साहस-किरण


इन्दौर से प्रकाशित हो रहे, सान्ध्य दैनिक ‘प्रभातकिरण’ ने साहसभरा वह प्रेरक और अनुकरणीय काम किया है जिसकी दुहाई तो हम सब देते हैं किन्तु समय आने पर हम खुद ही उससे कन्नी काट लेते हैं ।


इस सान्ध्य दैनिक का ‘आईने में आईना’ शीर्षक स्तम्भ अत्यन्त लोकप्रिय है । इस स्तम्भ में, इन्दौर से प्रकाशित हो रहे कुछ प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों की लघु समीक्षा (रविवार को छोड़कर) प्रतिदिन प्रकाशित होती है ।


25 नवम्बर को तीन विवाह समारोहों मे उपस्थिति अंकित कराने की व्यस्तता के कारण मैं, ‘प्रभातकिरण’ का, 25 नवम्बर का अंक नहीं देख पाया था । कल रात देख पाया ।


विधान सभा चुनाव के प्रत्याशियों का प्रचार अभियान उन दिनों अपने चरम पर था । सो समाचार पत्रों में प्रचार अभियान का छाए रहना बहुत ही स्वाभाविक बात थी । ‘पत्रिका’ में, इन्हीं से सम्बन्धित प्रकाशित समाचारों की समीक्षा करते हुए लिखा है - ‘समझ में नहीं आता कि कौनसा आयटम उम्मीदवार ने पैसे देकर छपवाया है और कौनसा अखबार ने अपनी मर्जी से छापा है ।’ ‘राज एक्सप्रेस’ में प्रकाशित उस दिन के, चुनावी समाचारों की समीक्षा करते हुए लिखा है - ‘यहाँ पर भी खूब सारी चुनावी खबरें हैं और पता नहीं चलता कि किस खबर के मालिक को पैसा मिला है और किस खबर के लिए संवाददाता को । बहरहाल पैसा जरूर मिला है ।’


मेरे कस्बे में कार्यरत कुछ बीमा एजेण्ट ऐसे हैं जो अपने ग्राहकों से प्रीमीयम की रकम लेकर जमा नहीं कराते, हजम कर जाते हैं । ऐसे एजेण्टों के नाम हम सब एजेण्ट भली प्रकार जानते हैं और अवसर प्राप्त होने पर उनके नाम ले-ले कर उन्हें कोसते भी हैं क्यों कि उनके कुकर्मों के कारण हम लोगों को, ‘फील्ड’ में परेशानी होती है, ग्राहकों की व्यंग्योक्तियाँ और आक्रोश झेलना पड़ता है । लेकिन जब भी ‘लिख कर देने की बात’ अथवा आमने-सामने कहने की बात आती है तो हम सब ‘नर-पुंगव’ चुप हो जाते हैं जबकि अपने व्यवसाय के शुद्धिकरण के लिए हमने बोलना चाहिए ।


ऐसे में ‘प्रभातकिरण’ ने वास्तव में साहस दिखाया है । जिन समाचार पत्रों के समाचारों का उल्लेख समीक्षा में किया गया है, वे दोनों ही ‘प्रभातकालीन’ समाचार पत्र हैं । उन दोनों समाचार पत्रों के साथ ‘प्रभातकिरण’ की कोई व्‍यावसायिक प्रतियोगिता कोसों दूर तक नहीं है । किसी भी वर्ग अथवा समुदाय को, अपनी सार्वजनिक छवि को निष्‍कलंक बनाए रखने के लिए, अपने अन्दर ही झाँकना होता है । निस्सन्देह यह ऐसा ही स्तुत्य प्रयास है ।


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‘बई ! पूड़ी दे’

इस समय, जब मैं यह पोस्ट टाइप कर रहा हूँ, तेईस नवम्बर रविवार की रात के पौने ग्यारह बज रहे हैं । कोई दो घण्टे पहले, एक भोज समारोह से लौटा हूँ । विचलित और विगलित मनःस्थिति में हूँ । कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है ।

मुमकिन है, इस पोस्ट के साथ वाला चित्र साफ-साफ नहीं देखा जा सके । इसके दो कारण हैं । मैं ने अभी-अभी कैमरा खरीदा है और मैं चित्र लेने का अभ्यास कर रहा हूँ । सो, पहला कारण है - मेरा अनाड़ीपन । दूसरा कारण - जहाँ का यह दृश्‍य है वहाँ, उबलते तेल का धुँआ छाया हुआ था ।


इससे पहले कि इस सचित्र पोस्ट की बात करूँ, दो शब्दों के बारे में बता दूँ । मालवी में ‘माँ’ को ‘बई’ कह कर पुकारा जाता है (जैसे कि मराठी में ‘आई’ पुकारा जाता है) और ‘पूरी’ (हलवा-पूरी वाली पूरी) को -‘पूड़ी’ कहा जाता है ।


आज रात मैं एक विवाहोत्सव वाले भोज में शरीक हुआ था । मालवा में सर्दी का मौसम एकाएक आ गया है । सो, आमन्त्रित लोग दिए गए समय पर ही आना शुरु हो गए । केटरर को इसका अनुमान नहीं था । फलस्वरूप, भोजन शुरु होते ही व्यंजनों की ‘खेंच’ (कमी) पड़ गई । मिठाइयाँ जरूर तैयार थीं लेकिन मीठा कितना खाया जा सकता है ? तैयार नमकीन के नाम पर रतलामी सेव थी जिसका आकर्षण किसी को नहीं था । मेनू में मिक्स पकोड़े, कचोरी भी शामिल थीं लेकिन मेहमानों को ये चीजें गरम-गरम (कढ़ाही में से निकलती-निकलती) मिलें, मेजबानकी इस भावना के कारण, ये दोनों ‘आयटम’ भी भरपूर मात्रा में तैयार नहीं थे । सो, ‘उदरपूर्ति’ के लिए लोगों ने दाल-चाँवल और सब्जी-पूरी पर झपट्टा मारा । दाल-चाँवल और सब्जी तो भरपूर मात्रा में उपलब्ध थीं लेकिन पूरियाँ नहीं । केटरर की पूरी टीम पूरियाँ बनाने में जुट गई लेकिन पूरियाँ जितनी निकल रही थीं, उठाव उससे कहीं अधिक था । सो, भोजन के पहले दौर में पूरियों की कमी बराबर बनी रही ।


मैं भी इस कमी से प्रभावित हो, पूरी लेने के लिए, हलवाई के पास खड़ा हो गया । तभी मेरा ध्यान, पूरी बेलने वाली महिलाओं पर गया ।


वे तीन थीं । दो तो पूरियाँ बेले जा रही थीं लेकिन तीसरी के पास एक छोटी सी बच्ची बैठी थी । वह बार-बार हाथ आगे कर रही थी और उसकी माँ, बेलन वाले हाथ से, बच्ची का हाथ पीछे ठेल रही थी । स्पष्‍ट था कि बच्ची को भूख लगी थी और उसे पूरी चाहिए थी ।


चित्र देखने में आपको तनिक अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ सकती है । सम्भव है कि उसके बाद भी चित्र बराबर दिखाई न दे । कढ़ाई से निकाली जा रही, लोहे के झारे में रखी एक पूरी चित्र में छाई हुई है । तली हुई दो पूरियाँ अखबार पर रखी हुई हैं । तलने के लिए, बेली हुई सात पूरियाँ थाली में रखी हुई हैं । चित्र में पीला ओढ़ना और हरे रंग का छींटदार लँहगा पहने महिला, पूरी बेलने की कोशिश करती दिखाई दे रही है । उसके पास, दाहिनी ओर, धूसर रंग का झबला पहने, उसकी साल-डेड़ साल की बेटी बैठी हुई है ।


महिला के पीछे, पूरी बेलने के लिए तैयार किए गए गीले आटे के ‘लोयों’ से भरा बर्तन दिखाई दे रहा है । पूरी बेलने के लिए उसने जो ‘लोया’, चकले पर रखने के लिए लिया था वह उसकी बेटी ने बीच में ही लपक लिया । बच्ची बार-बार कह रही थी - ‘बई ! पूड़ी दे ।’ ‘बई’ उसे ‘पूड़ी’ कैसे दे सकती थी ? वह तो पूरियाँ बेलने के लिए, मजदूरी पर आई है । पूरियों की कमी हो गई है । वह बच्ची को पूड़ी देने के बारे में सोच भी नहीं सकती । उसे, पहले मेहमानों के लिए पूरियाँ बेलनी हैं । मेहमानों में चिल्ल-पों मची हुई है, केटरर हलकान है और पूरियाँ तलने वाला हलवाई झुंझला रहा है । उधर बच्ची है कि ‘पूड़ी’ के लिए बार-बार हाथ आगे कर रही है । पूरी बेलने में माँ को व्यवधान हो रहा है । वह बेलन वाले हाथ से बार-बार बच्ची का हाथ ठेल रही है ।


इधर माँ परेशान है और उससे पहले बेटी । माँ समझदार है लेकिन बेटी का समझ से कोई रिश्‍ता नहीं है । बेटी अपनी भूख समझ रही है और माँ समझ कर भी नासमझ बनने को विवश है । बच्ची ‘बई ! पूड़ी दे’ की रट लगाए हुए, बार-बार हाथ आगे कर रही है, माँग पूरी न होने पर ‘नासमझ’ माँ के हाथ से ‘लोया’ छीन रही है और माँ है कि पूरियाँ बेलने में लगी रहना चाह रही है ताकि मेहमानों की माँग पूरी हो तो फिर तसल्ली से अपनी बेटी को ‘पूड़ी’ खिला सके ।


बच्ची की रट, उसका बार-बार हाथ आगे करना, अपनी बात समझाने के लिए माँ के हाथ से ‘लोया’ छीनना, बेलन वाले हाथ से माँ द्वारा बच्ची के हाथ को ठेलना और ऐसा करते हुए अपनी विवशता पर झुंझलाना - यह सब कितनी देर तक देखा जा सकता है ?


मैं नहीं देख पाया । डेड़-दो मिनिट भी नहीं देख पाया । इन डेड़-दो मिनिटों में मुझे लगा कि बच्ची का हाथ, मेरे हाथ की खाली प्लेट के वजन से कुचल जाएगा, लहू-लुहान हो जाएगा । मैं, कढ़ाही से उतर रही गरम-गरम पूरियों को तलाश करना चाह रहा था किन्तु मेरे कान 'बई ! पूड़ी दे' की मिमियाती आवाज से बहरे हुए जा रहे थे । मैं ने पहले तो बच्ची की माँ से और तत्काल बाद ही हलवाई से कहा भी कि पहले बच्ची को एक ‘पूड़ी’ दे दे । लेकिन हलवाई ने ‘बाबूजी भी क्या बात करते हैं’ कह कर और उसकी माँ ने विद्रूप भरी गूँगी मुस्कुराहट और चिंघाड़ती नजरों से मेरी ओर देखकर मुझे सहमा दिया । मेरी भूख मर गई ।


मेरे लिए वहाँ और ठहर पाना सम्भव नहीं हो पाया । तत्क्षण ही पीठ फेरी, प्लेट रखी, हाथ धोए और घर लौट आया । तब से अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । धूसर झबला पहने बच्ची की ‘बई ! पूड़ी दे’ मेरे कानो में गूँजे जा रही है और पूरी के लिए आगे हो रहे उसके हाथ को ठेलती माँ मेरी नजरों से दूर नहीं हो पा रही है ।

मुख्यमन्त्री दंगा कराता है

किसी भी प्रदेश में होने वाले दंगे वहां का मुख्यमन्त्री ही कराता है । यह चैंकाने वाली बात परसों, 18 नवम्बर को रतलाम में, भोपाल के पुराने पत्रकार और राष्‍‍ट्रीय सेक्यूलर मंच के प्रान्तीय संयोजक श्री लज्जाशंकर हरदेनिया ने कही । वे अपने तीन अन्य साथियों सर्वश्री राम पुनियानी, दिगन्त ओझा और दीपक भट्ट के साथ रतलाम के पत्रकारों से बात कर रहे थे ।

‘मंच’ ने, प्रदेश के मतदाताओं से, सोच समझकर मतदान करने और प्रदेश में सौहार्द्र व सामंजस्य का वातावरण बनाने का वादा करने वाले उम्मीदवारों को चुनने का आग्रह करने का अभियान चला रखा है । उसी के तहत ये चारों रतलाम आए थे ।

‘धर्मगत राजनीति‘ और ‘सत्ता संरक्षित साम्प्रदायिकता’ पर जब बात आई तो हरदेनियाजी ने कहा - ‘साम्प्रदायिक दंगे तो मुख्यमन्त्री कराता है ।’ पत्रकारों ने इसे, मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराजसिंह चैहान पर टिप्पणी समझा । यह अनुभव कर हरदेनियाजी ने स्पष्‍ट किया कि यह बात प्रत्येक मुख्यमन्त्री पर लागू होती है ।

