राष्ट्रगीत : सरोजकुमार

वे नहीं गाते राष्ट्रगीत
महानता की फ्रेम में जड़े हुए
विजेता के अन्दाज में, मंच पर खड़े हुए
‘सब एक साथ गाएँगे’, कहने पर भी
वे नहीं गाते राष्ट्रगीत!

भारत भाग्य विधाता....वगैरह
इस अदा से सुनते हैं
मानो उनकी ही प्रशस्ति हो,
वे ही तो हैं जन-गण-मन अधिनायक,
जय-जयकार उचारें जिनका
समारोह के गायक!

पंजाब, सिन्ध, गुजरात, मराठा.....
इस अन्दाज से सुनते हैं
मानो उनकी ही रियासतें हों
विन्ध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा.....
उनके ही टीले हों, झरने हों, झीलें हों!

मंचों पर बार-बार खड़े-खडे़ विश्वास बढ़ता जा रहा है,
कि बख्शीशें माँगता हुआ हिन्दुस्तान
उनकी ही जय-गाथा गा रहा है!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।

सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

पानसिंह नहीं, ‘रपटू’

यदि नियती के संकेत सुनने/समझने की क्षमता ईश्वर ने मुझे दी होती तो कोई तीन महीने पहले ही मैं यह पोस्ट लिख चुका होता जब भाई जुबेर आलम खान मुझसे अपने सवालों के जवाब ले रहे थे।


नीता पब्लिसिटी नामक व्यापारिक संस्थान् कुछ न कुछ अनूठा करता रहता है। इस बार अपने ऐसे ही एक उपक्रम में वह रतलाम के कुछ अग्रणी लोगों पर एक-एक पन्ने की सचित्र सामग्री प्रकाशित कर रहा है। पता नहीं क्यों और कैसे, इस बार मुझे भी इन लोगों में शामिल कर लिया गया। (अपने इस निर्णय पर उन्हें निश्चय ही पछतावा होगा।) उसी के लिए, जुबेर भाई अपनी प्रश्नावली लेकर आए थे। पूछते-पूछते जुबेर भाई ने पूछा - ‘आपका प्रिय खिलाड़ी?’ मेरे मुँह से अचानक ही निकला, ऐसे मानो किसी अदृष्य शक्ति ने कहलवाया हो - ‘रामचन्द्र रपटू।’ इस खिलाड़ी के बारे में जुबेर भाई तो क्या अब तो ‘रपटू’ के गाँववाले भी वह सब नहीं जानते होंगे जो उसके समकालीन जानते हैं। जुबेर भाई ने अपनी प्रश्नावली के शेष प्रश्नों के उत्तर लिए और धन्यवाद देकर चले गए।

बात आई-गई हो ही गई थी कि अचानक ही फिल्म ‘पानसिंह तोमर’, सिनेमाघर में देखने का दुरुह अवसर मिल गया। सत्संग रहा - मेरी उत्तमार्द्ध का। फिल्म की सादगी, इरफान खान का सहज अभिनय और चुटीले सम्वाद - सब कुछ हमें अपने साथ बहा लिए जा रहे थे। लग रहा था, काश! सारी फिल्में ऐसी ही बनें। तभी वह दृष्य आया जिसने, शेष फिल्म का मेरा आनन्द, रोमांच में बदल दिया। फिल्म, फिल्म नहीं रही। हकीकत हो गई।

भारतीय सेना का जवान पानसिंह तोमर, किसी अन्तरराष्ट्रीय खेल स्पर्द्धा की एक दौड़ में भाग लेने के लिए मैदान में खड़ा है। सारे खिलाड़ी अपने-अपने स्थान पर, संकेत मिलते ही दौड़ पड़ने की मुद्रा में, दोनों हाथों की अंगुलियाँ धरती पर टिकाए, दौड़ शुरु होने के संकेत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। संकेत देनेवाली पिस्तौल छूटने की आवाज आती है। सारे खिलाड़ी दौड़ पड़ते हैं लेकिन पानसिंह तोमर खड़ा-खड़ा प्रार्थना करता नजर आता है। उसका प्रशिक्षक उसे कहता है - ‘पानसिंह! भाग!’ सुनकर पानसिंह अपने में लौटता है और दौड़ना शुरु करता है। मैदान पर उपस्थित तमाम दर्शक उसकी हँसी उड़ाते नजर आते हैं। वे तय मानकर चलते हैं कि पानसिंह तो दौड़ में कहीं नजर ही नहीं आएगा। किन्तु इसके विपरीत, सिनेमा घर में बैठे दर्शक दम साधे, चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। और चमत्कार होता है - पानसिंह, चीते की तरह लपकता हुआ, सबको पीछे छोड़कर दौड़ में अव्वल आता है।

इस दृष्य ने ही मेरे लिए इस फिल्म को हकीकत में बदल दिया। यादों की फिल्म शुरु हो गई। उसके बाद, शेष फिल्म में मुझे इरफान खान नजर नहीं आया। उसके स्थान पर नजर आता रहा - रामचन्द्र रपटू।रामचन्द्र रपटू का वास्तविक नाम था - रामचन्द्र पुरोहित। वह मेरे गाँव मनासा से दो किलो मीटर दूर बसे गाँव भाटखेड़ी का रहनेवाला था। भाटखेड़ी में माध्यमिक (मिडिल) स्तर तक का ही स्कूल था। सो, वहाँ के सारे बच्चे, उच्चतर माध्यमिक (हायर सेकेण्डरी) कक्षाओं की पढ़ाई के लिए मनासा आते थे। इसी कारण, रामचन्द्र पुरोहित भी मनासा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र बना।

मैंने रामचन्द्र पुरोहित को रामचन्द्र रपटू बनते नहीं देखा। शिक्षा सत्र 1961-62 में मैंने नवमीं कक्षा में प्रवेश लिया, तब रामचन्द्र ग्यारहवीं में था। स्कूल में उसका वह अन्तिम वर्ष था। नवमी कक्षा में मेरे प्रवेश लेने के दो साल पहले ही रामचन्द्र पुरोहित, रामचन्द्र रपटू बन चुका था। उसके ‘रपटू’ होने का किस्सा किसी लोक कथा की तरह पूरे स्कूल में बारहों महीने सुनने को मिलता रहा। आयु के मान से वह मुझसे, कम से कम दो वर्ष बड़ा था। इस लिहाज से मैंने उसके लिए ‘उसके’ के स्थान पर ‘उनके’, ‘वह’ के स्थान पर ‘वे’ जैसे आदरसूचक शब्द प्रयुक्त करने चाहिए। किन्तु हम सब नितान्त ग्रामीण परिवेश के छात्र थे जहाँ ‘ऊष्मावान आत्मीयताभरी सहजता’ व्याप्त थी, ‘औपचारिकता आधारित शिष्टाचार’ नहीं। इसलिए हम सब छोटे-बड़े, आपस में ‘तू-तड़ाक’ से ही बात करते थे। इसीलिए मैं यहाँ रामचन्द्र रपटू के लिए आदरसूचक शब्द प्रयुक्त नहीं कर पा रहा। वैसा करूँगा तो मुझे लगेगा कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

‘रपटू’ का कद यदि 6 फीट से अधिक नहीं तो कम भी नहीं था। साँवला रंग, मझौला डील-डौल, मुँह पर चेचक के कुछ छितरे हुए दाग। पढ़ने के मामले में वह ‘कामचलाऊ’ स्तर को भी मुश्किल से छू पाता था किन्तु खेलों के मामले में वह पूरे जिले में ‘एक-अकेला’ था - सचमुच में अद्वितीय और अनुपम। खेल दलीय (टीम) हों या एकल (एथेलेटिक्स), कबड्डी, खो-खो जैसे देशी हों या वॉलीबॉल, फुटबॉल जैसे विदेशी, जितने भी खेल उन दिनों स्कूलों में खेले जाते थे, उन सबमें वह पूरे जिले का ‘प्राकृतिक और सहज चेम्पियन’ था। वह मिट्टी के अखाड़े का भी ‘आजम’ था और लम्बी/ऊँची कूद (लांग/हाई जम्प) का भी। जिस स्पर्द्धा में रपटू शामिल होता, उसमें बाकी सबको दूसरे या उसके बाद के स्थानों के लिए ही संघर्ष करना पड़ता था। रामचन्द्र रपटू का मतलब ही हो गया था - प्रथम।

पढ़ाई-लिखाई में औसत का भी पीछा करनेवाला रामचन्द्र रपटू यदि खिलाड़ी नहीं होता तो क्या होता? मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इस बारे में आज तक किसी ने नहीं सोचा होगा। आज जब मैं सोच रहा हूँ तो मुझे एक ही जवाब मिल रहा है - ‘तब, वह निश्चय ही कुशल कलाकार होता। लोक कलाकार।’ लोगों की नकल करने और किस्सों को साकार करने में उसका कोई सानी नहीं था। वह कोई किस्सा सुनाता तो हमें लगता कि उस किस्से के पात्र हमारे बीच आकर बैठ गए हैं। सड़क पर मजमा लगा कर ‘ताकत बढ़ानेवाली’ देशी दवाएँ बेचनेवालों की नकल में वह निष्णात् था। जब वह ऐसा कर रहा होता तो, स्कूल के मैदान में बैठे हम लोग अपने आपको, सड़क किनारे मजमें में ही पाते। सुनता और पढ़ता हूँ कि फिल्मों के लिए कहानी सुनने-सुनाने के लिए विशेष बैठकें (सेशन) होती हैं और कहानी सुनाना भी एक व्यापारिक-कौशल है। मैं दावे से कह पा रहा हूँ कि यदि रपटू को यह मौका मिला होता तो कम से कम एक फिल्म तो उसी पर बन चुकी होती। ठेठ मालवी में जब वह किस्सा-कहानी सुनाता तो लगता, उसके शरीर में किसी ‘लोक नट सम्राट’ की आत्मा आ बसी हो।

मालवा में, नवरात्रि के अन्तिम दिन, देवताओं के विसर्जन के समय कई लोगों को ‘भाव’ आता है। माना जाता है कि उनके शरीर में किसी देवी-देवता की आत्मा प्रविष्ट हो गई है। तब ‘वह आदमी’, ‘वह आदमी’ नहीं रह जाता - कोई देवी या देवता बन जाता है। ऐसी देवी या देवता व्यक्ति के मुँह से ही खुद का परिचय देता। ‘भाव’ आनेवाले ऐसे कुछ लोग एक हाथ में नंगी तलवार (जिसकी नोंक पर नींबू फँसा होता है) और दूसरे हाथ में हाथ में जलता खप्पर लेकर, देवी/देवता का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुहल्ले में एकत्र जन समुदाय के बीच ये एक छोर से दूसरे छोर तक ‘हा! हू!’ जैसी ध्वनियाँ निकालते हुए, इधर से उधर तक घूमते हैं। कोई-कोई एक पाँव पर, लँगड़ी चाल चल कर यह सब करता है। कुछ ‘भाव’ वाले लोहे की मोटी जंजीरों का गुच्छा लेकर चलते हैं। ये लोग नंगी तलवारों और जंजीरों के गुच्छों से अपनी पीठ पर वार करते हैं। इनकी पीठे लहू-लुहान हो जाती हैं। समूचा दृष्य विचित्र रोमांच और दहशत से भर जाता है। जन-समुदाय, आबाल-वृद्ध नर-नारी इन्हें प्रणाम करते हैं। कुछ लोग इनसे अपना भविष्य भी पूछते हैं तो कुछ अपनी मौजूदा तकलीफों का निदान। रपटू इन ‘भाव’ वालों की ऐसी ‘शानदार और जानदार’ नकल निकालता कि कभी-कभी हमें भ्रम हो जाता कि ‘रपटू’ पर सचमुच में कोई देवी/देवता आ गया है। उसी दशा में वह लोगों का न्याय भी करता, लोगों को मुक्ति के रास्ते भी बताता और मोरपंख की मोटी छड़ी से किसी-किसी की छुटपुट पिटाई भी कर देता। कभी-कभी, छात्रों के प्रति मैत्री भाव रखनेवाला कोई व्याख्याता भी इस मजमें का आनन्द लेने शरीक होता तो ‘रपटू’ उसका भी ‘न्याय’ कर देता। स्कूल के वार्षिकोत्सव में उसका यह ‘आयटम’ अनिवार्यतः शामिल होता। कुल मिला कर ‘रपटू’ हमारे स्कूल की ‘आन-बान-शान और जान’ था।

किन्तु वह ‘रपटू’ बना कैसे?

