डिजाइनर कपड़ों और होठ चबा-चबा कर बोली जा रही अंग्रेजी का सहारा लेकर हम चाहे जितने आधुनिक हो जाएँ लेकिन अपनी जड़ों से दूर नहीं हो सकते । इसीलिए, जब पोकरण-1 होता है तो पहले दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है, धूप-गुग्गल से वातावरण सुवासित किया जाता है, कुंकुंम-अक्षत से पूजा होती है, और श्रीफल तोड़ा जाता है । हमारी जड़े हमें अपनी मिट्टी से कभी दूर नहीं होने देती ।
मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया, ‘कलेजे की कोर’, मेरी सिर चढ़ी भतीजी तनु, 29 नवम्बर को ससमारोह, चिरंजीव हर्ष भट्ट का हाथ थाम, डोली में बैठकर ‘अपने घर’ चली गई ।
28 नवम्बर की रात, उसके ब्याह की पूर्व सन्ध्या पर, ‘महिला संगीत’ आयोजित था । तनु के ददीहाल और ननिहाल के ढेरों भाई-बहन जी भर कर नाचे-कूदे । खुद तनु भी नाची । आयोजन में अधिकांश गीत, आज के, तेज गति और ताल वाले, फिल्मी गीत थे ।
लेकिन इस आयोजन की शुरुआत तनिक अनपेक्षित और अनूठी रही ।
सब कुछ तैयार था - मंच, साउण्ड सिस्टम, डीवीडी प्लेयर, सिलसिलेवार जमा कर तैयार रखी डीवीडी । सबको लग रहा था कि किसी भारी भरकम संगीत वाले गीत से कार्यक्रम शुरु होगा । लेकिन कार्यक्रम की एंकरिंग कर रहे, तनु के इकलौते काका, अनिल रावल ने घोषणा की कि कार्यक्रम की शुरुआत मालवा की लोक परम्परा के अनुसार गणपति को निमन्त्रित करने से होगी और यह काम करेंगी, कुटुम्ब की पाँच वरिष्ठ महिलाएँ ।
तनु की दादीजी और हम सबकी आदरणीया-प्रिय ‘बई’, श्रीमती पार्वतीदेवी रावल की अगुवाई में पाँच महिलाएँ मंच पर पहुँची, अपना स्थान ग्रहण किया । उनके सामने माइक रखा गया और मालवा-राजस्थान का सर्वाधिक लोकप्रिय, पारम्परिक 'गणपति' गीत शुरु किया -
गोटा री गादी पे, नौबत बाजे
नौबत बाजे, इन्दरगढ़ गाजे
या तो झिणी-झिणी झालर बाजे ओ गजानन
गोटा री गादी पे नौबत बाजे
अर्थात्, गोटा-किनारी लगी सुन्दर गद्दी पर सजी नौबत बज रही है जिससे धरती ही नहीं, इन्द्रपुरी भी गूँज रही है, साथ में धीमी-धीमी आवाज में झालर (थालीनुमा, पीतल का बना एक लोक वाद्य) भी बज रही है । हे ! गणेश, सबसे पहले आप पधारिए और इस मंगल काम को सानन्द पूर्ण कीजिए ।
बिना संगीत-संगत शुरु हुआ गीत, पल भर में ही वितान पर छा गया । शहतूत को मात देने वाली मिठास भरी मालवी का लोक गीत और उससे भी अधिक मीठे, परिपक्व प्रौढ़ स्वरों ने मानो गणपति के आगमन के लिए रास्ता बुहार दिया और पल भर में ही गणपति आ पहुँचे ।
उसके बाद गीत आगे बढ़ा । दो-दो पंक्तियों वाले प्रत्येक अन्तरे में गणपति को उन तमाम उपक्रमों के लिए साथ चलने का आग्रह किया जाने लगा जिनके बिना वैवाहिक मंगल कार्य सम्पादित नहीं हो सकता । जैसे -
चालो हो गजानन, जोशी के चालाँ
आछा-आछा लगन लिखावाँ गजानन
गोटा री गादी पे नौबत बाजे
अर्थात् - अच्छा हुआ गजानन आप पधार गए । चलिए, ब्राह्मण के यहाँ चलें और विवाह के लिए श्रेष्ठ लग्न मुहूर्त लिखवा कर ले आएँ ।
यह काम कर लिया तो अब अगला काम -
चालो हो गजानन, माली के चालाँ
आछा-आछा फुलड़ा मोलावाँ गजानन,
गोटा री गादी पे नौबत बाजे
अर्थात् - चलिए श्रीगणेश, माली के यहाँ चल कर, मोल-भाव कर, सुन्दर-सुन्दर फूल ले आएँ ।
इसी तरह मंगल कलश के लिए कुम्हार के यहाँ, सुन्दर आकर्षक गहनों के लिए सुनार के यहाँ, विवाह के लिए नए कपड़े खरीदने के लिए बजाज के यहाँ, उन्हें सिलवाने के लिए दर्जी के यहाँ और ऐसे तमाम कामों के लिए सम्बन्धितों के यहाँ साथ चल कर सारे काम कराने के लिए गणपति से आग्रह किया जाने लगा ।
तीन सितारा व्यवस्था और जगर-मगर कर रही विद्युत सजावट वाले उस मेरेज गार्डन का परिसर, लोक मंगल के देवता की अगवानी को आतुर हो उठा था । ‘बई’ और उनकी संगिनियों के, कोयल को चुनौती देते व्याकुल कण्ठ स्वर, गणपति के लिए रास्ता बुहार रहे थे । वहाँ न तो गोटा-किनारी वाली गद्दी थी और न ही नौबत-झालर किन्तु पूरा वातावरण, इन लोक वाद्यों से गुंजायमान था ।
ऐसे में भला गणपति कैसे न आते । वे आए और उन्होंने सारा काम निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास निपटाया ।
‘गणपति’ समाप्त कर ‘बई’ और उनकी संगिनियाँ मंच से उतर आईं और फिर शुरु हुई बच्चों की उमंग । बच्चों ने अद्भुत तैयारी की थी इस प्रसंग के लिए । सारी प्रस्तुतियाँ ‘रेकार्ड एक्शन’ थीं । केवल ‘गणपति’ ही जीवन्त प्रस्तुति थी ।
गणपति ही तो जीवन हैं !
