मेरी आपबीती और बिट्टू की हाँ

बिट्टू कहने भर को बिट्टू है। उसे सचमुच में बिट्टू मत मान लीजिएगा। यदि माता-पिता का कहा मान उसने विवाह कर लिया होता तो अब तक तो वह खुद कम से कम एक बिट्टू (या बिट्टी) का पिता बन चुका होता।

बिट्टू इस समय पचीसवें में चल रहा है। आज के जमाने के हिसाब से कोई बहुत ज्यादा उम्र नहीं है उसकी। आज कल के बच्चे 28/30 के आसपास ही विवाह के बारे में सोचते/करते हैं। इस लिहाज से तो बिट्टू सचमुच में ‘बच्चा’ ही कहा जा सकता है। किन्तु उसके माता-पिता के हिसाब से तो साल दो साल पहले ही उसका विवाह हो जाना चाहिए था। दो साल पहले ही, पढ़ाई समाप्त होते ही, बिट्टू की नौकरी लग चुकी है। ढंग की तनख्वाह (महीने के तीस-पैंतीस हजार रुपये) पा रहा है। वैसे भी घर में कोई कमी नहीं है। फिर, वह परिवार का बड़ा बेटा है! सो, उसने अब तनिक भी देर किए बिना विवाह के लिए हाँ कर देना चाहिए।

बिट्टू और उसके माता-पिता के बीच यही सब बातें चल रहीं थीं जब मैं बिट्टू के घर पहुँचा। नहीं, बिट्टू से मिलने नहीं गया था। उसके माता-पिता से मिलना था। पहुँचते ही लगा कि गलत समय पर आ गया हूँ। जी तो किया कि उल्टे पाँव लौट जाऊँ किन्तु वैसा कर पाना सम्भव नहीं रह गया था। सो, मुझे बैठना ही पड़ा। बैठ गया। तय किया था कि चुपचाप तीनों की बातें सुनूँगा। बोलूँगा कुछ भी नहीं। किन्तु जब आप, उपस्थित लोगों में उम्र में सबसे बड़े हों, एक बेटे को पढ़ा-लिखा कर उसका विवाह कर चुके हों और सामने वाले के परिवार में घर के बड़ों की तरह व्यवहार/सम्मान पाते हों तो आपको चुप कौन बैठने देगा? ऐसे वक्त तो आप सबसे बड़े सहायक बन कर सामने आते हैं! सो, वहाँ ‘अयाचित, अनपेक्षित’ पहुँचा मैं, अब ‘परिवार के बड़े-बूढ़े’ की भूमिका में भी था। बिट्टू के माता-पिता ने कहा - ‘हम तो समझा-समझा कर थक गए। आप ही इसे समझाइए।’


सहायता के लिए उनका आग्रह तो मुझे उचित लगा किन्तु बिट्टू को नासमझ मानने की उनकी समझ मुझे उचित नहीं लगी। हम अपने बच्चों को शायद कभी भी बड़ा नहीं होने देते। वे बड़े हो जाते हैं किन्तु हम उन्हें सदैव ‘शिशुवत्’ ही मानना चाहते हैं। जो बिट्टू किसी बहु राष्ट्रीय कम्पनी में अपने अनुभाग का प्रभारी है, तीस-पैंतीस हजार रुपयों वाली नौकरी कर रहा है, पाँच-सात अधीनस्थों से काम ले रहा है उसे नासमझ मान लेना अपने आप में समझदारी कैसे हो सकती है? हमारे बच्चे हमारा लिहाज पाल कर हमारे सामने चुप रहते हैं तो यह उनकी संस्कारशीलता है, नासमझी नहीं। हाँ, बिट्टू तनिक अपरिपक्व भले ही हो सकता है। मैं उसे नासमझ मानने के लिए पल भर को भी तैयार नहीं हुआ।

सो मैंने कहा कि मैं उसे समझाने या उपदेश देने की मूर्खता तो नहीं कर पाऊँगा किन्तु आपबीती अवश्य सुनाना चाहूँगा। बिट्टू को बड़ी राहत मिली, यह उसके चेहरे पर पढ़ा जा सकता था। वैसे भी उपदेश की अपेक्षा किसी की आपबीती सुनना अधिक रोचक होता है।

मैं शुरु हो गया।

बिट्टू की तरह ही मैं भी विवाह न करने पर अड़ा हुआ था। बड़ा अन्तर यह था कि मैं बेरोजगार था जब मुझ पर विवाह करने का दबाव बनाया जा रहा था। मेरा आत्मा इसके लिए तैयार नहीं था। अन्ततः, मैं विवाह के लिए जब तैयार हुआ तब मेरी उम्र 29 वर्ष थी। विवाह के चार वर्ष बाद (अर्थात् जब मैं 33 वर्ष का था तब) मेरे बड़े बेटे का जन्म हुआ और उसके नौ वर्ष बाद (मेरी आयु के 42वें वर्ष में) मेरे छोटे बेटे का। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, वैसे-वैसे माँ-बाप बूढ़े होते ही हैं। किन्तु मेरे साथ यह तनिक अधिक गति से हो रहा था क्यों कि विवाह देर से किया और छोटा बेटा तो उसके भी 13 वर्ष बाद हुआ।

