आप तो जानते ही हो


मेरे एक आदरणीय मित्र भोपाल स्थानान्तरित हो गए । वे अत्यधिक संकोची, आत्मकेन्द्रित और ‘चुप्पा’ किस्म के हैं । अपना नाम तक बताने में संकोच कर जाते हैं । भोपाल में उनका नया आवास राज भवन वाले क्षेत्र में है, यह जानकर मैं ने उन्हें श्री विजय वाते का नम्बर दिया ताकि आपात स्थिति में उनकी सहायता ले सकें । आपात स्थिति यही कि सामान से लदे उनके ट्रक को कहीं भी रोका जा सकता था । वे बोले - ‘वातेजी से बात करने में मुझे उलझन होगी । आप उन्हें मेरा नम्बर दे दीजिएगा ।’ मैं ने पूछा - ‘वातेजी को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप आपात स्थिति में हैं ? बताना तो आपको ही पड़ेगा ।’ वे परेशान हो गए । बोले - ‘पुलिस का जवान ही नहीं सुनता तो इतना बड़ा अफसर मेरी बात क्यों सुनेगा ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ चूँकि मैं इनका स्वभाव जानता था सो मुझे अटपटा नहीं लगा । कहा -‘वातेजी थोड़ा अलग हटकर हैं । वे रतलामवालों के प्रति अतिरिक्त प्रेमभाव रखते हैं । उनसे बात कर आपको अच्छा ही लगेगा ।’ बेमन से उन्होंने वातेजी का नम्बर लिख लिया ।


वे रतलाम से रवाना हुए तो मैं ने वातेजी को पूरा किस्सा सुना कर बार-बार विशेष अनुरोध किया कि मेरे इन मित्र का फोन आते ही वे अतिरिक्त सम्वेदनशीलता बरत कर उनकी मदद करें । वातेजी को ऐसी बातों की आदत है और वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी भी हैं, सो उन्होंने मेरे थोड़े कहे को बहुत समझ लिया और मेरे आदरणीय मित्र की ‘आप तो जानते ही हो’ वाली बात पर हँसते रहे ।


उनके भोपाल पहुँचने के अपेक्षित समय के बाद भी देर तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो मैं ने अपनी ओर से उनकी तलाश की । बोले - ‘पुलिसवालों ने दो बार ट्रक को रोका ।’ मैं ने पूछा - ‘आपने वातेजी से बात की ?’ बोले -‘जरूरत ही नहीं पड़ी । मैं ने उनका फोन नम्बर पुलिसवालों को देकर कहा कि वे मेरे बारे में वातेजी से पूछ लें । वातेजी का नाम सुनकर ही उन्होंने ट्रक को जाने दिया ।’ मैं ने कहा -‘इस सबके लिए आपने वातेजी को धन्यवाद दिया ?’ बोले -‘मैं ने सोचा तो था लेकिन हिम्मत नहीं हुई । पुलिसवालों को तो आप जानते ही हो ।’ मैं क्या कहता ? चुप हो गया ।


मैं ने मोबाइल बन्द किया ही था कि वातेजी का फोन आ गया । अब तक मेरे मित्र का फोन न आने से वे चिन्तित हो पूछताछ कर रहे थे । मैं ने पूरी बात बताई तो वे पहले तो तनिक खिन्न प्रतीत हुए लेकिन अगले ही क्षण मौज में आ गए । बोले-‘ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार ।’ फिर उन्होंने किस्सा सुनाया ।

भोपाल में, एक प्रगतिशील कलमकार के घर चोरी हो गई । उन्होंने वातेजी से मदद माँगी । वातेजी ने कहा कि वे पुलिस थाने जाकर प्राथमिकी लिखवा दें । कलमकारजी के हाथ-पाँव फूल गए । उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि वातेजी अपने पद-प्रभाव का उपयोग कर कुछ ऐसा करें कि कलमकारजी को थाने नहीं जाना पड़े और प्राथमिकी लिख ली जाए । वातेजी ने एकाधिक बार भरोसा दिलाया और थाने जाने का परामर्श दिया । प्रगतिशील कलमकारजी जाने को तैयार नहीं । वातेजी ने तनिक चिढ़ कर कारण पूछा तो वे बोले -‘पुलिस वाले कैसा व्यवहार करते हैं, आप तो जानते ही हो ।’ अन्ततः वातेजी को दो-टूक कहना पड़ा कि प्राथमिकी के लिए तो उन्हें ही जाना पड़ेगा । वे गए । घण्टों बाद तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो वातेजी ने अपनी ओर से फोन लगाया । मालूम हुआ कि प्राथमिकी लिखवा कर वे घण्टों पहले ही आ चुके हैं । वातेजी ने कहा - ‘आपने तो खबर ही नहीं ।’ बोले-‘पुलिस थाने में जाने से ही इतनी घबराहट हो गई कि खबर करना भूल गया ।’ वातेजी ने पूछा कि उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ । बोले - ‘व्यवहार तो बहुत अच्छा हुआ । आवभगत हुई । चाय भी पिलाई और फौरन ही प्राथमिकी लिख ली ।’ वातेजी ने कहा -‘अब क्या कहना है आपका ?’ वे बड़ी मासूमियत से बोले -‘वह तो आपके कारण हो गया वर्ना पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने सर पीट लिया ।

इन सज्जन की चोरी का माल बरामद हो गया । माल की पहचान करने के लिए पुलिस थाने से बुलावा आया । ये जाने को तैयार नहीं । फिर वातेजी को फोन किया । वातेजी ने कहा -‘बुलाया है तो चले जाईए । सामान तो आप ही पहचानेंगे ।’ प्रगतिशीलजी बोले -‘नहीं । आप फोन कर दीजिए कि हमें वहाँ न तो रोकें और न ही प्रतीक्षा कराएँ । हम जैसे ही जाएँ, सामान की पहचान करवा कर हमें फौरन फ्री कर दें ।’ वातेजी ने कहा -‘आप ऐसा क्यों चाहते हैं ? वे पहले अपने हाथ का काम निपटाएँगे फिर आपका काम कर देंगे ।’ बोले -‘थाने में बैठने में डर लगता है । लोग क्या कहेंगे ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने बमुश्‍िकल खुद को नियन्त्रित कर संयत बनाए रखा और उससे भी अधिक मुश्‍िकल से उन्हें थाने भेजा ।

किस्सा सुनाकर वातेजी बोले -‘पुलिस के लिए उन्होंने जो कुछ कहा उसका मुझे बुरा तो लगा लेकिन उससे ज्यादा बुरा इस बात का लगा कि जो लोग कलम के हल से कागज की जमीन पर क्रान्ति के बीज बो कर, व्यवस्था का विरोध करने की, प्रशंसा की फसल काटते हैं, वे लोग खुद के लिए भी कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं होते । वह भी तब, जबकि उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक अनुशंसा और सुरक्षा पहले ही क्षण से मिल जाती है ।’

मैं क्या कहता ? मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।

लेकिन वातेजी की बात से मुझे वह किस्सा याद आ गया जिसका मैं नेत्र-देह साक्षी था । तब दादा, राज्य मन्त्री थे । उनके पास एक ‘दुखियारे सज्जन’ आए और अनुनय की कि उनकी मदद भले ही न करें, उनकी बात सुन जरूर लें । दादा अपने हाथ का काम छोड़ कर उनके पास बैठ गए । व्यथा-कथा लम्बी चली - कोई दो घण्टे । इस दौरान अपनी बात सुनाते हुए उन्होंने कम से कम बीस बार कहा - ‘आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’ जब यह वाक्य बार-बार सामने आने लगा तो दादा का धैर्य छूट गया । पूछा - ‘मैं दो-सवा दो घण्टे से आपकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ और आप हैं कि बार-बार कहे जा रहे हैं कि कोई सुनता नहीं । मैं सुन नहीं रहा हूँ तो क्या कर रहा हूँ ?’ वे उसी मुद्रा और निस्‍पृहता से बोले- ‘आपकी बात और है वर्ना आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’


क्या बताऊँ कि मैं ने यह सब क्यों लिखा । आप तो जानते ही हो ।

अमिताभ बच्चन मेरे घर में

मेराछोटा बेटा तथागत अभी, दो दिनों के लिए घर आया था । वह इन्दौर में, बी. ई. द्वितीय वर्ष का नियमित छात्र है । वह इन्दौर जाने लगा तो उसे छोड़ने स्टेशन गया । जाने से पहले उसने मेरे पैर छुए और बोला - ‘अच्छा पापा ! मैं चलता हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’

मेरा बड़ा बेटा वल्कल इन दिनों हैदराबाद में है । पहले मुम्बई में था । कुशल क्षेम जानने के लिए किए गए फोन पर बात समाप्त होने से पहले, उसकी माँ से वह क्या कहता है, मुझे पता नहीं लेकिन मुझसे हर बार कहा - ‘अच्छा पापा ! प्रणाम । अपना ध्यान रखिएगा ।’

प्रशा हमारे परिवार की नवीनतम सदस्य है । इसी नौ मार्च को वह हमारे परिवार में शामिल हुई है - वल्कल की जीवनसंगिनी बन कर । अक्टूबर 2007 में दोनों का वाग्दान हुआ था । तब से ही पह फोन पर हम लोगों से बराबर बात करती रही है । सम्वाद समाप्ति पर प्रत्येक बार वह कहती - ‘अच्छा पापाजी ! फोन बन्द करती हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’ प्रशा ने यह वाक्य पहली ही बार से कहना शुरु कर दिया था जबकि मेरे दोनों बेटों ने, घर से बाहर जाने के बाद कहना शुरु किया था । बच्चों के मुँह से यह वाक्य पहली बार सुना था तबसे ही इसने मेरा ध्यानाकर्षित किया था । ये तीनों बच्चे जब-जब भी यह वाक्य कहते हैं तब-तब मैं अतिरिक्त सतर्कता से सुनता हूँ । हर बार तेजी से अनुभव हुआ कि वे सम्पूर्ण सहजता, आत्मीयता, आदर और चिन्ता भाव से यह वाक्य कहते हैं । कोई औपचारिकता या दिखावा एक बार भी अनुभव नहीं हुआ । लेकिन यह वाक्य हर बार मुझे तनिक असहज कर जाता है ।

तीस वर्षां से भी अधिक समय से मैं ‘एकल परिवार’ का जीवन जी रहा हूँ लेकिन ‘सामूहिक परिवार’ की आदत अब तक नहीं गई है । तब, कोई भी अतिथि, रिश्‍तेदार घर आता तो लौटते समय हम छोटों के माथे सहलाता और परिवार के मुखिया से छोटे तमाम सदस्यों को ‘भारवण’ (भार वहन करने की हिदायत) सौंपता - ‘देखना ! माँ-बाप की खूब सेवा करना । उनका ध्यान रखना ।’ मुझे अब तक ऐसी ही ‘भारवण’ की आदत है । अपने मित्रों, परिचितों यहाँ जब भी गया तो लौटते समय उनके बच्चों को यही ‘भारवण’ सौंप कर लौटता रहा हूँ ।

लेकिन देख रहा हूँ कि अब मित्रों, परिचितों के परिवारों में ऐसे बच्चे नहीं मिलते जिन्हें ‘भारवण’ सौंपी जाए । उच्च शिक्षा के लिए या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर, ‘कैरियरिजम’ के अधीन, जिस तरह मेरे बच्चे घर से दूर हैं, उसी तरह मित्रों, परिचितों के बच्चे भी घर से दूर हैं । परिवार के नाम पर अब घर-घर में प्रायः पति-पत्नी ही मिलते हैं ।

मेरी पत्नी अध्यापक है । मध्यप्रदेश के अध्यापकों को अध्यापन की अपेक्षा अन्य काम अधिक करना पड़ते हैं । स्थिति यह है कि अध्यापकों को कई बार तो बच्चों को पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता । विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए सर्वेक्षण करना ऐसे ही कामों में से एक काम होता है । दो साल पहले, एक शाम वह ऐसे ही एक सर्वेक्षण से लौटी तो बदहवास थी । साफ लग रहा था उससे कुछ पूछा तो वह रो पड़ेगी । थोड़ी देर बाद पूछा तो उसने भीगे कण्ठ से बताया कि सर्वेक्षण के दौरान उसे दस-बारह ऐसे, बहुमंजिला मकानों में जाना पड़ा जिनमें केवल वृद्ध युगल मिले । कुछ के बच्चे, ऊँची पढ़ाई कर, कमाने-खाने के लिए देश के अन्य नगरों में तो कुछ के बच्चे विदेशों में । दो कारणों से मकान खाली बनाए रखना सबकी विवशता । पहला कारण - बच्चे आएँ तो वे आराम से रह सकें । दूसरा कारण - किराए पर उठा दें और बाद में किराएदार मकान खाली न करे तो ? सो, ऐसे समस्त वृद्ध युगल, ‘भव्य भवनों के रक्षक-रखवाले’ बने हुए हैं और उनकी खुदकी देख-भाल करने के लिए कोई नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे बच्चे भी, परदेस में इसी दशा को जी रहे हैं । उनका ध्यान रखने के लिए उनके माँ-बाप साथ में नहीं हैं । उन्हें भी अपना ध्यान खुद ही रखना है । जाहिर है कि अब हममें से प्रत्येक को अपना ध्यान रखना पड़ेगा, वे बच्चे हों या बच्चों के माँ-बाप । ‘माँ-बाप की सेवा करना । उनका ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ यदि मेरी पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार था तो ‘आप अपना ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ मेरे बच्चों की पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार है ।

अब तक होता यह आया है कि बच्चे जब-जब भी पढ़ने या नौकरी करने बाहर गए तब-तब उनसे कहा जाता रहा है - ‘परदेस में अकेले हो । अपना ध्यान रखना ।’ आज हम सब अपने-अपने घरों में ही हैं और हमें अपना-अपना ध्यान रखना है । पहले बच्चों को कहा जाता था - ‘अपना ध्यान रखना ।’ आज बच्चे हमसे कह रहे हैं - ‘अपना ध्यान रखना ।’

‘अपना ध्यान रखिएगा’ यह वाक्य सबसे पहले मैं ने, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में सुना था । कार्यक्रम समाप्ति से पहले अमिताभ बच्चन, ‘विदा अभिवादन का शिष्‍टाचार’ निभाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उठाकर दर्शक समुदाय से कहते थे (शायद सचेत करते थे) - ‘अपना ध्यान रखिएगा ।’ जब-जब भी मेरे बच्चे मुझे मेरा ध्यान रखने को कहते हैं तब-तब, यह भली प्रकार जानते हुए भी कि वे अन्तर्मन से मेरी चिन्ता करते हुए ही यह कह रहे हैं, मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन मेरे घर में विराजमान हैं ।

मैं भले ही कामना करुँ कि ‘ईश्‍वर करे, वे आपके घर में विराजमान न हों’ लेकिन मुझे भय है कि वे आपके घर में भी विराजमान हो सकते हैं ।

कपडे : इस मन्‍त्री के, उस मन्‍त्री के


आतंकवाद और हमारे गृह मन्‍त्रीजी के कपडे इन दिनों अखबारों और समाचार चैनलों के प्रमुख समाचार बने हुए हैं । व्‍यंग्‍य चित्रकारों को बहुत दिनों बाद कोई अच्‍छा 'सब्‍जेक्‍ट' मिला है । गृह मन्‍त्रीजी भाग्‍यशाली हैं । वे समाचारों में भी प्रमुख हैं और कार्टूनों में भी ।


बरसों पहले एक और केन्‍द्रीय मन्‍त्री के कपडे इसी तरह अखबारों में स्‍थान पा चुके हैं । लेकिन उस सबमें सम्‍मान और प्रशंसा केन्‍द्रीय तत्‍व था, उपहास या आक्रोश नहीं ।

यह किस्‍सा मैं ने देश के अलग-अलग स्‍थानों में थोडे हेर-फेर के साथ सुना लेकिन केन्‍द्रीय भाव वही था - सम्‍मान और प्रशंसा ।

प्रसंग स्‍वर्गीय श्री रुफी अहमद किदवई से जुडा है । तब वे केन्‍द्र में मन्‍त्री (सम्‍भवत: कृषि मन्‍त्री) थे । कृषि मन्त्रियों के एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सेमीनार में भाग लेने हेतु उन्‍हें विदेश जाना था ।

यात्रा की तैयारी करते हुए जब वे अटैची में कपडे जमा रहे थे तो उनके एक मित्र पास ही खडे थे । मित्र ने देखा कि किदवई साहब ने एक ऐसा कुर्ता अटैची में रख लिया है जो फटा हुआ है । मित्र ने किदवई साहब को टोका । किदवई साहब ने अत्‍यन्‍त सहजता से कहा कि वे किसी फैशन परेड में नहीं बल्कि सेमीनार में जा रहे हैं । कुछ भाषण सुनना हैं और अपना भाषण देना है । सारा आयोजन नितान्‍त औपचारिक है । बस । फिर, 'वहां कौन जानता है कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

किदवई साहब की सादगी सर्वज्ञात और विख्‍यात थी । लेकिन मित्र से नहीं रहा गया । पूछा - 'चलो, परदेस में न सही, अपने देस में तो कपडों कर चिन्‍ता कर लेनी चाहिए ।'

किदवई साहब ने उसी सहजता से कहा - 'यहां क्‍या चिन्‍ता करनी । यहां तो सब जानते हैं कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

मित्र निरुत्‍तर हो गए और किदवई साहब वहीं फटा कुरता अपनी अटैची में डाल कर विदेश चले गए ।

बरसों बाद ऐसा हुआ कि........