उन्होंने बताया कि अखबार के लिए एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने मध्य प्रदेश के तत्कालीन (अब दिवंगत) मुख्यमन्त्री श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र से पूछा - ‘मध्य प्रदेश में अगला दंगा कब होगा ?’ उत्तर में मिश्रजी ने कहा - ‘मैं चाहूंगा तब ।’ हरदेनियाजी के लिए यह जवाब जितना आकस्मिक था उससे कई गुना अधिक अनपेक्षित था । क्षण भर को वे अचकचाने की स्थिति में आ गए । तत्काल ही संयत होकर पूछा - ‘आपका मतलब क्या है ?’ उत्तर में मिश्रजी ने कहा कि यदि मुख्यमन्त्री तय कर ले तो उसके प्रदेश में एक भी दंगा नहीं होगा । इसके लिए फौलादी इच्छा शक्ति चाहिए ‘और वह मुझमें है । इसलिए अगला दंगा तभी होगा जब मैं होने दूंगा’ कहा था मिश्रजी ने ।

मिश्रजी ने यह बात कम से कम 41 वर्ष (वे 1967 में मध्‍य प्रदेश के मुख्‍‍यमन्‍‍त्री थे) पूर्व ही कही होगी लेकिन आज भी शब्दश: लागू होती है । गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडीसा और महाराष्‍ट्र में हुए साम्प्रदायिक और भाषायी दंगों को इन प्रदेशों के मुख्यमन्त्रियों ने या तो प्रोत्साहनपूर्ण राजकीय प्रश्रय दिया या फिर आंखें मूंदे, पीठ फेरे बैठे रहे । ये लोग अपनी वोट की राजनीति करते रहे और लोग मरते/पिटते/उजड़ते रहे ।

हरदेनियाजी के माध्यम से सामने आई मिश्रजी की बात तब भी जितनी सच थी उतनी ही सच आज भी है ।



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भाषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम भी नहीं लिया


चुनाव लड़ने का एकमात्र उद्दश्‍य जीतना ही होता है । लेकिन भारतीय राजनीति में वह समय भी था जब इसके लिए उपलब्धियों, नीतियों, कार्यक्रमों और वैचारिकता को सार्वजनिक भाषणों का विषय बनाया जाता था । शालीनता, ”शिष्‍टाचार, विनम्रता बरती जाती थी । अपनी लकीर बड़ी करने के प्रयास किए जाते थे । आज तो स्थिति पूरी तरह से उलट गई है । उपरोक्त सारी बातों के लिए आज भाषणों में कोई जगह ही नहीं रह गई है । विरोधी उम्मीदवार की जन्म पत्रिका बाँचना ही एकमात्र काम रह गया है । ऐसे वातावरण में इस बात पर कोई भी विश्‍वास नहीं करेगा कि किसी उम्मीदवार और उसके प्रचारकों-कार्यकर्ताओं ने, अपने सार्वजनिक भाषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम भी नहीं लिया, और चुनाव जीता था ।


किन्तु यह ‘अनुपम वास्तविकता’ है और मैं इसका भागीदार रहा हूँ ।


यह संस्मरण भी, मध्य प्रदेश विधान सभा के 1980 वाले चुनावों का ही है ।


काँग्रेस पार्टी से दादा की उम्मीदवारी निश्‍िचत होते ही मनासा काँग्रेस की ‘रणनीति समिति’ की बैठक हुई । यह समिति सर्वथा अनौपचारिक और अघोषित थी । डाक्टर वी. एम. संघई साहब, बापू दादा (श्री बापूलालजी जैन), लच्छू दादा (श्री लक्ष्मीनारायणजी विजयवर्गीय), लाली उस्ताद (श्री रामस्वरूपजी विजयवर्गीय) आदि इसके स्वतः नामित सदस्य थे । दादा चूँकि उम्मीदवार थे सो वे तो इसके ‘पदेन सदस्य’ थे ही । समिति का प्रत्येक सदस्य चुनावी व्यूह रचना के किसी न किसी पक्ष का विशेषज्ञ था । बापू दादा को पूरे विधानसभा क्षेत्र के एक-एक मतदान केन्द्र की ‘मतदान वास्तविकता’ की जानकारी होती थी । मतदान सम्पन्न होने के बाद जैसे ही उनके पास मतदान के केन्द्रवार आँकड़े आते, वे बता देते थे कि किस मतदान केन्द्र पर हमें कितने वोट मिलेंगे । उनके आँकड़ों में मुश्‍िकल से एक प्रतिशत का अन्तर आता था ।


सो, रणनीति समिति की पहली बैठक शुरु हुई तो सबसे पहले बोलने का मौका ‘उम्मीदवार’ को मिला । दादा ने विस्तार से अपनी बात कही और अन्त में विचित्र इच्छा प्रकट की । उन्होंने कहा कि इस बार चुनावी आमसभाओं के भषणों में विरोधी उम्मीदवार का नाम नहीं लिया जाए और उसके स्थान पर ‘हमारे विरोधी उम्मीदवार’ या ऐसी ही कोई समानार्थी शब्दावली प्रयुक्त की जाए । दादा की बात इतनी अटपटी और ‘अप्राकृतिक’ लगी कि डाक्टर संघई साहब को छोड़ कर सबके सब एक साथ ही मानो ‘हत्थे से उखड़ गए’ हों । सबका सामान्य मत था कि विरोधी उम्मीदवार का नाम लिए बिना न तो अपनी बात पूरी कही जा सकेगी और न ही जाजम पर बैठी भीड़ को आनन्द आएगा । भाषणों से ‘जन-रोचकता’ तो अनुपस्थित ही हो जाएगी ।


दादा को शायद इस क्षण का पूर्वानुमान भली प्रकार था । लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही डाक्टर संघई साहब ने हस्तक्षेप कर कहा कि दादा की ‘बुध्दि‘, ‘विवेक’ और ‘सामान्य समझ’ पर भरोसा किया जाना चाहिए । वे तो उम्मीदवार हैं और परिणाम से सबसे पहले वे ही प्रभावित होंगे । इसके बाद भी वे यदि ऐसा ‘विचित्र’ सुझाव दे रहे हैं तो उनकी बात को बिना विचारे निरस्त नहीं किया जाना चाहिए । इस बिन्दु पर उनकी पूरी बात सुनी जानी चाहिए ।


दादा ने कहा कि आम सभा की सारी व्यवस्था और संसाधन हम जुटाते हैं । डोंडी हम पिटवाते हैं, दरी, माईक, बिजली का खर्च हम उठाते हैं, आमसभा में भीड़ जुटाने के लिए सारा परिश्रम हम करते हैं और प्रचार करते हैं विरोधी उम्मीदवार का - उसका नाम लेकर और उसके बारे विस्तार से सूचनाएँ देकर । दादा ने कहा - ‘हम अपनी बात कहें, सामने वाले का नाम भी न लें । इस सुझाव पर अमल करने से यदि परिणाम हमारे प्रतिकूल जाता है तो उसकी सारी जिम्मेदारी मेरी ।’ दादा ने कहा - ‘मेरी बात पर बिना सोचे अपनी राय मत दीजिएगा ।’


दादा की बात ने धीरे-धीरे प्रभाव करना शुरु किया और भरपूर समय लेने वाले विमर्श के बाद ‘रणनीति समिति’ ने दादा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । इसे स्वीकार करना जितना कठिन था, उससे कई गुना अधिक कठिन था इसका क्रियान्वयन । लेकिन चूँकि चुनाव के ‘प्रारम्भिक से भी पहले वाले दौर’ में यह निर्णय ले लिया गया था सो हमारे पास पर्याप्त से भी अधिक समय था । इस निर्णय की जानकारी, गाँव-गाँव के स्थानीय कांग्रेसी वक्ताओं को ‘भली प्रकार’ देकर इसका पालन सुनिश्‍िचत करने के प्रयास किए गए । लोगों के गले यह बात नहीं उतर रही थी लेकिन ‘स्थानीय हाईकमान’ की इच्छा का उल्लंघन कौन करे ? सो, प्रस्ताव ने वास्तविकता ग्रहण करनी शुरु कर दी ।


रणनीति के अन्तर्गत हमने गाँवों से आम सभाएँ प्रारम्भ कीं । एक दिन में कम से कम पाँच गाँवों में आम सभाएँ होने लगीं । चुनावी रंग जमने लगा । कार्यकर्ता ‘मूड’ में आने लगे । उम्मीदवारों का जनसम्पर्क शुरु हो गया ।


जनसम्पर्क अभियान के तीसरे या चौथे ही दिन दोनों प्रमुख उम्मीदवार आमने-सामने हो गए । दो गाँवों के बीच, जंगल में दोनों की जीपें आमने-सामने हुईं । अपने स्वभावानुसार दादा ने दोनो जीपें रुकवाईं । सामनेवाले उम्मीदवार का अभिवादन किया, कुशलक्षेम पूछी, ‘मेरे जैसा काम बताइएगा’ जैसा ‘आदर्श वाक्य’ उच्चारित किया । ‘सामनेवाला’ उम्मीदवार मानो इसी वाक्य की प्रतीक्षा में था । उसने ‘सरोष’ कहा कि दादा और उनके समर्थक/प्रचारक इस बार एक अनुचित काम कर रहे हैं । वे उनका (सामनेवाले उम्मीदवार का) नाम भी नहीं ले रहे हैं और इसी बात पर उन्हें आपत्ति है । उन्होंने कहा - ‘दादा ! आप काम पूछ रहे हैं ? बताता हूँ । आप और आपके लोग अपने भाषणों में मेरा नाम भी ले रहे हैं । यह अच्छी बात नहीं है । आप लोग मेरा नाम लेकर अपने भाषण दीजिए ।’ ‘सामनेवाले’ की इस बात ने, जीप में लदे-फँदे तमाम कार्यकर्ताओं का ध्यानाकर्षित किया । सबके सब मानो अपने रोम-रोम को कान बना बैठे । दादा ने कहा - ‘आपको तो खुश होना चाहिए कि आपको लेकर कोई व्यक्तिगत बात नहीं कही जा रही है । आपका नाम भी नहीं लिया जा रहा है ।’ ‘वे’ बोले - ‘यही तो तकलीफ है । आप लोग मेरा नाम भी नहीं ले रहे हैं । अपनी-अपनी कहे जा रहे हैं । आपकी इस हरकत के कारण दशा यह हो गई कि लोग मुझसे ही पूछने लगे हैं कि बैरागीजी के सामने कौन चुनाव लड़ रहा है ?’


इसके बाद के सम्वाद यहाँ प्रस्तुत करने का अब कोई अर्थ नहीं होगा । ‘रणनीति समिति’ में प्रस्तुत, दादा के प्रस्ताव का अर्थ, उसकी गम्भीरता और उसके गहरे प्रभाव का उदाहरण सबको मिल चुका था । दादा ने ‘सामनेवाले’ से सविनय क्षमा-याचना की कि वे (दादा) उनका अनुरोध स्वीकार नहीं कर पाएँगे । दादा ने नमस्कार कर विदा ली । दोनो जीपें, धूल उड़ाती, अपने-अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गईं ।


जीप में बैठे तमाम लोग (उनमें ‘रणनीति समिति’ के दो सदस्य भी थे) चकित और हतप्रभ बैठे थे । कुल दो लोग हँस रहे थे - दादा और जीप का चालक । जीप का चालक जोर-जोर से (ठहाकों के समीप पहुँचते हुए) हँस रहा था और दादा, मन्द-मन्द मुस्कुरा रहे थे ।


चुनाव परिणाम के बारे में मैं अपनी कल वाली पोस्ट में बता चुका हूँ - दादा , अपेक्षा से अधिक मतों से विजयी हुए ।


आज के चुनावी वातावरण में यह संस्मरण ‘परि-कथा’ के समान रोचक, मोहक और अविश्‍वसनीय ही लगेगा । लेकिन इसका समानान्तर सच यह भी है कि दादा का यह विचार सचमुच में ‘दुस्साहसी’ ही था - आत्मघाती की सीमा तक दुस्साहसी । इस सन्दर्भ में दादा ‘असाधारण’ और 'आत्‍मविश्‍वास के अद्भुत धनी व्‍यक्ति' ही साबित हुए ।


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विरोधी उम्मीदवार को गिरफ्तार करवाने से मना कर दिया