(प्रस्तुत चित्र में, सबसे आगे, सफेद साड़ी में हैं हम सबकी ‘बई’ - श्रीमती पार्वतीदेवी रावल)
(बाद में, धर्मेन्द्र ने बताया कि कार्यक्रम की शुरुआत ‘गणपति’ से करने का सुझाव, वाणिज्यिक कर विभाग के उपायुक्त श्री एस. बी. सिंह ने दिया था ।)
कृपया मेरा ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com/ भी पढ़ें ।
वाह, ऐसी लोक मनुहार पर गजानन कैसे न आयें और अशीर्वाद दें।
ReplyDeleteगजानन निर्विघ्नकार्यसम्पन्न के देव हैं। और यह वन्दना तो बहुत सुन्दर लगी।
वाह!
ReplyDeleteकाश हम "आदरणीया बई जी " और सँगिनियोँ का गणपति देव का न्योता सुन पाते -
ReplyDeleteशब्द सहेजे जाने योग्य हैँ विष्णु भाई साहब - धन्यवाद
भाई जी,
ReplyDeleteआप के इस आलेख में तो गणपति के वास्तविक स्वरूप को सामने ला कर रख दिया है। यह हमें समाज की गणव्यवस्था का स्मरण कराता है। जिस में समाज की संपत्ति का स्वामी गण का मुखिया (गणपति) होता था और तमाम वृहत जिम्मेदारियाँ भी उसी की होती थीं। किसी भी सामाजिक कार्य के पहले उसे सूचित करना जैसे कि बेटी का ब्याह है और गणपति का जिम्मेदारी को संभाल कर ब्याह को निपटाना इस गीत से स्पष्ट हो रहा है। ब्याह के लिए जिन जिन वस्तुओं की आवश्यकता है उन के लिए गणपति को सूचित किया जाता है और गणपति साथ जा कर उन सभी वस्तुओं की व्यवस्था करते हैं। आज गण व्यवस्था नहीं हैं लेकिन गणपति की छवि उस पर विश्वास आज भी बना हुआ है। इसी कारण से वह प्रथंम पूज्य भी है कि वह ही है जो हर दुख दर्द में आप के साथ है।
आपकी इस पोस्ट को पढते - पढते मन ननिहाल पहुंच गया । इंदौर की गलियों में ’ढोली बा’ की थाप पर घूंघट काढे महिलाओं का आलाप और थिरकन आंखों के सामने जीवंत हो गया । इन बेहतरीन लम्हों को इस वक्त शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना मेरे लिए तो नामुमकिन है ।
ReplyDeleteभले पधारो सिरी गनेस वाली भावभूमि अब लुप्त सी हो रही है काका सा. यदि किसी परिवार ने इसका भावपूर्ण स्मरण किया तो जान लीजिये एक बार फ़िर हमारी विरासत बर्बाद होने से बच गई...दादा नरेन्द्रसिंह तोमर का विनायक भी याद आ गया...गवरी रा नंद गनेस ने मनावाँ,थारी गेरी गेरी थापणा थपावाँ....और सैलाना के ओटले पर कोयल से मीठे स्वर में गाती अपनी दिवंगत बाई(दादी) का स्वर भी मानस में हूक उठा गया...थें तो वेगा वेगा आवो गनेस.
ReplyDeleteकहाँ गये वे दिन....कहीं नहीं गये ; यहीं तो हैं एकोहम और रावल परिवार की जाजम पर.
भले पधारो सिरी गनेस वाली भावभूमि अब लुप्त सी हो रही है काका सा. यदि किसी परिवार ने इसका भावपूर्ण स्मरण किया तो जान लीजिये एक बार फ़िर हमारी विरासत बर्बाद होने से बच गई...दादा नरेन्द्रसिंह तोमर का विनायक भी याद आ गया...गवरी रा नंद गनेस ने मनावाँ,थारी गेरी गेरी थापणा थपावाँ....और सैलाना के ओटले पर कोयल से मीठे स्वर में गाती अपनी दिवंगत बाई(दादी) का स्वर भी मानस में हूक उठा गया...थें तो वेगा वेगा आवो गनेस.
ReplyDeleteकहाँ गये वे दिन....कहीं नहीं गये ; यहीं तो हैं एकोहम और रावल परिवार की जाजम पर.
गणपति को विवाह से जुड़े हर कार्य के लिए संग ले चलने की परंपरा बड़ी अनूठि और सुंदर लगी. आभार.
ReplyDeleteशुरुआत तो वाकई बेहतरीन थी, लेकिन क्या उसके बाद फ़िर वही DJ की कानफ़ोड़ू धुन(?) जारी थी???
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही बात कही है कि हमारी जडें हमें अपनी मिट्टी से कभी दूर नही होने देती|हमारी पंरपरा हमेशा जीवित रहेगी| आपके सहज वर्णन से तो हमें भी गणपति वंदन सुनने की ईच्छा हो गई|
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