‘वे’ कितने थे, गिन पाना असम्भव ही था । ‘वे’ हजारों भी हो सकते थे, लाखों भी या शायद करोड़ भी । ‘वे’ जितने भी थे, सबके सब काम में लगे हुए थे । एक भी चुप नहीं बैठा था ।

यह शुकताल में, गंगा किनारे, विक्रम सम्वत 2065 के भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी की रात थी । एक दिन पहले बरसात हो चुकी थी । लग रहा था कि बरसात फिर होगी । लेकिन आसमान साफ था । अपनी सोलहवीं कला तक पहुँचने के लिए चाँद, यात्रा पर निकला हुआ था । चाँदनी पूरे आसमान में पसरी हुई थी । आसमान, आसमान नहीं रह गया था, ठण्डे दूध की गाढ़ी, मलाईदार, सफेद झक् चादर बन गया था मानो । तारे पलायन कर चुके थे । लेकिन ‘वे‘ थे कि इस सबसे बेखबर, लगे हुए थे अपने काम में । गंगा किनारे बनी, बैरागियों की धर्मशाला के बाहर, कोने पर, रखवाले की तरह खड़े वृक्ष पर थे ‘वे’ सारे के सारे और वहीं लगे हुए थे अपने काम पर ।
या तो ‘उन्हें’ चाँदनी की चमक कम लग रही थी सो ‘वे’ उसे और चमकीली बनाने की जुगत में थे या चाँद को अहसास कराने पर तुले हुए थे - अपने होने का या फिर उसे आश्‍वस्त कर रहे थे कि दो दिनों के बाद जब वह क्षरित होने लगेगा तो उसका काम वे निरन्तर बनाए रखेंगे - रातों को रोशन बनाए रखने का ।
अपनी-अपनी दुम को मशाल बनाए, ‘वे’ सबके सब मेरी आँखें झपकने नहीं दे रहे थे । रात आधी हो चुकी थी । मुझे सो जाना चाहिए था । लेकिन वे मुझे, कोई पैंतीस-चालीस मकानों वाले मेरे गाँव की कीचड़ सनी, असमतल, अटपटी गलियों में ले आए थे जिनमें मैं उनके पीछे दौड़-दौड़ कर उनमें से किसी को झपट्टे से कब्जे में कर लेता था-बहुत ही मुश्‍िकल से और माचिस की खाली डिबिया में बन्द कर, अगले दिन अपने दोस्तों को दिखाता था - बड़े रौब से ।
उसके बाद जैसे-जैसे बड़ा होता गया, गाँव से दूर होता गया । ‘उनसे’ सम्पर्क कम होने लगा । और शहर में आकर तो उन्हें भूल ही गया । उनके बारे में कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता । वे बच्चों की स्कूली किताबों के सफों पर ही रह गए ।

लेकिन उस रात वे मेरे सामने थे, चाँद को भरोसा दिलाते हुए, चाँदनी की चमक को बढ़ाने की जुगत में लगे-हजारों, लाखों या फिर करोड़ की तादाद में । उन्होंने अपने होने को ही नहीं जताया, मुझे मेरे बच्चों के सामने सयाना बनने का अलभ्य अवसर भी दे दिया ।
भले ही यह सब बरसों-बरसों के बाद हुआ । लेकिन मैं अपने बच्चों को बता सकूँगा उनके बारे में । कह सकूँगा कि मैं ने बरसों बाद देखे, इतने सारे जुगनू एक साथ ।

विजय माल्या की शर्तों पर जी रहा इण्डिया

दिल्ली से इन्दौर तक की यह हवाई यात्रा, मेरी तीसरी हवाई यात्रा थी । ‘भारत‘ और ‘इण्डिया’ का, अब तक अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा अन्तर इस यात्रा ने मुझे समझा दिया ।
एक लीटर पानी की बोतल के लिए मैं ने तीस रुपयों का भुगतान किया । डाक्टर एस. एन. सुब्बरावजी के प्रभाव के चलते, मैं ने खरीदा हुआ पानी पीना बन्द कर रखा है । लेकिन सतीश वैष्‍णव (सेंधवा) के लिए यह बोतल खरीदी । तुर्रा यह रहा कि हवाई जहाज में बैठने के लिए जाते समय यह बोतल बाहर ही रखवा ली गई । तब तक सतीश ने बोतल का एक चैथाई पानी भी नहीं पिया था । याने, मैं ने कोई सवा सौ रुपये के दाम पर एक लीटर पानी खरीदा ।
यह सब मेरे साथ जब हो रहा था तब मुझे, पीने के पानी के लिए, सर पर दो-तीन मटके उठाए, तपती धरती पर कोसों नंगे पाँव यात्रा करने को विवश वे ग्रामीण महिलाएँ याद आ रही थीं जिनका आधे से अधिक दिन केवल पानी की जुगत में ही बीत जाता है । यह सब भोगते-भुगतते हुए मेरी आँखें अनायास ही ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की तलाश करने लगीं । वह कहीं नजर नहीं आ रहा था । शायद पानी की दुकान में रखे डीप फ्रीजर के तले में कहीं दुबका रहा होगा । जाहिर है कि तीसरा विश्‍व युद्ध पानी के लिए नहीं होगा तो किसके लिए होगा ?
इस हवाई यात्रा में मैं ने काफी का एक चालीस रुपये में, एक सेण्डविच सौ रुपये में और एक कप चाय बीस रुपये में खरीदी । यकीनन यह ‘भारत’ नहीं था, ‘इण्डिया’ ही था ।
यात्रा टिकिट सतीश ने ही खरीदे थे । विजय माल्या की हवाई कम्पनी ‘किंगफिशर’ से हमने यह यात्रा की थी । हम दोनों ने सवेरे ग्यारह बजे भोजन किया था और अब शाम के साढ़े सात बज रहे थे । सो, ‘व्योम बाला’ ने जैसे ही ‘कुछ’ खाने के लिए पूछताछ की तो हम कुछ बोलते उससे पहले, हमारे पेट में कूद रहे चूहों ने आवाज लगा दी । ‘व्योम बाला’ की सौंपी गई, सेण्डविच की आकर्षक पेकिंग हमने खोली ही थी कि उसने ‘सस्मित’ कहा - ‘टू हण्ड्रेड रुपीज प्लीज ।’ सतीश मानो हत्थे से उखड़ गया । वह प्रायः ही हवाई यात्रा करता रहता है । उसने कहा कि किराये में खाना-पीना शामिल रहता है । तनिक भी असहज नहीं होते हुए व्योम बाला, पूर्वानुसार ही सस्मित बोली - ‘सर ! इट इज डेकन एण्ड फूड इज नाट इनक्ल्यूडेड इन फेअर ।’ सतीश ने अत्यधिक गुस्से और पूरे बेमन से दो सौ रुपये चुकाए । यह भड़की हुई भूख का ही असर था कि इसके बाद भी हमें सेण्डविच अत्यन्त स्वादिष्‍ट लगे ।
खाने के बाद सतीश ने पूछा - ‘आपका क्या कहना है दादा ?’ मैं ने कहा - ‘यह इण्डिया है जहाँ विजय माल्या जैसे लोगों की शर्तें लागू हैं ।’
मैं और क्या कहता ?

हिन्दी दिवस : शुकताल में और हवाई अड्डे पर

मैं हिन्दी दिवस को सरकारी चोंचला मानता हूँ सो इस दिन होने वाले औपचारिक आयोजनों से बचने का यथा-सम्भव प्रयास करता हूँ । यह अलग बात है कि हर साल कहीं न कहीं, कोई न कोई कृपालु मेरे इन प्रयासों को असफल और व्यर्थ कर देता है । बीमा व्यवसाय के कारण बना और बढ़ा परिचय क्षेत्र इस ‘असफलता’ का सबसे बड़ा ‘मारक कारण’ होता है । मित्रों का लिहाज पालने में अपने मन के प्रतिकूल व्यवहार कर लेता हूँ ।

इस साल ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन अचानक ही मुझे लगा कि इस साल ही मैं हिन्दी की वास्तविक दशा और ताकत देख पाया । इस साल 14 सितम्बर को मैं, उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर से सटे तीर्थ क्षेत्र शुकताल में था । हम बैरागियों के राष्‍ट्रीय संगठनों ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण सेवा संघ’ और ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट’ की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणियों की बैठकें वहीं आयोजित थीं । सेंधवा वाले सतीश वैष्‍णव के स्नेहाधिकार भाव के अधीन मुझे वहाँ जाना पड़ा ।

कहने भर को ये बैठकें औपचारिक थीं, वास्तव में इन दोनों बैठकों में उन सबने भाग लिया जो वहाँ उपस्थित थे । कोई तीन सौ स्त्री-पुरुष बैरागी वहाँ थे । उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग अधिक संख्या में थे और इनमें भी देहातों के लोग ज्यादा थे । इनके बाद, संख्या की दृष्‍िट से राजस्थान के लोग ज्यादा थे । दोनों बैठकों की विषय सूचियां कागजों तक ही सिमट कर रह गई और जिसे जो जरुरी लगा, उन्मुक्त भाव से बोला । औपचारिकता अधिक देर तक बाँधे नहीं रख सकती । आदमी बड़ी जल्दी अपनी वास्तविकता में आ जाता है । फिर, बात जहाँ अपने मन की अभिव्यक्ति की हो तो यह ‘जल्दी’ और अधिक जल्दी आ जाती है । सो वहाँ हुए भाषणों में से सबकी शुरुआत हुई तो हिन्दी में लेकिन प्रत्येक व्यक्ति, कुछ ही क्षणों में अपनी-अपनी वाली हिन्दी पर उतर आया । लिहाजा वहाँ उत्तर प्रदेश के ‘अइयो, जइयो, का बतावैं’, हरियाणावी के ‘तन्ने, मन्ने, सै’ और राजस्थानी के ‘हे के नी सा’ जैसे देशज तकिया कलामों से लबालब भाषण हुए । हमारे राष्‍ट्रीय अध्यक्ष, राष्‍ट्रीय सचिव और हम कुछ लोगों ने अपनी पूरी बात लगभग खालिस हिन्दी में कही । लेकिन सच मानिए, खालिस हिन्दी वाले भाषण उस कार्रवाई में या तो ‘मखमल में टाट के पैबन्द’ लग रहे थे या फिर बिना गन्ध वाले, सुन्दर कागजी फूल । इन सबमें उत्कृष्‍ट शब्दावली तो थी लेकिन सब कुछ यान्त्रिक और बनावटी लगता रहा जबकि अनजान, पद-विहीन, और हमें शायद ही फिर कभी मिलने-नजर आने वाले लोगों की बातों में जिन्दगी धड़क रही थी और वे सब ही असली, प्राकृतिक तथा सहज थे । भाषा की भिन्नता, बोलियों के देश शब्दों ने सम्प्रेषण में तनिक भी व्यवधान पैदा नहीं किया । हममें से किसी को भी एक बार भी नहीं पूछना पड़ा कि किसने क्या कहा । सबको, सबकी बातें पहली ही बार में समझ में आ गईं । हरियाणवी में सम्मान सूचक सम्बोधन नाम मात्र को भी नहीं होते । वहाँ ‘आप’ अनुपस्थित रहता है और ‘तू’ का साम्राज्य बना रहता है । किनारों पर बैठ कर जब-जब भी हरियाणवी सम्वाद सुने, तब-तब हर बार यह ‘तू-तड़ाक’ अटपटी और आपत्तिजनक लगी । लेकिन सच कहता हूँ, उस दिन शुकताल में, हरियाणा से आए एक भी बैरागी ने मुझे ‘आप’ नहीं कहा और मुझे एक बार भी अटपटा नहीं लगा । वहाँ ‘आप’ सुनना अपमानजनक लगता । ‘तू’ ठेठ अन्तर्मन की तलहटी से, आत्मीयता की सम्पूर्ण ऊष्‍मा से आ बाहर आ रहा था और ‘आप’ होठों से आगे जगह नहीं बना पा रहा था । मजे की बात यह रही कि एक भी भाषण बिना अंग्रेजी वाला नहीं था लेकिन वह वहाँ ‘सहज हिन्दी’ के रुप में ही थी । वहाँ अंग्रेजी का पाण्डित्य प्रदर्शन कहीं नहीं था । देहातों में अंग्रेजी जितनी रच-बस गई है, उसी मात्रा, अनुपात और स्वरुप में वह वहाँ थी । दो दिनों में हुई इन दोनों बैठकों से उपजा ‘लोकोत्सव’ का आनन्द गंगा किनारे की बालू के कण-कण में व्याप्त था । मुझे अचानक ही अनुभव हुआ कि हम सबकी हँसी भी प्राकृतिक और सहज हो आई थी । हम सब अनायास ही अनौपचारिक हो आए थे ।

लौटते में मुझे कोई तीन घण्टे दिल्ली हवाई अड्डे पर बिताने पड़े । हम दोनों (सतीश और मैं) पूरी तरह फुरसत में थे । सारे विषय समाप्त हो चुके थे । ऐसे में बतियाने के लिए अपने वालों की आलोचना ही एक मात्र विष्‍ाय रह जाता है जिससे हम दोनों ही बराबर बचते रहे ।

एक शाम पहले दिल्ली में विस्फोट हो चुके थे और शुकताल में हमें न तो अखबार मिले थे और न ही टेलीविजन । सो, अखबार की तलाश में मैं, हवाई अड्डे स्थित किताब की दुकान पर गया । मुझे लगा, शुकताल से मैं सीधे विदेश में, अमरीका या ब्रिटेन में आ गया हूँ । पूरी दुकान पुस्तकों से सजी, अटाटूट पड़ी थी । लेकिन हिन्दी की किताबें या अखबार कहीं नहीं थे । मैं अत्यधिक आलसी हूँ । सो, तलाश करने के बजाय दुकान पर मौजूद दोनों युवकों से ही पूछ लिया । दोनों ने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और मशीनी आवाज में बताया कि मैं हिन्दी किताबों की तलाश न करुँ । मुझे झटका लगा । अब मैं ने गौर से दुकान में रखी पुस्तकों पर नजर फेरी । कोने की एक आलमारी में ‘योग’ पर एक पुस्तक नजर आई । बाकी सब कुछ अंग्रेजी ही अंग्रेजी । दुकान में सात-आठ स्त्री-पुरुष और थे । सब अपने आप में मगन ।

