फोन पर दूसरे छोर से नीरज ने पूछा कि मुम्बई पर हुए आतंकी आक्रमण पर मैं ने क्यों कुछ नहीं लिखा ? तत्काल उत्तर दिया कि सबने इतना लिख दिया कि मुझे लिखने को कुछ भी तो शेष नहीं रहा ! लेकिन उत्तर पूरा होता उससे पहले ही आत्मा ने झंझोड़ दिया । तत्काल क्षमा याचना की और कहा - लिखना चाहा था, लिखना शुरु भी किया था लेकिन लिख नहीं पाया । नीरज ने ‘पल-पलट’ प्रश्न किया - ‘क्यों ?’ असुविधाजनक प्रश्न से बचने का श्रेष्ठ उपाय है-उत्तर में प्रश्न कर लो । सो पूछा - ‘मेरी छोड़ो, तुमने कुछ लिखा ?’ नीरज ने फौरन पकड़ लिया - ‘आपसे उत्तर माँगा है । प्रश्न पूछ कर बचिएगा नहीं ।’
नीरज को जो उत्तर दिया, वही सर्वाजनिक कर रहा हूँ ।
एकाधिक बार लिखना शुरु किया और हर बार कुछ पंक्तियाँ लिख कर रहा गया । प्रश्नों का सहस्र फणधर, फुफकारें मारता सामने आने लगा - क्या पूछोगे ? किससे पूछोगे ? किस हैसियत में पूछोगे ? एक अंगुली सामने करोगे तो तीन तुम्हारी अपनी तरफ मुड़ेंगी । किसी से एक सवाल पूछने से पहले, किसी पर एक आरोप लगाने से पहले, किसी से एक अपेक्षा करने से पहले अपने आप में झाँको और जो भी पूछना-करना है, उससे तीन गुना अधिक पहले खुद से पूछो-करो ।
और सच मानिए ! मैं किसी से कुछ भी पूछने का, किसी पर कोई भी आरोप लगाने का, किसी से कोई अपेक्षा करने का साहस, पल भर को भी नहीं जुटा पाया । मेरा प्रत्येक प्रयास हर बार मुझ पर ही आकर समाप्त होता रहा ।
मैं किसे अपराधी मानूँ ? नेताओं को ? लेकिन उनका क्या दोष ? वे तो मेरे ही बनाए हुए है ! मैं उनकी प्रत्येक गलती को, प्रत्येक दुराचरण को, प्रत्येक स्खलन को देख कर भी अनदेखा करता रहा हूँ । उनके प्रत्येक अनपेक्षित और अस्वीकार्य आचरण पर मैं मात्र इसलिए चुप रहा कि पता नहीं कब नेताजी से काम पड़ जाए ? उन्हें टोकने पर मुझ क्षति/हानि झेलनी पड़ सकती थी । मैं ने उन्हें एक बार भी नहीं टोका और इसीलिए वे अपनी प्रत्येक करनी को सहज और लोक स्वीकार्य मान कर, मनमानी करते रहे । मैं ने ही तो उन्हें उच्छंृखल बन जाने दिया ! अब आज कैसे उन्हें जिम्मेदार घोषित कर दूँ ?
मेरा स्वार्थ सिध्द करने में सहायक बनते रहे प्रत्येक नेता के प्रत्येक दुराचरण का या तो मैं ने प्रतिकार नहीं किया या फिर दूसरे नेताओं के वैसे ही दुराचरण का हवाला देकर बचाव किया, उनका औचित्य सिध्द किया । मेरा उत्तरदायित्व था कि मैं अपने नेता को सदाचारी बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नरत रहता । लेकिन यह जिम्मेदारी मुझ अकेले की तो नहीं थी ? बाकी लोग यदि चुपचाप देख रहे हैं तो मैं ने भी समझदारी बरतनी चाहिए । मैं ने भी वही किया । अपनी बारी पर मैं ने तो गैरजिम्मेदारी बरती । अब नेता को गैरजिम्मेदार कैसे कहूँ ?
अफसरों को तो सवालों के घेरे में खड़ा कर ही नहीं सकता । वे तो नेताओं के भी नेता हैं । इसीलिए लोहियाजी नेताओं को ‘नौकरों के नौकर’ कहते थे । नेता लोग अफसरों के कहे पर चलते हैं, यह मुझे कभी अच्छा नहीं लगा लेकिन किसी को टोकने की हिम्मत भी नहीं कर सका । फिर, नेता तो ‘टेम्परेरी’ हैं और अफसर ‘परमानेण्ट’ ! जब मैं ‘टेम्परेरी’ को ही रोकता-टोकता नहीं तो ‘परमानेण्ट’ को रोकने-टोकने की तो सोच भी नहीं सकता !
