पटेल बा की अफीम की तस्करी



वे रतलाम आए तो मुझे तलाश कर, मिलने के लिए बुलाया। मैं हाथ के सारे काम छोड़, भाग कर गया। कम से कम पैंतीस बरस बाद उनसे मिलना जो हो रहा था! हम दोनों की उम्र में अठारह बरस का फासला है-वे 88 बरस के, मैं 70 बरस का। लेकिन इस अन्तर को उन्होंने न तो खुद माना न ही मुझे मानने दिया। परिचय के पहले ही क्षण से मित्रवत् ही मिले और आज जब मिले तब भी उसी भाव से। स्वभाव पर उम्र की छोटी सी खरोंच भी नहीं आ पाई। खूब गर्मजोशी से मिले। खूब बतियाये। बातें करते-करते मुझे, हमेशा की तरह ही पाँच-सात धौल जमाए। वैसे ही झन्नाटेदार, जैसे पैंतीस बरस पहले थे। बातों ही बातों में वह किस्सा भी सुनाया जिसने उनकी ‘पटलई’ को सीमेण्ट-काँक्रीट की मजबूती दे दी थी। 

वे बरसों तक, मन्दसौर जिले की मल्हारगढ़ तहसील के एक समृद्ध गाँव के ‘पटेल’ बने रहे। वे उस जमाने के ‘इण्टर पास’ हैं जिस जमाने में मेट्रिक पास होना ही किसी को दर्शनीय बना देता था। अच्छी-खासी सरकारी नौकरी मिल रही थी लेकिन न तो ताबेदारी (अधीनस्थता)  कबूल न ही बँध कर रहना। सो इंकार कर दिया। परिवार के पास सिंचित जमीन का भरपूर रकबा। खुद को खेती में झोंक दिया। ‘इण्टर पास पेण्टधारी जण्टरमेन’ को खेतों में बुवाई, सिंचाई, निंदाई-गुड़ाई करते देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते।

आज तो नीमच अलग जिला है लेकिन तब वह मन्दसौर जिले का उप सम्भाग (सब डिविजन) हुआ करता था। प्रदेश को, सुन्दरलालजी पटवा और वीरेन्द्रकुमारजी सकलेचा जैसे दो-दो मुख्यमन्त्री देने की पहचान से पहले मन्दसौर जिले की पहचान अफीम के लिए रही है। मध्य प्रदेश में सर्वाधिक अफीम मन्दसौर जिले में ही पैदा होती है। अफीम की खेती वहाँ आज भी एक महत्वपूर्ण ‘सामाजिक प्रतिष्ठा-प्रतीक’ है। आज तो स्थिति लगभग आमूलचूल बदल गई है किन्तु तब माना जाता था कि प्रत्येक अफीम उत्पादक किसान किसी न किसी स्तर पर अफीम तस्करी से जुड़ा हुआ है। 

जैसा कि ‘पटेल बा’ ने बताया, उनका गाँव अफीम उत्पादक गाँवों मे अग्रणी था। नामचीन अफीम तस्कर और उनके कारिन्दे इस गाँव मे अक्सर नजर आते थे। एक बार अफीम का बड़ा सौदा हुआ। गाँव के कई किसान इस सौदे में शरीक थे। पढ़े-लिखे और प्रतिभाशाली होने के कारण पटेल बा को गाँव की ओर से प्रभारी बनाया गया। तय हुआ कि फलाँ तारीख की रात को तस्कर के लोग आकर अफीम की डिलीवरी लेंगे। भागीदार किसानों की अफीम पटेल बा के घर में इकट्ठी की गई। 

एक तो बड़ा सौदा और दूसरे, माथे पर जिम्मेदारी। सो, पटेल बा ने अपने पक्के मकान की छत पर खाट बिछाई। अमावस की रात। माहौल में अफीम की मादक गन्ध। लेकिन पटेल बा की आँखों ने नींद को अनुमति नहीं दी। कभी खाट पर बैठें तो कभी छत पर चहल कदमी करें।

आधी रात होने को आई। तस्कर के कारिन्दों के आने का समय हो चला था। पटेल बा की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। ऐसा काम अब तक छुटपुट स्तर पर ही किया था। इतने बड़े स्तर का पहला मौका था। उनकी आँखें मानो मशालें बन जाना चाह रही थीं। अँधेरे को घूर कर और चीर कर दूर-दूर तक देखने, टोह लेने की कोशिशें जारी थीं।

लेकिन पटेल बा चौंके। दूर से दो जीपों की बत्तियाँ चमकती नजर आईं। यह क्या? यह तो तय नहीं हुआ था! तस्कर के लोग तो मोटर सायकिलों से आनेवाले थे! ये जीपें कैसी? बात समझने में पटेल बा को क्षण भी नहीं लगा। निश्चय ही किसी भेदिये ने पुलिस को खबर कर दी होगी। अब क्या किया जाए? जीपों की घरघराहट और उनकी रोशनी पल-पल बढ़ती जा रही थी। गाँव से उनकी दूरी हर साँस पर कम होती जा रही थी। छापा कामयाब हो गया तो आधे से ज्यादा गाँव पकड़ा जाएगा! क्या किया जाए? 

जैसे किसी आत्मा ने पटेल बा पर अपनी सवारी उतार दी हो इस तरह पटेल बा ने जोर-जोर से चिल्लाना, आवाजें लगाना शुरु कर दिया - ‘डरना मत रे! घबराना मत रे! ये डाकू नहीं हैं। ये तो अपने पुलिसवाले हैं।’ छोटा सा गाँव और कवेलू की छतें। पटेल बा की आवाज गाँव के हर घर में गूँज उठी। जिनकी अफीम थी वे तो पहले से ही अधजगे थे। वे तो पूरे जागे ही जागे, बाकी गाँव भी जाग गया और पटेल बा का मकान मानो पंचायत घर में बदल गया। जिनका ‘माल’ था, वे चीतों की तरह झपटे। अपना-अपना ‘माल’ कब्जे किया। ठिकाने लगा कर वापस पटेल बा के घर पहुँच, भीड़ में शामिल हो गए।

कुछ ही मिनिटों में पुलिस दल पहुँच गया। पूरे गाँव को जमा देख दरोगाजी भन्ना गए। सारा खेल खराब हो चुका था। समझ तो गए थे किन्तु कहते और करते भी क्या? पटेल बा को खरी-खोटी सुनाने लगे। उधर दरोगाजी बिफरे जा रहे इधर पटेल बा मासूम, दयनीय मुद्रा में सफाई दिए जा रहे - ‘क्या गलत किया सा‘ब? डाकू समझ कर गाँव के लोग बन्दूकें चला देते। पता नहीं क्या से क्या हो जाता। मैंने तो आपको और गाँववालों को बचाया सा‘ब! और आप हैं कि मुझे डपटे जा रहे हैं! सच्ची में भलमनसाहत का तो जमाना ही नहीं रहा।’ पूरा गाँव पटेल बा की हाँ में हाँ मिलाता, मुण्डियाँ हिला रहा। दरोगाजी की झल्लाहट देखते ही बनती थी। 

दरोगाजी आखिर कब तक चिल्लाते? जल्दी ही चुप हो गए। पटेल बा ने गाँववालों को डाँटा - ‘अपना आराम छोड़ कर आधी रात को हाकम आए हैं। तुम आँखें फाड़े देख रहे हो! कुछ तो  शरम करो! गाँव का नाम डुबाओगे क्या? हाकम को कम से कम पानी की तो पूछो!’ सुनते ही पूरा गाँव ताबेदारी में जुट गया। फटाफट देसी घी का हलवा बनाया और लोटे भर-भर ‘कड़क-मीठी’ चाय पेश की। 

भुनभुनाते हुए दरोगाजी चलने को हुए तो पटेल बा ने कुछ इस तरह मानो मक्खन में छुरी गिर रही हो, ‘मालवी मनुहार’ की - ‘साब! अब आधी रात में कहाँ जाओगे? गाँववालों के भाग से आपका आना हुआ। रात मुकाम यहीं करो। सवेरे कलेवा करके जाना।’ दरोगाजी तिलमिला उठे। मानो कनखजूरे पर चीनी छिड़क दी हो। चिहुँक कर बोले - ‘रहने दो पटेल! रहने दो। मुँह में आया निवाला तो आधी रात को छीन लिया और सुबह के कलेवे की मनुहार कर रहे हो। तुम्हारी मनुहार का मान फिर कभी रखूँगा। याद रखूँगा और राह देखूँगा। लेकिन तुम भी याद रखना। जब कभी मेरे ठिकाने पर आओगे तो कलेवा तो क्या पूरा भोजन कराऊँगा। वो भी बिना मनुहार के।’

बमुश्किल अपनी हँसी रोकते हुए पटेल बा, नतनयन, दीन-भाव से विनीत मुद्रा में बोले - ‘आप हाकम, हम रियाया। जैसे रखेंगे वैसे रहेंगे हजूर। आप नाराज हों, आपकी मर्जी। अपने जानते तो हमने कोई गुनाह नहीं किया। फिर भी आप सजा देंगे तो भुगत लेंगे हजूर! ग्रीब तो जगत की जोरू होता है। भला हाकम से हुज्जत कर सकता है?’

ठठाकर हँसते हुए पटेल बा ने कहा - ‘आग उगलती आँखों से देखते हुए दरोगाजी ने बिदा ली। उनकी जीपों ने गाँव छोड़ा भी नहीं कि मेरे घर के सामने जश्न मनने लगा। लोगों ने मुझे कन्धों पर उठा लिया। उसके बाद किसी ने गाँव का पटेल बनने की बात सोचना ही बन्द कर दी। नया पटेल तभी बना जब मैंने अपनी मर्जी से पटलई छोड़ी।’

मैंने पूछा - ‘वो सब तो ठीक है लेकिन आपको भोजन कराने की, दरोगाजी की हसरत पूरी होने का मौका तो नहीं आया?’ पटेल बा बोले - ‘दरोगा गुस्सैल जरूर था लेकिन मूरख नहीं। अपनी आँखों देख लिया था कि पूरा गाँव मेरी पीठ पर है। कुछ ही दिनों बाद उसने खुद ही दोस्ती कर ली।’ मैंने शरारतन पूछा - ‘आपके हर काम से दोस्ती कर ली?’ जोरदार धौल टिकाते हुए बोले - ‘पोते का दादा हो गया लेकिन अब तक अक्कल नहीं आई। उस दिन क्या उस बेचारे की फजीहत कोई कम हुई जो आज तू फिर मुझसे उसकी फजीहत कराना चाहता है।?’  

ठठाकर हँसते हुए, टेल बा ने मुझे बाँहों में भर लिया।
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बुलबुल भी हम, सैयाद भी हम

