कर दी अंग्रेजी की हिन्दी

हिन्दी के साथ अब जो  हो जाए, कम है। ‘बोलचाल की भाषा’ के नाम पर अब तक तो हिन्दी के लोक प्रचलित शब्दों को जानबूझकर विस्थापित कर उनके स्थान पर जबरन ही अंग्रेजी शब्द ठूँसे कर भाषा भ्रष्ट की जा रही थी। किन्तु अब तो हिन्दी का व्याकरण ही भ्रष्ट किया जा रहा है।

दुनिया की तमाम भाषाओं के व्याकरण का सामान्य नियम है कि जब भी कोई शब्द अपनी मूल भाषा से किसी इतर (दूसरी) भाषा में जाता है तो उस पर उस दूसरी (इतर) भाषा का व्याकरण लागू होता है। इसलिए, यदि किसी दूसरी भाषा का कोई शब्द हिन्दी में आता है तो उस पर हिन्दी का व्याकरण लागू होगा न कि उस शब्द की मूल भाषा का। इसी नियम के अन्तर्गत हिन्दी का कोई शब्द किसी दूसरी भाषा में जाएगा तो उस पर उसी भाषा का व्याकरण लागू होगा, हिन्दी का नहीं। इसीलिए हिन्दी से अंग्रेजी में गए शब्दों पर अंग्रेजी का ही व्याकरण लागू होता है। उदाहरणार्थ हिन्दी के ‘समोसा’, ‘इडली’, ‘डोसा’ अंग्रेजी में गए तो वहाँ उनका बहुवचन रूप ‘समोसाज’, ‘इडलीज’, ‘डोसाज’ (या कि ‘समोसास’, ‘इडलीस’, ‘डोसास’) होता है न कि हिन्दी बहुवचन रूप ‘समोसे’, ‘इडलियाँ’, ‘डोसे’। 
इसी तरह अंग्रेजी के शब्द जब भी हिन्दी में आएँगे तो उन पर हिन्दी का व्याकरण लागू होगा न कि अंग्रेजी का। इसीलिए अंग्रेजी से हिन्दी में आए अधिसंख्य शब्दों के बहुवचन रूप हम हिन्दी व्याकरण के अनुशासन से ही प्रयुक्त कर रहे हैं जैसे कारें, रेलें, लाइटें, सिगरेटें, मोटरें, सायकिलें आदि। 

किन्तु इन दिनों अंग्रेजी शब्दों को हिन्दी में प्रयुक्त करते समय उनके अंग्रेजी बहुवचन रूप प्रयुक्त करने का भोंडा और खतरनाक चलन शुरु हो गया है। जैसे प्रोफेसर्स, डॉक्टर्स, टीचर्स, स्टूडेण्ट्स आदि। यह गलत है। ऐसा करने से पहले शायद किसी ने सोचने-विचारने की आवश्यकता ही नहीं समझी। इनके स्थान पर प्रोफेसरों, डॉक्टरों, टीचरों,  स्‍टूडेण्‍टों प्रयुक्त किया जाना चाहिए।

लेकिन अब तो कोढ़ में खाज जैसी दशा हो रही है। इसका एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है।


यह उज्जैन से प्रकाशित एक सान्ध्यकालीन अखबार की कतरन है। उज्जैन की पहचान कवि कालीदास और राजा विक्रमादित्य से होती है। यह सोलह आना हिन्दी इलाका है जहाँ अंग्रेजी जानने/समझनेवालों का प्रतिशत दशमलव शून्य के बाद का कोई अंक ही होगा। किन्तु बोलचाल की भाषा के नाम पर अंग्रेजी बहुवचन का भी बहुवचन कर दिया गया है। यह हमारी मानसिक गुलामी की पराकाष्ठा है। 

किसी की अवमानना कर देने के लिए जब भी कोई ‘अरे! उसकी तो हिन्दी हो गई।’ कहता है तो मुझे मर्मान्तक पीड़ा होती है। ऐसा बोलते/कहते समय हम हिन्दी की अवमानना कर रहे हैं यह किसी को सूझ नहीं पड़ती। किन्तु यदि उसी लोक वाक्य का सहारा लिया जाए तो कहना पड़ेगा - ‘इस अखबार ने अंग्रेजी की हिन्दी कर दी।’

राष्ट्रकवि मैथिली शरणजी गुप्त ने बरसों पहले निश्चय ही इसी दशा को भाँप लिया था और कहा था -

‘हम क्या थे, क्या हैं, और क्या होंगे अभी!’
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यह किसका संकट है?

बाँये से: ‘हम लोग’ के अध्यक्ष श्री सुभाष जैन, ‘समिति’ के पुस्तकालय मन्त्री श्री राकेश शर्मा, श्री जयकुमार जलज, श्रीमती प्रीति जलज और ‘समिति’ के प्रधान मन्त्री श्री सूर्य प्रकाश चतुर्वेदी

इन्दौर की, श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, एक सौ उन्नीस वर्षों से, विभिन्न उपक्रमों के जरिए हिन्दी की सेवा करती चली आ रही है। इस समिति को दो बार गाँधीजी की मेजबानी करने का अवसर मिला हुआ है। इन दिनों यह समिति, ‘हमारे रचनाकार’ शीर्षक श्रृंखला के अन्तर्गत, वीडियो रेकार्डिंग के जरिए, देश के रचनाकारों के कृतित्व और व्यक्तित्व का संक्षिप्त अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) करने का अत्यन्त महत्वपूर्ण काम कर रही है। ‘समिति’ के प्रधान मन्त्री श्री सूर्य प्रकाश चतुर्वेदी और पुस्तकालय मन्त्री श्री राकेश शर्मा इसी काम में जुटे हुए हैं। चतुर्वेदीजी की आयु लगभग 78 वर्ष है किन्तु उनका समर्पण और उत्साह आयु पर भारी पड़ रहा है। इस काम के लिए ‘समिति’ सामान्यतः रचनाकार को इन्दौर आमन्त्रित करती है और यदि रचनाकार के लिए इन्दौर पहुँच पाना सम्भव नहीं होता है तो ‘समिति’ रचनाकार के पास पहुँचती है। इस क्रम में अब तक लगभग चालीस रचनाकारों की रेकार्डिंग की जा चुकी है।

इसी क्रम में रतलाम के जलजी की रेकार्डिंग होनी थी। जलजजी याने डॉक्टर जय कुमार जलज।  वे देश के ख्यात भाषाविद् और रचनाकार हैं। उनका जन्म तो ललितपुर (उ.प्र.) में हुआ किन्तु वे रतलाम के ही होकर रह गए। मुझ जैसे मोहग्रस्त लोग तो उन्हें रतलाम का पर्याय मानते, कहते हैं। डॉक्टर रामुकमार वर्मा और बच्चनजी के समकालीन जलजी अपनी आयु के बयासीवें वर्ष में चल रहे। हृदयाघात झेल चुके हैं। घुटनों और रीढ़ की हड्डी की कुछ बीमारियों से भी परेशान हैं। शारीरिक रूप से बहुत कमजोर हो गए हैं। घर से बाहर निकलना केवल अपरिहार्य स्थितियों में (अपवादस्वरूप या कहिए कि विवशता में) ही होता है। चलने-फिरने में ही नहीं, बोलने में भी थकान आ जाती है। इसलिए रेकार्डिंग हेतु ‘समिति’ ही रतलाम आई। चतुर्वेदीजी और राकेशजी खुद पहुँचे। ‘विचार से सामाजिक बदलाव’ का लक्ष्य लिए काम कर रही संस्था ‘हम लोग’ ने आयोजन की व्यवस्थाएँ जुटाई थीं।

आयोजन के समाचार अखबारों में ठीक-ठाक रूप से छपे थे। आयोजकों ने अपनी ओर से भी लोगों से सम्पर्क किया था। होटल अजन्ता पेलेस के, लगभग साठ श्रोताओं की क्षमतावाले सभागार में लगभग पचास श्रोता आ जुटे थे। साहित्यिक अयोजनों में श्रोताओं के अकालवाले इस समय में यह बहुत अच्छी और पर्याप्त सन्तोषकजनक से कहीं आगे बढ़कर अत्यन्त उत्साहजनक उपस्थिति थी।  किन्तु अधिकांश श्रोता जलजजी के प्रति आदर-भाव अथवा शिष्य-भाव के अधीन पहुँचे थे। आयोजकों के प्रति संकोच भाव से भी कुछ लोग पहुँचे थे। किन्तु ‘हिन्दी-भाव’ से पहुँचनेवाले श्रोता अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। इस बात ने मुझे निराश किया।

मेरे कस्बे में कवियों, रचनाकारों की कम से कम आठ संस्थाएँ तो मेरी जानकारी में हैं। इनमें से कुछ तो नियमित रूप से मासिक गोष्ठियाँ करती हैं। इनमें से कुछ बैठकें सद्य प्रकाशित कहानी/कविता संग्रहों की समीक्षा-बैठकें होती हैं तो कुछ गोष्ठियाँ काव्य-पाठ की होती हैं। समीक्षा गोष्ठियाँ भी काव्य पाठ से ही समाप्त होती हैं। अखबारों में प्रकाशित खबरों को आधार बनाऊँ तो इन गोष्ठियों के भागीदारों की संख्या किसी भी दशा में एक सौ से कम नहीं होती। किन्तु जलजजी वाले इस आयोजन में इन एक सौ कलमकारोें में से पाँच भी नहीं पहुँचे थे।

मैंने इन कलमकारों की अनुपस्थिति का कारण टटोला तो हतप्रभ रह गया। हिन्दी के इन जितने साहित्यकारों से बात हुई तो लगभग एक ही कारण सामने आया-‘जलजजी के इस आयोजन में हम भला कैसे आते? वे तो हमारे किसी कार्यक्रम में, किसी भी गोष्ठी में नहीं आते।’ मैंने जलजजी की अस्वस्थता और शारीरिक दुर्बलता का हवाला दिया तो जवाब मिला-’सब बहाने हैं। अपनी रेकार्डिंग के लिए वे आए कि नहीं? घण्टा, डेड़ घण्टा बैठ कर सवालों के जवाब दिए कि नहीं?’ मैं चाह कर भी कोई तवाब नहीं दे पाया।  

हिन्दी अनेक संकटों से जूझ रही है। अधिकांश संकट हिन्दीवालों ने ही पैदा किए हैं। इस घटना से मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि यह संकट हिन्दी का है या हिन्दीवालों का?
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खुद को झूठा मानने में सच्चे

जून और जुलाई महीनों में सौगन्ध उठाने के समारोहों की मानो बाढ़ आ जाती है। अन्तर राष्ट्रीय स्तर के सेवा संगठनों की स्थानीय इकाइयाँ अपने-अपने पद-भार ग्रहण और शपथ ग्रहण समारोह आयोजित करती हैं। यह अलग बात है कि इन संगठनों के नीति निर्देशों में ऐसे शपथ ग्रहण समारोहों का प्रावधान नहीं है। इन संगठनों का वर्ष जुलाई से शुरु होता है और नीति निर्देशों के अनुसार, बिना कसम खाए ही नए पदाधिकारियों का काम पहली जुलाई से अपने आप शुरु हो जाता है। इन संगठनों के कुछ (ऊँचे) पदाधिकारियों के प्रशिक्षण का प्रावधान है। तदनुसार, जुलाई महीना शुरु होने से पर्याप्त समय पहले ऐसे पदाधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए देश-विदेश में बुला लिया जाता है। उन्हें केवल प्रशिक्षण दिया जाता है। कसम नहीं खिलाई जाती। इन संगठनों के अन्तर राष्ट्रीय स्तर से लगाकर स्थानीय इकाइयों तक के लिए शपथ ग्रहण का कोई प्रावधान नहीं है। किन्तु हम भारतीय उत्सव प्रेमी और प्रदर्शन प्रेमी हैं, शायद इसीलिए उत्सव मनाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।  कसम खाने के ऐसे सार्वजनिक और उत्सवी आयोजन अब सामान्य होते जा रहे हैं। विभिन्न समुदायों, समाजों के ‘सोश्यल ग्रुप’ भी कसम खाने के ऐसे आयोजन अत्यधिक उत्साह से करते हैं।

मेरा कस्बा मुझ पर अत्यधिक कृपालु है। सो, ऐसे प्रत्येक आयोजन का बुलावा मुझे आता है। मैं भी अत्यन्त उत्साह से पहुँचता हूँ। कुछ बरस पहले तक स्वादिष्ट और विविध व्यंजनों का आकर्षण होता था। अब सब कुछ वर्जित है। अब, अधिकांश कृपालुओं से एक साथ मिलने का लोभ मुझे इन समारोहों में खींच लिए जाता है। देख रहा हूँ कि व्यंजनों से निषेधित मुझ जैसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे हम लोग अपने अतीत पर गर्व करते हुए मौजूदा समय के आयोजनों की कमियाँ और गिरते स्तर पर चिन्तित होते हैं। आयोजन के मुख्य वक्ता के ज्ञान को अधकचरा और सतही साबित करने की कोशिशें करते हैं। सलाद, दाल, रोटी और चाँवल तक सीमित रह कर तरसी नजरों से तमाम व्यंजनों को देखते रहते हैं और उनसे स्वास्थ्य को होनेवाली खामियाँ गिना-गिना कर खुश होते रहते हैं। उस वक्त हम यह भूल जाते हैं कि ‘अपने जमाने में’ हम लोग इन्हीं व्यंजनों पर भुक्खड़ों की तरह टूट पड़ते थे। ऐसे हम लोगों में से जो ‘छड़ा’ होता है वह परहेज से परहेज कर अधिकाधिक व्यंजनों को उपकृत करने का पुण्य लाभ लेता है।

समारोह की कार्यवाई मुझे ऐसा नीरस ‘कर्मकाण्ड’ लगती है जिसमें सम्बन्धित व्यक्ति के अलावा और किसी की रुचि नहीं होती। उस कर्मकाण्ड और भोजन के दौरान  बतरसियों की भीड़ के बीच मैं खुद को अकेला पाता हूँ। तब इस तरह शपथ लेने और इस हेतु आयोजित समारोहों के औचित्य पर विचार करने लगता हूँ। सम्वैधानिक पदों के लिए शपथ लेने की बात तो समझ में आती है किन्तु सेवा संगठनों के पदों के लिए कसम खाने की बात मुझे समझ नहीं आती। सेवा भाव तो ईश्वर प्रदत्त होता है। सेवा करने के लिए किसी संगठन की भी आवश्यकता नहीं होती है! दुनिया में अनगिनत लोग अपने-अपने स्तर पर, अकेले ही नाना प्रकार की सेवा कर रहे हैं। कभी सुनने, देखने, पढ़ने में नहीं आया कि इस हेतु उन्होंने, ऐसा कोई समारोह आयोजित कर कसम हो खाई। इसके समानान्तर यह विचार भी मन में आता है कि समारोहपूर्वक कसम खानेवालों में से कितनों को यह कसम याद रहती होगी? इस तरह कसम खाना उनके लिए फोटू खिंचवाकर अखबार में छपवाने और निजी एलबम में सजाने के अतिरिक्त शायद ही किसी और काम में आता होगा। तब ऐसे समारोहों का क्या औचित्य और क्या आवश्यकता?

