हिन्दी के हत्यारे




मध्य प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान समझ रहे होंगे कि वे मध्य प्रदेश को स्वर्णिम मध्य प्रदेश बना रहे हैं। लेकिन यह चित्र कह रहा है कि वे फौरन ही मध्‍य प्रदेश  को छोड दें -  वे केंसर बन गए हैं। केंसर ही नहीं, ‘अनुपम केंसर’ बन गए हैं। अब भला कोई रोग,  किसी व्‍यक्ति या प्रदेश को कैसे निरोग कर/रख सकता है? लिहाजा, शिवराज यदि सचमुच में मध्‍य प्रदेश का भला चाहते हैं, सचमुच में चाहते हैं कि मध्‍य प्रदेश स्‍वर्णिम बने तो महरबानी करें और मध्‍य प्रदेश का पिण्‍ड छोड दें। मध्‍य पद्रेश बचा  रहेगा तो तब ही तो स्‍वर्णिम बन सकेगा?

समाचार में नजर आ रहा समाचार शीर्षक, वस्तुतः एक समाचार शीर्षक का पहला, आधा हिस्सा है। पूरा शीर्षक था - ‘मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह नवोदय केंसर हास्पिटल का उद्घाटन करेंगे।’ किन्तु चैनल ने अपनी सुविधानुसार इसे दो हिस्सों में बाँट दिया और शिवराज सिंह चौहान को ही ‘अनुपम केंसर’ बना दिया।

सोमवार, 04 मार्च की पूर्वाह्न साढ़े ग्यारह बजे से 05 मार्च मंगलवार की शाम तक, तैतीस लोगों को मैंने यह चित्र दिखाया। किसी को रास्ते चलते रोक कर, किसी के पास खुद पहुँच कर और किसी को, यूँ ही बैठे हुए। अधिकांश तो समझ ही नहीं पाए कि यह चित्र मैं उन्हें क्यों दिखा रहा हूँ। सबने उड़ती नजर से देखा और देख कर रह गए। सात लोगों ने सीधे-सीधे पूछा - ‘आप कहना क्या चाहते हैं?’ कुल दो ने अचरज जताया - ‘यह तो बड़ी गम्भीर बात है!’

यह चित्र, मैंने, (04 मार्च को) ई टीवी मध्य प्रदेश समाचार चैनल से लिया है-जैसा कि चित्र में नजर आ रहा है, पूर्वाह्न दस बजकर चौदह मिनिट पर। कम से कम पाँच बार तो मैंने इसे देखा ही। 

भाषा के प्रति हमारी असावधानी और गैरजिम्मेदारी का यह एक छोटा सा उदाहरण है। हिन्दी के साथ हम, कितनी सहजता से अत्याचार किए जा रहे हैं, उसका नमूना है यह।

सारे हिन्दी अखबार और समाचार चैनल यह दुष्कृत्य किए जा रहे हैं। इनमें से किसी को भी, एक क्षण भर को भी अपने इस दुष्कृत्य के प्रति सजग या चिन्तित नहीं देखा।

ये सबके सब हिन्दी के अखबार और चैनल हैं। हिन्दी से अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। हिन्दी से रोटी, पैसा, प्रतिष्ठा, पहचान और हैसियत हासिल कर रहे हैं। अपनी-अपनी टीआरपी और प्रसार संख्या की चिन्ता सबको है। चिन्ता नहीं है तो बस, हिन्दी की नहीं है। न तो इसकी अस्मिता की चिन्ता, न व्याकरण की, न वाक्य रचना की, न ही वर्तनी की शुद्धता की।

कठिनाई यह है कि चैनल घर-घर में खुलता/चलता है - एक ही समय पर, एक साथ। अखबार घर-घर में पड़े रहते हैं और पढ़े जाते हैं - पूरे दिन भर, अपनी-अपनी सुविधा से। याने, बाढ़ कहें या स्खलन, एक साथ आ रहा है। रोज आ रहा है। जैसे-जैसे आ रहा है, वैसे-वैसे स्थिति गम्भीर होती जा रही है और वैसे-वैसे ही, मरम्मत या सुधार की आवश्यकता भी दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है। किन्तु ध्वंस तो एक क्षण, एक ही समय में, बहुत बड़े क्षेत्रफल में हो जाता लेकिन मरम्मत में समय लगता है और ध्वंस की तरह मरम्मत, प्रभावित क्षेत्रफल में एक साथ न तो की जा सकती है और न ही हो पाती है। मरम्मत/सुधार एक-एक घर में करना पड़ता है और वह धीरे-धीरे होता है। इसके लिए आवश्यक समय, श्रम, संसाधन और धैर्य किसके पास?

इसी चैनल पर, बीबीसी से लिए गए समाचार भी देखने को मिलते हैं। उन समाचारों की हिन्दी सचमुच में हिन्दी होती है। अंग्रेजी के शब्द उसमें अपवादस्वरूप ही प्रयुक्त किए जाते हैं। क्या रोचक विरोधाभास है कि अंग्रेजी की जमीन से आनेवाले समाचारों में हिन्दी का ध्यान रखा जाता है और हिन्दी की जमीन से प्रसारित किए जा रहे समाचारों में जानबूझकर अंग्रेजी की घालमेल की जाती है - मानो ये सब अंग्रेजी के चैनल हों जिनके लिए हिन्दी कोई परदेसी, अपरिचित भाषा हो।

हिन्दी इन सबको पाल रही है और ये सबके सब मिलकर हिन्दी को मार रहे हैं।

मैथिलीशरणजी गुप्त ने ठीक ही कहा था - पूत, कपूत हो सकता है। माता, कुमाता नहीं होती।

‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ याने पेण्ट-शर्ट के भाव में सफारी


नकली दाँतों की जबानी सुनी मुनाफे की असलियत का मजा अपनी जगह रह गया और ‘यदि आदमी थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अपनी अकल लगा ले तो मुनाफाखोरी से बच सकता है’ सुनकर उपजी जिज्ञासा मन पर हावी हो गई। झटपट चाय खतम की और कहा - ‘जरा, फटाफट बताइए तो कि यह थोड़ी सी अकल लगाने वाली बात क्या है?’ यादवजी बोले - “सुनाता हूँ। आपको सुनने में मजा आ रहा है तो मुझे भी सुनाने में मजा आ रहा है। जानता हूँ कि ये किस्से आप लिखेंगे ही लिखेंगे। बस! इतना ध्यान रखिएगा कि मेरी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ से हताहत हुए पात्र का असली नाम उजागर नहीं करेंगे।”
                                                                                       
मैंने कहा - ‘वादा रहा। पक्का वादा। भरोसा रखिए।’

‘तो फिर सुनिए।’ कह कर यादवजी शुरु हो गए -

“बात कोई चालीस बरस पहले की है। 1971-72 के जमाने की। ‘सफारी’ फैशन में आई-आई ही थी। आते ही इसने धूम मचा दी थी। पेण्ट-शर्ट मानो पिछड़ेपन की निशानी बन गए थे। कपड़ों की दुकान छोटी हो या बड़ी, सब जगह सूटिंग क्लॉथ का कब्जा हो गया था। घर के बाहर चबूतरे पर सिलाई मशीन लेकर बैठनेवाले हमारे छगन से लेकर ‘रतलाम के एक मात्र शो रूम’ में बैठने वाले याकूब टेलर मास्टर तक, सब के सब मानो ‘सफारी-सेवक’ बन कर रह गए थे। किसी को सर उठाने की फुरसत नहीं। काम इतना कि सारे के सारे टेलर ‘झूठे-बलमा’ साबित होने लगे। एक भी माई का लाल ऐसा नहीं रहा जिसने, जिस दिन का वादा किया, उस दिन सफारी तैयार करके ग्राहक को दे दी हो। 

“उधर, सफारी कुछ इस तरह सर पर सवार हुई कि जिसे देखो, या तो सफारी में सजा हुआ चला आ रहा है या फिर सफारी का कपड़ा बगल में दबाए, दर्जी की दुकान की ओर भागा जा रहा है - कुछ इस तरह कि उससे पहले किसी और का नम्बर नहीं लग जाए। दर्जियों की बन आई थी। जो दुकानदार, आसपास के दुकानदारों से नजर बचाकर, दस दुकान आगे जाकर अकेला, चुपचाप चाय पीने जाया करता था, अब अपने ग्राहकों को जबरन चाय पिला रहा था। जो कभी थर्ड क्लास से आगे नहीं बढ़ा, वह फर्स्ट क्लास में सफर करने का हौसला करने लगा था। सफारी सिलाई के भाव, पेण्ट-शर्ट की सिलाई के मुकाबले एकदम दुगुने। अब, उस समय के भाव तो बराबर याद नहीं आ रहे पर आप मान लो कि पेण्ट-शर्ट की सिलाई सौ रुपये (पेण्ट की सिलाई साठ और शर्ट की सिलाई चालीस रुपये) तो सफारी की सिलाई दो सौ रुपये।

“मेरी हालत उस समय यूँ तो ठीक-ठीक ही थी किन्तु तब भी मुझे सफारी, अपनी चादर से बाहर लगती थी। लेकिन सफारी के आकर्षण से मैं खुद को नहीं बचा पाया। अपनी आत्मा की आवाज अनसुनी कर, जी कड़ा कर सफारी का कपड़ा खरीद ही लिया। कपड़ा भी ऐसा-वैसा चालू किसम का नहीं, मॉडेला सूटिंग का।

“अपनी हैसियत से आगे जाकर मँहगा कपड़ा तो मैंने खरीद लिया किन्तु सिलाई के दो सौ रुपये देने की न तो हिम्मत थी और न ही इच्छा। लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि कपड़ा खरीद लो और सफारी नहीं सिलवाओ! तो, अब मुझे सफारी सिलवानी थी और दो सौ रुपयों में नहीं सिलवानी थी। यहीं मैंने अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाई।  

“एक सावधानी मैंने यह बरती  कि सफारी का कपड़ा ‘वन पीस’ नहीं कटवाया। दुकानदार से कह कर दो टुकड़ों में लिया। एक टुकड़ा पेण्ट के लिए और दूसरा शर्ट के लिए।

“एक शाम मैं ‘पेण्ट पीस’ लेकर परशुराम की दुकान पर पहुँचा। आप उसे और उसकी दुकान को जानते हो। दो बत्ती पर ही उसकी दुकान है। रतलाम के बड़े लोगों के और सरकारी अफसरों के कपड़े उसी के यहाँ सिलते थे। इस बात का उसे बड़ा ठसका रहता था। सीधे मुँह बात नहीं करता था। मेरा दोस्त तो नहीं था लेकिन उससे अच्छा-भला मिलना-जुलना था। मैंने उसे कपड़ा दिया और कहा - ‘एक पेण्ट बनवानी है। थोड़ी जल्दी चाहिए।’ पता नहीं कैसे उसने मेरा लिहाज कर लिया। बोला - ‘सिल तो दूँगा लेकिन थोड़ा वक्त लगेगा। देख ही रहे हो कि सफारियों का ढेर लगा है।’ मैंने कहा - ‘खींच-तान कर थोड़ा वक्त निकाल ले और पेण्ट सिल दे भैया!’ शायद मेरी तकदीर अच्छी थी। बोला - ‘ला! कपड़ा दे।’ कपड़ा हाथ में लेते ही बोला - ‘मॉडेला सूटिंग? क्या बात है यार! उसने कपड़ा नापा। फिर मेरा नाप लिया और बोला - ‘अच्छा। तीन दिन बाद आ जाना।’ मैंने पूछा - ‘कितने रुपये लेकर आऊँ?’ उसने, दुकान की दीवार पर टँगी रेट लिस्ट की ओर इशारा किया और बोला - ‘लिखा तो है! साठ रुपये।’ मैंने कहा - ‘एडवांस दूँ?’ परशुराम हँस दिया। बोला - ‘तुझ से क्या एडवांस लेना। हाँ, जब आए तो भुगतान लेकर जरूर आना।’

“तीन दिनों बाद मैं पहुँचा। मुझे ताज्जुब हुआ यह देखकर कि मेरी पेण्ट तैयार थी। मैंने साठ रुपये दिए। अपनी पेण्ट ली। उसकी घड़ी खोलकर, हवा में लहराकर देखी। तबीयत खुश हो गई। परशुराम की सिलाई की बात ही न्यारी थी! परशुराम को धन्यवाद देकर मैं घर चला आया। 

“कोई तीन सप्ताह बाद मैं फिर परशुराम की दुकान पर पहुँचा - अपना शर्ट पीस लेकर। कहा - ‘फिर तकलीफ देने आया हूँ। शर्ट सिलवानी है।’ इस बार फिर उसने दरियादिली दिखाई। सहजता से कपड़ा लिया। उसे नापा। मेरा नाप लिया और बोला - ‘इस बार थोड़ा वक्त लगेगा। हफ्ते भर बाद आना।’ मैंने कहा - ‘ठीक है। लेकिन एक रिक्वेस्ट है। शर्ट में दोनों ओर जेब लगा देना।’ मेरी बात सुनकर उसने एक बार फिर कपड़ा नापा और दो जेबवाली बात रजिस्टर में लिखते हुए बोला - ‘लगा दूँगा।’ इस बार मैंने ‘कितने रुपये लेकर आऊँ?’ वाला सवाल नहीं पूछा। चला आया।

आठवें दिन उसकी दुकान पर पहुँचा तो देख कि मेरी शर्ट तैयार ही नहीं थी, दो जेब लगाने के अलावा, मेरी उम्मीद से आगे बढ़कर उसने सफारी शर्ट वाली कुछ डिजाइनिंग भी कर दी थी। मेरी बाँछें खिल गईं किन्तु मैं सामान्य ही बना रहा।