जब से उसके पास से लौटा हूँ, वह रोज सुबह वाट्स एप पर ‘सुविचार-सन्देश’ देने लगा है। पहले नहीं देता था। आज का चलन यही है। किन्तु आज आया उसका सन्देश पढ़कर मन जाने कैसा-कैसा तो हो गया है! सन्देश है - ‘रोटी कमाना बड़ी बात नहीं है। परिवार के साथ खाना बड़ी बात है।’ इन तेरह शब्दों ने मुझे झिंझोड़ दिया है। उसने यह सन्देश खुद भी पढ़ा या नहीं? केवल मुझे ही भेजा है या सबको? मुझे कह रहा है या अपनी व्यथा-कथा सुना रहा है? 
वह घर से कोई तीन सौ किलो मीटर दूर है। मित्र का बेटा है। अट्ठाईस बरस का, अविवाहित। मुझे पितृवत् मान देता है। किसी काम से उसके नगर जाना हुआ तो तीन दिन उसी के कमरे पर ठहरा। हम लोग बहत्तर घण्टे एक छत के नीचे रहे किन्तु दिन के उजाले में एक बार भी एक-दूसरे को नहीं देखा। वह सुबह सवा पाँच, साढ़े पाँच बजे निकल जाता। मैं अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार निकलता। मैं दिन ढलते कमरे पर पहुँच जाता किन्तु वह कभी भी रात साढ़े नौ बजे से पहले नहीं पहुँचा। वह भोजन करके आता और मैं उसके आने से पहले भोजन कर चुका होता। उसने चाहा भी कि कम से कम एक समय तो हम दोनों साथ भोजन करते। किन्तु ऐसा हो नहीं पाया। मैं लौटा तो उससे मिले बिना ही। उसकी गैर हाजरी में। उसने फोन पर कहा - ‘तीन साल से नौकरी कर रहा हूँ। लेकिन जैसा आज लग रहा है, वैसा पहले कभी नहीं लगा। मम्मी-पापा आते रहे। उनके साथ भी ऐसा ही हुआ। लेकिन आपका इस तरह जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा। मम्मी-पापा तो आते रहेंगे लेकिन आप कब आएँगे? आज पहली बार अपनी नौकरी पर गुस्सा भी आ रहा है और शर्म भी। आप मुझे माफ कर दीजिएगा।’ उसकी भर्राई आवाज ने मुझे हिला दिया। मानो, कोई वट वृक्ष अपनी जड़ें छोड़ रहा हो। मैंने कठिनाई से कहा - ‘वल्कल (मेरा बड़ा बेटा)  की दशा भी कुछ ऐसी ही है। मैं समझ सकता हूँ। तुम मन पर बोझ मत रखो।’ 
माँ-बाप जल्दी से जल्दी उसका विवाह कर देना चाहते हैं। वह भी राजी है। किन्तु  वह पहले ‘सेटल’ हो जाना चाहता है। ‘सेटल’ याने इतना समृद्ध कि अपनी और अपनी पत्नी की इच्छाएँ पूरी कर सके। उसकी दशा देख कर फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ की, बरसात में भीगते हुए, ‘तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए’ गाती हुई, नायिका नजर आने लगी। मुझे दहशत हो आई। मन ही मन प्रार्थना की - ‘हे! भगवान। इसे वैसी दशा से बचाना।’ 
गए रविवार को कुछ घण्टों के लिए भोपाल में था। तीन परिवारों में जाना हुआ। तीनों ही परिवारों में बूढ़े/अधेड़ पति-पत्नी। बिलकुल मुझ जैसी दशा तीनों की। बच्चे गिनती के और वे भी अपनी-अपनी नौकरी पर बेंगलुरु या पूना में। वहाँ, बच्चों को अपनी देखभाल करनी है और यहाँ हम बूढ़ों को अपनी। वे हमें लेकर चिन्तित और हम उन्हें लेकर। न वे हमारे साथ रह सकते और न ही हम वहाँ जाने की स्थिति में। तीनों जगह एक ही विषय। सम्वाद भी लगभग एक जैसे। उलझन भी एक जैसी - “बच्चों की ‘अच्छी-भली’ नौकरी पर खुश हों या सकल परिस्थितियों पर झुुंझलाएँ?” क्या स्थिति है! प्रत्येक वार त्यौहार पर वे हमें याद करें और हम उन्हें। त्यौहारों पर व्यंजन बनाने का जी न करे और बना लें तो स्वाद नहीं आए। मुझे रह-रह कर पुराना फिल्मी गीत याद आता है - ‘कैद में है बुलबुल, सैयाद मुस्कुराए। कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए।’ किससे शिकायत करें? किसे दोष दें? हम ही बुलबुल, हम ही सैयाद! 
प्रख्यात कवि सुरेन्द्र शर्मा का एक वीडियो अंश मुझे एक के बाद एक, कई मित्रों ने भेजा। इस वीडियो अंश में सुरेन्द्र भाई दिल्ली के किसी कॉलेज में व्याख्यान देते हुए, अपने स्वभावानुरूप परिहासपूर्वक पालकों और बच्चों की मौजूदा ‘कैदी दशा’ और विसंगतियों पर तंज कस रहे हैं। सुनते हुए, कभी लगता है वे हमें रुला देंगे तो कभी लगता है खुद ही न रो दें। साफ अनुभव होता है कि तमाम बातों में कहीं न कहीं वे खुद भी शामिल हैं। उलझनों के बीहड़ में वे अपना रास्ता कुछ इस तरह घोषित करते हैं - ‘मेरा बेटा केवल पन्‍द्रह हजार रुपये महीने की नौकरी करता है लेकिन रात का भोजन मेरे साथ करता है। मेरे लिए इससे बड़ा और कोई पेकेज नहीं।’
यह तीन दिन पहले की बात है। रात के आठ बजनेवाले थे। प्रीमीयम जमा करने के लिए विजय भाई माण्डोत मेरे घर आए। मैंने चाय की मनुहार की। हाथ जोड़कर, नम्रतापूर्वक इंकार करते हुए बोले - ‘अंकुर दुकान मंगल करके घर पहुँच रहा होगा। सब भोजन पर मेरी राह देखेंगे। हम तीनों बाप-बेटे, एक ही थाली में, एक साथ भोजन करते हैं। पहले मेरी पत्नी भी साथ देती थी। किन्तु अंकुर की शादी के बाद वे दोनों सास-बहू एक साथ भोजन करती हैं और हम तीनों एक साथ। (विजय भाई के दो बेटे हैं।) इसके लिए हमने एक बड़ी थाली अलग से खरीद रखी है।’ मुझे रोमांच हो आया। उन्हें दरवाजे से ही विदा किया और मन ही मन याचना की - ‘हे! प्रभु! कृपा करना। इस थाली को सदैव उपयोगी बनाए रखना।’
नहीं जानता कि आज स्थिति क्या है। किन्तु, जब तक गाँव में रहा तब तक मालवा के लोक मानस में ‘पढ़ाई’ सदैव ही दोयम पायदान पर पाई। बच्चे को पढ़ाने का मतलब घर से दूर करना। पढ़-लिख कर घर से दूर जाने के बजाय, जीवन यापन का कोई ठीक-ठीक जतन कर, गाँव-घर में ही रहने को बेहतर माना जाता था। यहाँ तक कि अपनी मिट्टी न छोड़ने के लिए भीख माँगने तक की अनुमति दी जाती थी। 
एक गीत हमने खूब गाया भी और खूब सुना भी। किन्तु गाते-सुनते समय इसकी व्यंजना का अनुमान कभी नहीं हो पाया। आज की हकीकत अब इस गीत की व्यंजना अनुभव करा रही है। आज, बारहवीं के बाद, ‘उच्च शिक्षा’ के लिए घर से निकल रहा बच्चा, वस्तुतः हमेशा के लिए घर से दूर हो रहा है। मालवा के ‘लोक’ ने इस यथार्थ का अनुमान पता नहीं कब से लगा रखा है। इन सारे क्षणों से गुजरते हुए वही सब याद आ रहा है।
पंछियों से फसलों की रक्षा के लिए खेत के बीचोंबीच मचान बनाया जाता है। रखवाला किसान, गोफन (और पत्थर लिए) लिए उसी पर अपने दिन-रात काटता है। कभी गोफन चला कर, कभी थाली बजा कर तो कभी मुँह से विभिन्न आवाजें निकाल कर पंछियों को फसल पर बैठने से रोकता है। मालवी में मचान को ‘डागरा’, पढ़ाई/शिक्षा को ‘भणाई, पंछियों को भगाने को ‘ताड़ना’ और तोते को ‘हूड़ा’ कहते हैं। उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने को मचल रहे बेटे को रोकने के लिए किसान कहता है -
‘बेटा! भणे मती रे!
आँपी माँगी खावाँगा।
डागरा पे बेठा-बेठा,
हूड़ा ताड़ाँगा।’
अर्थात्-बेटे! अपन यहाँ माँग कर खा लेंगे, तोतों को भगा-भगा कर, मचान पर बैठ, खेतों की रखवाली करके अपना पेट पाल लेंगे। किन्तु तू पढ़ाई के लिए बाहर मत जा। घर मत छोड़।   
गाँवों से पलायन में तेजी आई है। गाँव का पिता यह गीत गाता तो अब भी होगा लेकिन उसकी आवाज धीमी हो गई होगी। जिन्दा रहना पहली शर्त है। क्या पता, रोकनेवाला पिता खुद भी बेटे के पीछे-पीछे चल पड़ा हो। 
किससे कहें? क्या कहें? बुलबुल भी हम और सैयाद भी हम। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में 09 मार्च 2017 को प्रकाशित।) 

जन्म दिन का जश्न न मनने की खुशी

मुकेश इस समय मेरे सामने होता तो शाल-श्रीफल से उसे सम्मानित कर देता।

मेरी ससुराल, इन्दौर-उज्जैन के बीच, सावेर में है। मुकेश मेरा सबसे छोटा साला है। शासकीय विद्यालय में अध्यापक है। रहता तो सावेर में है किन्तु इन्दौर में भी मकान बना लिया है। उसका बड़ा बेटा नन्दन इन्दौर में ही  नौकरी करता है। मुकेश और मेरी सलहज मंजू प्रायः प्रति शनिवार शाम को इन्दौर आ जाते हैं।

आज, रविवार 26 फरवरी, मुकेश-मंजू के छोटे बेटे तन्मय की जन्म तारीख है। इस शनिवार मुकेश-मंजू इन्दौर आए तो तन्मय को भी साथ लेते आए - इस शुभ-विचार से कि पूरा परिवार एक साथ तन्मय का जन्म दिन मना लेगा। मेरे सास-ससुरजी भी इन्दौर ही रहते हैं। हमारा छोटा बेटा तथागत भी इन्दौर में ही नौकरी कर रहा है। 

मुकेश स्वभावतः पारम्परिक और सुविधानुसार प्रगतिशील है। घर का सबसे छोटा बेटा होने से कुछ विशेषाधिकार उसे स्वतः प्राप्त हैं जिनके चलते कभी-कभी मुझे भी, बिना असम्मान बरते, ‘सद्भावना और सदाशयतापूर्वक’ हड़का देता है। 

तो, इन दिनों जैसा कि चलन बन गया है, बच्चों ने, 25 और 26 फरवरी की सेतु रात्रि की बारह बजे, तन्मय के जन्म दिन का केक काटना और जश्न मनाना तय कर तदनुसार साज-ओ-सामान जुटा लिए। 

आधी रात में जन्म दिन मनाना मुझे आज तक न तो सुहाया न ही समझ में आया। आधी रात में तारीख बदलना मुझे एक ‘व्यवस्था’ लगती है, (प्रमुखतः यात्रा टिकिटों के आरक्षण को लेकर) संस्कृति और परम्परा नहीं। किन्तु सम्भवतः, 31 दिसम्बर की आधी रात को नए साल के आगमन का जश्न मनाने से यह व्यवस्था, परम्परा का रूप लेती हुई संस्कृति बन गई। आधुनिक और प्रगतिशील होने का दिखावा करने की होड़ में हम भारतीय ‘अंग्रेजों से ज्यादा अंग्रेज’ हो गए और भूल गए कि हम ‘उदय तिथि’ वाले लोग हैं। हमारा दिन सूर्योदय से प्रारम्भ होता है। इसीलिए, आधी रात में जन्म दिन वर्ष गाँठ का उत्सव मनाना आज तक मेरे गले नहीं उतर पाया है। बहुत पहले मैं ऐसा करने से रोकने की कोशिश करता था किन्तु एक बार भी सफल नहीं हो पाया। बच्चों के माँ-बाप मुझसे सहमत होते और बच्चों के सामने हथियार डाल, मेरे सामने झेंपते। जल्दी ही मुझे अकल आ गई और भारतीय संस्कृति को बचाने का यह महान् काम मैंने बन्द कर दिया। लेकिन दुःखी तो होता ही हूँ। ऐसे में, ऐसे उपक्रमों की खिल्ली उड़ाकर अपनी भड़ास निकाल लेता हूँ और खुश होकर अपनी पीठ थपथपा लेता हूँ।

आज सुबह, अपने प्रिय भतीजे को शुभाशीष और शुभ-कामनाएँ देने से पहले मेरी उत्तमार्द्ध ने, जश्न के हालचाल जाने के लिए तथागत को फोन लगाया। तथागत ने जवाब दिया - कौन सा जश्न मम्मी? कोई जश्न-वश्न नहीं हुआ। मामाजी को मालूम हुआ तो उन्होंने डाँट दिया। बोले - ‘ये क्या उल्लूपना है? कोई कहाँ से आएगा और कोई कहाँ से। आधी रात में आते-जाते कहीं कुछ हो गया तो मुँह काला हो जाएगा। लेने के देने पड़ जाएँगे। चुपचाप सो जाओ। जो भी करना हो, सुबह करना।’ इसलिए हमारा तो सारा जश्न धरा का धरा रह गया मम्मी। 

‘उदय तिथि’ वाले मुद्दे पर उत्तमार्द्धजी भी मेरी पार्टी में हैं। सो, तथागत का जवाब सुनकर हँस-हँस कर दोहरी हो गई। इसी दशा में, बड़ी मुश्किल से मुझे सारी बात बताई।  हँसी तो मुझे भी आई किन्तु खुशी ज्यादा हुई। नहीं जान पाया (न ही जानना चाहा) कि मुकेश ने यह सब मानसिकता के अधीन किया या व्यावहारिकता के अधीन। किन्तु बात मेरे मन की थी। मेरी तबीयत खुश हो गई।  मैंने फौरन ही मुकेश को फोन लगाया और इस ‘नेक काम’ के लिए खूब प्रशंसा की और बधाइयाँ दी। मेरी मनःस्थिति और बधाई देने का कारण जान कर मुकेश भी खूब खुश हुआ और हँसा। मैंने कहा - ‘फटाफट तुम चारों का फोटू भेजो।’ उसने पूछा - ‘क्या करोगे जीजाजी?’ मैंने कहा - ‘क्या करूँगा? अरे भई! तेने वो काम किया जो मैं चाहता हूँ कि सब करें। तू मेरे सामने होता तिलक लगा कर शाल-श्रीफल से तेरा सम्मान कर देता। मुझसे खुश समेटी नहीं जा रही। अपनी खुशी बाँटूँगा। उसी के लिए फोटू चाहिए। फटाफट भेज।’

मुकेश ने अभी ही फोटू भेजा और उतनी ही फुर्ती से मैं अपनी खुशी का विस्तार कर रहा हूँ।

नेक काम में भला देर क्यों?
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(चित्र में बॉंये  से तन्‍मय, मुकेश, मंजू और नन्‍दन)

