गुरु की करनी : शागिर्दों की भरनी


साहित्यिक मुहावरों में नहीं, वे सचमुच में भीड़ में अकेले थे । इतने अकेले कि अकेलापन भी घबरा जाए ।

यह एक विवाह समारोह था-मेरे कस्बे से कोई डेड़ सौ किलोमीटर दूर । अगहन मास का शुक्ल पक्ष आधे से अधिक बीत चुका था । ठण्डक यूँ तो कम थी किन्तु ‘मेरेज गार्डन‘ की मखमली दूब के नीचे की नमी ने गरम कपड़ों का औचित्य सिध्द कर रखा था ।


वर-वधु, दोनों पक्षों के मिला कर हम कोई ढाई सौ लोग वहाँ जमा थे । मेजबान चूँकि साहित्यिक अभिरुचि वाले थे सो सूट और टाइयाँ कम थीं, कुर्ते, जेकेट और शालें अधिक थीं । वातावरण अत्यधिक सहज तथा अनौपचारिक था । विद्युत सज्जा भी आतंककारी नहीं थी । धीमी आवाज में बज रही 'टाइम्स म्यूजिक' की ‘हिमालया चेण्टिंग’ सीडी के मन्त्र वातावरण को ‘भारतीय’ से आगे बढ़कर ‘देशी’ बनाए हुए थे । बच्चे बहुत ही कम थे-अपवाद जैसे । सो, वातावरण में तनिक गम्भीरता अनुभव हो रही थी जो बड़ी ही बनावटी और बोझिल हुए जा रही थी जिसे हर कोई उतार फेंकने को आतुर था । पाँच-पाँच, सात-सात के समूहों में लोग लान में फैले हुए थे । यह ऐसा आयोजन था जिसमें प्रति व्यक्ति के मान से जमीन अधिक उपलब्ध थी । सो हम सब बिना एक दूसरे का कन्धा छुए, आसानी से इधर-उधर हो रहे थे । ऐसे आयोजनों में ऐसे मुक्त विचरण का यह अनूठा अनुभव था ।


ऐसे में उनका अकेले खड़ा रहना तनिक अधिक प्रभाव से अनुभव हो रहा था । एक-दो बार उन्होंने किसी समूह का हिस्सा बनने का प्रयास किया तो लोग जल्दी ही उन्हें छोड़ कर दूर जा खड़े हुए । असहजता, व्यग्रता, उपेक्षा और अवांछित होने के भाव उनके चेहरे पर ऐसे छाए हुए थे कि लग रहा था कि वे किसी भी क्षण रो पड़ेंगे ।


वे मेरे लिए अपरिचित ही थे । उनका परिचय जानने के लिए मेजबान को तलाशा । वह अपने समधी के साथ व्यस्त था । साहस कर, मैं उनके सामने जा खड़ा हुआ । उनका परिचय जानना चाहा तो लगा मानो वे युगों-युगों से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे । वे उत्साहित हुए ही थे कि गला भर्रा गया । उन्होंने जो कुछ बताया उसका सार था कि वे उस कस्बे के महाविद्यालय में प्राध्यापक थे । कोई नौ-दस बरस पहले सेवानिवृत्त हुए हैं । इस समारोह में आए अधिकंश लोग उनके पढ़ाए हुए हैं (जो अब सयाने बच्चों के बाप हो चुके हैं)। आयोजन का मेजबान भी उन्हीं में से एक था । उन्हें शिकायत थी कि उनके पढ़ाए हुए बच्चे उनकी उपेक्षा करते हैं । पूछ-परख नहीं करते । रास्ते में मिल जाते हैं तो नमस्कार करने के बजाय कन्नी काटने की कोशश करते हैं । अपने घर पर होने वाले आयोजनों में निमन्त्रित्रत नहीं करते । इस आयोजन में कैसे बुला लिया - इस पर उन्हें आश्‍चर्य हुआ था और इसका कारण जानना भी उनके आने का एक कारण था । लेकिन यहाँ भी लोग उनकी ओर नहीं देख रहे हैं । उन्हें मेजबान से शिकायत तनिक कम थी क्यों कि वह ‘बेचारा‘ तो व्यस्त था । लेकिन बाकी लोग तो ‘फ्री’ थे । वे भी न तो पास फटकने दे रहे हैं और न ही पास आ रहे हैं ।


सुन कर मुझे आश्‍चर्य भी हुआ और उनकी बातों पर अविश्‍वास भी । पढ़ाए हुए कोई, एक-दो लोग ऐसा करें तो बात समझ में आती है लेकिन सबके सब ऐसा करें तो अचरज तो होगा ही । उनकी व्यग्रता और रुँआसापन मुझसे नहीं देखा गया । मेजबान की बाँह पकड़ कर एक ओर ले गया और ‘माजरा क्या है’ जानना चाहा । मेजबान ने जो बताया वह और अधिक अचरजभरा था ।


मेजबान की बातों का लब-ओ-लुबाब यह था कि ‘प्रोफसरशिप’ के दौरान वे बच्चों को पढ़ाने में बिलकुल ही रुचि नहीं लेते थे । कोशिश करते थे कि बच्चे या तो ‘बंक’ मार दें और यदि कक्षा में आ ही गए हैं तो जैसे-तैसे पीरीयड पूरा कर दिया जाए । प्रायः तो यह होता था कि वे बच्चों को ‘ज्ञान प्राप्ति के लिए’ लायब्रेरी में भेज देत थे । उनके पीरीयड के दौरान यदि कभी, प्राचार्यजी अचानक ही राउण्ड पर आते हुए नजर आते तो जोर-जोर से बोल कर पढ़ाने का अभिनय करने लगते और जैसे ही प्राचार्यजी ‘कानों की ओट’ होते, वे अपने मूल स्वरूप में आ जाते । अन्य प्राध्यापकों को जाहिल-काहिल साबित करते, उनकी खूब निन्दा करते ।