“चालीस रुपये चुका कर मैंने शर्ट लेने के लिए हाथ बढ़ाया। परशुराम ने मेरी ओर शर्ट बढ़ाई और अचानक ही चिहुँक गया। शर्ट थामे उसका हाथ जैसे हवा में ही टँगा रहा गया। कभी शर्ट को तो कभी मुझे देखते हुए बोला - ‘तू तो बड़ा उस्ताद निकला रे यादव! मैं सारी दुनिया को झक्कू टिका रहा हूँ और तेने तो मुझे ही झक्कू टिका दिया! तेने तो आधे दाम में सफारी सिलवा ली!’ मैंने सामान्य और सहज बने रहते हुए कहा - ‘ऐसी तो कोई बात नहीं भैया। पहले पेण्ट बनवाई थी। अब पैसे आ गए तो शर्ट भी बनवा ली।’ मेरे हाथ में शर्ट थमाते हुए परशुराम बोला - ‘ले! पहले तो अपनी शर्ट पकड़। बैठ।  ईमान से बता, सच्ची में तेने मुझे बेवकूफ नहीं बनाया?’ बात ईमान की थी और वह भी चालीस बरस पहले के जमाने में! मैं झूठ नहीं बोल सका। कहा - ‘हाँ। यह सब मैंने जानबूझकर, सोच-समझकर ही किया। सफारी के नाम पर पेण्ट शर्ट की सिलाई के दो सौ रुपये देना मुझे गवारा नहीं हुआ। इसीलिए यह सब किया।’ परशुराम जस का तस बना रहा। न तो गुस्सा हुआ और न ही नाराज। थोड़ी देर मुझे घूरता रहा। फिर हँस दिया। बोला - ‘ तू बहुत शाणा (सयाना) है। अकलमन्द भी और चालाक भी। आज तेने मुझे रंगे हाथों पकड़ लिया। अब एक बात ध्यान रखना। तेने मेरे साथ जो खेल खेला है, इसका जिक्र कभी, किसी से मत करना। तुझे तेरी रोजी की कसम। वरना मेरा बहुत नुकसान हो जाएगा। अब तुझसे क्या कहूँ! इस सफारी ने एक साल भर में मेरा मकान दो मंजिला कर दिया है। कसम खा कि यह बात तू किसी को नहीं बताएगा।’ मैंने कसम खाई। वह फिर हँस दिया। मैं चलने लगा तो हाथ पकड़कर मुझे बैठा लिया। बोला - ‘चल! तेरी इस बदमाशी का जश्न मना लें। चाय पीकर जा।’

“उसने अपने हाथ काम छोड़ दिया। चाय मँगवाई। हम दोनों ने चाय पी। मैं चुपचाप बना रहा और वह मेरी ओर देख-देख कर मुस्कुराता रहा। मैं उठा तो परशुराम एक बार फिर जोर से हँसा और बोला - ‘यार! यादव! ये बात याद रहेगी। आज तेरे से ठगा कर मजा आ गया।’

“मैं चुपचाप चला आया और मोड़ पर आया (जब उसकी दुकान दिखनी बन्द हो गई) तो मेरी हँसी छूट गई। मैं अकेला ही हँसता रहा। जोर-जोर से। अकेला ही। बड़ी देर तक हँसता रहा। अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाकर मैंने पूरे सौ रुपये बचा लिए थे और परशुराम से शाणा, अकलमन्द और चतुर होने का सर्टिफिकेट भी ले आया था। बस, मुझे तीन सप्ताह तक प्रतीक्षा करने का धैर्य रखना पड़ा।”

यादवजी रुके तो मेरी हँसी छूट गई। मैंने, कोहनियों तक हाथ जोड़ कर उन्हें नमस्कार किया और पूछा - ‘परशुराम ने रोजी की कसम दिलाई थी लेकिन आपने तो पूरा किस्सा सुना दिया! भला क्यों?’ संजीदा होकर यादवजी बोले - ‘अब परशुराम वह परशुराम नहीं रहा। उसके दोनों बेटे विदेश में बस गए हैं। उसके माँगे बिना उसे रुपये भेज देते हैं - इतने कि उससे खर्च नहीं होते। दुकान पर तो वह आज भी बैठता है लेकिन दुकानदारी करने के लिए नहीं, वक्त काटने के लिए। और रही मुझे कसम देने की बात तो अब तो खुद परशुराम ही यह किस्सा मजे ले-ले कर, आने-जानेवालों को, मिलनेवालों को सुनाता है और खुद ही हँसता है।’

यादवजी से मिलना, छोड़ की ‘झन्नाट’ कचोरी खाना और ‘मूल्यवान परिसम्पत्तियों जैसे दो यादगार संस्मरण सुनना - सब कुछ हो चुका था। अब मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा था वहाँ। सो मैंने भी अपनी ‘थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अकल’ लगाई और यादवजी को धन्यवाद दे, नमस्कार कर चला आया।

मुनाफे की असलियत, नकली दाँतों की जबानी


पहली मार्च की शाम यादव साहब (माँगीलालजी यादव) की दुकान पर चला गया। बहुत दिनों से न तो उनकी शकल दिखाई दी और न ही आवाज सुनाई दी। फोन किया तो बोले - ‘अरे! वाह! आपके बारे मे ही सोच रहा था। फौरन दुकान पर आ जाइए। आज से दुकान पर कचोरी की शुरुआत हुई है। छोड़  की कचोरियाँ (मालवा में हरे चने को ‘छोड़’ कहते हैं) निकल रही हैं। झन्नाट कचौरियाँ हैं। चले आईए! एक बार खाइए और दो बार अनुभव कीजिए।’ मैंने कहा - ‘एक बार खाने पर दो बार अनुभव कैसे?’ मानो, थैली में बँधे, विक्टोरिया छाप, चाँदी के हजारों ‘कल्दार’ (पुराने जमाने के, एक रुपयेवाले सिक्के), थैली का मुँह अचानक खुलने पर फर्श पर बिखर गए हों - कुछ ऐसी ही जोरदार, टनटनाती, खनखनाती हँसी हँसते-हँसते बोले - ‘क्यों? कल सुबह भी तो मालूम पड़ेगा! झन्नाट कचौरियाँ हैं सा’ब!’  

कचौरियाँ हों, न हों, मुझे तो जाना ही था। पहुँचा तो उन्हें प्रतीक्षरत पाया। गर्मजाशी से अगवानी की। मैं बैठूँ उससे पहले ही कर्मचारी को आवाज दी - ‘अरे! मुन्ना! एक कचोरी ला तो!’ मैं बैठकर साँस लूँ और कोई बात करूँ, तब तक, कचोरी लेकर मुन्ना हाजिर। उससे लेकर मुझे थमाते हुए  यादवजी बोले - ‘बाकी सब बातें बाद में। पहले कचोरी खाइए।’ अखबारी रद्दी के दो कागजों पर रखी कचोरी इतनी गरम कि हाथ में थामे रखना असहनीय। जबान जल जाए, इतनी गरम कचोरी भला कोई कैसे जल्दी खा सकता है? सो, कचोरी टेबल पर रख, उनसे मुखातिब हो गया। उधर कचोरी खाने लायक ठण्डी हो रही थी, इधर हमारी बातों में गर्मजोशी आती जा रही थी। मानो, ऊष्मा का स्थानान्तरण हो रहा हो। 

चलते-चलते बात, मुनाफे पर आ गई। मैं जानना चाहता था कि मुनाफे के अंश (प्राफिट मार्जीन) का निर्धारण कैसे होता है और एक ही सामान का भाव सारी दुकानों पर एक जैसा कैसे हो जाता है। क्या, कस्बे के सारे व्यापारी कोई सामूहिक निर्णय लेते हैं? यादवजी बोले - ‘कुछ बातें समझाई नहीं जा सकतीं। आप बाजार में बैठेंगे तो खुद-ब-खुद यह अकल आ जाएगी।’ मुझे अचानक ही याद आया कि एनडीटीवी इण्डिया के ‘जायका इण्डिया का’ कार्यक्रम में विनोद दुआ, लखनऊ के, दुकानदारों से बातें कर रहे थे। मुनाफे को लेकर उनके एक सवाल के जवाब में एक दुकानदार ने कहा था - ‘तिजारत में मुनाफा इतना, खाने में हो नमक जितना।’ मैंने यादवजी को यह जवाब सुनाया तो हँसकर बोले - ‘कुछ बातें कहने-सुनने के लिए होती हैं और कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं। जरूरी नहीं कि वे सब सच हों ही। अभी-अभी का, ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह दिन पहले का, किस्सा सुनिए और अपने सवाल का जवाब खुद ही तलाश कर लीजिए।

यादवजी का यह किस्सा उन्हीं की जबानी कुछ इस तरह रहा -

एक के बाद एक, मेरे चार दाँत गिर गए। डॉक्टर को दिखाया तो उसने नकली दाँत लगाने की सलाह दी। मैंने फौरन ही हाँ भर दी। भाव-ताव किया और सौदा साढ़े तीन सौ रुपयों में तय हुआ। डॉक्टर ने सप्ताह भर बाद आने को कहा।

सातवें दिन मैं डॉक्टर के यहाँ जा ही रहा था कि सामने से मदन आ गया। मेरा दोस्त है किन्तु उम्र में मुझसे छोटा है इसलिए मुझे ‘भैया’ कह कर सम्बोधित करता है। उसे मालूम हुआ कि मैं दाँत के डॉक्टर के यहाँ जा रहा हूँ तो उसने डॉक्टर का नाम पूछा। मैंने नाम बताया तो वो तपाक् से बोला - ‘भैया! रुको। मैं एक छोटा सा काम निपटा कर अभी पाँच मिनिट में आता हूँ। मैं आपके साथ चलूँगा। आप मेरे बिना मत जाना। मुझे थोड़ी देर हो जाए तो राह देख लेना लेकिन चलना मेरे साथ ही।’

मदन की बात सुन कर मैं रुक गया। अपना काम निपटा कर वह जल्दी ही आ गया। हम दोनों चल दिए। मदन को देखकर डॉक्टर खड़ा हो गया। नमस्कार करते हुए बोला - ‘भैया! आप?’ मदन बोला - ‘पहले हाथ काम निपटा। फुर्सत से बात करेंगे। हम बैठते हैं।’

मैंने देखा, डॉक्टर असहज हो गया था। उसने पहले बैठे लोगों को जल्दी-जल्दी निपटाया और मदन से बोला - ‘भैया हुकुम करो। कैसे आना हुआ?’ मदन बोला - ‘हुकुम-वुकुम कुछ नहीं। दिख नहीं रहा, भैया के साथ आया हूँ? भैया का काम कर। जल्दी। भैया को और भी काम हैं।’ ‘जी भैया’ कह डॉक्टर ने मुझे सम्हाल लिया। उसने चारों दाँत तैयार कर रखे थे। मेरे मुँह में फिट किए। मुझसे मुँह चलवाया, बातें करने को कहा। बार-बार मुँह खुलवाया। बन्द करवाया। जोर-जोर से हँसने को, ठहाका लगाने को कहा। नकली छींक छिंकवाई। वह जैसा-जैसा कहता गया, मैं वैसा-वैसा करता रहा। काम उसने अच्छा किया था। नकली दाँत पहली बार लगे थे किन्तु मुझे कोई खास अटपटा नहीं लग रहा था। मैं सन्तुष्ट था। मेरा काम हो गया था। भुगतान करने के लिए मैंने जेब में हाथ डाला तो मदन ने रोक दिया - ‘ठहरो भैया।! मैं रुक गया। मदन ने छत की ओर देख मानो, मन ही मन कुछ हिसाब लगाया और बोला -‘भैया! बीस रुपये दे दो।’ मैं चक्कर में पड़ गया। बात मेरी समझ में नहीं आई। मैंने डॉक्टर की ओर देखा तो पाया कि वह मदन की ओर देख रहा था। कुछ इस तरह मानो बौरा गया हो। मैं चक्कर में पड़ गया। मैं कुछ कहूँ उससे पहले ही मदन बोला - ‘देख क्या रहे हो भैया? बीस रुपये दे दो इसे।’ अब डॉक्टर के बोल फूटे। हिम्मत करके बोला - ‘भैया! बीस रुपये? ये क्या कर रहे हो?’ मदन ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया। हड़काते हुए बोला - ‘क्यों? इसमें गलत क्या है? तुझे घर में घाटा हो रहा हो तो बोल?’ घिघियाते हुए डॉक्टर बोला - ‘बात वो नहीं है भैया.....’ मदन ने उसकी बात पूरी नहीं होने दी। बोला - ‘मैं कुछ नही कहना चाहता था। लेकिन अब तू ही जबान खुलवा रहा है। अपनी पोल खुलवा रहा है। चल! हिसाब बताता हूँ। तू दो रुपये के भाव से दाँत खरीदता है। चार दाँत के हुए आठ रुपये। इनमें मसाला-वसाला हुआ पाँच रुपयों का। हुए तेरह रुपये। दो रुपये तेरा मेहनताना। ये हुए पन्द्रह रुपये। इनमें पाँच रुपये तेरा मुनाफा मिला दिया। हो गए बीस रुपये। और क्या चाहिए तुझे?’ 