हिन्दी की अनुपस्थिति से उपजी हताशा ने मुझे विकल कर दिया । सूझ नहीं पड़ा कि क्या करुँ । हताशा से उबरने के लिए परिहास का पल्ला पकड़ा । दोनों युवकों से पूछा कि मैं भारत में ही हूँ या किसी अन्य देश में ? दोनों ने अनसुनी कर दी । मैं ने फिर पूछा कि वे दोनों आपस में और ग्राहकों से किस भाषा में बात करते हैं । दोनों ने कहा - ‘हिन्दी में ही ।’ मैं ने पूछा कि फिर हिन्दी की किताबें दुकान में क्यों नहीं हैं ? जवाब में उन्होंने कहा - ‘मालिक से पूछिएगा । हम दोनों तो नौकरी कर रहे हैं ।’ इससे अधिक सम्वाद की सम्भावना वहाँ थी ही नहीं ।

चुपचाप दुकान से निकल आया । वहाँ का वातानुकूलित वातावरण अचानक ही मुझे बोझिल और पराया लगने लगा । लगा, मैं अब तक तो माँ की गोद में था । अब विमाता के आँगन में उपेक्षित, अचिह्ना खड़ा हूँ ।

सो, इस साल हिन्दी दिवस पर आधा दिन ‘देस’ में और कोई तीन घण्टे अपनी ही धरती पर बसे ‘परदेस’ में रहा ।

शुकताल में, आयोजन स्थल पर यथेष्‍ठ साफ-सफाई नहीं थी, अव्यवस्था ही व्यवस्था थी । हर कोई पास वाले पर नजर रखे हुए था और उसकी चिन्ता, पूछ-परख कर रहा था, उससे मिल कर उसे जानने की कोशिश कर रहा था । शिष्‍टाचार, शालीनता और सभ्यता की औपचारिकता के दबाव से उपजने वाली शान्ति वहाँ बिलकुल नहीं थी, हम सब अपनी-अपनी नापसन्दगियाँ जता-बता पा रहे थे । हम सब वहाँ प्राकृतिक और सहज थे । हम अपने घर में थे । वहाँ अपनी बोली और भाषा हमारे साथ थी ।

दिल्ली हवाई अड्डे पर सब कुछ भव्य, शान्त, शालीन, साफ-सुथरा था । लेकिन सब कुछ ऐसा कि आदमी आतंकित हो कर सभ्य, शिष्‍ट, शालीन बने - जबरिया, असहज होकर ।

कैसा हो कि हिन्दी दिवस की खानापूर्ति करने वाले आयोजन, देस में बसे ऐसे परदेसों में हों ?

एक फतवा मीडीया के लिए

सलमान खान द्वारा अपने निवास पर विनायक स्थापना और पूजा को लेकर जामा मस्जिद के मौलाना अंजारिया द्वारा जारी फतवे को लेकर एक टीवी समाचार चैनल ने जो हंगामा मचाया वह हमारे समाचार चैनलों के उच्छृंखल हो जाने का श्रेष्‍ठ उदाहरण है ।

सलमान खान अपने घर गणपति स्थापित करें या न करें, इससे किसी को क्या लेना-देना ? वे नमाज पढ़ें या पूजा करें, यह उनका निजी मामला है । उनके खिलाफ किसी ने कोई फतवा जारी कर दिया तो इससे या तो उसे लेना-देना है जिसने फतवा माँगा या फिर उसे, जिसके खिलाफ फतवा दिया । अपने-अपने घरों में बैठे हम दर्शकों का इस सबसे क्या लेना-देना ?

फिर, फतवा कोई अल्लाह का हुक्म या इच्छा तो है नहीं । फतवे की औकात और बिसात ही क्या है ? यह केवल एक परामर्श है - बिलकुल डाक्टर या वकील के परामर्श की तरह । पूछने वाले की इच्छा - माने, न माने ।

धर्म मनुष्‍य के लिए है या मनुष्‍य धर्म के लिए ? ईश्‍वर ने तो मनुष्‍य को पैदा किया है, धर्म को नहीं । धर्म तो मनुष्‍य का ही आविष्‍कार है ।

अव्वल होना तो यह चाहिए था कि इस फतवे की चर्चा ही न की जाती । और यदि चर्चा की जानी जरूरी ही थी तो बेहतर होता कि फतवे की औकात भी बताई जाती । समाचार वाचक इस फतवे का उल्लेख बार-बार और लगातार इस तरह कर रही थी मानो सारी दुनिया में इससे बड़ा संकट और कोई है ही नहीं ।

सलमान के खिलाफ ऐसा ही फतवा गये साल भी दिया गया था जिसे सलमान खान ने जूते की नोक पर दे मारा था । यह बात कोई और नहीं, खुद मौलाना अंजारिया ही बता रहे थे । हालत बिलकुल ‘सूने गाँव में मँगते की पुकार’ जैसी लग रही थी । यहाँ तो चिन्दी का थान बनाने वाली बात भी नहीं थी ।

किसने कहा था इनसे कि चैबीसों घण्टों चैनल चलाओ ? सपने ये देखते हैं और नींद खराब होती है बेचारे लोगों की

महा प्रलय के समाचार देख कर ही कम से कम तीन लोगों के मरने की खबर मेरे इलाके के अखबारों में छपी है । ऐसी खबरें न देखने और न प्रसारित करने की छूट का उपयोग ये जिस बेशर्मी से करते हैं उसे क्या कहा जाए ?

सच में, यह समाचार देख कर बड़ी निराशा हुई । अपने आप पर गुस्सा आया - मैं इन चैनलों का कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पा रहा हूँ ?

इनके खिलाफ भी फतवा देने वाला कोई हो तो बताइएगा ।

सत्ता, राजनीति और विश्‍वसनीयता

सत्ता और राजनीति अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोती हैं, इसकी छोटी सी बानगी गए दिनों मेरे शहर में देखने को मिली ।

एक सौ वर्ष से अधिक पुराने एक चर्च में रातों-रात आग लग गई । शीशम की लकड़ी की खूबसूरत मेहराबों , ऐतिहासिक महत्व वाला चर्च और यहाँ रखा रेकार्ड भस्म हो गया । जिस सवेरे यह अग्निकाण्ड हुआ, उसी दिन इस चर्च का स्थापना दिवस समारोह भी आयोजित था । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायक प्रदेश के गृह मन्त्री हैं । सो, हल्ला तो मचना ही था । इसाई समाज के लोग और उनके समर्थन में कुछ कांग्रेसी सड़कों पर उतर आए ।

पुलिस कुछ अतिरिक्त तेजी से हरकत में आई । उसने चर्च के चैकीदार को एकमात्र अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया । खुद पुलिस उपमहानिरीक्षक ने पत्रकार वार्ता में, चैकीदार की उपस्थिति में उसकी अपराध स्वीकारोक्ति की सूचना सहित विस्तृत विवरण दिया । पुलिस के अनुसार, चैकीदार को मात्र एक हजार रुपये वेतन मिलता था उसमें से भी 500 रुपयों की कटौती की जा रही थी जो नवम्बर में पूरी होने वाली थी और उसके बाद उसे नौकरी से निकाला जाना था । चौकीदार खुद रोमन कैथोलिक इसाई है जबकि चर्च प्रोटेस्टेण्ट इसाइयों का है । पुलिस के अनुसार, चर्च-प्रबन्धन को सबक सिखाने के लिए चौकीदार ने अग्निकाण्ड रचा । उसकी योजना तो बहुत छोटे, (सांकेतिक) अग्नि-काण्ड की थी, मात्र सबक सिखाने के लिए । लेकिन आग उसकी इच्छा और कल्पना से कही अधिक विकराल हो गई । पुलिस ने यह भी बताया कि चौकीदार ने स्थानीय इसाई समुदाय के लोगों के सामने भी अपना अपराध स्वीकार कर सचाई बताई । लेकिन पत्रकारों को चौकीदार से पूछताछ का अवसर और अनुमति नहीं दी गई

इसाई समुदाय पुलिस की इस कहानी से सहमत और सन्तुष्‍ट नहीं हुआ । उसने विशाल प्रदर्शन कर, प्रशासन को ज्ञापन सौंप कर मामले की निष्‍पक्ष जाँच की माँग की । इसाई समाज का कहना है कि यह अग्निकाण्ड सोची-समझी साजिश का परिणाम है और चौकीदार की आड़ में वास्तविक अपराधियों को छुपाया और बचाया जा रहा है । चौकीदार के परिजन भी पुलिस की कहानी को झूठी बता रहे हैं ।

पत्रकारों ने प्रदेश के गृहमन्त्री से जब ऐसी जाँच के बारे में पूछा तो उन्होंने इसे तत्क्षण ही नकार दिया । उनका कहना था कि पुलिस के निष्‍कर्ष ही सच और अन्तिम हैं और चौकीदार खुद, इसाई समाज के सामने अपराध स्वीकार कर चुका है इसलिए अब किसी जाँच की आवश्‍यकता नहीं रह गई है । गृह मन्त्री का कहना था कि पुलिस की बात को आँख मूँद कर स्वीकार कर ली जानी चाहिए

गृह मन्त्री की यह बात दूसरों के गले तो नहीं उतर रही लेकिन खुद संघ परिवार के गले भी नहीं उतर रही है । संघ परिवार के कई वरिष्‍ठ सदस्यों का कहना है कि इस अग्निकाण्ड से संघ परिवार का सचमुच में कोई सम्बन्ध नहीं है और पुलिस के निष्‍कर्ष ही अन्तिम सत्य हैं । ऐसे में, गृह मन्त्रीजी को किसी भी जाँच की माँग तत्काल स्वीकार कर लेनी चाहिए । इन वरिष्‍ठों का कहना था कि मामले में जितनी पारदर्शिता बरती जाएगी उतनी ही, सरकार की और पार्टी की प्रतिष्‍ठा तथा विश्‍वसनीयता स्थापित भी होगी तथा बढ़ेगी भी । इन लोगों को आश्‍चर्य (और आपत्ति भी) है कि गृह मन्त्री ने निष्‍पक्ष जाँच की माँग क्यों अस्वीकार कर दी । शायद खुद गृह मन्त्री को अपने विभाग की कार्रवाई पर विश्‍वास नहीं हो रहा है ।

पारदर्शिता से घबरा कर, तन्त्र और सत्ता अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोते हैं, यह इसकी छोटी सी बानगी है ।

अथ बीमा एजेण्ट कथा

यह पोस्ट दिनेशरायजी द्विवेदी को समर्पित है ।

बीमा प्रशिक्षण लेने के लिए दो सितम्बर को भोपाल के लिए निकलने से पहले ‘भोपाल में मिलिए’ शीर्षक मेरी पोस्ट पर द्विवेदीजी ने टिप्पणी की थी - ‘भोपाल यात्रा से हमारे लिए भी कुछ लेकर आएँ, इन्दौर की तरह ।’ यह पोस्ट उनकी इसी टिप्पणी से उपजी है ।