आतंकी मेरे देश में अचानक, चुपचाप, यूँ ही तो नहीं घुस आए ? इन्हें सीमा पार कराने के लिए मैं ने मुँह माँगी कीमत वसूल की । यदि मैं सचमुच में अपने मुल्क की फिक्र कर रहा होता तो इनमें से कोई भी मेरी धरती पर पैर नहीं रख पाता ।
ये और ऐसी ही तमाम बातें मेरे सामने सवाल बन कर खड़ी होने लगीं । पहले तो मुझे घबराहट हुई, फिर खुद पर लज्जा आई, उसके पीछे-पीछे आया पछतावा और फिर ग्लानि ने डेरा डाल दिया । बची-खुची कसर, अपराध-बोध ने पूरी कर दी ।
लेकिन बात अभी भी पूरी नहीं हुई थी ।
देश को बचाने के लिए अपने प्राण होम कर देने वाले सपूत-शहीदों को प्रणाम करने के लिए उठे मेरे दोनों हाथ मानों मन-मन भर के हो गए । इन शहीदों और कार्यरत जवानों की चिन्ता मैं ने कभी नहीं की । उन्हें अपेक्षित सम्मान भी नहीं दिया । इनके परिजनों के प्रति मेरे व्यवहार में कभी भी अपेक्षित सौजन्य और शालीनता नहीं रही । इसके विपरीत, जब-जब भी इनके बारे में बातें हुईं तब-तब मैं ने हर बार अशिष्टता और निर्लज्जता से कहा कि इनकी सेवाओं की पूरी-पूरी कीमत मैं चुका रहा हूँ - इन्हें वेतन दे कर । ये लोग खुद अथवा इनके परिजन कभी मेरी दुकान पर सौदा-सुल्फ लेने आए तो मैं ने सदैव ही इन्हें औसत ग्राहक ही माना और बिना कोई रियायत बरते इन्हें ‘तोल-मोल और क्वालिटी’ में बराबरी से ठगा ।
विदेशी आतंकियों के आक्रमण पर मैं कैसे गुस्सा करुँ ? कैसे रोष जताऊँ ? इन सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ मैं ने ही तो बनाईं ! इनके लिए लाल कालीन मैं ने ही तो बिछाया ! यदि मेरे मानस में मेरा देश होता तो, इन लोगों का आना तो सपने की बात रही, ये मेरी धरती पर पाँव रखने का विचार भी मन में नहीं ला पाते ।
वस्तुपरक भाव से बात करना और नेताओं, अफसरों, व्यवस्था को दोषी घोषित करना बहुत ही आसान है । लेकिन यदि आत्मपरक भाव से बात की जाए तो मुँह से बोल नहीं फूटेंगे । बोलती बन्द हो जाएगी और बन्द ही रहेगी । मेरी चुप्पी का कारण भी यही आत्मपरकता है । इसीलिए मैं कुछ भी नहीं लिख सका ।
मैं ने बात समाप्त की तो फोन के दूसरे छोर पर सन्नाटा गूँज रहा था । मैं ने जानना चाहा कि नीरज उधर है भी या नहीं ? भीगी-भीगी और भारी-भारी आवाज में उत्तर मिला - ‘‘सर ! आपका नहीं लिखना समझ में आ गया । लेकिन आपके इस ‘मैं’ में आप अकेले नहीं हैं । यह तय करना मुश्िकल होगा कि इस ‘मैं’ में कौन शरीक नहीं हैं ।’’
और नीरज ने फोन बन्द कर दिया, बहुत ही धीरे से । इतना धीरे से कि ‘खट्’ की आवाज भी न हो ।
(प्रसवंगवश उल्लेख है कि नीरज शुक्ला खुद एक चिट्ठाकार हैं । उनका चिट्ठा ‘‘नीरुबाबा’’
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हम एक जुट हो, इसी में दोष छिपाया जा सकता है। गलनि के घडियाली आसूँ बहाने से कोई लाभ नही होगा।
ReplyDeleteसभी "मै". लगता है आत्म हत्या कर लेनी चाहिए.