मेरा कस्बा: मेरा देश

मेरे कस्बे में हुई  कुछ कार्रवाइयों का संक्षिप्त ब्यौरा दे रहा हूँ। मेरी इन बातों से जिज्ञासु मत हो जाइएगा वर्ना यह जानकर पछताएँगे कि यह सब तो आपके यहाँ भी हो रहा है। होता चला आ रहा है।
कुछ व्यापारिक/वाणिज्यिक अट्टालिकाओं पर कलेक्टर की नजर पड़ गई।  सबके निर्माण में स्वीकृत मानचित्र का उल्लंघन किया गया था। पार्किंग की व्यवस्था तो एक में भी नहीं पाई गई। कलेक्टर ने सबको लाइन में लगा दिया। कुछ को कठोर कार्रवाई का नोटिस दिया गया तो कुछ पर कुछ दिनों की तालाबन्दी भी हो गई। कस्बे में हंगामा मच गया। लेकिन दुःखी होनेवाले कम, खुश होनेवाले अधिक। ऐसे लोग सबसे ज्यादा खुश जो आज तक इनमें नहीं गए और शायद ही कभी जाएँगे। आर्थिक विषमता सेे उपजे सामाजिक, सरकारी व्यवहार के चलते हर कोई इसी बात से खुश था कि ‘करोड़ोपतियों’ पर हाथ डाला गया। हम सुखी नहीं तो वो भी सुखी क्यों? खुशी इस बात की भी रही कि लिख कर देने के लिए किसी को बुरा नहीं बनना पड़ा और मनचाही हो गई। लोग कलेक्टर के गुणगान में मगन हो गए।
मेरे कस्बे की एक सड़क है - लक्कड़पीठा सड़क। यहाँ एक छोटा सा देवालय है। आबाल-वृद्ध नर-नारी आते-जाते यहाँ माथा टेकते हैं। वार-त्यौहार पर धूमधाम से आस्था जताते हैं। देवालय से लगभग सटी हुई, देशी शराब की दुकान है। दुकान ने देवालय को लगभग ढक लिया है। परिणामस्वरूप देवालय जानेवालों को दारू की दुकान कुछ इस तरह से पार करनी पड़ती है मानो ठेकेदार से अनुमति ले रहे हों। साँझ घिरने के बाद देवालय आने-जानेवाले इसके देवता को माथा टेकने से पहले अपने-अपने देवता को याद करते हैं। महिलाएँ, बच्चियाँ तो तब जाने की सोच भी नहीं सकतीं।
दारू की इस दुकान को हटाने के लिए लोग महीनों से आन्दोलनरत हैं। बीसियों बार लिख कर कलेक्टर को दे चुके हैं। सड़क पर उतर चुके हैं। बीच में तो क्रमिक धरना-अनशन शुरु हो गया था। अखबार भी इस सबमें हिस्सेदारी कर चुके हैं। लेकिन दुकान जस की तस बनी हुई है।
इसी तरह गाँधी नगर में देशी शराब की एक दुकान है। दुकान के ठीक सामने, सड़क की दूसरी ओर सरकारी स्कूल है। कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि स्कूल के सामने दारू की दुकान है। ‘गाँधी नगर’ नाम से ही मालूम हो जाता है कि इस स्कूल में उन्हीं लोगों के बच्चे पढ़ते हैं जो अपने बच्चों को ढंग-ढांग के, अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में नहीं भेज सकते। स्कूल की खिड़की से दारू की दुकान, ग्राहक, आसानी से, बिना किसी कोशिश के नजर आते हैं। तेजी से बजनेवाले रेडियो के गाने स्कूल में सुनाई पड़ते हैं। कानून है कि स्कूल से एक निर्धारित सीमा में दारू की दुकान नहीं हो सकती। यह दुकान इस आदेश को ‘टिली, ली, ली, ली’ करती हुई अंगूठा दिखा रही है। प्रधानाध्यापिका और अध्यापिकाएँ दसियों बार जिला शिक्षा अधिकारी को लिख कर दे चुकी हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं। पालकों को गुस्सा आ गया। हंगामा किया। अखबारों ने हाथों-हाथ लिया। जिला शिक्षा अधिकारी बोले - ‘मुझे तो पता ही नहीं।’ सरकार बोली- ‘हमारे पास तो कोई कागज-पत्तर नहीं आया। आया तो देखेंगे।’ अखबारों ने कलेक्टर पर तंज कसा - ‘मॉलों, बड़ी दुकानों (याने ‘अट्टालिकाओं’) पर तो बिना किसी आवेदन के कार्रवाई! लेकिन स्कूल के मामले में आवेदनों के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं।’ सरकार हरकत में आई। छोटे-बड़े अफसर भेजे गए। उन्होंने फिर से आवेदन लिया, दूरी नपवाई, पंचनामा बनाया, रिपोर्ट जिला शिक्षाधिकारी को दी, कलेक्टर को पहुँची। कलेक्टर ने ‘प्रकरण का परीक्षण’ कराया और कहा - ‘फौरन दुकान हटाना सम्भव नहीं। अप्रेल के बाद देखेंगे।’ हंगामा हो गया। लोग विधायकजी के पास पहुँचे। उन्होंने भरोसा दिलाया किन्तु अब तक कुछ नहीं हुआ। लगता है, कलेक्टर की बात सही निकलेगी। 

‘केक्टस गार्डन’ के लिए प्रख्यात सैलाना की ओर जानेवाली सड़क पर एक कॉलोनी बननी शुरु हुई। जोरदार अखबारबाजी हो गई। कलेक्टर ने जाँच करवाई। उजागर हुआ कि सरकारी जमीन पर सड़क बना ली गई है और एक सरकारी नाले को अनुकूलता के लिए मोड़ दिया गया है। अखबारी खबरों के मुताबिक इस सब में एक एसडीएम, एक गिरदावर और नगर एवम् ग्रामीण नियोजन दफ्तर के अधिकारी पहली ही नजर में संलिप्त अनुभव हो रहे हैं। सड़क तोड़ दी गई। नाला मुक्त करा दिया गया। कलेक्टर ने विस्तृत जाँच के बाद किसी भी दोषी को न बख्शने की घोषणा की है। लोगों को भरोसा हो गया है कि किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा।
एक दिन अखबारो में अचानक खबर छपी-कृषि उपज मण्डी की उस जमीन पर कॉलोनी बननी शुरु हो गई है जो मण्डी के विस्तार के लिए सुरक्षित थी। कॉलोनाइजर ने कहा कि उसके पास समस्त सम्बन्धित विभागों की आवश्यक अनुमतियाँ हैं। नगर एवम् ग्रामीण नियोजन विभाग ने कहा कि मण्डी सचिव के अनापत्ति पत्र के आधार पर अनुमति दी गई। मण्डी सचिव ने कहा कि उसके उसने तो अनुपत्ति पत्र जारी ही नहीं किया। कलेक्टर ने फाइल अपने पास बुलवाई। पूछताछ की। जाँच बैठा दी है। मण्डी के कुछ डायरेक्टर जिस तरह से हरकत में आए हैं उससे लग रहा है कि जमीन वापस मण्डी को मिल जाएगी। लेकिन मेरे कस्बे को भरोसा है गैरकानूनी काम करने के लिए कि किसी पर आँच नहीं आएगी। ऐसा आज ही होना शुरु नहीं हुआ। आजादी के बाद से ही हो रहा है। पूरा देश मेरा कस्बा बना हुआ है।
एक लोक कल्याणकारी शासक स्वयम् को केन्द्र में नहीं रखता। वह आज्ञाकारी, शीलवान प्रशासकों को अपनी बुद्धि और विवेक से नियन्त्रित कर मनोनुकूल परिणाम प्राप्त करता है। एक चतुर प्रशासक, आज्ञाकारी और शीलवान बने रहकर अपने शासक को संचालित और नियन्त्रित करता है। प्रत्येक नियन्त्रक, अपने से कम समझ अधीनस्थों के जरिए शासन करता है और प्रत्येक कम समझ अधीनस्थ अपने नियन्त्रक को  दुनिया का सर्वाधिक बुद्धिमान घोषित करते रहने की समझदारी बरत कर अपने नियन्त्रक को मूर्ख बनाये रखता है। कालान्तर में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने ऐसी शालीन, आलंकारिक सुभाषित सूक्तियों का सहज भाष्य इस तरह किया - ‘हमारे मन्त्री नौकरों के नौकर होते हैं।’ याने सरकार जिन कलेक्टरों को नौकरी में रखती है, हमारे मन्त्री उन्हीं के कहे पर चलने लगते हैं। इससे पहले पर्किंसन्स नामक एक अंग्रेज यही बात कह चुका था - ‘भारत सरकार के मन्त्री, चिह्नित स्थानों पर हस्ताक्षर करते हैं।’ (इण्डियन मिनिस्टर्स पुट देयर सिगनेचर्स ऑन डॉटेड लाइन्स।) किन्तु जब अक्षम शासक धूर्तता बरतने लगे, उतने ही धूर्त प्रशासकों की सहायता से खुद को स्थापित करने के एममेव लक्ष्य में जुट जाए तब हतप्रभ, विवश लोग अवाक् मूक दर्शक की स्थिति में आ जाते हैं।
हमने अंग्रेजों से तो मुक्ति पा ली लेकिन अंग्रेजीयत से नहीं। भारत में बीबीसी के सम्वाददाता रहे, प्रख्यात पत्रकार मार्क टली, ने सेवानिवृत्ति के बाद भारतीय नागरिकता ले कर भारत को ही अपना घर बना लिया है। भारतीय प्रशासनिक प्रणाली पर कुछ बरस पहले उनकी टिप्पणी थी कि कलेक्टर के रूप में अंग्रेज आज भी भारत पर राज कर रहे हैं।
मार्क टली की बात आज और अधिक प्रभावशीलता से अनुभव हो रही है। हिन्दू-मुसलमानों को ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अंग्रेजों की पहचान रही है। अंग्रेज अघोषित रूप से यह काम करते थे। आज तो सरकारी तौर पर खुले आम हो रहा है। वे भी सरकार में बने रहने के लिए करते थे। आज भी इसीलिए यह हो रहा है।
आगे-आगे देखिए! होता है क्या।
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(दैिनक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में 23 फरवरी 2.17 को प्रकाशित)

दशकों बाद मुझ तक पहुँचा ‘नेता’

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी की कही बात फौरन समझ में नहीं आती। जब समझानेवाला ही समझाने में मुश्किल अनुभव करे तो भला समझनेवाला कैसे समझे? स्थिति तब और तनिक कठिन हो जाती है जब, समझनेवाला लिहाज के मारे दूसरी बार पूछ भी न सके। तब, वह पल टल तो जाता है किन्तु दोनों ही उलझन में बने रह जाते हैं।

ऐसा ही एक बार हम दोनों भाइयों के बीच हो गया। न मैं समझ सका, न वे समझा पाए। लेकिन उस पल को टालने के लिए उन्होंने जो कहा था वह अब, लगभग सैंतालीस बरस बाद मुझ पर हकीकत बन कर गुजर गया।

यह सत्तर के दशक की बात होगी। मन्दसौर से एक साप्ताहिक अखबार शुरु हुआ। उद्घाटन किया इन्दौर के जुझारू प्रतीक श्री सुरेश सेठ ने। कार्यक्रम की अध्यक्षता दादा (श्री बालकवि बैरागी) ने की। मैं उसका संस्थापक सम्पादक बना। अखबार को लोकप्रिय बनाने के लिहाज से दादा से आग्रह किया कि वे अखबार के पाठकों के प्रश्नों के उत्तर दें। उन्होंने हाँ भर दी। अखबार को जो पत्र मिलते, वे दादा को पहुँचा दिए जाते। उनकी सुविधा से उत्तर आ जाते। स्तम्भ लोकप्रिय हो चला। पाठकों के प्रश्नों की संख्या सप्ताह-प्रति-सप्ताह बढ़ने लगी। इन्हीं में एक प्रश्न आया - ‘विश्वसनीय नेता की क्या पहचान?’ यह प्रश्न मेरी नजर में चढ़ गया। दादा को भेजकर उनके उत्तर की राह देखने लगा। 

दादा के जवाबों का लिफाफा आया तो मैंने अपने सारे काम छोड़कर उसे टटोला। दादा ने जवाब लिखा था - ‘जो अपने कार्यकर्ताओं, अनुयायियों के पीछे खड़ा रहने, उनके पीछे-पीछे चलने की हिम्मत कर सके।’ बात मेरी समझ में बिलकुल ही नहीं आई। उन दिनों आज जैसी फोन-सुविधा तो थी नहीं। दादा का कोई ठौर-ठिकाना नहीं। ‘कविता-काँग्रेस-कवि सम्मेलन’ के चलते आज यहाँ तो कल वहाँ। उनसे बात तब ही हो सकती थी जब या तो वे खुद फोन करें या मन्दसौर आएँ। जवाब को तो छपना था। छाप दिया गया। लेकिन मैं अधीरता से दादा के फोन की या उनके आने की राह देखने लगा।

मेरी तकदीर अच्छी थी कि कुछ ही दिनों बाद अचानक ही वे मन्दसौर आ गए। हम दोनों मिले तो मैंने उनका जवाब समझना चाहा। उन्होंने कोशिश तो की किन्तु न वे खुद ही सन्तुष्ट हो पाए न ही मैं। मैंने कहा - ‘नेता तो सदैव आगे ही रहता है। यह शब्द तो बना ही नेतृत्व से है। ऐसे में पीछे खड़ा रहनेवाला या चलनेवाला भला नेता कैसे हो सकता है?’ मैंने उनसे कोई उदाहरण देकर समझाने को कहा। वे विचार में पड़ गए। मैंने हिम्मत करके कहा - ‘आपने शायद जवाब देने के लिए जवाब दे दिया। ऐसा होता नहीं होगा।’ विचारमग्न स्थिति में ही वे बोले - ‘नहीं। यह कोई टालनेवाली बात नहीं है। यह मेरा विश्वास तो है ही, एक विचार है जिसके उदाहरण शायद ही मिले। आज मैं कोई उदाहरण नहीं दे पा रहा हूँ लेकिन अपने जवाब पर कायम हूँ। आज न सही, कभी ऐसा कोई मौका आएगा जरूर जब तुझे मेरी बात समझ में आएगी।’ मैं क्षणांश को भी सन्तुष्ट नहीं हुआ किन्तु दूसरी बार पूछने की न तो स्थिति थी न ही  हिम्मत।

किन्तु अभी-अभी, दो दिन पहले दादा की बात सच साबित हो गई। मेरा दिमाग झनझना गया। रोंगटे खड़े हो गए।