महाविद्यालय से बाहर यदि कोई छात्र वाहन पर मिल जाता तो उसे रोक कर ‘मुझे फलाँ जगह छोड़ दे’ कहते हुए, उसके वाहन पर लद जाते । बेचारा छात्र ! उसकी दशा ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ जैसी हो जाती । वह, अपना गन्तव्य भूल कर, एक सौ अस्सी अंश का घुमाव ले उन्हें छोड़ता । जब वे उसे रोकते तो वह पछताता - ‘कहाँ इस रास्ते आ गया ?’ और जब उन्हें छोड़ता तो यही पछतावा, प्रसन्नता में बदल जाता - ‘चलो ! मुक्ति मिली ।’


कोई छात्र पान की दुकान पर मिल जाता । पूछता - ‘सर ! पान लेंगे ?’ वे कहते - ‘ दो पान बँधवा दो ।’ छात्र की 'मनुहार' मानो 'कर- अदायगी' में बदल जाती । बात-बात में अपने ‘कुलीन ब्राह्मणत्व’ का गर्व-घोष करते और इसके साथ अपने प्राध्यापन को जोड़ कर ‘सोने में सुहागा’ और ‘हम ही इसके (प्राध्यापक होने के) वास्तविक आधिकारिक पात्र हैं’ की निर्णायक दुदुम्भी बजाते ।


मेजबान ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा -‘हममें से कुछ इनके मुँह लगे थे । कभी प्रत्यक्षतः तो कभी परोक्षतः समझाने की कोशिश की लेकिन हर बार हमें डाँट कर, नामसमझ, मूर्ख, मन्द-बुद्धि घोषित कर हमें भगा देते, चुप कर देते । तब उन्होंने हमें चुप कराया । अब हम सब लोग चुप रहते हैं । तब वे समझते थे कि हम लोग कुछ नहीं समझते । लेकिन हम न केवल सब समझते थे बल्कि उस समझे को आज तक नहीं भूले हैं । इन्होंने हमारा देय हमें नहीं दिया - यह बात हम चाह कर भी नहीं भूल पाए और आज यह दशा है ।’


यह वर्णन मेरे लिए सर्वथा अप्रत्याशित ही नहीं, कल्पनातीत भी था । मैं ने जानना चाहा कि क्या सब छात्रों ने मिल कर उनकी उपेक्षा का सामूहिक, सर्वानुमत निर्णय लिया ? उत्तर में मेजबान ने कहा - ‘ऐसी फालतू बातों के लिए किसके पास वक्त है ? हम सब कामकाजी, बाल-बच्चेदार लोग हैं । अपने काम और घर के लिए ही वक्त नहीं निकाल पाते तो इनके लिए कहाँ से निकालेंगे ?’ ‘तो फिर सबके सब, एक जैसा व्यवहार क्यों और कैसे कर रहे हैं ?’ मैं ने जानना चाहा ।मेजबान इस बार तनिक अधिक पीड़ा से बोला - ‘यही तो अधिक दुख की बात है । किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन सबका निष्‍कर्ष एक ही रहा । सब इनकी उपेक्षा करते हैं, इनसे बचते हैं, अपने यहाँ आयोजनों में नहीं बुलाते । तुम्हारी बात का क्या जवाब दूं ? समझ लो कि ये अपनी करनी के फल भोग रहे हैं । जो बोया था, वही काट रहे हैं । या फिर यूँ कह लो कि हम सबके पास इस व्यवहार के सिवाय दूसरी, और कोई गुरु दक्षिणा नहीं रह गई है ।’


मेजबान की बातें सुनकर मेरी भी हिम्मत जाती रही । मैं भी उनके पास फिर नहीं गया ।

-----

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.


कृपया मेरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com पर भी एक नजर डालें ।

8 comments:

  1. उन गुरूजी को किसी समारोह में निमंत्रण दे कर बुलवा लेना भी ऐसा रहा जैसे उन्हें अदालत उठने तक की सजा दे दी गई हो।

    ReplyDelete
  2. 'मास्साब की व्यथा' मजेदार लगी. ऐसे भी लोग समाज में होते हैं, हमारे इर्द गिर्द ही.

    ReplyDelete
  3. पढ़कर बहुत दुख हुआ । परन्तु छात्रों का निर्णय शायद ठीक ही रहा ।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  4. bahot khub likha hai aapne ise byang kahun ya tippani samajh nahi aata.. magar aap pe lekhani ki asim kripa hai bahot hi sahaj aur saral bhasha ka prayog karte hai... bahot hi umda lekhan ...
    aapka mere blog pe bahot hi swagat hai,aapka sneh nirantar bana rahe yahi ummid karta hun...

    ReplyDelete
  5. लगता है उनका विषय हिन्दी नहीं था वरना कबीर बाबा की बात कभी-कभार तो कानों में पड़नी ही थी:
    करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय
    बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय

    ReplyDelete
  6. ऐसा ही अफसरी में होता है। एक बड़े अफसर जो लोगों पर अनावश्यक रौब जमाते थे रिटायर हुये। अगले दिन अपने कल तक के मताहत अफसर के दफ्तर में पंहुचे और फोन करने लगे। मताहत ने तुरत कहा - यह सरकारी फोन है, कृपया आप बाहर जा कर बूथ से कॉल करें।
    आपका साथ आपका व्यवहार और मृदुता/दयालुता ही देते हैं।

    ReplyDelete
  7. अब क्या कहें, जैसी करनी वैसी भरनी!

    ReplyDelete
  8. रोचक संस्‍मरण है, पढकर मजा आया।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.