एक फतवा मीडीया के लिए

सलमान खान द्वारा अपने निवास पर विनायक स्थापना और पूजा को लेकर जामा मस्जिद के मौलाना अंजारिया द्वारा जारी फतवे को लेकर एक टीवी समाचार चैनल ने जो हंगामा मचाया वह हमारे समाचार चैनलों के उच्छृंखल हो जाने का श्रेष्‍ठ उदाहरण है ।

सलमान खान अपने घर गणपति स्थापित करें या न करें, इससे किसी को क्या लेना-देना ? वे नमाज पढ़ें या पूजा करें, यह उनका निजी मामला है । उनके खिलाफ किसी ने कोई फतवा जारी कर दिया तो इससे या तो उसे लेना-देना है जिसने फतवा माँगा या फिर उसे, जिसके खिलाफ फतवा दिया । अपने-अपने घरों में बैठे हम दर्शकों का इस सबसे क्या लेना-देना ?

फिर, फतवा कोई अल्लाह का हुक्म या इच्छा तो है नहीं । फतवे की औकात और बिसात ही क्या है ? यह केवल एक परामर्श है - बिलकुल डाक्टर या वकील के परामर्श की तरह । पूछने वाले की इच्छा - माने, न माने ।

धर्म मनुष्‍य के लिए है या मनुष्‍य धर्म के लिए ? ईश्‍वर ने तो मनुष्‍य को पैदा किया है, धर्म को नहीं । धर्म तो मनुष्‍य का ही आविष्‍कार है ।

अव्वल होना तो यह चाहिए था कि इस फतवे की चर्चा ही न की जाती । और यदि चर्चा की जानी जरूरी ही थी तो बेहतर होता कि फतवे की औकात भी बताई जाती । समाचार वाचक इस फतवे का उल्लेख बार-बार और लगातार इस तरह कर रही थी मानो सारी दुनिया में इससे बड़ा संकट और कोई है ही नहीं ।

सलमान के खिलाफ ऐसा ही फतवा गये साल भी दिया गया था जिसे सलमान खान ने जूते की नोक पर दे मारा था । यह बात कोई और नहीं, खुद मौलाना अंजारिया ही बता रहे थे । हालत बिलकुल ‘सूने गाँव में मँगते की पुकार’ जैसी लग रही थी । यहाँ तो चिन्दी का थान बनाने वाली बात भी नहीं थी ।

किसने कहा था इनसे कि चैबीसों घण्टों चैनल चलाओ ? सपने ये देखते हैं और नींद खराब होती है बेचारे लोगों की

महा प्रलय के समाचार देख कर ही कम से कम तीन लोगों के मरने की खबर मेरे इलाके के अखबारों में छपी है । ऐसी खबरें न देखने और न प्रसारित करने की छूट का उपयोग ये जिस बेशर्मी से करते हैं उसे क्या कहा जाए ?

सच में, यह समाचार देख कर बड़ी निराशा हुई । अपने आप पर गुस्सा आया - मैं इन चैनलों का कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पा रहा हूँ ?

इनके खिलाफ भी फतवा देने वाला कोई हो तो बताइएगा ।

13 comments:

  1. बैरागी जी,
    अच्छा विषय उठाया है आपने.
    कुकुरमुत्तों की तरह उगते हुए टी वी चैनल कितने स्तरहीन और गैर-जिम्मेदार होते जा रहे हैं यह तो हम सबको पता ही है. मगर फतवे की संस्कृति भी कोई कम निंदनीय नहीं है.

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  2. समाचार माध्यम बड़े जनसमूहों को प्रभावित करते हैं, उन्हें आचार संहिता की नकेल में तो बांधना ही होगा। वर्तमान स्थिति अराजकता की है। वे खुद को अनुशासित करें अन्यथा कभी न कभी तलवार तो चलेगी ही। तब वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापेंगे।

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  3. bairagi ji,sahi kaha aapne,chhanelon ki bhid badhati jaa rahi hai, ginti ke staff se shuru kar dete hain fir khabar 24 ghante dikhayen se to,bakwaas shuru kar dete hain,unhe pata chal gaya hai vivad me rehne se hi jinda reh payenge.isiliye shayad ye wishvasniyta khote jaa rahi hain.achha likha aapne aapse puri tarah sahmat hun

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  4. विष्णु पुत्तर कभी कभी तो लगै है कि ये मौलाना भी चैनल द्वारा ऐसा स्टेटमेंट देने के लिये प्रायोजित किये जा रहे हैं.इस मामले में कोई रिट सुप्रीम कोर्ट में लगा कर समाचार चैनलों से बाबाओं और मौलानाओं की खबरों पर बैन लगणा चाहिदा हे.