डॉक्टर नीची नजर किए, गूँगे की तरह चुप और मैं सन्न। मदन बोला - ‘गलत हिसाब लगाया क्या मैंने? पन्द्रह रुपयों पर पाँच रुपयों का मुनाफा याने तैंतीस परसेण्ट से भी ज्यादा। यह भी तुझे कम पड़ रहा है? तेरा पेट है या पखाल? जान लेगा क्या लोगों की?’ डॉक्टर चुप बना हुआ था यह बात तो अपनी जगह लेकिन उसकी शकल देख कर मुझे दया आने लगी। यह तो मुझे समझ में आ गया था कि क्यों मदन मुझे अकेला नहीं आने दे रहा था। लेकिन डॉक्टर की दशा भी मुझसे देखी नहीं जा रही थी। हिम्मत करके मैंने कहा - ‘यार! मदन! बीस रुपये तो बहुत कम होते हैं।’ मदन  मुझ पर चढ़ बैठा। बोला - ‘भैया! मैं तो गणित में फेल हूँ। लेकिन आप तो व्यापारी हो। तैतीस परसेण्ट मुनाफा कम होता है? बोलो?’ मदन की बात अपनी जगह सोलह आने सच थी लेकिन मैं तो बँधा हुआ था। सौदा ठहरा चुका था। मैंने अपने मन की बात मदन को कही तो वह झल्ला गया। बाहर निकलते हुए बोला - ‘आप के मारे भी दुखी हैं। डॉक्टर भी मेरा है और आप भी मेरे हो। मैं जो कर रहा हूँ उसमें किसी का नुकसान नहीं है। लेकिन आपको कौन समझाए? जो करना हो, कर लेना। मैं बाहर आपकी राह देख रहा हूँ।’ फिर, आँखें तरेर कर डॉक्टर को बोला - ‘मैं जा रहा हूँ। भैया का ध्यान रखना।’

मदन चला गया। अब डॉक्टर और मैं - हम दोनों ही थे। मैंने डॉक्टर से पूछा - ‘कितने दूँ?’ डॉक्टर की आवाज नहीं निकल रही थी। मानो फुसफुसा रहा हो, इस तरह बोला - ‘अभी भैया आपके सामने ही तो बता गए हैं? बीस।’ मुझे डॉक्टर पर दया आ रही थी और खुद पर झुंझलाहट। हिसाब-किताब इतना साफ हो चुका था कि साढ़े तीन सौ देने की इच्छा नहीं हो रही थी और बीस रुपये देना भी बुरा लग रहा था। लेकिन मैं, साढ़े तीन सौ को कम करूँ भी तो कितना? जैसे-तैसे मैंने पचास का नोट डॉक्टर को थमाया। नकली दाँतों की डिबिया उठाई और खड़ा हो गया। डॉक्टर भी खड़ा हो गया और घुटी-घुटी आवाज में बोला - ‘भैया से कहिएगा जरूर कि मैंने बीस ही माँगे थे। पचास तो आपने अपनी मर्जी से दिए हैं।’ मुझे रोना-रोना आ गया।

बाहर आया। मदन ने उबलते स्वरों में पूछा - ‘कितने दिए?’ मैंने आँकड़ा बताया तो आँखें चौड़ी कर, झल्लाते हुए बोला - ‘क्या? पचास? पूरे ढाई गुना? डॉक्टर की तो लॉटरी खोल दी आपने! अपने हाथों अपनी जेब कटवाना कोई आपसे सीखे। वाह! भैया! वाह! जवाब नहीं आपका। आपने तो कहीं का नहीं रखा। किसी से कह भी नहीं सकते कि आपने यह कारनामा किया है।’ मैं चुप ही रहा। कुछ भी कहना-सुनना बेकार था। कोई मतलब नहीं रह गया था। बाद में मदन ने बताया कि डॉक्टर नकली दाँतों की खरीदी इन्दौर से करता है और ऐसी खरीदी के समय दो-एक बार वह डॉक्टर के साथ इन्दौर जा चुका है।

पूरा किस्सा सुना कर यादवजी बोले - ‘खाने में किसको कितना नमक अच्छा लगता है, यह खानेवाला ही तय करता है। अपने सवाल का जवाब आप ही तलाश कर लीजिएगा।’

मैं बौड़म की तरह यादवजी का मुँह देख रहा था। मेरी दशा देख कर यादवजी हँसकर बोले - ‘लेकिन यदि आदमी थो ऽ ऽ ऽ ड़ी सी अपनी अकल लगा ले तो मुनाफाखोरी से बच सकता है।’ मैंने कहा - ‘कैसे?’ यादवजी बोले - ‘पहले कचोरी खतम कीजिए। पानी पीजिए। फिर, चाय पीते-पीते आपको वह भी बताता हूँ।

और, चाय पीते-पीते, यादवजी ने जो किस्सा सुनाया, वह सुनने से पहले आप भी चाय पी लीजिए। जल्दी ही बताता हूँ।    

ओछी पूँजी, बड़ी दुकान, इसीलिए यह राधा नहीं नाचेगी - 3



भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह ने पार्टी के तमाम नेताओं-कार्यकर्ताओं को हड़का दिया है - ‘चुप रहो! नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री बनाने का हल्ला-गुल्ला बन्द करो।’ असर हुआ तो जरूर किन्तु सौ टका नहीं। गुबार बैठा तो सही किन्तु गर्द अभी भी बनी हुई है। शोर थमा तो जरूर किन्तु धीमी-धीमी भिनभिनाहट हवाओं में गूँज रही है। कुछ बिगड़ैल बच्चे हर कक्षा में होते हैं जो अपने-अपने मास्टरजी की नाक में दम किए रहते हैं। देखिए न! राहुल ने सरे आम हड़काया लेकिन बेनी बाबू ने सुना? 

इस बीच, अभी-अभी ही, एक बात और हो गई। वेंकैया नायडू ने कह दिया कि पार्टी की ओर से किसे प्रधान मन्त्री घोषित किया जाए - यह फैसला, भाजपा का संसदीय बोर्ड तय करेगा। नायडू का कहना याने पार्टी का आधिकारिक वक्तव्य! गोया नायडू ने, वायुमण्डल में ठहरी हुई, थेड़ी-बहुत गर्द पर पानी की बौछार कर दी और हवाओं में बनी हुई भिनभिनाहट को म्यूट कर दिया।

ऐसे में अब, जबकि नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री की दावेदारी को लेकर पार्टी, आसमान को साफ और हवाओं को निःशब्द कर चुकी हो, जब मैं खुद ही कह चुका हूँ कि मोदी के प्रधान मन्त्री न बनने का तीसरा कारण ‘सुपरिचित, जगजाहिर और घिसा-पिटा’ है, तो इस तीसरी कड़ी की क्या आवश्यकता और औचित्य?

मुझे किसी की भी सामान्य-समझ (कॉमनसेन्स), दूरदर्शिता और चीजों को समझने की क्षमता पर रंच मात्र भी सन्देह नहीं। लेकिन मैंने अपनी ओर से वादा किया था। सो, उसे ही निभाने के लिए यह तीसरी कड़ी।  

तर्क और अनुमान तो, अपनी सुविधा और इच्छानुसार जुटाए और गढ़े जा सकते हैं किन्तु गणित में यह सुविधा नहीं मिल पाती। तर्क शास्त्र का सहारा लेकर, दो और दो को पाँच साबित करने का चमत्कार दिखानेवाले जादूगर को भी, किराने की दुकान पर पाँचवा रुपया नगद गिनवाकर चुकाने पर ही पाँच रुपयों की कीमत का सौदा-सुल्फ मिल पाता है। तर्कों की अपनी हकीकत हो सकती है किन्तु हकीकतों के कोई तर्क नहीं हो पाते। यह ‘तर्क रहित हकीकत’ ही नरेन्द्र मोदी के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है।

यहाँ फिर एक बार मालवी की एक कहावत मेरी बात को आसान करती है। यह मालवी कहावत है - ‘ओछी पूँजी घर धणी ने खाय।’ अर्थात्, कम पूँजी के दम पर व्यापार नहीं किया जा सकता। कम पूँजी पर व्यापार करनेवाला व्यापारी अन्ततः डूबता ही डूबता है। डूबने से बचने का एक ही उपाय है - प्रचुर पूँजी। यदि प्रचुर न हो तो उसका यथेष्ट (जरूरत के मुताबिक) होना तो अनिवार्य है ही। अपनी पूँजी कम हो और खुद को बचाए रखने की ललक हो तो अपने जैसे, कम पूँजीवाले किसी दूसरे व्यापारी को तलाशा जाता है। तब, कम पूँजीवाले दो व्यापारियों की सकल पूँजी मिलकर जरूरत के मुताबिक हो जाती है। दोनों के मिलने के बाद भी पूँजी कम पड़े तो, कम पूँजीवाले किसी तीसरे की तलाश की जाती है। आवश्यकतानुसार यह सिलसिला बढ़ता चला जाता है और तब ही थमता है जब कि कम पूँजीवाले ऐसे तमाम व्यापारी खुद को बचाए रखने की स्थिति में आ जाएँ। व्यापार में ऐसे उपक्रम को भागीदारी या प्रायवेट लिमिटेड कहा जाता है जबकि राजनीति में इसे ‘गठबन्धन’ कहा जाता है। राजग (एनडीए) और संप्रग (यूपीए), भारतीय राजनीति के, ओछी पूँजीवाले ऐसे ही व्यापारियों के जमावड़े हैं जहाँ खुद को बचाए रखने के लिए साथवाले को बचाए रखना ‘विवशताजनित बुद्धिमानी और व्यवहारिकता’ बरती जा रही है। दिलजले लोग इसे इसे, ‘मीठा खाने के लिए जूठन खाना’ कहते हैं।

अब यह कहनेवाली बात नहीं रही कि दिल्ली में अपने दम पर सरकार बना पाना न तो काँग्रेस के लिए सम्भव है और न ही भाजपा के लिए। दोनों को बैसाखियाँ चाहिए ही चाहिए। मजे की बात है कि सारी की सारी ‘बैसाखियाँ’ इन दोनों दलों पर बिलकुल ही भरोसा नहीं करतीं। भरोसा करना तो बाद की बात रही, सबकी सब इन दोनों से भयाक्रान्त बनी रहती हैं। कभी-कभी तो यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि ये ‘बैसाखियाँ’ किस कारण इन्हें सहारा देती हैं - सत्ता में भागीदारी के लाभ लेने के लिए या येन-केन-प्रकारेण अपना अस्तित्व बचाए और बनाए रखने के लिए? अपने लिए इन्हें इन दोनों में से किसी न किसी के साथ जुड़ना ही पड़ता है। सो, ये सब, ‘कम हानिकारक’ को चुनती रहती हैं। करुणा (निधि), ममता, माया और जय ललिता, के पास ‘दोनों घाटों पर सत्ता-स्नान के अनुभव की अतिरिक्त/विशेष योग्यता’ है। कुछ दल ऐसे हैं जिन्हें या तो भाजपा के ही साथ रहना है या फिर काँग्रेस के साथ ही। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनकी पहचान ‘काँग्रेस विरोध’ है और जो शुरु से हैं तो राजग (एनडीए) के साथ किन्तु पाला बदलने में उन्हें रंच मात्र भी असुविधा नहीं होगी और क्षण भर की देरी नहीं लगेगी। जनता दल युनाइटेड (जदयू) और बीजू जनता दल (बीजद), राजग के ऐसे ही दो साथी हैं। इनका जो आयतन और घनत्व राजग के लिए ‘अपरिहार्य होने की सीमा तक महत्वपूर्ण’ है, इनका वही आयतन और घनत्व, भाजपा के लिए चिन्ता और मुश्किलें बढ़ाता है। उड़ीसा में नवीन बाबू (बीजद) ने भाजपा की बोलती ही बन्द कर रखी है जबकि बिहार में नीतिश की मुस्कान ‘जानलेवा’ बनी हुई है। राजग के घटकों की कम होती संख्या, इन दोनों दलों की अपरिहार्यता और महत्व में बढ़ोतरी ही करती है।

हालाँकि यह कल्पना में भी सम्भव नहीं है किन्तु राजनीतिक आकलन में मूर्खतापूर्ण दुस्साहस बरतते हुए कल्पना की जा सकती है कि बाकी सारे घटक भले ही एक बार, नरेन्द्र मोदी के नाम पर ‘मूक सहमति’ जता दें किन्तु उड़ीसा और बिहार के दोनों जननायक ऐसा कभी नहीं करेंगे। करते तो भला ऐसी, सतही और कच्ची विचार-भूमिवाली आलेख-श्रृंखला की गुंजाइश बन पाती?

यही भाजपा का संकट है और मोदी के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा भी। अकाली दल जैसे घटकों को छोड़ दें तो बाकी सारे घटकों का काम, भाजपा के बिना चल सकता है किन्तु इन सबके बिना भाजपा का काम नहीं चल सकता। सत्ता की व्यसनी काँग्रेस के लिए नवीन पटनायक और नीतिश को कबूल करना तनिक भी कठिन नहीं होगा। समाजवादी विचारधारा के सूत्र काँग्रेस से जुड़ने में कोई मानसिक बाधा नहीं होगी। धर्मनिरपेक्षता की रक्षा और साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर तो बिलकुल ही नहीं। सामान्य समझ रखनेवाला राजनीतिक प्रेक्षक भी जानता है कि नवीन पटनायक और नीतिश को लपकने के लिए काँग्रेस आतुर बैठी है जबकि मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के नाम पर इन्हें राजग में बनाए रखना, भाजपा के लिए असम्भवप्रायः ही है। ऐसे में, यह कहना अधिक ठीक होगा कि इन दोनों को साथ बनाए रखना नहीं  बल्कि इन दोनों के साथ बने रहना भाजपा की अपरिहार्यता भी है और मजबूरी भी।

इसी बीच, राजग के संयोजक और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की, अभी-अभी छोड़ी गई, एक ‘छछूँदर’ ने यदि भाजपा की नींद उड़ा दी हो तो अचरज नहीं। शरद यादव ने, राजग के घटकों में बढ़ोतरी की कोशिशें करने की आवश्यकता जताई है। इस 'छछूँदर' का राजनीतिक पेंच यह कि जितने अधिक घटक दल होंगे, भाजपा को उतने अधिक दलों की खुशामद करनी पडेगी। घटक दलों की अधिकता, भाजपा का वजन भी कम करेगी। अटलजी के बाद भाजपा में ऐसा कोई नेता नहीं बचा है जिसके नाम पर, राजग के सारे घटक सहमत हो जाएँ। यह अटलजी का ही करिश्मा था कि लगभग सवा दो दर्जन दल, राजग में प्रेमपूर्वक बने हुए थे। आज तो स्थिति यह हो गई है कि गिनती के घटकों को सम्हाले रखना भाजपा के लिए सर्कसी-करतब से कम कठिन नहीं हो रहा है। ऐसे में मोदी के नाम का असर इन सब पर बिलकुल वैसा ही होता नजर आ रहा है मानो कनखजूरे पर शकर डाली जा रही हो। 

मौजूदा राजग : ढेर सारे चले गए, गिनती के रह गए

ऐसे में, जबकि 2014 के चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं है, जबकि बाकी सबका काम भाजपा के बिना चलता नजर आ रहा हो लेकिन इनके बिना भाजपा का काम चलना नहीं, जबकि काँग्रेस ने सबके लिए सारे रास्ते खुले रखे हुए हों लेकिन मोदी के नाम पर भाजपा के सारे रास्ते बन्द होते नजर आ रहे हों और सत्ता का मीठा खाने के लिए उसे जब सहयोगी दलों पर ही निर्भर होना है तो उसे ‘राग मोदी’ आलापना बन्द करना ही पड़ेगा। ऐसा वह कर भी लेगी। सत्ता जरूरी है, मोदी नहीं। सत्ता के लिए जब ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘धार्मिक आस्था’ के अपने (राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 जैसे) तमाम ‘बेस्ट सेलेबल मुद्दे’ हिन्द महासागर में डुबाए जा सकते हों (याद करें कि राजग गठन के समय केवल भाजपा ने अपने मुद्दे छोड़े थे, अन्य किसी भी दल ने अपना कोई मुद्दा नहीं छोड़ा था) तो ‘एक आदमी’ से जान छुड़ाना तो बिलकुल ही मुश्किल नहीं होगा। फिर, मोदी के बहाने एक बार फिर वही पुरानी (भाजपा और संघ की, एक साथ दोहरी सदस्यतावाली) बहस शुरु होने की आशंका बलवती हो जाएगी जिसके चलते जनता पार्टी का विघटन हुआ था! भाजपा इस वक्त तो यह जोखिम बिलकुल ही नहीं लेना चाहेगी।

इसलिए, जबकि खाँटी संघी और नादान भाजपाई भी मान रहे हों कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं (कोई भी 160-180 से आगे नहीं बढ़ रहा) और सहयोगी दलों की ‘अनुकम्पा’ के बिना दिल्ली दूर ही रहनी है तो फिर वही किया जाएगा जो करना पड़ेगा - मोदी के नाम से इस तरह मुक्ति पाई जाएगी जैसे कि कोई भी ‘समझदार’ आदमी, खटमलों भरी रजाई से पाता है - उसे फेंक कर। सो, बहुमत का नौ मन तेल नहीं मिलेगा और इसीलिए प्रधानमन्त्री पद पर, राधा के नाच की तरह मोदी नजर नहीं ही आएँगे।

लेकिन, राधा का और नाच का कोई न कोई रिश्ता है तो जरूर! नहीं होता तो भला यह कहावत कैसे बनती? तो ‘नाच’ के नाते से जुड़ी यह राधा यदि नाचेगी नहीं तो ठुमकेगी भी नहीं? इसके पाँव भी नहीं उठेंगे? क्या करेगी यह राधा? 