बीमा एजेण्टों को उनके नव व्यवसाय के आधार पर विभिन्न स्तर की क्लब सदस्यता उपलब्ध कराई जाती है । यह भारतीय जीवन बीमा निगम की आन्तरिक व्यवस्था है । अपनी क्लब सदस्यता बनाए रखने के लिए और इस सदस्यता के आधार पर मिलने वाले आर्थिक एवम् अन्य लाभों की प्राप्ति सुनिश्‍िचत करने के लिए हम एजेण्टों को तीन वर्ष में कम से कम एक बार ऐसे प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है । एजेन्सी के प्रारम्भिक काल में प्रत्येक एजेण्ट ऐसे प्रशिक्षण को अत्यधिक गम्भीरता से लेता है । लेकिन जैसे-जैसे एजेन्सी पुरानी होती जाती है, वैसे-वैसे एजेण्ट शालीग्राम’ होता जाता है और तब ऐसे प्रशिक्षणों को वह गम्भीरता से लेने के बजाय, तकनीकी खानापूर्ति की तरह, बहुत ही हलके से लेने लगता है । कई एजेण्ट तो इस मिथ्या दम्भ के शिकार हो जाते हैं कि उन्हें अब किसी भी प्रशिक्षण की आवश्‍यकता ही नहीं रह गई है । वे कहते पाए जाते हैं - ‘अब तो हम ट्रेनिंग दे सकते हैं ।’ ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती । वे यह भी भूल जाते हैं कि बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद उपजी गला काट प्रतियोगिता, निजी बीमा कम्पनियों की आक्रामक विपणन नीति और सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट वाले इस समय में प्रत्येक की जानकारी प्रति क्षण अधूरी ही हो गई है । इससे भी अधिक गम्भीर बात यह कि ऐसे प्रशिक्षणों की लाभदायक व्यावसायिक उपयोगिता और इस हेतु ‘निगम’ द्वारा किए जाने वाले भारी-भरकम उपक्रम के लिए किए गए सतत् और गम्भीर प्रयत्नों को भी वे भूल जाते हैं । चिन्ताजनक और घातक बात यह है कि ऐसी मानसिकता वाले एजेण्टों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है ।
सो, भोपाल के लिए चलते समय मुझे पल भर भी नहीं लगा था कि एक सार्वजनिक उपक्रम के नितान्त आन्तरिक आयोजन में कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसे सार्वजनिक किया जा सके और जो ‘सर्व जन हिताय’ भी हो । लेकिन द्विवेदीजी की टिप्पणी ने रतलाम से भोपाल तक की यात्रा के दौरान और उसके बाद तीन दिनों के प्रशिक्षण काल में मुझे बराबर सचेत रखा और मुझे आश्‍चर्य हुआ कि ऐसा काफी कुछ रहा जो न केवल एजेण्टों के लिए बल्कि एजेण्टों की दुनिया से बाहर के लिए भी ‘नोटिसेबल’ है ।
अनुशासन और समयबध्दता (पंक्चुलिटी) हमारे प्रशिक्षण केन्द्र की सर्वोच्च प्राथमिकता और चिन्ता होती है । लेकिन मैं ने देखा कि एजेण्ट इस दिशा में दिनोंदिन लापरवाह होते जा रहे हैं । इनमें भी वे लोग आगे हैं जो इस प्रशिक्षण केन्द्र में पहले भी एकाधिक बार प्रशिक्षण ले चुके हैं और यहाँ की परम्पराओं से भली प्रकार परिचित हैं । उनके मुकाबले नए एजेण्ट अधिक चिन्तित, अधिक गम्भीर तथा अधिक सावधान रहते हैं । ‘लेक्चर हाल’ में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं होता । लेकिन अनुशासन की अवहेलना करने वाले पुराने एजेण्ट, अग्रिम पंक्ति पर अपना ‘सहज अधिकार’ मानते हैं और तदनुसार ही आचरण भी करते हैं । जबकि देर से आने वालों को पीछे की कुर्सियाँ मिलनी चाहिए । निश्‍चय ही, यह नए एजेण्टों का सौजन्य और शालीनता के कारण ही सम्भव हो पाता है ।
व्याख्यान के दौरान एजेण्टों के लिए पान, सुपारी, गुटका जैसी चीजों का स्प’ट निशेध किया गया है । लेकिन मुझे यह देख कर आश्‍चर्य और दुख हुआ कि भाई लोग ‘उन्मुक्त-मन और अधिकार भाव’ से इनका सेवन करते हैं और इसी कारण, प्रश्‍नों के उत्तर देने से बचने की कोशिश करते हैं । व्यसन की अधीनता इस सीमा तक कि प्रशिक्षण का मूल लक्ष्य ही ताक पर रख दिया जाए ? मोबाइल आज अनिवार्यता बन गया है । हममें से अधिकांश के पास नवीनतम तकनीक वाले, मँहगे मोबाइल सेट थे लेकिन मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि ‘मोबाइल ”श्ष्‍िटाचार’ से हममें से शायद ही कोई परिचित रहा हो । हम मोबाइल तो रखते हैं लेकिन हमें मोबाइल रखना नहीं आता । हमें पढ़ाने वाले प्रत्येक संकाय सदस्य ने, प्रत्येक पीरीयड में सबसे पहले हमें, अपने-अपने मोबाइल बन्द करने के लिए या फिर उन्हें ‘सायलेण्ट मोड’ पर कर देने के लिए अनुरोध किया । लेकिन मुझे तीनों ही दिन, प्रत्येक पीरीयड में यह देख कर शर्म आती रही कि किसी न किसी का मोबाइल बज गया । याने, हमें मोबाइल श्ष्‍िटाचार का न तो ज्ञान है और न ही कहने के बाद भी हम यह ज्ञान स्वीकार करना चाहते हैं । यह स्थिति हमारे बेशर्म और गैर जिम्मेदार होने के अलावा और कुछ भी साबित नहीं करती । मैं इतने पर ही सन्तोष कर सकता हूँ कि मेरा मोबाइल एक बार भी नहीं बजा । लेकिन मेरे लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । मैं चाहता था कि किसी का मोबाइल न बजे । लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित था ।
यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन हम लोग ‘बेशर्मी’ से आगे बढ़कर ‘सीनाजोरी’ तक पहुँच गए । तय किया गया था कि प्रशिक्षण-व्याख्यान के दौरान जिसका मोबाइल बजेगा वह अगले दिन एक किलो तथा जो मोबाइल पर बात करेगा वह दो किलो मिठाई लाएगा । जाहिर है कि यह प्रावधान ऐसा ‘मीठा दण्ड’ था जो सबके लिए आनन्ददायक था । लेकिन मुझे यह लिखते हुए अत्यधिक पीड़ा हो रही है कि इस मामले में अधिकांश साथी ईमानदार साबित नहीं हुए । केवल एक, सरायपाली शाखा के श्री दीप सिंह प्रेम ने व्यक्तिगत ईमानदारी बरती और सबके लिए मिठाई लाए । बाकी तमाम ‘दोषी’ मित्र, एक दूसरे द्वारा पहले मिठाई लाने की बात कह कर, बड़ी ही ढिठाई से बच निकले । इन तमाम बातों ने मुझे चैंकाया तो जरूर लेकिन उससे अधिक मुझे निराश किया । मेरा मानना है कि हम यदि ‘अच्छा मनुष्‍य’ नहीं हो सकते तो ‘अच्छा व्यवसायी’ भी नहीं हो सकते । उपरोक्त सारी बातें पूरी तरह से व्यक्तिगत ईमानदारी से जुड़ी हुई हैं । हम सब ऐसे एजेण्ट थे जिनकी सालाना कमीशन आमदनी किसी भी दशा में पाँच-सात लाख रुपयों से कम नहीं है । लेकिन हम सौ-दो सौ रुपयों के लिए भी खुद से झूठ बोलते रहे । लेकिन यह संकट किसी एक वर्ग, समुदाय, कौम का नहीं है । जब तालाब का जल स्तर कम होता है तो समूची जल सतह समान रुप से नीचे उतरती है । हम एजेण्ट लोग भी इसी तालाब का हिस्सा हैं सो इस स्खलन से कैसे बच सकते हैं ? लेकिन मैं इस तर्क का हामी नहीं हूँ । हममें से प्रत्येक इसी (कु) तर्क का सहारा लेकर अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है । फिर, मैं तो बीमा एजेण्टों को सबसे अलग और सबसे ऊपर मानता हूँ । हमारा पेशा ‘नोबल प्राफेशन’ है । इसलिए हमारी जिम्मेदारी अन्यों के मुकाबले ‘तनिक अधिक’ नहीं, ‘बहुत अधिक’ है । हमें तो ‘श्रे’ठ आचरण’ प्रस्तुत करना पड़ेगा । ‘व्यक्तिगत आचरण’ ही अन्ततः ‘सामूहिक आचरण’ में बदलता है । यहाँ मैं न तो किसी अपवाद को स्वीकार कर पाता हूँ और न ही उसे चिह्नित कर पाता हूँ । इस मामले में मैं ‘अपवादों का साधारीकरण’ पसन्द करता हूँ । यह ‘दुःसाध्य’ हो सकता है लेकिन ‘असाध्य’ नहीं ।
एक और बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । प्रत्येक व्याख्यान के दौरान प्रश्‍न पूछने या जिज्ञासा प्रस्तुत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था । हममें से प्रत्येक चूँकि जानता था कि उसका ज्ञान अधूरा है या वह कोई हास्यास्पद प्रश्‍न न पूछ ले (जो कि व्यक्ति के आत्मविश्‍वासविहीन और हीनताबोध से ग्रस्त होने का ही परिचायक है) इसलिए प्रश्‍न पूछने वाले गिनती के ही सामने आए । मेरा अनुभव रहा है कि जिज्ञासा प्रस्तुत करने से ऐसे प्रशिक्षणों की उपयोगिता ‘गुणाकार’ में बढ़ती है । एक व्यक्ति सवाल पूछकर सबकी जानकारी बढ़ाता है । लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो अपने को अज्ञानी (और अज्ञानी नहीं तो अल्पज्ञानी तो) मानना पड़ता है । लेकिन वहाँ तो हम सब ‘ज्ञानी’ बनकर पेश आ रहे थे । यही हमारा सबसे बड़ा अज्ञान था ।
सो, जिस यात्रा को मैं मात्र खानापूर्ति मानकर घर से निकला था, उसे द्विवेदीजी ने मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर न केवल उपयोगी और लाभदायक बल्कि मेरे व्यक्तित्व विकास के लिए आजीवन स्मरणीय बना दिया । अब यदि मैं कुछ बेहतर बन पाया तो उसका उसमूचा श्रेय द्विवेदीजी को ही जाएगा ।
मेरी यह पोस्ट आपको अच्छी लगे तो द्विवेदीजी को धन्यवाद दीजिएगा और खराब लबे तो जमकर मेरी खबर लीजिएगा ।

मैं द्विवेदीजी का कृतज्ञ हूँ ।

भालेरावजी


यह कविता नहीं है । बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 3 से 5 सितम्बर तक, भारतीय जीवन बीमा निगम के, भोपाल स्थित मध्य क्षेत्रीय कार्यालय के प्रशिक्षण केन्द्र में था । वहाँ पदस्थ, संकाय सदस्य श्री एस. के. भालेरावजी को ‘वाकर’ के सहारे चलते हुए देख, उनसे जानना चाहा तो मालूम हुआ कि वे पक्षाघात से पीड़ित हो गए थे । नियमित चिकित्सा के अतिरिक्त उनकी प्रबल इच्छा शक्ति का प्रभाव रहा कि वे चिकित्‍सकों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक, बहुत अधिक जल्दी स्वस्थ होकर काम पर लौट आए । उन्होंने अत्यन्त आत्म विश्‍वास से कहा कि वे जल्दी ही ‘वाकर’ को मुक्त कर देंगे । उन्हें देख कर और उनसे बातें कर, मेरे मन में जो आया, वही सब ‘एक झटके में’ (सिंगल स्ट्रोक) कागज पर कुछ इस तरह उतर आया ।


भालेरावजी





‘सपने वे नहीं होते
जो आ जाते हैं
बिल्ली के पाँवों
हमारी नींद में ।
सपने तो वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते ।’
पढ़ा रहे थे हमें,
भालेरावजी ।


हुमक कर
घुटनों के बल दौड़कर
माँ की गोद की ओर
किलकारी मारता हुआ
लपकने वाला बच्चा
बन गए थे भोलरावजी
ब्रांच आफिस की
तेरह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ।


‘कैसे हो ?’
झबरीली मूँछों के बीच
मुस्कुराते हुए,
मेरे कन्धे पर
हौले से हाथ रख कर
पूछ रहे थे
चौपन साला भालेरावजी
बिना हाँफे ।



जंगल में
हवा को मात देते
दौड़ रहे खरगोश को
झपट्टा मारकर दबोच ले
अनन्त आकाश में
छुटटे सांड की तरह तैरता
धरती-भेदी आँखों वाला
शिकारी बाज ।
ऐसे ही आया था
अभ्यागत-लकवा,
भालेरावजी के पास ।


‘अभी नहीं, फिर कभी आना’
कह कर लौटाया नहीं,
अगवानी, आव-भगत की
अतिथि-देव की
आत्मीय ऊष्‍‍मा और ऊर्जा से
भालेरावजी ने ।


मेहमान है तो
मेहमान की तरह रहे
चार दिन बाद
मेहमान कैसा ?



उसके होते हुए
उसे न होने देने लगे
और न होने का अहसास
कराने लगे लकवे को
भालेरावजी,
उसकी खातिरदारी करते हुए ।


‘बच्चों को पढ़ाकर
आता हूँ थोड़ी देर में,
तब तक आप आराम करें’
कह कर,
वाकर के पाँवों चलकर
आ गए
भोलरावजी क्लास में ।



टुकुर-टुकुर ताकता
हक्का-बक्का हो
उन्हें देखता रह गया था
लस्त-पस्त
बाज के झपट्टे में
आ गया हो जैसे खुद लकवा ।



‘घर पर अकेले
बोर हो गए होंगे,
कल थोड़ा
बाहर टहल आईएगा ।
मेरा क्या है,
मैं तो चला जाऊँगा
यूँ ही घूमते फिरते,
छोड़ जाऊँगा
आपके लिए वाकर’
कह रहे थे
लकवे से भालेरावजी
शाम को लौटकर ।



जड़वत लकवे ने क्या सुना
उसकी वो जाने
मैं ने तो सुना
सपने तो
वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते
कह रहे थे
हमें पढ़ाते हुए
भालेरावजी ।

भोपाल में मिलिए

बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 2 सितम्बर की शाम को भोपाल पहुँचूँगा और 5 सितम्बर की शाम को रतलाम के लिए निकलूँगा । भोपाल में मेरा आवास, भारतीय जीवन बीमा निगम के क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र में ही रहेगा । यह केन्द्र, होशंगाबाद मार्ग पर स्थित गायत्री मन्दिर (एम. पी. नगर) के सामने, पेट्रोल पम्प के पास स्थित है । प्रशिक्षण प्रातः दस बजे से शाम साढ़े पाँच बजे तक चलेगा । इस बीच मेरा मोबाइल ‘सायलेण्ट मोड’ पर रहेगा - याने, यदि आपमें से कोई उपरोक्त समयावधि में मुझे फोन करेंगे तो वह मेरे मोबाइल में ‘मिस्ड काल’ में दर्ज हो जाएगा ।

यदि कोई ब्लागर बन्धु सम्पर्क करेंगे तो मुझे आत्मीय प्रसन्नता होगी ।

मेरा मोबाइल नम्बर है - 98270 61799

लोकतन्त्र का त्रासद कोलाज

तीन-सवा तीन लाख की आबादी वाले मेरे नगर रतलाम में, पिछले पखवाड़े, अलग-अलग समय और सन्दर्भों में हुई कुछ घटनाओं का ‘कोलाज’ अपनी सकलता में न केवल निराश करता है बल्कि यह सब सहजता से हो जाने और लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने पर चैंकाता भी है ।

स्वाधीनता दिवस पर आयोजित मुख्य शासकीय समारोह में तिरंगा फहराने का जिम्मा किसी जन प्रतिनिधि के बजाय कलेक्टर को (याने ‘गण’ के अनुचर ‘तन्त्र’ को) दिया गया । लोकतन्त्र की अवमानना का ऐसा निर्लज्ज उदाहरण रतलाम में यह पहला नहीं था । इससे पहले भी, ‘गण’ की उपेक्षा कर, कलेक्टर (‘तन्त्र’) को यह सम्मान दिया जा चुका है । पूर्णतः क्षुद्र और हीन राजनीतिक लक्ष्य पूर्ति के लिए यह घिनौनी हरकत की गई । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायकजी इन दिनों प्रदेश के मन्त्रि-मण्डल के सदस्य हैं जिन्हें प्रदेश में अन्यत्र ध्वजारोहण का जिम्मा दिया गया था । उनकी अनुपस्थिति में, सरकार को, भाजपा का ऐसा कोई निर्वाचित‘ उत्तरदायी जनप्रतिनिधि नजर नहीं आया जो ध्वजारोहण कर सके । इस पुनीत काम का अधिकार मिलता था जिला पंचायत के अध्यक्ष को जो प्रतिपक्ष (कांग्रेस) का है । भला अपनी सरकार में प्रतिपक्ष को ऐसा स्वर्णिम अवसर क्यों (और कैसे) दे दिया जाए ? सो, ‘लोक’ की अवहेलना, अवमानना कर, ‘तन्‍त्र' को यह सम्मान देने में किसी को तनिक भी हिचक नहीं हुई । रतलाम के कांग्रेसियों ने इसे लोकतन्त्र का मखौल और अपमान निरूपित करते हुए समारोह का ही बहिष्‍कार कर दिया । भाजपाइयों ने कांग्रेसियों के इस बहिष्‍कार को राष्‍ट्रीय अपमान कहा और बहिष्‍कार करने वाले तमाम कांग्रेसियों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । यह न केवल 'मूल क्रिया को क्षमा करो और प्रतिक्रया को दण्डित करो' का आग्रह था अपितु 'आक्रमण ही श्रेष्‍ठ बचाव है' वाली कहावत पर श्रेष्‍ठ अमल भी था ।

मेरे प्रदेश में जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने वाले हैं । शिवराजसिंह चैहान प्रदेश सरकार के मुखिया हैं । अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की पुनः सत्ता वापसी के लिए उन्होंने, गत एक वर्ष से लोक-लुभावन घोषणाओं की बाढ़ ला दी है । वर्ष 2003 में, भाजपा सरकार बनने के ठीक बाद से नागरिक और कर्मचारी भाजपा को अपने चुनावी वादे याद दिला कर उन्हें हकीकत में बदलने की माँग करते रहे हैं । लेकिन चार वर्षो तक कोई सुनवाई नहीं हुई । सुनवाई तो दूर की बात रही, चुनावी घोषणा पत्र के एक वादे को ‘छपाई की गलती’ कह कर नकार दिया गया और कुछ अन्य वादों को ‘घोषणा पत्र में कही गई हर बात पूरी की जाए, यह जरूरी नहीं’ जैसे सीनाजोर तर्क देकर मुँह फेर लिया गया । और तो और, शिक्षाकर्मियों, सम्विदा शिक्षकों को शिक्षकों की बराबरी देने का, घोषणा पत्र का वादा याद दिलाते हुए इन वर्गों के कर्मचारियों ने भोपाल में आन्दोलन किया तो उनकी निर्मम पिटाई की गई, अनेकों को जेल में डाल दिया गया और कई लोग, काफी दिनों बाद अपने घर पहुँच पाए । वही वादा, सराकर ने आखिरी वर्ष में पूरा कर दिया गया । ‘लोक कल्याण के सन्निपात से ग्रस्त’ सरकार को ये सारी बातें अपने पहले चार वर्षों में याद क्यों नहीं आई-इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ।