हुआ यूँ कि रामचन्द्र पुरोहित जब नवमीं कक्षा में भर्ती हुआ तो स्कूल के क्रीड़ाध्यापक को, सत्र के पहले ही दिन, पहले ही खेल पीरीयड में, पहले ही क्षण ‘होनहार बिरवान के, चीकने पात’ नजर आ गए। उन्हें अधिक समय नहीं लगा रामचन्द्र को तराशने में। जितना वे बताते, रामचन्द्र उससे कहीं अधिक कर दिखाता। स्कूलों की तहसील स्तरीय सारी खेल प्रतियोगिताओं के प्रथम विजेता के स्थान पर एक ही नाम रहा - रामचन्द्र पुरोहित।

जल्दी ही जिला स्तरीय खेल प्रतियोगिता की तारीखें आईं। मनासा स्कूल का दल जिला मुख्यालय मन्दसौर पहुँचा। चार सौ मीटर दौड़ प्रतियोगिता से शुरुआत होनी थी। जिले भर के चयनित खिलाड़ी मैदान पर आए। मैदान देख कर रामचन्द्र चक्कर में पड़ गया। वहाँ, चूने की लकीरों से पूरे मैदान में चक्कर (ट्रेक) बने हुए थे। ऐसे चक्कर रामचन्द्र ने पहले कभी नहीं देखे थे और न ही ‘गेट-सेट-रेडी-गो’ और पिस्तौल का छूटना सुना था। स्कूल के क्रीड़ाध्यापकजी ने भी कुछ नहीं बताया था। जितना समझा सकते थे, वहीं मैदान पर समझाने की कोशिश की। रामचन्द्र हैरत से सब देखता-सुनता रहा।

उधर, रामचन्द्र के चर्चे उससे पहले ही मन्दसौर पहुँच चुके थे। पूरे जिले के वरिष्ठ खिलाड़ी और क्रीड़ाध्यापक, रामचन्द्र पर नजरें गड़ाए हुए थे। जाहिर है, पहली ही प्रतियोगिता की शुरुआत रोमांच के चरम से हो रही थी जबकि रामचन्द्र इस सबसे बेखबर था।जैसे ही पिस्तौल छूटी, अलग-अलग ट्रेक पर खड़े खिलाड़ी तीर की तरह छूटे। लेकिन यह क्या? रामचन्द्र वहीं का वहीं! सबको दौड़ता देख, रामचन्द्र ने अपने क्रीड़ाध्यापक से, जोर से आवाज लगा कर ठेठ मालवी में पूछा - ‘माट्सा‘ब! रपटूँ?’ क्रीड़ाध्यापक तो बौखला गए थे! रामचन्द्र के मुकाबले दुगुने जोर से चिल्लाकर जवाब दिया - ‘रपट! रपट! रामचन्द्र! रपट!’ और रामचन्द्र ‘रपट’ पड़ा। ऐसा ‘रपटा’, ऐसा ‘रपटा’ कि कोई सौ-पचास मीटर पीछे से शुरु करने के बाद भी सबसे पहले फीते को छू लिया। मैदान पर हड़कम्प मच गया। बाकी सबकी तो छोड़ दीजिए, लोग बताते हैं कि हमारे ही क्रीड़ाध्यापक को विश्वास नहीं हुआ। यहाँ तक कि कुछ लोग बताते हैं कि वे भावाकुल होकर रो पड़े।

उसके बाद कहने को कुछ खास नहीं। उस साल भी और उसके बाद के दोनों वर्षों में भी मनासा स्कूल जिले का चैम्पियन बना रहा और रामचन्द्र ‘रपटू’ तीनों साल, ‘चैम्पियनों का चैम्पियन’ रहा। तीनों ही वर्षों में उसने प्रत्येक खेल में पहले स्थान पर अपना कब्जा बनाए रखा।

अब ‘रपटू’ का मतलब समझ लीजिए। मालवी में ‘तेजी से दौड़ने/भागने’ को ‘रपटना’ कहते हैं। (मालवी में ‘रपटना’ का एक अर्थ ‘फिसलना’ भी होता है।) रामचन्द्र ने यही पूछा था - ‘सर! दौड़ूँ?’ और ‘सर’ ने कहा था - ‘दौड़! दौड़! रामचन्द्र! दौड़!’ वह दिन और उसके बाद का शेष जीवन, रामचन्द्र पुरोहित, केवल रेकार्ड में ही ‘पुरोहित’ रहा अन्यथा समूचे अंचल में वह ‘रपटू’ के नाम से ही जाना-पहचाना और पुकारा जाता रहा। रामचन्द्र ने भी ‘रपटू’ को अपने ‘कुलनाम’ (सरनेम) की तरह आत्मसात कर लिया।

हायर सेकेण्डरी करने के बाद मैंने 1964 में मनासा लगभग छोड़ ही दिया। उसके बाद याद नहीं आता कि रपटू से कभी मुलाकात हुई हो। मित्रों ने बताया था कि उसे सरकारी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई थी। ‘रपटू’ मेरे अचेतन में गहरे तक पैठा हुआ था, यह मुझे भाई जुबेर के माध्यम से मालूम हुआ और ‘पानसिंह तोमर’ ने तो ‘रपटू’ को मानो जीवित ही कर दिया। मैंने अपने सहपाठी अर्जुन पंजाबी से बात की। मालूम हुआ कि ‘रपटू’ अब इस दुनिया में नहीं है। ‘रपटू’ का चित्र हासिल करने के लिए, मेरे अनुरोध पर अर्जुन ने भाई कैलाश पाटीदार को मानो ‘रपटा’ दिया। कैलाश ने अत्यधिक तथा अतिरिक्त परिश्रम कर ‘रपटू’ का चित्र जुटाया।

मेरे सामने अभी भी फिल्म पानसिंह तोमर चल रही है जिसमें इरफान खान के स्थान पर मैं रपटू को ही देख पा रहा हूँ।

मेरा पानसिंह तो मेरा ‘रपटू’ ही है।

है कोई? : सरोजकुमार

है कोई?

है कोई मुझ जैसा अभागा?
बन्दी से आता रहा दुःख बिना नागा!

मैंने जब पुकारा
तब कोई नहीं बोला,
अपनी-अपनी बारी ही
सबने मुँह खोला!

हंस-हंस कह-कहकर, मोती थे चुगवाए
डण्डे से भी मारा, घोषित कर कागा!
है कोई मुझ जैसा अभागा?

मैंने जब दुर्भाग्य से कहा,
हाँ हाँ आजा!
उसने कहा, बुलाए पर
नहीं आता मेरे राजा!

जब तू सो जाएगा घोड़ों को बेचकर
तब मैं चिल्लाऊँगा, चीख-चीख गा-गा!
है कोई मुझ जैसा अभागा?

सोचा है, अब तो बस
चुप ही रहूँगा मैं,
होता है जो, हो ले
कुछ नहीं कहूँगा मैं!

जैसी की तैसी भी धरना हो यदि चादर,
कहाँ-कहाँ सी पाऊँगा, लेकर सुई तागा?
है कोई मुझ जैसा अभागा?
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।

पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।

अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।

पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज

भ्रष्‍टाचार से हमारे सम्बन्धों की दीर्घता, सामीप्य की सघनता और सान्द्रता को उजागर करनेवाला यह किस्सा भी सुरेशचन्द्रजी करमरकर ने लिख भेजा है। मैं अपनी ओर से इसमें कुछ भी घालमेल नहीं कर रहा हूँ।

भारत को स्वाधीन हुए 15-20 वर्ष हुए थे। पंचायतें गठित हो चुकी थीं। ग्रामीण चेतना जाग्रत हो, ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना दूर हो, समरसता बढ़े, जन-स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए लोग चेचक, लाल बुखार के टीके लगवाएँ, परिवार नियोजन अपनाएँ - ऐसे सारे अभियानों के लिए रेडियो ही जन संचार का सशक्त माध्यम था। परिवार में सायकिल का होना अतिरिक्त आर्थिक हैसियत और प्रतिष्ठा का परिचायक-प्रतीक था। टेप, टेलीविजन तो कल्पनातीत थे। दुपहिया के नाम पर सायकिलें और बैलगाड़ियाँ तथा चार पहिया वाहनों के नाम पर सरकारी जीपें थीं।

उपरोल्लेखित अभियानों में योगदान देने के लिए जिला स्तर पर पंचायतों की जीपें उपलब्ध कराई जाती थीं। ग्रामोफोन और लाउडस्पीकर लादे ये जीपें गाँव-गाँव में, गीत, भजन, गोष्ठियाँ अयोजित/संचालित करने का जरिया बनी हुई थीं।

इसी दौर में एक जिला पंचायत को सरकार ने ग्रामोफोन उपलब्ध कराया। प्रभारी साहब जब तक रहे, जन संचार हेतु उपयोग में लेते रहे और बदली हुई तो अपने साथ लिए चले गए। लेकिन उनके जाने से पहले बजट आ गया था। सो नया ग्रामोफोन खरीदवा गए और स्टॉक रजिस्टर की खानापूर्ति के लिए, पुराने ग्रामोफोन के स्थान पर ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ लिखवा दिया। किसी को पता नहीं कि स्टॉक रजिस्टर में क्या लिखा गया। लोगों के सामने तो ग्रामोफोन बज ही रहा था।

नए साहब आए। स्टॉक रजिस्टर जाँचा तो वास्तविकता जानी। लेकिन बोले कुछ नहीं। जब इनका तबादला हुआ तो अपने सामान के साथ, ग्रामोफोन का डिब्बा भी रखवा लिया और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ के स्थान पर ‘ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला’ लिखवा दिया।

इन साहब को भी जाना था और नए साहब को आना था। नएवाले ने पुरानेवाले की परम्परा ईमानदारी से निभाई। अपने तबादले के समय, ग्रामोफोन के डिब्बे का झोला लिए चले गए और स्टॉक रजिस्टर में ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ लिखवा दिया।

तबादला केवल साहब का नहीं हुआ। पंचायत मन्त्री भी बदल गया। नया मन्त्री नौजवान भी था और ईमानदार भी। यह उसकी पहली ही पदस्थापना थी तो उत्साह से लबालब था। उसने स्टॉक रजिस्टर में नाड़े की प्रविष्ठि देखी तो उसका माथा ठनका। पुराने रजिस्टर निकलवा कर देखे तो हकीकत जानी। वह सोच में पड़ गया। मन्त्री को कोई सहायक नहीं मिलता था। करे तो क्या करे और पूछे तो किससे पूछे? तय किया कि जब भी ऑडिट पार्टी आएगी तब वास्तविकता बता कर रास्ता तलाश करना ही बेहतर होगा।

उन दिनों ऑडिट पार्टियाँ पंचायत भवनों में ठहरा करती थीं। ऑडिट पार्टी आई। पंचायत भवन में ठहरी। दिन में थोड़ा-बहुत काम निपटाकर रात में बतरस-बैठक जमी। मन्त्री ने अपनी समस्या बताई। सुनकर ऑडिट पार्टी का प्रमुख ठठा कर हँसा। बताया कि बीते बरसों में वही लगातार ऑडिट के लिए आ रहा है और ‘ग्रामोफोन’ के ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के थैले का नाड़ा’ में बदलने के पूरे घटनाक्रम से न केवल वाकिफ है बल्कि हर बार उसी ने यह तरीका बताया और तरीका बताने का शुल्क भी वसूल किया। नौजवान मन्त्री अचकचा गया। बोला कि उसके पास तो शुल्क चुकाने की क्षमता नहीं है। ऑडिट पार्टी प्रमुख एक बार फिर ठठा कर हँसा। नौजवान मन्त्री की पीठ पर हाथ रखा और निश्चिन्त हो जाने को कहा। लेकिन कहा कि शुल्क तो वह लेगा जरूर। नौजवान मन्त्री घबरा गया। पार्टी प्रमुख ने कहा कि वह घबराए नहीं क्योंकि शुल्क का निर्धारण, स्टॉक रजिस्टर में प्रविष्ठ वस्तु के मूल्य के अनुपात में होगा। जब पहली बार ‘ग्रामोफोन’ को ‘ग्रामोफोन का डिब्बा’ में बदला था तब शुल्क का निर्धारण, ग्रामोफोन के मूल्य के आधार पर किया गया था। इस बार तो ‘ग्रामोफोन के डिब्बे के झोले का नाड़ा’ ही लिखा हुआ है और नाड़े की क्या तो कीमत और क्या औकात? इसलिए, ‘तुम तो आज रात भोजन के बाद, मीठा पत्ता पान खिला देना। तुम्हारी मुक्ति का रास्ता तलाश लेंगे।’

नौजवान मन्त्री ने राहत की साँस ली। उस रात, भोजन के बाद ऑडिट पार्टी को मीठा पत्ता पान खिलाया। जाने से पहले बनाई ऑडिट रिपोर्ट में ऑडिट पार्टी प्रमुख ने लिखा - ‘अनुपयोगी होने से नाड़ा खारिज।’ और इसके साथ ही, स्टॉक रजिस्टर में से ग्रामोफोन-प्रकरण का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

नौजवान मन्त्री का यह पहला ‘ऑडिट अनुभव’ था। सो, लोगों ने पूछा - ‘कैसा रहा ऑडिट?’ उसने जवाब दिया - ‘मीठे पत्ते में नाड़ा खारिज।’ लोगों ने पूछा - ‘मतलब?’ मन्त्री ने कहा - ‘मतलब मत पूछो। मतलब उसे ही जानने दो जिसके गले को नाड़े के फन्दे से मुक्ति मिली।’

श्री सुरेशचन्द्रजी करामराकर : शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के सेवा निवृत्त प्राचार्य हैं। रतलाम में रहते हैं। पता है - ‘शुचि-शिल्प’, 98 राजीव नगर, रतलाम - 457001. ‘शास्त्रवार्ता’ नाम से ब्लॉग भी लिखते हैं जिसे http://shastravarta.blogspot.com पर पढा जा सकता है।

घोड़े, कुर्सी और हम : सरोजकुमार


जो हुआ करते थो अश्वारोही
घास की रोटियाँ खाते हुए
हथेली पर प्राण रखे
युद्ध को जाते हुए
युद्ध से आते हुए,
वे इन दिनों बन गए हैं समारोही!


लंच, डिनर खाते हुए
इठलाते इतराते हुए
इधर से आते हुए
उधर को जाते हुए


अश्वारोहियों के हाथों में
होती थी लगाम,
समारोहियों के हाथों में
होता है निमन्त्रण!


तब घोड़ों पर बैठकर
भेरियाँ बजाते थे,
अब कुर्सियों पर पसरकर
तालियाँ बजाते हैं!


अश्वारोही हों या समारोही
इन्हीं के तहलके
इन्हीं का इतिहास है
शेष संसार सकल
दासानुदास है!