कई राज्यों के विधान सभा चुनाव हो रहे हैं । प्रचार अभियान की विषय वस्तु और शैली में जमीन आसमान का अन्तर आ गया है । पहले, दल और उम्मीदवार अपनी उपलब्धियाँ और भावी योजनाएँ लेकर मतदाता के सामने जाते थे । ‘चरित्र हनन’ और ‘छवि भंजन’ उनकी प्राथमिकता सूची में नहीं होते थे । प्रचार अभियान के दौरान विरोधी उम्मीदवार कभी आमने-सामने मिल जाते थे परस्पर सम्मानपूर्वक अभिवादन कर, एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछते थे ।
आज स्थिति एकदम विपरीत हो गई है । नीतियाँ और कार्यक्रम प्राथमिकता सूची की तलछट से भी गुम होकर नेपथ्य में चले गए हैं । किसी के भी पास बताने के लिए अपनी उपलब्धियाँ मानो हैं ही नहीं । समूचा प्रचार अभ्यिान व्यक्तिगत आलोचना, आरोप, निन्दा और सम्वेदनशून्य आक्रामकता पर आकर टिक गया है । चुनाव स्थगित होने का भय न हो तो सामने वाले उम्मीदवार की हत्या कर दें ।


ऐसे में मुझे दो घटनाएँ याद आ रही हैं जिन पर आज शायद ही कोई विश्‍वास करे । पढ़कर हर कोई इसे या तो झूठ कहेगा या फिर ऐसा करने वाले उम्मीदवार को निरा मूर्ख घोषित कर देगा ।


मध्यप्रदेश । सन् 1980 का विधान सभा चुनाव । काँग्रेस ने दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया था । इस विधानसभा क्षेत्र में ‘रामपुरा’ आज भी शामिल है । रामपुरा में अल्पसंख्यक समुदाय सदैव ही निर्णायक स्थिति में रहता आया है । इस स्थिति के चलते, अपने अनुकूल परिणाम प्राप्त करने के लिए या फिर विरोधी को नुकसान पहुँचाने के लिए, अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति को उम्मीदवार बनाना वहाँ सामान्य परम्परा सी है । अल्पसंख्यक उम्मीदवार से काँग्रेस को सदैव खतरा बना रहता । सो काँग्रेसी खेमे की कोशिश होती कि कोई अल्पसंख्यक उम्मीदवार न उतरे । इसके विपरीत, जनसंघ/भाजपा किसी अल्पसंख्यक को उम्मीदवार बनाने का यथासम्भव प्रयास करती ।


दादा की विजय 'प्रथमदृष्‍टया सुनिश्‍िचत' ही थी । सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि अचानक ही बाबू खान (उसका लोक प्रचलित नाम 'बाबू भाई' था) नामक एक व्यक्ति ने नामांकन पत्र प्रस्तुत कर दिया । पहले तो सबने इसे बहुत ही हलके से लिया । यही माना कि काँगे्रसियों के मजे लेने के लिए या फिर थोड़ी-बहुत सौदेबाजी के लिए नामांकन प्रस्तुत किया गया है । बाबू भाई अच्छी आर्थिक हैसियत वाला, छोटा-मोटा ठेकेदार, आदमी था । काँग्रेसी खेमा उसकी गतिविधियों पर निगाह गड़ाए था । विभिन्न माध्यमों से उसे टटोला गया । प्रत्येक ‘टटोल’ पर सूचनाएँ मिल रही थीं कि न तो वह किसी के उकसावे में खड़ा हुआ है और न ही कोई सौदेबाजी करने के लिए । उसे तो खड़ा होना था सो वह खड़ा हो गया और अन्ततः वह उम्मीदवार बना ही रहा ।


हम सब चिन्तित और परेशान थे ।


चुनाव अभियान शुरु हो गया । सबके मजमे लग गए, दुकानें सज गईं । बाबू भाई भी अपनी स्थिति अनुसार काम में लग गया था । मनासा में मैं तथा रामपुरा में निर्मल पोखरना (हम सबका ‘नीरु भाई’) कार्यालय-प्रभारी था । कार्यालय-प्रभारी अर्थात् सूचनाएँ लेने-देने वाला, चुनाव अभियान की रणनीति निर्धारित करने वाला नहीं । रामपुरा-मनासा में 32 किलोमीटर की दूरी । उस समय तक अपने शहर से बाहर बात करने के लिए ट्रंक काल बुक करने पड़ते थे, ग्रुप डायलिंग और एसटीडी सुविधा के अते-पते जनसमान्य की कल्पना में भी नहीं थे ।


एक रात, कोई डेड़-दो बजे रामपुरा से नीरु भाई ने खबर दी कि बाबू भाई का एक ट्रक, जंगल से, अवैध रूप से काटी गई लकड़ियों से भरा हुआ पकड़ाया है । कानूनों के मुताबिक, लकड़ियों का स्वामी तो गिरफ्तार होना ही है, अपराध में बराबरी की भागीदारी के आधार पर ट्रक मालिक को भी गिरफ्तार किया जा सकता है । नीरु भाई की आवाज में जितना उल्लास था उससे कई गुना अधिक मेरे कानों में घुल गया था । हम लोगों की मानो लाटरी खुल गई थी । अब बाबू भाई को गिरफ्तार करा देंगे और रामपुरा में अपनी स्थिति ‘सीमेण्ट कांक्रीट’ जैसी पक्की । आधी रात में आशा का भव्य सूर्योदय हो गया ।


हम युवाओं ने तत्काल ही दादा से मिल कर, बाबू भाई की गिरतारी सुनिश्‍िचत कराने की योजना बनाई - प्रदेश में सरकार जो हमारी थी ! चुनाव अभियान के मामले में हमारी व्यवस्थाएँ चाक-चैबन्द थीं । दोनो कार्यालयों को पता रहता था कि उनका उम्मीदवार इस समय किस गाँव में होगा । उस रात दादा का विश्राम, देवरान नामक सीमान्त गाँव में था । सो, रामपुरा से नीरु भाई और मनासा से मैं, अपने-अपने ‘युवा कांग्रेसी’ मित्रों के साथ, आधी रात में मानो ‘किला फतह’ करने निकल पड़े । रामपुरा-मनासा वाली मुख्य सड़क पर, लगभग मध्य-दूरी पर स्थित ग्राम कुण्डालिया में दोनों टोलियाँ मिलीं और देवरान के लिए कूच किया ।


रात कोई तीन बजे हम देवरान पहुँचे । दादा को जगाया । नीरु भाई ने पूरी बात बताई । एक युवा वकील भी टोली में था । उसने दादा को कानूनी ज्ञान से लाभान्वित किया और चाहा कि दादा, या तो रामपुरा थानेदार को सीधा सन्देश दें या फिर मन्दसौर जिला पुलिस अधीक्षक को कहें और बाबू भाई को फौरन ही, सूरज निकलने से पहले ही गिरफ्तार करवा दें ।
दादा ने पूरी बात धैर्यपूर्वक सुनी और हम सबको अविश्‍वास से देखने लगे । उन्हें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि ‘उनके कार्यकर्ता’ ऐसा सोच सकते हैं और ऐसी माँग कर सकते हैं । उन्होंने पहले तो हमें शान्त, धीर-गम्भीर स्वरों में ‘लोकतन्त्र’ का मतलब तो समझाया ही, उसे बनाए रखने की हमारी जिम्मेदारी भी समझाई । उनका व्याख्यान सुनते-सुनते हमें लगने लगा था कि बाबू भाई को गिरफ्तार कराने की हमारी योजना से दादा सहमत नहीं हैं और वे हमारी मनोकामना पूरी करने में मदद नहीं करेंगे । हम लोगों ने हार के खतरे का उल्लेख किया । थोड़ी देर तो दादा संयत रहे लेकिन जब हमारा ‘आग्रह’ (जो वास्तव में ‘दुराग्रह’ या ‘दबाव’ ही था) बढ़ता देखा तो वे बिफर गए । हम सबकी खूब लानत-मलामत की और यह कह कर कि ‘मुझे ऐसी जीत नहीं चाहिए जो मुझे मेरी नजर में और मेरी पार्टी को लोगों की नजरों में गिरा दे’ हम सबको भगा दिया ।


लौटते समय हम सब दुःखी तो थे ही, हार की आशंका से भयभीत भी थे और दादा को कोस रहे थे, उन्हें ‘नादान’ और ‘बेकार का आदर्शवादी’ घोषित कर रहे थे । नीरु भाई अधिक पेरशान थे । यह खबर रामपुरा में फैलेगी ही और जब लोगों को पता लगेगा कि दादा ने सबको डाँटकर भगा दिया तो बाबू भाई एण्ड कम्पनी तो ‘चिन्दी का थान बनाकर’ इसका खूब फायदा उठाएगी, नीरु भाई की किरकिरी होगी । सबके सब हैरान, परेशान, आक्रोशित और क्षुब्ध थे किन्तु सबके सब असहाय, निरुपाय भी थे ।


अगला सवेरा होते-होते हम सब अपने-अपने मुकाम पर पहुँच कर सामान्य बने रहने की कोशिशों में लग गए । दादा रात को मनासा पहुँचे । उन्हें भोजन करना था लेकिन उससे पहले उन्होंने मुझे बुलवाया और मेरी जोरदार खबर ली । उन्होंने इस बात पर मानो ग्लानि हो रही थी कि उनका छोटा भाई ऐसे अलोकतान्त्रिक सोच का शिकार कैसे हो हो गया । उन्होंने पूछा - ‘मेरे आचरण में तूने ऐसा क्या देखा जो तू ऐसी बात में शरीक हो गया ? क्या मैं ने तुझे यही संस्कार दिए हैं ? बाकी सबसे मुझे कोई शिकायत नहीं लेकिन तू तो मेरा (उन्होंने यह ‘मेरा’ कहते हुए मानो अपना सम्पूर्ण आत्मबल लगा दिया) भाई है ! मेरा भाई ऐसी घटिया बात सोच भी सकता है, यही मेरे लिए डूब मरने वाली बात है । यदि चुनाव ऐसे ही तरीकों से जीते जाने हैं तो हमें गाँव-गाँव जाकर, लोगों से मिलकर अपनी बात कहने की, अपनी नीतियाँ समझाने की, उन्हें सहमत कराने की क्या आवश्‍यकता ? हम सरकारी कारिन्दों, अधिकारियों, थानेदारों को भेजकर लोगों के वोट हथिया लेंगे ।’


फिर उन्होंने कहा - लोकतन्त्र व्यवस्था नहीं, हमारा संस्कार है । लोकतन्त्र सुविधा और अधिकार ही नहीं, जिम्मेदारी भी है बल्कि जिम्मेदारी पहले है और अधिकार बाद में । लोकतन्त्र का मतलब केवल अपनी बात कहना नहीं, सामने वाले की बात सुनना, भले ही आप जान रहे हों कि वह गलत और झूठ है तो भी पूरी सुनना होता है । और यदि आप सत्ता में हैं तो आपकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है । तब आपको, आपसे असहमत व्यक्ति को पूरी सुरक्षा देने की जिम्मेदारी भी वहन करनी पड़ती है । अपनी बात कहने के बाद दादा ने भोजन तब ही किया जब उन्होंने मुझसे वादा लिया कि मैं भविष्‍य में, अनजाने में भी ऐसी कोई ‘गन्दी’ हरकत कभी नहीं करूँगा ।


इस पूरे घटनाक्रम के बाद क्या कहूँ ? कुछ कहने को रहा ही नहीं । बस, अपने आप पर गुमान करता हूँ कि मुझे ऐसे संस्कारदाता मिले ।


हाँ, चुनाव में बाबू भाई की जमानत जप्‍त हो गई और दादा अपेक्षा से अधिक मतों से जीते ।


दूसरा संस्मरण, अगली पोस्ट में

सपनों के आसपास




यह मेरी पोस्ट का शीर्षक नहीं है । मेरे आत्मीय और प्रिय पंकज शुक्लापरिमल के प्रथम कविता संग्रह का शीर्षक है ।

मुझे कविता और साहित्य की समझ नहीं है किन्तु कवियों, लेखकों, साहित्यकारों से मिलना, उनसे बातें करना, उन्हें आपस में बातें करते सुनना मुझे अच्छा लगता है । खुद से बेहतर लोगों से सम्पर्क बनाना और बनाए रखने में मुझे सन्तोषदायी सुख मिलता है । पंकज से भी मुझे यह सब मिलता रहा है और मिल रहा है ।

पंकज के इस कविता संग्रह में कुल 44 कविताएँ हैं । मैं ये सारी कविताएँ अपने ब्लाग पर प्रस्तुत करना चाह रहा हूँ ।
पंकज का यह कविता संग्रह, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, भोपाल ने प्रकाशित किया है । श्री रमेश दवे ने इसकी भूमिका लिखी है और श्री विनय उपाध्याय ने अपने आशीष प्रदान किए हैं । संग्रह का आवरण, प्रख्यात चित्रकार सचिदा नागदेव की कूची से उतरा है ।