बहरहाल, अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की दुबारा वापसी के लिए, शिवराज सिंह चैहान 28 अगस्त से प्रदेश में ‘जन आशीर्वाद रथ यात्रा’ पर निकले और पहले ही दिन मेरे शहर आए । उन्हें रात आठ बजे पहुँच कर आम सभा को सम्बोधित करना था । जैसा कि ऐसी रथ यात्राओं के साथ होता है, चैहान की रथ यात्रा भी कोई पाँच घण्टे देरी से, रात डेड़ बजे पहुँची । उस समय भी भाजपा कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी भीड़ मौजूद थी । चैहान ने आम सभा को सम्बोधित किया ।

अगले ही दिन कांग्रेसी हरकत में आए । उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया जिसमें साफ-साफ कहा गया था कि ध्वनि विस्तारक यन्त्र का उपयोग रात दस बजे तक ही किया जा सकता है । इस आम सभा के लिए भाजपा ने, जिला प्रशासन से जो अनुमति ली थी, वह भी रात दस बजे तक की ही थी । कांग्रेस ने मुख्यमन्त्री की आमसभा को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना कहते हुए मुख्यमन्त्री सहित कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । पत्रकारों ने कलेक्टर से इस मामले में पूछताछ की तो कलेक्टर ने मासूमियत से जवाब दिया - मैं मामले को देखूँगा ।

ये घटनाएँ यूँ तो रोजमर्रा की सामान्य घटनाएँ हैं और देश में प्रतिदिन कहीं न कहीं होजी ही रहती हैं । कोई भी पार्टी हो, ऐसी हरकतें करने में कोई पीछे नहीं है । लेकिन इन सबको जोड़कर देखने पर हमारे लोकतन्त्र की दशा, दिशा और बेचारगी ही सामने आती है ।

निर्वाचित जन प्रतिनिधि को ध्वजारोहण करने से केवल इसलिए वंचित कर देना कि वह अपनी पार्टी का नहीं है और ऐसा अवसर देने से प्रतिपक्ष को राजनीतिक लाभ हो जाएगा - न केवल घटिया मानसिकता का द्योतक है बल्कि अपने आप में लोकतन्त्र विरोधी हरकत भी है । ऐसा करते समय यह तथ्य भुला दिया गया कि सरकार में जो भी पहुँचे हैं वे ‘लोकतन्त्र’ के कारण और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से ही पहुँचे हैं । क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए व्यापक राष्‍ट्रहित और लोकहित को परे रख देना किसी भी दशा में उचित नहीं हो सकता ।

इस मामले में कांग्रेसियों ने भी मूर्खता का जवाब मूर्खता से दिया । विरोध प्रकट करने के लिए कांग्रेस के पास श्रेष्‍ठ उपायों की शानदार विरासत है । लेकिन यह विरासत भुला दी गई । वे अपना विरोध प्रकट कर न केवल समारोह में बने रह सकते थे अपितु उन्हें बने रहना चाहिए था ।

लोकतन्त्र का निर्वहन इसके आचरण में निहित होता है । लेकिन आचरण की चिन्ता आज कहीं नजर नहीं आ रही । सबको अपना-अपना आचरण-धर्म निभाना चाहिए । राजा को ईमानदार होना तो चाहिए ही, उसे ईमानदार दिखना भी चाहिए । जाहिर है कि सत्ता में बैठने वाले को अतिरिक्त जिम्मेदार और लोकोपवाद के प्रति सतर्क होना चाहिए । ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि खुद शिवराज सिंह आम सभा को सम्बोधित करने से मना कर देते । वे प्रदेश सरकार के मुखिया हैं और चूंकि हम ‘आदर्श प्रेरित समाज’ हैं, इसलिए मुखियाओं को तो और अधिक सजग, सावधान रहना चाहिए । मुखिया ही यदि अपनी व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने लगे तो बाकी क्या रह जाएगा ? लेकिन उन्होंने तो इस बारे में क्षण भर को सोचा भी होगा - ऐसा बिलकुल ही नहीं लगा और अपनी ही सरकार के आदेश की सार्वजनिक अवहेलना करने का, चकित कर देने वाला लोकोपवाद कर बैठे ।

कलेक्टर का वक्तव्य न केवल सर्वाधिक चैंकाने वाला और निराशाजनक रहा बल्कि अत्यधिक आपत्तिजनक भी रहा । कलेक्टर जिला प्रशासन का मुखिया होता है । उसे तो राई-रत्ती की खबर होती है और होनी ही चाहिए । यदि उन्हें आँख की शरम बनाए रखनी ही थी अपने किसी अधीनस्थ से वह सब कहलवा देते जो उन्होंने ,खुद कह दिया - हालाँकि वह भी ‘लेम एक्स्क्यूज’ से कम या ज्यादा कुछ भी नहीं होता । फिर भी ‘तिनके की ओट’ तो बनी रह जाती ।

यह कैसे सम्भव है कि आधी रात में हजारों लोगों की मौजूदगी में और सैंकड़ों सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की उपस्थिति में हुआ जलसा कलेक्टर की जानकारी में न रहा हो ? जिस कार्यक्रम के समाचार तमाम अखबार मुखपृष्‍ठ पर छापें और स्थानीय समाचार चैनलें लगातार प्रसारित करें, उस आयोजन के लिए कलेक्टर को कहना पड़े कि वे मामले को देखेंगे तो उनके कलेक्टर होने पर ही सवाल उठ जाते हैं। ‘तन्त्र’ के राजनीतीकरण का और उसके लाचार, पंगु, रीढ़विहीन हो जाने का यह त्रासद उदाहरण है ।

लेकिन मुझे जो बात परेशान करती है वह है - इन सारी बातों पर लोगों की उदासीनता भरी चुप्पी । ऐसी चुप्पी मानो इन सारी बातों से किसी का कोई लेना-देना ही नहीं रह गया हो । किसी को इस सबसे कहीं कोई फर्क ही नहीं पड़ता हो । यह स्थिति और आचरण ‘घातक’ नहीं, ‘आत्म घाती’ है ।

क्या यह उदासीनता और चुप्पी सहज-स्वाभाविक है ? यकीनन आम नागरिक असंगठित और दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में भीषण रुप से व्यस्त है । लेकिन क्या सबके सब ? नागरिकों के किसी भी वर्ग के पास इस सबकी ओर देखने की फुर्सत और जरुरत ही नहीं रह गई है ? जो भी बोला, अपने-अपने राजनीतिक कारणों, स्वार्थों से बोला ।

विधायिका, न्याय पालिका, कार्य पालिका और पत्रकारिता यदि लोकतन्त्र के स्तम्भ हैं तो ‘लोक’ तो इन सबकी वह ‘जमीन’ है जिस पर ये स्तम्भ खड़े हैं । इस जमीन को अपने होने न होने की और अपने साथ हो रहे की कोई चिन्ता ही नहीं रह गई है ?

लोकतन्त्र का यह कैसा ‘कोलाज’ है ?

बापू कथा में मेरी कथा‘












श्री धर्मेन्‍‍द्र रावल













श्री रवि शर्मा














श्री तरण सिंह













तनु रावल

कथा’ को लगातार पांच दिनों तक सुनना मेरे जीवन के, गिनती के अच्छे कामों में से एक है । लेकिन उस कथा को अपने ब्लाग के जरिए सार्वजनिक करना, मेरे अच्छे कामों (यदि मैं ने वाकई में अच्छे काम किए हों तो) की सूची में प्रथम क्रम का काम है इससे भी आगे बढ़कर कहूं, यह गिनती के उन कामों में श्रेष्‍‍ठ है जिनसे मुझे आत्म सन्तोष्‍ा मिला ।
लेकिन यह ऐसा काम रहा जिसे करने का न तो कोई पूर्व विचार मेरे मन में आया था और न ही इसकी कोई योजना मैं ने बनाई थी । सब कुछ, अचानक, अनायास और सर्वथा अनियोजित होता गया । मैं यही कह सकता हूं कि यह काम मुझसे करवाया गया । किसने करवाया ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है । यही कह सकता हूं कि ईश्‍वर चाहता था कि मैं यह काम मैं करुं ।

9 अगस्त की पूर्वाह्न जब मैं रतलाम से चला तो अपना लेपटाप और ‘की बोर्ड’ साथ में रख लिया । पता नहीं क्यों । मैं ‘रेग्यूलर टाइपिस्ट’ या कि ‘ब्लाइण्ड टाइपिस्ट’ नहीं हूं । मैं ने ‘की बोर्ड’ पर हिन्दी के स्टीकर चिपका रखे हैं और अक्षर देख-देख कर टाइप करता हूं ।

बापू कथा की पहली शाम को अपने झोले में एक ‘राइटिंग पैड’ रख लिया-यह सोचकर कि कोई महत्वपूर्ण, रोचक, उद्धरणीय बात सुनने को मिलेगी तो लिख लूंगा-मेरे बीमा व्यवसाय में काम आएगी । मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा और तरण सिंह से पहले ही सब कुछ खरी-पक्की हो गई थी । तीनों ही समय पर मेरे होटल पहुंच गए । लेकिन निकलते-निकलते हमें देर हो ही गई । रवि ने वाहन-सुख उपलब्ध कराया ।
हम लोग कोई आधा घण्टा देर से पहुंचे । नारायण भाई का व्याख्यान गति पकड़ चुका था । मैं ने राइटिंग पैड खोला और लिखना शुरु किया । थोड़ी ही देर में मैं ने पाया कि मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, कोई भी बात ऐसी नहीं लग रही थी जिसे न लिखा जा सके ।

साढ़े आठ बजे, कथा समाप्ति के बाद, निकलते-निकलते और फिर भोजन करते-करते दस बज गए । भोजन के दौरान ही मुझे लगा कि आज का व्याख्यान ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए । यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि अगला विचार आया - एक दिन का व्याख्यान ही क्यों ? पाचों दिन का व्याख्यान क्यों नहीं ? बस, उसी क्षण, ‘बापू कथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत करने का निर्णय हो गया । लेकिन इण्टरनेट की व्यवस्था कहां से हो ? धर्मेन्द्र ने बताया कि उनके घर पर ब्राड बेण्ड कनेक्‍शन है । तय हुआ कि सवेरे, जल्दी ही मैं धर्मेन्द्र के घर पहुंचूंगा और वहीं से अपनी पोस्ट कर दूंगा । लेकिन धर्मेन्द्र का निवास मेरे होटल से पूरे सात किलो मीटर दूर था । एक दिन की बात हो तो आटो रिक्‍शा कर लूं लेकिन पूरे पांच दिन ? तरण सिंह ने तत्काल समाधान कर दिया - उन्होंने अपनी मोटर सायकिल मुझे सौंप दी - पूरे पांच दिनों के लिए ।

होटल आते ही मैं ने अपने ताम-झाम खोल कर पोस्ट लिखनी शुरु की । काम चलाऊ टाइपिस्ट के लिए इतनी लम्बी पोस्ट लिखना यकीनन बहुत ही कठिन काम होता है । रात को जब पोस्ट फायनल की तो पौने तीन बज रहे थे । उत्साह और उमंग में न तो समय का पता चला, न ही थकान आई ।सवेरे कोई आठ बजे ही मैं, सुदामा नगर में, धर्मेन्द्र के निवास पर था । वहां अपना तामझाम जमाया, नेट कनेक्‍शन का तार लेपटाप में लगाया, रविजी (श्री रवि रतलामी) द्वारा उपलब्ध कराए गए कन्वर्टर से पोस्ट को कृति से यूनीकोड में बदला । इस सबमें कोई डेड़ घण्टा लग गया ।

लेकिन मुश्किल तब आई जब देखा कि ‘नेट’ न तो इण्टरनेट एक्स्प्लोरर पर खुल रहा था न ही मोझिल्ला पर । हर बार ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आ रहा था जबकि टर्मीनल बराबर लगा हुआ था । मेरे हाथ-पांव फूल गए । लगा कि मनोकामना पूरी नहीं हो पाएगी । तकनीक की जानकारी न तो मुझे और न ही धर्मेन्द्र को । दोनों बराबरी के नासमझ । ऐसे में तनु ‘संकट मोचन’ बन कर सामने आई । तनु याने धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया जो हम सबके सर पर सवार रहती है । बोलती ऐसे है मानो बोलने के पैसे लगते हों । उसकी बात सुनने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ता है । उसने इलेक्ट्रानिक्स एण्ड टेलीकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है । हम दोनों की दशा देख कर वह हंसती-हंसती दोहरी हो गई । हम अहमकों की तरह उसका मुंह देखें और वह हंसे जाए । उसने बताया कि जिस मोडम से ‘नेट’ सेवाएं ली जानी है, जब तक वह मेरे ‘सिस्टम’ में ‘इंस्टाल’ नहीं होगा तब तक ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आता रहेगा । ईश्वर चाहता था कि ‘बापू कथा’ आप तक पहुंचे इसीलिए, जो मोडम धर्मेन्द्र के यहां था उसकी सीडी तनु के पास थी । उसने कुछ ही मिनिटों में मोडम मेरे सिस्टम पर इंस्टाल कर दिया और मैं ‘बापू कथा’ की पहली पोस्ट कर पाया ।

अगले तीन दिनों तक भी यही क्रम चला । मैं रोज रात को तीन बजे तक पोस्ट टाइप करता, सवेरे सात किलोमीटर चल कर धर्मेन्द्र के घर जाता, पोस्ट को कृति से यूनीकोड में कन्वर्ट कर, पोस्टिंग करता ।

इस बीच, 13 अगस्त को मानो चमत्कार ही हुआ । अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया । उधर से पूछा गया - ‘क्या मैं विष्णुजी बैरागी से बात कर रहा हूं ?’ मेरे हां कहने पर उधर से आवाज आई - ‘मैं वाराणसी से अफलातून बोल रहा हूं ।’ मेरे रोंगेटे खड़े हो गए । एक दिन पहले ही मुझे अफलातूनजी के बारे में जानकारी मिली थी कि वे नारायण भाई के बेटे हैं । मुझे लगा था कि ‘अफलातून’ कोई ‘निक नेम’ होगा । सो, उसी शाम मैं ने नारायण भाई से पूछा था - ‘अफलातूनजी का वास्तविक नाम क्या है ?’ उन्होंने मुझे तीखी नजरों से घूरते हुए कहा था - ‘अफलातून वास्तविक नाम ही है । आपको कम लगे तो आगे देसाई जोड़ दो ।’ वे ही अफलातून मुझसे बात कर रहे थे ! उन्होंने पहले तो प्रशंसा की फिर थोड़ी पूछताछ की और जब टाइपिंग वाले मामले में मेरी दरिद्रता जानी तो चकित होकर अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । लेकिन उन्होंने एक बात कह कर मुझे निहाल कर दिया । उन्होंने कहा कि जय प्रकाश नारायण की सभाओं की रिपोर्टिंग नारायण भाई, बिना किसी के कहे किया करते थे । मेरी रिपोर्टिंग से उन्हें नारायण भाई की वही रिपोर्टिंग याद हो आई । मैं जानता हूं कि अफलातूनजी ने अतिशय सौजन्य, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए अपात्र की अत्यधिक प्रशंसा की लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी प्रशंसा ने मुझे बौरा दिया ।

लेकिन पांचवें दिन (13 अगस्त) का व्याख्यान मैं 14 अगस्त को पोस्ट नहीं कर पाया । होटल की जिस कुर्सी पर बैठ कर पांच-पांच घण्टे ठाइप करता, वह कुर्सी तनिक भी आरामदायक नहीं थी । सो मेरी पीठ अकड़ गई, काया कष्‍ट में आ गई और छठवीं सवेरे मैं ‘टें’ बोल गया । मेरा क्रम बाधित हो गया । 14 अगस्त की शाम मैं रतलाम पहुंचा और उसी दिन ‘बापू कथा: कृपया समय दें’ वाली सूचना पोस्ट की । पूरे तीन दिन कष्ट बना रहा । इस बीच तमाम कृपालुओं की शुभ-कामनाएं मिलती रहीं । उन्हीं का प्रताप रहा कि 17 अगस्त को कथा की पांचवी शाम पोस्ट कर पाया ।