बेबात की इसी बात में बात तलाश करने की कोशिश, अगली, ‘चकल्लसी’ कड़ी में।



मैं और मेरा शहर

(वसन्त पंचमी, रतलाम का स्थापना दिवस था। इस प्रसंग पर मुझसे ‘कुछ’ लिखने को कहा गया था। मैंने ‘यह’ लिखा। इसे ‘केवल सुरक्षित रखने के लिए’ ब्लॉग  पर दे रहा हूँ। इसे  पढना और टिप्पणी करना आपके लिए समय, श्रम और ऊर्जा का अपव्यय ही होगा।)

कुछ काम केवल एक दिन करने के लिए किए जाते हैं। एक दिन कर लो। फिर भूल जाओ ताकि अगले साल फिर उसे याद किया जा सके - करके फिर भूल जाने के लिए। रतलाम के विकास का विलाप भी ऐसा ही एक काम है। रतलाम के स्थापना दिवस पर, सुबह से (और बहुत हुआ तो एक दिन पहले से) यह विलाप शुरु होता है और रात होते-होते सब शान्त हो जाता है। बहुत हुआ तो अगले दिन तक भी इसे जारी रखा जाता है। याने अधिकतम तीन दिन। अपनी-अपनी स्थायी, चिरपरिचित मुद्रा और शैली में विलाप कर सब प्रसन्नतापूर्वक, आत्म-मुग्ध हो, अपनी-अपनी पीठ ठपठपाते बिस्तर में चले जाते हैं - चलो! इस साल का काम निपट गया। अब अगले साल देखेंगे। उस क्षण रतलाम के विकास की बात कोई नहीं करता। सब इसी बात पर खुश रहते हैं कि सबने अपना-अपना विलाप गए साल से बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया। हाँ, यह सब होता है उत्सवी स्वरूप में। विलाप को ऐसा उत्सवी स्वरूप शायद ही कहीं और दिया जाता हो।

मुझसे भी रतलाम के विकास पर अपना विलाप करने को कहा गया। मैं नहीं कर सका। चुप रह गया। कैसे करता? यदि नहीं हुआ है तो इस, समुचित विकास नहीं होने में, रतलाम को इसका प्राप्य नहीं मिलने में मैं भी तो जिम्मेदार हूँ? अपने निकम्मेपन पर तो मैंने लज्जित होना चाहिए! सार्वजनिक क्षमा याचना करनी चाहिए। पश्चात्ताप करना चाहिए। रतलाम ने मुझे सब कुछ दिया किन्तु मैंने रतलाम को क्या दिया? कुछ भी तो नहीं! ऐसे में, मैं तो विलाप करने का नैतिक अधिकार ही खो चुका! भला साहस कैसे पाता? सो, मुँह छिपाकर बैठा रहा।

‘विकास’ ऐसी अवधारणा है कुछ शब्दों में या एक वाक्य में परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए पूरा आख्यान चाहिए। यह आख्यान भी ऐसा होता है जिसका प्रत्येक अंश, प्रत्येक वाक्य एक आख्यान की माँग कर सकता है। फिर, सबके पास, ‘विकास’ की अपनी-अपनी अवधारणा, अपने-अपने अर्थ और अपने-अपने आख्यान! यह स्थिति, सुविधा भी है और दुविधा भी। ऐसे में, मेरे लिए ‘विकास’ का अर्थ है - उद्यमिता। अंग्रेजी में जिसे एण्टरप्रिनरशिप या एण्टरप्राइज कहा जाता है। ‘उद्यमिता’ में शामिल ‘उद्यम’ के कारण सामान्यतः इसे ‘उद्योग’ से जोड़ दिया जाता है जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। मेरे तईं, ‘उद्यम’ ऐसा उपक्रम है जो दीर्घकालिक होता है और जो समाज के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा करता है और जिसका प्रभाव अपने नगर की भौगोलिक सीमाओं को लाँघकर, आसपास के गाँवों-देहातों पर भी होता है। ‘उद्यम’ भी चूँकि मनुष्य निर्मित, मनुष्य आधारित और मनुष्य केन्द्रित होता है, इसलिए इसमें अच्छाइयाँ भी होती हैं और बुराइयाँ भी। ऐसे में, इन अच्छाइयों और बुराइयों का प्रभाव भी सब पर समान रूप से होता ही है।

उद्यम का एक और प्रभाव होता है जिसे में इसकी सामाजिक विशेषता मानता हूँ। उद्यम के जरिए आया विकास, अपने साथ समृद्धि भी लाता ही लाता है और न्यूनाधिक सबके लिए लाता है। यह समृद्धि योगदान आधारित और आनुपातिक भी हो सकती। किन्तु आती सबके लिए है। इसलिए मैं ‘उद्यमिता’ को ‘विकास’ की अनिवार्यता मानता हूँ।

रतलाम में यह उद्यमिता नहीं है। रतलाम में केवल ‘व्यापार’ है। व्यापार से समृद्धि तो आती है किन्तु वह सबके लिए नहीं होती। केवल व्यापारी के लिए। व्यापार से रोजगार के अवसर, सामान्यतः पैदा नहीं होते। यदि होते भी हैं तो बहुत ही सीमित। लगभग नगण्य। ‘व्यापार’ में, एक साल में ही नफे-नुकसान का गणित लगा लिया जाता है और यदि सब कुछ ठीक-ठाक न हो तो व्यापार बदला जा सकता है। उद्यम में ऐसा नहीं होता। चूँकि वह दीर्घकालिक होता है इसलिए उसमें बदलाव की गुंजाइश शून्य प्रायः ही होती है और इसीलिए उसमें निरन्तरता बनी रहती है। आर्थिक लाभ का लक्ष्य तो दोनों में समान रूप से होता है किन्तु व्यापार में लाभ धनात्मक होता है जबकि उद्यम में यह गुणात्मक होता है। ‘उद्यम’ आदमी को पल-पल कुछ नया सोचने और करने को प्रेरित करता है जबकि ‘व्यापार’ में ऐसा नहीं होता। इन्हीं सब बातों के चलते मेरी धारणा है कि व्यापार से समृद्धि तो आ सकती है, विकास नहीं। जबकि विकास के कारण समृद्धि अपने आप आती है और आती ही आती है। फिर, रतलाम के ‘व्यापार’ में, एक उल्लेखनीय कारक और है जो पारम्परिक व्यापार पर हावी हो गया है और जो मुझे अन्य किसी नगर में नजर नहीं आता। यह कारक है - जमीन का व्यापार। पारम्परिक व्यापार में ‘वस्तु व्यापार’ होता है जिसमें बाहर से सामान मँगाया जाता है बाहर भेजा भी जाता है। किन्तु जमीन व्यापार में यह नहीं होता। हो ही नहीं सकता। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि जमीनों का यह व्यापार, (जिसे रतलाम की विशेषता मान लिया गया है और जिसे लेकर हर कोई खुशी से चहकता मिलता है) रतलाम को ‘जड़’ बना रहा है। इसकी गतिशीलता समाप्त कर दी है। प्लॉट के एक सामान्य आकार के सौदे में ही इतना मिल जाता है कि महीने का खर्च निकल आता है। तो फिर पूरे महीने, तीस दिन, चौबीसों घण्टे क्यों हाथ-पैर मारे जाएँ? नतीजा यह हुआ है कि जो भी थोड़ी सी फुरसत में हुआ, ‘प्रापर्टी ब्रोकर’ बन गया। अब यहाँ  बेकार कोई नहीं है। कोई ताज्जुब नहीं कि रतलाम का हर तीसरा आदमी ‘प्रापर्टी ब्रोकर’ नजर आए। हालत यह हो गई है कि ग्राहक कम और ब्रोकर ज्यादा नजर आते हैं। ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति यह कि नगर के तमाम राजनेता भी इसी ‘जड़ व्यापार’ में शरीक हो गए। परस्पर विरोधी दलों के तमाम छोटे-बड़े नेता, जमीनों के व्यापार में भागीदार बने हुए हैं। ऐसे में इनकी राजनीतिक गतिविधियों में वह धार आ ही नहीं सकती जो नगर के विकास की तलब होती है। सबके सब, अपने भगीदार को बचाए रखते हुए अपनी राजनीति करते हैं। ऐसे मेें भला कोई राजनेता, राजनीतिक सन्दर्भों में महत्वाकांक्षी कैसे हो सकता है? और जब नेता ही महत्वाकांक्षी नहीं तो नगर के लिए सपने कौन देखे और कौन उन्हें पूरा करे?

हर नगर, हर समाज,  शनै-शनै अपनी प्रकृति, अपना मिजाज, अपना चरित्र निर्धारित कर लेता है। हमने इस सच को स्वीकार कर लेना चाहिए कि रतलाम की प्रकृति, इसका मिजाज, इसका चरित्र ‘व्यापार’ है। यही इसकी पहचान है और यही इसका भविष्य भी। यदि यही सच है तो हमने इसके ‘विकास का विलाप’ बन्द कर इसे ऐसा उत्कृष्ट व्यापारी नगर बनाने की योजना बनाने पर सोचना चाहिए जो यदि पूरे देश के नहीं तो कम से कम पूरे प्रदेश के लोगों तो यहाँ आने के लिए आकर्षित करे। ललचाए। ‘राग विकास’ के आलाप लेना बन्द कर क्यों नहीं हम इसे ‘अग्रणी व्यापार केन्द्र’ बनाने या इसे इसका पुराना नाम (जिसका उल्लेख करते हम थकते नहीं) ‘रत्नपुरी’ देने में जुट जाएँ? 

विचार कीजिएगा।

मैं इस पर विश्वास नहीं करना चाहता


पन्द्रह फरवरी की रात को एक विवाह-भोज में हुई इस बात को यहाँ लिखने में मुझे (बात होने से लेकर यहाँ लिख देने तक) बार-बार खुद से जूझना पड़ा है। अपने आप से सवाल करने पड़े हैं। किन्तु अन्त तक किसी सुस्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया। इसे लिखने से बचना बहुत आसान था और न लिखना ही शायद व्यावहारिक बुद्धिमानी भी होता। किन्तु भारतीय राजनीति के जन-जुड़ाव के व्यापक सन्दर्भ में मुझे इस बात को विमर्श में लाना ही बेहतर लगा। इसी भाव से यह सब लिख रहा हूँ और इसी भाव से ही इसे पढ़ा भी जाना चाहिए। यह लिखना मेरी मूर्खता हो सकता किन्तु ईश्वर जानता है कि यह मूर्खता सदाशयता के अधीन ही कर रहा हूँ।

गए लम्बे समय से मैं अनुभव कर रहा हूँ कि हमारे विधायी सदनों का उपयोग, देश की नीतियाँ निर्धारित करने के बजाय राजनीतिक गतिविधियों के लिए अधिक किया जाने लगा है। जिन मुद्ददों को, सड़कों पर जाकर नागरिकों के बीच उठाया जाना चाहिए, वे विधायी सदनों में उठाये जाने लगे हैं। जिन मुद्दों में नागरिकों को शामिल किया जाना चाहिए, वे मुद्दे, विधायी सदनों का काम काज बाधित कर, नागरिकों को सूचित किए जाने लगे हैं। संसद हो या विधान सभाएँ, सरकारों की विधायी विषय सूची अब किसी भी सत्र में पूरी नहीं होती। 

प्रोन्नत सूचना तकनीक के इस समय में सारी जानकारियाँ लोगों को बहुत जल्दी और बहुत विस्तार से मिलने लगी हैं। इसी के चलते, पाठकों तक पहुँचने से पहले ही अखबार अपनी ताजगी खोने लगे हैं। इसी कारण लोगों को राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों की ही नहीं, उनके पीछे छिपे इरादों की भी जानकारी भली प्रकार हो जाती है। सम्भवतः यही कारण है कि राजनीतिक दलों की मैदानी गतिविधियों में लोगों का टोटा पड़ने लगा है। मेरे कस्बे की ऐसी गतिविधियों में मुझे वे ही लोग नजर आते हैं जिन्हें या तो अपने नेता के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा प्रकट करनी होती है या फिर राजनीति ही उनकी रोजी-रोटी है। जन सामान्य (और तो और, उसी राजनीतिक दल के सामान्य कार्यकर्ता भी) अब ऐसी गतिविधियों में दिखाई नहीं देते। शायद इस ‘जनाभाव’ के चलते ही, सड़कों की राजनीतिक गतिविधियाँ अब विधायी सदनों में सम्पादित की जाने लगी हैं। यह स्खलन तमाम राजनीतिक दलों में समान रूप से आया है। कोई भी पार्टी इससे बची हुई नहीं है। 

इसे मैं अनुचित और राजनीतिक शुचिता के विरुद्ध मानता हूँ और यही वह बात है, जिसे लेकर मैं यह सब लिख रहा हूँ।

पन्द्रह फरवरी को उस विवाह-भोज में जिन सज्जन से मेरी भेंट हुई वे मेरे पुराने परिचित हैं। राजनीतिक स्तर पर उनका जुड़ाव भाजपा से है। व्यक्तिशः वे बहुत ही भले और साफ-सुथरे हैं। मैं उन्हें उन लोगों में गिनता हूँ जो जिस भी व्यवसाय में या पद पर होते हैं, वह व्यवसाय या पद, उनसे गरिमा पाता है। वे दिल्ली में एक (भाजपाई) सांसद के निजी सहायक की तरह काम करते हैं। सम्भवतः सरकार ने सांसदों को यह सुविधा उपलब्ध करा रखी है कि वे सरकारी खर्चे पर, अपनी पसन्द के किसी गैर सरकारी आदमी को अपने सहायक के रूप में रख सकें। यदि ऐसा नहीं है तो फिर वे सांसद अपनी जेब से उनका पारिश्रमिक भुगतान करते होंगे।

