समाचार न छपने का समाचार



आज बात निष्‍‍पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता’ की हकीकत उघाड़ने वाली है । इसीलिए तनिक लम्बी-चौड़ी और बड़ी है । आप इसे 'कच्ची उमर के पत्रकारों की व्यथा-कथा’ भी कह सकते हैं । थोड़े में कहने से अनर्थ होने की आशंका अनुभव हुई । इसीलिए लम्बी-चौड़ी और बड़ी बात ।


यहाँ दिया गया चित्र विश्‍‍वास सारंग का है । विश्‍वास और मैं, एक-दूसरे को नहीं जानते । जानेंगे भी नहीं । जानने का कोई कारण भी नहीं है । विश्वास की ओर मेरा ध्यान नहीं जाता किन्तु अखबारों में छपे उनकी सम्पत्ति के ब्यौरे ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । इसका कारण उनकी सम्पत्ति नहीं अपितु भोपाल में कार्यरत उन दो पत्रकारों की बातें हैं जो कोई एक सप्ताह पहले मुझे उज्जैन में, महाकाल मन्दिर परिसर में मिले थे और दुखी थे । दोनों के दुख का कारण एक ही घटना थी और यह संयोग ही था कि इस घटना का केन्द्रीय पात्र विश्‍‍वास सारंग थे ।


लेकिन उन दोनों को विश्‍वास सारंग से कोई शिकायत नहीं थी ।


दोनों पत्रकारों की व्यथा-कथा का मर्म समझने के लिए पहले, उन दोनों पत्रकारों द्वारा बताई गई कुछ ऐसी बातें जाननी पड़ेंगी जो विश्वास सारंग से जुड़ी हैं ।


विश्‍‍वास सारंग इन दिनों म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । चूँकि, मौजूदा विधान सभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें नरेला (भोपाल) से अपना उम्मीदवार बनाया है इसलिए सम्भव है कि कानूनी अनिवार्यताओं के चलते उन्होंने इस पद से त्याग पत्र दे दिया हो । लेकिन विधान सभा चुनाव में प्रत्याशी हेतु अपना नामांकन पत्र प्रस्तुत करने से पहले तक तो वे इस पद पर थे ही ।


इस पद के लिए वही व्यक्ति पात्र हो सकता है जो किसी ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति’ का नियमित सदस्य हो । ऐसी समिति का सदस्य बनने के लिए दो अनिवार्यताएँ होती हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो । जो भी व्यक्ति ये दोनों शर्तें पूरी नहीं करता हो या फिर जानबूझकर, झूठ बोलकर समिति को धोखा दे रहा हो तो वह ऐसी समिति की सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकता ।


23 अक्टूबर 2008 को, ‘दलित पेंथर’ नामक संगठन के प्रदेशाध्यक्ष आर. के. महाले ने भोपाल में एक पत्रकार वार्ता आयोजित कर, विश्वास सारंग से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ सार्वजनिक कीं जिनके आधार पर विश्‍‍वास सारंग न केवल म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष पद से तत्काल हटा दिए जाने चाहिए थे अपितु उन पर जानबूझकर झूठ बोलने और धोखा देने के लिए आपराधिक प्रकरण दर्ज कर मुकदमा भी चलाया जाना चाहिए था ।


महाले के अनुसार, विश्‍‍वास सारंग यद्यपि ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम व फड़ साँकल के निवासी के रूप में सदस्य बनाए गए हैं लेकिन यह केवल कागजी सत्य है, वास्तविकता नहीं । महाले के अनुसार वास्तविकता यह है कि विश्‍‍वास सारंग भोपाल में अपने पिता कैलाश सारंग और पत्नी रुमा सारंग सहित, सुल्तानिया रोड़ स्थित सरकारी भवन शीश महल के नियमित और स्थायी निवासी और भोपाल नगरीय क्षेत्र के मतदाता हैं और जीविकोपार्जन हेतु वनोपज संग्रहण का कार्य नहीं करते हैं अपितु राजधानी के सम्पन्न नागरिक, व्यवसायी एवम् वरिष्ठ राजनेता हैं जिनके एकाधिक कार्यालयों, निवास स्थानों एवम वाहनों में वातानुकूलित यन्त्र लगे हैं, जो मँहगी कारों में यात्रा करते हैं और जिनके एक टेलीफोन बिल की मासिक रकम, किसी भी वनोपज संग्राहक की सकल वार्षिक आय से अधिक होती है ।