मध्य प्रदेश के वाणिज्यिक कर विभाग के सेवा निवृत्त एक बड़े अधिकारी श्री रमेश भाई गोधवानी ने वाट्स एप पर मुझे एक वीडियो कतरन भेजी। अन्तरिक्ष वैज्ञानिक, भारत रत्न डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम की, एक मिनिट की इस वीडियो कतरन ने दशकों पुरानी मेरी जिज्ञासा एक झटके में हल कर दी। मुझे मिलने के अगले ही दिन से यह कतरन फेस बुक पर भी आ गई है। हममें से अधिकांश अब तक इसे देख चुके होंगे।

इस कतरन में डॉक्टर कलाम अपना एक अनुभव सुनाते हुए बताते हैं कि 1979 में वे, उपग्रह एसएलवी-3 के प्रोजेक्ट डायरेक्टर, मिशन डायरेक्टर थे। प्रक्षेपण करते समय कम्प्यूटर के पर्दे पर दो शब्द चमके - ‘डोण्ट लांच।’ लेकिन डॉक्टर कलाम कहते हैं - ‘मैंने इसकी अनदेखी कर दी और उपग्रह प्रक्षेपित कर दिया। लेकिन वह अपनी कक्षा में स्थापित होने के बजाय बंगाल की खाड़ी में गिर गया।’ डॉक्टर कलाम ने कहा - प्रक्षेपण सफल होता तो मैं बात करता। लेकिन असफल हो गया। अब क्या बात करूँ? लेकिन तभी, भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चेयरमेन डॉक्टर सतीश धवन आए और बोले - ‘चलो, पत्रकारों से बात करते हैं।’ मैं घबरा गया। पता नहीं क्या होगा? मुझे अपराधी घोषित कर दिया जाएगा। 

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर कलाम कहते हैं - उन्होंने (डॉक्टर धवन ने) पत्रकारों से कहा - ‘हम असफल हुए हैं। लेकिन मैं अपनी टीम के साथ हूँ और उनका समर्थन करता हूँ। हमारी टीम बहुत बढ़िया टीम है। हम अगले वर्ष सफल होंगे।

और इसके बाद डॉक्टर कलाम ने जो कहा, उसने मेरे बरसों की अनुत्तरित कुँवारी जिज्ञासा को सुहागन कर दिया। डॉक्टर कलाम कहते हैं - अगले वर्ष प्रक्षेपण कामयाब रहा। डॉक्टर धवन आए और मुझसे कहा - ‘जाओ! पत्रकार वार्ता को सम्बोधित करो। वीडियो कतरन, डॉक्टर कलाम के इस वाक्य से समाप्त होती है - ‘नेता वो जो असफलता की जिम्मेदारी खुद ले और सफलता का श्रेय अपने सहयोगियों को दे।’ 

इसके बाद मेरे लिए कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रह जाता। अपने आसपास देखता हूँ तो ‘नेता’ को लेकर अपने समय के अभाग्य पर क्षुब्ध होता हूँ। जिस भारतीय महानता की हम दुहाइयाँ देते हैं उसके चलते तो ऐसे उदाहरण हमारे लिए ‘आम’ होने चाहिए किन्तु ऐसा है नहीं। आज तो ऐसे उदाहरण ‘दुर्लभों में दुर्लभ’ हो गए हैं। 

बाकी की तो मैं नहीं जानता। अपनी कह पा रहा हूँ - ‘मैं भाग्यवान हूँ कि एक भुक्तभोगी-नायक द्वारा ऐसे उदाहरण का बखान अपनी आँखों देख पाया, कानों सुन सुन पाया।

समय हर बात का जवाब देता तो है किन्तु अपनी शर्तों पर। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना शायद उसकी शर्तों में से एक है।

धन्यवाद रमेश भाई गोधवानी। 
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(मेरा अंग्रेजी ज्ञान शून्यवत है। मैंने अपनी सूझ-समझ के अनुसार, डॉक्टर कलाम के वक्तव्य का भावानुवाद करने की कोशिश अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से की है। यदि कोई चूक हुई हो तो मैं करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि मेरी चूक दुरुस्त करने में  मदद करने का उपकार करें। प्रस्तुत चित्र गूगल से लिया है जिसका कोई वाणिज्यिक उपयोग नहीं किया गया है।)

औरत की दोस्त होती है औरत

मेरी धारणा है कि बुराई के मुकाबले अच्छाई ही ज्यादा है किन्तु जिक्र सदैव बुराईवाले अपवादों का ही होता है। तब हमें लगता है, हमारे चारों ओर बुराई ही बुराई है। लेकिन हकीकत में ऐसा है नहीं।

औरतों की बदहाली की बात जब भी होती है तब ‘औरत ही औरत की दुश्मन होती है।’ वाला जुमला कम से कम एक बार तो सुनने को मिल ही जाता है। लेकिन मुझे सदैव लगता रहा है कि ऐसा केवल अपवादस्वरूप हर होता है। मेरी धारणा है कि ‘औरत ही औरत की मित्र होती है।’ मेरी धारणा को बलवती करता एक उदाहरण मुझे कल ही मिला। 

बड़े बेटे वल्कल का, पूना से, वाट्स एप पर भेजा (यहाँ प्रस्तुत) यह सन्देश मुझे बिलकुल ही समझ नहीं पड़ा। पूछने पर उसने जो कुछ बताया वह मुमकिन है, वह सबके लिए नया न हो, मेरे लिए तो नया और कुछ सीमा तक अनूठा  ही रहा। इसने ‘औरत की दोस्त होती है औरत’ की मेरी धारणा भी मजबूत की। 

वल्कल ने बताया कि परस्पर परिचित कुछ महिलाओं ने ’पुला’ (पुणे लेडीज) नाम से, वाट्स एप पर ग्रुप बना रखा है। इस ग्रुप में महिलाओं के ऐसे ही अन्य ग्रुपों से तनिक हटकर भी कुछ होता है। ये महिलाएँ अपनी गृहस्थी से अलग हटकर चलाए जा रहे अपने उपक्रम की जानकारी देती हैं। यह उपक्रम यदि किसी के लिए उपयोगी/सहयोगी होता है तो वे इसे काम में लेकर प्रति शुक्रवार अपनी-अपनी समीक्षा प्रस्तुत करती हैं। उदाहरणार्थ, हमारी बहू प्रशा बच्चों के काम आनेवाला कुछ सामान बेचती है। उसने अपने इस काम की जानकारी ‘पुला’ पर दी। ग्रुप की एक महिला को, अपने परिचित परिवार के दो वर्षीय एक बच्चे के लिए भेंट देने के लिए प्रशा का बनाया ‘भीम कम्बल’ उपयुक्त लगा। उस महिला ने फोन पर अपना आर्डर दिया। सम्भवतः भेंट दिया जानेवाला प्रसंग तनिक जल्दी रहा होगा। उस महिला ने अपनी ‘तत्काल आवश्यकता’ जताई। प्रशा ने उस महिला की आवश्यकतानुसार समय पर कम्बल पहुँचा दिया। अगली ‘शुक्रवार समीक्षा’ में प्रशा को यह प्रशंसा टिप्पणी प्राप्त हुई।

वल्कल के मुताबिक ऐसे ग्रुप कॉलोनी, मुहल्ला स्तर पर बने हुए हैं। मुमकिन है, अपने-अपने वर्गीय-स्तर के मुताबिक महिलाओं ने नगर स्तर पर भी ऐसे  ग्रुप बना रखे हों। महिलाएँ परस्पर खरीददारी कर एक-दूसरे के उपक्रम को सहयोग कर, आर्थिक सम्पन्नता में भी भागीदारी करती हैं। सामान की यह खरीदी-बिक्री, ग्रुप के प्रभाव क्षेत्र के अनुसार कॉलोनी, मुहल्ला और नगर स्तर पर होती है। किन्तु मेरे हिसाब से यह बात आर्थिक सम्पन्नता से कहीं आगे बढ़कर महिलाओं में आत्म विश्वास, खुद की क्षमता पर भरोसे की भावना जगाती-बढ़ाती होगी और फुरसत के समय को ‘उत्पादक समय’ में बदलने को प्रेरित करती होगी। 

वल्कल ने बताया कि ऐसे ग्रुपों पर महिलाएँ अपनी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशने की कोशिशें भी करती हैं। उदाहरणार्थ, कोई महिला अपने बच्चे के स्कूल से सन्तुष्ट नहीं है तो वह अपनी बात यहाँ कहती है। मालूम होता है कि वह अकेली उस समस्या से नहीं जूझ रही। तब ऐसी ‘समान पीड़ित’ महिलाएँ एकजुट होकर स्कूल प्रबन्धन से, अपने ग्रुप की जानकारी देकर बात करती हैं। स्कूल प्रबन्धन को महिलाओं की यह सामूहिकता भयभीत करती है। उन्हें लगता है कि ग्रुप की महिलाओं के जरिए, पूरे शहर में उनकी बदनामी न हो जाए। लिहाजा वे बात अनसुनी नहीं कर पाते। कोई महिला अपने बच्चों का स्कूल बदलना चाहती है तो उसे अन्य स्कूलों के बारे में फौरन ही जानकारी मिल जाती है। 

मैंने अब तक सोशल मीडिया की बुराइयों और उससे उपजे कष्टों के बारे में खूब सुना था। कुछ मामलों में भुक्त-भोगी भी हूँ। किन्तु ऐसे सार्थक सदुपयोग के बारे में पहली ही बार जाना। इसीलिए, यह सब यहाँ बताने से खुद को रोक नहीं पाया। 

यह सब पढ़कर आपको प्रशा के बेचे जानेवाले सामान के बारे में कोई उत्सुकता हो तो उससे मोबाइल नम्बर पर 90096 47745 सम्पर्क कर विस्तार से जाना जा सकता है। मैं भी उससे पूछूँगा। नहीं जानता कि वह क्या-क्या सामान बेचती है। 
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निरपेक्षता का ‘सुमन भाष्य’

शुरु में ही साफ-साफ जान लीजिए, यह आलेख अम्बरीश कुमार पर बिलकुल ही नहीं है।मैं उन्हें नहीं जानता। पहचानता भी नहीं। आज तक शकल नहीं देखी। हाँ नाम जरूर सुना, पढ़ा है। तब से, जब वे जनसत्ता में हुआ करते थे। गए कुछ समय से फेस बुक पर उनसे जरूर सम्पर्क बना है। कभी-कभार मेसेंजर पर उन्हें सन्देश दे देता हूँ। वे मेरे कहे पर ध्यान देते हैं और जवाब भी। उनकी पोस्टें रुचिपूर्वक पढ़ता हूँ। लगता है, मैं उनके जैसा सोचता हूँ या वे मुझ जैसा। जनसत्ता से ओमजी (थानवी) की सेवानिवृत्ति के पहले और बाद में (ओमजी को लेकर) चली बहस में ओमजी पर उनकी तीखी, प्रतिकूल, कड़वी टिप्पणियाँ कभी अच्छी नहीं लगीं। यह मजे की बात है कि मैं ओमजी से भी आज तक नहीं मिला न ही कभी सम्पर्क हुआ। उनका लिखा मुझे झनझना देता है। उनकी सेवा निवृत्ति के बाद दो-एक बार उनसे, मेसेंजर सन्देशों का आदान-प्रदान हुआ। अम्बरीश कुमार के मुकाबले ओमजी मुझे मेरे अधिक नजदीक, अधिक अनुकूल लगे। लेकिन यह आलेख ओमजी पर भी नहीं है न ही इन दोनों के जगजाहिर अन्तर्सम्बन्धों को लेकर। 

वस्तुतः, 15 फरवरी को फेस बुक पर अम्बरीश कुमार का (यहाँ प्रस्तुत) स्टेटस पढ़कर, कोई (कम से कम) पचास बरस पहले सुनी, सुमनजी की कुछ बातें याद आ गईं। सुमनजी याने अपने आदरणीय डॉक्टर शिवमंगलसिंहजी सुमन। 

जगह तो अब याद नहीं आ रही किन्तु बात इन्दौर की है। दादा (श्री बालकवि बैरागी) और सरोज भाई (डॉक्टर सरोज कुमार) भी मौजूद थे। लेकिन ये दोनों किसी और से बातों में व्यस्त थे और सुमनजी किन्हीं दो सज्जनों से बात कर रहे थे। 
ये दोनों सज्जन सुमनजी से मिलने इन्दौर आए थे। किसी ग्रन्थ या स्मारिका के लिए उन्हें सुमनजी से एक लेख चाहिए था। सुमनजी उस ग्रन्थ/स्मारिका के प्रसंग और प्रयोजन की विस्तृत जानकारी चाह रहे थे। आगन्तुकों ने सुमनजी की जिज्ञासाएँ शान्त की और सुमनजी ने लेख लिखने की हामी भर दी। 