होने की अदा में
बस ये ही होते हैं
घोड़ा हो, कुर्सी हो या हम
इन्हें ढोते हैं!
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‘शब्द कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।


सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।


पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।


अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान (2010) आदि।


पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

सरोजकुमार होने का मतलब

अब तो यह याद करना भी दुरुह है कि सरोज भाई से पहली मुलाकात कब हुई थी। इसका जवाब मुझे इसी में मिलता है कि मैं यह जवाब पाने की कोशिश न करूँ। सम्भवतः 1975 के आधा बीतते-बीतते, मेरी उत्तमार्द्ध का चयन करने के लिए, मेरे दादा-भाभी के साथ वे भी गए थे। मेरे विवाह को यह अड़तीसवाँ बरस चल रहा है। जाहिर है कि उनसे मेल-मुलाकात उससे भी बरसों पहले ही हुई थी। गोया, आधी सदी के आसपास जितना वक्त हो गया है उनसे जुड़े। इस काल खण्ड में मैंने उनके मिजाज और तेवरों के अनगिनत इन्द्रधनुष देखे और ऐसा प्रत्येक इन्द्रधनुष, अपने से पहलेवाले इन्द्रधनुष से अलग ही दिखा। बस, एक बात ने सारे इन्द्रधनुषों को जोड़े रखा - उनका हर बार मुझे चौंकाना। न चौंकाएँ तो मुझे उनके सरोज भाई होने पर सन्देह होने लगता है। मुझे चौंकाने के उनके किस्से लिखने लगूँ तो निश्चय ही एक छोटा-मोटा ग्रन्थ तो बन ही जाएगा। मौका मिलने पर वे किस्से भी कभी न कभी लिखने का इरादा है। किन्तु इस समय, बस! आँख मूँदकर मेरी बात पर विश्वास करने का उपकार कर दीजिए कि सरोज भाई मुझे हर बार चौंकाते हैं। अपने ‘सरोजकुमारपन’ को कायम रखते हुए उन्होंने मुझे, अभी-अभी ही, एक बार फिर चौंकाया।

‘नईदुनिया’ के बिक जाने से मैं दुःखी था। अभी भी हूँ। यह वह अखबार है (इसके लिए ‘था’ प्रयुक्त करने की इच्छा अभी भी नहीं हो रही) जिसने न केवल पत्रकारिता को नये तेवर, नया कलेवर दिया था अपितु भाषा का महत्व भी अपने पाठकों को समझाया था। यह भी समझाया था कि भाषा का अपना संस्कार होता है और भाषा को औजार की तरह भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ‘विचार’ और ‘विमर्श’ का अन्तर और महत्व भी, मुझ जैसे अनेक लोगों ने इसी अखबार से सीखा-जाना और समझा था। इसका, ‘पत्र, सम्पादक के नाम’ स्तम्भ, इसके मुखपृष्ठ से अधिक महत्वपूर्ण होता था। इतना कि अनगिनत लोग सबसे पहले वही पृष्ठ खोलते और पढ़ते थे। समसामयिक विषयों पर उत्तेजक वैचारिक विमर्श इस अखबार के खाते में जमा हो, पत्रकारिता का इतिहास बने हुए हैं। अपने व्यावसायिक और व्यापारिक हितों और जन-भावनाओं के बीच समुचित सन्तुलन साधते हुए अपनी लोकप्रियता को अक्षुण्ण रखने का कौशल आज भी इस अखबार के इतिहास में तलाशा जा सकता है। अखबारी विश्वसनीयता का जो कीर्तिमान इस अखबार ने बनाया, वह पत्रकारिता का जगमगाता उदाहरण है। हालत यह थी कि इसके प्रतिद्वन्द्वी अखबार से सम्बद्ध लोग भी, अपने ही अखबार में छपे समाचार पर तब ही विश्वास कर पाते जब वह ‘नईदुनिया’ में छप जाता। भोपाल और जबलपुर में मैंने लोगों को ‘नईदुनिया’ की प्रतीक्षा में व्याकुल होते असंख्य बार देखा है जबकि जबलपुर में तो यह अखबार अगली सुबह पहुँचता था। मुझे यह स्वीकार करने में रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि मैंने इस अखबार से ही लिखना सीखा, इसीने ने मुझे पहचान दिलाई। ‘बाबा’ (स्वर्गीय राहुलजी बारपुते) और ‘रज्जू बाबू’ (राजेन्द्र माथुर) ने इसे न केवल सब अखबारों से अलग और श्रेष्ठ अखबार होने का स्थान दिलाया अपितु इसे ‘पत्रकारिता का मदरसा’ का दर्जा भी दिलाया। इस मदरसे के अनेक तालिब आज कई अखबारों और खबरिया चैनलों में नजर आते हैं।

किन्तु कालान्तर में यह सब रीत गया। ‘बाबा’ और ‘रज्जू बाबू’ की विनम्रता, अभयजी (छजलानी) के कालखण्ड तक, जस की तस भले ही न बनी रही हो किन्तु, उसके क्षरण होने के समानान्तर उसका यथेष्ठ प्रभाव भी अनुभव होता रहा। किन्तु २००५ के बाद तो मानो चोला बदल गया। इसकी प्राथमिकता सूची में ‘जनता की नब्ज’ का स्थान, मालिकों का अहम् लेता दिखाई देने लगा। मालिक के नाम भेजे गए पत्रों के उत्तर नौकर देने लगे, वह भी फोन पर। लगने लगा, मानो बाजार का हिस्सा बनने की चाह में अखबार खुद ही सबसे बड़ा बाजार बनने पर आमादा हो गया है। भाषा तो इसकी प्राथमिकता में मानो कहीं रही ही नहीं। तय कर पाना कठिन होने लगा कि यह अखबार हिन्दी का है या अंग्रेजी का? निजी अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि नियमित पाठकों और शुभ-चिन्तकों ने अपनी खिन्नता, अप्रसन्नता और आपत्ति जताई तो उनका उपहास उड़ाया गया, उन्हें ‘नासमझ’ और ‘अपने समय में ठहरे हुए लोग’ जैसे ‘अलंकरण’ दिए गए। जो विनम्रता इस अखबार का संस्कार थी वह ‘दम्भ’ में बदलती अनुभव होने लगी। स्थिति यह हो गई कि मुझ जैसे, ‘नईदुनिया के व्यसनी और आदी’ आदमी ने ‘नईदुनिया’ खरीदना और पढ़ना बन्द कर दिया। मालूम हुआ कि ऐसा में अकेला नहीं हूँ।

इसके बाद भी, ‘नईदुनिया’ से (जुड़ाव खत्म कर लेने के बाद भी) लगाव बना रहा। इसीलिए, जब इसके बिक जाने का समाचार मिला तो अपने किसी आत्मीय परिजन की मृत्यु जैसे शोक भाव से ग्रस्त हो गया। इसके बिकने की खबरें कोई तीन-चार महीनों से बराबर मिल रही थीं। खबर का सच होना मेरे लिए निजी स्तर पर हादसे से कम नहीं रहा। दो-तीन दिन अनमना, उदास रहा। किसी के सामने खुल कर रोना चाह रहा था। कोई नहीं मिल रहा था। बरबस ही सरोज भाई याद आए। मेरे लिए वे नईदुनिया का पर्याय और प्रतिरूप रहे हैं। उन्हें फोन लगाया। कहा - ‘कुछ कहिए मत। बस, मेरी सुन लीजिए।’ मेरी सुनने के बाद जब वे बोले तो पहले ही वाक्य से अनुभव हो गया कि मुझ जैसे अनेक शोक सन्तप्तों को रुदन वे पहले ही झेल चुके थे। उन्होंने मुझे ढाढस बँधाया।

रोना-धोना कब तक चलता? थोड़ा सामान्य हुआ तो सरोज भाई बोले - ‘अच्छा विष्णु! सुनो। मेरी एक किताब आई है। तुम्हें भिजवा रहा हूँ। पढ़कर बताना, कैसी लगी।’ दो दिन बाद ही किताब मिल गई। ‘शब्द तो कुली हैं’ शीर्षक उनके इसी कविता संग्रह के जरिए सरोज भाई ने मुझे चौंकाया, सदैव की तरह।

इस कविता संग्रह के बाँये वाले फ्लेप पर सरोज भाई ने, अपने लेखन के बारे में जो टिप्पणी की है, उसी ने मुझे चौंकाया। विश्वास नहीं हुआ कि कोई आदमी इस सीमा तक खुद के प्रति ‘निर्भ्रम’ हो सकता है? मैं समझाने की मूर्खता करूँ, उसे अच्छा होगा कि सरोज भाई की टिप्पणी को जस की तस प्रस्तुत करने की समझदारी बरत लूँ। आप खुद ही जान लीजिए, क्या कहते हैं सरोज भाई अपने लेखन के बारे में -

‘‘मैं अत्यन्त साधारण कवि हूँ। समय से आँखें मिलाते हुए, अपनी जमीन पर खड़ा हूँ। न कालातीत, न देशातीत। वर्ड्स्वर्थ ने जिस ‘ट्रेंक्विलिटी’ की बात कही है, वह मुझे भी जरूरी होती है। पर वर्ड्स्वर्थ की तरह मेरी कविता स्वतःस्फूर्त ‘ओवरफ्लो’ नहीं रही। मेरे ऐसी टोंटी, कभी किसी मानसिकता की नहीं रही, जिसे खोलते ही अथवा जिसके खुलते ही, कविता अनायास बह निकले। कविता मेरे लिए ‘इलहाम’ नहीं, मानवीय प्रयत्न है। उसके रचाव की अलौकिकता का अर्थ मेरे लिए, केवल असामान्यता तक सीमित है।

‘‘मेरी चक्की बहुत बारीक नहीं पीसती, न मुझे बारीक कताई भाती है। मैं पाठक/श्रोता तक सरलता से पहुँचना चाहता हूँ। मेरे जैसा ही एक कवि, 13वीं शताब्दी में था, अद्दहमाण (जुलाहे का पुत्र कवि अब्दुल रहमान)। उसने अपनी कविता के बारे में, अपने ग्रन्थ ‘सन्देश रासक’ (अपभ्रंश) की 21वीं गाथा में जो कहा था, वही मैं कहना चाहता हूँ -

‘‘णहु रहइ बुहह कुकवित्त रेसु/अहबत्तणि अबुहह णहु पवेसु/जिण मुक्ख ण पण्डित मञ्झयार/तिहपुरउ पढिब्बउ सव्ववार। (अर्थात् पण्डितों का मेरी कुकविता से कोई सम्बन्ध नहीं रहता और मूर्ख अपनी मूर्खता के कारण कविता में रम ही नहीं पाता। इसलिए, जो न पण्डित हैं और न मूर्ख, जो मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इस कृति को पढ़ना)।’’

जहाँ हर कोई अपने लिखे को मौलिक, प्रकृति प्रदत्त, अभूतपूर्व जैसा बताने का तुमुलनाद रचने में लगे हैं वहाँ अपने लिखे को सामान्य कहना, मुझे अपने आप में असामान्य लगा। जानता हूँ कि इस वक्तव्य में अपनी सुविधानुसार अर्थ तलाशे जा सकते हैं और तदनुसार ही व्याख्याएँ भी की जा सकती हैं। किन्तु मुझ जैसे कमजोर आदमी को सरोज भाई की इस टिप्पणी ने बड़ी ताकत दी। कहा कि कमजोर और सामान्य होना अपराध नहीं। मैंने जो अर्थ लिया वह यह कि ऐसी सार्वजनिक साहसभरी स्वीकारोक्तियाँ आदमी को सबसे अलग, (दादा की एक पंक्ति के जरिए कहूँ तो) ‘असाधारण रूप से साधारण’ बनाती हैं। उसकी कमजोरियों को उसकी ताकत में बदल देती हैं।

इन्हीं सरोज भाई के, इसी कविता संग्रह ‘शब्द तो कुली हैं’ की कविताएँ, जल्दी ही मैं यहाँ प्रस्तुत करूँगा। इस आशा से कि शायद, आपको भी अच्छी लगें।

इसलिए सागर बन गया आयोजन

आशीष दशोत्तर ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

‘शब्द’ और ‘किताब’ के नाम पर इतनी भीड़? मुझे अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। याद नहीं आता कि इससे पहले, कितने बरस पहले, इस निमित्त इतनी भीड़, अपने कस्बे में देखी थी मैंने।

यह इसी रविवार की, परसों, 8 अप्रेल की सुबह की बात है। प्रिय आशीष दशोत्तर की दो पुस्तकों का विमोचन था - गजल संग्रह ‘लकीरें’ और अमर शहीद भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित, ‘समर में शब्द’ का। आशीष का अनुमान है कि उसकी यह पुस्तक, भगतसिंह की पत्रकारिता पर केन्द्रित देश की सम्भवतः पहली और अब तक की इकलौती पुस्तक है। भगतसिंह पर प्राधिकार का दर्जा प्राप्त कर चुके, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्राध्यापक चमनलालजी मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता थे और नवोदित कथाकारों में अपनी पुख्ता जगह बना चुके कैलाश वानखेड़े विशेष अतिथि थे। वे, राज्य प्रशासकीय सेवा के सदस्य भी हैं और इन दिनों, धार जिले के बदनावर में, अनुभागीय दण्डाधिकारी (एस.डी.एम.) के रूप में पदस्थ हैं।

आयोजन मेरी रुचि का था सो मैंने खुद को इससे जोड़ लिया था। अपने स्तर पर मैंने भी कुछ लोगों को न्यौता दिया था। निर्धारित समय साढ़े दस बजे से तनिक थोड़ा पहले ही पहुँच गया था। उपस्थिति को लेकर तनिक भी उत्साहित नहीं था। इसीलिए, सवा दो सौ से अधिक कुर्सियों से सजे रोटरी हॉल को देखकर घबराहट हुई - लोग कम और खाली कुर्सियाँ ज्यादा नजर आएँगी।