मुझे लगता है, हम भली प्रकार जानते है कि हम झूठे हैं। इसीलिए सारी दुनिया को भी झूठा मानते हैं। गोया, हम सब एक दूसरे को झूठा मानते हैं। अपनी सामान्य बातचीत में अपनी बात कहते हुए हम अत्यन्त सहज भाव से ‘आप विश्वास नहीं करेंगे किन्तु सच मानिए.......’ कहकर अपनी बात शुरु करते हैं। इसी के समानान्तर, सामनेवाले से कोई बात पूछते हुए, बड़ी ही सहजता से ‘देखो! सच-सच कहना, झूठ मत बोलना........’ कह कर उसके मुँह पर ही उसे झूठ बोलनेवाला कह देते हैं। इस तरह हम सब रोज ही एक दूसरे को झूठा कहते-सुनते रहते हैं और मजे की बात यह कि किसी को बुरा नहीं लगता। लगे भी तो कैसे? हममें से किसी का ध्यान इस ओर जाता ही नहीं। भला सच से कोई, कैसे इंकार करे? याने, कम से कम इस बात में तो हम सच्चे हैं कि हम खुद को झूठा स्वीकार करते हैं।

जो काम घोषित रूप से हमारे जिम्मे किया है उसे करने के लिए भला सौगन्ध उठाने की क्या आवश्यकता? सूरज कभी कसम नहीं खाता कि वह रोज समय पर उगेगा और सारी दुनिया को प्रकाश और ऊष्मा देगा। चाँद कभी कसम नहीं खाता कि वह सारी दुनिया पर अपनी चाँदनी समान रूप से बरसाएगा। हवा कभी कसम नहीं खाती कि बराबर बहती/चलती रहेगी और सारी दुनिया को प्राण-वायु देती रहेगी। प्रकृति कभी सौगन्ध नहीं खाती कि वह अपना चक्र अविराम गतिशील बनाए रखेगी। पशु कभी कसम नहीं खाते कि वे भूख से अधिक नहीं खाएँगे। मनुष्य के अतिरिक्त सृष्टि का कोई जीव कसम नहीं खाता कि वह अपने स्वभाव से हटकर कभी कोई हरकत नहीं करेगा। याने, समूचे विश्व में, समूची सृष्टि में यह मनुष्य ही है जिसे कसम खाने की जरूरत होती है। जब भी कोई शपथ ग्रहण कर रहा होता है तो उसकी इस रस्म अदायगी के साक्षी होते हुए हम शायद ही कभी गम्भीर रहते हैं। उस समय हम परिहासपूर्वक घोषणा करते रहते हैं कि हमारा यह प्रिय पात्र इस शपथ पर कायम नहीं रहेगा। कायम रहना तो दूर, उसे यह शपथ याद भी नहीं रहेगी। तब हम भली प्रकार जानते हैं कि वह एक खानापूर्ति कर रहा है।

हम सुरक्षा के लिए अपने मकानों, दुकानों, संस्थानों पर ताले लगाते हैं, चौकीदार रखते हैं, सुरक्षा गार्ड तैनात करजे हैं। किन्तु ऐसा करते समय बराबर जानते हैं और कहते भी हैं कि ताले और चौकीदार साहूकारों के लिए हैं, चोरों के लिए नहीं। अनगिनत मकानों, दुकानों, सुस्थानों पर ताले लगे रहते हैं, चौकीदार और गार्ड तैनात रहते हैं। ताले टूटने, रक्षकों पर हमले कर चोरी, डकैती के मामले गिनती के ही होते हैं। याने समाज में ‘साहूकार’ अधिसंख्य हैं। किन्तु गिनती के चोरों, डकैतौं के कारण हम सारी दुनिया पर सन्देह करते हैं। लेकिन खुद पर लागू करते हुए हम जानते हैं कि हममें से अनगिनत लोग इसलिए ईमानदार, चरित्रवान बने हुए हैं क्योंकि उन्हें बेईमान, चरित्रहीन होने के अवसर नहीं मिले और अवसर मिले भी तो वे साहस नहीं कर पाए।

अभी-अभी अखबारों में पढ़ा कि आगामी विधान सभा चुनावों के सन्दर्भ में पंजाब काँग्रेस, उम्मीदवारी की दावेदारी करनेवालों से शपथ-पत्र ले रही है कि उम्मीदवारी न मिलने की दशा में वे पार्टी से न तो विद्रोह करेंगे और न ही पार्टी विरोधी कोई हरकत करेंगे। समाचार पढ़कर मुझे हँसी आ गई। अवसरवाद की राजनीति के इस समय में ऐसे शपथ-पत्रों की क्या तो औकात और क्या डर? निष्ठा की कागजी ग्यारण्टी नहीं दी जाती। वह तो संकट काल में व्यक्ति के आचरण से ही उजागर होती है। कुछ इस शेर की तरह -

गुल से लिपटी हुई तितली को गिराओ तो जानूँ,
हवाओं! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।

अपनी जिम्मेदारी सत्य निष्ठा से निभाने के लिए शपथ लेना आज एक खानापूर्ति बन गया है। अदालतों में गीता, कुरान की शपथ लेनेवालों के बयानों पर सदैव ही सन्देह जताया जाता है। शपथ लेने की रस्म अदायगी करने कर्मकाण्डों के इस समय में एक बात पर जरूर सन्तोष किया जा सकता है कि हम जानते और मानते हैं कि हम झूठे हैं।
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एक ऑपरेशन ने बदल दी मेरी हैसियत

यदि मेरी जानकारियाँ सही हैं तो मैं देश के सवा अरब से अधिक लोगों में से गिनती के, लगभग तीन हजार लोगों में शरीक हो गया हूँ। एक छोटे से ऑपरेशन ने मुझे यह हैसियत दिला दी है।

इसी बरस, मार्च के दूसरे सप्ताह में मुझे ‘मूत्र नली संक्रमण’ (अर्थात् यूटीआई अर्थात् यूरीनरी ट्रेक्ट इन्फेक्शन) का रोगी घोषित कर दिया। यूरोलॉजिस्ट के अनुसार मेरी मूत्र नली अच्छी-खासी सिकुड़ गई थी और मुझे फौरन ही किसी कुशल यूरोसर्जन की सेवाएँ लेनी चाहिए। रतलाम के डॉक्टर उदयजी यार्दे ने कहा - ‘आप बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत से मिलिए। इस कष्ट से मुक्ति वे ही दिलाएँगे।’ मैंने आँख मूँदकर यार्देजी का कहा माना और कष्ट-मुक्त ही नहीं हुआ, देश के ‘अब तक के गिने-चुने’ लोगों में भी शरीक हो गया। मुझे इतनी राहत मिली है कि मैं अपने इस अनुभव को सार्वजनिक करने से खुद को रोक नहीं पा रहा।

कामतजी पहले ही मेरा, सरकम सीजन का ऑपरेशन कर चुके थे। उन्होंने मेरे कागज देखे, पूरी बात सुनी और कहा कि ऑपरेशन से पहले वे ऑपरेशन के बारे में मुझे विस्तार से बताना/समझाना चाहेंगे। कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि जिस तरीके से वे ऑपरेशन करेंगे वह सामान्य चलन में नहीं है। इस बीमारी के जो ऑपरेशन इन दिनों हो रहे हैं उनमें मूत्र नली की मरम्मत की जाती है और मरीज को एक छोटी सी शलाका (रॉड) प्रयुक्त करने की सलाह दी जाती है जिसे, (ऑपरेशन के बाद) जब-जब मूत्र त्याग में  बाधा अनुभव हो तब-तब मूत्र मार्ग में डालकर मरीज खुद अपनी सहायता करता रहे। यह व्यवस्था तनिक कष्टदायक होती है और कालान्तर में रोगी झुंझलाने लगता है। कामतजी ने कहा कि वे जर्मन पद्धति अपनाएँगे जिसमें मूत्र नली की मरम्मत करने के स्थान पर, मूत्र नली के क्षतिग्रस्त भाग का ‘पुनर्निमाण’ किया जाता है। (यह ‘पुनर्निमाण’ शब्द मैंने गढ़ा है।) बोलचाल की भाषा में इसे मूत्र नली की प्लास्टिक सर्जरी और डॉक्टरी भाषा में यूरोथ्रोप्लास्टी कहा जाता है। कोई पन्द्रह बरस पहले यह पद्धति जर्मनी में ईजाद हुई और लगभग दस बरस पहले भारत में इस पद्धति से ऑपरेशन शुरु हुए हैं।

इस पद्धति में मूत्र नली के पुनर्निर्माण हेतु मरीज के शरीर की चमड़ी प्रयुक्त की जाती है। चूँकि मूत्र नली चौबीसों घण्टे गीली रहती है इसलिए वहाँ सूखी चमड़ी (याने, शरीर पर बाहर दिखाई दे रही चमड़ी) प्रयुक्त नहीं की जा सकती। उसके सिकुड़ने की आशंका बनी रहती है। इसलिए रोगी के शरीर की गीली चमड़ी ही ली जाती है। यह गीली चमड़ी मनुष्य शरीर में चार स्थानों, दोनों गालों और दोनों होठों के अन्दर से ली जाती है। गालों की अन्दरूनी चमड़ी तनिक मोटी होती है इसलिए होठों के अन्दर की चमड़ी अधिक उपयुक्त होती है। गालों/होठों की चमड़ी निकालने की प्रक्रिया को ‘बकास मकोसाा हार्वेस्टिंग’(BUCCAS MUCOSA HARVESTING) कहा जाता है। 

जर्मनी में इस हेतु मरीज की चमड़ी का बहुत छोटा सा अंश लेकर उसे विकसित किया जाता है। बोलचाल की भाषा में कह सकते हैं कि इस चमड़ी की खेती जाती है, छोटी-मोटी फसल उगाई जाती है जिसे ‘सेल कल्चर’ (CELL CULTURE) कहते हैं। यह प्रत्येक रोगी के लिए अलग-अलग की जाती है। किन्तु यह पद्धति अधिक खर्चीली और अत्यधिक समय लेनेवाली होती है। इसलिए इसके बजाय आवश्यकतानुसार पूरी चमड़ी ही ली जाती है।

कामतजी ने पहले ही बता दिया था कि ऑपरेशन तो बहुत छोटा (माइनर सर्जरी) होगा। खतरे, चिन्ता या अतिरिक्त गम्भीरता जैसी कोई बात नहीं है। किन्तु यह ‘एक में दो ऑपरेशन’ जैसा होगा - चमड़ी निकालना और मूत्र नली का पुनर्निर्माण। इसलिए कम से कम चार घण्टे लगेंगे। 


मेरे मामले में मेरे ऊपरी होठ की चमड़ी निकाली गई। ऑपरेशन थिएटर में घुसने से लेकर निकलने तक का समय करीब पौने पाँच घण्टे रहा। ऑपरेशन हेतु मुझे निश्चेष्ट किया गया। पुनर्निर्मित मूत्र नली अपने नवनिर्मित आकार में बनी रहे इसलिए वहाँ, उपयुक्त गोलाई की एक नली लगा दी गई। चूँकि मुख्य मूत्र मार्ग का पुनर्निर्माण किया गया था इसलिए वह रास्ता तो बन्द करना ही था। मूत्र त्याग हेतु अतिरिक्त रास्ता बनाकर एक नली लगा कर एक थैली लगा दी गई। याने, जब मैं ऑपरेशन थिएटर से बाहर आया तो मुझे दो नलियाँ लगी हुई थीं।

मैं 19 मई की शाम को कामतजी के अस्पताल में भर्ती हुआ, ऑपरेशन 20 मई को हुआ और 27 मई को मुझे छुट्टी मिली। तयशुदा कार्यक्रमानुसार मैं 04 जून को फिर बड़ौदा गया। उस दिन मेरी, मूत्र त्याग के मुख्य मार्ग पर लगी (पुनर्निर्मित मूत्र नली का आकार बनाए रखने के लिए लगाई गई) नली निकाली गई। 19 मई के बाद उसी दिन मैंने सामान्य और स्वाभाविक रूप से मूत्र त्याग किया। याने, पन्‍द्रह दिनों तक मुझे पेशाब, बाहर लगाई गई नली से अपने आप होता रहा। तयशुदा कार्यक्रमानुसार 13 जून को मैं फिर बड़ौदा गया। उस दिन बाहरी नली निकाली गई। बाहरी नली से जुड़ी पेशाब की थैली पहले मरीज को हाथ में लेकर चलना पड़ता था। तकनीकी विकास इस मामले में भी हुआ। अब मरीज अपने पाँव पर ही यह थैली बाँध कर पेण्ट/पायजामा पहन सकता है।

इस ऑपरेशन से मुझे मेरी अपेक्षा से अधिक राहत मिली है। मूत्र नली सँकरी होने के कारण पहले मुझे पेशाब करने में अधिक समय तो लगता था ही था, अधिक दबाव भी झेलना पड़ता था। पेशाब शुरु होने की अनुभूति तो होने लगती थी किन्तु पेशाब आना कुछ देर बाद शुरु होता और समाप्त होने की अनुभूति होने के देर बाद तक आता रहता। अब सब कुछ सहज, सामान्य और प्राकृतिक स्थिति जैसा हो गया है। अभी, 13 जुलाई को मैं फिर बड़ौदा जाकर लौटा हूँ। यूरोफ्लोमीटरी के जरिए मेरे  मूत्र-प्रवाह की गति आदि की जाँच हुई है। सब कुछ सामान्य है। कामतजी के मुताबिक अब मुझे उनके पास किसी जाँच के लिए नहीं जाना है।