महाले ने अपने प्रेस वक्तव्य के साथ, ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुड़ियाखेड़ा’ की सदस्यता पंजी के वर्ष 2007 तथा 2008 की सदस्यता पंजी के उन पृष्ठों की फोटो प्रतियाँ भी दीं जिनमें विश्‍वास सारंग को क्रमश: 762 तथा 101 क्रमांक पर समिति का सदस्य बताया गया है और जिसने वर्ष 2007 में तेंदू पत्ता की 600 तथा वर्ष 2008 में 1205 गड्डियाँ संग्रहित की हैं । सरकार एक गड्डी के लिए 40 रुपयों का भुगतान करती है । याने विश्वास सारंग के समूचे परिवार (जिसमें विश्‍‍वास की पत्नी रुमा सारंग तथा पिता कैलाश सारंग शामिल हैं) ने वर्ष 2007 में 24,000 तथा वर्ष 2008 में 48,200 रुपये अर्जित किए । महाले ने तेंदू पत्ता संग्रहण के इन आँकड़ों को झूठा बताते हुए कहा कि वर्ष 2008 में तेंदू पत्ता संग्रहण का काम 5 मई से 30 मई तक हुआ । इस अवधि में सारंग परिवार द्वारा तेंदू पत्ता संग्रहण तो कोसों दूर की बात थी, सारंग परिवार का कोई सदस्य एक दिन के लिए भी जंगल में नहीं गया । उक्त अवधि में सारंग परिवार के सदस्य भोपाल नगर निगम सीमा में सार्वजनिक प्याउओं के उद्घाटनों, कायस्थ समाज के सम्मान समारोहों, विभिन्न महत्वाकांक्षी राजनीतिक यात्राओं की तैयारियों, कर्नाटक में अपनी पार्टी की जीत के उत्सव के कार्यक्रमों, विभिन्न पत्रकारवार्ताओं में व्यस्त रहे जिनके विस्तृत सचित्र समाचार, भोपाल के अखबारों में प्रकाशित हुए ।


महाले का तर्क था कि वनों में रहने वाले निर्धन आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों को बिचैलियों के शोषण से बचाने के लिए ही प्राथमिक वनोपज सहकारी संस्थाएँ बनाई गई हैं जो लघु वनोपज संग्राहकों की वनोपज के संग्रहण, भण्डारण, क्रय-विक्रय आदि में, सहकारी आन्दोलन के माध्यम से लाभितों को समय पर उचित पारिश्रमिक दिलाए ।


लेकिन, महाले के अनुसार, प्रदेश शासन के वन विभाग और सहकारी विभाग ने मिली भगत कर विश्वास सारंग को अनुचित रूप से एक प्राथमिक सहकारी समिति का सदस्य बनाया जिसके आधार पर ही वे म. प्र. लघु वनोपज सहकारी संघ के अध्यक्ष बन सके और उस पद के तमाम लाभ उठाने के अवसर प्राप्त कर सके ।


महाले के अनुसार यह केवल इसलिए सम्भव हुआ क्यों कि विश्वास सारंग और उनके पिता कैलाश सारंग, प्रदेश में सत्तारूढ़ दल में प्रभावी स्थिति में हैं । विश्‍‍वास प्रदेश भाजयुमो के अध्यक्ष हैं, भोपाल नगर निगम के पार्षद भी रह चुके हैं जबकि उनके पिता कैलाश सारंग वर्तमान में प्रदेश भाजपा की अनुशासन समिति के अध्यक्ष हैं तथा प्रदेश भाजपा के पूर्व कोषाध्यक्ष रह चुके हैं । वे एक बार विधान सभा चुनाव भी लड़ चुके हैं ।
मुझे मिले दोनों पत्रकार मानो अवसादग्रस्त थे । उन्हें विश्‍‍वास सारंग से कोई लेना-देना नहीं था । महाले की पत्रकार वार्ता उनके लिए एक सामान्य दैनन्दिन घटना थी लेकिन कैलाश सारंग और विश्‍‍वास सारंग की राजनीतिक हैसियत के कारण महाले की बातें स्वतः ही महत्वूर्ण बन गई थीं । इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इन दोनों पत्रकारों ने अपने-अपने हिसाब से समाचार बनाकर अपने-अपने अखबार में दिए थे । दोनों पत्रकारों के अनुसार, पत्रकार वार्ता में आए लगभग समस्त पत्रकारों, चैनल रिपोर्टरों की भी मनःस्थिति यही थी ।