मनोरथ पूरा होने से आगन्तुक प्रसन्न थे। सुमनजी के चरण स्पर्श कर उन्होंने जाने की अनुमति ली। चलते-चलते उनमें से एक ने कहा - ‘गुरुदेव! लेख में निरपेक्षता बरतने की कृपा कीजिएगा।’ सुन कर सुमनजी ने अविलम्ब कहा - ‘सुनो! सुनो! रुको! इधर आओ।’ दोनों को लगा, कुछ गड़बड़ हो गई है। घबराहट और अनिष्ट की आशंका उनके चेहरों पर उभर आई। सहमे-सहमे कदमों से दोनों सुमनजी के सामने, हाथ बाँधे खड़े हो गए। अपने मस्तमौला अन्दाज में सुमनजी दोनों को लड़ियाते हुए बोले - ‘अरे! घबराओ मत। लेकिन भाई! यह हमसे नहीं हो सकेगा।’ दोनों को लगा, सुमनजी लेख लिखने से इंकार कर रहे हैं। निरपेक्षता की माँग करनेवाला गिड़गिड़ाते स्वरों में बोला - ‘सर! गलती हो गई। माफ कर दीजिए। लेख से इंकार मत कीजिए। आपका यह कृपा प्रसाद तो हमें चाहिए ही चाहिए।’ सुमनजी जोर से हँसे और बोले - ‘अरे भाई! हमने लिखने से इंकार कब किया? वो तो हम लिख देंगे। लेकिन भाई! यह निरपेक्षता हम नहीं बरत पाएँगे।’ दोनों की साँस में साँस आई। साथ-साथ आँखें भी गीली हो आईं। मानो जीवन-धन नष्ट हो जाने से बच गया हो, कुछ इस तरह बोले - ‘जैसा आप ठीक समझें गुरुदेव। हमें तो बस! लेख प्रदान कर दीजिएगा।’ सुमनजी फिर हँसे। बोले - ‘पूछोगे नहीं कि हम निरपेक्षता क्यों नहीं बरतेंगे?’ सामनेवाला हकला गया। शब्द गले में घुट गए। बाहर नहीं निकल पाए। अपनी रौ में बहते हुए सुमनजी बोले - ‘कई बात नहीं। हम ही बता देते हैं। तुम्हारे काम आएगी। सुन लो।’ दोनों मानो मन्त्र-बिद्ध-जड़ हो गए हों। 

अपने अन्दाज में सुमनजी ने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि हम सब सापेक्षिक हैं। कोई निरपेक्ष नहीं होता। चाह कर भी नहीं हो पाता। हम सब अपनी-अपनी धारणाओं, अपने-अपने आग्रहों के साथ जीवन जीते हैं। हम जब खुद के निरपेक्ष होने की बात करते हैं तो निरपेक्ष नहीं होते। हम एक पक्ष बनकर ही विवेचन कर, निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। किसी और की वही बात हमें निरपेक्ष लगती है जो हमारी धारणा, हमारे आग्रह से मेल खाती है। वास्तव में निरपेक्ष होने के लिए हमें श्रीमद्भागवत गीता में योगीराज श्रीकृष्ण द्वारा बताए ‘साक्षी भाव’ को आत्मसात करना पड़ेगा जो आप-हम जैसे सामान्य मनुष्यों के लिए लगभग असम्भव ही है। अपनी बात का भाष्य कर सुमनजी बोले - ‘इसलिए भाई! हमसे निरपेक्षता की उम्मीद मत करना।’ दोनों आगन्तुकों की तन्द्रा टूटी। शीश नवाया, एक बार फिर सुमनजी के चरण स्पर्श किए और बगटुट निकल लिए।

पचास बरस पहले सुमनजी ने जो भाष्य किया था, अम्बरीश कुमार के स्टेटस ने कुछ इस तरह याद दिला दिया मानो सुमनजी की बात सुने बिना ही सुमनजी को दोहरा रहे हों।

अच्छा लगा। सुमनजी को याद करके भी और उनकी कही बात को फिर से सुनकर भी।
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पेढ़ी के जेवर होते हैं दलाल

दलाल कथा - 04

इससे पहले कि मैं (दलाल से जुड़ा) मेरेवाला किस्सा सुनाता, एक किस्सा अपने पाँवों चलकर मुझे तक आ पहुँचा। वही किस्सा, दो कारणों से पहले सुना रहा हूँ। एक कारण तो यह कि मेरावाला मेरा आँखों देखा है जबकि मुझ तक आया यह किस्सा ‘आपबीती’ है। दूसरा कारण, अपनी पूँजी सुरक्षित रख, पहले परायी पूँजी पर अपनी दुकानदारी कर लेने का लालच। 

किस्सा सुनने के लिए दो काल्पनिक नाम तय कर लेते हैं। एक नाम दलाल का और दूसरा सेठ का। दलाल का नाम जीतमलजी और सेठजी का नाम बालचन्दजी। इन्हें हम जीतूजी दलाल और बालू सेठ के नाम से जानेंगे। मेरी, अब तक की तीनों ‘दलाल कथाएँ’ पता नहीं कैसे जीतूजी के पोते तक पहुँची। उसने अपने दादाजी को पढ़कर सुनाईं। इन्हें सुनकर ही जीतूजी ने मुझे तलाशा और मुझ तक पहुँचे। उनकी अवस्था इस समय बयासी वर्ष है। अपने जमाने में वे कड़क और दमदार दलाल रह चुके हैं। 

जीतूजी के मुताबिक यह किस्सा, दलाल के रूप में उनके शुरुआती काल का है। साफ-सुथरा काम और ईमानदारी आदमी को पहचान, प्रसिद्धि  दिलाती है और आत्म सन्तोष प्रदान करती है। किन्तु सयाने लोग कह गए हैं कि पैसा और प्रसिद्धि हजम करना आसान नहीं होता। इसलिए आदमी के अहंकारी होने की आशंकाएँ बराबर बनी रहती हैं। जीतूजी को पता ही नहीं चला कि वे कब इस आशंका के शिकार हो गए।

लेकिन ऐसा केवल जीतूजी के साथ ही नहीं हुआ। बालू सेठ भी इसके शिकार बन बैठे। बीच बाजार में दुकान थी। खूब साखवाली पेढ़ी। रामजी राजी थे। व्यापार अटाटूट। लक्ष्मीजी मानो बालू सेठ पर लट्टू हो कर ‘चंचला’ से ‘स्थिर’ बन गई हों। लेकिन वह व्यापार ही क्या जिसमें पूँजी की जरूरत न बनी रहे! सो जीतूजी और जीतूजी जैसे कुछ और दलालों का आना-जाना बालू सेठ की पेढ़ी पर बना रहता। 

लेकिन एक दिन उनके मन में ऐसा विचार आया जिसके लिए जीतूजी का कहना रहा - ‘लक्ष्मीजी ने तो बालू सेठ की तिजोरी में वास कर लिया लेकिन उनके वाहन ने बालू सेठ के दिमाग पर सवारी कर ली।’ एक दिन, अचानक ही जीतूजी से कहा - ‘जीतूजी! दलाल, दलाल तो होता है लेकिन वह कर्ज वसूली करनेवाला भी होता है। आप भले ही मेरे लिए पूँजी लेकर आओ लेकिन देखनेवाला तो उल्टा भी समझ सकता है। लोग यह समझें कि कोई वसूली करनेवाला मेरी पेढ़ी पर आया है, यह मुझे अच्छा नहीं लगता। आगे से आप मत आना। मुझे खबर कर देना। मैं रकम लेने के लिए मुनीमजी को भेज दूँगा।’ 

जीतूजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। बालू सेठ ने यह क्या कह दिया? उन्हें पता भी है कि उनकी इस बात का क्या मतलब निकलेगा? अविश्वासी नजरों से बालू सेठ को घूरते हुए बोले - ‘बोलने से पहले थोड़ा सोच लिया करो सेठ। आपको पता भी है कि आपने क्या कह दिया?’ बालू सेठ ठसके से बोले - ‘सोच कर ही कहा। आप मत आना। मैं मुनीमजी को भेज दूँगा।’ जीतूजी ने दुगुने ठसके से कहा - ‘एक बार फिर सोच लो सेठजी। इसी तरह व्यापार करना है तो दलालों के लिए दुकान के दरवाजे खुले रखना पड़ेंगे। दलालों का आना-जाना बन्द कर दिया तो लोग आपका बाजार से उठा देंगेे।’ बालू सेठ को जैसे करण्ट लग गया। हाथ का काम छोड़ तनिक गुस्से में बोले - ‘क्या मतलब आपका? मैं किसी की मेहरबानी से बाजार में बैठा हूँ?’ उसी ठसके से जीतूजी बोले - ‘किसी की मेहरबानी से तो नहीं बैठे लेकिन आप-दुश्मनी करके लोगों को मौका दे रहे हो।’ जीतूजी के तेवर और ठसका देख बालू सेठ एकदम नरम पड़ गए। बाले- ‘मैं तो सबकी बोलती बन्द करने का काम कर रहा हूँ और आप एकदम उल्टी बात कर रहे हो!’ अब जीतूजी दुगुने नरम हो गए। कुछ इस तरह बोले मानो मक्खन में छुरी गिर रही हो - ‘सेठजी! बाजार में बैठना हो तो बाजार का चाल-चलन मानना पड़ता है। बाजार के रीति-रिवाज निभाने पड़ते हैं। आपने तो एक झटके में दलालों का रास्त बन्द करने की बात कह दी। लेकिन लोग देखेंगें-सुनेंगे कि पूँजी के लिए बालू सेठ के मुनीम दलालों के चक्कर काट रहे हैं तो लोग दुकान के सामने आकर ‘हुर्राट्ये’ लगाना (याने कि हूटिंग करना) शुरु कर देंगे। बैठना मुश्किल हो जाएगा। अगले ही दिन दरी-गादी झटकने की नौबत आ जाएगी। लक्ष्मीजी टूटमान (महरबान) है तो कदर करो।  आज कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसा कहना तो दूर, कहने की सोचना भी मत।’

बालू सेठ की मानो घिघ्घी बँध गई हो। कहाँ तो लोगों की बोलती बन्द करने चले थे और कहाँ खुद के ही बोल नहीं फूट रहे! पूरा शरीर पसीने में भीग गया और आँखे डबडबा आईं। बड़ी मुश्किल से बोले - ‘ठीक कह रहे हो जीतूजी। मेरी ही मति मारी गई थी जो ऐसी आपघाती बात कर बैठा। मेरी तकदीर अच्छी थी कि आपसे कही, किसी और से नहीं। आज आपके मुँह से साक्षात् भगवान बोले। आपके पाँव धोकर पीयूँ तो भी कम। मुझे माफ कर देना और इसी तरह आगे भी मेरा ध्यान रखना।’ कह कर बालू सेठ ने मानो जबरन खुद को गादी पर धकेला।

जीतूजी और पिघल गए। बोले - ‘ऐसा कुछ भी नहीं बालू सेठ! समझ लो ग्रह-नक्षत्र अच्छे थे। बुरी घड़ी टल गई। मैं आपसे न तो अलग हूँ न ही दूर। आप हो तो मैं भी हूँ।’ फिर मानो बाजार का चरित्र-सूत्र बखान किया - ‘भगवान की दया से सेठाणीजी के पास पेटी भर जेवर होंगे। जेवर  सेठाणीजी को राणी पदमणी (रानी पद्मिनी) ही नहीं बनाते, वो आपकी हैसियत की डोंडी  भी पीटते हैं। इसी तरह सेठजी! दलाल भी पेढ़ी के जेवर हैं। ये पेढ़ी की हैसियत भी बताते हैं और मान भी बढ़ाते हैं।’
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सतत् निष्ठापूर्ण आचरण से ही संस्कृति का बचाव

14 फरवरी की दोपहर होने को थी। मेरे एक उदारवादी मित्र के धर्मान्ध बेटे का फोन आया - ‘अंकल! पापा आपके यहाँ हैं क्या?’ मैं दहशत में आ गया। अपनी कट्टरता और धर्मान्धता के अधीन वह मुझे तो ‘निपटाता’ ही रहता है, अपने पिता को भी मेरी उपस्थिति में एकाधिक बार लताड़ चुका। 14 फरवरी को ऐसे ‘हिन्दू बेटे’ को अपने, ‘हिन्दू धर्म के दुश्मन’ पिता को तलाशते देख मन में आशंकाओं और डर की घटाएँ घुमड़ आईं। मैंने सहज होने की कोशिश करते हुए पूछा - ‘क्यों? सब ठीक तो है? कोई गड़बड़ तो नहीं?’ खिन्न स्वरों में उत्तर आया - ‘हाँ। सब ठीक ही है।’ मैंने पूछा - ‘कोई काम आ पड़ा उनसे?’ उसी उखड़ी आवाज में बेटा बोला - ‘हाँ। उनके पाँव पूजने हैं।’ डरे हुए आदमी को हर बात में धमकी ही सुनाई देती है। ‘पाँव पूजने’ का अर्थ मैंने अपनी इसी मनोदशा के अनुसार निकाला और घबरा कर पूछा - ‘अब क्या हो गया तुम दोनों के बीच?’ वह झल्ला कर बोला - ‘ऐसा कुछ भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हो। आज सच्ची में उनके पाँव पूजने हैं। वेलेण्टाइन डे के विरोध में आज हम लोग मातृ-पितृ दिवस मना रहे हैं।’ सुनकर, अनिष्ट की आशंका से मुक्त हो मैंने आश्वस्ति की लम्बी साँस तो ली लेकिन हँसी भी आ गई। बोला - ‘जिस बाप को हिन्दू विरोधी मानते हो, जिसे यार-दोस्तों के सामने, बीच बाजार हड़काते रहते हो, हिन्दुत्व की रक्षा के लिए आज उसी बाप को तलाश रहे हो?’ वह झुंझलाकर बोला - ‘मैं इसीलिए आपसे नहीं उलझता अंकल! आप सब जानते, समझते हो। पापा के दोस्त हो इसलिए चुप रहता हूँ। फालतू बात मत करो। पापा आपके यहाँ हो तो बात करा दो। बस!’ अगले ही पल हम दोनों एक-दूसरे से मुक्त हो गए।

समर्थन हो या विरोध, पाखण्ड के चलते प्रभावी नहीं हो पाता है। इसके विपरीत, ऐसी हर कोशिश अन्ततः खुद की ही जग हँसाई कराती है। किसी एक खास दिन या मौके के जरिए पूरी संस्कृति को, सामूहिक रूप से खारिज या अस्वीकार करने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। चूँकि निषेध सदैव आकर्षित करते हैं और प्रतिबन्ध सदैव उन्मुक्त होने को उकसाते हैं इसलिए ऐसी हर कोशिश हमसे हर बार उसी ओर ताक-झाँक करा देती है जिससे आँखें चुराने को कहा जाता है।