ReplyDeleteश्रीमान् एनानीमसजी,
ReplyDeleteआप मेरे लिखे की पुष्टि ही कर रहे हैं । अपने आपसे आंखु चुराने का जो साहसी कौशल आप बरत सकते हैं, क्षमा करें, मैं नहीं बरत पाता । मेरा आग्रह भी नहीं कि आ बरतें । मेरा नियन्त्रण केवल मुझ तक ही सीमित है - यह मैं भली भांति जानता हूं ।
हम अपने आप को शरीक किए बिना बात करते हैं, इसी के दुष्परिणाम हम झेल रहे हैं ।
हम 'प्रजा' बने रहना चाहते हैं जबकि आवश्यकता है कि हम 'नागरिक' बनें ।
असली गुनाहगार हम खुद हई हैं । हमने हमेशा अपना घर का कचरा दूसरे के आंगन में डाल कर मान लिया कि सफ़ाई हो गई । सभी को अपने अंतर्मन को टटोलना चाहिए ,लेकिन इससे होगा क्या ,जब तक अंतरात्मा की आवाज़ सुनने की हिम्मत हममें पैदा नहीं होती । कई लोग मेरे आक्रोश को सही नहीं मानते मेरे प्रयासों की विफ़लता पर व्यंग्य कसते हैं कि तुम अकेले इस देश को नहीं बदल सकती । मेरी देश के प्रति निष्ठा आज के दौर में मुझे हास्य का पात्र बनाती है । पर मेरा विश्वास अटल है कि आज नहीं तो कल हालात ज़रुर बदलेंगे । देश को निराशा से नहीं गल्तियों से सबक लेकर नए हौंसले और जज़्बे से नई शुरुआत कर्के ही संवारा जा सकता है । मगर उसके लिए सभी को अपने भौतिक सुखों से आगे की राह चुनना होगी ।
ReplyDeleteधन्यवाद ,आम जन के आक्रोश को इतने बेहतरीन तरीके से शब्दों में पिरोकर पेश करने के लिए ।
सत्य वचन .
ReplyDeleteआदरणीय सुब्रमणियन साहब,
ReplyDeleteआत्म हत्या करना शायद अधिक आसान है, किन्तु यह पलायन है । स्वयम् को सुधारने में, जिम्मेदार बनाने में प्राणलेवा कष्ट उठाने पडेंगे ।
किसी भी कौम के राष्टीय चरित्र की परीक्षा शान्ति काल में ही होती है ।
आज तो सब राष्ट्वादी हैं । किन्तु कल, सब कुछ सामान्य होते ही, हमारा व्यवहार क्या होता है-वही महत्वपूर्ण है ।
बात अटपटी है और उससे अधिक कडवी, क्षमा कीजिएगा, राष्ट् हमारी वरीयता सूची में शायद अन्तिम स्थान पर ही मिलेगा ।
सरिताजी,
ReplyDeleteधन्यवाद । कठिनाई यही है कि प्रत्येक यही कहता है कि एक के बदलने से क्या होगा । यही कहकर हम सब बदलाव से बचते हैं और नतीजे में आज जैसे लज्जाजनक दृश्य देखते हैं ।
निजी लाभ के लिए हम जिस तरह, दूसरों की परवाह किए बिना लगे रहते हैं, उसी प्रकार यदि हम 'वतन' के लिए भी लगे रहें तो तस्वीर बदल सकती है । किन्तु हमारा नियन्त्रण केवल स्वयम् तक ही सीमित है, दूसरों पर नहीं ।
मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं । अपनी-अपनी जगह पर हम, अपने ईश्वर को, अपनी आत्मा को साक्षी मान कर लगे रहें । ईश्वर हमें इतना आत्म बल प्रदान करता रहे कि हम लोक-उपहास से विचलित न हों ।
आपको साधुवाद ।
हम सभी अकर्मण्यता के दोषी हैं। आत्महत्या करना भी अकर्मण्यता से भागना ही है। हम क्यों न आज से इस अकर्मण्यता को त्यागें। जितना हो सके कर्म को अपने जीवन में स्थान दें।
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ReplyDeleteniraj shukla said...
ReplyDeletesir, aap ka vichar bilkul sahi hai. ham hamesha apni jimmedariyon se bhagate hain, isliye hi har samasya hamara pichha karti hai. phir vah hamari niji jindagi se judi samsyaen hon ya rashtriy star ki. jis din se ham samasyaon ke pichhe bhagana shuru kar denge us din se har samasya swtah hi dur ho jayegi. niraj
एक आम भारतीय की बात को इतनी साफगोई से कह पाने का धन्यवाद. इतने भारतीयों के अलावा कई और भारतीय पक्ष भी हैं!
ReplyDeleteगज़ब की वैचारिक शक्ति और लेखन ! शुभकामनायें भाई जी !
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