    और हाँ ये चैनल की बात ठीक लिखी तूने.एक टैम था कि ठीक नौ बजते तो समाचार आते थे . तो समाचार देखने की भी उत्तेजना होती थी और किसी दुर्घटना पर दिल हिल जान्दा था. अब तो हर मिलित बताए जा रे हें,बताए जा रे हे..तो होता ये हेगा कि अब असर नी होन्दा.

    की कराँ ..बस चैनल कलेक्सन कटवा लो ..अपणा दूरदर्सन बडा सोणा हेगा.

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  5. विष्‍णु जी पिछले दिनों रेडियोवाणी पर मैंने मुकेश की आवाज में बजरंग बाण चढ़ाया तो एक महोदय की टिप्‍पणी आई कि आप मुस्लिम होकर रमज़ान के महीने में ये क्‍या सुनवा रहे हैं । इस्‍लाम विधर्मियों के गीत सुनाने की इजाज़त नहीं देता ।
    इसी से आप मानसिकता का अंदाज़ा लगा सकते हैं,रही बात न्‍यूज चैनलों की, तो उनकी नैतिकता पर से हमारा विश्‍वास कब का उठ चुका है ।

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  6. युनूसभाई ने सही कहा, नैतिकता बची नहीं है. तो क्यों न उन्हे देखना छोड़ दें, यही समाचार चैनलो के विरूद्ध फतवे समान होगा.

    मुझे याद नहीं अंतिम बार कब समाचार देखे थे.

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  7. न्यूज़ चैनलों पर लगाम लगनी ही चाहिए...आजकल न्यूज़ चैनल आग में घी डालकर तमाशा देखते हैं...समाज के लिए मिसाल बनने वाली ख़बरों के लिए इनके पास कोई जगह नहीं...

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  8. विष्णु जी, अव्वल तो मुझे इस खबर में कुछ भी खराबी नज़र नहीं आती कि सलमान पर कोई फतवा दिया गया है, और टीवी चैनलों ने इसे दिखाया. आप कहते हैं कि आपको सलमान खान से क्या करना, फिर आप कहोगे, अमिताभ से क्या करना, इससे क्या करना... उससे क्या करना... जब आपको किसी से कुछ करना ही नहीं तो आप पर आकर बहस खतम हो ही जाती है. लेकिन बाकी लोगों को करना होता है. उनके लिए सेलिब्रिटी हमेशा खबर होते हैं. मीडिया के गैरजिम्मेदराना तरीके का मैं हिमायती नहीं हूं, लेकिन बात बेबात बेकार गरियाना भी ठीक नहीं. आप कहते हैं कि किसने कहा था चौबीस घंटे का चैनल लाने को... तो आप मुझे बताएंगे किसने कहा था आपको कि रिमोट से बदल बदल कर टीवी से चिपके रहें. आप उपभोक्ता हैं, आपके पास ऑप्शन हैं, जो देखना चाहते हैं देखिये, जो नहीं देखना उसे छोड़ दीजिये... आपको निरमा साबुन अच्छा लगता है तो आप रिन सुप्रीम के बाजार में आने पर क्यों सवाल उठा रहे हैं, आप निरमा से कपड़े धोईये, जिसे रिन अच्छा लगता है, वो उसके लिए छोड़ दीजिए... हर बात पर विरोध दर्ज कराना भी अच्छा नहीं...
    बाकी आप उपभोक्ता हैं, समझदार हैं...
    'खबरी'

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  9. काका सा.
    यह तो तय है कि टी.वी.ने यदि अपने आप को रचनात्मक नहीं बनाया तो उसकी ख़ैर नहीं.मैं रेडियो और समाचार पत्रों के ही आसरे हूँ विगत कई वर्षों से और सारे समसामयिक घटनाक्रमों की कमी इन दो माध्यमों से पूरी हो जाती है. काश ! देश में ऐसी कोई संस्था होती जो इन सारे चैनल्स में दिन ब दिन पनपती प्रतिस्पर्धा को थाम कर इन्हें एक दमदार माध्यम बना सकती.

    क्या स्वयं टीवी चैनल्स मिल कर आचार-संहिता रचने वाली कोई संस्था नहीं बना सकते.

    आपके द्वारा उठाया गया मुद्दा चिंता भी जगाता है कि यदि समय रहते देश में धर्मों को लेकर कोई सर्वसम्मत विविचना नहीं की गई तो अगली पीढ़ी हमें मुआफ़ नहीं करेगी.

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  10. अपनी चैन है। टीवी देखते नहीं और फतवा परेशान करता नहीं!

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  11. "इनके खिलाफ भी फतवा देने वाला कोई हो तो बताइएगा । "

    जनसाधारण को चिट्ठे जैसे जन-नियंत्रित माध्यमों के द्वारा यह कार्य करना होगा.



    -- शास्त्री जे सी फिलिप

    -- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)

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