ऐसे ‘दिवस’ (‘डे’) मनाना पाश्चात्य परम्परा है। शुरु-शुरु मैं ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर चिढ़ता, गुस्सा होता था। किन्तु एक बार जब मैंने विस्तार से समझने की कोशिश की तो पाया कि मेरी असहमति तो ठीक है लेकिन मेरा चिढ़ना गैरवाजिब है। पश्चिम में सामूहिक परिवार की अवधारणा नहीं है। वहाँ बच्चों के सयाने होते ही माँ-बाप का घर छोड़ना बहुत स्वाभाविक बात होती है। इसके विपरीत, हम संयुक्त परिवार से कहीं आगे बढ़कर संयुक्त कुटुम्ब तक के विचार को साकार करने मेें अपना जीवन धन्य और सफल मानते हैं। एकल परिवार का विचार ही हमें असहज, व्यथित कर देता है। बेटे का माँ-बाप से अलग होना हमारे लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर अपमानजक लगता है। यह मनुष्य स्वभाव है कि वह उसीकी तलाश करता है जो उसके पास नहीं है। पराई चीज वैसे भी सबको ही ललचाती ही है। इसी के चलते हमारी अगली पीढ़ी को एकल परिवार की व्यवस्था ललचाती है। उदारीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चल पड़ने के बाद यह हमारे बच्चों की मजबूरी भी बनती जा रही है। ऊँचे पेकेजवाली नौकरियाँ अपने गाँव में तो मिलने से रहीं! बच्चों को बाहर निकलना ही पड़ता है। बचत की या माँ-बाप को रकम भेजने की बात तो दूर रही, महानगरों में जीवन-यापन ही उन्हें कठिन होता है। सीमित जगह वाले, किराये के छोटे मकान। माँ-बाप को साथ रख सकते नहीं और माँ-बाप भी अपने दर-ओ-दीवार छोड़ने को तैयार नहीं। हमारी जीवन शैली भले ही पाश्चात्य होती जा रही हो किन्तु भारतीयता का छूटना मृत्युपर्यन्त सम्भव नहीं। 

हमारी सारी छटपटाहट इसी कारण है। त्यौहारों पर बच्चों का घर न आना बुरा समझा जाता है। उनके न आ पाने को हम लोग बीसियों बहाने बना कर छुपाते हैं। पश्चिम में सब अपनी-अपनी जिन्दगी जीते हैं। बूढों की देखभाल की अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए ‘राज्य’ ने ‘ओल्ड होम्स’ की व्यवस्था कर रखी है। क्रिसमस वहाँ का सबसे बड़ा त्यौहार। बच्चे उस दिन अपने माँ-बाप से मिलने की भरसक कोशिश करते हैं। शेष तमाम प्रसंगों के लिए ‘डे’ की व्यवस्था है। होली-दीवाली पर हम जिस तरह अपने बच्चों की प्रतीक्षा करते हैं, उसी तरह ‘मदर्स/फादर्स/पेरेण्ट्स डे’ पर वहाँ माँ-बाप बच्चों के बधाई कार्ड की प्रतीक्षा करते हैं। बच्चे भी इस हेतु अतिरिक्त चिन्तित और सजग रहते हैं। कार्ड न आने पर माँ-बाप और न भेज पाने पर बच्चे लज्जित अनुभव करते हैं।

‘डे’ मनाने का यह चलन हम उत्सवप्रेमी भारतीयों के लिए अनूठा तो है ही, आसान भी है और प्रदर्शनप्रियता की हमारी मानसिकता के अनुकूल भी। ‘कोढ़ में खाज’ की तर्ज पर ‘बाजारवाद’ ने हमारी प्रदर्शनप्रियता की यह ‘नरम नस’ पकड़ ली। अब हालत यह हो गई है कि ऐसे प्रत्येक ‘डे’ पर हर साल भीड़-भड़क्का, बाजार की बिक्री, लोगों की भागीदारी बढ़ती ही जा रही है। पहली जनवरी को नव वर्ष की शुरुआत को सर्वस्वीकार मिल चुका है। केक और ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय परम्परा का हिस्सा बन गई  समझिए। बाबरी ध्वंस की जिम्मेदारी लेनेवाली, एकमात्र भाजपाई, हिन्दुत्व की प्रखर पैरोकार उमा भारती ने तो एक बार किसी हनुमान मन्दिर में केक काटा था।

वस्तुतः कोई भी परम्परा लोक सुविधा और लोक स्वीकार के बाद ही संस्कृति की शकल लेती है। सांस्कृतिक आक्रमण को झेल पाना आसान नहीं होता। हमलावर संस्कृति का विरोध कर अपनी संस्कृति बचाने की कोई भी कोशिश कभी कामयाब नहीं हो पाती। सतत् निष्ठापूर्ण आचरण से ही कोई संस्कृति बचाई जा सकती है। लेकिन हमारे आसपास ऐसी कोशिशों के बजाय अपनेवालों को ही मारकर भारतीय संस्कृति बचाने के निन्दनीय पाखण्ड किए जा रहे हैं। ऐसी कोशिशों से प्रचार जरूर मिल जाता है और दबदबा भी कायम हो जाता है किन्तु संस्कृति हाशिए से भी कोसों दूर, नफरत के लिबास में कूड़े के ढेर पर चली जाती है। पश्चिम के लोग अपनी धारणाओं, मान्यताओं पर दृढ़तापूर्वक कायम रहते हैं। उन्हें वेलेण्टाइन डे मनाना होता है। मना लेते हैं। अपने वेलेण्टाइन डे के लिए वे हमारी होली, हमारे बसन्तोत्सव का विरोध नहीं करते। अपने फादर्स डे के लिए हमारे पितृ-पक्ष का, अपने क्रिसमस के लिए हमारी दीपावली का, अपने ‘न्यू ईयर’ के लिए हमारी चैत्र प्रतिपदा का विरोध नहीं करते। 

पश्चिम के लोगों में और हममें बड़ा और बुनियादी फर्क शायद यही है कि वे अपनी लकीर बड़ी करने में लगे रहते हैं जबकि हम सामनेवाले की लकीर को छोटी करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। इतनी ही मेहनत हम यदि अपनी लकीर बड़ी करने में करें तो तस्वीर कुछ और हो। उनकी लकीर छोटी करने की हमारी प्रत्येक कोशिश का सन्देश अन्ततः नकारात्मक ही जाता है। हमारी छवि आतंकी जैसी होती है। हम अपनों से ही नफरत करते हैं, अपनों की नफरत झेलते हैं।

बेहतर है कि हम तय कर लें कि हमें क्या बनना है, कैसा बनकर रहना है और तय करके, जबड़े भींच कर, वैसा ही बनने में जुट जाएँ। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम वह भी नहीं रह पाएँ जो हम हैं। 
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(भोपाल से प्रकाशित दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में, 16 फरवरी 2017 को प्रकाशित। )

जो डुबाए वह दलाल नहीं

दलाल कथा-03

यादवजी का सुनाया तीसरा किस्सा तो झन्नाटेदार निकला। शायद इसीलिए जानबूझकर सबसे आखरी में सुनाया।

अपने धन्धे, दलाली के लिए फकीरचन्दजी का आधार था: सम-भाव। ब्याज पर पूँजी देनेवाले और लेनेवाले, दोनों के प्रति सम-भाव। दोनों ही व्यापारियों को वे बराबरी से महत्व देते थे। उन्होंने दोनों के बीच कभी भेद-भाव नहीं किया। पूँजी देनेवाले को बड़ा और लेनेवाले को छोटा नहीं माना। दोनों व्यापारी भले ही एक दूसरे को छोटा-बड़ा मानते हों लेकिन फकीरचन्दजी के लिए तो दोनों, बराबरी से रोजी देनेवाले व्यापारी थे। इसलिए जितनी चिन्ता वे देनेवाले की पूँजी की सुरक्षा की करते थे उतनी ही चिन्ता लेनेवाले की, ‘बाजार में बने रहने’ की करते थे। उनका मानना था कि देनेवाला (ज्यादा दर से ब्याज लेने के) लालच में लेनेवाले पर देनदारी का वजन बढ़ा कर उसे दिवालिया होने की दिशा में धकेल सकता है। तब दोनों का नुकसान तो जो होना होगा, होगा लेकिन बड़ा नुकसान बाजार का होगा। एक व्यापारी के दिवालिया होने पर बाजार लम्बे अरसे तक ठप्प हो जाता है। देनेवाले और लेनेवाले तमाम व्यापारी दहशत में आ जाते हैं। इसलिए फकीरचन्दजी का विश्वास, दोनों व्यापारियों के, सुरक्षित बने रहने में रहता था। इससे तनिक आगे बढ़कर वे लक्ष्मी को ‘चंचला’ कहते थे। कहते थे, ये आज इसके पास है तो कल उसके पास। तब आज का देनेवाला कल का लेनेवाला हो सकता है और आज का लेनेवाला कल का देनेवाला। दोनों जहाँ भी रहेंगे, जैसे भी रहेंगे, उनके ‘व्यवहारी’ ही रहेंगे। इसलिए, उन्होंने दोनों ही व्यापारियों के प्रति सदैव सम-भाव वापरा, दोनों को बराबरी का दर्जा दिया और दोनों की एक जैसी चिन्ता की।

एक बार सेठ मधुसूदनजी ने फकीरचन्दजी को चौंका दिया। एक व्यापारी का नाम बता कर उन्होंने फकीरचन्दजी से कहा - ‘मैंने सुना, वो किसी से डेड़ रुपये (याने अठारह प्रतिशत सालाना) के भाव से ब्याज देने की बात कर रहे थे। आप उनसे पूछ लो। वो हाँ भरते हों तो उनके यहाँ रकम लगा देना।’ फकीरचन्दजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। सेठ मधुसूदनजी ने आज तक ब्याज के बाजार भाव पर पूछताछ नहीं की थी। फकीरचन्दजी जो हुण्डी (प्रामिसरी नोट) लिखवा लाते, उसे बिना देखे तिजोरी में रख लेते। और तो और यह भी नहीं देखते कि हुण्डी पर लेनेवाले के दस्तखत हैं भी या नहीं।

फकीरचन्दजी ने ध्यान से सेठ मधुसूदनजी की शकल देखी। वे इस तरह अपने काम में लग गए थे मानो उनकी बात सुनते ही फकीरचन्दजी वहाँ से चल दिए हैं। फकीरचन्दजी तनिक उलझन में रहे। फिर एक झटके में कुछ इस तरह उबरे मानो तीनों लोकों की खबर ले आए हों। खँखार कर सेठजी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। फकीरचन्दजी को वहीं खड़ा देख, काम करते सेठजी के हाथ रुक गए। बोले - ‘अरे! आप अब तक यहीं खड़े हो? मैं तो समझा अब तक तो आप वहाँ पहुँच गए होंगे।’ 

अब दलाल फकीरचन्दजी अपने मूल स्वरूप में आ गए। विनम्रतापूर्वक, ठसके से बोले - ‘सेठजी! ये अपनी रकम सम्हालो। किसी और से यह व्यापार करवा लेना। फकीरचन्द तो नहीं करेगा।’ सेठ मधुसूदन ने ऐसा इंकार न तो सुना था न ही सुनने की आदत और तैयारी थी। उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाईं - यूँ तो चार-पाँच कारिन्दे पेढ़ी पर मौजूद थे लेकिन सबके सब स्तब्ध हो कभी अपने सेठजी को तो कभी फकीरचन्दजी को देख रहे थे। सबकी, ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे। हवा भी मानो ठहर गई थी। सेठजी ने फौरन ही महसूस किया - कुछ ऐसा हो गया है जो नहीं होना चाहिए था। असहज भाव से बोले - ‘क्यों? किसी और से क्यों करवा लो? आप क्यों नहीं करोगे?’ 