इस अक्टूबर में अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे करनेवाले कामतजी लगभग इक्कीस वर्षों से इस पेशे में हैं। जैसा कि मैंने शुरु में ही बताया है, भारत में गए दस बरसों में इस तरह के लगभग तीन हजार ऑपरेशन हुए हैं। मैं इनमें से एक हूँ। कामतजी ने यूरोथ्रोप्लास्टी का पहला ऑपरेशन कोई आठ-नौ बरस पहले किया था। मैं उनका सम्भवतः ‘शतकीय मरीज’ हूँ। बड़ौदा में अकोटा इलाके में 21, विनायक सोसोयटी पर, एसएनडीटी कॉलेज के सामने, अकोटा स्टेडियम के पीछे, ‘कामत किडनी एण्ड आई हास्पिटल’ नाम से उनका अपना अस्पताल है। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती प्रीती कामत प्रख्यात, कुशल नेत्र चिकित्सक हैं। अस्पताल का फोन नम्बर  (0265) 2322463, मोबाइल नम्बर 9558819868 तथा ई-मेल पता:kamatkeh@gmail.com  है।

यह मेरा अपना अनुभव है। इतनी गुंजाइश रखी जानी चाहिए कि मेरा अनुभव दूसरों के अनुभव से अलग भी हो सकता है।
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यहाँ दिया गया मेरा चित्र, मेरे ऊपरी होठ के अन्दर की चमड़ी निकालने के बाद, मेरी स्थिति बता रहा है। पोस्ट पर, चित्र के नीचे केप्शन देना मैं अब तक नहीं सीख पाया। 

कानून अपना काम नहीं करेगा

समान नागरिक संहिता इन दिनों चर्चाओं में है। मैं अपने जीवन के सत्तरवें बरस में चल रहा हूँ। ढंग-ढांग की गृहस्थी और ठीक-ठीक स्तर का परिचय, सम्पर्क और लोक-व्यवहार है मेरा। लोगों के सुख-दुःख के प्रसंगों में शरीक होता हूँ और लोग मेरे सुख-दुःख में। लेकिन इस सबमें और अपना सामान्य जीवन जीने में यह समान नागरिक संहिता अब तक न तो जरूरी अनुभव हुई और न ही कभी, कहीं आड़े आई। सब कुछ निर्विघ्न, निर्बाध सम्पन्न होता रहा है। भावोत्तेजित करनेवाला यह विषय हमारे दैनिक जीवन और वैयक्तिकता को शायद ही छूता, प्रभावित करता हो। पहली नजर में मुझे यह विषय सीधे-सीधे वोट से जुड़ा होने के कारण महत्वपूर्ण होता लगता है। हमारे राजनीतिक दलों, राजनेताओं और उनके समर्थकों के लिए यह अवश्य ही उत्प्रेरक या फिर कभी-कभार प्राण-वायु बनता रहता है।
अपने अनुभव के आधार पर मेरी धारण बनी हुई है कि समानता सदैव ही आचरण की विषय वस्तु होती है। कानून या सम्वैधानिक प्रावधान बनाना शायद बहुत ही आसान हो। लेकिन यदि उन कानूनों, प्रावधानों पर ईमानदारी से अमल न हो तो वे हास्याास्पद होकर अपना महत्व और अर्थ खो देते हैं।

गए दिनों मैं इन्दौर में था। 29 जून के अखबारों में छपी एक खबर ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। वहाँ, कुछ दुकानों की मौजूदा स्थिति को निगम प्रशासन ने अनुचित माना और उन्हें सील कर दिया। खबर से अनुमान लगा कि अधिकांश (हो सकता है, सारी) दुकानें मौजूदा सत्ताधारी दल भाजपा से जुड़े लोगों के कब्जे में हैं। वहाँ की एक विधायक ने निगम प्रशासन की इस कार्रवाई को अनुचित माना और (अखबारी खबर के अनुसार) रात आठ बजे, नगर निगम की जनकार्य समिति के प्रभारी के घर ‘धरना’ दे दिया। निगम प्रशासन की कार्रवाई को ‘बगैर जाँच की गई’ बताने के साथ-साथ उनके दो सवाल थे- निगम अफसर क्या ‘अपने ही लोगों को’ टारगेट कर रहे हैं? और हमें राजनीति करने दोगे या नहीं? अखबार के मुताबिक,  ‘सोशल मीडिया पर जमकर मेसेज चला कि पूर्व महापौर कृष्णमुरारी मोघे और भाजपा नेता गोपीकृष्ण नेमा ने निगम अफसरों पर लगाम कसने की बात करते हुए उन्होंने यह बात दोहराई कि निरंकुश अफसरों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। केन्द्र और राज्य में हमारी सरकार है।’

ऐसी बातें केवल भाजपाई नहीं कहते। सत्ता के मद में प्रायः सभी दलों के लोग ऐसी बातें करते हैं-कोई कम तो कोई ज्यादा, कोई खुलकर तो कोई लोकलाज का ध्यान रखकर बन्द कमरों में।

इस उदाहरण में निगम प्रशासन की कार्रवाई पर नियमों/कानूनों के आधार/औचित्य के परिप्रेक्ष्य में आपत्ति नहीं उठाई गई। ऐतराज इस बात पर था कि ‘अपने ही लोगों पर’ कार्रवाई की जा रही है जबकि ‘केन्द्र और राज्य में हमारी सरकारें हैं।’

यहीं आकर नियम और वैधानिक प्रावधान अपना अर्थ और महत्व खो देते हैं। अपराध का निर्धारण जब ‘अपना-पराया’ के आधार पर होने लगता है तो सारे कानून बलात्कृत दशा में आ जाते हैं। जब भी किसी प्रभावी व्यक्ति पर कानूनी शिकंजा कसता है तो तमाम नेता एक ही बात कहते हैं - ‘कानून अपना काम करेगा।’ लेकिन बेचारा कानून काम करे तो कैसे? वह काम करे उससे पहले ही उसे मनमाफिक हाँकने की जुगत शुरु हो जाती है।

कानून काम कैसे करता है और पदों पर बैठे लोग कैसे उसका लिहाज पालते, कैसे उसका आदर करते हैं, इसके कुछ किस्से मुझे बरबस ही याद आ गए। 

1998-99 में मनोज झालानी रतलाम के कलेक्टर थे। रतलाम को सूरत की तरह साफ-सुथरा बनाने की भावना से उन्होंने, रतलाम के कुछ जनप्रतिनिधियों, गण्यमान्य नागरिकों और प्रबुद्ध लोगों को सूरत भेजा था ताकि वे वहाँ की व्यवस्थाएँ देख कर उन्हें रतलाम में लागू कर, रतलाम को वैसा ही साफ-सुथरा बनाने की सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए सुझाव दे सकें। नारायण पाटीदार तब रतलाम के एसडीएम थे। सूरत जानेवाले लोगों में उन्होंने मेरा नाम भी शरीक करवाया था।

सूरत नगर निगम पर भाजपा काबिज थीा वहाँ की व्यवस्थाएँ सचमुच में अविश्वसनीय थीं। वहाँ, सड़कपर थूकने पर आर्थिक दण्ड का प्रावधान था। नियमों/कानूनों का पालन कराने में वहाँ समान-भाव बरता जा रहा था। व्यवस्थाओं और कानूनों/नियमों के  क्रियान्वयन को समझने के लिए सूरत नगर निगम की स्थायी समिति के अध्यक्ष नटू भाई (मुझे यही नाम याद आ रहा है) से हमारी बात हुई। मैंने सवाल किया - ‘आप तो राजनीतिक व्यक्ति हैं। आपको वोटों की चिन्ता करनी पड़ती है। जुर्माने से बचने की सिफारिश केे लिए आपके पास तो प्रतिदिन पचासों लोग आते होंगे। आप उनसे कैसे निपटते हैं?’ नटू भाई ने बताया कि शुरु-शुरु में उनका पूरा दिन ही ऐसे मामलों का सामना करने में बीता जाता था। अधिसंख्य लोग उनके कार्यकर्ता होते थे। लेकिन वे एक भी मामले में सिफारिश नहीं करते थे। प्रत्येक से कहते कि वह जुर्माने की रकम उनसे (नटू भाई से) ले ले और जमा कर दे। रकम एक ने भी नहीं ली। प्रत्येक ने जुर्माना चुकाया।

1969 से 1972 के बीच सुश्री विमला वर्मा मध्य प्रदेश की स्वास्थ्य मन्त्री थीं और दादा (श्री बालकवि बैरागी) सूचना-प्रकाशन राज्य मन्त्री। दादा के एक  कार्यकर्ता अपने एक साथी के साथ अलसुबह भोपाल पहुँचे। साथी का बेटा पीएमटी में फेल हो गया था। उसे पास कराने का काम लेकर। दादा ने कहा कि वे तो कुछ जानते-समझते नहीं। हाँ, उन कार्यकर्ता और उनके साथी की भेंट विमलाजी से करवा देते हैं। जो भी कहना-सुनना हो, कह-सुन लें। ऐसा ही हुआ। सुन कर विमलाजी ने अपनी बहन को (जो उनके साथ ही रहती थीं) आवाज लगाई और कहा कि वे उनकी बेटी (याने, विमलाजी की भानजी) की, पीएमटी की अंक सूची लेकर आए। उन्होंने अंक सूची, दादा को और दादा ने कार्यकर्ता को थमा दी। कार्यकर्ता ने साथी को दिखाई। दोनों ने मानो एक साथ कहा - ‘चलो! अब क्या कहना-सुनना!’ विमलाजी की सगी भानजी पीएमटी में फेल हो गई थी।

यह घटना रतलाम के राजा सज्जनसिंहजी के शासन काल 1893 से 1947 के बीच की। रियासत के एक प्रमुख अधिकारी श्रीनिवासजी राय को कुछ लोगों ने षड़यन्त्रपूर्वक एक आर्थिक घपले में फँसा दिया। मामला रियासत की कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश श्री शिवशक्ति राय के सामने पेश हुआ। श्रीनिवासजी राय पिता और श्री शिवशक्ति राय पुत्र। पूरी रियासत में सनसनी और उत्सुकता। खुद राजा सज्जनसिंहजी की नजर पूरे मामले पर। बचाव पक्ष के वकील, श्रीनिवासजी को निर्दोष साबित करने में विफल रहे। मुख्य न्यायाधीश ने दोषी (पिता) को छह मास का कारावास और पाँच सौ रुपयों के जुर्माने की सजा सुनाई। अदालत में सन्नाटा खिंच गया। 

निर्णय सुनाकर शिवशक्तिजी कुर्सी से उठे। पिता के पास आए। उनके पाँवों में माथा टेककर, धार-धार रोते हुए बार-बार क्षमा माँगी और पहले से ही लिखा हुआ त्याग-पत्र जेब से निकाल कर राजा सज्जनसिंहजी को पहुँचा दिया। इधर पिता परम प्रसन्न। गर्वित। बेटे ने न्याय की रक्षा की और पद की गरिमा कायम रखी। उन्होंने बेटे को बाँहों में भर, गले लगा लिया।

यह अलग बात रही कि श्रीनिवासजी को सजा नहीं भुगतनी पड़ी। राजा सज्जनसिंह समानान्तर रुप से सारे मामले की जाँच करवा रहे थे। उन्हें पहले ही पता चल चुका था कि श्रीनिवासजी को फँसाया गया है। वे निर्दोष हैं। उन्होंने अपने विशेषाधिकार प्रयुक्त करते हुए सजा रद्द कर दी और शिवशक्तिजी को अपने दरबार में सर्वोच्च स्थान देकर सम्मानित किया।

दरअसल, कानून बनाना जितना आसान है, उसकी और उसके मान की रक्षा करना उतना ही कठिन होता है। उसके लिए खुद को दाँव पर लगाना होता है, अपनी कथनी-और करनी में समानता बरतने का प्राणलेवा संघर्ष खुद से पल-प्रति-पल करते रहना होता है।

जाहिर है, कठिन काम करना, खुद से संघर्षरत रहना हमें रास नहीं आता। सो, हम आसान काम करते हैं। किए जा रहे हैं। ऐसा करके हम खुश भी होते हैं। लेकिन हकीकत में हम लोकतन्त्र को निर्बल ही नहीं, विफल भी कर रहे होते हैं और गुनाह बेलज्जत करते हुए कहते हैं - कानून अपना काम करेगा।
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दोनों कतरनें दैनिक नईदुनिया (नगर संस्‍करण) 29 जून 2016 पृष्‍ठ 02

लोकतन्‍त्र का समीकरण : दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं

1965  का भारत-पाकिस्तान युद्ध कोई नहीं भूल सकता। न हम, न पाकिस्तान। उस समय शास्‍त्रीजी  प्रधान मन्त्री थे। अनेक प्रतिकूलताओं और अभावों के बीच भारतीय सेना ने वह युद्ध जीता था। सेना और भारतीय जन मानस को यह जीत समर्पित करते हुए शास्त्रीजी ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। तब हम खाद्यान्न के मामले में आत्म-निर्भर नहीं थे। अमरीका का मुँह देखते थे। अमरीका पाकिस्तान के साथ था। उसने खाद्यान्न आपूर्ति रोकने की धमकी दी। इससे निपटने के लिए शास्त्रीजी ने देश के लोगों से मदद माँगी और प्रति सोमवार (एक समय भोजन करने का) व्रत लेने का आह्वान किया। व्रत की शुरुआत शास्त्रीजी ने खुद से की। शास्त्रीजी के इस आह्वान को पूरे देश ने सर-माथे लगा कर स्वीकार किया। जन-जन की भागीदारी से किसी राष्ट्रीय संकट का सामना करने का यह अनूठा उदाहरण था। पचास बरस से अधिक के बाद, आज भी अनेक लोग ‘शास्त्री सोमवार’ करते मिल जाएँगे।   