मैं पंकज के प्रति मोहग्रस्त हूँ, निरपेक्ष बिलकुल नहीं । आपसे करबध्द निवेदन है कि कृपया पंकज की कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्‍य दें ।


।। भविष्‍‍यवाणी ।।


ज्योतिषी ने बाँच कर कुण्डली

बताया है, वक्त बुरा है
ठीक नहीं है ग्रहों की चाल
अभी और गहराएगा संकट
फले-फूलेगा भ्रष्‍‍टाचार
अपराध बढ़ेंगे

पाखण्ड का बोलबाला होगा
चालाकी होगी सफल

झूठ आगे रहेगा सच के

अच्छाई की राह में

अभी और काँटे हैं ।



पंछी से आकाश और होगा दूर

खिलने से ज्यादा मुश्किल होगा
फूल का शाख पर टिके रहना
नदियों में नहीं होगा पानी
हवा में घुलेगा जहर ।



बच्चों को नहीं मिलेगा समय

कि तैरा पाएँ कागज की कश्‍‍ती
वे कहानियों की जगह
गुनेंगे सामान्य ज्ञान ।


बाहर तो बाहर
घर में भी महफूज
नहीं रहेंगी बच्चियाँ ।
बुजुर्गों का इम्तिहान

और कड़ा होगा ।


बुरे वक्त में
चाहें अनुष्‍ठान‍ न करवाना
दान-धर्म न हो तो
कोई बात नहीं
हो सके तो बचाना
अपने भीतर सपने
भले ही हों वे आटे में नमक जितने ।


मुश्किल घड़ी में
जीना
सपनों के आसपास ।

देखना फिर नक्षत्र बदलेंगे
बदलेगी ग्रहों की चाल ।
------

पंकज की अन्‍य रचनाएं पढने के लिए कृपया मेरा नया ब्‍लाग 'मित्र-धन' http://mitradhan.blogspot.com देखें । यह नया ब्‍लाग मैं ने अपने मित्रों की रचनाएं प्रकाशित करने के लिए ही प्रस्‍तुत किया है ।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

प्रथम प्रीमीयम लेने का अधिकार है बीमा एजेण्ट को


अत्यधिक लोकप्रिय, प्रतिष्ठित और विश्‍वसनीय ब्लाग ‘तीसरा खम्बा’ (http://teesarakhamba.blogspot.com/ )में श्रीयुत दिनेश नारायणजी द्विवेदी की पोस्ट ‘जीवन बीमा के प्रीमीयम की राशि सीधे बीमा निगम को जमा कराएं, एजेण्ट को दी गई राशि की जिम्मेदारी निगम की नही ' (में">http://teesarakhamba.blogspot.com/2008/11/blog-post_14.html)में एक बहुत ही छोटा सा सुधार कर लीजिएगा ।

प्रीमीयम किश्‍तें सामान्यतः दो प्रकार की होती हैं । पहली - नया बीमा कराते समय (अर्थात् नई पालिसी लेते समय) दी जा रही प्रीमीयम । इसे ‘प्रथम प्रीमीयम’ (फर्स्‍ट प्रीमीयम) कहा जाता है । और दूसरी - परवर्ती प्रीमीयम (रीन्यूअल प्रीमीयम) । प्रथम प्रीमीयम चुकाने के बाद दी जाने वाली प्रत्येक प्रीमीयम, यह दूसरी प्रकार की ‘परवर्ती प्रीमीयम’ होती है ।

किसी भी बीमा एजेण्ट को ‘प्रथम प्रीमीयम’ लेने का अधिकार मिला हुआ है । लेकिन इस व्यवहार का अवधारणागत आधार यह होता है कि यह प्रीमीयम लेते समय बीमा एजेण्ट, प्रस्तावक (ग्राहक) के एजेण्ट के रूप में काम कर रहा है ।

इसके सिवाय, बीमा एजेण्ट को और कोई प्रीमीयम लेने का अधिकार नहीं है । लेकिन इस स्थिति को कुछ भी कहा जाए - विक्रयोपरान्त सेवा के नाम पर यह परवर्ती प्रीमीय जमा कराना ही एजेण्ट का मुख्य काम बना हुआ है । ऐसी प्रत्येक परवर्ती प्रीमीयम लेते समय प्रत्येक बीमा एजेण्ट भली प्रकार जानता है कि वह नियमों के प्रतिकूल काम कर रहा है । लेकिन चूंकि ग्राहक यह बात नहीं जानता इसलिए यह व्यवहार निर्बाध गति से चला आ रहा है ।

बीमा करने के बाद, प्रीमीयम जमा कराने की याद दिलाना, एजेण्ट की आचरण संहिता का महत्वपूर्ण निर्देश है । लेकिन ऐसा करते समय वह किसी से प्रीमीयम मांग नहीं सकता । केवल सूचित करेगा कि आपकी प्रीमीयम देय हो रही है या हो गई है जिसे आप निर्धारित समयावधि में जमा करा दें ।

लेकिन, जिस देश में 'भाग्य' और 'भगवान' की दुहाई बिना बात के ही दी जाती हो, वहां बीमा बेचना सबसे कठिन कामों में से एक है । आज भी अधिकांश बीमे ‘जबरिया विक्रय’ (फोर्स्‍ड सेलिंग) की गिनती में आते हैं । ऐसे में, प्रत्येक ग्राहक सामान्यतः बीमा एजेण्ट के सामने एक शर्त अवश्‍य रखता है कि उसे प्रीमीयम जमा कराने की न तो याद आएगी और न ही इस काम के लिए उसे फुर्सत मिलेगी । इसलिए, इन दोनों कामों की जिम्मेदारी यदि एजेण्ट लेने को तैयार हो तो वह बीमा ले लेगा । किसी एजेण्ट की हिम्मत नहीं होती कि यह शर्त मानने से इंकार कर दे ।सो, एजेण्ट समुदाय, नियमों के प्रतिकूल यह व्यवहार करता चला आ रहा है और लगता नहीं कि यह कभी बन्द हो पाएगा । परवर्ती प्रीमीयम लेने का यह व्यवहार पूरी तरह से ग्राहक और एजेण्ट की आपसी समझ और परस्पर विश्‍वास के दम पर चल रहा है और मोटे तौर पर किसी को शिकायत का मौका नहीं मिलता है । जो भी एजेण्ट बीमा व्यवसाय पर निर्भर है, वह इस काम को अपने इष्‍ट की आराधना की तरह ईमानदारी और चिन्ता से करता है और प्रीमीयम जमा कराते ही, जल्दी से जल्दी रसीद पहुंचाता है ।
लेकिन सब तरह के लोग सब जगह, सब संस्थानों में होते हैं । सो, कोई-कोई एजेण्ट (भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों की संख्या इस समय 10,00,000 का आंकड़ा पार कर चुकी है) अमानत में खयानत कर देता है । जब ग्राहक को महीनों तक रसीद नहीं मिलती और उसे उसकी पालिसी लेप्स होने की सूचना मिलती है तो उसे, एजेण्ट को दी गई रकम याद आती है । वह एजेण्ट को पकड़ता है । ऐसे 99 प्रतिशत मामलों में एजेण्ट या तो प्रीमीयम की रकम तत्काल जमा करा देता है या ग्राहक को उसकी रकम लौटा देता है । ऐसे मामले सबसे पहले शाखा प्रबन्धक के सामने जाते हैं लेकिन वे भी मौखिक होते हैं । मुझे यह देख-देख कर आश्‍चर्य होता है कि लिख कर देने वाले, इन एक प्रतिशत में भी बिरले ही होते हैं । शाखा प्रबन्धक अपने स्तर पर एजेण्ट को समझाइश देकर, मामला निपटाने की कोशिश करता है । ऐसे मामले सामान्यतः निपट भी जाते हैं लेकिन फिर भी इस एक प्रतिशत के नाम मात्र प्रतिशत मामले फिर भी रह जाते हैं । तब शाखा प्रबन्धक एक ओर तो ग्राहक को यह कह कर कि ‘इस लेन-देन के लिए भाजीबीनि जिम्‍मेदार नहीं है’ हाथ झटक लेता है लेकिन दूसरी ओर वह एजेण्ट के खिलाफ, एजेन्सी निरस्तीकरण की कार्रवाई भी शुरु कर देता है । यदि ग्राहक अपनी पूरी ईमानदारी से साथ देता है तो एजेण्ट की एजेन्सी निरस्त हो जाती है । मैं जनवरी 1991 से इस व्यवसाय में हूं और मेरी शाखा में, ऐसे आचरण के कारण दो एजेण्टों की एजेन्सियां निरस्त हुई हैं ।

ऐसे में मेरा विनम्र परामर्श है कि अपनी प्रीमीयम यथा सम्भव खुद ही जमा करें या कराएं और हाथों-हाथ रसीद प्राप्त कर निश्चिन्त हो जाएं । आज तो इण्टरनेट के माध्यम से आन लाइन प्रीमीयम भुगतान की सुविधा भी है । लेकिन यदि इस काम के लिए आप अपने एजेण्ट पर निर्भर हो रहे हैं (कृपया इसका मतलब यह बिलकुल न निकालें कि मैं आपको, एजेण्ट के माध्यम से प्रीमीयम जमा कराने का परामर्श दे रहा हूं) तो सर्वाधिक सुरक्षित उपाय है कि आप यह भुगतान ‘भारतीय जीवन बीमा निगम’ के पक्ष में बने और रेखांकित किए चेक से करें, नगद रकम न दें । चेक के पीछे अपना पालिसी नम्बर अवश्‍य लिख दें । यदि आपके पास उपरोक्त दोनों सुविधाएँ नहीं हैं तो फिर आप एजेण्ट को नगद रकम ही देंगे । आप भुगतान चेक से करें या नगद, इस भुगतान के चैबीस घण्टों के तत्काल बाद एजेण्ट से अपनी रसीद मांग लें - बिना कोई संकोच बरते और बिना कोई लिहाज पाले । यदि वह तनिक भी आनाकानी करता अनुभव हो तो तत्काल लिखित में अपनी शिकायत उसके शाखा प्रबन्धक को करें और अगली कार्रवाई में सहायता करें ।
लेकिन इस सबमें एक अच्‍‍छी खबर भी है । भारतीय जीवन बीमा निगम ने अभी-अभी, एजेण्‍‍टों को परवर्ती प्रीमीयम संग्रहण का अधिकार देना शुरु किया है । किन्‍तु इसके लिए 'पात्रता की शर्तें' तनिक कठोर हैं इसलिए ऐसे एजेण्‍टों की संख्‍या नगण्‍य ही है । इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है 'निगम' के इन्‍दौर मण्‍डल (जिसका क्षेत्राधिकार 9 राजस्‍व जिलों में स्थित 32 शाखाएं हैं) ने कुल एक एजेण्‍ट को और समूचे मध्‍य क्षेत्र (जिसमें समूचा मध्‍य प्रदेश और समूचा छत्‍तीसगढ शामिल है) में 6 या एजेण्‍टों को ही यह अधिकार दिया है । ऐसे एजेण्‍टों पास (घर पर अथवा अन्‍यत्र)अपना स्‍वतन्‍त्र और पृथक कार्यालय , इण्‍टरनेट सुविधा और प्रिन्टर होना अनिवार्य है । ऐसे अधिकृत एजेण्‍ट को आप निश्चिन्‍त होकर अपनी प्रीमीयम की रकम दे सकते हैं । ऐसे एजेण्‍ट आपको हाथों हाथ रसीद देंगे जो 'निगम' की वैध और अधिकृत रसीद मानी जाएगी ।

श्रीयुत द्विवेदीजी ने ‘मेरी कविताएं’ (http://alpana-verma.blogspot.com/) की ब्लाग स्वामिनी सुश्री अल्पना वर्मा (email-alpz2007 atyahoo dotcom) की एक जिज्ञासा मुझे फारवर्ड की है । वे पूछती हैं - ‘हम जैसे और भी लोगों के लिए आप क्या सलाह देंगे जो भारत के बाहर हैं । हमें तो एजेण्ट के भरोसे ही रहना पड़ता है और किश्‍तें (डीडी) उसी के माध्यम से जमा करानी पड़ती हैं । अभी तक तो सारी रसीदें हैं ।’

