एक मन्दिर: धार्मिकतावाला

उत्तर भारत के मन्दिरों के बारे में बनी मेरी धारणा टूटने की मुझे बहुत खुशी है। यह अलग बात है कि यह धारणा मध्य भारत में टूटी। यह भी अलग बात है कि मुझे यह खुशी देने में हमारे पारम्परिक सनातनी (जिसे हम आदतन ‘हिन्दू’ कहते हैं) समाज का कोई योगदान नहीं है।

उत्तर भारत के जितने भी मन्दिरों में मुझे जाने का अवसर मिला है, उनमें से एक की भी व्यवस्था से मैं ‘मुदित मन’ नहीं लौटा। रखरखाव हो या पण्डों-सेवकों का व्यवहार, वहाँ अव्यवस्था ही व्यवस्था है और दर्शनार्थियों/भक्तों/पर्यटकों के साथ मनमानी ही धर्मिकता है। इसके सर्वथा विपरीत, दक्षिण भारत के मन्दिरों ने मुझे सदैव प्रभावित भी किया और दूसरी बार आने के लिए आकर्षित भी।

लेकिन उज्जैन के इस्कान मन्दिर ने मेरी धारणा बदली। इस मन्दिर को मैं परम्परागत सनातनी समाज का मन्दिर नहीं मानता।

मेरे मामिया ससुरजी की बरसी-प्रसंग पर गए दिनों उज्जैन जाना हुआ। हम लोग समय से बहुत अधिक पहले पहुँच गए। इतने पहले कि वहाँ आए सारे रिश्तेदारों से भली प्रकार मिल लेने, उनके साथ नाश्ता और भरपूर गप्प गोष्ठी करने के बाद चर्चाओं के लिए मौसम के अतिरिक्त कोई विषय नहीं बचा फिर भी कार्यक्रम शुरु होने में घण्टों बाकी थे। मिलने और गपियाने के उत्साह का उफान उतर जाने से उपजे खालीपन ने ही मेरी उत्तमार्द्ध (जीवनसंगिनी) को इस्कान मन्दिर जाने की प्रेरणा दी। मैं उनके साथ चला तो किन्तु बिलकुल ही बेमन से। एक तो मन्दिरों के बारे में मेरे अपने पूर्वाग्रह उस पर मन्दिर इस्कान का! इस्कान के बारे में मेरी धारणा यही है कि वहाँ सब कुछ विदेशी है। भारतीय और भारतीयता वहाँ दूसरे क्रम पर आती है। मेरे मन में इस्कान मन्दिर की छवि में विदेशी भक्तों/भक्तिनों की प्रचुर उपस्थिति, प्राधान्य और देसी समाज के प्रति उपेक्षाभरा बर्ताव ही बन हुआ रहा।

सुबह लगभग साढ़े नौ बजे हम मन्दिर पहुँचे तो वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं पाया जैसा मैं मन में लेकर गया था। पूरा मण्डप खाली था। दस-बारह स्त्री-पुरुष भक्त मौजूद थे। कोई साष्टांग दण्डवत मुद्रा में था, कोई सुमरिनी में माला जप रहा तो कोई ध्यान मग्न था। कोई भी आपस में बतिया नहीं रहा था। सब अपने में और अपने काम में मगन। ‘विदेशी’ के नाम कुल जमा एक महिला थी जिसे बहुत ध्यान से देखने पर ही मालूम हो पा रहा था कि वह विदेशी है। गेरुआ वस्त्रों में कुछ पण्डित किस्म के नौजवान और अधेड़ इधर-उधर आते-जाते दिखे। सब किसी न किसी काम में व्यस्त। फुरसत में बैठा कोई नहीं मिला।

जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी वहाँ की ध्वनि व्यवस्था। विशाल मण्डप में, आमने-सामने की दीवारों पर कुल-जमा आठ स्पीकर लगे हुए थे - प्रत्येक दीवाल पर चार-चार। बंगाली संगीत प्रभाववाले, ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ की पहचान जतानेवाले भजन बज तो रहे थे किन्तु आवाज इतनी मद्धिम कि भजनों के बोल सुनने-समझने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ जाए। इतनी धीमी और मन्द ध्वनि मानो कोसों दूर, किसी गाँव मे हो रहे जलसे की रेकार्डिंग की आवाज आ रही हो। मुझे भजन का एक भी शब्द समझ नहीं आ रहा था किन्तु इससे रचा वातावरण जो शान्ति, जो आनन्दानुभूति दे रहा था वह मेरे लिए किसी स्वर्गीय सुख से कम नहीं थी। भजनों की रेकार्डिंग इतनी सुखदायी और मन को ठण्डक देनेवाली भी हो सकती है, यह मुझे पहली बार ही अनुभव हुआ।

इस व्यवस्था से उपजी मेरी प्रसन्नता का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि यहाँ मैं देव-मूर्तियों की, उनकी दिव्यता-भव्यता की, उनके समृद्ध श्रृंगार की, मन्दिर की भव्यता-सुन्दरता, किसी की भी चर्चा नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे सचमुच में बड़ी खुशी है कि उत्तर भारत के मन्दिरों को लेकर मेरी धारणा टूटी।