यह काम कर मुझे अपूर्व आत्म-सन्तोष मिला । नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर मैं जीवन के प्रत्येक पक्ष में लाभान्वित हुआ । इन्दौर में अनेक पुराने मित्रों-परिचितों से सम्पर्क का नवीकरण तो हुआ ही लेकिन सबसे बड़ी बात रही - नारायण भाई के दर्शन कर, उनसे बात करना । उसके बाद महत्वूर्ण प्राप्ति रही - अफलातूनजी से व्यक्तिगत सम्पर्क होना । स्थापित ब्लागर महानुभावों ने अत्यधिक उदारता से मेरी पीठ थपथपाई मैं तो निहाल हो गया ।

लेकिन इस सबका असल श्रेय तो धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा, तरण सिंह और तनु को जाता है । इन चारों ने मेरे लिए संरजाम जुटाए और मैं यह सब कर पाया ।जो काम करने का विचार भी मेरे मन में कोसों तक कहीं नहीं था, उस काम का निमित्त मैं बना ।

यह ईश्‍वर की कृपा ही रही कि मुझे ‘गांधी की चाकरी’ करने का सुख-सौभाग्य मिला ।

ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले ।

बापू कथा में मेरी कथा‘












श्री धर्मेन्‍‍द्र रावल

































श्रीद रवि शर्मा






































श्री तरण सिंह



बापू कथा’ को लगातार पांच दिनों तक सुनना मेरे जीवन के, गिनती के अच्छे कामों में से एक है । लेकिन उस कथा को अपने ब्लाग के जरिए सार्वजनिक करना, मेरे अच्छे कामों (यदि मैं ने वाकई में अच्छे काम किए हों तो) की सूची में प्रथम क्रम का काम है इससे भी आगे बढ़कर कहूं, यह गिनती के उन कामों में श्रेष्‍‍ठ है जिनसे मुझे आत्म सन्तोष्‍ा मिला ।
लेकिन यह ऐसा काम रहा जिसे करने का न तो कोई पूर्व विचार मेरे मन में आया था और न ही इसकी कोई योजना मैं ने बनाई थी । सब कुछ, अचानक, अनायास और सर्वथा अनियोजित होता गया । मैं यही कह सकता हूं कि यह काम मुझसे करवाया गया । किसने करवाया ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है । यही कह सकता हूं कि ईश्‍वर चाहता था कि मैं यह काम मैं करुं ।







9 अगस्त की पूर्वाह्न जब मैं रतलाम से चला तो अपना लेपटाप और ‘की बोर्ड’ साथ में रख लिया । पता नहीं क्यों । मैं ‘रेग्यूलर टाइपिस्ट’ या कि ‘ब्लाइण्ड टाइपिस्ट’ नहीं हूं । मैं ने ‘की बोर्ड’ पर हिन्दी के स्टीकर चिपका रखे हैं और अक्षर देख-देख कर टाइप करता हूं ।

बापू कथा की पहली शाम को अपने झोले में एक ‘राइटिंग पैड’ रख लिया-यह सोचकर कि कोई महत्वपूर्ण, रोचक, उद्धरणीय बात सुनने को मिलेगी तो लिख लूंगा-मेरे बीमा व्यवसाय में काम आएगी । मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा और तरण सिंह से पहले ही सब कुछ खरी-पक्की हो गई थी । तीनों ही समय पर मेरे होटल पहुंच गए । लेकिन निकलते-निकलते हमें देर हो ही गई । रवि ने वाहन-सुख उपलब्ध कराया ।







हम लोग कोई आधा घण्टा देर से पहुंचे । नारायण भाई का व्याख्यान गति पकड़ चुका था । मैं ने राइटिंग पैड खोला और लिखना शुरु किया । थोड़ी ही देर में मैं ने पाया कि मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, कोई भी बात ऐसी नहीं लग रही थी जिसे न लिखा जा सके ।








साढ़े आठ बजे, कथा समाप्ति के बाद, निकलते-निकलते और फिर भोजन करते-करते दस बज गए । भोजन के दौरान ही मुझे लगा कि आज का व्याख्यान ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए । यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि अगला विचार आया - एक दिन का व्याख्यान ही क्यों ? पाचों दिन का व्याख्यान क्यों नहीं ? बस, उसी क्षण, ‘बापू कथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत करने का निर्णय हो गया । लेकिन इण्टरनेट की व्यवस्था कहां से हो ? धर्मेन्द्र ने बताया कि उनके घर पर ब्राड बेण्ड कनेक्‍शन है । तय हुआ कि सवेरे, जल्दी ही मैं धर्मेन्द्र के घर पहुंचूंगा और वहीं से अपनी पोस्ट कर दूंगा । लेकिन धर्मेन्द्र का निवास मेरे होटल से पूरे सात किलो मीटर दूर था । एक दिन की बात हो तो आटो रिक्‍शा कर लूं लेकिन पूरे पांच दिन ? तरण सिंह ने तत्काल समाधान कर दिया - उन्होंने अपनी मोटर सायकिल मुझे सौंप दी - पूरे पांच दिनों के लिए ।








होटल आते ही मैं ने अपने ताम-झाम खोल कर पोस्ट लिखनी शुरु की । काम चलाऊ टाइपिस्ट के लिए इतनी लम्बी पोस्ट लिखना यकीनन बहुत ही कठिन काम होता है । रात को जब पोस्ट फायनल की तो पौने तीन बज रहे थे । उत्साह और उमंग में न तो समय का पता चला, न ही थकान आई ।सवेरे कोई आठ बजे ही मैं, सुदामा नगर में, धर्मेन्द्र के निवास पर था । वहां अपना तामझाम जमाया, नेट कनेक्‍शन का तार लेपटाप में लगाया, रविजी (श्री रवि रतलामी) द्वारा उपलब्ध कराए गए कन्वर्टर से पोस्ट को कृति से यूनीकोड में बदला । इस सबमें कोई डेड़ घण्टा लग गया ।








लेकिन मुश्किल तब आई जब देखा कि ‘नेट’ न तो इण्टरनेट एक्स्प्लोरर पर खुल रहा था न ही मोझिल्ला पर । हर बार ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आ रहा था जबकि टर्मीनल बराबर लगा हुआ था । मेरे हाथ-पांव फूल गए । लगा कि मनोकामना पूरी नहीं हो पाएगी । तकनीक की जानकारी न तो मुझे और न ही धर्मेन्द्र को । दोनों बराबरी के नासमझ । ऐसे में तनु ‘संकट मोचन’ बन कर सामने आई । तनु याने धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया जो हम सबके सर पर सवार रहती है । बोलती ऐसे है मानो बोलने के पैसे लगते हों । उसकी बात सुनने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ता है । उसने इलेक्ट्रानिक्स एण्ड टेलीकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है । हम दोनों की दशा देख कर वह हंसती-हंसती दोहरी हो गई । हम अहमकों की तरह उसका मुंह देखें और वह हंसे जाए । उसने बताया कि जिस मोडम से ‘नेट’ सेवाएं ली जानी है, जब तक वह मेरे ‘सिस्टम’ में ‘इंस्टाल’ नहीं होगा तब तक ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आता रहेगा । ईश्वर चाहता था कि ‘बापू कथा’ आप तक पहुंचे इसीलिए, जो मोडम धर्मेन्द्र के यहां था उसकी सीडी तनु के पास थी । उसने कुछ ही मिनिटों में मोडम मेरे सिस्टम पर इंस्टाल कर दिया और मैं ‘बापू कथा’ की पहली पोस्ट कर पाया ।








अगले तीन दिनों तक भी यही क्रम चला । मैं रोज रात को तीन बजे तक पोस्ट टाइप करता, सवेरे सात किलोमीटर चल कर धर्मेन्द्र के घर जाता, पोस्ट को कृति से यूनीकोड में कन्वर्ट कर, पोस्टिंग करता ।








इस बीच, 13 अगस्त को मानो चमत्कार ही हुआ । अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया । उधर से पूछा गया - ‘क्या मैं विष्णुजी बैरागी से बात कर रहा हूं ?’ मेरे हां कहने पर उधर से आवाज आई - ‘मैं वाराणसी से अफलातून बोल रहा हूं ।’ मेरे रोंगेटे खड़े हो गए । एक दिन पहले ही मुझे अफलातूनजी के बारे में जानकारी मिली थी कि वे नारायण भाई के बेटे हैं । मुझे लगा था कि ‘अफलातून’ कोई ‘निक नेम’ होगा । सो, उसी शाम मैं ने नारायण भाई से पूछा था - ‘अफलातूनजी का वास्तविक नाम क्या है ?’ उन्होंने मुझे तीखी नजरों से घूरते हुए कहा था - ‘अफलातून वास्तविक नाम ही है । आपको कम लगे तो आगे देसाई जोड़ दो ।’ वे ही अफलातून मुझसे बात कर रहे थे ! उन्होंने पहले तो प्रशंसा की फिर थोड़ी पूछताछ की और जब टाइपिंग वाले मामले में मेरी दरिद्रता जानी तो चकित होकर अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । लेकिन उन्होंने एक बात कह कर मुझे निहाल कर दिया । उन्होंने कहा कि जय प्रकाश नारायण की सभाओं की रिपोर्टिंग नारायण भाई, बिना किसी के कहे किया करते थे । मेरी रिपोर्टिंग से उन्हें नारायण भाई की वही रिपोर्टिंग याद हो आई । मैं जानता हूं कि अफलातूनजी ने अतिशय सौजन्य, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए अपात्र की अत्यधिक प्रशंसा की लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी प्रशंसा ने मुझे बौरा दिया ।








लेकिन पांचवें दिन (13 अगस्त) का व्याख्यान मैं 14 अगस्त को पोस्ट नहीं कर पाया । होटल की जिस कुर्सी पर बैठ कर पांच-पांच घण्टे ठाइप करता, वह कुर्सी तनिक भी आरामदायक नहीं थी । सो मेरी पीठ अकड़ गई, काया कष्‍ट में आ गई और छठवीं सवेरे मैं ‘टें’ बोल गया । मेरा क्रम बाधित हो गया । 14 अगस्त की शाम मैं रतलाम पहुंचा और उसी दिन ‘बापू कथा: कृपया समय दें’ वाली सूचना पोस्ट की । पूरे तीन दिन कष्ट बना रहा । इस बीच तमाम कृपालुओं की शुभ-कामनाएं मिलती रहीं । उन्हीं का प्रताप रहा कि 17 अगस्त को कथा की पांचवी शाम पोस्ट कर पाया ।








यह काम कर मुझे अपूर्व आत्म-सन्तोष मिला । नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर मैं जीवन के प्रत्येक पक्ष में लाभान्वित हुआ । इन्दौर में अनेक पुराने मित्रों-परिचितों से सम्पर्क का नवीकरण तो हुआ ही लेकिन सबसे बड़ी बात रही - नारायण भाई के दर्शन कर, उनसे बात करना । उसके बाद महत्वूर्ण प्राप्ति रही - अफलातूनजी से व्यक्तिगत सम्पर्क होना । स्थापित ब्लागर महानुभावों ने अत्यधिक उदारता से मेरी पीठ थपथपाई मैं तो निहाल हो गया ।








लेकिन इस सबका असल श्रेय तो धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा, तरण सिंह और तनु को जाता है । इन चारों ने मेरे लिए संरजाम जुटाए और मैं यह सब कर पाया ।जो काम करने का विचार भी मेरे मन में कोसों तक कहीं नहीं था, उस काम का निमित्त मैं बना ।








यह ईश्‍वर की कृपा ही रही कि मुझे ‘गांधी की चाकरी’ करने का सुख-सौभाग्य मिला ।








ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले ।

दिलीप कुमार से पूछा - आप कौन ?


देश के खेल मन्त्री, एम. एस. गिल, देश के एक खेल रत्न और भारतीय बेडमिण्टन टीम के कोच गोपीचन्द पुलेला को नहीं पहचान पाए ।


बीजिंग ओलम्पिक में हिस्सा लेने के बाद लौटी यह टीम जब खेल मन्त्री से मिलने पहुंची तो गिल साहब ने, टीम की सदस्य सायना नेहवाल को तो पहचान लिया लेकिन उनके साथ खड़े गोपीचन्द पुलेला से पूछ लिया - आप कौन ? लोगों को हैरानी हुई लेकिन खुद पुलेला को बुरा नहीं लगा ! उन्होंने इस बात को बहुत ही सहजता से लिया । कोई खिलाड़ी ही इतना सहज हो सकता है ।

मुझे दो प्रसंग याद आ गए । पहला प्रसंग बाबू घनश्याम दासजी बिड़ला और ‘त्रासदी सम्राट’ दिलीप कुमार को लेकर है ।

दोनों एक ही विमान में, एक्जिक्यूटिव क्लास में यात्रा कर रहे थे । बिड़लाजी अपने कागज-पत्तर खोल कर अपने काम-काज में लग गए । दिलीप कुमार के पास कोई काम नहीं था । वे बिड़लाजी को काम करते देखते रहे । कुछ ही क्षणों में दिलीप कुमार असहज हो गए । उन्हें लगा कि सहयात्री जानबूझ कर उनकी अनदेखी कर रहा है । सो, उन्होंने आगे रहकर अपना परिचय दिया - ‘मैं, दिलीप कुमार ।’ बिड़लाजी ने भी शिष्टाचार निर्वहन करते हुए अपना परिचय दिया - ‘मैं, घनश्याम दास बिड़ला । आपसे मिलकर अच्छा लगा ।’ कह कर वे फिर अपने कागज-पत्तर पलटने लगे ।


दिलीप कुमार और अधिक असहज हो गए । उन्हें बिलकुल ही अच्छा नहीं लगा । तहजीब, शराफत, नफासत पसन्द दिलीप साहब ने एक बार फिर अपने बारे में बताया । बिड़लाजी ने मुस्कुरा कर कहा - ‘हां, अभी ही तो आपने अपना परिचय दिया है ।’ दिलीप साहब ने कहा -‘हां, लेकिन लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं ।’ बिड़लाजी ने तनिक संकोच से कहा -‘आपने बिलकुल ठीक कहा । मैं ने वाकई में आपको नहीं पहचाना । आप क्या करते हैं ?’