सेठ मधुसूदनजी की दशा देख फकीरचन्दजी का ठसका अन्तर्ध्यान हो गया और उनकी चिरपरिचित विनम्रता ही रह गई। बोले - ‘आपसे रोजी मिलती है सेठजी। फिर भी आपके कहे से बाहर जा रहा हूँ। कोई तट बात होगी। आप खुद ही विचार कर लो।’ अब तक सेठजी भी सहज हो चुके थे। बोले - ‘अब मेरे विचार करने की घड़ी तो टल गई फकीरचन्दजी! आप ही बता दो।’ अब फकीरचन्दजी की विनम्रता में मिठास घुल गई। कोमल स्वरों में बोले - ‘पहली बात तो यह कि आपके कहने के बाद भी गया नहीं। यहीं रुका रहा। याने मैं आपकी पेढ़ी का कारिन्दा नहीं। दूसरी बात-मैं बाजार भाव से कम या ज्यादा ब्याज न तो लेने दूँगा न देने दूँगा। तीसरी और आखरी बात - बाजार, व्यापार है तो आप-हम सब हैं। मैं दलाल हूँ और दलाल बाजार और व्यापार को, किसी (व्यापारी) को डुबाता नहीं। बाजार में बैठाए रखता है।’

सुन कर सेठ मधुसूदनजी गादी से उतर कर फकीरचन्दजी के सामने आ खड़े हुए। अपने हाथों में उनके दोनों हाथ भींचकर, रुँधे गले से बोले - ‘फकीरचन्दजी! मेरे मन में क्या था, यह या तो मैं जानता हूँ या मेरा भगवान। लेकिन आज आपने अपनी और मेरी, दोनों की लाज रख ली। दोनों को बचा लिया। आपसे मैं पहले से ही बेफिकर था। लेकिन आज और बेफिकर हो गया। गले-गले तक भरोसा हो गया कि अब मुझे बाजार से कोई नहीं उठा सकता।’

किस्सा सुनाकर, यादवजी बोले - ‘आज तो सब कुछ बदल गया है। दलाल बदल गए, दलालों का चाल-चलन बदल गया। पहले लोग गर्व-गुमान से खुद का दलाल होना बताते थे। आज रोटी तो दलाली की खाते हैं लेकिन खुद को दलाल कहने में शर्म आती है। व्यापार और व्यापारी की चिन्ता शायद ही कोई करता हो। सबको अपनी दलाली नजर आती है। कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि इसी रतलाम में कभी फकीरचन्दजी जैसे दलाल भी हुए होंगे।’

यादवजी का गला भीग आया था। दुकान की चहल-पहल में कोई अन्तर नहीं था लेकिन यादवजी बदल गए थे। माहौल में आए भारीपन को परे धकेलने के लिए मैंने कहा - ‘तीन किस्सों के दम पर तो मैं भी विश्वास न करूँ। कुछ और किस्से सुनाएँ तो भरोसा करने पर विचार करूँ।’ यादवजी बोले - ‘आज अब और नहीं कह सकूँगा। रामजी राजी रहे तो फिर कभी।’

अब, यादवजी का सुनाया अगला किस्सा पता नहीं कब मिले। लेकिन एक किस्सा मेरे पास है। जल्दी ही सुनाता हूँ।
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साहूकार की पूँजी भी होते हैं दलाल

दलाल कथा-02

यादवजी का सुनाया दूसरा किस्सा सुनते-सुनते ही, इन किस्सों को लिखने का खाका मेरे मन में बनने लगा था। किस्से सुनाकर यादवजी ने कहा -‘मैं जानता हूँ। आप ये सब लिखोगे ही लिखोगे। मानोगे नहीं। यह भी जानता हूँ कि आप कोई गड़बड़ नहीं करोगे। फिर भी कह रहा हूँ, ध्यान रखिएगा, रतलाम में लोग खानदानी पेढ़ियाँ लेकर बैठे हैं। फर्मों के नाम भले ही कुछ और हो गए हैं लेकिन परिवार तो वो ही हैं। इसलिए, ऐसा कुछ मत कर दीजिएगा कि किसी का पानी उतर जाए।’ यह बात तो मेरे मन की ही थी। सुनते-सुनते ही तय कर लिया था कि यादवजी भले ही अलग-अलग सेठों/पेढ़ियों के किस्से सुनाएँ, मैं दोनों का काल्पनिक नाम एक-एक ही रखूँगा। बदलूँगा नहीं। पुराने जमाने का कोई आदमी यदि घटनाओं से वास्तविक चरित्रों को पहचान लेगा तो यह मेरा दुर्भाग्य ही होगा। इसलिए यादवजी के सुनाए सारे किस्सों में फकीरचन्दजी ही दलाल रहेंगे और मधुसूदनजी ही सेठ।

यादव साहब का सुनाया दूसरा किस्सा यह था।

फकीरचन्दजी शानदार आदमी थे। बिलकुल नारियल की तरह। बाहर से बहुत कठोर और पत्थरमार बोलनेवाले। लेकिन अन्दर से नरम और मीठे। जो उन्हें नहीं जानते थे, वे डर कर उनसे दूर ही रहते और बात करनी पड़ जाती तो सहम कर, तनिक दूर से ही बात करते। लेकिन जो उन्हें एक बार जान-समझ लेता, वह बार-बार उनके पास जाने के, उनसे बात करने के मौके तलाशता रहता। वे नरम मिजाज आदमी और कठोर मिजाज दलाल थे। दलाली में अपने उसूलों के इतने पक्के कि चौबीस केरेट सोने के गहने घड़ लें और व्यवहार में इतने विनम्र कि हर कोई उन्हें ठगने लायक मान ले। अनुभवी और आदमी के पारखी इतने कि चलते आदमी को देख कर बता दें कि मुकाम पर पहुँचते-पहुँचते यह आदमी क्या करेगा। 

यही फकीरचन्दजी एक शाम, व्यापारी से दस्तखत कराई हुण्डी सौंपने, सेठ मधुसूदनजी की पेढ़ी पर पहुँचे तो एकदम थके-थके, मुरझाये-मुरझाये। सेठजी को चिन्ता हुई। पूछा - ‘क्या बात है फकीरचन्दजी! क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘तबीयत को तो कुछ नहीं हुआ लेकिन आज चूक हो गई।’ सेठजी को लगा, फकीरचन्दजी के हाथों कोई आर्थिक नुकसान हो गया है। ढाढस बँधाते हुए बोले - ‘कोई नुकसान हो गया? हो गया हो तो घबराओ मत। धन्धे में ऐसी ऊँच-नीच तो होती रहती है।’ फकीरचन्दजी मरी-मरी आवाज में बोले - ‘अभी, हाथों-हाथ तो कोई नुकसान नहीं हुआ है लेकिन होनेवाला है। अच्छा होगा कि आप मान लो कि जो हुण्डी मैं दस्तखत करवा कर लाया हूँ, उसकी रकम डूब गई।’ 

सेठ मधुसूदनजी को बात समझ में नहीं आई। लेकिन जब फकीरचन्दजी कह रहे हों तो बात बिना समझे ही मान लेनेवाली होती है। बोले - ‘आप कह रहे हो तो मान लिया कि डूब गई। लेकिन बताओ तो सही कि हुआ क्या?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘हुआ ये कि जहाँ आपने भेजा था, वहाँ जाने का मन नहीं था। लेकिन आपने कहा, इसलिए गया। उन सेठजी के बारे में अब तक सुना ही सुना था। उनसे व्यवहार नहीं हुआ था। आज आपने उनसे व्यवहार भी करा दिया। लेकिन सेठजी! आगे से आप मुझे वहाँ जाने को मत कहना और मेरी मानो तो आप भी उनसे लेन-देन मत करना।’ सेठ मधुसूदनजी हैरत में पड़ गए। बोले - ‘मेरा भी अब तक उनसे लेन-देन नहीं हुआ। आज पहली बार किया है। लेकिन बताओ तो सही कि आखिर क्या हुआ?’

मानो बात कहने में बहुत तकलीफ हो रही हो, कुछ इस तरह फकीरचन्दजी बोले - ‘उनके लिए जो सुना था, खरा साबित हो गया। आपने छह महीनों के लिए पूँजी दी है। आप अपने ठाकुरजी की आरती में रोज प्रार्थना करना कि छह महीने तक मेरी शंका सही नहीं निकले। निकल गई तो आपकी पूँजी डूबी समझो।’ 

अब मधुसूदनजी का धीरज जवाब दे गया। बोले - ‘साफ-साफ बताओ कि बात क्या है? क्या हो गया जो ऐसा कह रहे हो?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘मेरी मति मारी गई थी कि जो सुना उस पर विश्वास करने के लिए उनको आजमा बैठा और रकम उनके हाथ में दी दी।’  सेठ मधुसूदनजी बोले - ‘देते नहीं तो और क्या करते? वह तो देनी ही थी। इसी के वास्ते तो गए थे?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘नहीं देता तो भरम बना रहता। लेकिन टूट गया। बुरा हुआ। उन्होंने, रकम लेकर ब्याज की रकम आपकी दी हुई रकम में से ही निकाल कर मुझे दे दी।’ सेठ मधुसूदनजी हैरत से बोले - ‘तो? इसमें गलत क्या किया उन्होंने? ब्याज तो देना ही था। उन्होंने दिया और आपने लिया। इसमें अनोखा क्या हो गया?’ 

अब फकीरचन्दजी ने सार की बात कही। बात क्या कही, साहूकारी का सूत्र बता दिया। बोले - ‘सेठजी! बात ब्याज की रकम देने न देने की नहीं है। साहूकार आदमी, ब्याज से मिलनेवाली रकम पहले अपनी तिजोरी में रखता है और अपनी रोकड़ पेटी में से निकाल कर, गिन कर ब्याज की रकम देता है।’ सेठ मधुसूदनजी को   बात अजीब लगी। बोले - ‘इससे क्या फर्क पड़ता है?’ फकीरचन्दजी तनिक असहज होकर बोले - ‘ताज्जुब है सेठजी! इतनी खास, इतनी बड़ी बात से आपको कोई फरक नहीं पड़ रहा? जो व्यापारी, ब्याज से मिलनेवाली रकम में से ब्याज की रकम गिन कर लौटाता है, उसकी नियत कभी सही नहीं होती। वह तो बाकी रकम को अपनी आमदनी मान लेता है। लेकिन जो व्यापारी रोकड़ पेटी में से निकाल कर ब्याज देता है, उसे यह भुगतान चुभता है। उसे लगता है, ब्याज की यह रकम मेरी पूँजी में से गई है। वह पूँजी हमेशा बचाने की सोचेगा जबकि पहलेवाला तो ऐसी अगली कमाई की राह देखेगा।’ 

सेठ मधुसूदनजी के लिए यह नई बात थी। उन्होंने जिज्ञासा से पूछा - ‘तो आपके कहने का मतलब है कि आज आप जिसे रकम देकर आए हो वो दिवाला निकालेगा?’ फकीरचन्दजी ने मानो अधिकृत घोषणा की - ‘पक्की बात है। वो दिवाला निकालेंगे ही निकालेंगे।’ हक्के-बक्के हो सेठ मधुसूदनजी ने पूछा - ‘ऐसा? कितने दिनों में?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘छह महीनों तक रुक जाए तो आपकी तकदीर। नहीं तो मेरे हिसाब से तो उससे पहले ही वो दरी औंधी§ कर देंगे।’ सेठ मधुसूदनजी के लिए यह एकदम नई बात थी। अब उन्हें अपनी रकम की चिन्ता कम और फकीरचन्दजी की बात को आजमाने की जिज्ञासा अधिक हो गई थी।

यह सब सुनाकर यादवजी रुक गए। मैंने उनकी ओर देखा। कोई भाव नहीं। एकदम सपाट चेहरा। यादवजी मुद्राविहीन मुद्रा में। इधर मेरी जिज्ञासा सीधे चरम पर पहुँच गई। मैंने अधीर स्वरों में कहा - ‘रुक क्यों गए? आगे कहिए न? क्या हुआ? फकीरचन्दजी की भविष्यवाणी सच  हुई या झूठ?  उस सेठ ने दिवाला निकाला या नहीं?’ मानो कोई बच्चा, अपने साथी बच्चे को खेल-खेल में दाँव छका कर खुशी के मारे किलकारियाँ मार रहा हो, यादवजी कुछ इसी तरह खिलखिलाए। बोले - ‘उस व्यापारी ने जो किया सो किया, लेकिन आपकी यह हालत देख कर मुझे मजा आ गया।’

समापन करते हुए यादवजी बोले - ‘फकीरचन्दजी की बात सौ टका सही साबित हुई। तीन महीने बीतते न बीतते उस सेठ ने दिवाला निकाल दिया। पूरे बाजार में हल्ला मच गया। ब्याज पर रकम देनेवाले कई लोगों के घर में मातम छा गया।’ लेकिन मेरी जिज्ञासा ज्यों की त्यों थी। मैंने पूछा - ‘और सेठ मधुसूदनजी ने क्या किया? क्या कहा?’ यादवजी ने जवाब दिया - ‘उन्होंने कहा कि उन्होंने तो अपनी रकम उसी दिन डूबी हुई मान ली थी जिस दिन फकीरचन्दजी ने भविष्यवाणी की थी। उन्हें तो इस बात की खुशी थी कि उन्हें फकीरचन्दजी जैसे दलाल मिले।

सेठ मधुसूदनजी ने कहा - ‘ऐसे दलाल तो किसी भी सेठ-साहूकार की पूँजी होते हैं।

यादवजी का सुनाया, अगला किस्सा अगली बार। 
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§      मालवा में मान्यता है कि खुद को दिवालिया घोषित करने के लिए व्यापारी सुबह-सुबह, बाजार खुलते ही, अपनी दुकान की गादी-दरी, दुकान के बाहर खड़े होकर, सरे बाजार झटकने लगता है। यही दिवालिया होने की सार्वजनिक घोषणा होती है। कोई कानूनी कार्रवाई यदि की जानी हो तो वह इसके बाद होती रहती है।) 

दलाल केवल दलाल नहीं होता

दलाल कथा-01

हर बार की तरह यह वाकया भी, यादवजी ने माणक चौकवाली अपनी दुकान पर ही सुनाया।

हुआ यूँ कि हिन्दी के प्रति मेरे आग्रह के मजे लेने के लिए यादवजी ने अचानक पूछ लिया - “आप खुद को ‘अभिकर्ता’ कहते हो। हिन्दी में अभिकर्ता को क्या कहते हैं?” मैंने हँस कर कहा - “अभिकर्ता को हिन्दी में अभिकर्ता ही कहते हैं क्यों कि अभिकर्ता हिन्दी शब्द ही है।” यादवजी तनिक झुंझला कर बोले - ‘वो तो मुझे भी मालूम है। लेकिन वो तो आपकी हिन्दी में है। हम आम लोगों की हिन्दी में बताइए।’ मैंने कहा - ‘दलाल कहते हैं।’ यादवजी चिहुँक कर बोले - “अरे! मैं भी कमाल करता हूँ। आप तो एलआईसी के एजेण्ट हैं और एजेण्ट को दलाल ही कहते हैं, यह तो मैं खूब अच्छी तरह जानता हूँ। आपके इस ‘अभिकर्ता’ ने मुझे चक्कर में डाल दिया।” पल भर के लिए खुद पर हँस कर बोले - ‘दलाल होना आसान नहीं। दलाल केवल दलाल नहीं होता। दलाल से पहले वह एक ईमानदार आदमी और ईमानदार पेशेवर होता है।’ मैंने कहा - ‘आपने सूत्र तो बता दिया। इसे सोदाहरण, व्याख्या सहित समझाइए।’ यादवजी उत्साह से बोले - ‘यह आपने खूब कही। आपको दलालों के कुछ सच्चे किस्से सुनाता हूँ जिन्हें सुनकर आप दलाल होने का मतलब और महत्व आसानी से समझ सकेंगे।’ कह कर उन्होंने एक के बाद एक, तीन किस्से सुनाए।