यद्यपि अल्पनाजी ने यह नहीं बताया है कि ऐसा वे कितने समय से कर रही हैं तदपि उनके प्रश्‍न से प्रथम दृष्‍टया दो बातें साफ-साफ अनुभव होती हैं । पहली - वे कम से कम दो वर्षों या उससे अधिक अवधि से, अपने एजेण्ट के माध्यम से प्रीमीयम जमा करा रही हैं । और दूसरी - उनके एजेण्ट ने उन्हें कोई शिकायत का मौका अब तक तो नहीं दिया है और ईमानदारी तथा निष्‍ठापूर्वक उनकी प्रीमीयम जमा करवा कर, रसीदें उन्हें भेज रहा है । मुझे पूरा विश्‍वास है कि यदि उन्होंने ‘तीसरा खम्बा’ की उपरोक्त पोस्ट नहीं पढ़ी होती तो उनके मन में यह सवाल उठता ही नहीं ।

मुझे लगता है कि, इस पोस्ट के, अल्पनाजी की जिज्ञासा प्रस्तुत करने से पहले वाले अंश में उन्हें उनकी जिज्ञासा का समाधान मिल गया होगा । वैसे भी कहावत है कि ताले साहूकारों के लिए लगाए जाते हैं और नियम-कायदे भले-ईमानदार लोगों के लिए बनाए जाते हैं । अल्पनाजी का एजेण्ट निश्‍चय ही ऐसा पूर्णकालिक एजेण्ट होगा जिसका एकमात्र व्यवसाय (और जीविकोपार्जन का एकमात्र जरिया) यह बीमा एजेन्सी ही होगी ।

परवर्ती प्रीमीयम लेते समय चूंकि प्रत्येक एजेण्ट यह बात भली प्रकार जानता है कि इस व्यवहार में तनिक भी अनुचित करने पर न केवल उसकी एजेन्सी निरस्त कर दी जाएगी अपितु उसकी, अब तक बेची गई पालिसियों से मिलने वाला कमीशन भी जब्त कर लिया जाएगा (याने उसकी रोटी छीन ली जाएगी) इसलिए वह पूरी चिन्ता और अतिरिक्त सावधानी से यह सेवा देता है ।

अपवाद सब जगह होते हैं लेकिन हम सब जानते हैं कि अपवाद अन्ततः सामान्य नियमों की ही पुष्‍िट करते हैं ।

बीमा सन्दर्भों में यदि किसी की कोई जिज्ञासा हो तो सूचित कीजिएगा । मुझे प्रसन्नता होगी यदि मैं तनिक भी सहायक और उपयोगी साबित हो सका ।

(जैसा कि मैं बार-बार कहता आ रहा हूं, मुझे तकनीक की जानकारी नहीं हैं । नहीं जानता कि पर्मालिंक केसे दी जाती है । इस हेतु मैं ने अपने गुरु श्रीयुत रवि रतलामीजी से फोन पर और श्रीयुत द्विवेदीजी तथा श्रीयुत अफलातूनजी से ई-मेल से दिशा निर्देश लिए हैं । पता नहीं, मैं पर्मालिंक उपलब्ध करा पाऊं या नहीं, सो पोस्ट में ही सम्बन्धित ‘पते’ लिख दिए हैं ।)


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे भेजें । मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

डीटीएच लगवा ही लीजिए


'एक अपराध बोध से मुक्ति' शीर्षक वाली मेरी पोस्ट (10 अक्टूबर 2008) पर कुछ कृपालुओं ने मेरा उत्साहवर्ध्‍दन करते हुए, डीटीएच को लेकर मेरे अनुभव प्रस्तुत करने का आग्रह किया था ।


मेरे अनुभव बहुत ही सुखद और सन्तोषदायक हैं ।

चित्र और ध्वनि की गुणवत्ता ‘उत्कृष्‍ट’ है और अब ही मैं अनुभव कर पा रहा हूँ कि पहले मुझे कितनी निकृष्‍ट गुणवत्ता का प्रसार प्राप्त हो रहा था ।

विद्युत प्रदाय सन्दर्भ में मेरा आवास ईश्वर कृपा से ‘इमरजेन्सी झोन’ में है, सो मेरे मोहल्ले में बिजली कटौती ‘अत्यधिक गम्भीर स्थिति’ में ही होती है । किन्तु मेरे केबल आपरेटर का आवास ‘इमरजेन्सी झोन’ में नहीं है । उसके यहाँ घण्टों बिजली बन्द रहना सामान्य बात है । ऐसी स्थिति में होता यह था कि मेरे यहाँ तो बिजली चालू लेकिन केबल संचालक के यहाँ अन्धेरा । ऐसे समय में प्रतिदिन मैं अपने टी वी का नीला पर्दा देख-देख कर दुखी होता रहता था । अब मुझे उस दुख से मुक्ति मिल गई है ।

डीटीएच में मुझे स्थानीय चैनलें नहीं मिल रहीं । मुझे दुखी होना चाहिए था । लेकिन मैं तनिक भी दुखी नहीं हूं । इसके विपरीत मैं बहुत सुखी हूँ । ‘लाभ-हानि’ की भाषा में, ‘घाटे में कमी भी मुनाफा’ मानी जाती है । केबल न मिलने के मामले में भी मैं इसी स्थिति में हूँ । निस्सन्देह मुझे स्थानीय समाचार देखने/सुनने को नहीं मिल रहे किन्तु स्थानीय चैनलों के समाचार सम्पादक और समाचार वाचिकाएँ, अपना ‘भाषा कौशल’ दिखाने ने जो अशुध्द और गलत भाषा प्रयुक्त करते थे वह सब देख/सुन कर मेरा रक्त उबालता रहता था । उन पर आने वाले आक्रोश से अधिक आक्रोश इस बात पर आता था कि मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ । अब उस ‘रक्त-उबाल और आत्म-ग्लानि भाव’ से मुक्ति मिल गई है और पूर्ण सामान्य तथा पूर्ण नियन्त्रण में है । स्थानीय समाचार न मिलने के दुख के मुकाबले अशुध्‍द और गलत हिन्दी से बचने का सुख कहीं अधिक है ।

केबल वाले को प्रति माह भुगतान करने के बाद भी पावती न मिलने और कर-चोरी में भागीदार होने के अपराध बोध से मुक्ति तो मुझे आठ अक्टूबर से ही मिल चुकी थी । उससे उपजा सुख प्रति माह घना होता जा रहा है ।

एक बड़ी असुविधा अवश्‍य मुझे हो रही है । ‘सहारा-समय’ और ‘ई-टीवी’ के मध्य प्रदेश के चैनल मुझे नहीं मिल पा रहे हैं । चुनावी समय में यह कमी तनिक अधिक खल रही है । इसके लिए मैं सम्बन्धित कम्पनी से निरन्तर सम्पर्क कर रहा हूँ । जानता हूँ कि यह उलझा हुआ, तकनीकी मामला है । लेकिन ‘एक ही बात बार-बार कहने से कभी न कभी तो सुनवाई होगी ही’ वाली आशा मुझे बराबर थामे हुए है । बिना थके, बिना ऊबे, निरन्तर प्रयास करने में, बीमा ऐजण्ट की मेरी मानसिकता और आदत बहुत बड़ी सहायक हो रही है - मेरा नियन्त्रण केवल प्रयत्नों पर है, परिणाम पर नहीं ।

यदि कोई मेरा मन्तव्य जानना चाहे तो मैं पहली ही बार में कहूँगा - फौरन ही डीटीएच लगवा लीजिए । मेरी उक्त पोस्ट, स्थानीय साप्ताहिक उपग्रह में भी छपी थी । उससे प्रेरित होकर अब तक कम से कम नौ लोगों ने फोन पर मुझे बताया है उन्होंने केबल से मुक्ति पा ली है । कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्होंने डीटीएच लगवा लिया होगा लेकिन जिनकी खबर मुझे नहीं है ।

डीटीएच में सुख अधिक है, दुख कम । मैं इसकी अनुशंसा करता हूँ ।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें ! मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

मेरा बच्चा: बकरी का बच्चा







'बा' और 'बा' का हरीश


यह घटना अत्यधिक मार्मिक है, कोई 45 वर्ष पूर्व की ।

जोशीजी की अवस्था उस समय कोई एक-सवा माह की थी । वे अस्वस्थ हो गए । 45 वर्ष पूर्व, भारत के गाँवों में स्वास्थ और चिकित्सा सुविधाओं की कल्पना सहजता से की जा सकती है । तब सड़कें भी अपवादस्वरूप ही होती थीं । यातायात के साधन नाम मात्र के ही उपलब्ध थे । उस पर घर की गरीबी ! अर्थात्, कुछ भी अनुकूल नहीं । ऐसे में, गिनती के घरों वाले एक छोटे से गाँव में स्थानीय स्तर पर जो चिकित्सा की जा सकती थी या कराई जा सकती थी, वह सब कुछ किया, कराया गया । लेकिन बालक हरीश स्वस्थ होने की अपेक्षा दिन-प्रति-दिन अधिक अस्वस्थ होने लगा । स्थानीय स्तर पर बात नहीं बनी तो आसपास के गाँवों के वैद्यों की सहायता ली गई । उनके नुस्खे भी कारगर नहीं हुए । तब, झाड़-फूँक करने वाले ओझाओं, भोपाओं की सहायता ली गई । लेकिन बात नहीं बनी । बालक हरीश की दशा पल-पल बिगड़ रही थी और माँ धूली बाई, अपने दम पर जो कुछ भी कर सकती थी, वह सब करने के लिए हाथ-पैर मार रही थी ।

दसों दिशाओं से मिल रही प्राणलेवा निराशा के बीच गाँव के कुछ समझदार लोग, धूली बाई के बच्चे को बचाने के लिए एक तान्त्रिक को ले आए । तान्त्रिक ने बच्चे को देखा और कुछ तन्त्र क्रियाएँ कर, बकरी के एक बच्चे की बलि देने की बात कही और भरोसा दिलाया कि यदि ‘यह काम’ कर दिया जाएगा तो बच्चा निश्चित रूप से बच जाएगा ।

उपाय भले ही अचूक बताया गया था लेकिन कोई ब्राह्मण परिवार कैसे स्वीकार कर ले ? तब रास्ता सुझाया गया कि आपको (धूली बाई को) कुछ नहीं करना होगा । तान्त्रिक, दूर-दराज जंगल के एकान्त में आपकी ओर से सारा कर्म-काण्ड कर, बकरी के बच्चे की बलि चढ़ा देगा । ‘बीच का रास्ता’ सुझाने के बाद भी धूली बाई चुप बनी रही । तान्त्रिक को लगा कि बात खर्चे पर आकर रुक रही है । उसने कहा कि खर्चे की चिन्ता नहीं करें, वह अपना पारिश्रमिक नहीं लेगा और सेवा-भाव से यह काम कर देगा । धूली बाई ने चैबीस घण्टे का समय माँगा ।

अगले दिन तान्त्रिक और उसे लाने वाले हितैषी समय पर धूली बाई के घर पहुँचे । सब मान कर ही आए थे कि, अपने बच्‍चे को बचाने के लिए 'मां' धूली बाई मान जाएंगी और भुगतान कर देगी । लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत ।

धूली बाई ने कहा कि पूरी रात वे सो नहीं पाईं । एक के बाद विचार आते रहे । लेकिन अन्तिम विचार से उनके मन पर छाई धुन्ध हट गई । धूली बाई ने कहा -‘मेरे बच्चे को बचाना तो मेरे हाथ में नहीं है पर बकरी के बच्चे को बचाना तो मेरे ही हाथ में है । अपने बच्चे को बचाने के लिए मैं बकरी के बच्चे की बलि चढ़ा दूँ, यह बात मेरे गले नहीं उतरी । बच्चा मेरा हो या बकरी का, आखिर है तो बच्चा ही । मुझसे यह नहीं होगा । मेरे भाग्य में होगा तो मेरा हरीश बच जाएगा और यदि ईश्‍वर ने इसका आयुष समाप्त कर दिया है तो ईश्वर की इच्छा ।’

धूली बाई की बात सबके लिए अनपेक्षित तो थी ही, हतप्रभ कर देने वाली भी थी । सबने समझाने की कोशिश की । मनुष्य के और बकरी के बच्चे का अन्तर समझाया, बार-बार समझाया । लेकिन धूली बाई वह बात समझ चुकी थी जो, उन्हें समझाने वालों में से किसी की समझ में नहीं आ सकती थी । धूली बाई ने कहा -‘आप माँ के हिरदे को क्या जानो । आपने बेटा जना होता तो ऐसी बात नहीं करते । अपने घर जाकर अपनी घरवाली को मेरी बात सुनाना और फिर वह क्या कहती है, आकर मुझे बताना । आप तो बाप हो ! माँ होने का मतलब क्या जानो ? कोई माँ ही मेरी बात का मरम (मर्म) समझेगी ।’

