्रासाद की नींव में दबी विपन्नता अनायास ही दृष्टिगोचर हो जाती है । रोशनी ढो रही सारी बच्चियां 'बाल श्रमिक' की श्रेणी में आती हैं ।

इस बारात में आभिजात्‍‍य वर्ग के प्रभावी लोग तो शरीक थे ही, कलम की कूची से सम्वेदनाओं के चित्र कागज पर उकेरने वाले भावुक ह्रदय लोग और कानूनों का मैदानी अमल कराने वाले प्रशासकीय अधिकारी भी बडी संख्या में शामिल थे ।

बारातियों के नाचने के दौरान आराम कर रहीं बालिकाएं मानो कह रही हों - ईश्‍‍वर बारातियों को देर तक नाचने की सद्बुध्दि दे ।' तो कहीं कहती लग रही हैं - 'माथे का बोझ कमर पर ले लिया । आपने टोका नहीं । शुक्रिया ।' एक बच्ची माथे पर रोशनी लिए मानो कह रही है - 'रोशनी माथे पर ढो रही हूं ताकि उजाला देखने के लिए जीवित रह सकूं ।'

पहले चित्र में, कमर पर बोझा लिए, हंसते हुए आपस में बातें कर रहीं बाल श्रमिकों की हंसी मानो अभावों और विपन्‍नता को अंगूठा दिखा रही हो ।

ये चित्र सिलसिलेवार प्रस्तुत कर, इनके साथ उचित केप्‍‍शन दूं - इस हेतु सवेरे से कोई तीन घण्टों तक प्रयासरत रहा किन्‍तु तकनीकी अज्ञान ने सफल नहीं होने दिया । सो, कृपया इन्‍हें, इस अनगढ स्‍वरूप में देखने का परिश्रम कर लीजिएगा और मुझे क्षमा कर दीजिएगा ।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्‍‍लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया उसकी एक प्रति मुझे अवश्‍‍य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्‍‍स नम्‍‍बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

कृपया मेरा ब्लाग 'मित्र-धन' http://mitradhan.blogspot भी पढें ।

























11 comments:

  1. विष्णु जी, बहुत बहुत धन्यवाद!
    शर्म तो आती ही है मगर इन बच्चों की कर्मठता देखकर गर्व भी होता है - काश इन्हें थोडा भी सहारा मिल पाये तो यह बच्चे पहाडों से गंगा उतारने में सक्षम हैं.
    जो लोग अपने बच्चे को ज़मीन पर पाँव नहीं रखने देते वे इन बच्चों को नंगे पैर कांच-कंकडों पर इतना बोझ और बिजली के जीवित तारों का जानलेवा ख़तरा देखकर भी कैसे अनदेखा कर सकते हैं - खासकर हमारे नौकरशाह?

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  2. इन बाल श्रमिकों के प्रति आपकी संवेदनशीलता सराहनीय है.

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  3. यह व्यवस्था का विद्रूप है। लेकिन उन रोशिनियों को उठाती हुई लड़कियों की सजीवता जीवन की अक्षुण्णता को प्रमाणित करती है कि यह जीवन भी कभी खिलेगा।

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  4. एक नन्ही लड़की किसी बारात में ऐसी ही लाइट उठाए हुए चल रही थी.. लाइट की वजह से सैकड़ो की तादाद में मच्छर उसके चेहरे के आस पास मंडरा रहे थे.. एक हाथ से उसने लाइट पकड़ रखी थी और दूसरे से वो मच्छर भगा रही थी.. उस दिन मान में एक अजीब सी टीस उठी थी..

    ये दृश्य में कभी नही भूल सकता.. शायद कभी हम लोग इस और भी कुछ ध्यान दे..

    इस लेख पर आपकी सोच हावी रही.. उम्दा सोच..

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  5. कभी कभी सोचता हूँ कब हमारा देश इतना आत्मनिर्भर ओर विकसित होगा जब ऐसे द्रश्य देखने को नही मिलेगे .....गरीबी ओर अशिक्षा इस देश की सबसे बड़ी बीमारी है

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  6. आपकी संवेदनशीलता सराहनीय है. कमी इन बच्चों में नहीं है ये तो अपने परिवार के लिये गौरव है। कमी अभिजात्य वर्ग में है जो मोमबत्ती जला कर कर्तव्य का प्रदर्शन कर हाथ धो लेता है।

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  7. कुछ सोचने को मजबूर करने वाली संवेदनशील पोस्ट|

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  8. स्तुत्य प्रयास ! पर मात्र शब्दों की जुगाली से का म नहीं चलेगा , न ही कोई समाधान निकलेगा . क्या हम ऐसे कार्य क्रमों का बहिष्कार करने का साहस जुटा पाएंगे जहाँ ऐसे शोषण के द्रश्य
    दिखाई देते हैं ? ' आप णे क ई क र णो , चा ल वा दो , ज सो चा ली र्यो '......की क्षुद्र मा न सिक ता के कारण ही
    शोषण बढ़ रहे हैं . किसी न किसी को तो सार्थक शुरुआत करना होगी और व ह कोई ' मैं ' क्यों नहीं ? पर
    हम परा न्मुखी हो ग ये हैं .

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  9. बहुत ही शर्म दायक,क्या सच मे हम ने तरक्की की है ??? मै अकसर ऎसी बातो पै लड पडता हुं, हम अपने बच्चो का कितना ख्याल रखते है, ओर इन्हे देख कर नफ़रत से मुंह फ़ेर लेते है, कहा है हमारी संवेदना....
    आप ने बहुत अच्छा लाम किया समाज को आईना दिखया,
    धन्यवाद

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  10. मन को कचोटने वाले दृश्य हैं ये
    वाकई हमारी अंतरात्मा मर गई क्या ?

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  11. मार्मिक स्टोरी.किसी ज़माने में प्रभात किरण के हाल सम्पादक प्रकाश पुरोहित ने भी धर्मयुग में इसी विषय पर एके लेख लिखा था...सालों हो गए..अवचेतन से हटता नहीं; दूसरों का उत्सव आबाद करने वालों के घरों में कितने अंधेरे हैं
    हमें कहाँ मालूम.

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