लेकिन साढ़े दस बजते, उससे पहले ही चमत्कार का प्रारम्भ हो गया। लोग ऐसे आने लगे मानो चींटियाँ अपने बिल से निकल रही हों। मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था किन्तु यही सच था - पौने ग्यारह बजते-बजते सभागार लगभग पूरा भर चुका था। स्थिति ऐसी थी कि कार्यक्रम तत्काल शुरु कर दिया जाए। किन्तु चमनलालजी नहीं पहुँचे थे। पता लगा, यह मानकर कि सदैव की तरह लोग देर से ही आएँगे, चमनलालजी को कह दिया गया था कि ग्यारह बजे के बाद ही उन्हें लिवाया जाएगा। वे लगभग सवा ग्यारह बजे पहुँचे। तब तक सब आगन्तुक अधीर हो चुके थे। अब तक मैंने आयोजकों को ही प्रतीक्षारत रहते देखा था। किन्तु यहाँ स्थिति उसके सर्वथा विपरीत थी।

आयोजन शुरु हुआ। फूलों और शब्दों से स्वागत, अतिथि परिचय की खानापूर्ति हुई। मुझसे रहा नहीं गया। चलते कार्यक्रम के बीच मैंने खड़े होकर पूरे हॉल पर नजरें दौड़ाईं। मैं तो श्रोताओं को गिनने की मानसिकता लेकर आया था लेकिन यहाँ तो नजारा कुछ और ही था! खाली कुर्सियाँ गिनने में भी तकलीफ हो रही थी। यह चिन्ता किए बिना कि लोग मेरी इस अशिष्टता पर क्या सोचेंगे, मैं ने कुर्सियाँ गिनीं। यह गिनती अठारह पर जाकर रुक गई। याने, दो सौ से अधिक श्रोता? मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था।

वानखेड़ेजी द्वारा विषय प्रवर्तन के बाद दोनों किताबों का विमोचन हुआ। चमनलालजी ने लगभग सवा-डेड़ घण्टे का उद्बोधन दिया। आशीष द्वारा आभार प्रदर्शन से पहले, जिला कलेक्टर श्री राजेन्द्र शर्मा ने ‘कलेक्टरी की लीक से हटकर’ अपनी बात कह कर सबको चौंकाया भी और सबकी सराहना भी अर्जित की। (शर्माजी के इस ‘व्यवहार’ पर अलग से लिखूँगा।) चमनलालजी के उद्बोधन पर उपजी जिज्ञासाओं पर आधारित प्रश्नों के ‘लघु सत्र’ के साथ आयोजन समाप्त हुआ।

पूर्व निर्धारित कुछ काम निपटाने के कारण मुझे तनिक जल्दी थी। सो, आशीष से अनुमति ले, चाय पी कर फौरन ही निकल आया। शाम को, चमनलालजी के मुकाम, होटल सेण्ट्रल पहुँचा। आशीष के अतिरिक्त माँगीलालजी यादव और रणजीसिंह राठौर पहले से ही मौजूद थे। पहले भरपेट बतियाए फिर भर पेट खाया। उपस्थिति को लेकर हम सब ‘मुदित मन’ थे। मुझे लग रहा था कि उपस्थिति को लेकर आशीष ने निश्चय ही विशेष और अतिरिक्त प्रयत्न किए होंगे। उससे पूछा तो उसने सहज भाव से जो कहा, उसी ने मेरे सोच को नया आयाम दे दिया।

आशीष ने बताया कि उसने ‘अपनेवालों’ को निमन्त्रित करने के बजाय उन लोगों को निमन्त्रित किया जो ऐसे आयोजनों की टोह में रहते हैं किन्तु जिन्हें या तो सूचना नहीं मिलती या फिर न्यौता नहीं मिलता। आशीष ने यह भी चिन्ता नहीं कि ऐसे ‘प्रेमी’ लोग किस वर्ग, समुदाय, व्यवसाय से हैं। उसने एक ही बात पर ध्यान दिया - पिपासुओं को कुए की जानकारी दे दी। सड़कछाप मुहावरों में कहें तो उसने शक्करखोरों को शकर की बोरी का अता-पता दे दिया और चमत्कार हो गया। आशीष ने कहा कि गिनती के अपवादों को छोड़ दें तो उसने किसी को भी दूसरी बार याद नहीं दिलाया।

आयोजनों में श्रोताओं की अल्पता का रहस्य शायद यही है। हम लोग ‘अपनेवालों’ को बुलाते हैं। अचेतन में शायद यही भावना रहती होगी कि अपनेवाले हमारे महत्व, प्रभाव को, हमारी उपलब्धियों को अनुभव करें। आत्म केन्द्रित, अचेतन में व्याप्त इस भावना के वशीभूत हो हम खुद को ही दो दण्ड दे देते हैं। पहला - श्रोताओं की कमी का और दूसरा - सुपात्रों को उनकी अभिरुचि पूरी होने के अवसर से वंचित कर खुद को, सागर से पोखर में बदल देने का।

(चित्र, ‘समर में शब्द’ के विमोचन का। चित्र में बाँये से - युसूफ जावेदी, कैलाश वानखेड़े, चमनलालजी, आशीष दशोत्तर, कलेक्टर शर्माजी और रतन चौहान।)

वे तो सेवा करेंगी ही

यह सब न लिखा जाए तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसमें कुछ भी नया और/या कि अनूठा नहीं है। इसकी सबसे खराब बात यह है कि हमारे स्थापित चरित्र को एक बार फिर रेखांकित करता हुआ, रोचक अन्तर्विरोधों से भरा यह सब सदैव की तरह ही निराशाजनक और नकारात्मक है। इसे प्रस्तुत करने से मुझे बचना चाहिए था।

यह कल ही की बात है। पाँच अप्रेल की। बाहर से आए एक सज्जन से मिलने के लिए मैं एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय पहुँचा। समय रहा होगा दोपहर कोई दो-सवा दो बजे का। मेरेवाले सज्जन अपनी बात समाप्त कर, तीन अध्यापिकाओं से बिदा ले रहे थे। तीनों अध्यापिकाएँ भी जाने की तैयारी में थीं। अचानक ही सात-आठ महिलाएँ मानो प्रकट हुईं। सबकी सब कलफदार सूती साड़ियों में लिपटीं, सजी-सँवरीं। चिलचिलाती गर्मी में भी वे सब ताजा-दम थीं। बिलकुल ‘गार्डन फ्रेश सब्जी’ की तरह ताजा-दम। हम दोनों ने विद्यालय परिसर की दीवारों के पार, उचक कर देखा तो बात समझ में आई। वे वातानुकूलित कारों से आई थीं।

उन्होंने तीनों अध्यापिकाओं से जिस तरह से नमस्कार किया, लग गया कि वे सब, अध्यापिकाओं की पूर्व परिचित हैं। बिना किसी भूमिका के उन्होंने अपनी बात शुरु कर दी। मालूम हुआ कि वे सब एक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के सेवा क्लब की स्थानीय इकाई से सम्बध्द हैं। तीस जून को उनके वर्तमान संचालक मण्डल का कार्यकाल पूरा हो रहा है। किन्तु उनके कुछ ‘सेवा प्रकल्पों’ की कुछ गतिविधियाँ (जिन्हें वे ‘टारगेट’ कह रही थीं) बाकी रह गई थीं। वे चाह रही थीं तीनों अध्यापिकाएँ यह ‘टारगेट’ पूरा करने में उनकी मदद कर दें। वे, इसी नौ अप्रेल, सोमवार इस विद्यालय में एक समारोह आयोजित कर, विद्यालय के बच्चों को कुछ ‘उपहार’ भेंट करना चाह रही थीं। सुनकर तीनों अध्यापिकाओं ने आपस में, एक दूसरे की शकलें देखीं और उनमें से दो ने, तीसरी के चेहरे पर सवालिया नजरें गड़ा दीं। यह तीसरी, विद्यालय की प्रधानाध्यापिका थी। प्रधानाध्यापिका ने विनीत भाव से क्षमा माँगते हुए असमर्थता जताई। कहा कि वे चाहकर भी उनकी सहायता नहीं कर पाएँगी क्योंकि आज ही परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं और अब तो बच्चे परीक्षा परिणाम सुनानेवाले दिन ही आएँगे। एक ‘सेविका’ ने तनिक अधिकार भाव से कहा - ‘आप कहेंगी तो सब बच्चे आ जाएँगे। आप तो उनके घर पर खबर करा दो।’ प्रधानाध्यापिका ने दृढ़तापूर्वक कहा - ‘क्षमा करें। यह सम्भव नहीं।’ दूसरी ने तनिक अधिक अधिकार भाव से कहा - ‘अरे! वाह! सम्भव कैसे नहीं? आप कहें तो आपको कलेक्टर साहब से कहलवा दें।’ प्रधानाध्यापिका के जवाब ने हम दोनों को चकित किया। किसी शासकीय प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका को इस तरह बात करते हुए मैंने पहली ही बार देखा। बोलीं - ‘जब आप कलेक्टर साहब से कहलवा सकती हैं तो मुझसे सारे बच्चों के पते ले लीजिए और कलेक्टर साहब के कर्मचारी से सब बच्चों के घर पर आदेश भिजवा दीजिए। हम लोगों से तो यह सम्भव नहीं होगा।’ सारी की सारी ‘सेविकाएँ’ कुम्हला गईं। एक ‘सरकारी मास्टरनी’ के ये तेवर! मुझे किसी ‘पर-पीड़क’ की तरह मजा आ गया।

वे सब चलने को हुईं तो प्रधानाध्यापिका ने टोका - ‘एक मिनिट। एक रिक्वेस्ट है आपसे।’ सबके चेहरों पर हिन्दी साहित्य का ‘आशावाद’ जगमगाने लगा। ‘हाँ! हाँ! कहिए।’ प्रमुख सेविका ने उत्साह से कहा। प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘हर साल की तरह इस साल भी आप लोग वृक्षारोपण करने आएँगी। इस बार आएँ तो प्लीज! पौधों के लिए ट्री गार्ड जरूर लेकर आइएगा।’ सुनकर वे सब सन्न रह गईं। वे तो कुछ दूसरी ही बात सुनना चाहती थीं! कुछ पल की खामोशी के बाद प्रमुख सेविका बोली - ‘नहीं। वह तो हमारे लिए पॉसीबल नहीं। उसका बजट नहीं होता हमारे पास। ट्री गार्ड की व्यवस्था तो आपको ही करनी पड़ेगी।’ प्रधनाध्यापिका ने तुर्की-ब-तुर्की प्रति-प्रश्न किया - ‘अरे! वाह! कैसी बात कर रही हैं आप? आपके लिए तो यह चुटकियो का काम है! हमारे स्कूल में तो कुल मिलाकर पाँच ही तो ट्री गार्ड चाहिए! कलेक्टर साहब से किसी भी दानदाता या संस्था को कहलवा कर आप पाँच तो क्या, चाहे जितने ट्री गार्ड अरेंज कर सकती हैं!’ प्रमुख सेविका ने तत्क्षण, बिना विचारे जवाब दिया - ‘कलेक्टर साहब से कहलवाना इतना आसान है क्या?’ सुन कर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ जोर से हँस पड़ीं। सेविकाओं को फौरन ही अपनी चूक समझ में आ गई। सबकी सब झेंप गईं। उनकी यह ‘दशा’ देख, प्रधानाध्यापिका ने अतिरिक्त दृढ़ता से कहा - ‘तो फिर सॉरी। इस साल आप हमारे स्कूल में वृक्षारोपण करने मत आईएगा।’ सबने चुपचाप सुन लिया और बुझे मन से चली गईं। उधर कारों की आवाज दूर जाने लगी और इधर तीनों ‘सरकारी मास्टरनियाँ’ खिलखिलाने लगीं।

हम दोनों की समझ में कुछ नहीं आया। हमारी सवालिया नजरें देख कर प्रधानाध्यापिका ने बताया कि ये कि ये आठ-दस महिलाएँ, गए कुछ बरसों से नियमित रूप से इस विद्यालय परिसर में वृक्षारोपण करती चली आ रही हैं। एक दिन पहले एक मजदूर को भेज कर गड्ढे तैयार करवा देती हैं। अगले दिन, पाँच पौधों, अपनी संस्था के बैनर और फोटोग्राफर के साथ सब आती हैं। दो महिलाएँ, संस्था का बैनर ले कर खड़ी हो जाती हैं। बाकी सब उसके आगे खड़ी होकर, एक के बाद एक, वृक्षारोपण करते हुए अपने फोटू खिंचवाती हैं। सबके फोटू आने चाहिए, इसलिए बैनर पकड़ने का काम ये बारी-बारी से करती हैं। बच्चों को बिस्किट का एक-एक पेकेट देती हैं और चली जाती हैं। अध्यापिकाएँ अपने बच्चों को जोत कर दो-चार महीने, उन पौधों को पानी पिलवाती हैं। पौधे बड़े होते ही हैं कि किसी दिन, आवारा चौपाए उन्हें उदरस्थ कर जाते हैं। यह ‘वार्षिक कार्यक्रम’ कुछ बरसों से ‘स्थायी कार्यक्रम’ बना हुआ है। ट्री गार्ड के लिए, पहले भी दो-एक बार अनुरोध किया था किन्तु किसी ने नहीं सुना। यह सब आखिर कब तक चलाया जाए? सो, इस बार प्रधानाध्यापिका ने फाइल को अन्तिम रूप से निपटा दिया।

किस्सा सुनाकर ‘मुक्ति-मुद्रा’ में चहकते हुए प्रधानाध्यापिका ने कहा - ‘चलिए सर! इस खुशी में चाय हो जाए।’ उन्होंने किसी को मोबाइल लगाया। थोड़ी ही देर में चाय की केतली और प्लास्टिक के गिलास लेकर एक बच्चा आया। हम सबने चाय पी। प्रधानाध्यापिका ने भुगतान किया। मेरे परिचित ने रवानगी की अनुमति माँगते हुए नमस्कार किया। मैंने भी यह शराफत निभाई।