धूली बाई को समझाने में प्राणपण से जुटे तमाम हितैषियों की जबानें तालू से चिपक चुकी थीं । गहरी, निश्‍‍वास लेकर, धूली बाई अपनी जगह से उठीं, अनन्त आकाश में निहारते हुए निराकार को प्रणाम किया और सब लोगों को सविनय, सादर बिदा किया ।

जोशीजी कहते हैं - ‘‘मैं न तो किसी दवा से बचा न ही किसी झाड़-फूँक से और न ही 'बा' की प्रार्थना से । ‘बा’ आज तक कहती हैं - ‘हरीश ! तू उस मूक बकरी की नि:शब्द दुआओं से बचा जिसका बच्चा बलि होने से बच गया ।’’

जोशीजी से आगे बोला नहीं जा रहा था । और मैं ? मैं तो लगभग अचेत, तन्द्रिल हो, निश्‍चल, निश्‍चेष्‍‍ट बना बैठा था । मूर्तिवत् । हम दोनों ही शायद 'उस' बकरी की दुआएं सुनने की कोशिश कर रहे थे जिसके बारे में हम दोनों ही, कुछ भी नहीं जानते थे, जो वहां नहीं थी लेकिन जिसके होने को पूरे सम्‍‍वेग से अनुभव कर रहे थे ।

'बा' का दिया, जीव दया का यह संस्‍कार, जोशीजी के साथ सहोदर की तरह जी रहा है ।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

कुत्ते से विश्‍वासघात


इस घटना के समय भी जोशीजी की अवस्था लगभग ग्यारह वर्ष थी ।


एक कुत्ते ने यूँ तो पूरे गाँव को परेशान कर रखा था किन्तु मानो ‘जोशी परिवार’ वह अतिरिक्त 'कृपालु' था । वह कुत्ता दिन भर तो सामान्य रहता किन्तु रात होते ही असामान्य हो जाता । मानो पागल हो गया हो । किन्तु यह पागलपन तनिक विचित्र होता । वह न तो गाँव में दौड़ता न ही किसी को काटता । रात को वह जोशीजी के मकान की छत पर चढ़ जाता और जोर-जोर से भौंकता रहता । उसे चुप कराने का किसी का कोई प्रयास सफल नहीं होता । वह अपनी मर्जी से ही चुप होता । लेकिन तब तक प्रायः ही इतनी देर हो चुकी होती कि लोगों के उठने का समय हो जाता । सूर्योदय होते ही कुत्ता फिर सामान्य हो जाता । चूँकि वह किसी को कोई शारीरिक हानि नहीं पहुँचाता सो, रात में उसके प्राणों के प्यासे बन जाने वाले, गाँव के तमाम लोगों को, दिन के उजाले में उस पर दया आ जाती ।


यह क्रम निरन्तर बना हुआ था । परेशान तो सब थे लेकिन जोशी परिवार अतिरिक्त रूप से परेशान था । दूर के मकानों के निवासी तो फिर भी, जैसे-तैसे नींद ले लेते थे किन्तु जोशी परिवार कैसे सोए ? कुत्ता माने सर पर सवार होकर भौंक रहा हो ।


बालक हरीश ने इस कुत्ते को सबक सिखाने की सोची । एक सवेरे हरीश ने एक हाथ में रोटी ली और दूसरे में मझली मोटाई की मजबूत लकड़ी । रोटी वाला हाथ सामने रखा और लकड़ी वाला हाथ पीठ पीछे - लकड़ी छुपा कर । रोटी वाला हाथ कुत्ते की ओर बढ़ा कर, रोटी हिलाते हुए हरीश ने ‘तू ! तू !!’ कह कर कुत्ते को पुकारना शुरु किया ।


ऐन सवेरे का समय । कुत्ते के पेट में कुछ भी नहीं पड़ा था । रोटी देखकर कर वह तत्काल ही, पूंछ हिलाता-हिलाता हरीश के पास आ गया । हरीश ने रोटी तो नहीं दी, अपने शरीर के पूरे बल से लकड़ी, कुत्ते की पीठ पर दे मारी । कुत्ता ‘क्याँऊँ ! क्याँऊँ !!’ करता, चिल्लाता हुआ, जान बचा कर भागा ।


अपनी योजना के सफल क्रियान्वयन से प्रसन्न-मुदित हरीश ने पीठ सीधी भी नहीं की थी कि उसकी पीठ पर एक पतली लकड़ी का जोरदार प्रहार सटाक् से हुआ । हरीश को सवेरे-सवेरे ही तारे नजर आने लगे । यह तो उसकी योजना का अंग नहीं था ! कुत्ता तो ऐसा कर ही नहीं सकता ! कैसे हुआ यह ? किसने किया ? पीठ की हालत ऐसी मानो किसी ने पीठ को ‘सिल’ बनाकर हरी मिर्ची की चटनी बनाने की कोशिश की हो । जलती हुई पीठ पर हाथ भी बराबर नहीं पहुँच रहे थे । पीठ सहलाने की असफल कोशिश करते-करते हरीश ने मुड़ कर देखा तो, हाथ में बाँस की पतली लकड़ी (किमची) लिए 'बा', गुस्से में लाल-भभूका हुई खड़ी थीं । हरीश को कुछ समझ नहीं आया । उसने तो न केवल अपने परिवार को अपितु पूरे गाँव को कष्‍ट से मुक्त कराने का प्रयत्न किया था । उसे तो पुरुस्कार मिलना चाहिए था । पुरुस्कार न मिले तो भी कोई बात नहीं । लेकिन दण्ड क्यों ? दण्ड भी ऐसा कि अब आधे दिन तक चैन नहीं पड़ेगा । हरीश का दृष्‍िट-प्रश्‍न ‘बा’ ने आसानी से पढ़ लिया । अपनी पूरी शक्ति मानो बोलने में लगा दी ‘बा’ ने । कहा - ‘ऐसा विश्‍वासघात आगे से किसी के साथ मत करना । हिम्मत और ताकत है तो कुत्ते को भाग कर पकड़, फिर मार । उसे लालच देकर बुलाया और लकड़ी मार दी ? ऐसा तो जानवर भी नहीं करते । फिर तू तो मनुष्‍य है और वह भी मर्द । किसी से बदला लेना हो तो उसे मैदान में ललकार कर बुला और अपनी ताकत दिखा । यह क्या कि भरोसा दे कर मार दिया ?’


पीठ का दर्द तो हवा हो गया और 'बा' की नसीहत ने मानो लपट बन कर घेर लिया । तन तो पहले ही जल रहा था, अब मन भी दहकने लगा । हरीश की रुलाई छूट गई । तब, दिलासा भी 'बा' ने ही दिया - अपनी गोद में छुपा कर, पुचकार कर ।


वह दिन और आज का दिन । नौकरी में जोशीजी अधीनस्थ रहे या नियन्त्रक की स्थिति में, कभी किसी की पीठ पीछे वार नहीं किया । जब भी मतभेद या विवाद की स्थिति बनी तो हर बार जोशीजी खुल कर खेले । जोशीजी कहते हैं - ‘ऐसे प्रत्येक प्रसंग में, बा की नसीहत पर अमल करने से शुरु-शुरु में तकलीफ होती रही । लेकिन अब तो आदत ही बन गई । सब मुझे जानने भी लगे और समझने भी लगे । अब कोई असुविधा नहीं होती । सब कुछ सहज-सामान्य होता है ।’


आपका आधा कर्ज तो मैं ने उतार दिया । जतन करूँगा कि बाकी आधा कर्ज भी जल्दी ही उतर जाए ।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें ! मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

चिड़िया क्या कहेगी ?


नैतिकता और संस्कारों के बीच स्थायी अन्तर्सम्बन्ध रहता है । नैतिकता का आचरण में रुपान्तरण ही संस्कार होता है । नैतिकता की शिक्षा स्कूली किताबों में दी जा सकती है लेकिन संस्कार-शिक्षा के लिए आचरणगत उदाहरण प्रस्तुत करने पड़ते हैं । वैसे भी ‘ए मेन इज नोन बाय हिज डीड्स, नाट बाय हिज वर्ड्स ।’


संस्कार देने के ऐसे आचरणगत तीन संस्मरणों से ‘अभिमन्त्रित’ एक नायक ने स्वयम् ये आख्यान मुझे सुनाए जिन्हें आप तक पहुँचाने से मैं स्वयम् को रोक नहीं पा रहा हूँ ।


श्री हरीशचन्द्र जोशी (वे अपना नाम इसी प्रकार लिखते हैं), भारतीय जीवन बीमा निगम की उस शाखा के प्रबन्धक हैं जिससे मैं सम्बध्द हूँ । जोशीजी की उम्र इस समय 45 वर्ष है । वे मूलतः, राजस्थान के ग्राम पिण्डावल के निवासी हैं । बाँसवाड़ा से उदयपुर जाते हुए, कोई 50 किलोमीटर बाद यह गाँव आता है ।


जोशीजी का परिवार ‘निर्धन’ की श्रेणी में ही आता था । उनकी माताजी धूली बाई, अपने माता पिता की इकलौती सन्तान हैं । जोशीजी का पूरा परिवार उन्हें ‘बा’ सम्बोधित करता है । ‘बा’ की आयु इस समय लगभग 75 वर्ष है ।


उस समय जोशीजी की अवस्था लगभग 11 वर्ष रही होगी । परिवार के पास बहुत थोड़ी खेती थी - नाम मात्र की । फसल इतनी भी नहीं होती थी कि परिवार का काम पूरे वर्ष चल जाए । इसके बावजूद, फसल कटाई के समय गाँव के पुजारी, वर्ण व्यवस्था के अनुपालन में गाँव की सेवा करने वाले नाई, चर्मकार, मेहतर आदि को, फसल का एक-एक चाँस दिया जाता था । वह चाँस, सम्बन्धित व्यक्ति खेत से काट कर अपने घर ले जाता । जोशीजी को यह नहीं सुहाता था । ‘जब अपने लिए ही पर्याप्त नहीं है तो दूसरों को क्यों दिया जा रहा है ?’ जैसा सवाल उन्हें लगातार कुरेदता रहता था ।


उस वर्ष जोशीजी के खेत में गेहूँ की फसल खड़ी थी । निर्धारित लोगों के लिए समुचित चाँस छोड़कर, फसल की कटाई हो रही थी । ‘बा’ आगे-आगे, गेहूँ के, सुनहरी बालियों वाले पौधों को काटती जा रही थी और 11 वर्षीय हरीश, ‘बा’ के पीछे-पीछे चल रहा था । हरीश ने देखा कि कटाई के दौरान कुछ टूटी हुई बालियाँ खेत में गिरी पड़ी हैं । अभाव व्यक्ति को अल्पायु में ही सयाना बना देता है । सो, हरीश ने उन टूटी बालियों को एकत्रित करना शुरु कर दिया । थोड़ी ही देर में हरीश के पास इतनी बालियाँ जमा हो गई कि वह मारे प्रसन्नता के ‘बा‘ को अपनी उपलब्धि बताने से नहीं रह सका । ‘बा‘ ने अपने हरीश के चेहरे पर, परिवार के लिए कुछ सार्थक कर लेने की प्रसन्नता, और गर्व की स्वर्णिम आभा देखी और पीठ थपथपाई । लेकिन अगले ही क्षण ‘बा’ ने कहा - ‘ये बालियाँ खेत में ही रहने दो ।’ ‘बा‘ की बात हरीश की समझ में नहीं आई । उसका परिश्रम, उससे उपजी प्रसन्नता और घर के लिए कुछ कर लेने का सन्तोष उससे छीना जा रहा था । हरीश ने पूछा - ‘क्यों फेंक दूँ ?’


