‘अनवरत’ पर श्रीदिनेशरायजी द्विवेदी की पोस्ट--राजस्थान चुनाव के सभी नतीजे, जनता ने सबको उन की औकात बताई, पर आई टिप्पणियों को समेकित कर द्विवेदीजी ने नागनाथ, साँपनाथ या अजगरनाथ : 'कोउ नृप होय हमें का हानि' शीर्षक वाली, विमर्श को प्रेरित/प्रोत्साहित करने वाली सुन्दर विचारोत्तेजक पोस्ट लिखी है । अपनी इस पोस्ट में द्विवेदीजी ने मेरी टिप्पणी सम्मिलित कर मुझे सम्मानित ही किया है । उनके प्रति आभार प्रकट करना खतरनाक होने लगा है - वे बुरा मान जाते हैं ।
इस फालो-अप पोस्ट पर आई चार टिप्पणियों ने मुझे यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया है जिसे ‘फालो-अप पोस्ट की फालो-अप पोस्ट’ कहा जा सकता है ।
लावण्याजी लिखती हैं - ‘डेमोक्रेसी हमें वोट तो डालने का हक देती है पर अच्छे उम्मीदवार हमीं में से आगे आना भी जरूरी है ।’ लावण्याजी ने मूल संकट को रेखांकित किया है । वर्तमान दशा में हमें उन्हीं प्रत्याशियों में से किसी एक को चुनना होता है जिन्हें पार्टियाँ हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं । पार्टियाँ उन्हीं लोगों को प्रत्याशी बनाती हैं जिनमें जीतने की सम्भावना हो । यह पार्टियों की तानाशाही है जिसके चलते हमें ‘बुरों में से कम बुरा’ चुनना पडता है । इस सम्बन्ध में कृपया मेरी पोस्ट अब आप-हम,समस्त प्रत्याशियों को खारिज/अस्वीकार कर सकेंगे देखें । मेरा आप सबसे अनुरोध है कि भारत सरकार को पत्र अथवा ई-मेल भेज कर आग्रह करें कि निर्वाचन आयोग के सुझाव को स्वीकार कर, मत-पत्र/ईवीएम पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प मतदाताओं को अविलम्ब उपलब्ध कराए । मतदाताओं को (प्रस्तुत समस्त प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का) यह विकल्प मिलने पर, प्रत्याशी चयन में पार्टियों की दादागीरी समाप्त होगी - इसमें (कम से कम मुझे तो) कोई सन्देह नहीं है ।
अगली तीन टिप्पणियां मेरे उसी मन्तव्य की पुष्िट करती हैं जिसे द्विवेदीजी ने उद्धृत किया है । विधु की टिप्पणी है - ‘मुझे ऐसा लगता है कि ये तो प्रजातन्त्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका ईलाज अभी किसी को नहीं दिखाई दे रहा है ।’ यह बिलकुल सही बात है । हमारे लोकतन्त्र (क्षमा कीजिएगा, मैं ‘प्रजातन्त्र’ शब्द प्रयुक्त करने से बचता हूँ क्योंकि मुझे इसमें राजतन्त्र की गन्ध आती है) की मूलभूत कमी है - ‘लोकतन्त्र में लोक की भागीदारी न होना ।’ हमने संसदीय लोकतान्त्रिक शासन पद्धति अपनाई हुई है । लेकिन इसमें ‘लोक’ की उपस्थिति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती । हमारा ‘लोक’ केवल मतदान तक ही भागीदारी करता है - वह भी सम्पूर्णतः नहीं । ऐसे में ‘तन्त्र’ (प्रशासन) को हावी होने के लिए खुली छूट मिल जाती है । ‘लोकतन्त्र’ में ‘लोक’ की भागीदारी न होने से बड़ी कमी और क्या हो सकती है ? और, इस ‘लोक’ में आप-हम सब बराबरी से शरीक हैं ।
ताऊ ने गुस्सा करते हुए (शायद अनजाने में ही) मेरी इसी बात पुष्िट अत्यधिक प्रभावी ढंग से कर दी है । वे लिखते हैं - ‘इन तीनों को ही जनता इतना त्रस्त कर दे कि ये नैतिक मूल्यों को मानने के लिए तैयार हो जाएँ ।’ बात वही है जो मैं बार-बार कह रहा हूँ । हम अपने नेताओं और पार्टियों को जिस दिन अनुशासित और नियन्त्रित करना शुरु कर देंगे, उस दिन इनमें से किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वे हम पर अपनी मनमर्जी थोप सकें । लेकिन हम अत्यन्त स्वार्थी समाज हैं । नेता को हम कभी नहीं टोकते - ‘क्या पता इस नेता से हमें कब काम पड़ जाए ?’ जब तक हम इस भावना से मुक्त नहीं होते, हमें पार्टियों की और नेताओं की यह मनमर्जी झेलनी ही पड़ेगी ।