परिचित को स्कूटर पर बैठाकर मैं वहाँ से चला तो सही किन्तु मेरी नजरों में सड़क नहीं, उस अनजान स्कूल भवन की छवि उभर रही थी जहाँ वे सब सेविकाएँ इस साल वृक्षारोपण और ‘सेवा प्रकल्पों’ के अपने टारगेट पूरा करेंगी।

इस साल कौन सा स्कूल उनका टारगेट बनेगा - यह जिज्ञासा मेरे पेट में अभी से मरोड़ें मारने लगी है।

छोटी और फटी झोली का सुख याने मेरी जन्म वर्ष गाँठ

आँखों के आगे जब स्वार्थ नाच रहा हो तो आदमी शिष्टाचार को कैसे ताक पर रख देता है - यह जानने के लिए मुझसे मिलिए। मैंने ऐसा ही किया है। अभी-अभी ही।

30 मार्च को मेरा जन्म दिनांक था। अपने जीवन के पैंसठवें वर्ष में प्रवेश कर गया मैं इस दिन। जिस शान से हमने ‘अंग्रेजीयत’ को आत्मसात कर लिया है, उसके चलते, 29 और 30 मार्च की सेतु रात्रि से ही मुझे बधाई और शुभ-कामना सन्देश मिलने लगे थे। सबसे पहला सन्देश मिला, रात पौने बारह बजे के आसपास - आलोट के हमारे अपार सम्भावनाशील युवा अभिकर्ता प्रिय अमित चौधरी का। मैंने हाथों-हाथ ही बात कर उसे धन्यवाद दिया। किन्तु अगले दिन इस शिष्टाचार को कायम नहीं रख सका।

वित्तीय वर्ष की समाप्ति किसी भी बीमा अभिकर्ता के लिए अतिरिक्त व्यस्ततावाला समय होता है। और जिन अभिकर्ताओं ने, क्लब सदस्यता के लक्ष्य हासिल नहीं किए हों, उनके लिए तो जिन्दगी-मौत का सवाल सामने आ खड़ा होता है। क्लब सदस्यता का अर्थ मेरे लिए था - लगभग अस्सी हजार रुपयों की प्राप्ति। मैं कबूल करता हूँ कि इस लालच के अधीन ही मैं अशिष्ट हो गया। इधर मुझे दनादन सन्देश मिल रहे थे और उधर मैं, सब कुछ भूल कर, ‘इकतीस मार्च देवता’ की आराधना में जुटा हुआ था।

ब्लॉग ने मेरी दुनिया विस्तारित की थी किन्तु यह विस्तार मेरी सीमाओं से बाहर नहीं था। किन्तु फेस बुक ने मेरी क्षमता और सीमा को अपर्याप्त बना दिया। बधाई देनेवाला लगभग हर चौथा कृपालु सूचित कर रहा था कि उसने फेस बुक पर भी अपनी शुभ-कामनाएँ अंकित की हैं। मुझे अच्छा भी लग रहा था और झेंप भी आ रही थी। झेंप का एक बड़ा कारण था - 30 मार्च को ही जन्म दिनांकवाले अपने प्रिय महीप धींग सहित कुछ और कृपालुओं को मैं बधाइयाँ नहीं दे पा रहा था। आज तक नहीं दे पाया। कारण वही - ‘इकतीस मार्च देवता’ में नजर आ रहा मेरा आर्थिक स्वार्थ। दिन भर सोचता रहा कि रात को सबको कृतज्ञता ज्ञापित कर दूँगा। किन्तु ऐसा नहीं कर पाया।

शाम को मैं घर पहुँचा तो आशीर्वाददाताओं ने मेरी अगवानी की। देर रात तक यह सिलसिला चलता रहा। बधाइयाँ, शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद स्वीकार के प्रत्येक क्षण यह विचार मन में बराबर बना रहा कि मुझे आज ही सबके प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर देनी है। किन्तु ऐसा नहीं हो पाया।

प्रिय गुड्डू (अक्षय छाजेड़) और उसकी उत्तमार्द्ध सौ. ज्योति ने अपराह्न में ही सूचित कर दिया था कि हम दोनों (पति-पत्नी) का रात्रि भोजन, ‘छाजेड़ परिवार’ के साथ होगा। साढ़े नौ बजते-बजते, गुड्डू और ज्योति के बुलावे पर बुलावे आने लगे। तत्काल ही जाना पड़ा। भोजन से निपटे तो ज्योति, उसकी सुघड़ बिटिया साक्षी और कैशोर्य के पहले चरण के प्रभाव से ओतप्रोत बेटे ईशान ने केक सामने रख दिया। केक, ज्योति ने घर पर ही बनाया था। सबको भली प्रकार पता है कि मुझे ‘केक संस्कृति’ रुचिकर नहीं है। किन्तु मेरी अरुचि को ठेंगे पर रखकर सबने मेरे हाथ में चाकू थमा दिया। बचाव के लिए मैंने अपनी उत्तमार्द्ध की ओर देखा तो पाया कि वे इस मामले में मेरा साथ छोड़ कर पहले से ही सबके साथ हो चुकी थीं। मैंने केक काटा। पहला ग्रास अपनी उत्तमार्द्ध के मुँह में परोसा। उन्होंने वैसा ही मेरे साथ किया। उसके बाद ज्योति, साक्षी और ईशान ने क्रमशः मुझे केक खिलाया। निस्सन्देह मुझे ‘केक संस्कृति’ रुचिकर नहीं है किन्तु उससे भी अधिक असंदिग्ध तथ्य यह रहा कि केक सचमुच में बहुत ही नर्म और स्वादिष्ट था। उसका कम मीठा होना उसकी उल्लेखनीय विशेषता थी। मैं कबूल करता हूँ कि घर पर बना, इतना नर्म और स्वादिष्ट केक मैंने पहली बार खाया।

‘केक उपक्रम’ के दौरान ही भोपाल से हिमांशु (राय) का फोन आया। बधाई देते हुए कहा कि वह भी फेस बुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुका है। मैंने जब बताया कि फेस बुक तो दूर रही, आज मैं अपना मेल बॉक्स भी नहीं खोल पाया हूँ तो हिमांशु ने परिहास करते हुए बताया कि कम से कम सवा सौ सन्देश तो दर्ज होंगे ही। मुझे गुदगुदी तो हुई किन्तु सिहरन भी हुई - इतने सन्देशों का उत्तर व्यक्तिगत रूप से कैसे दे सकूँगा? इस सोच में डूबा ही था कि लगभग सवा दस बजे, भिलाई से पाबलाजी का फोन आया। मानो महाभारत का संजय सब कुछ अपनी आँखों देख रहा हो इस तरह बोले - ‘केक का एक टुकड़ा मेरे लिए फोन पर रख दीजिए।’ मुझे सचमुच में ताज्जुब हुआ - उस समय केक का टुकड़ा मेरे हाथ में ही था। मैंने वास्तविकता बताई तो वे खूब खुश हुए और दुगुने जोश से चहकते हुए बधाइयाँ दीं।

रात लगभग साढ़े दस बजे घर लौटा। जी किया - मेल बॉक्स खोल कर देखूँ। किन्तु शरीर ने साथ नहीं दिया। सोचा, अगले दिन यह जिम्मेदारी निभा लूँगा। किन्तु स्वार्थ आड़े आ गया और ‘इकतीस मार्च देवता’ की पूजा-आराधना में लग गया।

वह दिन और आज का दिन। दो-एक ग्राहकों को उनकी (नए बीमों की) रसीदें भेजने के लिए मेल बॉक्स खोला तो देख कर भावाकुल भी हुआ और घबराया भी। बाप रे! निश्चय ही डेड़ सौ से अधिक सन्देश तो होंगे ही!
सन्देश अभी भी नहीं देखे हैं। पहले यह पोस्ट प्रकाशित करूँगा और उसके बाद ही सारे सन्देश पढूँगा। भावना तो यही है कि प्रत्येक सन्देश का उत्तर अलग-अलग ही दूँ। लेकिन वास्तव में करूँगा क्या - यह तो उसी समय मालूम हो सकेगा।

बहरहाल, आशीर्वाददाताओं की संख्या देख मैं ‘अभिभूत’ से कोसों आगे, ‘भावाकुल’ हूँ। अत्यधिकभावाकुल। मुझ अकिंचन को सबने जिस तरह मुझे आत्मीयता से समृद्ध किया, उसके सामने मैं नत मस्तक हूँ। धन्यवाद, आभार और कृतज्ञता जैसे शब्दों की अपर्याप्तता और बौनापन मुझे साल रहा है। खुद को व्यक्त करने का सामर्थ्य नहीं है मेरे पास।
मेरी झोली बहुत छोटी तो है ही, फटी हुई भी है। लेकिन इसका छोटा होना और फटा होना मुझे भाग्यशाली बना रहा है - सारी शुभ-कामनाएँ, मेरी झोली से निकल मेरे आँगन में फैल गई हैं। उनकी आत्मीयता और ऊष्मा मुझे आलिंगनबद्ध किए हुए हैं। मैं इस बन्धन से मुक्त होना नहीं चाहता। मैं तमाम कृपालुओं का आजीवन ऋणी बनकर ही रहना चाहता हूँ। नहीं होना मुझे ऋण-मुक्त। यही याचना है कि इसी तरह मुझे निभा लीजिएगा। सहन कर लीजिएगा मेरी कुटिलताओं और अशिष्टताओं को। आपकी शकुनी भावनाएँ ही मुझे शायद इन दुर्गुणों से मुक्त कर दे।

चलते-चलते एक बात विशेष रूप से। आपको शायद अच्छी लगे। गए साल, अपने जन्म दिनांक पर मैंने खुद से एक वादा किया था - दूसरों में खोट नहीं देखूँगा। यह वादा पूरा-पूरा तो नहीं निभा पाया किन्तु स्वयम् के प्रति अधिकतम क्रूर और वस्तुपरक होते हुए कह रहा हूँ कि अपने इस दुर्गुण पर मैंने यथेष्ट नियन्त्रण पाया है। कल तक जिनके नाम से भी मुझे चिढ़ होती थी, गए साल उनमें से कइयों के साथ मैंने घण्टों व्यतीत किए - सचमुच में प्रसन्नतापूर्वक और बिना किसी असुविधा के, बिना किसी चिढ़ के। ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिएगा कि मैं इस दुर्गुण से पूर्णतः मुक्त हो सकूँ।

मैं सदैव की तरह ही, आप सबका कृपाकांक्षी हूँ।

ऐसे हैं हम

मेरे कक्षापाठी के बड़े भाई और सेवा निवृत्त प्राचार्य श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर रतलाम में ही रहते हैं और पत्रों के माध्यम से अपने अनुभव मुझे लिखते रहते हैं। इन अनुभवों में हमारे दैनन्दिन आचरण की विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध अत्यधिक रोचकता और तीखेपन से उजागर होते हैं। पहली नजर में ‘मजा देनेवाले’ ये अनुभव हमारी कथनी और करनी के अन्तर को जिस तीखेपन से प्रकट करते हैं वह तिलमिलादेनेवाला और खुद से नजरें मिलाने में असुविधा पैदा करनेवाला होता है।

अभी दो दिन पहले मुझे करमरकरजी का ऐसा ही एक पत्र मिला है। करमरकरजी की हस्तलिपिवाला मूल पत्र तो यहाँ प्रस्तुत है ही, उसकी इबारत भी यहाँ प्रस्तुत है -


प्रिय श्री विष्णुजी,

नमस्ते,

बड़े दिन से पत्र लिख रहा हूँ।

मैं शासकीय कार्य से (सेवा निवृत्ति के बाद) जावरा जा रहा था। गाड़ी में दो सज्जनों की बातों ने सहसा मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक बी. एस. एन. एल. में व एक शासकीय शिक्षक। बी. एस. एन. एल. कर्मचारी पूर्व में प्रायव्हेट नौकरी में थे। शिक्षक, जो सरकारी हैं, पहले प्रायव्हेट स्कूल में थे।

बी. एस. एन. एल. कर्मचारी के पास उनकी बी. एस. एन. एल. का मोबाइल नहीं था। शिक्षक महोदय के बच्चे प्रायव्हेट स्कूल में पढ़ते हैं।

इन्हें नौकरियाँ शासकीय चाहिए, मगर फोन और स्कूल प्रायव्हेट चाहिए। फिर, इनकी निन्दा पुराण की कथाएँ। श्रीमनमोहन सिंहजी से लेकर शिवराज सिंह से होते हुए पार्षद तक सब भ्रष्ट। ये दोनों तड़ी मारकर एक सन्त की सेवा में आ रहे थे।

कैसा ‘दो मुँहा’ व्यवहार पाले हैं लोग? सन्तों की भीड़ ऐसे लोगों से ही बनती है।

विष्णुपत्नी को नमस्ते।

- सुरेशचन्द्र करमरकर

आत्मा की अनवरत चैतन्यता से साक्षात्‍कार

इस अनुभव को कौन से विशेषण से सजाऊँ? संज्ञाओं के कौन से वर्ग में इसे रखूँ? इसे सच की शक्ति कहूँ या सच की निर्ममता? आत्मा की अनवरत चैतन्यता के इस साक्षात्कार को कैसे और कहाँ सहेजकर रखूँ? सब कुछ इतना अनपेक्षित और अकस्मात हुआ कि न तो इसका ‘अथ‘ पकड़ पा रहा हूँ और न ही ‘इति‘ खोज पा रहा हूँ। ऐसे में, अच्छा यही होगा कि सब कुछ, ‘जस का तस’ परोस दूँ - खुद को पूरी तरह से दूर रख कर।