यही युद्ध जीतने के बाद शास्त्रीजी को, पाकिस्तान से वार्ता के लिए ताशकन्द जाना था। तैयारी करते हुए अपने कपड़ों में उन्हें एक फटी धोती रखते देख परिजनों और परिचारकों ने टोका और दूसरी ‘ढंग-ढांग’ की धोती रखने की सलाह दी। शास्त्रीजी ने कहा कि देश के अनगिनत लोग फटी धोती पहन रहे हैं और उनसे भी अधिक लोगों के पास तो पहनने के लिए पूरे कपड़े ही नहीं हैं। ऐसे में वे भला ‘ढंग-ढांग’ की धोती के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं? वे वही फटी धोती लेकर गए। 

इससे पहले, नेहरूजी के समय केन्द्रीय मन्त्री होते हुए भी शास्त्रीजी रेल के साधारण डिब्बे में सफर किया करते थे। सफर के दौरान वे सरकार के और अपने विभाग के बारे में लोगों की राय जानते रहते थे। कोई निजी सचिव या सरकारी अमला साथ में नहीं होता। लोगों की शिकायतें/समस्याएँ/सुझाव, उनके नाम-पते खुद ही लिखते थे और दिल्ली पहुँच कर जो कार्रवाई करते, उसकी जानकारी सम्बन्धितों को पत्र के जरिए देते थे। वे अपनी बात नहीं कहते थे, कोई उपदेश नहीं देते थे, लोगों से आग्रह, अपेक्षा नहीं जताते थे। खुद चुप रहते और लोगों की बात सुनते थे।

लोगों से जुड़ाव के मामले में गाँधी आज तक ‘अनुपम और इकलौते’ बने हुए हैं। उनके तमाम चित्रों में वे ‘अधनंगे’ ही नजर आते हैं-कमर से ऊपर निर्वस्त्र और घुटनों तक की धोती पहने हुए। अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने से, भारत को जानने के लिए वे जब देशाटन पर निकले थे तो पारम्परिक काठियावाड़ी पोषाख (माथे पर खूब मोटा पग्‍गड, घेरदार अंगरखा और धरती छूती धोती) पहने हुए थे। लेकिन यात्रा के दौरान ही वे ‘अधनंगे’ हो गए। दक्षिण भारत के एक गाँव में उन्हें मालूम हुआ कि एक परिवार में तीन महिलाएँ हैं लेकिन वे तीनों चाहकर भी गाँधीजी की प्रार्थना सभा में एक साथ नहीं आ पा रहीं। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है जिसे वे बारी-बारी से पहनती हैं। सुनकर गाँधीजी ने उसी दिन से पूरे कपड़े पहनना बन्द कर दिया। एक, अधूरी धोती को अपनी पोषाख बना लिया और आजीवन इसी स्वरूप में बने रहे।

उसी समय-काल में भारत ने विनोबा नामक एक और ‘लोक पुरुष’ को देखा। वे सम्भवतः अब तक के एकमात्र भारतीय होंगे जिन्होंने पूरे भारत को अपने पाँवों नापा। उनके कहने पर देश के अनेक भूमिपतियों, जागीरदारों, जमीदारों ने अपनी हजारों एकड़ जमीन विनोबा के ‘भूदान यज्ञ’ की समिधा बना दी।

सन् 1954 की इस घटना का तो मैं खुद साक्षी हूँ। उस समय मेरी उम्र आठ साल भी नहीं थी। गाँधी सागर बाँध का शिलान्यास करने के लिए जाते समय जवाहरलालजी की एक आम सभा मेरे गाँव मनासा के ऊषागंज में हुई थी। वे क्या बोले, न तो उस समय समझ थी न इस समय याद है। बस! इतना याद है कि बहुत ऊँचा मंच बना था और काँटेदार तारों की बागड़ जैसी घेराबन्दी कर लोगों के बैठने की जगह बनाई गई थी। लेकिन भाषण देते-देते जवाहरलालजी अचानक ही तेजी से उतरे और काँटेदार तारोेंवाले दो खम्भों को उखाड़ फेंका। उनकी शेरवानी फट गई। पुलिसवाले और दूसरे लोगों ने दौड़कर उन्हें पकड़ा और कार में बैठाया। बाद मालूम हुआ कि वे काँटेदार तार देख कर गुस्सा हुए थे। कह रहे थे कि उनके और उनके लोगों के बीच ऐसे काँटेदार लगाने की बेवकूफी और जुर्रत किसने, कैसे, क्यों की। 

ये सब वे लोग थे जिनके पीछे देश के लोग खुद को, अपना सब कुछ भूल कर चल देते थे। इनके कहे को सर-माथे चढ़ाते थे। लोगों को भरोसा था कि ये लोग खुद के लिए नहीं, देश और लोगों के भले के लिए निस्वार्थ भाव से जी रहे हैं।

लेकिन इन सब बातों का आज क्या मतलब? क्या सन्दर्भ? दरअसल एक समाचार पढ़कर ये सारी बातें एक के बाद एक याद आ गईं। समाचार था कि देश में दालों की कमी दूर करने के लिए हमारी सरकार अफ्रीकी देश मोजाम्बिक से सम्पर्क कर रही है। एक अखबार ने तो वहाँ कुछ जमीन लीज पर लेने की बात भी कही। यही समाचार पढ़कर ये सब बातें याद आ गईं। कल तक अमरीकी लाल गेहूँ के लिए झोली फैलानेवाले हम वह देश हैं जिसने पहले हरित क्रान्ति का और बाद में श्वेत क्रान्ति का अजूबा कर दिखाया। लेकिन हमारे नेताओं की पुण्याई इतनी भी नहीं रह गई कि ऐसे संकट के समय वे लोगों से ‘त्याग’ करने का आग्रह कर सकें? निश्चय ही केवल इसलिए कि इसके लिए जो नैतिक साहस और आचरणगत शुचिता चाहिए होती है, वह हमारे नेताओं में दूर-दूर तक नजर नहीं आती। रक्षा मन्त्री मनोहर पर्रीकर ने एक समय भोजन करने का विचार दिया भी तो इतनी अगम्भीरता, इतनी आत्मविश्वासहीनता से कि वह समाचार माध्यमों में यथेष्ट जगह ही नहीं पा सका। कारण? हमारे नेता अपनी असलियत खूब अच्छी तरह जानते हैं। अपनी अपील पर एक करोड़ लोगों द्वारा गैस सबसिडी छोड़ने का उल्लेख हमारे प्रधानमन्त्री जब अपनी उपलब्धि की तरह करते हैं तो मुझे ताज्जुब होता है। इससे कई गुना अधिक तो उनकी पार्टी की सदस्य संख्या होने का दावा किया जाता है!

यह दरिद्रता भला क्यों कर आ गई? देश के तमाम दलों के तमाम नेताओं की यह दशा क्यों कर हो गई? नेता तो ‘वे’ भी थे और नेता तो ‘ये’ भी हैं? टैक्स तो ‘वे’ भी लेते थे और ‘ये’ भी ले रहे हैं? उनकी बात सब क्यों मानते थे और आज के नेताओं की क्यों नहीं? निश्चय ही इसलिए कि  ‘उन्होंने’ कभी भी खुद को राजा या शासक नहीं माना। किलों-महलों में कैद होकर नहीं बैठे रहे। ‘वे’ खुद चल कर सड़कों, पगडण्डियों पर आए, लोगों से मिले, उनके जैसे बने, धूल-मिट्टी में सने। उन्होंने दुहाइयाँ नहीं दीं, अपना किया नहीं गिनवाया, सदैव इसी संकोच में रहे कि वे जितना कुछ कर सकते थे, उतना नहीं कर पाए। उन्होंने कभी भी अपने ‘पूर्ण’ होने की गर्वोक्तियाँ नहीं की, सदैव खुद को अपूर्ण ही माना। वे अपनी हाँक कर, अपनी कह कर नहीं रह गए। उन्होंने अपनी या तो कही ही नहीं और कही तो बहुत कम। लोगों की अधिक सुनी-समझी-गुनी।

पूँजी को मिल रही निर्लज्ज, अशोभनीय और आपराधिक प्रमुखता के बावजूद यह देश भले और भोले लोगों का देश है। लोग सुनते भी हैं और मानते भी हैं। लेकिन भले और भोले होने का अर्थ मूर्ख होना कभी नहीं होता। वे उसी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करते हैं जो अपना ‘स्व’ उनमें विसर्जित कर दे। मालवी की कहावत है - ‘राख पत तो रखा पत।’ तुम मेरा मान रखो, मैं तुम्हारा मान रखूँ। दोनों हाथ साथ ही धुलते हैं। लोग तभी सुनते हैं, जब लोगों की सुनी जाए। लोकतन्त्र का समीकरण बहुत ही सीधा -सपाट, सहज-सरल है: लोगों के मन की सुनो, मानो और अपने मन की सुनाओ, मनवाओ।
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शुद्धता ने हमें दूसरे गाँधी से वंचित कर दिया

या तो अस्पताल में भर्ती रहना या अस्पतालों और पेथालॉजी प्रयोगशालाओं के चक्कर लगाना, कोई तीन महीनों से यही क्रम बना हुआ है। रतलाम-बड़ौदा की यात्राओं ने ऊब पैदा कर दी। बाहर आना-जाना प्रतिबन्धित। घर में या तो बिस्तर पर रहो या फिर चहल कदमी कर लो। चिढ़ और झुंझलाहट का गोदाम बन गया है मन। न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही न कुछ लिखने की। अपने मन से मेरे मन की बात को अनुभव करनेवाले मित्र ईश्वर की तरह मदद कर रहे हैं। लगता है, सबने तय कर लिया है कि कौन, कब आएगा। जो भी आता है, पठन-पाठन की कुछ न कुछ सामग्री लेकर आता है। मैं पढ़ने से इंकार कर देता हूँ।  वे पढ़कर सुनाने लगते हैं। मैं चिढ़ जाता हूँ। कहता हूँ - ‘पढ़कर नहीं, किसी किस्से की तरह, किसी बात की तरह सुनाओ-कहो।’ दुनिया से अलूफ रहना चाहता हूँ। वे मुझे दुनियादार बनाकर लौटते हैं।

इसी क्रम में एक मित्र ने किसी अखबार के रविवारी परिशिष्ट में छपा, अल्लामा आरजू और ए. हमीद का किस्सा सुनाया। आरजू साहब, भाषा के निष्णात् विद्धान थे और हमीद साहब उर्दू के जाने-माने लेखक। आरजू साहब ने फिल्म निदेशक नितिन बोस के लिए एक गीत लिखा था। हमीद साहब ने कहा कि उस गीत में एक शब्द गलत प्रयुक्त हुआ है। सुनकर आरजू साहब ने विस्फारित नेत्रों से देखा। उस शब्द को रेखांकित कर बोले कि वे उस शब्द का बेहतर पर्यायी/वैकल्पिक शब्द सोचेंगे।

हमीद साहब चले तो आए किन्तु आरजू साहब की भेदती नजर ने उनका आत्मविश्वास हिला दिया। शाम को घर पहुँच कर दीवान-ए-गालिब देखा तो पाया कि गालिब ने वही शब्द ठीक उसी तरह प्रयुक्त किया था जिस तरह आरजू साहब ने किया था। हमीद साहब को अपने ज्ञान के सतहीपन अनुभव हुआ और खुद पर शर्म हो आई। वे बेकल हो गए। घर पर रुकना कठिन हो गया। वे तीन ट्रामें बदल कर देर रात आरजू साहब के घर पहुँचे। हमीद साहब को बेवक्त अपने दरवाजे पर देख कर आरजू साहब को हैरत हुई। आने का सबब पूछा। हमीद साहब ने अपने अल्प ज्ञान आधारित दुस्साहसी अपराध के लिए क्षमा माँगी। आरजू साहब कुछ भी नहीं बोले और ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए नमाज पढ़ने बैठ गए।

किस्सा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। कुछ क्षणों के लिए अपनी बीमारी भूल गया। हमीद साहब की भाषाई चिन्ता, सावधानी और अपनी गलती को तत्क्षण स्वीकार कर, क्षमा याचना करनेे के साहस के प्रति मन में आदर का समन्दर उमड़ पड़ा तो आरजू साहब के बड़प्पन और भाषाई उत्तरदायी-भाव ने एक पल में ही आरजू साहब को बीसियों बार प्रणाम करवा दिया। 

किन्तु भाषा के प्रति यह सतर्कता भाव अब नजर नहीं आता। कम से कम हिन्दी में तो नहीं। यदि कोई ऐसी चिन्ता करता भी है तो या तो उसकी अनदेखी कर दी जाती है या उसे उपहास झेलना पड़ता है। इस किस्से ने मुझे कुछ किस्से याद दिला दिए।

कविता के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए जी-जान झोंके हुए एक युवा ने मुझसे सैलाब का अर्थ पूछा। मैंने कहा कि इसका सामान्य अर्थ तो बाढ़ होता है किन्तु यदि वह प्रयुक्त करने का सन्दर्भ, प्रसंग बता दे मैं शायद कुछ अधिक सहायता कर सकूँ। उसने उत्तर दिया कि अपनी कविता में वह सैलाब को प्रयुक्त तो कर चुका। मैं तो बस, उसका अर्थ भर बता दूँ। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे एक मित्र का पचीस वर्षीय बेटा, कोई दो बरस पहले अचानक ही फेस बुक पर प्रकट हुआ। उसने अपनी कविताएँ, एक के बाद एक, धड़ाधड़ कुछ इस तरह भेजी मानो कोई फैक्टरी खुल गई हो। उसने अपनी कविताओं पर मेरी राय पूछी। सारी कविताएँ पढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। पाँच-सात कविताएँ पढ़ कर मैंने कहा कि कविताओं में विचार तो अच्छा है किन्तु वर्तनी की अशुद्धियाँ सब कुछ मटियामेट कर रही हैं। उसने पूछा - ‘अंकल! ये वर्तनी क्या होता है?’ मैं एक बार फिर अवाक् हो गया। 

यह गए बरस की ही बात है। एक शाम, मेरे एक और मित्र का, तीस वर्षीय बेटा, तीन डायरियाँ लेकर मेरे घर आया। तीनों डायरियाँ अच्छी-खासी मोटी और मँहगी जिल्द वाली थीं। उसने कहा कि अपनी शायरी से उसने ये तीनों ही डायरियाँ भर दी हैं। मैं देख लूँ। मैंने गालिब, फैज से लेकर मौजूदा वक्त के कुछ शायरों के नाम लेकर पूछा कि उसने अब तक कितना, क्या पढ़ा है। जवाब में उसने तनिक हैरत से पूछा कि ये सब कौन हैं और इन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए? उसने कहा कि उसने पढ़ा-वढ़ा कुछ नहीं। सीधा लिखना शुरु कर दिया। उसके यार-दोस्तों को उसकी शायरी खूब पसन्द आ रही है और उसने फिल्मों में जाने की कोशिशें शुरु कर दी हैं। मैंने कहा कि वह यहाँ अपना वक्त खराब नहीं करे। फौरन मुम्बई पहुँचे। मुम्बई खुद ही सब कुछ दुरुस्त कर देगी।