और सबसे अन्त में ज्ञानजी की टिप्पणी । वे (सम्भवतः तनिक व्यथा से) लिखते हैं - ‘सरकार की अहमियत कम से कमतर क्यों नहीं होती जाती ?’ हो सकती है और कमतर ही नहीं, शून्यवत हो सकती है बशर्ते हम अपने आप को सरकार से अलग न मानें । आज तो हम सरकार को लेकर ऐसे बातें करते हैं मानो वह हमें नष्ट करने के लिए ही चैबीसों घण्टे लगी हुई है । एक ओर तो हम ‘लोकतन्त्र’ को ‘लोगों द्वारा, लोगों का, लोगों के लिए शासन’ कहते नहीं थकते और इसी के समानान्तर, सरकार से छिटके रहते हैं । हम भूल जाते हैं (नहीं, भूलते नहीं, भूल जाना चाहते हैं और भूल जाने का बहाना करते हैं) कि इस सरकार को हम ही ने बनाया है । लेकिन सरकार को लेकर हमारा व्यवहार ऐसा होता है जैसा कोई अवैध सन्तान के साथ करता हो । ज्ञानजी की टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्ञानजी खुद प्रभावी सरकारी अधिकारी हैं और भली प्रकार बता सकते हैं कि यदि लोग अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से पूरी करने लगें तो ‘तन्त्र’ कितनी फुर्सत में हो सकता है ।
हमारा मूल संकट यही है कि लोकतन्त्र और सरकार को लेकर हम ‘वस्तुपरक भाव’ से बात करते हैं - खुद को उससे अलग, उससे असम्पृक्त रखते हुए । हमें अपना यह दृष्िटकोण और यह व्यवहार आमूलचूल रूप से बदलना होगा और सम्पूर्ण आत्मपरकता से बात करनी होगी । यदि हम परिवर्तन चाहते हैं तो वह हमे ही लाना होगा - अपने आप नहीं आएगा ।
लोकतन्त्र केवल अधिकर नहीं है । वह जिम्मेदारी है । बल्कि जिम्मेदारी पहले है और अधिकार बाद में । यह जिम्मेदारी निभाने के लिए हमें (हममें से प्रत्येक को), ‘अहर्निश-अनवरत’, सजग, सतर्क, सावधान रहते हुए निरन्तर सक्रिय और प्रयत्नशील बने रहना होगा ।
यह इसलिए जरूरी है क्यों कि कोउ नृप होय, हमें हानि होती है ।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
काफ़ी विचारोत्तेजक... उम्मीद है ऐसी बढियाँ भाषा और चुटीले शब्दों की धार आगे भी मिलती रहेगी... मेरी गलती.. आज तक इधर आना नहीं हुआ...!!!
ReplyDeletebahot hi badhiya lekha sahab ... kshitij ji ke bat se sahamat hun.. bahot hi badhiya likha hai aapne dhero badhai swikaren....
ReplyDeleteregards
arsh
बैरागी जि , आपने बात को यहाम और स्पष्ट स्वरुप दे दिया है ! असल मे हम सब की पीडा एक ही है ! सिर्फ़ बात कहने के अन्दाअज अलग हैं ! बहुत धन्यवाद आपका बात को स्पष्ट करने के लिये !
ReplyDeleteराम राम !
आप ने लोकतंत्र को बखूबी व्याख्यायित किया है। बात को एक मुकाम तक पहुँचाया है। लेकिन ये सब तभी संभव है जब कि लोग सामान्य हितों के लिए नीचे से संगठित होना शुरु करें। उन्हें संगठित करने के लिए मामूली और छोटे लक्ष्य रखे जाएं। मेरा तो मानना है कि जनतंत्र की सफलता के लिए मतदाताओं के सब से छोटी इकाइयों (भागों) के विधिक संगठन होने चाहिए। तभी आम लोगों की भागीदारी को व्यापक किया जा सकता है। साथ ही जनप्रतिनिधियों को जिम्मेदार बनाया जा सकता है। लेकिन हमें यह भी ख्याल रखना चाहिए कि घोड़ा कभी लगाम नहीं चाहता।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख है । अच्छे या बुरे नृप से हमें हानि नहीं होगी तो किसे होगी ?
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
यही तो लोकतंत्र है. जिसका भी तंत्र चल जाए. सुंदर विश्लेशण.
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