दो दिन बेटी, तीसरे दिन रुपये

मैं बच्चों के नाम पर किसी भी निवेश के पक्ष में नहीं हूँ। आशंका बनी रहती है कि ‘अच्छा! इतने रुपये मेरे नाम पर हैं?’ का विचार आते ही कभी कोई बच्चा आँखें न तरेरने लगे। ठेठ देहाती आदमी हूँ। इसलिए, निवेशकों को रोकड़ा अपनी अण्टी में रखने की सलाह देता हूँ। कहता हूँ, बच्चों से कहिए - ‘जीते जी सब मेरा, मेरे मरने के बाद सब तुम्हारा।’ अधिकांश लोग मेरी बात मान लेते हैं। कुछ नहीं मानते।
 
नहीं मानने वाले, ऐसे ही कुछ लोगों में से एक के साथ, अतीत में हुई एक (दुः) घटना, आज बातों ही बातों में याद हो आई।
 
बरसों पुरानी बात है। तब, किसान विकास पत्र चलन में थे और मैं पोस्ट ऑफिस की बचत योजनाओं का काम भी किया करता था। परामर्श सेवाओं से सम्बद्ध एक परिचित के पास जब भी कुछ रकम जुड़ जाती, वे फौरन मुझे बुला लेते और अपनी इकलौती बेटी के नाम किसान विकास पत्र खरीद लेते। मैं हर बार उन्हें मना करता। कहता - ‘खुद के नाम पर खरीदिए और बेटी को नामिनी बना दीजिए।’ वे हर बार हँसकर मेरी बात टालते रहे। कहते - ‘विष्णु दादा! लड़का तो हाथ-पाँव मार कर, कमा-खा लेगा। किन्तु चिन्ता इस लड़की की है। एक ही लड़की है। इसीके काम आएगा।’ मैं कहता - ‘आपकी बात मानी। लेकिन इसके नाम पर मत खरीदिए।’ उन्होंने एक बार भी मेरी बात नहीं मानी और इसी तरह, धीरे-धीरे लगभग पौने चार लाख रुपयों के किसान विकास पत्र बेटी के नाम खरीद लिए।
 
बेटी सयानी हुई तो माँ-बाप को उसके हाथ पीले करने की चिन्ता हुई। लड़के देखे जाने लगे। हर बार लड़की से विस्तारपूर्वक बात की जाती, सलाह ली जाती। अन्ततः एक जगह बात पक्की हो गई। सगाई भी हो गई। विवाह की तारीखें तय करने की बातें चलने लगीं।
 
इसी बीच दुर्घटना हो गई। एक दिन, भरी दोपहरी में लड़की अपने प्रेमी के साथ घर छोड़कर चली गई। माता-पिता के लिए यह दोहरा आघात था - एक तो लड़की चली गई और दूसरा, पहले से बड़ा आघात यह कि उसका रिश्ता पक्का हो चुका था। सो भी लड़की की सहमति से! क्या कहें और किससे कहें? जात-समाज में क्या मुँह दिखाएँ?
 
मुझे उड़ती-उड़ती खबर मिली। उसी शाम परिचित के घर पहुँचा। साँत्वना बँधाई और कहा - ‘आपका दुःख तो नहीं बाँट सकता लेकिन मुझ जैसा काम बताइएगा।’
 
अगला दिन चुपचाप बीत गया। तीसरे दिन, सुबह-सुबह ही परिचित का फोन आया। मुझे जल्दी से जल्दी आने को कह रहे थे। मैं झटपट पहुँचा। परिचित पूर्वानुसार ही चिन्तित और परेशान थे। मैंने पूछा - ‘कुछ खबर लगी?’ बोले - ‘खबर तो  लगी किन्तु आज सुबह ही याद आया कि उसके नाम पर ढेर सारे किसान विकास पत्र खरीद रखे हैं। वह हमारी मर्जी से शादी करती तो वो रकम उसी की होती। लेकिन उसने तो हमारा मुँह काला कर दिया। उससे वह रकम वापस कैसे लें? आपने कहा था कि आपके जैसा काम बताऊँ। तो यही काम है। उससे रकम निकलवा दीजिए।’
 
उनकी बात सुनकर जी में आया कि उन्हें खूब खरी-खोटी सुनाऊँ। लेकिन ऐसा नहीं कर सका। मैंने कहा - ‘इतना आसान है क्या? कोई छोटी-मोटी रकम नहीं है। लगभग चार लाख का मामला है!’ वे बोले - ‘इसीलिए तो वापस चाहिए। छोटी-मोटी रकम होती तो मैं भी नाम नहीं लेता।’ बड़ी मुश्किल से मैंने अपना गुस्सा दबाया। यह उलाहना भी नहीं दे सका कि मैने तो पहले ही चेताया था। खुद को संयत कर मैंने पूछा - ‘बिटिया है कहाँ?’ उन्होंने अता-पता बताया।
 
मैं बिटिया के पास पहुँचा। अकेले में मिला। उससे कहा कि उसने जो किया सो किया लेकिन जब पिता से विद्रोह ही करना है तो फिर पिता का कोई अहसान भी अपने माथे पर नहीं रखना चाहिए। माँ-बाप को और लोगों को यह कहने का मौका नहीं मिलना चाहिए कि लड़की बाप के इतने पैसे ले उड़ी। अपनी मर्जी से बाप का घर छोड़ा है तो फिर अपने स्वाभिमान की चिन्ता करनी चाहिए। पिता की एक पाई भी अपने पास नहीं रखनी चाहिए वर्ना लोग उसके प्रेमी/पति पर आरोप लगाएँगे कि रुपयों के लालच में लड़की ले उड़ा।
 