जलजजी भाषा विज्ञान के प्राधिकार हैं। मैं उनके यहाँ जाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। जब भी जाता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ। ऐसी ही एक बैठक के दौरान एक नौजवान आया और चुपचाप बैठ गया। हम लोग हिन्दी और इसके व्याकरण के साथ हो रही छेड़छाड़ पर बात कर रहे थे। अनुस्वार के उपयोग में बरती जा रही उच्छृंखलता हमारा विषय थी। अचानक ही नौजवान बोल उठा - ‘सर! यह बिन्दु कहीं भी लगा दो। क्या फर्क पड़ता है?’ जलजजी निश्चय ही उसके बारे में विस्तार से जानते थे। उन्होंने एक कागज उसके सामने सरकाया और बोले-‘लिखो! मेरी साँस से बदबू बाती है।’ उसने लिख दिया। जलजजी बोले-‘ अब इसमें साँस के ऊपरवाला बिन्दु हटा दो और जोर से पढ़ो।’ नौजवान ने आज्ञापालन किया। जलजजी ने कहा-‘कोई अन्तर लगा? अब बिना बिन्दुवाला यही वाक्य, दस लोगों के बीच, अपनी पत्नी की मौजूदगी में जोर से पढ़ना और फिर आकर मुझे बताना कि क्या हुआ?’ नौजवान को पसीना आ गया। घबरा कर बोला-‘अरे! सर! बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मेरा तो घर टूट जाएगा!’ जलजजी हँस कर बोले-‘यह होता है बिन्दु के साथ मनमानी करने से। यह घर बना भी देता है और तोड़ भी देता है।’ 

यह तो अभी-अभी की ही बात है। एक अखबार के दफ्तर में बैठा था। एक अतिमहत्वाकांक्षी और उत्साही नेता आया। सहायक सम्पादक को अपनी प्रेस विज्ञप्ति थमाते हुए बोला-‘जरा ढंग-ढांग से छाप देना। झाँकी जम जाएगी।’ सहायक सम्पादक ने प्रेस विज्ञप्ति पढ़कर मेरी ओर सरका दी। नेता ने खुद के लिए एक स्थान पर ‘नेताद्वय’ प्रयुक्त किया था। सहायक सम्पादक ने दूसरे नेता का नाम पूछा। नेता बोला कि अपने समाचार में वह किसी और का नाम भला क्यों देगा? सहायक सम्पादक ने पूछा-‘तो फिर नेताद्वय क्यों लिखा?’ नेता बोला कि अच्छा शब्द है। इससे नेता और समाचार दोनों का वजन बढ़ जाएगा। 

लोग बिना सोचे-विचारे बोलते ही नहीं, लिखते भी हैं। आशीर्वाद लिखो तो प्रेस वाला सुधार कर आर्शीवाद कर देता है। किसी संस्थान के दो-तीन वर्ष पूरे होने पर पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में बड़े गर्वपूर्वक ‘सफलतम दो वर्ष’ लिखा जाता है। इसका अर्थ न तो विज्ञापन लिखनेवाला जानता है और संस्थान का मालिक। अनजाने में ही घोषणा की जा रही होती है कि संस्थान को जितनी सफलता मिलनी थी, मिल चुकी। 

जानता हूँ कि शुद्धता सदैव संकुचित करती है। सोने की सिल्लियाँ या बिस्किट लॉकर में ही हैं रखे जाते हैं। आभूषण में बदलने के लिए सोने में न्यूनतम मिलावट अपरिहार्य होती है। मिलावट सदैव विस्तार देती है। भाषाई सन्दर्भों में संस्कृत इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। व्यापक शब्द सम्पदा और क्रियाओंवाली यह देव-भाषा यदि संकुचित हुई है तो उसका एक बड़ा कारण उसकी शुद्धता भी है। इसी शुद्धता के चलते हम अब तक दूसरा गाँधी नहीं पा सके हैं।

विस्तार के लिए मिलावट अपरिहार्य है। किन्तु इसकी आवश्यकता, मात्रा और प्रतिशत का ध्यान नहीं रखा जाए तो विस्तार के बजाय विनाश होने की आशंका बलवती हो जाती है। कम से कम समय में अधिकाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लक्ष्य से बोलचाल की भाषा के नाम पर हिन्दी शब्दों का जानबूझकर, सायास किया जा रहा विस्थापन इस अनुपात का अनुशासन भंग कर रहा है। मिलावट यदि सहज और प्राकृतिक न हो तो वह न केवल बाजार से बल्कि चलन से ही बाहर कर देती है।
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पूछ लेते तो मुझे हार्ट अटेक नहीं होता

तरालीस डिग्री की, चमड़ी झुलसा देनेवाली गर्मी-धूप की सुनसान दोपहरी में वे पाँचों मेरे घर आए तो उनकी शकलों पर गर्मी के कोप की छाया के स्थान दहशत छायी हुई थी। गर्मजोशी भरे मेरे ‘आओ! आओ!!’ स्वागत के जवाब में पाँचों ने ‘नमस्कार दादा’ कहा तो सही किन्तु मरी-मरी आवाज में। कुछ इस तरह मानो कोई उनसे जबरन कहलवा रहा हो।

उनकी यह दशा देख मैं घबरा गया। रुक नहीं पाया और उनमें से कोई कुछ बोलता उससे पहले ही पूछा बैठा - ‘सब ठीक-ठाक तो है? कोई बुरी खबर तो लेकर नहीं आए?’ मेरे सवाल ने मानो उन्हें हिम्मत दी। प्रदीप जादोन बोला - ‘नहीं। कोई बुरी खबर नहीं। लेकिन आप बताओ! यह कब हुआ?’ मैंने कहा - ‘जैसा कि तय था, अभी आठ दिन पहले। बीस मई को।’ प्रदीप तनिक चिहुँक कर बोला - ‘तय था मतलब? हार्ट अटेक और उसका ऑपरेशन कब से पहले से तय होने लगा?’ अब मैं चिहुँका। प्रतिप्रश्न किया - ‘कौनसा हार्ट अटेक? किसे हुआ? कब हुआ?’ जवाब में सवाल इस बार कैलाश शर्मा ने किया - ‘क्यों? आप बड़ौदा नहीं गए थे? आपका ऑपरेशन नहीं हुआ?’ मैंने कहा - ‘हाँ। मैं बड़ौदा गया था और मेरा ऑपरेशन भी हुआ। लेकिन आपसे किसने कहा कि वह ऑपरेशन हार्ट अटेक की वजह से था?’ मेरी यह बात सुनते ही पाँचों ने मानो राहत की साँस ली। सबके चेहरे तनिक खिल गए। 

लेकिन अब मैं उलझन में था। मैंने कैलाश की ओर सवालिया मुद्रा में मुण्डी उचकाई। तनिक झेंपते हुए कैलाश बोला - ‘वो, परसों शाम को आपके घर आया था। ताला लगा था। गुड्डू भैया (अक्षय छाजेड़, जिसका मैं पड़ौसी हूँ) की मिसेस बाहर ही थीें। उन्होंने बताया कि आप बड़ौदा गए हैं, आपका ऑपरेशन हुआ है और कल शाम को आप लौटनेवाले हैं। मैंने सोचा कि अब आपको फोन करके क्या कहूँ और क्या पूछूँ? सीधे मिल कर बात करूँगा।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही राजेन्द्र मेहता ने ‘मैं गुनहगार नहीं हूँ’ का उद्घोष करने की तरह हस्तक्षेप किया - ‘मुझे तो दादा! इसीने (कैलाश ने) कहा कि आपका हार्ट का ऑपरेशन हुआ है और बताया कि आप कल आनेवाले हो। मैंने भी सोचा कि अब फोन करने के बजाय खुद मिलना ही अच्छा। इसीलिए आपको फोन नहीं किया।’ मेरी हँसी तो चल गई किन्तु मेरे ऑपरेशन को हार्ट अटेक से जोड़नेवाली बात अब भी समझ में नहीं आई थी। मैंने कैलाश से पूछा - ‘उन्होंने (गुड्डू की मिसेस ने) कहा था कि मेरा हार्ट ऑपरेशन हुआ है?’ तनिक याद करते हुए कैलाश बोला - ‘नहीं। यह तो उन्होंने नहीं कहा था।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आपने कैसे कह दिया कि मेरा हार्ट का ऑपरेशन हुआ?’ कैलाश अब मानो सफाई देता हुआ बोला - ‘क्यों! सर? आप तो जानते हो कि अपने रतलाम का कोई आदमी अगर ऑपरेशन कराने बड़ौदा जाता है तो उसका एक ही मतलब होता है कि उसे हार्ट अटेक हुआ है। फिर, आपको तो साल-डेड़ साल पहले हार्ट अटैक हो चुका है जिसका इलाज आपने बड़ौदा में ही कराया था! तो बस! मैंने सोचा कि आपको हार्ट अटेक हुआ है और ऑपरेशन भी उसी का हुआ है। आप ही बताओ! मैंने क्या गलत सोचा?’ कैलाश की बात से इंकार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। हमारे रतलाम में, बड़ौदा जाकर ऑपरेशन कराने का लोक प्रचलित अर्थ ‘हार्ट का ऑपरेशन’ ही होता है। इस लिहाज से कैलाश ने कुछ भी गलत नहीं सोचा।

बाकी चारों मानो कैलाश पर टूट पड़ना चाहने लगे। मैंने उन्हें ‘नियन्त्रित’ किया। तनिक झंुझलाहट और ढेर सारी प्रसन्नताभरे स्वरों में प्रदीप बोला - ‘चलो! इससे (कैलाश से) तो हम बाद में निपट लेंगे। पहले आप बताओ कि यदि यह ऑपरेशन हार्ट का नहीं था तो किस बात का था?’

मैंने सविस्तार बताया कि मेरी मूत्रेन्द्री की बाहरी चमड़ी संक्रमित हो गई थी। उसे कटवाने के लिए फरवरी 2015 में एक छोटा सा ऑपरेशन डॉक्टर यार्दे से करवाया था। ऑपरेशन के बाद उन्होंने कहा था मेरी उम्र को देखते हुए उन्होंने संक्रमित चमड़ी सारी की सारी नहीं काटी है। इस ऑपरेशन के बाद दवाइयों से उस संक्रमण को दूर करने की कोशिश करेंगे और यदि सफलता नहीं मिली तो फिर एक ऑपरेशन और करना पड़ेगा। डॉक्टर यार्दे का आशावाद फलीभूत नहीं हुआ और मेरा दूसरा ऑपरेशन जनवरी 2016 में बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत ने किया। ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा। संक्रमित चमड़ी पूरी काट दी गई। बायोप्सी रिपोर्ट भी पक्ष में आई। अब मैं संक्रमण मुक्त था। इस बीच इसी बारह मार्च को मुझे अचानक तेज बुखार आया। गुड्डू ने ही मुझे सुभेदार साहब के अस्पताल में भर्ती कराया। विभिन्न परीक्षणों का निष्कर्ष रहा कि मैं ‘मूत्र नली संक्रमण’ (यूरीनरी ट्रेक इंफेक्शन) का मरीज हो गया हूँ। सत्रह मार्च को छुट्टी हुई तो इस हिदायत के साथ कि मैं किसी यूरोलाजिस्ट से सलाह हूँ। मैंने ऐसा ही किया तो यूरोलाजिस्ट ने कहा कि संक्रमण ने मेरी मूत्र नली को बहुत सँकरा कर दिया है। अब मैं उनका नहीं, किसी ‘यूरोसर्जन’ का केस हो गया हूँ। मुझे फौरन ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए।

यह संयोग ही रहा कि जनवरी में मेरा ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर कामत ने ‘फॉलो-अप’ के लिए मुझे सत्ताईस अप्रेल को बड़ौदा  बुलाया था। डॉक्टर कामत ने मेरे, यूटीआई उपचार के और यूरोलाजिस्ट के कागज देखे। मेरी जाँच की और यूरोलाजिस्ट के निष्कर्ष की पुष्टि की। मैंने तत्क्षण कहा - ‘ऑपरेशन की तारीख तय कीजिए।’ उन्होंने बीस मई तय की। निर्धारित तारीख और समय पर मेरा ऑपरेशन हुआ और निर्धारित कार्यक्रमानुसार सत्ताईस मई की शाम मैं रतलाम लौट आया।

पाँचों ने तसल्ली की साँस ली। ईश्वर को धन्यवाद दिया। अमृत जैन ने कहा - ‘अन्त भला सो सब भला दादा! आप राजी-खुशी हो, यही ऊपरपावले की मेरबानी है। आप तो मेरे जैसा कोई काम हो तो जरूर बताना।’ लेकिन पाँचवा, संजय शर्मा इन चारों से अलग निकला। ‘हो! हो!’ कर हँसता हुआ बोला- ‘दादा! मजा आ गया। आपसे जब भी मिलना होता है, आप मजा ला देते हो।’ लेकिन इस बीच वे चारों कैलाश को कनखियों से देखते रहे। मैंने ‘कुछ ठण्डा-गरम’ की मनुहार की तो राजेन्द्र बोला - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं! ठण्ठा पीएँगे। जरूर पीएँगे। लेकिन यहाँ नहीं। अब यह (कैलाश) हम सबको जूस पिलाएगा।’ पाँचों ने विनम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।