उत्तर में ‘बा’ ने जो कुछ कहा, उसे तब का हरीश, आज एलआईसी का ब्रांच मैनेजर बनकर भी नहीं भूल पाया । ‘बा‘ ने कहा - ‘सवेरे जब मैं घर से खेत के लिए निकलती हूँ तो तुमसे कह कर आती हूँ कि शाम को तुम्हारे लिए खेत से यह लाऊँगी, वह लाऊँगी । लेकिन किसी दिन मैं वह सब नहीं ला पाती हूँ तो तुम्हें अच्छा नहीं लगता । तुम्हें निराशा होती है । लगता है, तुम्हारी माँ तुमसे झूठ बोल गई ।


‘इसी प्रकार चिड़िया जब सवेरे अपने घोंसले से निकलती है तो अपने बच्चों से कह कर निकलती है कि शाम को वह उनके लिए दाना लेकर आएगी । अब चिड़िया तो खेती करती नहीं ! वह दाना कहाँ से लाए ? सो, ये जो टूटी हुई बालियाँ हैं, ये उसी चिड़िया के लिए है । तुमने यदि ये बालियाँ समेट लीं तो चिड़िया को खाली हाथ जाना पड़ेगा । तब वह अपने बच्चों को क्या जवाब देगी ? कैसे उनका पेट भरेगी ? इसलिए, इन बालियों को समेटो मत, खेत में ही रहने दो ।’


यह सब कहते-कहते, दो बच्चों के पिता, जोशीजी का गला रुँध गया । बोले - ‘‘लेकिन ‘बा’ इतना कह कर ही नहीं रुकीं । बोलीं - ‘पुरुषार्थी की कमाई में सत्रह प्राणियों का हिस्सा होता है । वह केवल अपने लिए परिश्रम नहीं करता । इन सत्रह प्राणियों में तुम्हारी चिड़िया, गाँव के पुजारीजी, नाई, धोबी, कुम्हार जैसे तमाम लोग हैं जो वर्ष भर हमारे काम आते हैं । वे वर्ष भर हमारा ध्यान रखते हैं तो वर्ष में एक बार हमने भी उनका ध्यान रखना चाहिए ।’


वह दिन और आज का दिन । ‘चिड़िया’ जोशी के अन्तर्मन में जस की तस फुदक रही है । वे अपने परिवार के लिए जब भी कुछ सरंजाम जुटाते हैं तो परिवार की सेवा करने वालों के लिए भी ‘कुछ न कुछ’ लेकर लौटते हैं ।


सहअस्तित्व, सहभागिता और एक दूसरे की चिन्ता करने का जो संस्कार ‘बा’ ने अपने आचरण से दिया, वह मानो जोशीजी के रोम-रोम में बिंध गया है । वे चाहें तो भी उससे मुक्त नहीं हो सकते ।


‘बा‘ के ‘संस्कारदान’ के शेष दो संस्मरण आपके कर्ज की तरह मेरे माथे बाकी रहे ।

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समाचार न छपने का समाचार



आज बात निष्‍‍पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता’ की हकीकत उघाड़ने वाली है । इसीलिए तनिक लम्बी-चौड़ी और बड़ी है । आप इसे 'कच्ची उमर के पत्रकारों की व्यथा-कथा’ भी कह सकते हैं । थोड़े में कहने से अनर्थ होने की आशंका अनुभव हुई । इसीलिए लम्बी-चौड़ी और बड़ी बात ।


यहाँ दिया गया चित्र विश्‍‍वास सारंग का है । विश्‍वास और मैं, एक-दूसरे को नहीं जानते । जानेंगे भी नहीं । जानने का कोई कारण भी नहीं है । विश्वास की ओर मेरा ध्यान नहीं जाता किन्तु अखबारों में छपे उनकी सम्पत्ति के ब्यौरे ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । इसका कारण उनकी सम्पत्ति नहीं अपितु भोपाल में कार्यरत उन दो पत्रकारों की बातें हैं जो कोई एक सप्ताह पहले मुझे उज्जैन में, महाकाल मन्दिर परिसर में मिले थे और दुखी थे । दोनों के दुख का कारण एक ही घटना थी और यह संयोग ही था कि इस घटना का केन्द्रीय पात्र विश्‍‍वास सारंग थे ।


लेकिन उन दोनों को विश्‍वास सारंग से कोई शिकायत नहीं थी ।


दोनों पत्रकारों की व्यथा-कथा का मर्म समझने के लिए पहले, उन दोनों पत्रकारों द्वारा बताई गई कुछ ऐसी बातें जाननी पड़ेंगी जो विश्वास सारंग से जुड़ी हैं ।


विश्‍‍वास सारंग इन दिनों म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष हैं । चूँकि, मौजूदा विधान सभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें नरेला (भोपाल) से अपना उम्मीदवार बनाया है इसलिए सम्भव है कि कानूनी अनिवार्यताओं के चलते उन्होंने इस पद से त्याग पत्र दे दिया हो । लेकिन विधान सभा चुनाव में प्रत्याशी हेतु अपना नामांकन पत्र प्रस्तुत करने से पहले तक तो वे इस पद पर थे ही ।


इस पद के लिए वही व्यक्ति पात्र हो सकता है जो किसी ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति’ का नियमित सदस्य हो । ऐसी समिति का सदस्य बनने के लिए दो अनिवार्यताएँ होती हैं । पहली - वह व्यक्ति उस सहकारी समिति के भौगोलिक क्षेत्राधिकार का स्थायी और नियमित निवासी हो । दूसरी - उस व्यक्ति के जीविकोपार्जन का आधार लघु वनोपज संग्रहण हो । जो भी व्यक्ति ये दोनों शर्तें पूरी नहीं करता हो या फिर जानबूझकर, झूठ बोलकर समिति को धोखा दे रहा हो तो वह ऐसी समिति की सदस्यता प्राप्त नहीं कर सकता ।


23 अक्टूबर 2008 को, ‘दलित पेंथर’ नामक संगठन के प्रदेशाध्यक्ष आर. के. महाले ने भोपाल में एक पत्रकार वार्ता आयोजित कर, विश्वास सारंग से जुड़ी ऐसी जानकारियाँ सार्वजनिक कीं जिनके आधार पर विश्‍‍वास सारंग न केवल म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष पद से तत्काल हटा दिए जाने चाहिए थे अपितु उन पर जानबूझकर झूठ बोलने और धोखा देने के लिए आपराधिक प्रकरण दर्ज कर मुकदमा भी चलाया जाना चाहिए था ।


महाले के अनुसार, विश्‍‍वास सारंग यद्यपि ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुरियाखेड़ी’ के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले ग्राम व फड़ साँकल के निवासी के रूप में सदस्य बनाए गए हैं लेकिन यह केवल कागजी सत्य है, वास्तविकता नहीं । महाले के अनुसार वास्तविकता यह है कि विश्‍‍वास सारंग भोपाल में अपने पिता कैलाश सारंग और पत्नी रुमा सारंग सहित, सुल्तानिया रोड़ स्थित सरकारी भवन शीश महल के नियमित और स्थायी निवासी और भोपाल नगरीय क्षेत्र के मतदाता हैं और जीविकोपार्जन हेतु वनोपज संग्रहण का कार्य नहीं करते हैं अपितु राजधानी के सम्पन्न नागरिक, व्यवसायी एवम् वरिष्ठ राजनेता हैं जिनके एकाधिक कार्यालयों, निवास स्थानों एवम वाहनों में वातानुकूलित यन्त्र लगे हैं, जो मँहगी कारों में यात्रा करते हैं और जिनके एक टेलीफोन बिल की मासिक रकम, किसी भी वनोपज संग्राहक की सकल वार्षिक आय से अधिक होती है ।


महाले ने अपने प्रेस वक्तव्य के साथ, ‘प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति, मुड़ियाखेड़ा’ की सदस्यता पंजी के वर्ष 2007 तथा 2008 की सदस्यता पंजी के उन पृष्ठों की फोटो प्रतियाँ भी दीं जिनमें विश्‍वास सारंग को क्रमश: 762 तथा 101 क्रमांक पर समिति का सदस्य बताया गया है और जिसने वर्ष 2007 में तेंदू पत्ता की 600 तथा वर्ष 2008 में 1205 गड्डियाँ संग्रहित की हैं । सरकार एक गड्डी के लिए 40 रुपयों का भुगतान करती है । याने विश्वास सारंग के समूचे परिवार (जिसमें विश्‍‍वास की पत्नी रुमा सारंग तथा पिता कैलाश सारंग शामिल हैं) ने वर्ष 2007 में 24,000 तथा वर्ष 2008 में 48,200 रुपये अर्जित किए । महाले ने तेंदू पत्ता संग्रहण के इन आँकड़ों को झूठा बताते हुए कहा कि वर्ष 2008 में तेंदू पत्ता संग्रहण का काम 5 मई से 30 मई तक हुआ । इस अवधि में सारंग परिवार द्वारा तेंदू पत्ता संग्रहण तो कोसों दूर की बात थी, सारंग परिवार का कोई सदस्य एक दिन के लिए भी जंगल में नहीं गया । उक्त अवधि में सारंग परिवार के सदस्य भोपाल नगर निगम सीमा में सार्वजनिक प्याउओं के उद्घाटनों, कायस्थ समाज के सम्मान समारोहों, विभिन्न महत्वाकांक्षी राजनीतिक यात्राओं की तैयारियों, कर्नाटक में अपनी पार्टी की जीत के उत्सव के कार्यक्रमों, विभिन्न पत्रकारवार्ताओं में व्यस्त रहे जिनके विस्तृत सचित्र समाचार, भोपाल के अखबारों में प्रकाशित हुए ।


महाले का तर्क था कि वनों में रहने वाले निर्धन आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों को बिचैलियों के शोषण से बचाने के लिए ही प्राथमिक वनोपज सहकारी संस्थाएँ बनाई गई हैं जो लघु वनोपज संग्राहकों की वनोपज के संग्रहण, भण्डारण, क्रय-विक्रय आदि में, सहकारी आन्दोलन के माध्यम से लाभितों को समय पर उचित पारिश्रमिक दिलाए ।


लेकिन, महाले के अनुसार, प्रदेश शासन के वन विभाग और सहकारी विभाग ने मिली भगत कर विश्वास सारंग को अनुचित रूप से एक प्राथमिक सहकारी समिति का सदस्य बनाया जिसके आधार पर ही वे म. प्र. लघु वनोपज सहकारी संघ के अध्यक्ष बन सके और उस पद के तमाम लाभ उठाने के अवसर प्राप्त कर सके ।


महाले के अनुसार यह केवल इसलिए सम्भव हुआ क्यों कि विश्वास सारंग और उनके पिता कैलाश सारंग, प्रदेश में सत्तारूढ़ दल में प्रभावी स्थिति में हैं । विश्‍‍वास प्रदेश भाजयुमो के अध्यक्ष हैं, भोपाल नगर निगम के पार्षद भी रह चुके हैं जबकि उनके पिता कैलाश सारंग वर्तमान में प्रदेश भाजपा की अनुशासन समिति के अध्यक्ष हैं तथा प्रदेश भाजपा के पूर्व कोषाध्यक्ष रह चुके हैं । वे एक बार विधान सभा चुनाव भी लड़ चुके हैं ।
मुझे मिले दोनों पत्रकार मानो अवसादग्रस्त थे । उन्हें विश्‍‍वास सारंग से कोई लेना-देना नहीं था । महाले की पत्रकार वार्ता उनके लिए एक सामान्य दैनन्दिन घटना थी लेकिन कैलाश सारंग और विश्‍‍वास सारंग की राजनीतिक हैसियत के कारण महाले की बातें स्वतः ही महत्वूर्ण बन गई थीं । इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इन दोनों पत्रकारों ने अपने-अपने हिसाब से समाचार बनाकर अपने-अपने अखबार में दिए थे । दोनों पत्रकारों के अनुसार, पत्रकार वार्ता में आए लगभग समस्त पत्रकारों, चैनल रिपोर्टरों की भी मनःस्थिति यही थी ।


लेकिन चमत्कार हो गया । महाले की पत्रकार वार्ता दिन में हुई थी । लगता था कि स्थानीय समाचार चैनलों पर यह समाचार प्रमुखता से प्रसारित किया जाएगा । लेकिन एक भी चैनल ने यह समाचार नहीं दिया । स्थानीय चैनलों ने मानो, अखबारों के लिए अगले दिन की भूमिका तय कर दी । एक भी अखबार में महाले की पत्रकार वार्ता का समाचार नहीं छपा ।
दोनों पत्रकार इसी स्थिति से हतप्रभ और हताश थे । दोनों को अपने-अपने अखबार की निर्भीकता और निष्‍‍पक्षता पर गुमान था । लेकिन उनका गुमान गुम हो चुका था । उन्हें यह तो पता था कि धन कुबेरों की थैलियाँ अच्छे-अच्छों के मुँह बन्द कर देती हैं । लेकिन वे सबके मुँह एक साथ बन्द कर सकती हैं, यह अनुमान नहीं था । आदर्श पत्रकारिता के जो सपने लेकर वे इस क्षेत्र में आए थे वे सपने अकाल मौत मर चुके थे । अत्‍‍याचार, अन्याय और शोषण के विरुध्‍‍द अखबारों की भूमिका की उजली मूरत भंग ही नहीं हो चुकी थी, चूर-चूर हो चुकी थी । वे विश्‍‍वास नहीं कर पा रहे थे कि ऐसा भी हो सकता है । जरूरी नहीं कि यह सब विश्वास सारंग ने ‘मेनेज’ किया हो लेकिन पिता-पुत्र की सम्बध्दता वाली पार्टी की सरकार से मिलने वाले करोड़ों रुपयों के विज्ञापनों के लालच ने अवश्‍‍य ही इस ‘सामूहिक ब्लेक आउट’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी । वे इसी दशा से हताशा में आ गए थे और मन की शान्ति की तलाश में महाकाल दर्शन हेतु उज्जैन आए थे । उनके (और उन जैसे, महाले की पत्रकार वार्ता में उपस्थित, तमाम पत्रकारों के) साथ हुई इस दुर्घटना को पर्याप्त समय बीत चुका था लेकिन वे तब भी हताशा से उबर नहीं पा रहे थे ।