लेकिन किस्से सुनने से पहले, रतलाम के सन्दर्भ में दलाल को लेकर तनिक लम्बी भूमिका।

रतलाम केवल सोना और सेव के लिए ही नहीं जाना जाता। यह ब्याज के धन्धे के लिए भी जाना जाता है। ब्याज यहाँ के मुख्य धन्धों में से एक है। कम से कम तीन ऐसे परिवारों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ जो केवल ब्याज की आय पर निर्भर हैं। वास्तविकता तो भगवान ही जाने लेकिन कहा-सुना जाता है यहाँ गुवाहाटी और चैन्नई तक का पैसा ब्याज पर लगा हुआ है। लेकिन मुख्यतः, रतलाम की ही पूँजी ब्याज के लिए लेन-देन में काम आती है। यह ब्याज का धन्धा पूरी तरह से दलालों के सहारे ही चलता है। 

जैसा कि कहा है, लगभग सारी पूँजी रतलाम की ही है तो उसका लेन-देन भी रतलाम के लोगों में ही होता है। जब रतलाम के लोगों में ही लेन-देन होना है तो फिर दलाल की जरूरत भला क्योंकर होती है? जवाब है - ‘ब्याज पर दी गई पूँजी की सुरक्षित वापसी के लिए।’ ‘उधारी मुहब्बत की कैंची है।’ इस वाक्य के ‘चिपकू’ (स्टीकर) किसी जमाने में पान की दुकानों पर प्रमुखता से नजर आते थे। वही बात यहाँ भी लागू होती है। किसी अपनेवाले को उधार दी गई पूँजी वापस माँगना तनिक कठिन हो जाता है। सम्बन्ध बिगड़ने की आशंका बनी रहती है। इसीलिए दलाल काम में आता है। दलाल को ‘तिनके की ओट’ कह सकते हैं। देनेवाले को खूब पता होता है कि उसका पैसा किसके पास जा रहा है। यही दशा लेनेवाले की भी होती है। किन्तु बीच में दलाल होने से लिहाज बना रहता है। कभी-कभी स्थिति ऐसी रोचक और अविश्वसनीय भी हो जाती है कि पति से छुपाकर की गई पत्नी की  बचत की रकम, उसके पति को ही ब्याज पर चढ़ जाती है। 

अब, यादवजी के निर्देशानुसार, तमाम किस्सों के तमाम पात्रों की पहचान छुपाते हुए पहला किस्सा। 

फकीरचन्दजी रतलाम के अत्यन्त प्रतिष्ठित, विश्वसनीय, अग्रणी दलाल थे। साख इतनी कि व्यापारी एक बार खुद पर अविश्वास करले लेकिन फकीरचन्दजी पर नहीं। फकीरचन्दजी का बीच में होना याने समय पर ब्याज मिलने की और निर्धारित समयावधि पर पूँजी की वापसी की ग्यारण्टी। 

इन्हीं फकीरचन्दजी को बुलाकर सेठ मधुसूदनजी ने कुछ रकम दी। एक अपनेवाले को ब्याज पर देने के लिए। फकीरचन्दजी ने कहा कि मधुसूदनजी का वह अपनेवाला तो सप्ताह भर के लिए बाहर गया हुआ है। तब तक रकम पर ब्याज नहीं मिलेगा। मधुसूदनजी ने कहा - ‘रकम आपके पास ही रहने दो। वह आए तब दे देना। ब्याज की चिन्ता नहीं।’ 

आठवें दिन शाम को फकीरचन्दजी, सेठ मधुसूदनजी की पेढ़ी पर पहुँचे। थैली में से रकम निकाली  और सेठ मधूसदनजी ओर बढ़ा दी। मधुसूदनजी ने रकम नहीं ली। पूछा - ‘क्यों? वो नहीं आया?’ फकीरचन्दजी बोले - ‘आ गए। आज सुबह ही आ गए। उन्हीं की दुकान से आ रहा हूँ।’ सेठ मधुसूदनजी ने हैरत से पूछा - ‘वहीं से आ रहे हो और रकम मुझे दे रहे हो? यह रकम तो उसे ही देनी थी!’ फकीरचन्दजी गम्भीरता से बोले - ‘हाँ। आपको वापस सौंप रहा हूँ। नहीं दी। मैं तो दूँगा भी नहीं। आपको, उन्हीं को दिलवाना हो तो किसी दूसरे दलाल से दिला दो।’

सेठ मधुसूदनजी को झटका सा लगा। जिसे रकम दिलवा रहे थे, वो अपनेवाला जरूरतमन्द था।  हैरत से बोले - ‘क्यों? ऐसी क्या बात हो गई?’ गम्भीरता यथावत् बनाए रखते हुए फकीरचन्दजी बोले - ‘ऐसी बात हो गई तभी तो रकम नहीं दी। आपको लौटाने आया हूँ!’ 

फकीरचन्दजी ने बताया कि वे रकम लेकर सामनेवाले की दुकान पर पहुँचे। वे दुकान के सामने, सड़क पर ही खड़े थे और दुकान में जा ही रहे थे कि वो दुकानदार, रकम लेने के लिए दुकान से उतर कर सड़क पर, फकीरचन्दजी के पास आ गया। अनुभवी फकीरचन्दजी ने पल भर में उस सामनेवाले को तौल लिया और बहाना बना कर, बिना रकम दिए सेठ मधुसूदनजी के पास आ गए। 

फकीरचन्दजी ने कहा -‘सेठजी! दलाली मेरा धन्धा है। मुझे तो आपसे और उनसे दलाली मिल ही रही थी। लेकिन मुझे गैरवाजिब व्यवहार की दलाली नहीं चाहिए। जो व्यापारी ब्याज की, उधार की पूँजी लेने के लिए गादी से उतर कर दलाल के पास सड़क पर आ जाए, वह व्यापारी पानीदार नहीं। ऐसे व्यापारी से मैं तो लेन-देन नहीं करता। मेरी दलाली की पूँजी डूबे, ऐसी दलाली मुझे नहीं करनी। मुझे आपकी पूँजी की नहीं, दलाली के मेरे धन्धे की इज्जत की फिकर है। मैं दिवालियों का नहीं, साहूकारों का दलाल हूँ।’

कह कर फकीरचन्दजी ने रकम सेठ मधुसूदनजी को थमाई, आत्म-सन्तोष की लम्बी साँस ली और नम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।

यादवजी बोले - ‘यह किस्सा सेठ मधुसूदनजी ने मेरे पिताजी को सुनाया था और पिताजी ने मुझे।’ मैंने पूछा - ‘सेठजी ने आपके पिताजी को केवल किस्सा ही सुनाया था? फकीरचन्दजी के बारे में कुछ नहीं कहा?’ यादवजी बोले - “ठीक यही सवाल मैंने पिताजी से पूछा था। उन्होंने कहा - ‘मधुसूदनजी ने कहा था - ऐसे दलाल केवल दलाल नहीं होते। वे तो सेठों के भी सेठ होते हैं।”

किस्सा सुनाकर यादवजी भेदती नजरों से मुझे देखने लगे। कुछ इस तरह कि मुझे घबराहट होने लगी। मेरी बेचारगी देख ठठाकर हँसे और बोले - ‘घबराइए नहीं। किस्से को खुद पर मत लीजिए। आप बीमा कम्पनी के दलाल हैं, ब्याज का व्यवहार करनेवाले, व्यापारियों के दलाल नहीं।’ मेरी साँस में साँस आई। मेरी हालत यह हो गई कि मैं पानी माँग गया। 

यादवजी ने मेरे लिए पहले पानी मँगवाया और हम दोनों के लिए चाय। चाय खत्म कर, ताजा दम हो, उन्होंने दूसरा किस्सा शुरु किया।

वह दूसरा किस्सा अगली बार। 
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हरिद्वार के मजबूर दुकानदार

कल हमारे वरिष्ठ शाखा प्रबन्धक क्षिरेजी का जन्म दिन था। वे बड़ौदा के रहनेवाले हैं और रतलाम में यह उनका पहला जन्म दिन था। सोचा,  उनके लिए गुलाब के फूलों की एक ठीक-ठाक माला ठीक रहेगी। यही सोच कर माणक चौक पहुँचा। मैं गया तो था गुलाब के फूलों की एक माला लेने लेकिन मिल गई यह कथा। यह कथा न तो नई है न ही अनूठी। इसे हम सब रोज ही कहते सुनते हैं। यह है ही इतनी रोचक कि कभी पुरानी नहीं होती।

पहली ही नजर में एक माला मुझे जँच गई। कीमत पूछी और बिना किसी मोल-भाव के, बाँधने को कह दिया। उम्मीद थी कि दुकानदार पुराने अखबार में लपेट कर देगा। किन्तु उसने पोलीथीन की थैली में दी। दुकानदार जब माला, थैली में रखने लगा तो मैंने टोका - ‘थैली में दे रहे हो? कागज में बाँध दो।’ वह बोला - ‘मैं तो कागज में ही देता था। लेकिन आप जैसे लोग ही पन्नी की थैली माँगते हैं। दुकानदारी का मामला है। कागज में दूँ और ग्राहक चला जाए तो?’ मैंने कहा - ‘दे दो! दे दो! कुछ दिन और दे दो! एक मई से शिवराज ने थैली पर रोक लगाने का आर्डर दे दिया है।’ फीकी हँसी हँसते हुए वह बोला - ‘निकाल दे आर्डर! कोई पहली बार नहीं निकल रहा साब। उनसे पहले नगर निगम निकाल चुका ऐसा आर्डर। क्या हुआ? दो-चार दिन पकड़ा-धकड़ी हुई। हम पाँच-सात छोटे दुकानदारों पर जुर्मान किया। फिर सब बराबर हो गया। आप देख ही रहे हो! यहाँ बैठे हम तमाम लोग पन्नी की थैलियाँ वापर रहे हैं। और तो और, नगर निगम वाले भी पन्नी की थैलियों में ही हार-फूल ले जा रहे हैं।’

दुकानदार की बातों में मुझे रस आने लगा। भुगतान करने के बाद भी रुक गया। पूछा - ‘तो तुम्हारा मतलब है कि शिवराज के आर्डर से कुछ नहीं होगा?’ उसी तरह, बेजान हँसी हँसते बोला - ‘होगा क्यों नहीं सा‘ब? होगा। लेकिन वही! फिर कुछ अफसर-बाबू आएँगे। पकड़ा-धकड़ी करेंगे। हम छोटे दस-बीस लोगों पर जुर्माना करेंगे। फिर सब बराबर। पहले जैसा। चार दिन की चाँदनी, फिर अँधेरी रात।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर शिवराज क्या करे?’ उसने मुझे ऐसा देखा जैसे मैं धरती का नहीं, किसी दूसरे ग्रह का जीव हूँ। बोला - ‘आप जैसे लोग ऐसी बातें करते हैं यही तो लफड़ा है। सब लोग, सब-कुछ जानते हैं लेकिन अनजान बनते हैं। अरे! सब जानते हैं कि चोर को मारने से चोरियाँ नहीं रुकती। रोकना है तो चोर की माँ को मारो। पन्नी की थैलियाँ बन्द करनी हैं तो इनका बनना बन्द करो! इनकी फैक्ट्रियाँ बन्द करो! लेकिन वो तो करेंगे नहीं। करेंगे भी नहीं। सबकी धन्धेबाजी है।’

वह गुस्से में बिलकुल नहीं था। साफ लग रहा था कि वह भी पोलीथिन की थैलियाँ नहीं वापरना चाहता किन्तु ‘बाजार’ उसे मजबूर कर रहा।  व्यथित स्वरों में बोला - ‘अब क्या कहें साब! सबको हरिद्वार के दुकानदारों की बदमाशी नजर आती है लेकिन गंगोत्री को भूल जाते हैं। गंगोत्री पर रोक लगाओ। घाट पर दुकानें लगनी अपने आप बन्द हो जाएँगी।’

उसकी बातें मुझे मजा दे रही थीं किन्तु उसकी निर्विकारिता उदास भी कर रही थी। उसका ‘सब लोग सब कुछ जानते हैं’ वाला वाक्यांश मुझे खुद पर चुभता लगा। यही छटपटाहट ले कर चला। लेकिन दस-बीस कदम जाकर लौटा। उसका फोटू लिया और नाम पूछा तो अपना काम करते हुए, उसी निर्विकार भाव से बोला - ‘जुर्माने से ज्यादा और क्या करोगे? कर लेना। मेरा नाम रामचन्द्र खेर है और तीस-पैंतीस बरस से यहीं पर, यही धन्धा कर रहा हूँ।’ उसकी बात ने मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट बढ़ा दी। मेरा ‘मजा’, मेरा ‘बतरस’ हवा हो गया। मैं चला आया।  

इस बात को चौबीस घण्टे होनेवाले हैं लेकिन वह चुभन, वह छटपटाहट जस की तस बनी हुई है। 

लेकिन मेरी चुभन, मेरी छटपटाहट मेरे पास। आपको तो कहानी रोचक लगेगी। लगी ही होगी।

रामचन्‍द्र खेर
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