यह सवाल सुन कर ‘त्रासदी सम्राट’ को कैसा लगा होगा, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है । लेकिन उन्हें इतना समझ आ गया कि बिड़लाजी वास्तव में उन्हें नहीं पहचानते । उन्होंने कहा - ‘मैं फिल्म कलाकार हूं ।’ अब बिड़लाजी और अधिक संकोचग्रस्त हो गए । इस बार तनिक अधिक विनम्रता से, तनिक झिझकते हुए बोले -‘माफ कीजिएगा । मैं फिल्में नहीं देख पाता ।’ दिलीप साहब को इस बार बिलकुल ही बुरा नहीं लगा । बिड़लाजी की दशा, मनोदशा और वास्तविकता का भान उन्हें भली प्रकार हो गया और उस सफर में उन्हें फिर कोई मानसिक असुविधा नहीं हुई ।


दूसरा किस्सा मध्यप्रदेश के तत्कालीन (अब दिवंगत) मुख्य मन्त्री, लौह पुरुष पण्डित द्वारका प्रसादजी मिश्र का है । सागर के विधायक डालचन्दीजी जैन उनके मन्त्रि मण्डल के सदस्य थे । उन दिनों, मन्त्रियों को अपने मुख्य मन्त्री की चापलूसी नहीं करनी पड़ती थी और अपनी कुर्सी बचाए-बनाए रखने के लिए चैबीसों घण्टे मुख्यमन्त्री के आसपास नहीं बना रहना पड़ता था ।


अपने विधान सभा क्षेत्र की कुछ समस्याओं का निदान कराने के लिए डालचन्दजी जैन, अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि मण्डल के साथ मिश्रजी से मिलने पहुंचे । मिश्रजी ने सबको आदर-सम्मान से बैठाया, आव-भगत की और सबका परिचय प्राप्त किया । डालचन्दजी ने अपना नाम बताया तो मिश्रजी बोले -‘क्या संयोग है ! आपके नाम के ही एक सज्जन हमारे मन्त्रि मण्डल के सदस्य हैं ।’ प्रतिनिधि मण्डल के तमाम सदस्य हैरत से कभी डालचन्दजी को तो कभी मिश्रजी को देखने लगे । डालचन्दजी की स्थिति विचित्र हो गई । लेकिन मिश्रजी का स्वभाव डालचन्दजी और उनके साथ आए प्रतिनिधि मण्डल के तमाम सदस्य भली प्रकार जानते थे । डालचन्दजी ने कहा -‘वह मैं ही हूं ।’ इस बार मिश्रजी के असहज होने की बारी थी । मिश्रजी ‘माफ करना भाई ।’ के सिवाय और कुछ नहीं कह पाए ।

ऐसे में, बेडमिण्टन जैसे, लगभग महत्वहीन खेल की राष्ट्रीय टीम के कोच को यदि देश का नया-नया खेल मन्त्री न पहचान पाया हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं ।

खादी और लोक विश्वास


इस आख्यान को ‘खादी जन्म कथा’ का उपसंहार कहा जा सकता है । खादी की जन्म कथा सुनाने के ठीक बाद, नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को ही यह कथा सुनाई थी ।

बम्बई के एस्पलेनेड (जिसे अब शायद आजाद मैदान कहा जाता है) में गांधीजी की सभा चल रही थी । मैदान भरा हुआ था और लोगों का आना-जाना बना हुआ था ।


भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया । उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - आप मुझे बुला रही हैं ? महिला ने इशारे से उत्तर दिया - हां, आप को ही ।


असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुंचे और फिर पूछा - आप मुझे ही बुला रही थीं ? महिला ने कहा - हां, आपको ही तो बुला रही थी । सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा । उत्तर में महिला ने अपने हाथों की, रुमाल में बंधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - इसमें मेरी सोने की चूड़ियां और कानों की झुमकियां हैं । उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे उसकी यह पोटली उसके घर पहुंचा दें ।

सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा । उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन सज्जन को । ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं । महिला ने कहा - क्यों कि मैं जानती हूं कि आप ये गहने मेरे घर पहुंचा देंगे । सज्जन ने पूछा - आप मुझे नहीं जानती फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं ? उन्होंने पूछा - आपके घर पहुंचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊं तो ? महिला ने कहा - आप ऐसा नहीं करेंगे । सज्जन ने पूछा - क्यों नहीं करुंगा ? महिला बोली - नहीं, आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे । सज्जन को और आश्चर्य हुआ । पूछा - क्यों नहीं ले जाऊंगा ?

महिला बोली - आप ऐसा कर ही नहीं सकते ?

अब सज्जन को आनन्द आने लगा था । पूछा - आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता ?


महिला बहुत ही सहजता से बोली - आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।


नारायण भाई ने जैसे ही किस्सा पूरा किया, सभागार तालियों से गूंज उठा । हर कोई ताली बजा रहा था, सिवाय कुछ खादीधारियों के, जो सबसे पहली कतार में, नारायण भाई के ठीक सामने बैठे थे ।

खादी और लोक विश्वास


इस आख्यान को ‘खादी जन्म कथा’ का उपसंहार कहा जा सकता है । खादी की जन्म कथा सुनाने के ठीक बाद, नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को ही यह कथा सुनाई थी ।

बम्बई के एस्पलेनेड (जिसे अब शायद आजाद मैदान कहा जाता है) में गांधीजी की सभा चल रही थी । मैदान भरा हुआ था और लोगों का आना-जाना बना हुआ था ।


भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया । उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - आप मुझे बुला रही हैं ? महिला ने इशारे से उत्तर दिया - हां, आप को ही ।


असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुंचे और फिर पूछा - आप मुझे ही बुला रही थीं ? महिला ने कहा - हां, आपको ही तो बुला रही थी । सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा । उत्तर में महिला ने अपने हाथों की, रुमाल में बंधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - इसमें मेरी सोने की चूड़ियां और कानों की झुमकियां हैं । उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे उसकी यह पोटली उसके घर पहुंचा दें ।

सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा । उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन सज्जन को । ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं । महिला ने कहा - क्यों कि मैं जानती हूं कि आप ये गहने मेरे घर पहुंचा देंगे । सज्जन ने पूछा - आप मुझे नहीं जानती फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं ? उन्होंने पूछा - आपके घर पहुंचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊं तो ? महिला ने कहा - आप ऐसा नहीं करेंगे । सज्जन ने पूछा - क्यों नहीं करुंगा ? महिला बोली - नहीं, आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे । सज्जन को और आश्चर्य हुआ । पूछा - क्यों नहीं ले जाऊंगा ?

महिला बोली - आप ऐसा कर ही नहीं सकते ?

अब सज्जन को आनन्द आने लगा था । पूछा - आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता ?


महिला बहुत ही सहजता से बोली - आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।


नारायण भाई ने जैसे ही किस्सा पूरा किया, सभागार तालियों से गूंज उठा । हर कोई ताली बजा रहा था, सिवाय कुछ खादीधारियों के, जो सबसे पहली कतार में, नारायण भाई के ठीक सामने बैठे थे ।

खादी का जन्म

‘बापू कथा’ के तीसरे दिन, 11 अगस्त 2008 को, कथा के अन्तिम सोपान में नारायण भाई देसाई ने ‘खादी-जन्म’ की यह कथा सुनाई थी ।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के परामर्श के अनुसार, देश को जानने के लिए गांधी, भारत यात्रा पर निकले हुए थे । इस अभियान के सबसे लम्बे प्रवास, पूर्वी उत्तर प्रदेश से दक्षिण भारत के दौरान यह प्रसंग उपस्थित हुआ ।
गांधीजी आन्ध्र प्रदेश में थे । ‘बा’ साथ ही थीं । गांधी से मिलने के लिए लोग आ जाते थे और ‘बा’ बस्ती में घूम कर महिलाओं से मिलती थीं । इसी दौरान ‘बा’ को ऐसा मकान मिला जिसमें तीन महिलाएं रह रही थीं लेकिन वे बाहर, बहुत ही कम आती-जाती थीं । दुभाषिये की मदद से ‘बा’ ने उनसे पूछा - तुम्हें पता है, तुम्हारी बस्ती में गांधीजी आए हुए हैं ? तीनों महिलाओं ने ‘हां’ में सर हिलाया । ‘बा’ ने पूछा - तुम उनसे मिलने गई हो ? महिलाओं ने इंकार कर दिया । ‘बा’ ने पूछा - तुम्हें आने से कोई रोकता है ? महिलाओं ने कहा - कोई नहीं रोकता । ‘बा’ ने पूछा - तो फिर घर का काम बहुत ज्यादा होता होगा । महिलाओं ने बताया कि उनके पास कोई काम नहीं है । अब ‘बा’ को तनिक आ”चर्य हुआ । उन्होंने पूछा - फिर आती क्यों नहीं ? तीनों महिलाएं चुप रहीं । ‘बा’ ने अपना सवाल एक बार, दो बार, तीन बार, फिर बार-बार पूछा लेकिन महिलाओं ने एक बार भी कोई जवाब नहीं दिया - सिर नीचा किए चुप ही बनी रहीं । ‘बा’ ने जोर देकर कारण पूछा तो साहस कर एक महिला ने बताया कि वे कैसे आएं - उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है । एक पहन कर बाहर जाती है, बाकी दो घर में ही रहती हैं । ‘बा’ हक्की-बक्की रह गईं ।
शाम को ‘बा’ ने यह किस्सा गांधीजी को सुनाया तो वे असहज हो गए । बोले कुछ भी नहीं । उस समय मद्रास के लिए निकलने की तैयारी हो रही थी ।
मद्रास में भी गांधी की दिनचर्या शुरु तो हुई लेकिन गांधी असहज ही बने हुए थे । शाम को जब गांधी लोगों के बीच आए तो उनका पहनावा बदल गया था । अब तक वे काठियावाड़ी पोषाख पहनते थे - घेरदार अंगरखा, बड़ा-मोटा पग्गड़ और लम्बी धोती । लेकिन आज गांधी ने वह पोषाख छोड़ दी थी । उनके शरीर पर केवल एक धोती थी, वह भी घुटनों तक की और शेष शरीर निर्वस्त्र था । गांधी, कमर से ऊपर पूरी तरह निर्वस्त्र थे । लोगों में हचलच मच गई ।
लोग पूछते उससे पहले ही गांधी ने, आन्ध्र पदेश की घटना सुनाई और कहा कि वे तत्काल और कर ही क्या सकते थे । उन्होंने जितने कपड़े पहन रखे थे उतने कपड़ों से चार लोगों का शरीर ढांका जा सकता था । सो, उन्होंने अनावश्यक वस्त्रों का त्याग कर दिया ।

इसके बाद उन्होंने कहा - मैं ‘उन’ लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूं । आप लोग मदद करेंगे ? लोगों ने ‘हां’ कहा । तब गांधी बोले - ‘लेकिन उन्हें दीन नहीं बनाना है ।’ उन्होंने कहा कि वे ऐसा कोई तरीका चाहते हैं जिसमें लेने वाला दीन और देने वाला उद्दण्ड न बने । गरीब की गरीबी का असम्मान न हो ।
दरिद्र-नारायण के आत्मसम्मान की रक्षा के इसी विचार ने खादी को जन्म दिया । तय हुआ कि लोगों को कपड़े तो दिए जाएंगे लेकिन उनसे सूत कतवाया जाएगा जिससे कपड़ा बुनवाए जाएगा । यह प्रक्रिया तय होते ही अनायास ही खादी की पहचान और परिभाषा तय हो गई - हाथ कती, हाथ बुनी ।
कहा जा सकता है कि खादी का मायका दक्षिण भारत में है । शायद इसीलिए, खादी के प्रति रुझान और खादी के उपक्रम उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हैं ।
(गांधी ने इसीलिए सदैव ही खादी के लिए ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’ वाली बात कही । बाद में यही खादी कांग्रेस की पहचान बनी । खादी की अनगढ़ता और खुरदरापन कांग्रेसियों को असुविधाजनक लगता था । शायद इसीलिए गांधी कहा करते थे - ‘खादी को ऐसे प्यार करो जैसे कोई मां अपनी कुरूप सन्तान को करती है ।)

बापू कथा: पांचवीं (समापन) शाम (13 अगस्त 2008)


जिन्ना से मतभेद

पाकिस्तान निर्माण और भारत विभाजन को लेकर बापू और जिन्ना में पहले ही क्षण से मतभेद थे । लेकिन उससे भी पहले दोनों में वैचारिक मतभेद था । जिन्ना कहते थे - मैं संम्विधान के रास्ते को मानता हूं जबकि बापू के सत्याग्रह में संम्विधान कहीं नहीं था, उनका, सत्याग्रह का अपना संम्विधान था ।लेकिन कौंसिल मीटींग में जिन्ना ने यू टर्न ले लिया । उन्होंने कहा - अब हम संम्विधान नहीं मानेंगे । अंग्रेजों के पास काफी हथियार हैं, कांग्रेस के पास सत्याग्रह का शस्त्र है । हमारे पास पिस्तौल है, हम उसका उपयोग करेंगे । पत्रकारों ने पिस्तौल का उपयोग करने की बात का खुलासा चाहा तो जिन्ना कन्नी काट गए । जिन्ना के व्यवहार से पत्रकारों ने अनुमान लगा लिया कि पिस्तौल वाली बात पूछने पर सीधा जवाब नहीं मिलेगा । सो उन्होंने लीग के सचिव लियाकत अली खान से ‘आप कौन सा रास्ता अख्तियार करेंगे’ वाला सवाल पूछा तो उन्होंने कहा - ‘डायरेक्ट एक्‍शन।’ पत्रकारों ने इसका विस्तार जानना चाहा तो लियाकत अली ने कहा - ‘एवरीथिंग एक्स्ट्रा कांस्टीट्यूशन ।’ बंगाल के नजीमुद्दीन ने कहा - ‘ ‘हमारे लिए अहिंसा कोई मर्यादा नहीं है ।’ और अन्तिम स्वर उभरा - ‘खून की नदियां बहाए बिना पाकिस्तान नहीं मिलेगा ।’

अगले ही दिन, 16 अगस्त 1946 को यह वाक्य हकीकत में बदल गया । हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो गया । मार काट मच गई । पहले दिन हिन्दू ज्यादा मारे गए तो अगले दिन उनसे दो-ढाई गुना मुसलमान मारे गए । कलकत्ता की सड़कों पर आवाजें गूंजने लगीं - कलकत्ता का बदला लेना होगा । तब के प्रमुख अंगे्रजी अखबार ‘स्टेट्समेन’ ने समाचार का शीर्षक दिया - द ग्रेट कलकत्ता किलिंग ।

नारायण भाई ने कहा - बदला लगातार बढ़ता रहता है और बदला ही पैदा करता है । बदले की निष्‍फलता और दारुण परिणाम मनुष्‍य समाज अनुभव तो कर रहा है पर सीखता कुछ भी नहीं । आवश्‍यकता इस बात की है कि मनुष्‍य जाति का प्रत्येक अंश संकल्प ले कि कम से कम मैं बदले की भावना से कोई कृत्य नहीं करुंगा तो ही माना जा सकेगा कि इतिहास ने मानवता को जो सबक सिखाया है वह हमने ग्रहण किया है ।

नोआखली की आग ने बढ़ते-बढ़ते पूरे उत्तर भारत को चपेट में ले लिया । बकौल नारायण भाई, नोआखली की न्यूनतम क्रूरता थी - हत्या । शेष जो कुछ भी हुआ वह हत्या से भी अधिक क्रूर था । एक, 10-12 साल की लड़की के सामने उसके बाप का सिर धड़ से अलग करना हत्या से भी बुरी चीज होती है और ऐसा वहां खुलकर हुआ ।


बापू नोआखली में

नारायण भाई ने बंगाल की भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बताया कि नदियों की बहुलता के कारण वहां का मुख्य लोक वाहन ‘नाव’ थी । गंगा और ब्रह्मपुत्र का संगम, पद्या नदी को जन्म देता है । इसका पाट 20 मील (30 किलोमीटर से अधिक) चौड़ा है । स्टीमर की छत से देखने पर दूर किनारों पर खड़े पेड़ों की फुनगियां भी अत्यन्त छोटी दिखाई देती हैं । मेघना वहां की दूसरी बड़ी नदी है । इन नदियों पर बने पुलों के दोनो छोरों पर कड़ी चैकसी की जाती थी - कोई भी आसानी से आ-जा नहीं सकता । इसी कारण नोआखली की घटना की जानकारी दिल्ली में कोई आठ-नौ दिन बाद पहुंची । बापू दिल्ली में ही थे । बोले - मेरा स्थान दिल्ली नहीं, नोआखली है । वे चल दिए किन्तु नोआखली जाने से पहले तयशुदा कार्यक्रमानुसार कलकत्ता रुके ।