वे दोनों मेरे बड़े बेटे से दो-चार वर्ष ही बड़े रहे होंगे । उनका दु:ख मुझसे देखा नहीं जा रहा था । लेकिन मैं उनकी कोई सहायता करने की स्थिति में भी तो नहीं था ! अपने जीवन के पत्रकारिता वाले समय में मैं भी एक बार ऐसी ही गम्भीर दुर्घटना का शिकार हो चुका था । तब (वर्ष 1978 में) मैं ने अपने प्रधान सम्पादकजी को फोन लगा कर, दुर्घटना का कारण पूछा था । जो जवाब उन्होंने मुझे दिया था, वही जवाब देकर मैं ने इन दोनों पत्रकारों को ढाढस बँधाने की कोशिश की । कहा - ‘मुमकिन है कि तुम्हारे साथ ऐसा पहली ही बार हुआ हो । लेकिन ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार । याद रखना - तुम नौकरी कर रहे हो, पत्रकारिता नहीं । इस सत्य को याद रखोगे तो दुखी होना बन्द कर दोगे ।’


पता नहीं, मेरे परामर्श ने दोनों पर कितना असर किया । असर किया भी या नहीं । लेकिन दोनों ने बिना कोई प्रतिवाद किए मेरी बात चुपचाप सुन ली । वे वहीं बैठे रहे । लेकिन मुझे तो घर आना था । सो दोनों को वहीं छोड़ कर लौट आया । लेकिन यह मेरा भ्रम ही रहा । वे दोनों तो मेरे साथ ही बने हुए हैं । अब तक ।

(अखबारों ने खबर दी है कि अपने नामांकन पत्र के साथ अपनी सम्पत्ति की जानकारी देते हुए विश्वास सारंग ने जो शपथ-पत्र प्रस्तुत किया उसके अनुसार विश्‍‍वास सारंग का, करोड़ों का कारोबार है । भोपाल, सीहोर व रायसेन जिलों में इनके नाम पर अचल सम्पत्ति के रूप में लाखों की जमीन है । भोपाल की निशातबाग कालोनी में लगभग दो करोड़ साठ लाख की कीमत के आवासीय व व्यावसायिक भवन के अतिरिक्त अरण्यावली गृह निर्माण सहकारी समिति में 32 लाख रुपयों की जमीन, तीन गाँवों में सवा छह लाख की कृषि भूमि, मण्डीदीप स्थित विशाल पैकवेल इण्डस्ट्रीज में भागीदारी, कामदार काम्पलेक्स, दिल्ली के गोयला खुर्द में जमीन एग्रीमण्ट भी इनके नाम हैं ।
नामांकन पत्र के साथ इन्होंने मध्य प्रदेश के मतदाता के प्रमाणस्वरुप स्वयम् को भोपाल नगरीय क्षेत्र की मतदाता सूची में पंजीबध्द घोषित किया - प्राथमिक वनोपज सहकारी समिति मुडियाखेड़ा के भौगोलिक क्षेत्राधिकार वाले किसी गाँव की मतदाता सूची का उल्लेख नहीं किया ।


कितना अच्छा होता कि विश्वास सारंग सचमुच में एक वास्तविक तेन्दू पत्ता संग्राहक के रूप में ही होते और इसी हैसियत में म. प्र. लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष बनते । तब वे ‘भारतीय लोकतन्त्र के ज्वाजल्य, प्रेरक, अनुकरणीय, अनुपम उदाहरण’ होते ।

यहाँ, विश्‍‍वास सारंग संयोगवश मात्र एक सन्दर्भ या उदाहरण हैं । ऐसे विश्वास सारंग प्रत्येक पार्टी में मिल जाएँगे और निर्भीक-निष्‍‍पक्ष पत्रकारिता की दुहाई देने वाले ऐसे अखबार प्रत्येक शहर में । तालाब में पानी जब उतरता है तो पूरी सतह का पानी समान रुप से नीचे जाता है ।)


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍‍य भेजें ! मेरा पता है - विष्‍‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001

देखन में छोटी लगैं


कुछ बातों को लेकर मैं असमंजस में हूँ । स्वयम् को खूब टटोलने-खंगालने के बाद भी इन बातों के उत्तर पाने में असफल ही रहा । आपमें से कोई मेरी सहायता करेंगे, इस आशा से अपनी ये उलझनें सार्वजनिक कर रहा हूँ ।


मेरे नगर में आए दिनों प्रदर्शन होते रहते हैं । विभिन्न संगठन, राजनीतिक दल अपनी विभिन्न माँगों की ओर राज्य या केन्द्र शासन का ध्यानाकर्षित करने के लिए, जुलूस की शकल में, नगर के विभिन्न भागों से होते हुए कलेक्टोरेट पहुँचते हैं - सम्बन्धितों के नाम ज्ञापन लेकर । कलेक्टर कार्यालय के बाहर पहले थोड़ी देर नारेबाजी होती है । थोड़ी देर में कलेक्टर या उसका कोई प्रतिनिधि बाहर आता है । प्रदर्शनकारियों का नेता उसकी उपस्थिति में ज्ञापन का सार्वजनकि वाचन करता है और सबके सामने वह ज्ञापन कलेक्टर या उसके प्रतिनिधि को सौंपता है । ज्ञापन वाचन की समयावधि में कलेक्टर या उसका प्रतिनिधि अपनी सम्पूर्ण उदासीनता, तटस्थता और वीतराग भाव से, ‘मुद्राविहीन मुद्रा‘ में खड़ा रहता है । स्थानीय समाचार चैनलों और अखबारों में यह दृष्‍य आप-हम सब प्रायः ही देखते रहते हैं । और सब तो ठीक है लेकिन कलेक्टर या उसके प्रतिनिधि की उपस्थिति में ज्ञापन वाचन का औचित्य मेरी समझ में आज तक नहीं आया है । कलेक्टर या उसके प्रतिनिधि को उस ज्ञापन पर कोई कार्रवाई नहीं करनी है । ज्ञापन लेकर, जावक शाखा को सौंप देना है जो उस ज्ञापन को, कलेक्टर के औपचारिक पत्र के साथ सम्बन्धित को भेज देता है । ज्ञापन की विषय वस्तु में संगठन के सदस्यों या प्रदर्शनकारियों के अतिरिक्त और किसी की रुचि नहीं होती । (सम्भव है, उनकी भी रुचि न हो ।) मैं आज तक नहीं समझ पाया कि कलेक्टर या उसके प्रतिनिधि को ज्ञापन, पढ़कर क्यों सुनाया जाता है ? कलेक्टर या उसके प्रतिनिधि के आने से पहले, प्रदर्शनकारियों को पढ़कर क्यों नहीं सुना दिया जाता ? इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा बनी हुई है ।


अपने किसी दिवंगत परिजन की स्मृति में या अपने संगठन/संस्था के जीवित अथवा मृत नेता के जन्म/देहावसान दिवस पर लोगों को, प्रायः ही, शासकीय चिकित्सालयों के सामान्य वार्डों में भर्ती रोगियों को फल-बिस्किट आदि बाँटते हुए हम सब आए दिनों देखते रहते हैं । यह उदारता प्रायवेट वार्डों में भर्ती रोगियों के साथ क्यों नहीं बरती जाती ? निजी चिकित्सालयों में भी तो सामान्य वार्ड होते हैं ? लोगों का दुख न देख पाने से व्यथित ऐसे दानदाताओं को निजी चिकित्सालयों के रोगी याद क्यों नहीं आते ?


मैं भारत संचार निगम लिमिटेड का लेण्ड लाइन फोन ग्राहक हूँ । मुझे प्रति माह इसका बिल आता है । बिल के पीछे मेरा जन्म दिनांक और विवाह वर्ष गाँठ लिखने का मुद्रित-आग्रह इस बिल का स्थायी अंग है । मैं नियमित रूप से ये दोनों तारीखें वर्षों से लिखता चला आ रहा हूँ । प्रति वर्ष इन दोनों तारीखों पर अतिरिक्त सजग रहता हूँ (और प्रतीक्षा भी करता हूँ) कि शायद बीएसएनएल की ओर से अभिनन्दन/शुभ-कामना सन्देश आ जाए । लेकिन वर्षों से मेरी यह सजगता और प्रतीक्षा व्यर्थ जा रही है (और जिस प्रकार से यह संस्थान अभी भी ‘रूढ़ीवादी, दुराग्रही सरकारी विभाग’ की तरह काम कर रहा है उसके दृष्टिगत पूरा विश्‍वास है कि ऐसा सन्देश कभी आएगा भी नहीं ।) मैं समझ नहीं पा रहा हूँ मेरे जीवन की इन नितान्त व्यक्तिगत तिथियों में बीएसएनएल की रुचि क्यों बनी हुई है ?


नगर में होने वाले अनेक आयोजनों/कार्यक्रमों के निमन्त्रण मुझे प्रायः ही प्राप्त होते हैं । उनमें से कुछ में उपस्थित हो पाता हूँ, कुछ में नहीं । जहाँ नहीं पहुँच पाता हूँ उनके आयोजकों से मैं ने क्षमा याचना करनी चाहिए और जहाँ पहुँच पाना सम्भव नहीं हो वहाँ, आयोजन की सफलता के प्रति शुभ-कामनाएँ पहुँचानी चाहिए और धन्यवाद ज्ञापन तो दोनों ही स्थितियों में किया ही जाना चाहिए - यह भावना मन में बार-बार उठती है । किन्तु ऐसा कर नहीं पाता क्यों कि निमन्त्रण पत्र में पदाधिकारियों के नाम तो होते हैं लेकिन संस्था का या पदाधिकारियों में से किसी का भी डाक का पता या फोन नम्बर नहीं होता । इतनी महत्वपूर्ण बात जानबूझकर छोड़ दी जाती हो या अनजाने में, लेकिन ऐसा क्यों होता है ? और यह जानने की इच्छा तो और अधिक होती है कि अधिकांश निमन्त्रण पत्रों में यह समानता कैसे और क्यों बनी हुई होती है ?


अभी, दीपावली पर मुझे अनेक कृपालुओं ने, अभिनन्दन और शुभ-कामना सन्देश एसएमएस से भेजे । सन्देश के अन्त में अपना नाम लिखने वाले, इनमें से गिनती के ही थे वर्ना अधिकांश एसएमएस ‘गुमनाम’ ही थे । ऐसा केवल मेरे साथ नहीं हुआ होगा । ‘गुमनाम’ एसएमएस भेजने वाले कृपालुओं ने मेरी स्मरण शक्ति पर विश्‍वास किया यह तो मुझ पर उनकी कृपा है । लेकिन ऐसे कृपालुओं के नाम मैं आज तक नहीं जान पाया । अपनी टेलीफोन डायरी में मैं ने सामने वालों के नाम या कुलनाम (सरनेम) के अनुसार टेलीफोन नम्बर लिख रखे हैं । ‘कौन सा एसएमएस किसने भेजा है’ इसकी तलाश के लिए मुझे प्रत्येक मोबाइल नम्बर के लिए पूरी डायरी में लिखे नाम जाँचने पड़ेंगे । याने, जितने ‘अनाम एसएमएस’ उतनी ही बार मुझे पूरी डायरी खंगालनी पड़ेगी - इस विचार मात्र से मुझे थकान हो आई । नतीजा - मैं ने ऐसे एक भी एसएमएस पर ध्यान न देने का अपराध किया । जो लोग आठ-दस पंक्तियों के एसएमएस लिखने का दुरुह काम सहजता से कर लेते हैं वे, अपना नाम लिखने में आलस क्यों कर बैठे ? और, क्या उन्होंने ठीक किया ?


बातें बहुत ही छोटी और 'बेबात की बात' लगती हैं । लेकिन क्या सचमुच में ये छोटी और महत्वहीन हैं ?

(यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का उल्लेख अवश्य करें । यदि कोई कृपालु इसे मुद्रित स्‍‍वरूप प्रदान करता है तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍‍य भिजवाएं । मेरा पता है - विष्‍‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्‍बर-19, रतलाम (मध्‍य प्रदेश) 457001)