बड़े बेटे के विवाह के उत्तरदायित्व से मैं गत वर्ष (अर्थात् अपनी आयु के 61वें वर्ष में) निवृत्त हुआ हूँ। छोटा बेटा इस समय इंजीनीयरिंग के तीसरे सेमेस्टर में पढ़ रहा है। अर्थात् उसकी इंजीनीयरिंग पूरी होने में अभी कम से कम ढाई वर्ष तथा उसके बाद कोई भी स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए और दो वर्ष लगेंगे। उसके बाद उसका विवाह करना होगा। लेकिन यदि उस समय वह काम-काज से नहीं लगा तो वह भी मेरी ही तरह विवाह से इंकार करेगा और मैं उसे मना नहीं कर पाऊँगा। यह सब मेरा न्यूनतम उत्तरदायित्व है। यदि पढ़ाई पूरी होते-होते उसे नौकरी मिल भी गई और वह तत्काल ही विवाह के लिए राजी हो गया तो भी उस समय मेरी उम्र कम से कम 67 वर्ष के आसपास होगी।


मेरे सहपाठियों में से दो स्वर्गवासी हो चुके हैं और शेष समस्त ‘रिटायर्ड लाइफ’ बिता रहे हैं। अपने नातियों-पोतों के साथ खेल रहे हैं। उन्हें या तो कहानियाँ सुना रहे हैं या उन्हें स्कूल ला-ले जा रहे हैं। बहुत हुआ तो घर के लिए सब्जी ला दी या टेलिफोन, बिजली, पानी के बिल भरने का काम कर दिया। जबकि मुझे तो तब तक लगातार कमाते रहने के लिए हाथ पैर मारने पड़ेगें। फिर, मँहगाई जिस तरह दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है उसके चलते मेरी आय का प्रत्येक आँकड़ा हर बार छोटा ही बना रहेगा! याने, जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे मुझे और ज्यादा तथा और अधिक गति से काम करते रहना पड़ेगा जबकि शरीर बराबर प्रतिवाद करता रहेगा।मैंने कहा कि तब मुझे मेरे माता-पिता की बातें नासमझी लगती थीं किन्तु अब (इन सारी वास्तविकताओं का अनुमान करते हुए) मैं अनुभव करता हूँ कि वह मेरी नासमझी थी। निस्सन्देह, बारोजगार होने के बाद ही विवाह करने का मेरा आग्रह अनुचित बिलकुल ही नहीं था लेकिन अब लग रहा है कि मैंने तब, माता-पिता के पहली बार कहने पर ही विवाह कर लेना चाहिए था। मैंने कहा कि मैं यह नहीं कहता कि बिट्टू को फौरन विवाह कर लेना चाहिए किन्तु मेरी कहानी पर उसने विचार अवश्य करना चाहिए। मैंने कहा-सही समय पर सही निर्णय लेना तो समझदारी होती ही है किन्तु दूसरे की मूर्खता से सबक लेना उससे भी बड़ी समझदारी होती है।


मैं आपबीती सुना रहा था, उपदेश बिलकुल नहीं दे रहा था। किन्तु मैं देख रहा था मेरी आपबीती को उपदेश की तरह सुना जा रहा था। बिट्टू अविश्वास से मेरी ओर देखे जा रहा था। मैं तो अपनी आपबीती सुना रहा था किन्तु उसे लग रहा था कि मैं अपनी गलती का सार्वजनिक स्वीकार कर रहा हूँ। उसके चेहरे पर प्रसन्नता चमक रही थी। शायद यह जानकर कि जिसे वह समझदार और प्रबुध्द मानता है वह आदमी भी गलती कर चुका है। उसकी प्रसन्नता में घुला हुआ विजय भाव भी मैं पढ़ पा रहा था जो अपने माता-पिता से कहता प्रतीत हो रहा था कि कहाँ तो आप मुझे गलत साबित कर रहे थे और यहाँ तो जिसे आपने मुझे समझाने का काम सौंपा है, वह अपनी गलती स्वीकार कर रहा है। भला, एक गलत आदमी मुझे क्या समझाएगा?

बिट्टू की यह मनोदशा अनुभव कर मुझे प्रसन्नता तो हुई, हँसी भी आई। हमारे बच्चे! निस्सन्देह वे समझदार होते हैं किन्तु इतने भी नहीं कि अपने बूढ़ों के आत्म स्वीकार में लिपटी लम्पटता को समझ सकें। मेरी आपबीती सुनने के बाद, अपने माता-पिता से कुछ कहने के बजाय उसने मुझसे कहा - ‘ताऊजी! आपने यह सब कहा है तो मैं एक बार फिर विचार करूँगा।’ सुनकर उसके माता-पिता बहुत खुश नहीं हुए। वे तत्काल ही स्पष्ट स्वीकृती चाह रहे थे। किन्तु वे कर भी क्या सकते थे?