लेकिन कैलाश को ‘हार्ट अटेक’ वाली बात सूझने के पीछे मुझे रतलाम में व्याप्त लोकधारणा के अतिरिक्त ‘सम्पर्कहीनता/सम्वादहीनता’ भी लगी। ये पाँचों ही भारतीय जीवन बीमा निगम के ऐसे एजेण्ट हैं जिनसे रोज का मिलना-जुलना है। कोई काम हो, न हो, मैं थोड़ी देर के लिए ही सही, हमारे शाखा कार्यालय जरूर जाता हूँ। सबसे मिलना-जुलना हो जाता है। बाजार की और हमारे धन्धे की काफी-कुछ जानकारियाँ मिल जाती हैं। लेकिन मैं एक काम ऐसा करता हूँ जो बाकी एजेण्ट नहीं करते हैं। (आप इस ‘नहीं करते हैं।’ को ‘निश्चय ही नहीं करते हैं।’ पढ़ सकते हैं।) नियमित रूप से शाखा कार्यालय आनेवाले एजेण्टों में से कोई एजेण्ट यदि तीन-चार दिन लगातार नजर नहीं आता है तो मैं या तो सीधे उसे ही फोन लगाकर या फिर उसके अन्तरंग किसी एजेण्ट से उसका कुशल क्षेम पूछ लेता हूँ।

इस बार मैं खुद बीमार रहा। शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। मेरी अनुपस्थिति सबने देखी और अनुभव की। आपस में जिक्र और पूछताछ भी की किन्तु किसी ने मुझसे सम्पर्क करने कर कोशिश नहीं की क्योंकि यह उनकी आदत में नहीं। सो, इस ‘सम्पर्कहीनता और सम्वादहीनता’ ने मुझे हृदयाघात से ग्रस्त रोगी और एक छोटे से ऑपेरशन को ‘हार्ट ऑपरेशन’ में बदल दिया।

अब मैं ठीक हूँ। दो नलियाँ लगी होने से घर से बाहर निकलना नहीं हो पा रहा। एक नली, जिसके कारण प्रायः ही मर्मान्तक पीड़ा होती थी, कल चार जून को निकाल दी गई है। तेरह जून को फिर बड़ौदा जाना है। तब दूसरी नली भी निकल जाएगी। उम्मीद है कि उसके बाद, जल्दी ही एक बार फिर अपना ब्रीफ केस लेकर ‘लो ऽ ऽ ऽ ओ! बीमा करा लो!’ की फेरी लगाता नजर आने लगूँगा।  

वास्तविकता जानने से जैसी राहत और प्रसन्नता मेरे मित्रों को (और उनके प्रसन्न हो जाने से मुझे भी) मिली, ईश्वर करे, वही सब आप सबको और आपके आसपास के तमाम लोगों को मिले।

हाँ। अब तक एक काम आप न कर रहे हों तो करना शुरु करने पर विचार कीजिएगा। अपने मिलनेवालों से मिल कर या उन्हें फोन कर ‘कैसे हो? सब ठीक तो है? घर में सब राजी खुशी है? काम काज बढिया चल रहा है ना? बहुत दिनों से नजर नहीं आए। कुछ मिलने-मिलाने की जुगत करो यार! अच्छा लगेगा।’ जैसी पूछताछ कर लिया करें। सच मानिए, उनसे अधिक अच्छा खुद आप को लगेगा।

आदमी खुद को गुदगुदी कर हँस नहीं सकता लेकिन ऐसे छोटे-छोटे उपक्रम कर खुद ही खुश जरूर हो सकता है।
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मन्दोदरी! काश! तुम वोट दिला पाती


दैनिक भास्कर के, 15 मई के रविवारी जेकेट पर आठ कॉलम में प्रकाशित इस विस्तृत सचित्र समाचार के अनुसार, गाँधीजी के हत्यारेे नाथूराम गोड़से को, जान पर खेलकर पकड़नेवाले बहादुर सिपाही रघु नायक की पत्नी, 85 वर्षीया मन्दोदरी अपनी बेटी के घर, बदहाली की जिन्दगी जी रही है। उसे सरकार से कुल एक सौ रुपया मासिक सहायता मिल रही है। यह रकम 50 रुपये मासिक थी। कोई तीन साल पहले बढ़ाकर 100 रुपये की गई है। यह रकम साल भर में एकमुश्त दी जाती है। रघु नायक को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 500 रुपये पुरुस्कारस्वरूप दिए थे। 1983 में रघु नायक की मृत्यु के बाद उसका पुलिसकर्मी बेटा भी एक हादसे का शिकार हो गया। जीने के लिए बेटी के पास रहना एकमात्र विकल्प बचा था। सो, बेटी के यहाँ आ गई। लेकिन दुर्दिनों ने पीछा नहीं छोड़ा। बेटी बासन्ती का पति भरी जवानी में केंसर का शिकार हो गया। उसके तीन बच्चे हैं-बड़ा बेटा डेड़ एकड़ का खेत सम्हाल रहा है। छोटा बेटा गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाया। कोई पन्द्रह बरस पहले पंचायत ने इन्दिरा आवास योजना के तहत मकान बनाने के लिए जमीन दी। साल भर बाद, बेटी की मदद से दो कमरे बनवाने चाहे लेकिन ढाँचा खड़ा करने से आगे बात नहीं बनी। बिना छत, बिना खिड़की-दरवाजे, बिना प्लास्टर की दीवारोंवाला  मकान भी खण्डहर हो गया है। इस बीच मन्दोदरी मधुमेह और मोतियाबिन्द की मरीज हो गई। बेटी बासन्ती ने माँ से सरकार के नाम चिट्ठी लिखवाई। कोई साल भर पहले अचानक सरकारी बुलावा आया और उड़ीसा सरकार ने अभी ही उसे पाँच लाख रुपये दिए हैं। अखबार के मुताबिक, बेटी के साथ जोरल गाँव में रह रही मन्दोदरी, अपने ‘मकान’ के दो कमरों में 20-30 वाट के बल्बों की रोशनी में जी रही है। सामान के नाम पर कुछ पुराने बर्तन हैं। ज्यादातर सामान टूटा-फूटा है।

मेरे परिचय क्षेत्र के लोगों ने समाचार को अपनी-अपनी मानसिकता और मनःस्थिति के अनुसार पढ़ा और समझा। अधिकांश की प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही। सबने मन्दोदरी के प्रति दया, करुणा जताई और अपनी-अपनी पसन्द की सरकारों का बचाव करते हुए बाकी सरकारों को और सरकारी तन्त्र को धिक्कारा।

ऐसा यह इकलौता और अनूठा समाचार नहीं है। भीख माँग रहे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, सायकलों के पंक्चर पकाते हुए, पानी पूरी का ठेला लगाए, बरफ के गोले बेचते हुए, हम्माली करते हुए, चाय की दुकानों, ढाबों पर झूठे कप-प्लेट, बरतन साफ करते हुए राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महिला-पुरुष खिलाड़ियों, कलाकारों के सचित्र समाचारों की अब हमें आदत हो गई है। ऐसे सचित्र समाचार अब हमें न तो चौंकाते हैं न ही सिहरन पैदा करते हैं। अखबारों के लिए वे ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ होते हैं और हमारे लिए ‘च्च्च! च्च्च! च्च्च!’ की ध्वनि निकालने की औपचारिकता पूरी करने के काम आते हैं। 

मन्दोदरी की दुर्दशा 1983 में पति की मृत्यु के बाद शुरु हुई। याने, लगभग तैंतीस बरस पहले। इस बीच लोक सभा, विधान सभाओं, स्थानीय के निकायों के चुनाव अपने समय पर होते रहे, उनके खर्चे चुनाव-दर-चुनाव बढ़ते रहे, नेताओं के आश्वासनों, वादों के ढेर लगते रहे, सरकारें बनती रहीं, गिरती रहीं, फिर और फिर-फिर बनती गईं, कलफदार कुर्तों/शेरवानियों की भीड़ बढ़ती गई। इसी चलन को मजबूत करते हुए, राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक व्यक्तियों की दुर्दशा के समाचार भी बढ़ते रहे। 

मन्दोदरी का यह समाचार छपने के कोई एक पखवाड़े के बाद मैंने इस समाचार के बारे में लगभग साठ लोगों से उनकी राय पूछी। लगभग 95 प्रतिशत तो इसे भूल चुके थे। शेष में से अधिकांश ने ‘अच्छा! वो समाचार? हाँ। ऐसा समाचार पढ़ा तो था किन्तु ठीक-ठीक याद नहीं।’ जैसा जवाब दिया।

मन्दोदरी ऐसी अकेली ‘समाचार कथा’ (याने कि ‘न्यूज स्टोरी’) नहीं है। प्रत्येक कस्बे की ऐतिहासिकता और महत्व से जुड़े ऐसे कई लोग हमें हर जगह मिल जाएँगे। मेरे कस्बे के भी कम से कम चार लोगों के नाम तो मेरे जिह्वाग्र पर हैं। ऐसे सब लोगों के गम्भीर अपराध शायद यही हैं कि इनमें से कोई भी वोट दिलाऊ नहीं है और न ही ये लोग हमें ‘दो पैसे’ का लाभ दिला सकते हैं। 

हम बरस-दर-बरस शिक्षित होते जा रहे हैं। देश प्रगति के सापान, एक के बाद एक चढ़ता जा रहा है, देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हम दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय भावना नसों में बहती थम नहीं रही, हमारी सम्वेदनशीलता का स्तर यह कि शौच-मूत्र-त्याग जैसी बातों पर भी हमारी भावनाएँ आहत हो रही हैं, राष्ट्र के प्रति निष्ठा का ज्वार ऐसा कि जिसे जी चाहे, देशनिकाला दे रहे हैं, राष्ट्र के सपूतों और शहीदों की रंचमात्र अवमानना हमें पल भर भी सहन नहीं हो रही और धर्म गंगा तो इतने वेग और इतनी विशालता/विकरालता से बहने लगी कि देश की जमीन कम पड़ती लग रही है। नहीं हुए तो बस दो काम नहीं हुए। पहला-हमारी सरकारें और सरकारी मशनरी मानवीय सन्दर्भों में जिम्मेदार नहीं हो पाईं और दूसरा हमारी सामाजिक चेतना-सम्वेदनशीलता और उत्तरदायित्व बोध नष्ट होने के कगार पर आ गया।

गए दिनों मेरे कस्बे के एक मन्दिर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का वार्षिक समारोह सम्पन्न हुआ। एक सप्ताह चले इस समारोह में प्रभातफरियाँ, झाँकियाँ, धर्म यात्राएँ निकलीं। कस्बे के जिस-जिस क्षेत्र में ये उपक्रम सम्पन्न हुए वहाँ, जगह-जगह पर स्वागत मंच बने, फूल बरसाए गए, उपक्रमों में शामिल भक्तों की यथाशक्ति (‘प्रसादस्वरूप’) खान-पान सेवा की गई। मन्दिर के देवता पर केन्द्रित नाटक खेले गए, नृत्य नाटिकाएँ प्रस्तुत की गईं। समारोह का समापन ‘विशाल सार्वजनिक भण्डारा’ से हुआ। भण्डारे में ‘प्रसादी’ ग्रहण करनेवाले भक्तों का कोई अधिकृत आँकड़ा तो सामने नहीं आया किन्तु (लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे कस्बे में) सबसे छोटा आँकड़ा सवा लाख लोगों का आया। 

मेरी गणित बहुत कमजोर है। मैंने मन्दिर और समारोह की प्रबन्ध व्यवस्था से जुड़े कुछ लोगों से पता करने की कोशिश की। ‘फायनल अकाउण्ट’ तो अभी नहीं हुआ है किन्तु, अलग-अलग लोगों द्वारा बताए गए आँकड़ों का औसत कम से कम सोलह लाख रुपये रहा। इसमें से भण्डारे पर कम से कम सात लाख रुपये तो खर्च हुए ही होंगे।

किन्तु यह तो एक उपक्रम मात्र की बात हुई। ऐसे उपक्रम (कम से कम मेरे कस्बे में तो) अब ‘बारहमासी’ हो गए हैं। कभी कोई कलश यात्रा, कभी कोई चुनरी यात्रा, विभिन्न देवोत्सव और पर्वोत्सव, विशाल संगीतमय सुन्दरकाण्ड’, किसी नेता के जन्म दिन पर या किसी राजनीतिक उपलब्धि पर, भारी भरकम डीजेवाली संगीत/भजन निशा। नवरात्रि और गणेशोत्सव पर गली-गली में ‘झकास’ पण्डाल। यह सब तो केवल हिन्दू धर्म के हैं। दूसरे धर्मों के भी ऐसे ही उपक्रम अब प्रतियोगिता भाव से होने लगे हैं। प्रत्येक उपक्रम भारी-भरकम खर्चीली साज-सज्जा वाला। एक के बाद होनेवाला दूसरा उपक्रम मानो, ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज से ज्यादा उजली क्यों?’ की तर्ज पर पहलेवाले से प्रतियोगिता करता हुआ। इस सबके लिए अखबारों के पूर-पूरे पन्नों के रंगीन विज्ञापन। अधिक हैसियत हुई तो विशेष परिशिष्ट।

हकीकत मैं नहीं जानता किन्तु आकण्ठ विश्वास है कि केवल मेरा कस्बा एकमात्र ऐसा सौभाग्यशाली और गौरवशाली कस्बा नहीं होगा। इन्दौर में तो कुछ नेताओं की तो पहचान ही केवल धार्मिक आयोजनों और विशाल सार्वजनिक भण्डारों की बन चुकी है।

लेकिन केवल ये ही पहचान के प्रतीक नहीं हैं। अतिक्रमण से घिरे, बिना बिजली-पानी, बाउण्ड्रीवालवाले सरकारी स्कूल, मोहल्ले में चल रहे, ‘अनाथ दशा’ वाले सरकारी उप-चिकित्सालय, कूड़े के भारी भरकम ढेर, गन्दगी से बजबजाते शौचालय, सड़ांध मारती नालियाँ, दुर्गन्ध के भभके मार रहे सार्वजनिक मूत्रालय, और....और.....और......। लगता है, ऐसे कितने ही ‘और’ लिखे जा सकते हैं। यह सब हममें से प्रत्येक को अपने-अपने कस्बे, शहर, नगर, महानगर का ही ब्यौरा लगता है।

यह सब देख-देख कर मन्दोदरी पर केन्द्रित यह समाचार (और ऐसा प्रत्येक समचार) और कुछ नहीं, हमारे पाषाण हृदय, सम्वेदनाहीन, बेशर्म-गैर जिम्मेदार हो जाने के प्रमाण-पत्रों, तमगों के सिवाय भला और क्या है? 

