कपडे : इस मन्‍त्री के, उस मन्‍त्री के


आतंकवाद और हमारे गृह मन्‍त्रीजी के कपडे इन दिनों अखबारों और समाचार चैनलों के प्रमुख समाचार बने हुए हैं । व्‍यंग्‍य चित्रकारों को बहुत दिनों बाद कोई अच्‍छा 'सब्‍जेक्‍ट' मिला है । गृह मन्‍त्रीजी भाग्‍यशाली हैं । वे समाचारों में भी प्रमुख हैं और कार्टूनों में भी ।


बरसों पहले एक और केन्‍द्रीय मन्‍त्री के कपडे इसी तरह अखबारों में स्‍थान पा चुके हैं । लेकिन उस सबमें सम्‍मान और प्रशंसा केन्‍द्रीय तत्‍व था, उपहास या आक्रोश नहीं ।

यह किस्‍सा मैं ने देश के अलग-अलग स्‍थानों में थोडे हेर-फेर के साथ सुना लेकिन केन्‍द्रीय भाव वही था - सम्‍मान और प्रशंसा ।

प्रसंग स्‍वर्गीय श्री रुफी अहमद किदवई से जुडा है । तब वे केन्‍द्र में मन्‍त्री (सम्‍भवत: कृषि मन्‍त्री) थे । कृषि मन्त्रियों के एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सेमीनार में भाग लेने हेतु उन्‍हें विदेश जाना था ।

यात्रा की तैयारी करते हुए जब वे अटैची में कपडे जमा रहे थे तो उनके एक मित्र पास ही खडे थे । मित्र ने देखा कि किदवई साहब ने एक ऐसा कुर्ता अटैची में रख लिया है जो फटा हुआ है । मित्र ने किदवई साहब को टोका । किदवई साहब ने अत्‍यन्‍त सहजता से कहा कि वे किसी फैशन परेड में नहीं बल्कि सेमीनार में जा रहे हैं । कुछ भाषण सुनना हैं और अपना भाषण देना है । सारा आयोजन नितान्‍त औपचारिक है । बस । फिर, 'वहां कौन जानता है कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

किदवई साहब की सादगी सर्वज्ञात और विख्‍यात थी । लेकिन मित्र से नहीं रहा गया । पूछा - 'चलो, परदेस में न सही, अपने देस में तो कपडों कर चिन्‍ता कर लेनी चाहिए ।'

किदवई साहब ने उसी सहजता से कहा - 'यहां क्‍या चिन्‍ता करनी । यहां तो सब जानते हैं कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

मित्र निरुत्‍तर हो गए और किदवई साहब वहीं फटा कुरता अपनी अटैची में डाल कर विदेश चले गए ।

7 comments:

  1. विष्णु जी, हमारे वर्तमान गृहमंत्री जी अधिकतर व्यंग्यकारों और कार्टूनिस्टों के पसंदीदा चरित्र बनकर उभरे हैं. असल में उनपर काम करने में कम मेहनत करनी पड़ती है. अधिकतर कार्टूनिस्ट कहते हैं कि वर्तमान गृहमंत्री जी का अगर सीधा-साधा स्केच भी बनायें तो अपने आप कार्टून जैसा ही बन जाता है.

    किदवई साहब का प्रसंग बड़ा प्रेरणादायक है.

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  2. अब ऐसे नेता कहाँ हैं?प्रसंग बड़ा प्रेरणादायक है।

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  3. बहुत प्रेरक। सुना है शास्त्री जी के पास भी फटे कॉलर का कोट हुआ करता था।
    वह भी युग था - विशाल नेता थे; साधारण कपड़ों में!

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  4. मैं अक्सर इन्टरनेट पर भारतीय राजनीतिबाजों के कार्टून तलाश करता था पर ज्यादा कार्टून मिलते नहीं थे. पाटिल जी ने यह कमी पूरी कर दी. पिछले दिनों में बहुत से कार्टून देखने को मिले. घोस्ट बस्टर जी की टिपण्णी बहुत ही मजेदार लगी.

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  5. प्रेरणास्पद.. आदमी कपड़ो से नहीं पहचाने जाते..

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  6. बैरागी जी, जो आदमी को नहीं पहचानते वे कपड़ों को पहचानते हैं। कुछ लोग पैकिंग देख कर वस्तु खरीदते हैं। बाद में माल देख कर पछताते हैं। पर मेरा मत है कि अच्छे या बुरे कपड़े या कई दिन में एक बार या दिन में अनेक बार कपड़े बदलने के आधार पर चरित्र निर्धारण नहीं किया जा सकता।

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