रवि का ढोल

तन्मयता से ढोल बजा रहे रवि ने ध्यानाकर्षित किया। लगभग साढ़े तीन फुट के कद और लगभग दस वर्ष की अवस्थावाला रवि, अपनी काया के अनुपात से कहीं बड़ा ढोल बजाते हुए दीन-दुनिया भूल जाता है। माथा झुकाए, जोर-जोर से डंका और किमची मारता हुआ रवि किसी कुशल नट या फिर गम्भीर साधक जैसा दिखाई देता है। शरीर का पूरा जोर लगाकर ढोल बजाता है किन्तु थकता-हाँफता नहीं। खुश होता है। ऐसे, मानो अपने प्रिय खिलौने से बतियाने का मौज-मजा लूट रहा हो।

वह पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहा है किन्तु नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाता। उसे इस बात का तनिक भी दुःख नहीं है। वह अपने ताऊ के घर रह रहा है-अपने एक छोटे भाई और एक छोटी बहन के साथ। माँ और पिता, अस्सी किलोमीटर दूर, एक औद्योगिक बस्ती में मजदूरी कर रहे हैं। गाँव में न तो अपना घर और न ही खेत। नियमित रूप से दिहाड़ी भी नहीं मिलती। पिता भवन निर्माण में ईंट जुड़ाई का काम करते हैं और माँ उनके साथ ही रेत-सीमेण्ट ढोती है। महीने-दो महीनों में घर आते रहते हैं। बच्चों से मिल लेते हैं और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने बड़े भाई को दे जाते हैं - रवि और उसके भाई-बहन के खर्च के लिए।

रवि से बात करना इन्द्रधनुषी अनुभव से कम नहीं रहा। बीस-पचीस हजार की आबादीवाले गाँव का रवि पहली ही बार में ऐसा खुलकर मिला मानो टेलिविजन के किसी धारावाहिक का कोई बाल कलाकार हो। कोई संकोच, कोई झिझक नहीं। उसे परीक्षा का कोई भय नहीं है। खूब जानता है कि वह स्कूल जाए या न जाए, पढ़े या न पढ़े, परीक्षा दे या न दे, टीचरजी उसे फेल कर ही नहीं सकते। रवि को मालूम है कि सरकार ने कह रखा है कि हर बच्चे को पास करना ही है। उसे यह भी पता है कि टीचरजी उसे न तो डाँट पाते हैं न ही कोई सजा दे पाते हैं। उल्टे उसकी खुशामद करते हैं। कहते हैं कि रोज स्कूल आया कर। शादी-ब्याह, मौत-मरण या जनम-जलमा के प्रसंगों में रवि को ढोल बजाने जाना पड़ता रहता है। कभी पूर्व नियोजित तो कभी अचानक ही। जब तीन-चार दिन तक लगातार स्कूल नहीं जा पाता तो टीचरजी कुछ बच्चों को रवि के घर भेज देते हैं। वह इतराकर कहलवा देता है - ‘अभी काम पर हूँ। कल आऊँगा।’ अगले दिन स्कूल जाता है तो टीचरजी चाह कर भी गुस्सा नहीं कर पाते। खीझकर कहते हैं - ‘तू तेरे लिए नहीं, मेरी नौकरी के लिए स्कूल आया कर। तू और तेरे जैसे बच्चे मेरा तबादला करवा दोगे।’ टीचरजी के ये बोल सुनकर और उनकी दशा देखकर रवि को बड़ा मजा आता है। उसे पता है कि छात्र संख्या कम होने पर टीचरजी को फटकार लगती है।

रवि को न तो ‘शिक्षा का अधिकार’ के बारे में कुछ पता है और न ही ‘बाल श्रमिक कानून’ के बारे में। लेकिन उसे इतना पता अवश्य है कि स्कूल में उसके नाम का भोजन रोज आता है। वह भोजन उसका पेट तो भरता है किन्तु मजा नहीं आता। दाल के नाम पर मिर्च-मसाले का झोल और सब्जी के नाम पर बेस्वाद कुछ तो भी। रोटियाँ कभी अधजली तो कभी अधपकी।

इसीलिए रवि को ढोल बजाना अच्छा लगता है। जनम-मरण-परण में से प्रसंग कोई भी हो, खबर मिलते ही रवि उत्साह से वहाँ पहुँच जाता है। वहाँ उसे प्रायः ही कोई न कोई पकवान ही मिलता है। और कुछ न हुआ तो पूड़ी-सब्जी तो मिलती ही है। यह बात जरूर है कि सब के जीम लेने के बाद उसे मिलती है किन्तु मिलती तो है। पेट भर खा लेने के बाद वह बेहिचक अपने छोटे भाई-बहन के लिए भी माँग लेता है। एक भी यजमान ने उसे आज तक मना नहीं किया। एक बच्चे को अपने छोटे भाई-बहन की चिन्ता करते देख, प्रसन्नतापूर्वक रवि को खाने का सामान दे देते हैं - आवश्यकता से तनिक अधिक ही। ढोल बजाने की मजदूरी और थोड़ा बहुत ‘नेग’ तो उसे मिलता ही है। उसे इस बात की खुशी है कि इस तरह वह अपने माँ-बाप, ताऊ की मदद कर रहा है और अपने छोटे भाई-बहन की देख भाल भी।

रवि के ढोल की आवाज में, शिक्षा के अधिकार और बाल श्रमिक कानून की सरकारी मुनादियों की आवाजें फिजूल लगती हैं। सुनाई भी नहीं देतीं।

रवि ढोल बजा रहा है। बजाए जा रहा है।

3 comments:

  1. वाह, ढोल की आवाज में गूँजता रवि का भविष्य..

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  2. एक मार्मिक प्रसंग! एक बात तो साफ़ है, ज़ेड सिक्योरिटी से घिरे हमारे नीति निर्माता न तो रवि और उसके परिवार को जानते हैं और न ही उनके मन में उसकी शिक्षिका की कोई इज़्ज़त है।

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  3. कोई रवि मुझे मिलता और मिलता मनमौजी समय तो मैं उसे भरपेट भोजन कराता और ढ़ोल बजाना सीखता।

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