बात लड़की को जँच गई। बोली - ‘मुझे क्या करना है?’ मैंने कहा - ‘करना क्या है? पिताजी से कहना है कि तुम्हें उनकी फूटी कौड़ी भी नहीं चाहिए।’ लड़की बोली - ‘आपकी बात सही है। लेकिन मैं तो पापा के पास नहीं जाऊँगी। मुझे क्या करना है यह आप ही बताओ और यदि कोई लिखा पढ़ी करनी है तो आप कागज तैयार करा लाइए, मैं दस्तखत कर दूँगी।’
सारे किसान विकास पत्र पिताजी के पास ही थे। वे सब, पिताजी के पक्ष में ‘सम्पूर्ण समनुदेशन’ (टोटल असाइनमेण्ट) कराने के कागज तैयार करवा कर लड़की के पास गया। उसके हस्ताक्षर लिए। डाक घर जाकर सारी खानापूर्ति हाथों-हाथ कराई और सारे किसान विकास पत्र परिचित को थमाए। अब वे ही उस सारी रकम के एकमात्र कानूनी स्वत्वाधिकारी हो गए थे।
 
उन्होंने एक-एक किसान विकास पत्र ध्यान से देखा और राहत की साँस लेकर मुझे धन्यवाद दिया। बोले - ‘आपकी बात मान लेता तो यह दिन नहीं देखना पड़ता। मुझे माफ कर देना विष्णु दादा! पैसों कौड़ी के मामलो में आगे से आपकी बात आँख मूँद कर मानूँगा।’ मैंने कहा - ‘वह सब तो ठीक है लेकिन एक बात सच-सच बताइए। इन किसान विकास पत्रों की याद आने के बाद बेटी कितनी बार याद आई?’ झेंपते हुए बोले - ‘अब आपसे क्या छिपाऊँ विष्णु दादा! ये किसान विकास पत्र याद आने के बाद मुझे तो ये रुपये ही याद आते रहे। और कुछ याद नहीं आया।’ मैंने कहा - ‘बेटी एक बार भी याद नहीं आई?’ नजरें नीची ही रखते हुए बोले - ‘झूठ बोलने की हिम्मत नहीं हो रही। शुरु के दो दिन ही वह याद आई। उसके बाद तो ये रुपये ही याद आए और ये ही याद रहे।’
 
एक बार फिर मैंने खुद को नियन्त्रित किया। अन्तर केवल यही था कि पहले गुस्से को नियन्त्रित किया था। इस बार खुशी को नियन्त्रित किया। अपनी धारणा को व्यवहार में शब्दशः साकार होते हुए देखने की खुशी को।
 

9 comments:

  1. अपना स्वाभिमान और अपने नाम के धन का अज्ञान - लीथल कॉम्बिनेशन!

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  2. यदि रुपए बचा ही रहे हैं तो अपने नाम जमा कराना बेहतर है। बेटी हो या बेटा, यदि उस के नाम करवा रहे हैं तो भूल जाइए कि वह रुपया अपना है। इस पूरी कथा में मुझे वह पिता एक इन्सान ही नहीं लगा। बेटी ने पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह कर लिया तो उस से सारे रिश्ते खत्म? (चाहे उस की सगाई उस की सहमति से हुई हो, वह सहमति कैसी रही होगी हम समझ सकते हैं) फिर सिर्फ रुपये याद रहे? बेटी एक बार भी याद नहीं आई? क्या इंसान की फितरत इतनी ही है? इस से तो वह बेटी अच्छी जिस ने आप के प्रेरित करने पर किसान विकास पत्रों को पिता के हक में मुक्त कर दिया। कम से कम बेटी को तो पिता का ख्याल अब भी है।

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  3. बाप बड़ा न मैय्या - सबसे बड़ा रुपैय्या!

    पर, मेरे खयाल से उन पिता जी को अपनी बेटी के निर्णय का सम्मान करना चाहिेए था (ये अलग बात है कि बेटी में हिम्मत नहीं हुई, और संवादहीनता के कारण उसे एक्सट्रीम फैसला लेना पड़ा, और इसके जिम्मेदार भी यकीनन पालक ही हैं,) और जिस बेटी की चिंता में चार लाख जमा किए थे उसे सम्मान पूर्वक उसे ले जाकर दे देते कि बेटी , ये तुम्हारे लिए ही तो जमा किया था - इसे लो और अपनी गृहस्थी जमाने में मेरी ओर से थोड़ी सी ही मदद सही, ले लो.
    पर खैर, कहानियाँ सदैव सुखांत तो नहीं होती हैं!

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    1. और हाँ, ऊपर पहली लाइन तो अब अर्थ बदल चुकी है -

      बेटी बड़ा न बेटा, सबसे बड़ा रुपया!

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  4. उपयोगी सलाह दी थी आपने, नामित करना ही ठीक है।

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  5. यूँ आपकी सलाह तो सही थी ही मगर निष्कर्ष यही निकला कि पैसों के आगे रिश्तों का कोई औचित्य नहीं रहा।

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  6. द्विवेदी जी से सहमत.

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  7. बहुत ही सुन्दर सस्मरण जिसे विषम परिस्थिति में याद किया जा सकता है .

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  8. अपन का भी मानना है कि बेटी उदार है, समझदार है।

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