आईए! अपने-अपने घरों के अगले कमरे में इन्हें सजाएँ।  
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मुझे ही लड़नी होगी, अपनी यह लड़ाई

वे उम्र में मुझसे दो बरस बड़े, रेल्वे के सेवा निवृत्त कर्मचारी हैं। ‘तू-तड़ाक’ से ही बतियातेे हैं। मैं ‘आप’ से नीचे नहीं उतर पाया। बरसों का हमारा परिचय अनौपचारिकता में बदल गया किन्तु हम दोनों एक-दूसरे के घर नहीं गए। मैं अपने धन्धे के कारण दिन भर बाहर ही रहता हूँ। सो उनसे बाहर ही मिलना हो जाता है। वे सुबह कोई दस-साढ़े दस बजे तक भोजन कर घर से निकल जाते हैं। मिलनेवालों के घर, छापामार शैली में पहुँच कर चौंकाने में उन्हें मजा आता है। मैं पूछता हूँ-ऐसा क्यों करते हैं? जवाब मिलता है-अचानक पहुँचने से सामनेवाले को सम्हलने का मौका नहीं मिलता। उसकी असलियत मालूम हो जाती है। उनकी यह आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। मेरा अच्छा न लगना और उनका अपनी आदत न बदलना, दोनों अपनी-अपनी जगह कायम हैं।

आज वे अकस्मात मेरे घर आ गए। मैं अपने घर में बने देवस्थान पर, ‘पाठ-मुद्रा’ में सुन्दरकाण्ड पढ़ कर उठ ही रहा था। मुझे इस तरह और देवस्थान देखकर वे चौंके। अत्यधिक असहजता से, तनिक मुश्किल से बोले-यह क्या? तुमने तो चारों धाम स्थापित कर रखे हैं! कोई जवाब दिए बिना मैं अगले कमरे में आ गया। मेरे पीछे-पीछे वे भी।
उनकी असहजता और चौंकना मुझे बहुत स्वाभाविक लगा। मैंने कहा-अब कहिए। तनिक कठिनाई से बोले-तुम तो पक्के धार्मिक हो! मैंने कहा-अब तक क्या मानते थे? बोले-बातें तो तुम हमेशा हिन्दू धर्म के विरोध की करते, लिखते हो। मैं बोला-अपने जानते तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया। आपने ऐसा कैसे मान लिया? वे बोले-मैंने जब भी हिन्दू धर्म-रक्षा की और मुसलमानों, इसाइयों को मार भगाने की बात की तब तुमने हर बार विरोध किया! मैंने कहा-वो तो मैं अब भी करता हूँ और आगे भी करता रहूँगा। 

उन्हें हैरत हुई और चिढ़ भी। मैंने पूछा-आपकी उलझन, क्या है? तनिक झुंझलाकर बोले-तुम मेरी बात या तो समझ नहीं रहे या जानबूझकर समझना नहीं चाहते हो। मैंने कहा-तो आप खुल कर समझाते क्यों नहीं? वे बोले-तुम हिन्दू हो? मैंने कहा-हाँ। फिर पूछा-हिन्दू धर्म मानते हो। मैंने कहा-हाँ। वे उकता कर बोले-तो फिर हिन्दू धर्म का विरोध क्यों करते हो? दूसरेे धर्मों में जो कट्टरता, खराबियाँ हैं, उनका विरोध क्यों नहीं करते? मैंने कहा-मुझे तो अपने धर्म की ही इतनी चिन्ता बनी रहती है कि दूसरों के धर्म की ओर ध्यान देने की फुरसत ही नहीं मिलती। वे हैरत से बोले-क्या मतलब? मैंने कहा-सीधी बात है, मुझे दूसरों के धर्म से कोई लेना-देना नहीं। मेरा धर्म कहता है कि मैं अपने ही अन्दर झाँकूँ और अपनी आत्मा को निर्मल, निष्‍कलुष बनाऊँ। मैंने जितना भी देखा, पढ़ा, सुना और समझा उसका एक ही मतलब निकला कि मैं अपने धर्म से मतलब रखूँ, अपने धर्म का पालन करूँ, दूसरों के नहीं, अपने दोष देखूँ और आत्म परिष्कार करूँ। मैं शायद उनके मनमाफिक उत्तर नहीं दे रहा था। तनिक आवेश में बोले-तुम कैसे हिन्दू हो? घर में तो भजन-पूजन, सुन्दरकाण्ड पाठ करते हो और बाहर मुसलमानों का समर्थन! मैंने कहा-मैंने कब मुसलमानों का समर्थन किया? मैं तो धर्मोपदेश पर अमल करने की कोशिश करता हूँ। मेरा धर्म आत्म-प्रशंसा और पर-निन्दा का निषेध करता है। मैं तो सीधी बात कहने और सीधे रास्ते चलने की कोशिश करता हूँ। 

अब उनका धीरज छूटता लगा। बोले-तुम जैसे लोगों के कारण तो हिन्दू धर्म नष्ट हो जाएगा। हिन्दुओं के देश में हम हिन्दू ही अल्पसंख्यक हो जाएँगे। मुसलमान हम पर राज करेंगे। हमें गुलाम बना लेंगे। मेरी हँसी चल गई। बोला-कमाल करते हैं आप! ऐसे-कैसे नष्ट हो जाएगा? अपने धर्म की शक्ति पर आपको विश्वास हो-न-हो, मुझे तो है। आप ही तो कहते हैं कि अपना धर्म सनातन है! प्रलय तक रहेगा। और रही मुसलमानों की हम पर राज करने की बात तो हम मुगलों की गुलामी झेल चुके हैं लेकिन आज भी वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। आप बेकार ही परेशान हो रहे हैं। अरे! जब मुगलों के राज में भी भारत को मुसलमान राष्ट्र नहीं बनाया जा सका तो अब क्या बनेगा? उनकी अधीरता बढ़ गई। तनिक तैश में बोले-और वो जो मुसलमानों के छोरे हमारी लड़कियों को भगा-भगा कर ले जाते हैं? उनसे शादी करने के नाम पर उन्हें मुसलमान बना देते हैं। वो? मेरी हँसी फिर चल गई। वे चिढ़ गए। उनकी चिढ़ की परवाह किए बिना मैंने कहा-ये तो राजी-बाजी के सौदे हैं भाई साहब! इन्हें धर्म से मत जोड़िए। अपनी सल्तनतें बचाने के लिए हमने तो अपनी बेटियाँ तश्तरी में रख कर मुगलों को परोसी हैं। देश के अनेक बड़े लोग अन्तरधर्मी विवाह किए बैठे हैं। धर्म का ठेका लेनेवालों की बहन-बेटियाँ मुसलमानों के घर की जीनत बनी हुई हैं तो अनेक मुसलमान महिलाएँ हिन्दुओं की वंश-बेल बढ़ा रही हैं। आपके ही एक पट्ठे की मुसलमान बीबी के बनाए पकौड़े मैंने आपके साथ खाए हैं। एक अन्तरधर्मी विवाह में मैं खुद ही एक मुसलमान लड़की का धर्म-पिता बना बैठा हूँ और बरसों से बेटी-दामाद को नेग चुकाए जा रहा हूँ। 

वे ‘निरुत्तर’ से आगे, ‘अवाक्’ की स्थिति में आ गए। थोड़ा सोच कर बोले-और वो जो धर्मान्तरण करवा रहे हैं! उसका क्या? क्या वो ऐसे ही चलने दें? मैंने कहा-किसीका जबरिया धर्मान्तरण केवल अपराध ही नहीं, आपने आप में अधार्मिक दुष्कृत्य है। धर्म प्रचार सब करें। किन्तु जबरिया धर्मान्तरण की अनुमति तो मैं नहीं देता। मैं ऐसा पाप कर्म न तो कभी करूँगा और नहीं उसमें कभी शरीक होऊँगा। वे प्रसन्न हो गए। बोले-वो तुमने रायगढ़वाले दिलीपसिंह जू देवजी का नाम तो सुना ही होगा। उन्होंने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की। इसाइयों ने हजारों हिन्दुओं का धर्म बदल दिया। जूदेवजी ने ऐसे अनेक लोगों की हिन्दू धर्म में वापसी कराई। उसे तुम क्या कहोगे? मैंने कहा-यदि उन सबने दोनों ही बार अपनी इच्छा से धर्मान्तरण किया है तो किसी को भला कोई आपत्ति क्यों और कैसे हो सकती है? उनकी प्रसन्नता बढ़ गई। बोले-याने कि यह तो मानते हो कि धर्मान्तरण करवाया जा रहा है। मैंने कहा-हाँ। ऐसे छुटपुट समाचार, कभी सच्चे तो कभी झूठे आते रहते हैं। वे बोले-तो क्या चुप बैठे रहना चाहिए? मैंने कहा-बिलकुल नहीं। हमें चौबीसों घण्टे चौकन्ने और सक्रिय रहकर यह जानने की कोशिश करते रहना चाहिए कि आखिर वे क्या कारण हैं कि हमारे हिन्दू भाई दूसरे धर्म की शरण लेते हैं। जब वे कारण ही नहीं रहेंगे तो धर्मान्तरण अपने आप ही रुक जाएगा। 

वे फिर अवाक् मुद्रा में बैठ गए। मैंने कहा-भाई साहब! मैं आपको समझाऊँ तो छोटे मुँह बड़ी बात होगी। लेकिन अपने धर्म की रक्षा हम दूसरों के धर्म का विरोध कर, उसे घृणित बताकर, उसके खिलाफ नफरत फैलाकर कभी नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसका धर्म उसकी जिम्मेदारी है। मैं अपनी इसी जिम्मेदारी को निभाने की कोशिश करता हूँ जिसे आप मेरा हिन्दू धर्म विरोध कहते हैं। मेरे धर्म को विकृतियों से बचाना मेरी जिम्मेदारी है। मेरे लिए मेरा धर्म दुनिया का सबसे सुन्दर धर्म है। इसका अर्थ यह नहीं कि मैं दूसरों के धर्म को असुन्दर या घिनौना साबित करूँ। मुझे हिन्दू और हिन्दू धर्म विरोधी माननेवाले आप जैसे लोग प्रचण्ड बहुमत में हैं और मैं अल्पसंख्यकों में अल्पसंख्यक। यह मेरी अपनी लड़ाई है जो मुझे ही लड़नी है। बोलना और लिखना ही मेरे हथियार हैं। मैं इन्हीं का उपयोग कर सकता हूँ। सो कर रहा हूँ और आगे भी करता रहूँगा।

उन्होंने दोनों हाथों से अपना माथा थाम लिया। विचारमग्न हो गए। मैंने चाय की मनुहार की। बोले-अब तो पीनी ही पड़ेगी। तुमने कुनैन जो दे दी है। 
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(शीर्षक, कुमार अम्बुज की एक कविता पंक्ति है।)

नहीं किया लेकिन कर दिया

अपनी ‘व्यवस्था’ (याने कि सरकारी तन्त्र) की माया सचमुच में अपरम्परापार है। कभी कहो तो भी काम न हो और कभी न करने की कह कर भी काम कर दे।

कोई तीस बरस हो गए होंगे इस बात को। श्री गोपाल कृष्ण सारस्वत हमारे रतलाम जिले के अतिरिक्त जिला दण्डाधिकारी (एडीएम) थे। वे मेरे पैतृक गाँव मनासा से बारह-तेरह किलो मीटर दूर स्थित ग्राम कुकड़ेश्वर के दामाद थे। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री सुन्दरलालजी पटवा का पैतृक गाँव कुकड़ेश्वर ही है। सारस्वतजी के ससुर सूरजमलजी जोशीजी मनासा में भारतीय जीवन बीमा निगम के विकास अधिकारी के पद पर पदस्थ थे। प्रायः रोज का मिलना-जुलना। यह वह जमाना था जब एक का जमाई, पूरे गाँव का जमाई। सो, मैं भी सारस्वतजी को जमाईजी या कुँवर सा’ कह कर ही सम्बोधित करता था। वे भी मुझे उतना ही मान देते थे।

इस यादगार घटना के समय विधान सभा के चुनावों की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। सारस्वतजी पूरे जिले के प्रभारी थे। अचानक एक सुबह जावरा रेल्वे स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर खान सा‘ब आए। उनकी बिटिया अध्यापक थी और चुनावों में उसकी ड्यूटी लग चुकी थी। खान साहब मेरे ‘ज्यामितीय मित्र’ थे - मेरे मित्रों के मित्र। उन्होंने अत्यन्त विनीत भाव से कहा कि मैं उनकी बेटी की यह ड्यूटी निरस्त करवा दूँ। चुनावों को मैं ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ और उसकी ड्यूटी को ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ मानता हूँ। सो, मैंने हाथ जोड़ते हुए, तनिक अधिक विनीत भाव से खान सा’ब से क्षमा याचना कर ली। मैंने कहा कि उसे ड्यूटी करनी चाहिए। आखिर हर्ज ही क्या है? खान सा’ब ने कहा-’मैं भी आपकी बात से इत्तफाक रखता हूँ लेकिन ऐन मतदान के दिन बिटिया का निकाह तय हो गया है।’ मैंने अपना आग्रह तत्क्षण त्याग दिया और वादा कर दिया - ‘तब तो ड्यूटी निरस्त करवानी ही पड़ेगी। आप बेफिक्र होकर जाएँ। निकाह की तैयारियाँ करे। बिटिया की ड्यूटी निरस्त हो ही गई समझिए।’ 

खान साहब को भेज कर मैं फौरन ही ‘जमाईजी’ के पास पहुँचा। खान सा’ब की बिटिया की ड्यूटी वाला आदेश उनके सामने रखा और कहा - ‘यह ड्यूटी निरस्त कर दीजिए।’ सारस्वतजी ने कागज देखे बिना ही, विनम्रता से कहा - ‘नहीं करूँगा।’ मैं आसमान से जमीन पर गिरा - धड़ाम। मैं बार-बार सारस्वतजी को कहूँ, समझाऊँ और वे हैं कि मानने, सुनने, समझने को तैयार ही नहीं। थोड़ी देर तो मैं परिहास ही मानता रहा लेकिन खुशफहमी टूटी तो मुझे गुस्सा आ गया। मैंने तमक कर कहा-‘मैं तो आपको एडीएम सा'ब, एडीएम सा'ब, जमाईजी, जमाईजी किए जा रहा हूँ और आप हैं कि भाव ही नहीं दे रहे। मत करो ड्यूटी केंसिल। बच्ची ड्यूटी पर नहीं जाएगी। क्या कर लोगे आप?’ सारस्वतजी ने पूरे शान्त भाव से मुस्कुराते हुए जवाब दिया - ‘कुछ नहीं करेंगे। मत भेजिए अपनी बच्ची को।’ 