लेकिन चमत्कार हो गया । महाले की पत्रकार वार्ता दिन में हुई थी । लगता था कि स्थानीय समाचार चैनलों पर यह समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया जाएगा । लेकिन एक भी चैनल ने यह समाचार नहीं दिया । स्थानीय चैनलों ने मानो, अखबारों के लिए अगले दिन की भूमिका तय कर दी । एक भी अखबार में महाले की पत्रकार वार्ता का समाचार नहीं छपा ।
दोनों पत्रकार इसी स्थिति से हतप्रभ और हताश थे । दोनों को अपने-अपने अखबार की निर्भीकता और निष्‍‍पक्षता पर गुमान था । लेकिन उनका गुमान गुम हो चुका था । उन्हें यह तो पता था कि धन कुबेरों की थैलियाँ अच्छे-अच्छों के मुँह बन्द कर देती हैं । लेकिन वे सबके मुँह एक साथ बन्द कर सकती हैं, यह अनुमान नहीं था । आदर्श पत्रकारिता के जो सपने लेकर वे इस क्षेत्र में आए थे वे सपने अकाल मौत मर चुके थे । अत्‍‍याचार, अन्याय और शोषण के विरुध्‍‍द अखबारों की भूमिका की उजली मूरत भंग ही नहीं हो चुकी थी, चूर-चूर हो चुकी थी । वे विश्‍‍वास नहीं कर पा रहे थे कि ऐसा भी हो सकता है । जरूरी नहीं कि यह सब विश्वास सारंग ने ‘मेनेज’ किया हो लेकिन पिता-पुत्र की सम्बध्दता वाली पार्टी की सरकार से मिलने वाले करोड़ों रुपयों के विज्ञापनों के लालच ने अवश्‍‍य ही इस ‘सामूहिक ब्लेक आउट’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी । वे इसी दशा से हताशा में आ गए थे और मन की शान्ति की तलाश में महाकाल दर्शन हेतु उज्जैन आए थे । उनके (और उन जैसे, महाले की पत्रकार वार्ता में उपस्थित, तमाम पत्रकारों के) साथ हुई इस दुर्घटना को पर्याप्त समय बीत चुका था लेकिन वे तब भी हताशा से उबर नहीं पा रहे थे ।


वे दोनों मेरे बड़े बेटे से दो-चार वर्ष ही बड़े रहे होंगे । उनका दु:ख मुझसे देखा नहीं जा रहा था । लेकिन मैं उनकी कोई सहायता करने की स्थिति में भी तो नहीं था ! अपने जीवन के पत्रकारिता वाले समय में मैं भी एक बार ऐसी ही गम्भीर दुर्घटना का शिकार हो चुका था । तब (वर्ष 1978 में) मैं ने अपने प्रधान सम्पादकजी को फोन लगा कर, दुर्घटना का कारण पूछा था । जो जवाब उन्होंने मुझे दिया था, वही जवाब देकर मैं ने इन दोनों पत्रकारों को ढाढस बँधाने की कोशिश की । कहा - ‘मुमकिन है कि तुम्हारे साथ ऐसा पहली ही बार हुआ हो । लेकिन ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार । याद रखना - तुम नौकरी कर रहे हो, पत्रकारिता नहीं । इस सत्य को याद रखोगे तो दुखी होना बन्द कर दोगे ।’


पता नहीं, मेरे परामर्श ने दोनों पर कितना असर किया । असर किया भी या नहीं । लेकिन दोनों ने बिना कोई प्रतिवाद किए मेरी बात चुपचाप सुन ली । वे वहीं बैठे रहे । लेकिन मुझे तो घर आना था । सो दोनों को वहीं छोड़ कर लौट आया । लेकिन यह मेरा भ्रम ही रहा । वे दोनों तो मेरे साथ ही बने हुए हैं । अब तक ।

(अखबारों ने खबर दी है कि अपने नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार विश्‍‍वास सारंग का, करोड़ों का कारोबार है । भोपाल, सीहोर व रायसेन जिलों में इनके नाम पर अचल सम्पत्ति के रूप में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशातबाग कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन के अतिरिक्त अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में 32 लाख रुपयों की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी इनके नाम हैं ।
नामांकन पत्र के साथ इन्होंने मध्य प्रदेश के मतदाता के प्रमाणस्वरुप स्वयम् को भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द घोषित किया - प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति मुडियाखेड़ा के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले किसी गाँव की मतदाता सूची का उल्लेख नहीं किया ।