भोजन करते हुए बात, भाजपा द्वारा, गृहमन्त्री शिन्दे के बहिष्कार के निर्णय पर आ गई। शिन्देजी ने हिन्दू-आतंकवाद, भगवा आतंकवाद की और ऐसी गतिविधियों में लिप्त लोगों से भाजपा तथा संघ के जुड़ाव की बात सार्वजनिक रूप से कही थी। इससे संघ और भाजपा का आक्रोशित होना सहज और स्वाभाविक ही था। शिन्देजी के बहिष्कार के इसी क्रम में भाजपा ने, लोकसभा के बजट सत्र को ठप्प करने की घोषणा भी की थी। 

शिन्देजी के बहिष्कार तक तो मुझे बात ठीक लगी थी किन्तु लोकसभा ठप्प करनेवाली बात मेरे गले नहीं उतरी। मेरी धारणा थी कि शिन्देजी का बयान, एक राजनीतिक आयोजन में, निहित राजनीतिक उद्देश्य से दिया गया राजनीतिक बयान था और इसका प्रतिकार भी राजनीतिक स्तर पर ही किया जाना चाहिए। निस्सन्देह शिन्देजी देश के गृहमन्त्री हैं और (मेरी राय में भी) कोई भी मन्त्री, चौबीसों घण्टे मन्त्री ही होता है। किन्तु उन्होंने यह वक्तव्य न तो संसद में दिया और न ही (अपने वक्तव्य से जुड़ा) ऐसा कोई प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत किया। इसलिए, भाजपा को यह मुद्दा लेकर लोगों के बीच जाना चाहिए था। 

यही बात मैंने ‘उनसे’ कही। मुझे ‘सुखद आश्चर्य’ हुआ यह देखकर कि ‘वे’ मुझसे सहमत थे। उनकी सहमति ने मुझे जिज्ञासु बना दिया। मैंने पूछा - ‘तो फिर लोकसभा ठप्प करने का फैसला क्यों?’ उन्होंने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया। ससंकोच, हिचकिचा गए। हाथ का कौर हाथ में ही रह गया। साफ लग रहा था कि वे जवाब नहीं देना चाहते थे। मैंने इसरार किया तो बोले -  र्म संकट में पड़े व्यक्ति को लेकर आप ही ने एक बार एक लोकोक्ति सुनाई थी - ‘मेरी माँ ने मेरे बाप की हत्या कर दी। बोलूँ तो माँ को फाँसी हो जाए और न बोलूँ तो बाप की लाश सड़ जाए।’ आपके सवाल का जवाब देने में बिलकुल वही दशा इस समय मेरी है। मैंने कहा - ‘धर्म संकट तो दूर की बात रही, आपको किसी भी संकट में डालने का पाप मैं अपने माथे पर नहीं लूँगा। आप मेरे सवाल को भूल जाइए और प्रसन्नतापूर्वक भोजन कीजिए।’ वे जस के तस बने रहे। तनिक ठकर कर, गहरी निश्वास लेकर बोले - ‘कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा किन्तु दो-तीन कारणों से कह रहा हूँ। पहला तो यह कि पार्टी के इस निर्णय से अपनी असहमति मैं अपने सांसदजी को जता चुका हूँ। दूसरा यह कि मेरे सांसदजी भी इस निर्णय से सहमत नहीं हैं। तीसरा यह कि यह बात लोगों तक और खासकर पार्टी कार्यकर्ताओं तक पहुँचनी चाहिए और चौथा यह कि मुझे अपने आप से ज्यादा भरोसा आप पर है कि आप मरते मर जाएँगे लेकिन यह बात सार्वजनिक करते समय मेरा नाम नहीं बताएँगे।’ उसके बाद उन्होंने जो कुछ कहा, वह सुनकर मैं भोजन नहीं कर पाया। मैं, उनके कहे पर न तब विश्वास कर पा रहा था और न ही इस समय - यह सब लिखते हुए।

देश के विभिन्न स्थानों पर, सार्वजनिक स्थलों पर हुए  विस्फोटों के आरोप में, राष्ट्रीय जाँच एजेन्सी (एनआईए) ने, संघ या/और इसके आनुषांगिक संगठनों से या इसकी वैचारिकता से जुड़े दस लोगों को नामजद  किया हुआ है। इनमें से कुछ लोग पुलिस गिरफ्त में हैं तो कुछ की तलाश जारी है। शिन्देजी के इस विवादास्पद बयान के बाद इस पर संसद में बात होगी ही। उस समय पार्टी, इन दस लोगों के बचाव में खड़ी नजर नहीं आना चाहती। पार्टी में कुछ लोगों को लग रहा है कि इन दस में से कुछ लोग अपराधी साबित हो सकते हैं। यदि सचमुच में ऐसा हो गया तब संसद के रेकार्ड के आधार पर पार्टी, आतंकियों और आतंकवादी गतिविधियों से जुड़ी साबित हो जाएगी। उस दशा में पार्टी का अस्तित्व तो खतरे में आ ही जाएगा, विचारधारा पर आजीवन लेबल भी लग जाएगा। सब कुछ चौपट हो जाएगा। उस दशा में, हिन्दू धर्म को आतंकवादी धर्म में बदलने का अमिट आरोप पार्टी को आजीवन झेलना पड़ेगा और पार्टी का तथा संघ का राष्ट्रवाद, आतंकवाद में बदल दिया जाएगा। वर्तमान की बात ही छोड़ दीजिए, संघ और पार्टी का तो भविष्य भी चौपट हो जाएगा। उन्होंने कहा - ‘आप जरा ध्यान से सब कुछ देखिए, पढ़िए। इन दस लोगों के पक्ष में या बचाव में पार्टी ने  अब तक कोई आधिकारिक स्टैण्ड नहीं लिया है। यह ऐसा नाजुक मामला है जिसने सबकी नींद उड़ा रखी है। ऐसे में, यदि संसद में मामला उठा तो क्या दशा होगा? पार्टी क्या स्टैण्ड लेगी? न हाँ कर सकेगी और न ही ना। इसलिए, संसद में इस मुद्दे से बचने का एक ही रास्ता है कि संसद से किनारा कर लिया जाए। शिन्देजी का बहिष्कार करने के नाम पर इस मुद्दे को चर्चा में लाने से रोकने के लिए संसद ठप्प करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है पार्टी के पास।’

पार्टी के इस फैसले से वे खुश नहीं थे। पुराने आदमी हैं। उनका कहना है कि वो जमाना गया जब बातों को बरसों तक दबाया जा सकता था। आज तो आपका सपना भी आपके कहने से पहले लोगों को मालूम हो जाता है। पार्टी को अपना स्टैण्ड साफ करना चाहिए। दिनोंदिन बढ़ती जा रही पारदर्शिता के इस जमाने में सुविधा की राजनीति कर पाना अब सम्भव नहीं हो पाएगा। अपने एजेण्डे की जिम्मेदारी भी लेनी पड़ेगी और उसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी। यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि लोग समझते नहीं। आप कहें, न कहें ,वे सब समझते हैं। 

उनकी बातों ने मुझे ‘मिश्रित मनःस्थिति’ में ला खड़ा कर दिया। उनकी साफ-सुथरी, दो-टूक बात कहने की आदत से ही मैं उनका प्रशंसक हूँ। वैचारिक स्तर पर असहमत हम दोनों को शायद यही बात जोड़े हुए है।

मैं, उनकी कही, यही बात सामने रख रहा हूँ। अब बात संसद को ठप्प करने के औचित्य को लेकर नहीं है। बात है ‘वह कारण’ जिसे मुद्दा बनाकर संसद ठप्प करने की बात कही जा रही है। भाजपा,  निस्सन्देह ‘संघ शासित, संघ संचालित’ है। किन्तु जो ‘विचार’ उसका जीवन तत्व है, जो उसकी आत्मा है, उसी से बचने के लिए वह संसद ठप्प कर देगी? फिर, यदि ऐसा है भी तो यह बात दिल्ली के मीडिया से अब तक कैसे बच गई? दिल्ली का एक आदमी यदि रतलाम में यह बात कह सकता है तो क्यों नहीं किसी ने अब तक दिल्ली में ही यह बात नहीं कही होगी?

यही मेरी उलझन है और इसी पर मैं विमर्श चाह रहा हूँ। एक बार फिर स्पष्ट कर रहा हूँ - भाजपा द्वारा संसद ठप्प करना मुद्दा नहीं है। मुद्दा है, संसद ठप्प करने का, ऊपरोल्लेखित कारण।

मैं कह चुका हूँ, यह कारण पहली बार सुनते समय भी मुझे विश्वास नहीं हुआ था और न ही इस समय हो रहा है। किन्तु जिन्होंने कहा है, उनका व्यक्तित्व, चरित्र, विश्वसनीयता, प्रतिबद्धता मुझे अविश्वास भी नहीं करने दे रही।

आपको क्या लगता है?

असहमतियों और दुःखों का आनन्द


‘पत्नी से अधिक पैना और विश्वस्त मित्र और कोई नहीं होता।’ यही लिखा था दादा ने। विवाह के कोई डेड़ बरस बाद, अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाने, दो वक्त की रोटी की तलाश में, घर छोड़ कर रतलाम आया था। रतलाम के पते पर मिला, उनका यह पहला पत्र था।

विवाह के बाद के कुछ बरस जितने स्मरणीय होते हैं, उतने ही अवर्णनीय भी। तब, आसमान इन्द्रधुनषों से भरा रहता है, आँखें खुली रहें या झपकी हुईं - चारों ओर रंगीन गुब्बारे तैरते नजर आते हैं, रूमानी काव्य पंक्तियाँ, शेर, रुबाइयाँ होठों पर बनी रहती हैं, कानों में घण्टियाँ बजती रहती हैं। अपना जीवन साथी दुनिया का ‘सुन्दरतम, अनुमप’ प्रतिमान लगता है, ईश्वर की ‘पूर्ण-कृति’ लगता है। उसमें कोई कमी नहीं होती। उसके बोल शहतूत की मिठास को मात करते लगते हैं। जी करता है, उस सुन्दरतम और अनुपम का सामीप्य बना रहे। कुछ भी न किया जाए। कुछ भी करने के लिए न कहा जाए। बस! उसके साथ बैठा रहा जाए। बोलें, बतियाएँ भले ही नहीं। तब भी कानों में शहनाइयाँ बजती रहती हैं, शहद की मिठास घुलती रहती है। इसी सबके बीच और इसी सबके साथ, जिन्दगी धीरे-धीरे, जिन्दगी बनती रहती है। इतनी धीरे-धीरे कि आदमी को मालूम ही नहीं पड़ता कि कब वह ‘प्रेमी’ से ‘गृहस्थ’ बन गया! तब, अभावों के अनुरूप खुद को ढाल लेना करिश्मा नहीं लगता, रोमांचित नहीं करता। ‘प्रेमी’ तो वह तब भी बना रहता है और आसमान तब भी इन्द्रधनुषों से ही भरा रहता है किन्तु उसे देखना दूसरी वरीयता पर आ जाता है। 

इस बीच गृहस्थी विस्तारित हो जाती है। पहले जो दो, एक दूसरे के लिए जी रहे थे, जिनके बीच में कोई तीसरा नहीं था, वे अब दो नहीं रह जाते। जीते तो अब भी वे साथ ही हैं और बीच में तीसरा आता भी है तो ऐसा कि दोनों के जोड़ को अधिक सुदृढ़ता देता है। तब वे दोनों मानो उस तीसरे के लिए जीने लगते हैं। न समझ में आनेवाले, मीठे-मीठे तुतले बोल सारे दुःख भुला देते हैं। लेकिन इसके समानान्तर ही, दोनों के सम्वादों की भाषा में बदलाव आने लगता है। आसमान में तैरते गुब्बारे कम होने लगते हैं। धर्मेन्द्र-राखी अभिनीत, राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘जीवन मृत्यु’ के गीत ‘झिलमिल सितारों को आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा’ का स्थान, ‘प्रसाद’ की ‘कामायनी’ की पंक्तियाँ ‘मानव जीवन वेदी पर, परिणय है विरह मिलन का। दुःख-सुख दोनों नाचेंगे, है खेल आँख का, मन का’ लेने लगती हैं। ‘पूर्ण कृति’ में कुछ-कुछ कसर लगने लगती है। लगता है, अब ‘उसे’ न तो फुरसत  है और न ही परवाह। ऐसे में, एक ओर से क्षुब्ध-आहत स्वरों में, ‘भई! जरा याद रख लिया करो। मैं भी घर में हूँ?’ वाला उलाहना सुनाई देता है तो दूसरी ओर से, औसत भारतीय पत्नी की शाश्वत-सनातन व्यथा उजागर होती है - ‘पड़ौसवाले भाई साहब को देखो! सुबह पाँच बजे उठ जाते हैं। पानी भर देते हैं, बच्चों को तैयार करने में भाभीजी की मदद करते हैं। और एक तुम हो जो नौ बजे तक उठते नहीं। बिस्तर में पड़े रहते हो।’ और इससे लगा-लगाया वह वाक्य आता है जो एक आदर्श भारतीय पत्नी, अपने वैवाहिक जीवन में कम से कम एक बार तो कहती ही कहती है - ‘ये तो मैं हूँ जो निभाए जा रही हूँ। कोई और होती तो अब तक छोड़ कर कभी की जा चुकी होती।’ इस बात का कोई जवाब नहीं होता क्योंकि कहनेवाली खुद जानती है कि उसी समय, उसकी पड़ोसन भी अपने जीवन संगी से यही सब कह रही होती है।

यह सब होते-होते पता ही नहीं चलता के कब बच्चे बड़े हो गए, वे गृहस्थ हो गए। अब उन्हें आपकी सलाह की आवश्यकता आपवादिक ही होती है। आपके पास समय ही समय है लेकिन उनके पास साँस लेने का भी समय नहीं है। आप उनकी चिन्ता में दुबले हुए जा रहे हैं और वे आपकी इस दशा पर झुंझला रहे हैं। आप हैं कि टोकने से बाज नहीं आते और आपके इस टोकने पर बच्चों की प्रतिक्रिया से (आपको अपमानित अनुभव कर) आहत, आपका जीवन संगी आपको झिड़कने लगता है, आपको चुप रहने और चुप बने रहने की सलाह देते हुए-आपकी चिन्ता करते हुए। कल तक जो बच्चे आप दोनों के बीच सेतु बने हुए थे, आज, आपका जीवन संगी उन्हीं बच्चों और आपके बीच सेतु बन जाता है-सन्तुलन साधते हुए, समन्वय करते हुए।