मैं एक बार फिर आसमान से जमीन पर गिरा। इस बार चारों कोने चित। मैं अचकचा गया। बोल नहीं फूटे मेरे मुँह से। बौड़म की तरह उनको देखते हुए तनिक मुश्किल से बोला - ‘क्या मतलब आपका?’ इस बार मुस्कुराहट से आगे बढ़ कर सारस्वतजी तनिक हँस कर बोले - ‘मेरे कहने का मतलब यह कि रखिए अपनी बच्ची को अपने पास। मत भेजिए चुनावी ड्यूटी पर।’ सारस्वतजी ने बात तो मेरे मन की कही किन्तु मुझे विश्वास नहीं हुआ। भला ड्यूटी केंसिल हुए बिना बच्ची गैर हाजिर रही तो उसकी  नौकरी पर नहीं बन आएगी? मेरी शकल यकीनन, देखने लायक हो गई होगी। 

मेरी दशा देख सारस्वतजी इस बार खुल कर हँसे। बोले - ‘आप क्या समझते हैं कि एक मास्टरनी के दम पर चुनाव हो रहे हैं। अरे! हमने स्पेशल पोलिंग पार्टियाँ बना रखी हैं। कोई ड्यूटी पर नहीं आएगा तो क्या चुनाव का काम रुक जाएगा? अरे! भाई सा’ब। किसी न किसी को भेज दिया जाएगा।’ मैंने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘लेकिन उसकी नौकरी?’ सारस्वतजी इस बार ठहाका मार कर हँसे। बोले - ‘कुछ नहीं होगा उसकी नौकरी को। आपने पूछा था न कि हम क्या कर लेंगे? तो सुनिए! हम उसे एक कारण शो-काज नोटिस जारी कर स्पष्टीकरण माँग लेंगे। वो जवाब दे देगी कि उस दिन उसका निकाह था इसलिए ड्यूटी पर नहीं आ पाई। कागज फाइल में लग जाएगा। बस। बात खतम।’ 

सब कुछ मेरे मन का हो रहा था किन्तु जिस अन्दाज में हो रहा उससे मेरी धुकधुकी बन्द नहीं हो रही थी। सारस्वतजी ने दिलासा देते हुए कहा - ‘भाई सा’ब! आप तो जेन्युइन केस लेकर आए हो। लेकिन यदि मैंने यह एक ड्यूटी केंसिल कर दी तो मेरे दफ्तर के बाहर लाइन लग जाएगी और अपात्रों की लॉटरी लग जाएगी। इसलिए आप तो  बेटी के बाप से कहिए कि ड्यूटी-व्यूटी को भूल जाए और बेटी के हाथ पीले करे।’

सारस्वतजी के कमरे से बाहर आते हुए मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सारस्वतजी को धन्यवाद दूँ या उन पर गुस्सा करूँ? उन्होंने मेरा कहा तो माना नहीं लेकिन मेरा काम कर दिया था।
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नफा एक पैसे का, हानि एक रुपये की




इन्दौर से प्रकाशित सान्ध्य दैनिक ‘प्रभात किरण’ के 14 मई के अंक में प्रकाशित इस समाचार को फेस बुक पर साझा करते हुए मैंने लिखा था कि यदि इस समाचार का हजारवाँ हिस्सा भी सच हो तो यह बड़ी निश्चिन्तता की बात है। राजनीति के ऐसे उपयोग ने मुझ ठेठ भीतर तक असहज और व्याकुल कर दिया था। इसे पढ़ते-पढ़ते मुझे कुछ बातें याद आ गईं।


पहली बात राजीव गाँधी के प्रधान मन्त्री काल की है। अटलजी की तबीयत खराब थी। बीमारी ऐसी थी कि उनका उपचार अमेरीका में ही हो सकता था और बीमार अटलजी की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे इसके लिए आवश्यक संसाधन जुटा सकें। राजीव गाँधी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने अटलजी को बुला कर सूचित किया कि वे (राजीव गाँधी) सरकारी स्तर पर अटलजी की अमरीका यात्रा की व्यवस्था कर रहे हैं। उन्होंने अटलजी से आग्रह किया कि वे (अटलजी) अमरीका जाएँ, निश्चिन्तिता से अपना इलाज करवाएँ और पूर्ण स्वस्थ होने के बाद ही लौटें क्योंकि अटलजी का स्वस्थ बने रहना देश के लिए जरूरी है। राजीवजी के अवचेतन में निश्चय ही यह बात रही होगी कि अटलजी इसे कहीं उन्हें बदनाम करने के लिए, उनके विरुद्ध कोई राजनीतिक षड़यन्त्र न समझें। अटलजी ने अत्यन्त भावुक होकर अपनी स्वीकृती दी। यह बात राजीव गाँधी ने कभी सार्वजनिक नहीं की। दुनिया को बताया तो खुद अटलजी ने ही बताया। 

दूसरी बात सम्भवतः पी. वी. नरसिंहराव के प्रधान मन्त्री काल की है। संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर मामले में भारत का पक्ष प्रस्तुत किया जाना था। नरसिंह राव, लगभग सात भाषाओं के ज्ञाता विद्वान व्यक्ति थे। किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण और गम्भीर मामले में उन्होंने पहले ही क्षण अटल बिहारी वाजपेयी को चुना। अटलजी ने तनिक हिचकिचाहट जताई किन्तु नरसिंह राव अपने आग्रह पर बने रहे। सारी दुनिया ने देखा कि अटलजी ने नरसिंह राव को निराश नहीं किया। उन्होंने अपना काम खूब किया और बखूबी किया। किन्तु अटलजी ने इस बात का राजनीतिक लाभ कभी नहीं लिया। और तो और चुनावी अभियान में भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया जबकि इस बात से अटलजी को और भाजपा को पर्याप्त ‘वोट-लाभ’ मिल सकता था। इस बात का जिक्र या तो किसी के पूछने पर किया या फिर तब, जब ऐसा करना अपरिहार्य हुआ।

इन दोनों मामलों में सम्बन्धित लोगों ने श्रेष्ठ आचरण करते हुए, ‘राजनीति’ (और विशेषतः ‘वोट की राजनीति’) को परे धकेलकर ‘देश’ की चिन्ता की थी।

किन्तु लगता है, नदियों में बहते पानी की गहराई भी कम होती जा रही है। ‘देश’ और ‘श्रेष्ठ आचरण’ या तो ओझल हो गए हैं या फिर उनकी अनदेखी की जाने लगी है। ‘लोकलाज’ का भय समाप्त हो गया लगता है। यह स्थिति किसी के भी लिए अच्छी नहीं है-न व्यक्ति के लिए, न समाज के लिए, न देश के लिए और राजनीतिक दलों के लिए तो बिलकुल ही नहीं। क्योंकि ऐसा आचरण सदैव ‘बुमरेंग’ की तरह होता है। दुष्कर्म के फल आज नहीं तो कल, भुगतने पड़ते ही हैं।

मेरी सुनिश्चित धारणा है कि वर्ण/जाति व्यवस्था हमारी प्रगति में सबसे बड़ी बाधा और समस्या है। यह हमारी असफलता ही है कि आजादी के लगभग सत्तर वर्ष बाद भी इससे मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुक्ति पाना तो दूर, इसे कम भी नहीं कर पा रहे हैं। दुर्भाग्यपूण यह कि इसे दूर करने के बजाय हम इसे दिन-प्रति-दिन बढ़ाते ही जा रहे हैं। जाति आधारित आरक्षण के विरोध में पूरे देश में चल रहा अघोषित अभियान इस बात का परिचायक है। इस आरक्षण को इस तरह प्रचारित और प्रस्तुत किया जा रहा है मानो देश ने, दलितों, शोषितों को उपकार भाव से यह दिया है। जबकि हम सब (इसका विरोध करनेवाले भी) भली प्रकार जानते हैं कि यह और कुछ नहीं, हजारों बरस से की जा रही हमारी क्रिया की सम्वैधानिक प्रतिक्रिया ही है। यह सचमुच में आश्चर्यजनक है कि हजारों बरसों तक, पीढ़ियों-पीढ़ियों को अधिकार से वंचित करनेवाले हम, अब अपने इन्हीं लोगों को मिल रहे अधिकार के कारण खुद को वंचित अनुभव कर क्रन्दन कर रहे हैं। हजारों बरस की क्षतिपूर्ति गिनती के कुछ बरसों में ही कर दी गई मानने लगे हैं। यदि हमें अपनी इस ‘स्वअर्जित/स्वघोषित दुर्दशा’ से मुक्ति पानी है तो उपचार हमें ही करने होंगे। यह उपचार करने से जब ‘लोक’ आँखें चुराने लगता है तो ‘राज्य’ को यह जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। हम भाग्यशाली हैं कि हमारे सम्विधान ने यह जिम्मेदारी राज्य को सौंपी। मेरी दृढ़ धारणा है कि ‘समरसता स्नान’ (जिसे अब ‘कथित समरसता स्नान’ कहना पड़ेगा) की अवधारण के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने दलितों, वंचितों, शोषितों को सामाजिक स्तर पर अलग होने का अहसास कराया और ‘अतिरिक्त, अघोषित फलित’ के रूप में, नफरत भरे अभियान को बढ़ावा ही दिया।   

‘राज्य’ अशरीर है। संसदीय लोकतन्त्र में वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा चयनित व्यक्ति (या व्यक्तियों) के जरिए ही बोलता है। यही व्यक्ति हमारा मुखिया होता है। निश्चय ही वह किसी एक राजनीतिक दल से चुनकर आता है किन्तु वह केवल अपने दल (और अपने दल के समर्थकों) का ही मुखिया नहीं होता। समूचे राज्य का होता है। उन लोगों का भी, जो उसे पसन्द नहीं करते और जो उसमें विश्वास नहीं करते। और मुखिया का आचरण कैसा होना चाहिए - यह किसी को बताने की जरूरत नहीं। तुलसीदासजी दो पंक्तियों में मुखिया का व्यक्तित्व, चरित्र और कर्तव्याधारित आचरण बता गए हैं -

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान में एक।
पाले, पोसे सकल जग, तुलसी सहित विवेक।।

ऐसे में जब कोई मुखिया या उसके प्रभावी संगी-साथी, सत्ता या वोट की खातिर इस ‘मुखियापन’ के सर्वथा प्रतिकूल आचरण करें तो किसी का कल्याण नहीं हो सकता। तब यह ‘एक पैसे के लाभ के लिए बरती गई ऐसी बुद्धिमानी होती है जो अन्ततः एक रुपये का नुकसान करने की मूर्खता’ ही होती है।

मुझे ‘समरसता स्नान’ ऐसा ही, ‘एक रुपये का नुकसान’ अनुभव हुआ। जाति आधारित आरक्षण के कारण परस्पर प्रेम और सौहार्द्र भाव पल-पल कम होता जा रहा है। नफरत खुल कर खेल रही है। खेदजनक यह है कि जिन पर इसे नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी है, वे ही, अपने आचरण से इसे बढ़ावा देते नजर आ रहे हैं। वे कहते कुछ और हैं और कर रहे कुछ और। निश्चय ही ‘सत्ता’ महत्वपूर्ण है। किन्तु किस कीमत पर? नफरत के साथ कोई कैसे और कब तक जी सकता है? 

इसमें सुखद बात यह रही कि कुछ साधु-सन्तों-महन्तों ने इस समरसता स्नान पर असहमति और आपत्ति जताई जिससे विवश होकर इसका नया नाकरण करना पड़ा। किन्तु तब तक, जो नुकसान होना था, वह हो चुका था। उधर ‘सीकरी’ के मोह से बच पाना ‘सन्तन’ के लिए भी असम्भव नहीं तो दुसाध्य तो होता ही है। ऐसा ही हुआ भी। नए नामकरण के बहाने वे इसमें शामिल हुए। लेकिन ‘सीकरी’ अपना चरित्र नहीं बदलती। समूचा उपक्रम पूरा होने पर इन साधुओं-सन्तों-महन्तों ने खुद को ठगा हुआ और अपमानित अनुभव किया। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष नरेन्द्र गिरिजी तो इतने व्यथित हुए कि उन्होंने अपने आचरण के लिए उन तमाम साधुओं-सन्तों से माफी माँगी जो उनके (नरेन्द्र गिरिजी के) कहने पर इस उपक्रम में शरीक हुए थे। आश्चर्य इस बात का है कि वे, सन्त कुम्भनदास के ‘सन्तन को कहाँ, सीकरी से काम/आवत-जात पन्हैयाँ टूटीं, बिसर गयो हरि नाम’ वाली बात कैसे भूल गए!

सामाजिक विभेद दूर करना, सबकी समान रूप से देख-भाल और रक्षा करना ‘राज्य’ की जिम्मेदारी है। इसमें मुखिया की विफलता, पूरे देश की विफलता होती है। ‘सब सम्पन्न रहें’ के प्रयत्नों में आर्थिक संसाधनों की आवश्यकता हो सकती है। किन्तु ‘सब प्रेमपूर्वक, परस्पर निर्भय होकर रहें’ इसमें केवल सदाशयता भरे सदाचरण की ही आवश्यकता होती है। हमें याद रखना चाहिए कि अब हम ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनानेवाले अंग्रेजों के दास नहीं हैं।

मैं अत्यधिक व्यथित भाव से कह रहा हूँ कि ‘समरसता स्नान’ की अवधारणा के सार्वजनिक प्रकटीकरण और क्रियान्‍वयन ने जाति/वर्ण व्यवस्था को प्रोत्साहित ही किया। इससे बचा जाना चाहिए था। ‘वोट’ यदि ‘देश’ से बड़ा हो जाएगा तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।

हमें यदि जातिगत आरक्षण से मुक्ति पाना है तो उसकी एक ही शर्त होगी कि हम जाति/वर्णविहीन समाज बनाएँ। जातियों/वर्णों के आधार पर विभाजन करनेवाला कोई भी कदम हममें से किसी के भी लिए, कभी भी कल्याणकारी नहीं होगा।
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