कितना अच्छा होता कि विश्वास सारंग सचमुच में एक वास्तविक तेन्दू पत्ता संग्राहक के रूप में ही होते और इसी हैसियत में म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष बनते । तब वे ‘भारतीय लोकतन्त्र के ज्वाजल्य, प्रेरक, अनुकरणीय, अनुपम उदाहरण’ होते ।

यहाँ, विश्‍‍वास सारंग संयोगवश मात्र एक सन्दर्भ या उदाहरण हैं । ऐसे विश्वास सारंग प्रत्येक पार्टी में मिल जाएँगे और निर्भीक-निष्‍‍पक्ष पत्रकारिता की दुहाई देने वाले ऐसे अखबार प्रत्येक शहर में । तालाब में पानी जब उतरता है तो पूरी सतह का पानी समान रुप से नीचे जाता है ।)


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7 comments:

  1. तब वे ‘भारतीय लोकतन्त्र के ज्वाजल्य, प्रेरक, अनुकरणीय, अनुपम उदाहरण’ होते ।


    --कैसे इतना अच्छा सपना देख लेते हैं भाई आप!! :)

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  2. यह गोरखधंधा सब के साथ मिलेगा। यदि इन की उम्मीदवारी और विधान/लोकसभा सदस्यता को संस्थागत तरीके से चुनौती देने लगें तो वहाँ केवल 10-15% ही बचेंगे।

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  3. भोज विश्वविद्यालय के कुलपति कमलाकर सिंह पर उनकी पीएचडी की डिग्री नकल की गई सामग्री के द्वारा प्राप्त की गई है - यह आरोप सिद्ध हो चुका है, पुलिस में रपट भी दर्ज हो चुकी है, और इस बारे में पूरे मप्र में दैनिक भास्कर के स्टेट हेड अभिलाष खांडेकर ने प्रथम पृष्ठ पर संपादकीय भी लिखा था. पर वे आज भी कुलपति बने हुए हैं, जबकि, बकौल खांडेकर, उनकी प्राथमिक योग्यता ही खारिज करने लायक है!

    ये तो भारतीय लोकतंत्र के अनुपम उदाहरण हैं.

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  4. समीरभाई दुष्यन्त की तरह कह रहे हैं कि 'सपने इस कदर प्यारे न देख'! इन सपनों और सपनों को देखने वालों से ही उम्मीद है ।

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  5. तेंदूपत्ता संग्रहण में इतनी कमाई है… चलो मैं भी जंगल जाकर तेंदूपत्ता तोड़ने लगता हूँ, करोड़ों की जमीन का मालिक भी बन जाउँगा और टाइम पास करने के लिये उन्हीं पत्तों की बीड़ी बनाकर पी लूँगा… वाह क्या खूब सम्पत्ति दर्शाई है सारंग ने, लोकसभा और विधानसभा में ऐसे ही कई "किसान", "वकील", "मजदूर" मिल जायेंगे जो लाखों के स्वामी हैं, धन्य है हमारा लोकतन्त्र…

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  6. भाई जी
    आपने
    हकीकत में भारतीय पत्रकारिता की
    बखियां ही उधेड़ डाली. वकै पैसा
    अच्छे अच्छे का मुंह बंद कर देता है
    आपका
    विजय तिवारी '' किसलय ''

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  7. मुझे विश्वास है कि विश्‍‍वास सारंग और उस जैसे दूसरे जोंक तब तक भारतीय प्रजातंत्र का खून चूसते रहेंगे जब तक कि चाटुकार सरकारी कर्मियों, चापलूस मीडिया मालिकों और अविश्वसनीय नेताओं के बीच में से कुछ सच्चे निर्भय और निस्वार्थ लोग ऊपर उठकर इनको इनका सही ठिकाना (कारागार) तक न पहुंचाएं.

    देश में हर तरफ़ सशस्त्र विद्रोह हो रहे हैं, मैं उनके पक्ष में बिल्कुल नहीं हूँ मगर अक्सर मुझे ऐसा लगता है कि एक बेबस नागरिक के सामने इन सारंग विश्वासों ने कोई और विकल्प छोडा ही नहीं है शायद!

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