यह गए सप्ताह की बात है। वे बिना पूर्व सूचना दिए आए और बिना किसी भूमिका के बोले - ‘आपको फुरसत हो न हो, मेरी बात सुन लीजिए। पता नहीं मुझे कितनी देर लगेगी किन्तु अपनी बात कह कर फौरन ही चला जाऊँगा। बिलकुल वैसे ही, जैसे कि अचानक ही आया हूँ।’ मैं उनसे कुछ पूछता-कहता, उससे पहले ही वे शुरु हो गए। अब सब कुछ, लगभग उन्हीं के शब्दों में -

‘‘इस 31 मार्च को मैं रिटायर हो रहा हूँ। छब्बीस बरस की उम्र में मेरी नौकरी लगी थी। चौंतीस बरस हो गए, नौकरी लगने के पहले ही दिन से मैं अपनी आत्मा पर यह बोझ ढो रहा हूँ। पता नहीं क्यों, गए कुछ दिनों से मेरा जीना हराम हो गया है। न नींद आती है न रोटी गले उतरती है। सब इसे मेरे रिटायरमेण्ट का प्रभाव समझ रहे हैं। समझ रहे हैं कि मैं रिटायरमेण्ट के बाद होनेवाली अपनी दशा की कल्पना से परेशान हूँ। लेकिन बात कुछ और ही है। अब मुझसे सहा नहीं जा रहा। साँसें घुटी-घुटी लगती हैं। छाती में समाती नहीं। लगता है, मेरी छाती अचानक ही फट जाएगी। पता नहीं, मौत कब आएगी। किन्तु गए कुछ दिनों से तो मैं पल-पल मर रहा हूँ।

‘‘नौकरी लगने के एक दिन पहले ही मुझे बताया गया कि मुझे मेरी योग्यता और पात्रता से यह नौकरी नहीं मिली थी। मामा ने जुगत भिड़ा कर मुझे नौकरी दिलवाई थी। यह किस्सा मामा ने ही सुनाया तब मुझे सारी बात मालूम हुई।

‘‘नौकरी के उम्मीदवारों को एक लिखित परीक्षा देनी थी। मैं परीक्षा देने गया तो देखा कि उम्मीदवारों पर नजर रखने के लिए जिन लोगों की ड्यूटी लगी थी, उनमें मामा भी शामिल हैं। आपको पता ही है कि मामा भी इसी विभाग में थे। उन्हें देख कर मुझे अच्छा लगा क्योंकि पढ़ाई के मामले में मैं शुरु से एकदम मामूली स्तर का विद्यार्थी था। मुझे अपने पास होने की कोई उम्मीद नहीं थी। मैं नकल की तैयारी करके गया था। मामा को देखकर लगा कि भगवान ने मेरी सुन ली। अब मैं आराम से नकल कर सकूँगा।‘‘परीक्षा शुरु हुई। एक-दो सवाल ऐसे थे जिनके जवाब मुझे कुछ-कुछ आते थे। सोचा, पहले वे ही लिख लूँ। नकल सामग्री का उपयोग बाद में कर लूँगा। लेकिन इसकी नौबत ही नहीं आई। पन्द्रह-बीस मिनिटों के बाद ही, निरीक्षण करते हुए, मामा मेरे पास आकर रुक गए और कड़ी नजरों से मुझे देखते हुए बोले - ‘यह क्या कर रहे हो? हमें बेवकूफ समझते हो? समझते हो कि हमें कुछ नजर नहीं आ रहा? चलो! खड़े हो जाओ!’ कह कर मामा ने मेरी उत्तर पुस्तिका झपट ली। मुझे चक्कर आ गए। कहाँ तो मैं मस्ती से नकल करने की सोच रहा था और कहाँ मेरे ही मामा ने मुझे पकड़ लिया? वह भी तब जबकि मैं नकल कर ही नहीं रहा था! मुझे कँपकँपी छूट गई और मैं रोने लगा। लेकिन मामा जरा भी नहीं पसीजे। मेरी उत्तर पुस्तिका लिए मामा आगे-आगे और उनके पीछे-पीछे रोता हुआ मैं।

‘‘हम दोनों कमरे से बाहर आए। एकदम कोनेवाले कमरे के बाहर जा कर मामा रुके और उत्तर पुस्तिका मेरे हाथ में देकर बोले - ‘रोना बन्द कर गधे! जा। चुपचाप अन्दर जा। अन्दर ओमजी बैठे हैं। वे तुझे सारे जवाब लिखवा देंगे।’ मैं मानो आसमान से गिरा। मुझे कुछ सूझ पड़ती, तब तक मामा जा चुके थे। मैं हाथ में उत्तर पुस्तिका लिए, मूर्खों की तरह बरामदे में खड़ा था। ओमजी तेजी से बाहर आए और मुझे पकड़ कर अन्दर ले गए। इसके बाद क्या हुआ, यह कहने की जरूरत नहीं। बस, लोग समझे कि मुझे नकल करते हुए निकाल दिया गया है जबकि सौ टका सही उत्तरोंवाली मेरी कॉपी सबसे पहले जमा करा दी गई थी।

‘‘कुछ दिनों बाद परीक्षा का रिजल्ट आया। मुझे पास होना ही था। मैं पास हो गया। उसके कुछ दिनों बाद डाक से मुझे नियुक्ति पत्र मिल गया। मैंने मामा को दिखाया तो मामा बोले - ‘कोई जाने न जाने, तू, मैं, ओमजी और भगवान जानता है कि तुझे यह नौकरी पात्रता और योग्यता से नहीं, भाग्य से मिली है। तेरे कमरे में अपनी ड्यूटी मैंने ही लगवाई थी। किसी और के हक पर डाका डाल कर तुझे नौकरी मिली है। पाप तो मैंने ही किया है। भगवान मुझे सजा देगा ही। पता नहीं वह कौन सी सजा देगा और किस रूप में देगा। किन्तु देगा जरूर और मुझे भुगतनी ही पड़ेगी। लेकिन तू दो बातें याद रखना। एक तो यह कि तुझे जितनी आसानी से यह नौकरी मिली है, इसे निभाना उससे हजार गुना मुश्किल होगा। निभाने की योग्यता, क्षमता और पात्रता तुझे ही हासिल करनी पड़ेगी। और दूसरी बात यह कि इस बेईमानी का प्रायश्चित तुझे पूरे सेवाकाल में करते रहना पड़ेगा। यह प्रायश्चित कैसे किया जाए, यह तू ही तय करना।’

‘‘मैं उछलता हुआ मामा के पास गया था और बुझे मन से लौटा। कहाँ तो शाबाशी की उम्मीद थी और कहाँ लम्बा-चौड़ा उपदेश लेकर लौटा। मामा पर गुस्सा आने लगा और रोना भी। मुझे लगा, मामा ने जानबूझकर मुझे बेइज्जत कर दिया है। यही सब करना था तो मुझे नौकरी दिलाई ही क्यों?

‘‘घर आया। मेरी नौकरी लग जाने से घर के सब लोग खुश थे किन्तु मैं खुश होने का नाटक भी नहीं कर पा रहा था। अगली सुबह मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी और मैं उदासियों से और मामा के प्रति गुस्से घिरा था।‘‘रात को देर तक नींद नहीं आई। विचारों का झंझावात आया हुआ था। गुस्सा धीरे-धीरे कम होने लगा। मन शान्त हुआ तो मामा की बातें फिर से कानों में गूँजने लगीं। विचार आया - मामा ने गलत क्या कहा? वे तो खुद को भी गुनहगार और पापी मान रहे हैं? अपने गुनाह की सजा भुगतने के लिए खुद को तैयार किए बैठे हैं। मैं तो उनसे बेहतर स्थिति में हूँ। मुझे तो पहले ही दिन से प्रायश्चित करने का अवसर मिल रहा है!

‘‘और बैरागीजी! उस रात, एक क्षण में ही मानो मेरा काया पलट हो गया। ईश्वर मुझ पर महरबान हो गया। मैंने नौकरी को साधा और इतने बढ़िया ढंग से साधा कि हर कोई दंग रह गया। मैंने कायदे-कानूनों की, काम की प्रक्रिया की, फाइल बनाने और उसे चलाने की, नोट शीट लिखने की, किस काम को पहले निपटाना इस बात की, याने सारी बातों की जानकारी लेने में खुद को खपा दिया। हालत यह हो गई कि जब भी कोई फाइल उलझती, मेरी राय ली जाती। मेरे सेक्शन ऑफिसर मुझसे सलाह लेते। शुरु के चार-पाँच सालों को छोड़कर बाकी पूरे सर्विस पीरीयड में मेरी सी. आर. हमेशा ‘आउटस्टैण्डिंग’ ही रही। मुझे मेरे सारे प्रमोशन तयशुदा वक्त पर मिले। विभागीय स्तर पर हुए मेरे पाँच-सात सम्मान समारोहों में तो आप भी शरीक हुए हैं। लेन-देन के मामले में मैंने पहले ही दिन कसम खा ली थी - भूखों मर जाऊँगा पर रिश्वत नहीं लूँगा। नहीं ली। कभी, किसी की फाइल, मिनिट भर भी नहीं रोकी। सूखी तनख्वाह में मेरी सारी जरूरतें पूरी हुईं। बेटा बी. ई., एम.बी. ए. कर अच्छी नौकरी कर रहा है। बेटी की शादी में तो आप शरीक हुए ही थे। माया नहीं कमाई किन्तु सद्भावनाएँ अटूट मिलीं। किसी गरीब की हाय नहीं ली और जबरे की नाराजी नहीं झेली। आज मुझे कोई कमी नहीं है। सब रामजी राजी है।

‘‘लेकिन किसी का हक मारकर नौकरी हासिल करने की फाँस आज तक कलेजे में गड़ी हुई है। एक मामा और दूसरे ओमजी, ये दो लोग इस बात को जानते थे। आज दोनों ही नहीं हैं। लेकिन सोते-जागते लगता है, कोई दो आँखें हैं जो बिना पलकें झपकाए मुझे देख रही हैं। देखती ही जा रही हैं। पता नहीं ये आँखें भगवान की हैं या उसकी जिसके हक की नौकरी मुझे मिली। यह हकीकत, ये आँखें अब मुझसे नहीं झेली जा रहीं। आठ-दस दिनों बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा। तब अकेलापन और बढ़ जाएगा। तब, इन आँखों की ताब झेलना, इस फाँस की कसक को सह पाना मेरे लिए और मुश्किल हो जाएगा। सोचा, किसी के सामने सब कुछ कबूल कर लूँ तो शायद थोड़ी राहत मिल जाए। इसलिए आपके पास आया। भगवान आपका भला करे कि आपने मेरी बात शान्ति से सुन ली। मैं हलका हो गया। मेरे इस कबूलनामे का आपको जो करना हो कर लें। अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।’’

और, अपनी सुना कर वे सचमुच में फौरन ही चले गए। नहीं जानता वे मुक्त हुए या नहीं किन्तु वे मुझे बिंधा हुआ छोड़ गए हैं।

बजते डिंगे

स्थानीय स्थितियों और प्रभावों के कारण, स्वरूप और प्रस्तुति में थोड़ा-बहुत अन्तर हो सकता है किन्तु यह कथा पूरे देश के ‘लोक‘ में समान रूप से कही-सुनी जाती होगी। मैं चूँकि ‘मालवी’ हूँ, इसलिए मुझे छूट दी जाए कि मैं इसे ‘मालवी लोक कथा’ के रूप में प्रस्तुत कर सकूँ।

सुविधा और सुरक्षा की दृष्टि से एक व्यक्ति ने एक गधा और एक कुत्ता पाल रखा था। सामान ढोने का काम गधे के जिम्मे था और चौकीदारी करने का काम कुत्ते के जिम्मे। गधे को दिन भर कड़ा परिश्रम करना पड़ता जबकि कुत्ता दिन भर आराम से बैठा रहता।

एक शाम गधे ने कुत्ते से अपनी पीड़ा जताई और एक दूसरे का काम बदलने का प्रस्ताव किया। कुत्ते ने कहा कि वह जानता है कि इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे किन्तु दिन-रात साथ-साथ रहते हैं तो काम के बदलाव का यह प्रयोग आज रात से ही शुरु करके देख लिया जाए। कल की कल देखेंगे।

कुत्ते द्वारा अपना प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने से गधा खुश हो गया। इतना खुश कि दिन भर की थकान भूल गया।

रात हुई। सब सो गए। योग-संयोग रहा कि उसी रात चोर आ गए। कुत्ते के कान खड़े हुए और वह भौंकना शुरु करने ही वाला था कि उसे मित्र से किए गए ‘काम के बदलाव’ का वादा याद आ गया। उसने गधे से कहा कि वह मालिक को चोरों के आने की सूचना दे। खुशी से झूमते गधे ने उत्साह के अतिरेक में जोर-जोर से रेंकना शुरु कर दिया। मालिक की नींद बाधित हुई। बिस्तर छोड़ कर बाहर आया और गधे को दो लात टिका कर सोने चला गया। गधे को अच्छा तो नहीं लगा किन्तु बात स्वामी भक्ति और कर्तव्यपरायणता की थी। सो, फिर जोर-जोर से रेंकने लगा। मालिक फिर बाहर आया और इस बार आठ-दस लातें टिका दी।गधे को मालिक का यह व्यवहार अच्छा तो नहीं लग रहा था किन्तु कर ही क्या सकता था? सो, उसने रेंकना जारी रखा। परेशान मालिक ने अन्ततः डण्डा उठाया और गधे की, अन्धाधुन्ध पिटाई शुरु कर दी। दिन भर की कड़ी मेहनत के कारण पहले से ही निढाल गधे के लिए यह ‘कोढ़ में खाज’ वाली बात थी। वह दुःखी होकर, हाँफता-कराहता, लस्त-पस्त हो, अपने खूँटे के पास लेट गया।