अचानक ही आप सम्भ्रम की स्थिति में आ जाते हैं। तय नहीं कर पाते कि जिन्दगी चल रही है या ठहर गई है या कि, रुक-रुक कर चल रही है या चलते-चलते रुक रही है? विवाह के शुरुआती कालखण्ड के, प्रेमावेग की ऊष्माभरे पल आपको संस्मरण लगने लगते हैं जिन्हें अनुभवों की तरह सुनाने लगते हैं। आपको लगता है, वह सब अब केवल ‘कहने-सुनने-याद रखनेवाली बातें’ बन कर रह गया है। आप पाते हैं कि कल तक आपका जो पूरक, आपको ईश्वर की पूर्ण कृति मान रहा था, वही आज आपमें खमियाँ ही खामियाँ देख रहा है और गिनवा रहा है। तब तक जिन्दगी आपको इतनी अकल दे चुकी होती है कि समूचा ‘दोष-वर्णन’ सुन कर आपको गुस्सा नहीं आता। उलटे, आप मन्द-मन्द मुस्कुराने लगते हैं। जान जाते हैं कि यह दोष वर्णन, आलोचना नहीं, शुभेच्छा है - ‘काश! आपमें ये कमियाँ भी न रहें।’ असंख्य असहमतियों के साथ प्रसन्नतापूर्वक जीने में और इस तरह जीने का आनन्द उठाने में आप निष्णात् हो चुके होते हैं। तब तक यह तथ्य कोई रहस्य नहीं रह जाता कि आप और आपका पूरक अब एक दूसरे की ‘जरूरत’ नहीं, ‘आदत’ बन चुके होते हैं।

नहीं जानता कि एक गृहस्थ के रूप में मैं सफल रहा या असफल। मैं पूरी तरह से अपनी उत्तमार्द्ध पर निर्भर हूँ। यह कह कर कोई नई बात नहीं कह रहा। मेरे आत्म परिचय में पहले ही लिख चुका हूँ। मुझे तो यह भी पता नहीं कि मेरे अन्तर्वस्त्र कहाँ रखे होते हैं। मैं अपनी उत्तमार्द्ध से बीसियों बातों पर दुःखी और पचासों बातों पर असहमत हूँ जबकि ‘वे’ सैंकड़ों बातों पर मुझसे असहमत और हजारों बातों पर मुझसे दुःखी हैं। गृहस्‍थी में मेरे योगदान और भूमिका के आधार पर उन्‍हें यह कहने का अधिकार सहजभाव से मिल गया है कि विवाह तो मेरा हुआ, वे तो फँस गईं।मैं यदि आज तक कुछ कर पाया और बन पाया तो उसका समूचा श्रेय मेरी उत्तमार्द्ध को ही है। मैं अपने लिए जी रहा हूँ और वे पूरी गृहस्थी के लिए। घर से बाहर मेरी पतलून की क्रीज और कमीज की सफेदी उन्हीं की वजह से है। मुझ जैसे अटपटे, अनियमित और अव्यवस्थित आदमी को निभा लेना उन्हें सबसे अलग और सबसे विशेष बनाता है। वे नहीं होतीं तो आज मैं, मैं नहीं ही हो पाता।

कल रात साढ़े नौ बजे ही सो गया था। शायद इसीलिए सुबह चार बजे नींद खुल गई। सुबह-सुबह के जरूरी काम-काज निपटा कर यह सब लिख रहा हूँ। घर में अकेला हूँ। मेरे बड़े साले की बिटिया बबली को बेटा हुआ है। नानी बनने के उछाह से हुमस कर मेरी उत्तमार्द्ध मायके गई हुई हैं।

17 फरवरी 1976 को हमारा विवाह हुआ था। आज हमारा वैवाहिक जीवन अड़तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा है। आशीर्वाद दीजिए और ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि एक दूसरे से भरपूर दुःखी और असहमत बने रहकर हम इसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक, जीवन का आनन्द लेते रहें।


हमारा यह चित्र,  हाश्‍मीजी ने, 06 जनवरी 2013  की शाम को, विजन 2020 लायब्रेरी पर लिया था।

वेलेण्टाइन डे: संस्कृति रक्षा का पुनीत प्रतीक्षित अवसर


बन्धु! यह क्या? वेलण्टाइन डे में चौबीस घण्टे भी नहीं बचे हैं और तुम बिस्तर में ही हो? ऐसा कैसे चलेगा? ऐसे तो भारतीय संस्कृति की रक्षा का ठेका हमारे हाथ से निकल जाएगा! 

क्या कहा? तुम्हारी आत्मा तुम्हें रोक रही है? संस्कृति की रक्षा के बीच में यह आत्मा कहाँ से आ गई? संस्कृति और आत्मा का आपस में क्या लेना-देना? पता नहीं वो किसने कहा था-परसाई ने या शरद जोशी ने या काशीनाथ सिंह ने या,  हिन्दी के ऐसे किसी कलमघिस्सू ने कि यह आत्मा बड़ी कुत्ती चीज है। जो इसके लपेटे में आ गया वो गया काम से। सब कुछ मटियामेट कर देती है। इसके कारण राजकुमार महल छोड़, जंगलों में चले गए। अच्छे-भले कर्मठ लोग साधु बन गए। तुम न तो राजकुमार हो न ही कोई कर्म-वीर। आत्मा के चक्कर में आना किसी भले आदमी को शोभा नहीं देता। आत्मा का हवाला तो केवल उपदेश देने के काम में आता है। तुम्हारे-हमारे जैसा आदमी, आत्मा की आवाज सुनना अफोर्ड नहीं कर सकता। अरे! जब हमारे नामधारी साधु ही आत्मा पर आसन जमाए बैठे हैं तो तुम-हम कहाँ लगते हैं? उठो! बिस्तर छोड़ो और काम पर लग जाओ!

अरे! फिर वही बात? हाँ यह ठीक है कि अपन सब अपने, अपने बच्चों के, अपने नेता के जन्म दिन पर केक काटते हैं। बन्द कमरे में ही नहीं, सरे आम चौराहे पर काटते हैं। कभी-कभी हनुमानजी के मन्दिर में भी काट लेते हैं। लेकिन इसका और भारतीय संस्कृति की रक्षा का क्या लेना-देना? हाँ! हाँ! मालूम है कि केक काटना अंग्रेजों की संस्कृति है, हमारी नहीं। लेकिन यह सब करते हुए आज तक किसी ने हमें टोका? जब किसी ने नहीं टोका तो तुम अपने आप से क्यों परेशान हो रहे हो? कोई टोकेगा तब देखा जाएगा। वैसे बेफिकर रहो। किसकी माँ ने सवा सेर सोंठ खाई है जो हमें टोके? टोक कर तो देखे कोई माई का लाल! मालूम है कि पीठ पीछे सब हमें कोसते, गालियाँ देते हैं। लेकिन उससे क्या? यह भारतीय संस्कृति ही है कि लोग मुँह पे कुछ नहीं कहते। ऐसी संस्कृति की रक्षा नहीं करोगे? चलो! फटाफट उठो! ब्रश करो और तैयार हो जाओ!

अब क्या हुआ? क्या? रिंग सेरेमनी? क्या हुआ रिंग सेरेमनी का? कमाल है! मुझे क्या बता रहे हो? अब यह भी कोई बतानेवाली बात है कि रंग सेरेमनी हमारी नहीं, इसाइयों की संस्कृति है? है तो है? इससे हमें क्या? अच्छा! तुम मेरे बेटे और अपने भतीजे की शादियाँ याद दिला रहो हो! हाँ। अपने दोनों ने इन शादियों में रिंग सेरेमनियाँ करवाई थीं। अब करवाई थीं तो करवाई थीं! नहीं करवाते तो क्या करते? बच्चे अड़ गए थे। नहीं मान रहे थे। सारा ताम-झाम, सारा ढोल-ढमाका, सब कुछ बच्चों की खुशी के लिए हो तो किया था! ऐसे में, अगर बच्चों का ही दिल टूट जाए तो फिर इस सबका क्या मतलब? और फिर केवल तुम्हारा-हमारा ही कसूर तो नहीं। पण्डित तो दोनों में एक ही था! वही! अपने संगठन का वार्ड अध्यक्ष! अरे! जब संगठन का वार्ड अध्यक्ष ही मन्त्र बोल-बोल कर रिंग सेरेमनी करवा रहा हो तो तुम-हम क्या कर सकते थे? और फिर जरा यह भी तो याद करो कि किसी ने हमें रोका-टोका नहीं। सब तालियाँ बजा रहे थे! है कि नहीं? वो सब तो हमें मजबूरी में करना पड़ा। लेकिन भारतीय संस्कृति की रक्षा करना तो हमारी जिम्‍मेदारी है! फालतू बातें दिमाग से निकालो और उठो! वैसे ही बहुत देर हो गई है।

अरे? फिर वही आत्मा? तुम्हारी इस आत्मा के चलते तो भारतीय संस्कृति का बण्टाढार ही हो जाएगा। अब तुम जो बता रहे वह तो शहर का बच्चा-बच्चा जानता है! अपन लोग कान्वेण्ट स्कूलों को इसाई धर्म के प्रचार का माध्यम बता-बता कर उनका विरोध करते हैं और जमकर करते हैं। वह हमारा काम है। हमें अपनी भारतीय संस्कृति को बचाने के लिए यह करना पड़ता है। लेकिन इससे इस बात का क्या लेना-देना कि अपन दोनों के बच्चे उसी सेण्ट जोसेफ कान्वेण्ट में पढ़ते हैं? यह तो अपने बच्चों के भविष्य का, उनके केरीयर का सवाल है! विरोध अपनी जगह और बच्चों का केरीयर अपनी जगह। जिस दिन वह कान्वेण्ट बन्द हो जाएगा उस दिन हमारे बच्चे अपने आप वहाँ पढ़ना बन्द कर देंगे! वह कान्वेण्ट तुम्हारा-मेरा तो नहीं है ना? फिर इसमें आत्मा बीच में कहाँ से आ गई?

बन्धु! जरा अकल से काम लो। कुछ बातें कहने के लिए होती हैं और कुछ करने के लिए। दोनों एक समान हो, यह बिलकुल ही जरूरी नहीं। और यह तो बिलकुल ही जरूरी नहीं कि दूसरों को जो उपदेश दे रहो हो उस पर खुद भी अमल करो ही। याद रखो - अपने यहाँ धार्मिक होना नहीं, धार्मिक दिखना जरूरी है। भटजी खुद भटे खाते रहते हैं और लोगों को भटे से परेहज करने की सलाह देते रहते हैं। इसलिए, केक काटते रहो, रिंग सेरेमनियाँ करते रहो, अपने बच्चों को क्रिश्चियन मिशनरी के कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ाते रहो लेकिन भारतीय संस्कृति की दुहाइयाँ देते रहो, उसके डूब जाने का डर दिखा-दिखा कर हल्ला मचाते रहो। अपन अब तक यही करते रहे रहे हैं और आगे भी यही करना है। यही तो अपनी पहचान है!

इसलिए बन्धु! आत्मा को गोली मारो। उठो! फटाफट तैयार हो जाओ। जिस-जिस ग्रीटिंग कार्डवाले ने हमें गए साल मुफ्त में कार्ड नहीं दिए, जिस फूलवाले ने अपने भिया के स्वागत समारोह के लिए फोकट में मालाएँ और गुलदस्ते नहीं दिए, उन सबको, गिन-गिन कर निपटाना है। हिसाब भी हो जाएगा और भारतीय संस्कृति की रक्षा भी। बड़ा मजा आएगा। खूब हुड़दंग करेंगे। दुकानदारों के, घबराहटभरे और रंगत उड़े चेहरे देख-देख कर छाती ठण्डी हो जाएगी। स्साले! यूँ तो लिफ्ट नहीं मारते लेकिन कल देखना, कैसे गिड़गिड़ाते हैं! 

पुलिसवालों की फिकर बिलकुल मत करो। अपना ही राज है। अपने भिया ने सब सेट कर लिया है। फिर भी कुछ पकड़ा-धकड़ी हो गई तो कह देंगे कि कुछ असामाजिक तत्व हमारे प्रदर्शन में घुस आए थे। उनके लिए हमें कैसे जिम्मेदार ठहरा सकते हैं? गए साल भी तो भिया ने यही कहकर अपन सब को छुड़ाया था! 