मन्दिरों को लेकर मेरी चिढ़ से भली प्रकार परिचित मेरी उत्तमार्द्ध ने थोड़ी ही देर में कहा - ‘चलिए। घर चलें।’ मेरे जवाब ने उन्हें चौंका दिया। मैंने कहा - ‘थोड़ी देर और बैठते हैं। अच्छा लग रहा है।’ वे खुश हो गईं। मुझमें आए इस परिवर्तन को उन्होंने निश्चय ही ‘प्रभु की देन’ समझा होगा और मन ही मन कहा होगा - ‘चलो! आखिरकार भगवान ने इस आदमी को कुछ तो अकल दे दी।’ मेरा जवाब सुनकर उन्होंने दुगुने भक्ति-भाव से मूर्तियों को प्रणाम किया।
काश! मन्दिरों के रख-रखाव और व्यवस्थाओं के बारे में हमारा पारम्परिक सनातनी समाज, इस्कान मन्दिरों से कोई सबक ले।

मैं इस मन्दिर में फिर जाना चाहूँगा।
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7 comments:

  1. अपवाद तो सिद्धांत की पुष्टि करते हैं, अपनी धारणा इतनी जल्‍दी न बदलिए, वैसे मंदिर हो या अस्‍पताल जाना जरूरी हो जाए तो अपने मन की भावना 'जाकी रही भावना जैसी' कर लेना होता है.

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  2. बिल्कुल! हमारे मन्दिरों में धर्मतत्व सहज नहीं होता कराहता रहता है!

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  3. एक बात आप भूल गए ये नए मंदिर है और इस्कान के पास बाहर से आया बहुत पैसा है. हमारे सनातनी मंदिरों में जगह और पैसो दोनों की कमी होती है. दक्षिण में भी मंदिरों में जगह बहुत होती है. इसलिए वो ज्यादा साफ नज़र आते है.

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  4. किसी बड़े प्रसिद्द मंदिर में तो नहीं जा पाया हूँ अब तक. पर उत्तर भारत के सामान्य मंदिरों में शुद्ध धार्मिक अनुभूति होने के बजाए कृत्रिमता और ढकोसलेबाजी ज्यादा दिखती है.
    दिल्ली से सियोल: इन फ्लैशबैक

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  5. इस्कान मंदिर सच मै यह गोरो का ही मंदिर हे,हमारे यहां सिर्फ़ यही एक मात्र मंदिर था, कई बार गये बहुत अच्छा लगा फ़िर धीरे धीरे देखा कि यहां गोरो को हिंदु धर्म के बारे कुछ नही पता, वो तो सिर्फ़ मन की शांति के लिये ही हमारी ओर खींचते हे, ओर जब पांच दस साल मे उन्हे शांति नही मिलती तो झट से इसे छोड कर वापिस अपने धर्म मे चले जाते हे,दुसरा यह लोग नशा वगेरा बहुत करते हे, ओर रंग भेद भी बहुत हे इन मै इस लिये मै तो यही कहुंगा कि हमे अपने ही मंदिरो मै मस्त रहना चाहिये , इन हिप्पियो के इस्कान से दुर ही रहना चाहिये, इस से हमारे बच्चो पर गलत असर पडता हे, नशे कि प्रवति शांति के नाम से बढती हे,वेसे आज कल इस्कान भारत मे बहुत प्रसिद्ध हो रहे हे.

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  6. इस्कॉन मन्दिर और उनका रख रखाव मूलतः सनातनी है, वैष्णव है। हमारे अन्य मन्दिरों में परम्परागत अपभ्रंशता आ गयी है, उसका समूल नाश करना है। जो कभी साहित्य, कला, संस्कृति के केन्द्र होते थे, चढ़ावा मात्र के केन्द्र बन गये हैं।

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  7. विष्णुजी,
    आज समय मिला तो आपके ब्लाग की दर्जनों पोस्ट खंगाल डाली, लेकिन इस पर टिप्पणी करने का लोभ संवरण नहीं कर सका ।
    वृन्दावन में जब एक बार एस्कान मंदिर में गया था तो वहां के एक कर्मचारी/ सम्भवत: पुजारी से बातचीत हुयी।
    उन्होनें पूछा कि आपने दर्शन कर लिये?
    मैनें कहां हां ।
    उन्होने पूछा कि क्या देखा ?
    मैने कहा कि प्रतिमा, और पता नहीं क्या कहा ।
    वो बोले, किस प्रतिमा पर किस रंग का वस्त्र चढा हुया था?
    मैने कहा वो तो ठीक से याद नहीं,
    बोले तुमने प्रतिमा की आंखों पर ध्यान दिया?
    मैने कहा नहीं,
    बोले तुमने फ़िर किस चीज का दर्शन किया?
    मैं निरूत्तर हो गया।
    उसके बाद से प्रयास रहता है जब कभी भी किसी मन्दिर में जाना हो तो शान्त स्वभाव से दर्शन में ध्यान लगाया जाये, शुरू में ये अटपटा लगा लेकिन उसके बाद ये मन को अधिक शान्ति प्रदान करता है।

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