मेरी कल वाली पोस्ट ‘मैं ही आतंकी, मैं ही नेता,दोष किसे दूँ ?’ http://akoham.blogspot.com/2008/12/blog-post.html पर आई प्रतिक्रियाएँ अपेक्षानुरूप ही रहीं । कुछ ने सहमति जताई तो कुछ ने इसे ‘विलाप’ माना ।
अभी भी मेरी धारणा यही है कि हम केवल ‘आपात स्थितियों’ में ही हमारा राष्ट्र-प्रेम उफनता है । वर्ना सामान्य स्थितियों में तो ‘देश’ के बारे में हमारी चिन्ता और चर्चा ‘प्रासंगिक’ ही होती है, ‘प्राथमिकता’ पर नहीं । हम आज भी इस विषय को, चाय-नाश्ता के समय अथवा खाली समय व्यतीत करने के लिए ही प्रयुक्त करते हैं । जबकि किसी भी कौम के राष्ट्रीय चरित्र की परीक्षा सदैव शान्ति काल में ही होती है । अपना दैनन्दिन काम करते हुए हम सदैव ही ‘अपने लिए’ काम कर रहे होते हैं, ‘देश के लिए’ नहीं । मैं स्थितियों और व्यवहार का साधारणीकरण नहीं कर रहा, वास्तविकता प्रस्तुत कर रहा हूँ । सम्भव है, मेरी यह ‘वास्तविकता’ अन्यों की वास्तविकता से पूरी तरह भिन्न हो और मेरी वाली वास्तविकता क्षणिक साबित हो । ईश्वर करे, ऐसा ही हो ।
28 नवम्बर से 30 नवम्बर तक मैं इन्दौर में था - दो विवाह समारोहों में सम्मिलित होने के लिए । एक विवाह 29 की रात को और दूसरा 30 की पूर्वाह्न में । 29 वाले विवाह में एक आयोजन और था - 28 की रात को, ‘महिला संगीत’ का । यह विवाह, इन्दौर के, स्कीम नम्बर 71-सी क्षेत्र स्थित एक ‘मेरेज गार्डन’ में था । इसके आसपास तीन और ‘मेरेज गार्डन’ थे । इन तीनों में भी 28 की रात को ‘महिला संगीत’ और 29 की रात को विवाह समारोह आयोजित थे ।
28 की रात वाले आयोजनों में, चारों ‘गार्डनों’ में, अँधेरे को छुपने की जगह नहीं मिल रही थी । हेलोजनों की चकाचौंध छाई हुई थी । चारों में बिजली और फूलों की सजवाट भरपूर थी । उत्सव का उल्लास पसरा हुआ था । ‘महिला संगीत’ के निमित्त जितने भी रंगारंग कार्यक्रम हो सकते थे, हो रहे थे । डीजे का शोर फलक को छोटा कर रहा था । दो आयोजनों के बीच तो केवल एक ‘वायर फेंसिंग’ ही थी, सो दोनों आयोजनों के गीत-संगीत मानों एक दूसरे से प्रतियोगिता या फिर जुगलबन्दी कर रहे थे ।
भोजन व्यवस्था किसी भी आयोजन में तीन सितारा से कम वाली नहीं थी । अपने आमन्त्रित अतिथियों को सम्पूर्ण आनन्द उपलब्ध कराने की सदाशयता के अधीन, चारों मेजबानों ने अपने-अपने हिसाब से ‘यूनीक डिशेज’ प्रस्तुत की हुई थीं । चारों आयोजनों में यथेष्ठ उपस्थिति थी । जिस आयोजन में मैं भागीदार बना हुआ था उसमें कृषि श्रमिक से लेकर आई.ए.एस./आई.पी.एस. स्तर तक के अतिथि, आयोजन की शोभा बढ़ा रहे थे । मँहगी साड़ियों, चुन्नी-सूटों और थ्री पीस सूटों ने वातावरण को आभिजात्य प्रदान कर रखा था ।
इस बीच तारीख याद रखिए - वह 28 नवम्बर की रात थी - ‘मुम्बई एपिसोड’ निरन्तर था । सब लोग रंगारंग कार्यक्रम और व्यंजनों का आनन्द पूरी आत्मपरकता से ले रहे थे । हाथ प्लेटों को थामे हुए थे, आँखें मंच पर नाच-गा रहे बच्चों/परिजनों/कलाकरों की प्रस्तुतियों में उलझी हुई थीं और कान, ‘झंय्यम्-झंय्यम्’ हुए जा रहे थे । मैं सबकी मुख-मुद्राएँ देख रहा था । तनाव या चिन्ता की एक लकीर भी किसी भी चेहरे पर नहीं थी । कान लगाकर लागों की बातें सुनीं । ‘मुम्बई एपिसोड’ या ‘मुल्क पर हमला’ कहीं सुनाई नहीं पड़ा । समारोह में उपस्थित, लगभग प्रत्येक वर्ग के कम से कम दो-दो लोगों से मैं इस विषय पर बात की । अपवादस्वरूप ही किसी ने गम्भीरता या चिन्ता जताई । प्रायः प्रत्येक ने -‘अरे ! हाँ । वो तो गजब ही हुआ ।’ से अधिक कुछ नहीं कहा । हर कोई समारोह और भोजन का आनन्द लेने में मगन था ।