इसलिए बन्धु! उठो! भारतीय संस्कृति तुम्हारी ओर आशा भरी नजरों से देख रही है। तुम्हारी बाट जोह रही है। चलो! बढ़ो! संस्कृति की रक्षा भी करो और अपने हाथों की खुजली भी मिटाओ। एक टिकिट में दो शो का आनन्द लो। 

हाँ! देखना! विलीयम की दुकान का ध्यान रखना। उसे बचाना। मैं उस दुकान में स्लीपिंग पार्टनर हूँ और उस दुकान का बीमा भी नहीं करवा रखा है।

कवि नहीं, मेरे अग्रज : सरोज भाई


(यह आलेख, सरोज भाई के 75वें जन्म दिन, 02 जनवरी 2013 पर प्रकाशन हेतु, आग्रह पर लिखा था।)  

अब तो यह भी याद नहीं आ रहा कि सरोज भाई से पहली बार कब मिला था या कि कब उन्हें पहली बार देखा था। बस, इतना याद पड़ रहा है कि उनके ‘नवोदित काल में, उनकी कविताओें के बराबर ही होती रही उनकी सुरुचि, सुघड़ता, नजाकत की चर्चाओं ने अतिरिक्त रूप से आकृष्ट किया था, उनके प्रति अतिरिक्त जिज्ञासा जगाई थी। अब अखबार या पत्रिका का नाम तो याद नहीं आ रहा किन्तु उनकी सुन्दरता और नजाकत का उल्लेख करते हुए सपरिहास कल्पना की गई थी कि उन्हें कभी ‘सरोज कुमार’ के स्थान पर ‘उरोज कुमार’ न लिख दिया जाए। अपने नाम के साथ ‘कुल नाम’ (सरनेम) न लिखना भी उन्हें सबसे अलग कर रहा था। इन्हीं सब बातों के कारण, उनसे ‘मिलने’ से अधिक उन्हें ‘देखने’ की जिज्ञासा हुई थी।

सो, उन्हें ‘देखा’, उनसे मिला और उसके बाद शुरु हुआ सिलसिला आज इस मुकाम पर है कि मैं उन पर कुछ लिखने की स्थिति में आ गया।

उनसे परिचय का कारण निस्सन्देह उनका कलमकार होना ही था किन्तु आज वे ‘मेरे प्रिय कवि’ को कोसों पीछे छोड़कर अग्रज बन गए हैं। ऐसे अग्रज जिनसे मैं खुलकर बात करता हूँ और अपनी गलती/मूर्खता के कारण उनसे डरता भी हूँ। मैं कबूल करता हूँ कि मुझे उनकी एक भी कविता कण्ठस्थ नहीं है किन्तु उनका व्यक्तित्व मुझे नींद में भी याद रहता है। मेरे तईं उनका ‘भला मानुष’ होना उनके ‘कलमकार’ को पीछे छोड़ चुका है। इतना पीछे कि मैं उनसे ‘प्रभावित’ नहीं, ‘सम्मोहित’ हूँ। मन्त्र बिद्ध की तरह।

उनका, अकारण न बोलना, कम बोलना, धीमी आवाज में बोलना मुझे, उनसे परिचय के पहले ही क्षण से आकर्षित और प्रभावित करता रहा है - इस क्षण तक भी। किन्तु इससे आगे बढ़कर उनकी जो बात मुझे आत्म-बल देती है, वह है - इसी धीमी आवाज में, शान्त और संयत रहते हुए दृढ़ता से प्रतिकार करना, असहमति जताना और ऐसा करने में निमिष मात्र का भी विलम्ब न करना। प्रतिकार और असहमति जताते हुए अच्छे-अच्छों को मैंने आवेशित होते देखा है। किन्तु सरोज भाई इस मामले में मुझे तो ‘अपवादों में अपवाद’ ही लगे। मुझे जब-जब भी ऐसे क्षणों का सामना करना पड़ा, तब-तब मैंने सरोज भाई की नकल करनी चाही किन्तु नहीं कर सका और हर बार गुस्से का गुलाम बन कर अपना नुकसान करवा बैठा। मुझे उनसे ईर्ष्या होती है, उन पर गुस्सा आता है - वे गुस्सा क्यों नहीं करते? चिल्ला कर डाँटते-डपटते क्यों नहीं?

उनके होठों पर अपना साम्राज्य बनाए बैठी उनकी ‘भुवन मोहिनी मुस्कान’ भी मुझे पेरशान करती है। मैंने जब भी अपना कोई दुखड़ा उनके सामने रोया तो उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी तो जरूर किन्तु एक बार नहीं लगा कि वे गम्भीरता से सुन रहे हैं। मैं मरा जा रहा हूँ, अपना रोना रोए जा रहा हूँ और वे हैं कि मुस्कुराए जा रहे हैं! उस पर कठिनाई यह कि लिहाज में मैं अपनी यह मनोदशा उन्हें बता भी नहीं सकता! हर बार लगा कि मैंने बेकार में ही उनके सामने अपना रोना-गाना गाया। वे कोई मदद नहीं करेंगे। हर बार नाउम्मीद ही लौटा। किन्तु उन्होंने हर बार मेरी ऐसी ‘नाउम्मीदी’ को निरस्त कर दिया। दो-चार दिनों बाद उनका फोन आता - ‘अरे! विष्णु! सुनो! तुमने वो काम बताया था ना.......।’ और वे सिलसिलेवार, पूरा ब्यौरा दे कर, काम हो जाने की सूचना दे देते हैं। नितान्त एकान्त में उनकी बात सुन रहा मैं, खुद पर शर्मिन्दा होने लगता हूँ। इतना साहस भी नहीं जुटा पाता कि कह दूँ कि इस काम को लेकर मैंने उनके बारे में क्या सोचा था। उनके प्रति ऐसी असंख्य मूक शर्मिन्दिगियों और मूक क्षमा याचनाओं का बड़ा ढेर मेरे अन्तर्मन की शोभा बढ़ा रहा है।

माँगने पर नेक सलाह तो वे देते ही हैं किन्तु कुछ अनुचित करने पर उतनी ही चिन्ता और जिम्मेदारी से टोकते भी हैं। ऐसी टोका-टाकी करते हुए उनके स्वरों की व्यथा मुझे ठेठ भीतर तक हिला देती है। निश्चय ही उन्हें मुझसे ऐसी अपेक्षा नहीं रही होगी। मेरे कारण वे आहत-व्यथित हुए किन्तु अपनी दशा अव्यक्त रखते हुए मेरे सुधार की चिन्ता की।

मैं एक स्थानीय साप्ताहिक (‘उपग्रह’) में एक स्तम्भ लिखता हूँ। ‘उपग्रह’ उन्हें भी भेजा जाता है। दो-चार महीनों में उनका फोन आ ही जाता है। खूब प्रशंसा करते हैं। सराहते हैं। कभी-कभार ऐसा हुआ कि स्तम्भ नहीं लिख पाया। ऐसे प्रत्येक मौके पर उनका फोन आया। स्तम्भ न छपने की चर्चा कभी नहीं की। हर बार घुमा-फिरा कर पूछा - ‘‘तबीयत खराब तो नहीं? ‘उपग्रह’ वालों से झगड़ा तो नहीं हो गया?’’ मैं हँस देता हूँ। कहता हूँ - ‘साफ-साफ क्यों नहीं पूछते सरोज भाई?’ वे कहते हैं - ‘वही तो पूछ रहा हूँ।’ मैं, स्तम्भ न छपने का कारण बताता हूँ। वे कहते हैं - ‘हाँ। ठीक है। झगड़ा मत करना और लिखना कभी भी बन्द मत करना। लिखते रहना।’    

उनकी एक और बात जो मुझे ‘प्रभावित’ से आगे बढ़कर ‘विस्मित’ करती है, वह है उनके ठहाके। धीमी आवाज में बोलनेवाला कोई आदमी ऐसे आकाश-भेदी ठहाके कैसे लगा लेता है भला? उनके ठहाके देर तक नहीं, दिनों तक कानों में गूँजते रहते हैं।

पता नहीं, यह कामना मैं सरोज भाई के लिए कर रहा हूँ या खुद के लिए कि ये गगन-भेदी ठहाके यूँ ही गूँजते रहें और उनके शतायु-प्रसंग पर एक बार फिर ऐसा ही कुछ करने/कहने का अवसर मिले।

मोदी याने अमरबेल याने यह राधा नहीं नाचेगी - 2


अब यह भी कोई रहस्योद्घाटन नहीं है कि रंच मात्र भी राजनीतिक जिम्मेदारी और जोखिम लिए बिना, सत्ता-सुख सहित तमाम राजनीतिक सुख हासिल करना, ‘संघ’ की एकमेव सांस्कृतिक गतिविधि और एकमेव लक्ष्य है। पूरे देश में, भाजपा के, तमाम संगठन मन्त्री, अनिवार्यतः ‘संघ’ से यूँ ही नहीं आते! ‘संघ’ और इसके स्वयम् सेवकों के सत्ता-प्रेम की रोशनी में तनिक ध्यान से एक बात तलाश कीजिए कि ‘संघ’ से भाजपा के संगठन मन्त्री के पद पर आए कितने स्वयम् सेवक, वापस ‘संघ’ में अपनी पुरानी हैसियत में या ‘संघ’ के किसी अन्य आनुषांगिक संगठन में लौटे? ऐसे मामले ‘अपवादों में अपवाद’ की तरह ही सामने आएँगे जबकि अन्य आनुषांगिक संगठनों में भेजे गए स्वयम् सेवकों की, उसी हैसियत में ‘संघ’ में वापसी के मामले ढेर सारे मिल जाएँगे। 

सो, जहाँ भाजपा सत्ता में है वहाँ संघ के किसी निष्ठावान, समर्पित और आज्ञाकारी स्वयम् सेवक का सत्ता-प्रमुख होना सहज अनिवार्यता है ही। अपने इन्हीं गुणों के कारण मोदी को गुजरात का सत्ता सिंहासन मिला और उन्होंने वह कर दिखाया जो अन्य किसी भी प्रदेश का भाजपाई मुख्यमन्त्री अब तक नहीं कर सका। आजादी के बाद, देश में पहली बार (और अब तक ‘एकमात्र’), संघ की कट्टर वैचारिकता को उन्होंने गुजरात में साकार कर दिखाया। उन्होंने गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला में बदलने का इतिहास रच दिया। अपने सपनों को धरती की वास्तविकता में बदल देनेवाले अपने ऐसे अनूठे स्वयम् सेवक पर ‘संघ’ भला गर्व क्यों न करता? क्यों न इठलाता? सो, वह गर्व करता रहा और इठलाता रहा। किन्तु गर्वित रहने और इठलाने की, इस ‘आत्म-मुग्धता की तल्लीनता’ में उसे पता ही नहीं चला कि कब मोदी विराट बन गए और संघ वामन रह गया। मोदी के कद की बात छोड़िए, मोदी की परछाई ही इतनी घनी और व्यापक हो गई कि संघ नजर ही नहीं आता। मोदी का जूता इतना बड़ा हो गया कि उसे पहनने के चक्कर में, अपने तमाम आनुषांगिक संगठनों सहित समूचा संघ उसमें गुम हो गया। अनवरत कठिन परिश्रम करते हुए, सुनियोजित कार्यशैली और रणनीति से अर्जित उपलब्धियाँ पूरी तरह से अपने व्यक्तिगत खाते में जमा कर, लोकप्रियता, जनाधार और चुम्बकीय लोकार्षण के दम पर मोदी ने मानो संघ को परिदृष्य से ही ओझल कर दिया। आज पूरे गुजरात में संघ और उसके तमाम आनुषांगिक संगठन, ‘समृद्ध-कमाऊ और बलशाली पुत्र के हाथों लतियाए-जुतियाए पिता’ की दशा प्राप्त कर चुके हैं। वे सब मोदी के कृपा-दया-आश्रित निरीह पात्र बन कर रह गए हैं। मोदी के सामने इनकी दशा ‘जबरा मारे, रोने न दे’ जैसी होकर रह गई है। ‘कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए’ वाली दशा ऐसी ही होती होगी। लेकिन जब मीठा खाना जीवन का मकसद बन जाए और व्यसन भी, तो फिर नीची नजर किए जूठा खाने से परहेज नहीं किया जा सकता। इस मामले में यह कह कर तसल्ली तलाशी जा सकती है कि झूठा हो या जूता - है तो अपनेवाले का ही!   

संघ से पहचान और अवसर पानेवाले नरेन्द्र मोदी आज संघ और भाजपा के पर्याय पुरुष और भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता दिलाने के लिए अपरिमित सम्भावनाओं के कोष बन गए हैं। उनके लिए गुजरात अब ऐसा ‘राजसी छप्पर पलंग’ बन कर रह गया है जिस पर लेटने पर उनके पैर बाहर लटकते हैं। अब उन्हें ‘राज्य’ नहीं, ‘राष्ट्र’ चाहिए। 

एक ओर अपने भ्रष्टाचार और अपनी अकर्मण्यता के कारण चरम अलोकप्रियता और जन-असन्तोष से घिरी यूपीए सरकार और दूसरी ओर मोदी जैसा, लोक-लुभावन, वोट जुटाऊ सक्षम, दक्ष नेता। याने, भाजपा के लिए सत्ता सम्भावनाओं का ऐसा स्वर्णिम अवसर जो अब तक कभी नहीं मिला और भविष्य में शायद ही मिले। सो, सत्ता लपकने के लिए संघ परिवार के पेट में मरोड़ें उठने लगें तो अस्वाभाविक क्या? सो, पूरा देश ये उठती मरोड़ें देख रहा है। 

लेकिन यही वह क्षण है जहाँ संघ परिवार ठिठका नजर आ रहा। क्या किया जाए और क्या नहीं? मोदी एक मात्र तारणहार। लेकिन दूध का जला हुआ जब छाछ को ही फूँक-फूँक कर पीता हो तो भला दूध को पीने के लिए तो उसे अतिरिक्त आत्मबल जुटाना पड़ेगा। पीने से पहले सौ बार सोचना पड़ेगा। इसी सोच ने जकड़न पैदा कर रखी है।

अपनी जिन खूबियों के दम पर मोदी, भाजपा और दिल्ली की दूरी न्यूनतम कर सकते हैं उन्हीं खूबियों ने परिजनों को भयाक्रान्त कर रखा है। गुजरात में मोदी ने खुद को जिस तरह से साबित किया, उसी से दहशत भी फैली हुई है। मोदी जहाँ होते हैं वहाँ फिर और कोई नहीं होता। हो ही नहीं सकता। फिर मोदी होंगे और केवल मोदी ही होंगे। अब भला ‘ऐसे’ मोदी को कैसे और क्यों कर लाया जाए जो लानेवालों का वजूद ही नहीं रहने दे? गोया, मोदी, मोदी न हुए, अमरबेल हो गए! जिस पर छा गए, उसे ही निष्प्राण कर दिया! तब मोदी को लानेवालों का क्या होगा? वे मोदी को किसके लिए लाएँगे - खुद के लिए या मोदी के लिए?  

यही मुश्किल है। मोदी के बिना दिल्ली से नजदीकी बनना कठिन और मोदी को लाना याने खुद को विसर्जित करने के लिए तैयार रहना। गोया, स्थिति कुछ ऐसी कि जिस स्वर्ग की प्राप्ति के लिए सब कुछ किया जा रहा हो, उस स्वर्ग के मिलने के पहले ही क्षण प्राणान्त का खतरा! 

तो फिर क्या किया जाए? आज जैसे भी और जितने भी हरे-भरे हैं, वैसा ही, उतना ही हरा-भरा रह कर प्रसन्नतापर्वूक जी लिया जाए या सुनहरी अमरबेल ओढ़ कर निष्प्राण हो लिया जाए? मर-मर कर जीया जाए या एक बार जी कर मर जाएँ?

ऐसे क्षणों में जिन्दगी अचानक ही बहुत प्यारी लगने लगती है। जिन्दा रहे तो बेहतरी ले आएँगे। लेकिन जिन्दा ही नहीं रहे तो?