कुत्ते ने सहानुभूति जताते हुए कहा - मैंने तो पहले ही मना किया था। तुम ही नहीं माने। प्रकृति के प्रतिकूल व्यवहार करने पर यही होता है।

कुत्ते ने नसीहत दी -

जणी को काम वणी ने साजे।
और करे तो डिंगा बाजे।।

याने, सबको अपना-अपना काम ही शोभा देता है। ऐसा न करने पर डण्डे पड़ते हैं और डण्डों की आवाज सारी दुनिया सुनती है।

‘बजते डिंगे’ दसों दिशाओं में गूँज रहे हैं।

‘वे’ याने कि ‘हम’

कुछ तो है जो कचोटता है, न चाहते हुए भी अपनी ओर ध्यानाकर्षित करता है, सोचने पर विवश करता है।

मेरे कस्बे की पुलिस ने, सोमवार की रात दस लोगों को गिरफ्तार किया। इनमें, क्रिकेट और वायदा बाजार के सटोरिए और सोना-चाँदी व्यापारी शामिल हैं। सब के सब, अच्छी-खासी सामाजिक हैसियत रखनेवाले, श्री सम्पन्न और क्षमतावान। पुलिस के अनुसार ये सब जुआ खेल रहे थे।

सारे अखबारों ने (मंगलवार को) यह समाचार प्रमुखता से, चित्र सहित प्रकाशित तो किया किन्तु इस बात का उल्लेख अतिरिक्त महत्व देते हुए विशेष रूप से किया कि इन लोगों को पकड़ने के लिए, पुलिस ने ‘राजा जैसी हिम्मत’ दिखाई। ‘राजा जैसी हिम्मत’ याने, शक्ति का सर्वोच्च और अन्तिम ऐसा संस्थान् जिससे, अपनी कार्रवाई के लिए, कोई पूछ-परख न की जा सके या जो अपने से ऊपरवाले, ‘किसी’ को स्पष्टीकरण देने के लिए बाध्य न हो। इस विशेष उल्लेख के पीछे कारण यह बताया गया कि पकड़े गए तमाम लोगों को बचाने के लिए, काँग्रेस और भाजपा के कुछ प्रभावी नेता, अपने तमाम राजनीतिक मतभेद भुलाकर, पुलिस थाने पहुँचे तो कुछ निर्दलीय नेताओं ने फोन करके इन्हें बचाने की गुहार लगाई। बुधवार को अखबारों ने सूचित किया कि दिल्ली से एक काँग्रेसी नेता ने भी, गिरफ्तार लोगों के समर्थन में पुलिस अधिकारियों को फोन किया।

अखबार, मुक्त-कण्ठ से पुलिस भूमिका की सराहना तो कर रहे हैं किन्तु परोक्षतः भरोसा भी जता रहे हैं कि दो-चार दिनों में मुद्दा ठण्डा हो जाएगा और पुलिस को अन्ततः नेताओं के सामने समर्पण करना ही पड़ेगा। छपे समाचार की पंक्तियों के बीच की खाली जगह में पढ़ा जा सकता है कि ये ही पुलिसकर्मी/अधिकारी आनेवाले दिनों में उन्हीं लोगों के अध्यक्षता और मुख्य अतिथिवाले आयोजनों की व्यवस्था में तैनात नजर आएँगे जिन्हें आज अपराधी करार दिया जा रहा है और जिन्हें गिरफ्तार करने के लिए ‘राजा जैसी हिम्मत‘ बरती गई है।

मैंने इस समाचार को देखा, बार-बार देखा, खूब ध्यान से देखा किन्तु, गिरफ्तारों की पैरवी करनेवाले एक भी नेता का नाम समाचारों में नजर नहीं आया। मुझे पक्का पता था कि ऐसा ही होगा इसलिए मुझे तनिक भी अचरज नहीं हुआ। अपनी धारणा की पुष्टि करने के लिए मैंने फेस बुक खोली। एक पत्रकार ने इस समाचार को वहाँ भी ‘राजा जैसी हिम्मत’ वाले विशेषण सहित लगाया हुआ था लेकिन नेताओं के नाम यहाँ भी नहीं थे। हाँ, कुछ टिप्पणियाँ अवश्य उल्लेखनीय थीं। एक टिप्पणी में पत्रकारों और पुलिस की औकात बताई गई थी और गिरफ्तार किए गए लोगों के जल्दी ही छूट जाने की अग्रिम सूचना, अधिकारपूर्वक दी गई थी। दो-एक टिप्पणियों में पत्रकारों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें, नेताओं का नाम बताने की चुनौती दी गई थी तो कुछ टिप्पणियों में पत्रकारों का बचाव किया गया था। किन्तु सारी टिप्पणियों से यह बात साफ-साफ अनुभव हो रही थी सबको इन नेताओं के नाम मालूम थे। बस! बताना कोई नहीं चाह रहा था। मानो प्रत्येक टिप्पणीकार कह रहा था - ‘मुझे तो मालूम है। तुझे मालूम हो तो तू बता। तेरे बताए नाम गलत होंगे तो मैं बता दूँगा।’ याने, ‘नाम बताने का यश’ लेने का लोभ किसी को नहीं! अहा! क्या निस्पृहता है! क्या वीतराग भाव है!

हम जानते हैं कि अपराधियों को सुरक्षा देने का अपराध कौन कर रहा है किन्तु उसका नाम नहीं बताएँगे। चलिए, नाम न बताएँ। कोई बात नहीं। किन्तु अनुचित को संरक्षण और प्रश्रय देनेवाले अपने इन नेताओं को हम टोकेंगे भी नहीं और जब भी ये सामने मिलेंगे तो हम ‘दैन्य’ की सीमा तक विनीत भाव से, इस तरह से झुकते हुए मानो हमारी रीढ़ की हड्डी है ही नहीं, ‘हें! हें!’ करते हुए इन्हें प्रणाम करने की प्रतियोगिता में, कम से कम समय में सबसे पहले प्रणाम करने का खिताब हासिल करना चाहेंगे। बलिहारी! बलिहारी!!

पत्रकारों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। ऐसे मामलों में वे अपनी क्षमता और सीमा का अधिकतम उपयोग करते ही हैं। इस मामले में भी उन्होंने वही किया है। सामाजिक स्खलन के विकराल प्रभाव से त्रस्त इस समय में आज भी शिक्षक, पत्रकार और न्यायपालिका, इन तीन संस्थाओं से सबको अपेक्षाएँ बनी हुई हैं। किन्तु ये तभी हमारी अपेक्षाएँ पूरी कर सकते हैं जब हम इन्हें तन-मन-धन से खुला और यथेष्ठ सहयोग, समर्थन और सुरक्षा उपलब्ध कराएँ। भले ही पत्रकारिता अपना मूल स्वरूप खोती जा रही हो किन्तु अवधारणा के सन्दर्भ में उसमें कोई बदलाव नहीं आया है। आएगा भी नहीं। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि अखबारों के जरिए जनभावनाएँ उजागर करनेवाले पत्रकार, उतनी ही पत्रकारिता कर पा रहे हैं जितनी कि वे कर सकते हैं या कि जितनी उन्हें करने दी जा रही है। (वर्ना तो सबके सब नौकरियाँ ही तो कर रहे हैं!) वह जमाना गया जब अखबार वास्तव में अखबार हुआ करते थे। तब, अखबार और पत्रकारिता ‘अभियान’ (मिशन) हुआ करता था। आज यह ‘व्यवसाय’ (प्रोफेशन) से कोसों आगे बढ़ कर ‘बिजनेस’ (व्यापार) हो गया है। निगमित (कार्पोरेट) घरानों के स्वामित्ववाले अखबार अब ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) बन कर रह गए हैं। ऐसे में किसी पत्रकार से अपेक्षा करना कि वह अपनी नौकरी दाँव पर लगाने की, अपने बीबी-बच्चों की परवाह न करने की जोखिम लेकर हमारी ‘सेवा’ करे, न केवल हमारी मूर्खता होगी अपितु पत्रकारों के प्रति अन्याय और अत्याचार भी होगा। हाँ, अखबार मालिक यह जोखिम ले सकता है और मेरा दावा है कि यदि कोई अखबार मालिक जोखिम ले तो पत्रकार सचमुच में अपनी जान पर खेल कर पत्रकारिता कर लेंगे। वर्ना मैं भुक्त भोगी हूँ कि जब पत्रकार पर मानहानि का मुकदमा लगता है तो, पत्रकारों को मदद करने का वादा करनेवाले सूरमा गुम हो जाते हैं और मुकदमे में हाजरी माफी की अर्जी पर लगाए जानेवाले टिकिट के दो रुपये जुटाने में भी पत्रकार को पुनर्जन्म लेना पड़ जाता है।
हम समाज से और तमाम सामाजिक कारकों से सहयोग और सुरक्षा तो चाहते हैं किन्तु खुद कुछ नहीं करना चाहते। हम अधिकारों की दुहाइयाँ देते हैं और कर्तव्य भूल जाते हैं। भूल जाते हैं कि जिस ‘समाज’ से हम अपेक्षाएँ कर रहे हैं, वह हमारा ही बनाया हुआ है, हम ही उसकी आधारभूत इकाई हैं। समाज हमारी भव्य इमारत है और हम उसकी नींव के वे पत्थर जिन पर इस इमारत की मजबूती और बुलन्दगी निर्भर है। हम अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो इस इमारत का, भरभराकर ढहना निश्चित है।

जैसे हम हैं, वैसा ही हमारा समाज है। हमें वैसे ही नेता मिले हैं, वैसी ही पुलिस मिली है और वैसे ही पत्रकार भी मिले हैं जैसे हम हैं। इनमें से कोई भी बाहर से नहीं आया है। ये सब हममें से ही हैं, हमारे ही भेजे हुए, हमारे ही बनाए हुए।

वस्तुतः ‘वे’, वे नहीं हैं - ‘हम’ ही हैं।

किसम-किसम के कर्मचारी

हम लगभग 30-35 एजेण्टों ने मेरी कलवाली पोस्‍ट काम करने की शर्त का, बड़े ही मनोयोग से सामूहिक वाचन किया और बिना किसी गहन विचार विमर्श के, कर्मचारियों को निम्नानुसार तीन श्रेणियों में विभाजित किया -

पहली श्रेणी में वे कर्मचारी आते हैं जो ‘काम‘ करते हैं। ये यथा सम्भव समय से पहले ही दफ्तर पहुँचते हैं और दफ्तर का समय हो जाने के बाद भी, देर शाम तक काम करते रहते हैं। इनकी भावना रहती है कि इनकी टेबल पर कल के लिए कोई काम लम्बित नहीं रह जाए। ये कर्मचारी भोजनावकाश में अपनी कुर्सी छोड़ते जरूर हैं किन्तु इन्हें लौटने की उतावली बनी रहती है। भोजन करने के बाद गपियाने में इनकी कोई रुचि नहीं होती। ये कर्मचारी चाय-पानी के नाम पर भी अपनी कुर्सी नहीं छोड़ते और जब भी चाय पीनी होती है, अपनी टेबल पर ही मँगवा लेते हैं।

काम के मामले में ये सदैव ही ‘ओव्हर लोडेड’ रहते हैं किन्तु इन्हें कोई शिकायत नहीं होती। मेनेजमेण्ट को जब भी कोई काम तत्काल ही करवाना होता है, वह काम इन कर्मचारियों को सौंप दिया जाता है। सुखद आश्चर्य यह कि पहले से ही काम से लदे-फँदे ये कर्मचारी, इस तरह अचानक आए काम को भी प्रसन्नतापूर्वक, सर्वोच्च प्राथमिकता पर निपटा देते हैं।

संख्या, प्रतिशत और अनुपात में ये ‘अत्यल्प समुदाय’ के लोग हैं और हम सबने माना कि ऐसे कर्मचारियों के दम पर ही दफ्तर की इज्जत बनती है और बनी रहती है। अच्छी बात यह है कि मेनेजमेण्ट भी इनकी इस भूमिका को यथेष्ठ सम्वेग और गहनता से अनुभव करता है और इनके काम में कोई अड़ंगा पैदा नहीं करता। हम सबने यह भी महसूस किया कि प्रथमतः तो ये कर्मचारी अपने लिए कोई अतिरिक्त ‘फेवर’ चाहते ही नहीं किन्तु यदि कभी ऐसी स्थिति बनी तो मेनेजमेण्ट ने, इनके कहने से पहले ही इन्हें यह ‘फेवर’ दे दिया। किन्तु जो बात हमें सबसे अच्छी लगी वह यह कि उत्तम चरित्रावली और पदोन्नति के मामले में इनमें से किसी के साथ कभी कोई अन्याय नहीं हुआ।

दूसरी श्रेणी के कर्मचारी ‘नौकरी’ करते हैं। ये अपने अधिकारों के प्रति चौबीसों घण्टे सजग रहते हैं। ये समय पर दफ्तर आते हैं (कानूनन जितनी देर से आना अनुमतेय होता है, उतनी देर से ही आते हैं), समय होते ही भोजनावकाश पर चले जाते हैं, भोजन करने के बाद थोड़ी देर गप्प गोष्ठी जमाते हैं और सदैव ही, भोजनवाकाश की निर्धारित समयावधि से दस-पाँच मिनिट देर से ही अपनी कुर्सी पर लौटते हैं। ये लोग अत्यन्त सावधानीपूर्वक काम करते हैं और पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं कि कानूनों का पालन करते हुए किस तरह, कम से कम काम किया जाए। ये लोग, चाय-पानी के नाम पर गाहे-ब-गाहे अपनी कुर्सियों से गायब हो जाते हैं। आज का काम कल पर छोड़ने में इन्हें रंचमात्र भी संकोच नहीं होता। ये लोग यह चिन्ता भी नहीं करते कि इनके ऐसे व्यवहार के कारण ग्राहकों को कितनी असुविधा होती है। ये अत्यन्त सहज भाव से, ग्राहकों को ‘अब आज तो मुमकिन नहीं। कल तलाश कर लीजिएगा।’ जैसे जुमलों से ‘टरका देते’ हैं। ग्राहक के चेहरे पर उभरी प्रतिक्रिया इनके लिए कोई मायने नहीं रखती। दफ्तर का समय होने से बीस-पचीस मिनिट पहले ही ये कर्मचारी अपने कागज-पत्तर समेट लेते हैं और हाथ पर हाथ धरे, घड़ी की ओर ताकते रहते हैं। कानूनी सुविधा का लाभ उठाकर देर से आनेवाले ये कर्मचारी, जाने के मामले में कानून को पूरा सम्मान देते हैं और निर्धारित समय के बाद क्षण भर भी नहीं रुकते।