29 की रात को चारों मेरेज गार्डनों में बारातें आईं । चारों ही बारातों के बारातियों ने खूब आतिशबाजी की, सड़कों पर नाचे, नाचनेवालों पर हुई न्यौछावर ने बेण्डवालों की जेबें भर दीं । लड़की वाले के दरवाजे पर पहुँचने का मुहूर्त, चारों बारातें चूकीं । उस रात को भी प्रकाश की और कपड़ों की चकाचैंध छाई हुई थी । फूलों की सजावट मानो एक दूसरे को परास्त कर रही थी । उस रात भी अपनी-अपनी पसन्द और क्षमतानुरूप संगीत व्यवस्था थी । व्यंजनों की संख्या, विविधता और उपस्थित होने वालों की संख्या 28 की रात से कहीं अधिक थी । इसी के समानान्तर, ‘मुम्बई एपिसोड’ भी 28 की रात की तरह ही अनुपस्थित था । चिन्ता तो कोसों दूर की बात थी, चर्चा भी नहीं थी ।
30 वाला विवाह पूर्वाह्न में था-इन्दौर से कुछ किलोमीटर दूर, एक ‘ढाणी’ में । रोशनी और फूलों की सजावट की चकाचौंध को छोड़ बाकी सब वहाँ भी समान रूप से नजर आ रहा था । इस समारोह में प्रबुध्द, शिक्षित, सम्भ्रान्त और अभिरुचि सम्पन्न लोग अपेक्षया अधिक थे । किन्तु ‘मुम्बई एपिसोड’ यहाँ भी लोगों के होठों पर जगह की तलाश में भटक रहा था ।
मैं दोनों आयोजनों में ‘प्रसन्नतापूर्वक’ शरीक हुआ और बना रहा । वहाँ बाकी सब था, नहीं था तो केवल ‘मुम्बई एपिसोड’ और उससे उपजी चिन्ता, अकुलाहट, आक्रोश, क्षोभ, नहीं था । प्रासंगिक विषय के रूप में बात होनी तो दूर रही, छेड़ने पर भी इस विषय पर कोई बात करने को तैयार नहीं था । इसके मुकाबले परोसे गए व्यंजन और व्यवस्था की गुणवत्ता पर हर कोई बात कर रहा था । ऐसा भी नहीं कि मैं ने केवल ‘आब्जर्व’ कर रहा था, मैं ने ‘मुम्बई एपिसोड’ पर सायास, सोद्देश्य बात करनी चाही, तब भी किसी ने मुझे घास नहीं डाली ।
यह सब सुनी-सुनाई नहीं बातें नहीं, भोगा हुआ यथार्थ है । इसका कोई अनर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए । फिर भी इस सबसे कोई सन्देश तो निकलता ही है । वह सन्देश क्या है - यह बताकर मैं अपना अविवेक प्रकट नहीं करना चाहता ।
कृपया मेरा दूसरा ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com/ भी पढ़े ।
यह सत्य है कि भारतीय मन जब तक व्यक्तिगत स्वयं पर नहीं आती, विदग्ध नहीं होता। और यह शायद हमारे धर्म-दर्शन में व्यक्ति/इण्डीवीजुअल को बहुत महत्व देने के कारण है।
ReplyDeleteइतिहास ने हमें व्यक्तिवादी बना दिया है।
हम व्यक्तिवादी हो गए हैं, यह सही है। इस में इतिहास के साथ साथ वर्तमान की भी भूमिका भी महत्वपूर्ण है। हम समझ सकते हैं कि एक गृहमंत्री को आतंक की घटनाओं के बीच कैसे वस्त्र बदलने का वक्त मिल जाता है।
ReplyDeleteहम पलट कर अपनी संसकृ्ति को देखें ," तो मरने वाले के साथ मरा नहीं जा सकता । " मालवा में मैंने एक लोकगीत सुना है ,जिसका भाव कहता है कि घर वाले तीन दिन , माता पिता इससे कुछ ज़्यादा और नाते -रिश्तेदार श्मशान पहुंचाने तक ही आपके साथ हैं । फ़िर क्यों मन इस जगत में फ़ूला - फ़ूला रहता है , क्यों गुमान करता है ? शायद हम सभी भारतीय संसकृ्ति के मर्म को भलिभांति समझ चुके हैं और निर्लिप्त भाव से मानव जीवन का सुख भोग रहे हैं । आध्यात्मिक पक्ष भी व्यक्तिवादी सोच को पुष्ट सा करता प्रतीत होता है ।
ReplyDelete" आए हैं सो जाएंगे राजा रंक फ़कीर "
व्यक्तिवादी के साथ "भोगवादी" भी बन चुके हैं हम लोग, यह मोमबत्तियाँ जलाने और एकता यात्रायें निकालने का जो ढोंग चल रहा है, व कुछ और नहीं "श्मशान वैराग्य" समाप्त होने से पहले का काम है… बस 3-4 दिन और, फ़िर सब अपने-अपने भ्रष्टाचार में लग जायेंगे… न तो आपके ब्लॉग पर लिखने से कुछ होने वाला है न ही मेरे गुस्से से उबलने पर कुछ होगा…
ReplyDeleteएकोहम् का लिंक "मेरे गीत" पर देकर गर्वान्वित हूँ भाई जी !
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