यह सब 30 मार्च की शाम की बात है। कल शाम बिट्टू के माता-पिता का फोन आया। कह रहे थे कि बिट्टू ने विवाह के लिए हाँ कर दी है। कोशिश है कि इसी मई में विवाह हो जाए। कोशिशें कामयाब हो गईं तो मुझे बारात में चलने के लिए अभी से तैयार रहना चाहिए।

धन्यवाद देते हुए वे कह रहे थे - आपकी आपबीती ने हमारी बड़ी सहायता की।
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9 comments:

  1. मैं भी "बिट्टू" ही हूँ! :)

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  2. आप की तरह मैं भी चाहता था कि मेरी शादी कुछ देर से हो। मैं ने प्रतिरोध भी किया लेकिन नहीं चला। फिर कुछ बातें थीं कि प्रतिरोध त्याग दिया। शादी हो गई, तब मैं पूरे बीस का भी नहीं था। अभी भी महसूस होता है कि कुछ जल्दी ही हो गई। कम से कम तीन बरस तो और रुकना था। जमाने भर की परेशानियों के बावजूद भी मेरा मन कहता है कि शादी की सही उम्र तो वही 21 से 25 और लड़कियों के लिए 18 से 22-23 ही है।

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  3. चलिए किसी का घर तो बस रहा है.

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  4. इतनी जल्‍दी मना लिया बिट्टू को ... अब बरात जाने की तैयारी कीजिए ... बधाई।

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  5. भौतिकवाद में उलझकर लोग जीवन के असली सुख खोते जा रहे हैं । आपके अनुभव और मार्गदर्शन से युवा पीढ़ी समृद्ध हो ये बेहद ज़रुरी है । वैसे मेरी राय है कि कैरियर तो विवाह के बाद भी बन सकता है । मैंने अपने रिश्तेदारों की कम उम्र में हुई शादियों के मामले में ये बात देखी है । बल्कि मेरे माता- पिता का विवाह पंद्रह- तेरह साल की उम्र हो गया था । छासठ साल के मेरे पिता अपनी सभी ज़िम्मेदारियों से निवृत्त हो कर अपना जीवन जी रहे हैं ।

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  6. चाहे लाख पश्चिम का अनुकरण कर लें युवावस्था में, पर उम्र ढलने के बाद एक न एक दिन मानना ही पड़ता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में गृ्हस्थाश्रम हेतु जो भी प्रावधान हैं,अंततः सच्चा सुख(अपने उत्तरदायित्वों का सही निर्वहण) उसी रास्ते चल मिल सकता है.

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  7. "बिट्टू की यह मनोदशा अनुभव कर मुझे प्रसन्नता तो हुई, हँसी भी आई। हमारे बच्चे! निस्सन्देह वे समझदार होते हैं किन्तु इतने भी नहीं कि अपने बूढ़ों के आत्म स्वीकार में लिपटी लम्पटता को समझ सकें।"
    आपकी ही आयु के हमारे एक परम मित्र हैं जो कहते हैं कि जब उन्हें किसी से अपनी इच्छानुसार काम कराना होता है तो वे कुछ भी लादे बिना बिलकुल भोले-अज्ञानी बनकर अपनी कथा सुनाकर सारा कुछ सामने वाले पर छोड़ देते हैं - और उनका यह सूत्र कभी भी नाकाम नहीं गया है.
    खैर, आपकी कही बात में दम है. सैकडों वर्षों के आक्रमणों और अस्थिरताओं के बावजूद भी भारतीय संस्कृति के मूल सिद्धांतों के आज तक टिके रह पाने के पीछे समय पर की गयी शादियों का (और सबसे खराब दिनों में बाल-विवाहों का भी) बहुत बड़ा योगदान रहा है.

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  8. हम भी द्विवेदी जी की बात से सरोकार रखते हैं. हमारी शादी भी १९ वर्ष मे होगई थी. ज्यादा विरोध किया तो बाबू (पिताजी) ने आत्महत्या करने की धमकी दे डाली अब हनुमान जी की तरह ब्र्हम्पाश का सम्मान तो करना ही था.:)

    बहुत बढिया आलेख. आपके चिठ्ठे की फ़ीड बहुत कम मिल पाती है. इस वजह से आपके सारवान लेख पढने से वंचित रहा.

    रामराम.

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  9. आपकी बात में दम है और मेरे विचार से बिट्टू उस दम से प्रभावित हुआ होगा जरूर। तभी वह निर्णय कर पाया।

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