सो, मुझे लगता है कि सत्ता-सुख के अपने सांस्कृतिक लालच के चलते संघ परिवार भले ही एक बार जोखिम उठाने की बात सोच ले किन्तु में भाजपा में, जिन्दा रहने की ललक रखनेवाले, जिन्दगी को प्यार करनेवाले लोग अधिक हैं। एक, दो की बात होती तो शायद सोचा जा सकता था। किन्तु बात जब बीसियों लोगों की हो और बीसियों लोग भी वे जो महत्वाकांक्षाएँ लिए बैठे हों तो फिर वे सब के सब, सामूहिक आत्महत्या कर, किसी एक को उपकृत करेंगे? उन्हें यदि आत्महत्या ही करनी होती तो भला राजनीति में आते? राजनीति तो आया ही इसलिए जाता है कि अपनेवालों के कन्धों पर चढ़कर सिंहासन तक पहुँचा जाए और विरोधियों की सहायता से वहाँ सुखपूर्वक बैठा रहा जाए। 

लेकिन, मोदी के प्रधानमन्त्री न बन पाने का, मुझे यह कारण भी अन्तिम नहीं लग रहा। 

अगला कारण यद्यपि सुपरिचित, जगजाहिर और घिसा-पिटा है। लेकिन वह, अगली कड़ी में। 

(यहॉं प्रस्‍तुत समस्‍त चित्र गूगल से लिया गया है। इसका उपयोग किसी आर्थिक लाभ के लिए नहीं किया जा रहा है। यदि आपत्ति हो तो सूचित करें। उस दशा में इसे अविलम्‍ब हटा लिया जाएगा।)

यह राधा नहीं नाचेगी - 1

 
खुश होनेवाले खुश हो जाएँ और दुःखी होनेवाले दुःखी। अपनी सीमाओं से परे जाकर मैं घोषणा कर रहा हूँ - नरेन्द्र मोदी इस देश के प्रधान मन्त्री नहीं बन रहे। मैं न तो कोई रहस्योद्घाटन कर रहा और न ही, चौंकानेवाली कोई अनूठी बात कह रहा। भारतीय राजनीति की नाम मात्र की समझ रखनेवाला सड़कछाप आदमी भी जानता है कि इस क्षण का सच तो यही है।

मोदी अनेक विशेषताओं के धनी हैं। जनमानस की नब्ज खूब अच्छी तरह टटोल लेते हैं। वक्तृत्व कौशल ऐसा कि घटिया से घटिया बात पर भी तालियाँ पिटवा लें। कहाँ, कब, क्या बोलना - यह तो भली प्रकार जानते ही हैं, यह और अधिक भली भाँति जानते हैं कि कहाँ, कब, क्या नहीं बोलना। यह गुण बहुत कम राजनेताओं में पाया जाता है। याददाश्त पर भरपूर जोर डालिए - आप पाएँगे कि अपने ‘कर्मों’ से भले ही वे विवादास्पद हुए किन्तु अपने किसी वक्तव्य से नहीं। ‘मीडिया ने मेरी बात को तोड़-मरोड़कर पेश किया’ वाला, राजनेताओं का प्रिय और पहचान बन चुका जुमला उनके मुँह से मैंने तो आज तक नहीं सुना। गुजरात में अपनी पार्टी को चुनाव जितवाने में उनकी महारत तो अब विश्व विख्यात हो चुकी है। व्यक्तिगत और परिजनों के भ्रष्टाचार के पारम्परिक आरोपों से वे अब तक बचे हुए हैं। ऐसी और कई बातें उनके पक्ष में जाती हैं।

लेकिन उनकी एक विशेषता ऐसी है जो इन सब पर न केवल भारी पड़ती है अपितु प्रधानमन्त्री बनने की उनकी समस्त सम्भावनाओं को नष्ट-प्रायः कर देती है। यह विशेषता है - अपने विरोधियों को निपटाना और ऐसा निपटाना कि वह (विरोधी) तो ‘अतीत की वस्तु’ बन ही जाए,  उसके (विरोधी के) तमाम समर्थक, भयाक्रान्त होकर, खुद का अस्तित्व बनाए रखने की चिन्ता करने लगें। भाजपा विरोधी तो उनकी इस विशेषता के शिकार हुए ही, भाजपा के भीतर मौजूद अपने विरोधियों को भी उन्होंने इसी तरह, समान रूप से निपटाया - बिना किसी भेद-भाव के। शंकर सिंह वाघेला ने तो काँग्रेस की छतरी में शरण ले ली किन्तु सुरेश देसाई और केशु भाई पटेल (दोनों ही, गुजरात के पूर्व मुख्यमन्त्री) जैसे दमदार नेताओं को अब तक जमीन नहीं मिल रही। संघ के प्रखर प्रचारक संजय जोशी को तो उन्होंने, पूरी दुनिया के सामने लगभग नंगा दौड़ते हुए दिखाकर ‘अन्तरराष्ट्रीय और ऐतिहासिक’ बना दिया। उनकी वह गत बना दी कि बेचारे को त्याग पत्र देना पड़ा।   

मोदी की यह विशेषता सामान्य भाजपाइयों को तो ‘कायल’ करती है किन्तु शीर्ष स्तर के भाजपाइयों को (विशेषकर उन भाजपाइयों को जो खुद को प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठे देखना चाह रहे हैं) भयाक्रान्त बनाए रखती है। कोई ताज्जुब नहीं कि वे चैन की नींद भी न ले पा रहे हों। ऐसे तमाम भाजपाई, अपने सारे मतभेद भुलाकर, ‘दुश्मन का दुश्मन, अपना दोस्त’ के सिद्धान्त को अपनाकर मोदी को गुजरात तक ही सीमित रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। यह उनके (मोदी विरोधियों के) राजनीतिक भविष्य का (लगभग, जीवन-मरण जैसा) सवाल जो ठहरा!

यहाँ मुझे अनायास ही पूर्व केन्द्रीय मन्त्री और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री, स्वर्गीय अर्जुनसिंहजी की याद हो आई है। अपनी बौद्धिकता, विद्वत्ता, अकादमिकता के कारण, कुशल राजनेताओंकी भीड़ में वे अलग से पहचाने जाते थे। जहाँ तक मेरी जानकारी है, समृद्ध निजी लायब्रेरी के मामले में वे, देश के सम्भवतः एकमात्र राजनेता थे। वे किताबें खरीदने के शौकीन थे और जब भी विदेश यात्रा से लौटते थे तो उनके सामान में पुस्तकों की पूरी एक खेप अवश्य होती थी। 

यह जगजाहिर बात है कि वे अत्यधिक महत्वाकांक्षी थे और इन्दिरा, राजीव की हत्या के बाद खुद को प्रधानमन्त्री पद का स्वाभाविक दावेदार मानते थे। लेकिन स्थितियाँ उनके प्रतिकूल रहीं। उन्होंने काँग्रेस से नाता तोड़ने का फैसला किया। ‘गाँधी परिवार विहीन काँग्रेस’ के उस संक्षिप्त काल खण्ड में अनेक काँग्रेसी, अर्जुनसिंहजी के आसपास जुटे तो सही किन्तु उनका नेतृत्व स्वीकार करना तो दूर रहा, कोई उनके नाम से अपनी पहचान बनाने को भी तैयार नहीं हुआ। सबको लग रहा था कि अर्जुनसिंह नामक बरगद के नीचे उनकी तो पहचान ही गुम हो जाएगी। सब मानो दहशतजदा हों। हालत यह हुई कि उन्हें ‘तिवारी काँग्रेस’ के नाम से पार्टी बनानी पड़ी। दिल्लीवाले आज भी कहते हैं कि इस पार्टी में केवल नाम ही नारायण दत्त तिवारी का था - सारे साधन/संसाधन अर्जुनसिंहजी के ही थे।

बहेलिये के जाल में फँस चुकी चिड़ियाएँ, एक जुट होकर जिस तरह बहेलिये का जाल ले उड़ी थीं, उसी तरह, अपने सर पर मँडराए (राजनीतिक भविष्य के नष्ट हो जाने के) खतरे को दूर करने के लिए अनेक भयभीत लोग एकजुट होकर उस खतरे के लिए खतरा बन सकते हैं। मोदी को भी ऐसे अनेक भयभीत एकजुट भाजपाइयों का खतरा बना हुआ है।

लेकिन पोस्ट के शीर्षक ‘यह राधा नहीं नाचेगी’ से इन सारी बातों का क्या रिश्ता? है साहब! रिश्ता है। यह रिश्ता इस पोस्ट की अगली कड़ी में बताऊँगा।

(यहॉं प्रस्‍तुत समस्‍त चित्र गूगल से लिए गए हैं। इनका उपयोग किसी आर्थिक लाभ के लिए नहीं किया जा रहा है। यदि आपत्ति हो तो सूचित करें। उस दशा में इन्‍हें अविलम्‍ब हटा लिया जाएगा।)

अहा! क्या चीज है राष्ट्रीय अस्मिता!


राष्ट्रीय अस्मिता बड़े काम की चीज है। काम की होने के साथ-साथ यह मजेदार और सुविधाजनक भी है। बाजार में वो एक किसम की मिट्टी मिलती है ना - जिससे बच्चे अपने मनमाफिक खिलौने बना लेते हैं? बिलकुल वैसी ही है राष्ट्रीय अस्मिता। जैसी चाहे, वैसी शकल दे दो और मन भर जाए तो लोंदा बनाकर आलमारी में धर दो - अपनी सुविधा से कभी भी फिर से निकाल कर, मनमाफिक आकार देने के लिए। ईश्वर के बाद सम्भवतः राष्ट्रीय अस्मिता ही वह चीज है जिसके नाम से कुछ भी कर लेने की छूट चौबीसों घण्टे उपलब्ध रहती है।

राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर भावोन्माद पैदा कर देश में उपद्रव कराए जा सकते हैं, और सच्ची बात को नक्कारखाने में तूती की आवाज बनाया जा सकता है। इससे अपनी नई दुकान जमाई जा सकती है और  जमी-जमाई दुकान को उखड़ने से बचाया जा सकता है।

इसके जरिये चुनाव की वैतरणी भी पार कर सत्ता हासिल करने की कोशिशें की जा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी सुविधा यह है कि इसके साथ चाहे जैसा बरताव कर लो, यह कभी, कुछ नहीं करती। कोई शिकायत नहीं करती। यह तो क्या, पूरे राष्ट्र में कोई भी, कुछ नहीं कर सकता, कुछ नहीं कर सकता। सबकी अपनी-अपनी राष्ट्रीय अस्मिता जो होती है! इस सुविधा के चलते ही इसे रखैल की तरह भी काम में लिया जा सकता है - जब चाहे, ‘रजनी-सुख’ ले लो और जब चाहे, दुत्कार कर, लात मार कर भगा दो। ‘निस्सीम अधिकार और शून्य उत्तरदायित्व’ की ऐसी सुविधा तथा इस सुविधा का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व उपयोग करने की सुविधा दुनिया में और कहाँ?

इसे मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा जा सकता है, संसद में अपना संख्या बल बढ़ाया जा सकता है। लेकिन भरपूर कोशिशों के बाद भी संख्या बल इतना न हो कि खुद सरकार बना सकें तो क्या किया जाए? बात जब राष्ट्रीय अस्मिता और सत्ता में से किसी एक को चुनने की हो तो यह राष्ट्रीय अस्मिता है जिसे ‘गंगा’ से ‘गटर’ बनाने में सबसे अधिक आसानी होती है। सत्ता-सिंहासन पर टिकने के लिए कुलबुला रहे अपने नितम्बों को राहत देने के लिए इसके सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं! ऐसी राष्ट्रीय अस्मिता गई भाड़ में जो सत्ता में रोड़ा बने! कहा ना? राष्ट्रीय अस्मिता तो रखैल की तरह है! जब चाहो, भोग लो और जब चाहे लात मार कर भगा दो।   

राष्ट्रीय अस्मिता को केवल रखैल की तरह ही नहीं, अमीबा की तरह भी काम में लिया जा सकता है। अमीबा की यह खूबी तो हर कोई जानता है कि वह ‘अमर’ होता है। मरता कभी नहीं। वह या तो जाग्रत होता है या सुप्त। जब अनुकूल परिस्थितियाँ हो तो जाग्रत हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में ‘सुप्तावस्था’ ग्रहण कर लेता है। किन्तु दोनों में एक बड़ा फर्क है। अमीबा को बनाया नहीं जा सकता जब कि राष्ट्रीय अस्मिता को बनाया जा सकता है। अमीबा ‘प्राकृतिक’ होता है जबकि राष्ट्रीय अस्मिता ‘मानव-निर्मित’ होती है। जब चाहो, जिस बात को चाहो, राष्ट्रीय अस्मिता बना लो और अमीबा की तरह काम में ले लो। अमीबा सदैव प्रकृति-अधीन होता है जबकि राष्ट्रीय अस्मिता मुनष्य-अधीन। जब जरूरी हो तब कहो - ‘राष्ट्रीय अस्मिता! चल! उठ तो! जाग जा! हरकत में आ जा।’ और जब काम निकल जाए या काम न हो तो हड़का दो - ‘राष्ट्रीय अस्मिता! तू यहाँ क्या कर रही है? चल! भाग यहाँ से! जा अपनी कोठरी में। तेरी जरूरत होगी तो बुला लेंगे।’

जैसा कि पहले कहा गया है, ‘शून्य उत्तरदायित्व’ की सुविधा इसकी सबसे बड़ी खूबी है। इसी के चलते, इसके नाम पर  उपद्रव करवा कर जिम्‍मेदारी से पल्ला झाड़ने में बड़ी आसानी होती है। फौरन कहा जा सकता है - ‘इस सबसे मेरा कोई लेना-देना नहीं। मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं। मैंने तो राष्ट्रीय अस्मिता की चिन्ता की थी। बाकी लोगों ने क्या किया, इससे मुझे क्या लेना-देना?’

चुनाव सामने हैं। राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अनुकूल मौसम आ गया है। कोठरी में हकाली गई राष्ट्रीय अस्मिता के नाम की पुकारें लगने लगी हैं। ‘राष्ट्रीय अस्मिता-राष्ट्रीय अस्मिता’ के खेल का पारम्परिक मजमा लगाने की तैयारियाँ शुरु हो गई हैं। कुछ को इसमें मजा आएगा और कुछ सजा भुगतेंगे। सब अपनी-अपनी तैयारियों में लग गए हैं - भोगने या भुगतने के लिए।  

सबकी अपनी-अपनी राष्ट्रीय अस्मिता होती है। कुछ के लिए राष्ट्रीय अस्मिता जीवन का चुनाव होती है। कुछ के लिए यह चुनावों में काम आती है।