मेनेजमेण्ट का व्यवहार भी इनके प्रति ‘कानूनी’ ही होता है और इसीलिए दोनों के बीच आए दिनों कोई न कोई खिचखिच चलती रहती है। ये कम से कम काम करना चाहते हैं और मेनेजमेण्ट चाहता है ये लोग, कम से कम काम तो करें। ‘कम से कम’ के, दोनों के अपने-अपने अर्थ हैं।

संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ये ‘मध्यमवर्गीय’ श्रेणी में आते हैं - याने सर्वाधिक। ये सदैव किसी न किसी बात का रोना रोते रहते हैं और अपनी-अपनी यूनीयन के नेताओं की आलोचना करते हुए उनके प्रति अपना असन्तोष जताते रहते हैं। ये किसी की परवाह नहीं करते किन्तु चाहते हैं कि सब इनकी परवाह करें।

तीसरी श्रेणी के कर्मचारी न तो काम करते हैं और न ही नौकरी। इन्हें ‘फुल पे पेंशनर’ कहा जाता है। ये रोज ही, दौड़ते-हाँफते, निर्धारित समय की अन्तिम सीमा वाले क्षणों में दफ्तर पहुँचते हैं। जल्दी से जल्दी अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं और बिना किसी की ओर देखे, बिना किसी की चिन्ता किए, फौरन ही दफ्तर छोड़ देते हैं। किसी को अपनी बच्ची को स्कूल छोड़ना होता है तो किसी को अपनी साली को रिसीव करने के लिए स्टेशन जाना होता है। सुबह-सुबह सब्जियाँ ताजी मिलती हैं इसलिए ऐसे कर्मचारी, हाजरी दर्ज करने के फौरन बाद सब्जी मण्डी चले जाते हैं। यदि ऐसा कुछ न हो तो ये कर्मचारी, फौरन ही दफ्तर के सामनेवाली, चाय की गुमटी पर पहुँच जाते हैं और तीन मिनिटों में पी जा सकनेवाली चाय को बीस मिनिटों में खत्म कर पाते हैं। इन्हें अपनी कुर्सी पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं होती। जैसे-तैसे कुर्सी पर पहुँचते हैं तो पहले ही क्षण परेशान हो जाते हैं कि कहाँ से काम शुरु किया जाए। अनिर्णय की स्थिति से मुक्ति पाने में इन्हें देर नहीं लगती और ये काम शुरु ही नहीं करते। अपनी कुर्सी इन्हें काटती है। सो, ये (अपने जैसे ही) दूसरे कर्मचारी के पास चले जाते हैं। इन्हें अपने दफ्तर की इज्जत की बड़ी चिन्ता रहती है इसलिए अपना काम छोड़कर दूसरों को नसीहत देते रहते हैं।

इनके लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं होती। जब चाहे, चले जाते हैं और तभी आते हैं जब या तो मजबूरी में आना पड़ता है या फिर इसलिए कि कल फिर आ सकें। इन दिनों, कम्प्यूटर पर हाजरी दर्ज कराने की व्यवस्था हो गई है। तीसरी श्रेणी के ये कर्मचारी, एक दूसरे की भरपूर चिन्ता और सहायता करते हैं और ‘अपने जैसे’ किसी का सन्देश मिलते ही, उसकी हाजरी भी कम्प्यूटर पर दर्ज कर देते हैं।

ईश्वर की असीम कृपा है कि संख्या, प्रतिशत और अनुपात के मामले में ऐसे लोग ‘अल्पतम समुदाय’ में होते हैं किन्तु चर्चा इन्हीं की (याने, इनके निकम्मेन की) होती है और इतनी और इस कदर होती है मानो सारे के सारे कर्मचारी ऐसे ही हैं। ये ईश्वर से लेकर, सड़क पर आ-जा रहे, अनजान लोगों तक से नाराज रहते हैं। इन्हें लगता है कि सारी दुनिया ने इनके विरुद्ध षड़यन्त्र रच लिया है जिसके चलते इन्हें न तो पदोन्नति मिल रही है न ही इनकी पूछ-परख हो रही है। अच्छी बात यह भी है कि मेनेजमेण्ट इनकी रग-रग से वाकिफ होता है। यह अलग बात है कि मेनेजमेण्ट चाहकर भी इनके विरुद्ध खुलकर कुछ नहीं कर पाता (कर्मचारी यूनियनें अपने कामचोर सदस्यों को बचाने में भी पूरी-पूरी ईमानदारी जो बरतती हैं!) किन्तु वार्षिक गोपनीय चरित्रावली लिखते समय इनका पूरा-पूरा ध्यान रखता है। इसी कारण, ये तो जहाँ के तहाँ बने रह जाते हैं जबकि इनके साथ नौकरी में आनेवाले लोग, उपरोल्लेखित प्रथम श्रेणी के कर्मचारी बनकर, दो-दो, तीन-तीन पदोन्नतियाँ लेकर, कभी-कभी इनके नियन्त्रक की स्थिति में आ चुके होते हैं।

ऐसे लोगों के भरोसे दफ्तर का कोई काम नहीं छोड़ा जाता। हम एजेण्टों ने तेजी से अनुभव किया इन्हें प्रायः वही काम दिया जाता है जिसके न करने में इनका भी नुकसान होने की आशंका हो।

अच्छी बात यह भी कि ऐसे कर्मचारी, लोगों की नजरों में अपनी छवि के बारे में भली प्रकार जानते हैं
इसलिए, किसी के कुछ कहने की परवाह बिलकुल ही नहीं करते। (परवाह करने लगें तो खुद को बदल न लें?) उलटे कुछ इस तरह हरकत करते हैं मानो अपने कपड़ों पर से धूल झटक कर कह रहे हों - ‘शरम तो आनी-जानी है, बन्दा ढीढ होना चाहिए।’

कोई सवा घण्टे की अपनी इस मशक्कत के निष्कर्षों पर हम सबने जब पुनर्विचार किया तो पाया कि हम सबके सब एक मत थे - अपने इन निष्कर्षों को न बदलने के लिए।

काम करने की शर्त

काम करने/निपटाने के लिए क्या (या, क्या-क्या) जरूरी होता है?

क्या फिजूल का, मूर्खतापूर्ण सवाल है? जैसे चाय बनाने के लिए दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती, शौक हो तो मसाला जरूरी होता है वैसे ही, कम से कम ये तीन बातें तो आवश्यक होंगी ही - काम, आवश्यक साधन/संसाधन और समुचित वातावरण।

बड़े बेटे वल्कल की, नौकरी की कठोरता और विवशताएँ अब हमें भली प्रकार समझ में आ गई हैं। सोचा, इस बार होली पर हम ही बेटे-बहू के पास चले जाएँ। माँ-बेटे में बात हुई तो बेटे ने कहा - ‘नहीं। हम ही आ रहे हैं। मुहल्ले और व्यवहार का मामला है। हम नहीं आएँगे तो सब लोग आपसे पूछताछ करेंगे। हमारा भी सबसे मिलना हो जाएगा।’ सुनकर अच्छा तो लगा किन्तु चिन्ता भी हुई - वह थक जाएगा। उसे अतिरिक्त व्यवस्था और भाग-दौड़ करनी पड़ेगी हमारे पास आने के लिए। किन्तु वह निर्णय ले चुका था।

बेटा-बहू आए। हमें अच्छा तो लगना ही था। किन्तु अच्छा लगने से पहले आश्चर्य हुआ। अनुमान था कि वह सात मार्च की रात को आएगा - दिन में नौकरी करके। लेकिन वह तो सात की सुबह, कोई सवा दस बजे ही आ गया! सोचा, छुट्टी लेकर आया होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। आते ही अपना लेप टॉप खोलकर शुरु हो गया। बोला कि वह छुट्टी लेकर नहीं, मुख्यालय छोड़ने की अनुमति लेकर आया है। यहीं हमारे साथ रहेगा और नौकरी भी करेगा।

घर पर रहकर किसी को नौकरी करते देखने का, इस प्रकार का मेरा यह पहला अनुभव था। अपने लेप टॉप पर वह ‘ऑन लाइन’ था। सन्देश आते ही उसे संकेत मिलता, वह व्यस्त हो जाता और काम निपटते ही हमसे बातें करने लगता। बीच-बीच में कभी अपनी मैनेजर से तो कभी अपने किसी सहयोगी से मोबाइल पर भी बात करता रहा। काम करना, हमसे बातें करना, भोजन-चाय-पानी करना, रात आठ बजे तक ऐसा ही चलता रहा।

अगले दिन धुलेण्डी थी। छुट्टी का दिन। सुबह ग्यारह बजते-बजते, हमारी कॉलोनी का, सामूहिक होली मिलन निपट गया और उसके कोई आधा घण्टे बाद ही हम घरवाले भी सब फुरसत में हो गए। मैं ‘पारिवारिक गप्प गोष्ठी’ के सुख का अनुमान कर ही रहा था कि यह क्या? वल्कल ने तो अपना लेपटॉप खोल लिया! हमने कहा - ‘आज तो छुट्टी है!’ उसने कहा कि हाँ छुट्टी तो है लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? वह घर पर ही है और फुरसत में है। उसकी मैनेजर नई-नई है और मुमकिन है उसे (नई मैनेजर को) किसी सहायता की आवश्यकता पड़ जाए। सो, उसने सन्देश कर दिया कि यदि कम्पनी को उसकी (वल्कल की) आवश्यकता हो तो वह ऑन लाइन उपलब्ध है। हमारे सवालों के जवाब में वल्कल ने सहजता से बताया कि आज काम करने के लिए उसे न तो कोई अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाएगा और न ही यह बात अलग से उल्लेखित की जाएगी। सब कुछ ‘आपसी समझ’ की बात है।

उस पूरे दिन भी वल्कल ऑन-लाइन ही रहा। दिन भर में उसे चार-पाँच सन्देश मिले जिन्हें उसने सहज भाव से निपटाया। उसका इस तरह काम करना हमारे लिए अजूबा तो था किन्तु हमारी गप्प गोष्ठी में रंचमात्र भी व्यवधान नहीं आया और न ही हमारी गप्प गोष्ठी उसके काम काज में कहीं बाधक बनी। सब कुछ, सामान्य दैनन्दिन व्यवहार की तरह चलता रहा। वल्कल ने बताया कि इस तरह काम करना, निजी कम्पनियों में आजकल चलन बनता जा रहा है। कर्मचारी दफ्तर में आए या पूर्व सूचना देकर/अनुमति लेकर घर रहे, कम्पनी को काम चाहिए।

अगले दिन बेटा-बहू लौट गए। जैसा कि मैंने कहा ही है, उनका आना हमें अतीव सुखकर लगा किन्तु वह मुझे नया अनुभव दे गया है। अपना काम करने के लिए वल्कल ने अपना लेप टॉप कभी गोद में रखा, कभी स्टूल पर, कभी बिस्तर पर तो कभी सोफे पर। उसे व्यवस्थित टेबल-कुर्सी की या आधुनिक फर्नीचरवाले ‘क्यूबिकल’ की या समुचित हवा-प्रकाश की व्यवस्था की आवश्यकता क्षण भर भी अनुभव नहीं हुई।

दूसरी ओर हमारे सरकारी दफ्तर हैं। मुझे प्रति दिन, कम से कम दो-तीन सरकारी कार्यालयों में जाना होता है। मैं देखता हूँ कि लोग अपने कागज हाथों में लिए खड़े रहते हैं और दफ्तरों में सन्नाटा पसरा रहता है। बाबू लोग या तो चाय की गुमटी पर मिलते हैं या फिर अपना निजी/घरु काम निपटाने के लिए कहीं गए होते हैं। संयोग से यदि दफ्तर में मौजूद मिलते हैं तो काम टालने की मानसिकता से। सरकार ने कार्यालय खोल रखे हैं, कुर्सियाँ-टेबलें लगा रखी हैं, बिजली-पंखों-पानी की व्यवस्था कर रखी है किन्तु लोगों के काम नहीं होते। कागजों में कर्मचारियों की हाजरी लगी रहती है और कर्मचारी गैरहाजिर। दूसरी ओर, निजी कम्पनियाँ हैं कि अपने काम से काम रखती हुईं, अपनी पाई-पाई वसूल करती हैं।

मुझे ज्ञान प्राप्ति हुई। दूध, पानी, शकर, चाय पत्ती (और चाय मसाला भी) हो तो इसका मतलब यह नहीं कि चाय मिल ही जाएगी। चाय बनाने की ललक पहली शर्त है। ललक हो तो आदमी सारे सरंजाम जुटा ले और ललक न हो सारे सरंजाम धरे के धरे रह जाते हैं।

निजी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों में चाय बनाने की ललक पैदा करने में सफल हो रही हैं और सरकारी दफ्तरों का सरंजाम विकर्षक बन कर, राष्ट्रीय समस्या में तब्दील है।