तब बंगाल में मुस्लिम लीग का मन्त्रिमण्डल था और सुहरावर्दी मुख्यमन्त्री थे । वे खुद को गर्वपूर्वक ‘गांधी का बेटा’ कहते थे । बापू के कलकत्ता पहुंचने से पहले ही सुहरावर्दी आम सभा में सोलह अगस्त की घटनाओं की जिम्मेदारी ले चुके थे । बापू ने सुहरावर्दी से नोआखली चलने को कहा । वे तो नहीं गए लेकिन अपने संसदीय सचिव तथा कुछ दूसरे लोगों को बापू के साथ भेजा ।नोआखली जाने के लिए चांदपुर में उतरना पड़ता था । बापू जहाज से जैसे ही वहां उतरे तो विभिन्न समुदायों और सम्प्रदायों के लोग, अलग-अलग उनसे मिलने आए । नारायण भाई ने तनिक विराम लिया और गहरी सांस लेकर कहा - तब बापू को नोआखली में वे ही बातें सुनने को मिलीं जो 2002 में गुजरात में सुनने को मिली थीं । सबने कहा कि बंगाल विरोधी लोगों ने बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है और अखबारों ने भी यही किया है । यहां हिंसा हुई ही नहीं और यदि हुई भी है तो नाम मात्र की । बापू ने कहा - यदि तुम्हारी बातें सच हैं तो चांदपुर में 50 हजार शरणार्थियों का शिविर क्यों लगा हुआ है ? किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । सबका झूठ बापू ने न केवल पकड़ लिया था बल्कि जग जाहिर भी कर दिया था । झेंपते हुए उन लोगों ने कहा - हम तो उन्हें अपने गांवों में वापस बुलाना चाहते हैं लेकिन उन्हें विश्‍वास नहीं है सो वे आने को तैयार नहीं हैं । बापू ने कहा - कोई बात नहीं, वे नहीं आते हैं तो मैं आऊंगा और तुम्हारे साथ रहूंगा । उन लोगों ने बापू से आग्रह किया कि सेना की तादाद बढ़ा दी जाए जिसमें उनके सम्प्रदाय के सैनिक ज्यादा हों । बापू ने कहा -यह मांग कर आप अपने मन में छुपी साम्प्रदायिकता ही जाहिर कर रहे हैं ।


हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड


नारायण भाई ने अत्यन्त मार्मिक प्रसंग से बापू की इस यात्रा का वर्णन प्रारम्भ किया । उन्होंने कहा - और बापू विभिन्न समुदायों के उन लोगों के साथ चल पड़े । उनके साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा । वह कभी साथ-साथ चलता, कभी आगे तो कभी पीछे । लोगों ने सोचा कि बापू को इससे असुविधा हो रही होगी सो उन्होंन कुत्ते को हड़काया । लेकिन कुत्ता भागा नहीं, उसी तरह कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ-साथ चलता रहा । लोग जब उसे हड़काने लगे तो बापू ने उन्हें रोका और बोले - यह कुत्ता शायद कुछ कहना चाहता है इसीलिए हमारे साथ-साथ चल रहा है । इसे भगाओ मत । कहकर बापू उस कुत्ते के पीछे-पीछे चलने लगे । बापू को ऐसा करते देख कुत्ता फिर न तो साथ-साथ चला और न ही पीछे, वह आगे ही चलता रहा और एक गांव में जाकर एक स्थान पर अपने पंजों से जमीन खोदने लगा । वहां से नर कंकाल निकले । मालूम हुआ - उस कुत्ते के स्वामी-कुटुम्ब के सारे सदस्यों को मार कर दफना दिया गया था । ये नर कंकाल उसी कुटुम्ब के लोगों के थे । बापू ने कहा - ‘आदमी से ज्यादा, कुत्ता वफादार है ।’ नारायण भाई ने कहा - यह प्रकरण ‘हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड’ था ।


अभय मन्त्र की अपूर्व व्याख्या

नोआखली में बापू ने दो मन्त्र दिए । पहला - जिन पर जुल्म हुए हैं वे निर्भय होकर निर्भयता से रहें । इसे बापू ने ‘अभय मन्त्र’ कहा । दूसरा - जिन्होंने हमला किया है वे धर्म का सही अर्थ सीखें क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म निर्दोषों को मारना नहीं सिखाता । ‘अभय का अर्थ - जो किसी से नहीं डरे’ वाली व्याख्या को बापू ने आधी व्याख्या बताई और शेष आधी व्याख्या बताई - जिससे कोई डरता न हो ।’ इस प्रकार ‘अभय’ की व्याख्या हुई - जो न तो किसी से डरता हो और जिससे कोई भी नहीं डरता हो । अर्थात् न डरो, न डराओ ।’ अपने साथियों से बापू ने कहा - इन दोनों मन्त्रों का प्रचार करो । पहले तो बापू ने सबको अकेले ही घूमने को कहा लेकिन उनके ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ मन ने भाषा-अवरोध का अनुमान कर दो-दो की टोलियां बना दीं - एक बापू का सिपाही, दूसरा दुभाषिया । बापू की टोली में तीन लोग रहे ।

पहले ही दिन से बापू ने बांग्ला भाषा सीखना प्रारम्भ कर दिया । जिन लोगों की सेवा करनी है उन्हीं की भाषा में बात करने का भाव उनके मन में सदैव बना रहा । यहीं किसी ने उनसे ‘सन्देश’ मांगा था तो बापू ने अपना पहला सन्दश बांग्ला में दिया - ‘आमार जीवन, आमार वाणी ।’

बापू के अनुयायियों ने बापू के दोनों मन्त्रों का प्रचार अपनी-अपनी व्याख्याओं से कैसे किया - इसके कुछ रोचक उदाहरण नारायण भाई ने सविस्तार सुनाए ।

प्यारेलालजी ने कहा - मैं केवल अभय मन्त्र की ही बात करूंगा । वे ऐसे गांव में गए जहां के सारे हिन्दू या तो मारे गए थे या गांव छोड़ कर भाग गए थे । उनके निवास को लोग ‘प्यारेलाल का आश्रम’ कहते थे । उस आश्रम में रहने को 12 साल की एक ऐसी लड़की आई जिसके परिवार के सब लोग मारे जा चुके थे । प्यारेलालजी ने कहा - जो अभय प्रतिज्ञा लेगा, वही यहां रहेगा । लड़की ने हां कर ली । प्यारेलालजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए उसे एक पत्र दिया और पास के एक गांव का नाम बताते हुए कहा कि वहां रह रही उनकी सुशीला बहन को वह पत्र देकर उसका जवाब ले आए । लड़की ने कहा - मैं अकेली कैसे जाऊं ? प्यारेलालजी ने कहा - अभी तो तुमने अभय प्रतिज्ञा ली है । लड़की बोली - ‘अरे ! इसका मतलब यह है ?’ और वह जोर से ‘हरि ओऽम्’ बोलती हुई, जहां सूरज की रोशनी भी न पहुंचे ऐसे घने जंगलों में बनी पगडण्डी पर दौड़ गई । वह जवाब लेकर लौटी तो प्यारेलालजी ने कहा - अब तुम मेरे साथ रह सकती हो ।

गांव छोड़ कर भागे कुछ लोग एक अपराह्न प्यारेलालजी से मिलने आए । वे अपने गांवों में लौटने के लिए सुविधाओं की मांग कर रहे थे । बातें करते-करते रात घिर आई । लौटने के लिए उन्होंने सहयात्री (एस्कार्ट) की मांग की । प्यारेलालजी ने उस 12 साल की लड़की को आगे कर दिया । सब लोग झेंप गए और बिना सहयात्री के लौट गए ।

यह था लोगों को अभय मन्त्र सिखाने का, प्यारेलालजी का तरीका ।

नारायण भाई ने जो अगला प्रसंग सुनाया उसने समस्त श्रोताओं की आंखें पनीलीं कर दीं ।

सुशीला बहन डाक्टर थीं । उन्होंने इसी के माध्यम से गांधी मन्त्रों का प्रचार करने का निश्‍चय किया । दंगो के कारण नोआखली के सारे डाक्टर प्राण बचाकर भाग गए थे । सुशीला बहन ने अस्पताल शुरु किया । अपने साथ किए दुभाषिए लड़के को प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण दिया । लेकिन लड़का होशियार था । जल्दी ही कम्पाउण्डर का काम करने लगा । डाक्टर भले ही गांव छोड़ गए लेकिन बीमार और बीमारियां तो गांव में थीं । सो, अस्पताल खुलने की खबर सुनकर लोग आने लगे । एक दिन ऐसा व्यक्ति आया जिसके पैर में चोट लगी हुई थी लेकिन ईलाज न मिलने के कारण सड़ने की दशा में आ गया था । वह पीड़ा से चिल्ला रहा था । आते ही उसने ईलाज की मांग की और सारे जमाने को गालियां दे-दे कर भला-बुरा कहने लगा । सुशीला बहन ने उस लड़के से कहा - ‘देखो तो जरा’ । लड़के ने घाव को धायो-पोंछा, सुशीला बहन ने देखा कि स्थिति गम्भीर तो अवश्‍य थी लेकिन गेंगरिन तक नहीं पहुंची थी । उन्होंने मरहम पट्टी की । यह प्रक्रिया चलते-चलते आदमी को पीड़ा में कमी अनुभव हुई और वह सुशीला बहन और उनके सहायक लड़के को दुआएं, आशीर्वाद देने लगा । सुशीला बहन ने पूछा - ‘जिस लड़के ने आपकी डे्रसिंग की है, उसे पहचानते हो ?’ आदमी ने इंकार करते हुए - ‘वह तो आपका साथी है ।’ सुशीला बहन ने कहा जरा देखो तो सही, शायद पहचान जाओ ।’ आदमी ने ध्यान से लड़के को देखा और कहा - ‘चेहरा देखा हुआ लगता तो है ।’ सुशीला बहन ने कहा - ‘जिस परिवार के सब लोगों की हत्या तुमने की है, यह लड़का उसी परिवार का है । हत्या वाले दिन यह बाहर था इसलिए बच गया ।’

तीसरा प्रकरण नारायण भाई ने बीबी अमतुल सलाम का सुनाया । इस मुसलमान महिला का वजन कभी भी 35 किलोग्राम से अधिक नहीं रहा था । लेकिन काया से जितनी दुबली, आत्मा से उतनी ही मजबूत । उन्होंनें कहा - ‘जिस गांव में शान्ति है वहां नहीं रहूंगी । वहां मेरी क्या जरूरत ?’ सो उन्होंने अशान्त गांव चुना । गांव में एक देवी मन्दिर था । बीबी ने पाया कि दंगों के दौरान उस मन्दिर से देवी के तीन खड़ग चोरी हो गए हैं । निश्‍चय ही किसी ने दंगों में उनका ‘सदुपयोग’ किया होगा । लेकिन बिना खड़ग के तो देवी की कल्पना ही नहीं की जा सकती । सो, बीबी ने घोषणा कर दी कि जब तक देवी के तीनों खड़ग वापस नहीं लाए जाते तब तक अन्न-जल नहीं लूंगी । बीबी के इस कदम की खबर प्यारेलालजी को भेजी गई । उन्होंने बापू को खबर दी । बापू ने कहा - ‘‘ मैं उपवास का ‘एक्सपर्ट’ हूं इसलिए बीबी को निर्जला उपवास की इजाजत नहीं देता हूं । तीसरे दिन से बीबी ने जल ग्रहण शुरु कर दिया । बीबी के अनशन को 24 दिन हो गए । दो खड़ग तो आ गए, तीसरा नहीं आया । अन्ततः बापू वहां पहुंचे । आसपास के 10 गांवों के लोग जुटे । सबने उन गांवों में अशान्ति न होने देने और शान्ति बनाए रखने की जिम्मेदारी ली और ऐसा ही वचन दिया । बापू ने बीबी को समझाया कि उनके उपवास का लक्ष्य तो पूरा हो गया है सो इसी में समाधान कर उपवास त्याग दो । और बीबी अमतुल सलाम ने बापू के हाथों फल का रस पीकर उपवास समाप्त किया ।

नारायण भाई ने कहा - अपनी तितिक्षा के जरिए शान्ति बनाने का यह प्रयास, गांधी मन्त्रों के प्रचार का, अमतुल सलाम बीबी का अपना तरीका था ।


एक गांव ऐसा था जहां बापू को सुनना तो दूर, मिलने भी कोई नहीं आया । जब कनु भाई गांधी ने बच्चों के साथ गेंद खेलना शुरु किया जिसमें सभी समुदायों के बच्चे आते थे । इन बच्चों का खेल देखने के लिए गांव के लोग भी आने लगे । तब बापू ने कहा खेल में धर्म आड़े नहीं आता तो जीवन में कैसे आड़े आ सकता है ।


शान्ति स्थापना के लिए अपने आसपास, लोक जीवन में बिखरे उपकरणों को उपयोग कैसे किया जा सकता है - यह कनु भाई गांधी ने समझाया ।

शुचिता कृपलानी (इन्हें हम सब सुचेता कृपलानी के नाम से जानते हैं लेकिन नारायण भाई ने ‘शुचिता’ ही उच्चारित किया) बांग्ला भाशी थीं । उन्होंने कहा कि वे गांव-गांव घमू कर, लोगों की भाषा में सम्वाद कर ज्यादा काम कर सकती हैं सो उन्होंने किसी एक गांव में रुकने से इंकार कर दिया ।

इस प्रकार, बापू के शान्ति सैनिकों ने अपनी-अपनी सूझ से बापू के मन्त्रों का प्रचार और शान्ति कायम करने का काम किया ।

नारायण भाई ने कहा - यहीं बापू ने नंगे पैर रहने का संकल्प लिया था । बापू ने कहा - शान्ति स्थापना से कठिन काम मैं ने आज तक नहीं देखा । शान्ति स्थापना की यात्रा तो निरन्तर चलने वाली यात्रा है और यात्रा तो नंगे पांवों की जाती है । सो अबसे मैं नंगे पांवों ही रहूंगा ।

नोआखली में बापू की यात्राओं में बार-बार और निरन्तर व्यवधान किए गए । एक यात्रा में मनु बहन (बापू के चचेरे भतीजे की पुत्री) बापू के आगे-आगे चल रही थी । उन्होंने देखा कि रास्तें में गोबर और मानव-मल पड़ा हुआ है । मनु बहन ने बापू को आगे जाने से सावधान किया । बापू ने सन की सींको की झाड़ू बनाकर सफाई शुरु कर दी । आसपास के खेतों-घरों में खड़े लोगों को पता था कि गन्दगी किसने फैलाई है । बापू को सफाई करते देख वे भी शामिल हो गए । बापू ने लोगों से कहा - जो भी यहां हुआ है वह धर्म के अनुसार नहीं हुआ है । जो हुआ वह अधर्म है । और यात्रा की अनवरतता निरन्तर हो गई ।

बापू को एक पत्र मिला - आप नोआखली में उपवास कीजिए । आपके उपवास का असर होता है, हमारे उपवास का नहीं । बापू मन ही मन हंसे । उपवास करना न करना व्यक्तिगत निर्णय का विषय होता है, परामर्श का नहीं । उन्होंने जवाब भेजा - मैं किसी की सलाह से उपवास नहीं करता । जहां, जैसा जरुरी लगेगा, वैसा करूंगा ।

‘ लेकिन’, नारायण भाई ने कहा -‘बापू तो अपने दैनन्दिन जीवन में उपवास ही कर रहे थे । वे 600 केलोरी प्रतिदिन ग्रहण कर रहे थे और प्रतिदिन 16 घण्टे काम कर रहे थे । सामान्य-स्वस्थ बने रहने के लिए आदमी को 1800 केलोरी चाहिए होती है । जो पहले से ही उपवास पर चल रहा हो उसे उपवास की सलाह देने को क्या कहा जाए !’

नोआखली में बापू को खबर मिली कि बिहार में दंगे हो रहे हैं । ये दंगे नोआखली से अधिक भयानक थे । नोआखली के दो जिलों में दंगे हुए थे और बिहार के 6 जिलों में दंगे हो रहे थे । उन्होंने राजेन्द्र प्रसादजी को पत्र लिखा - ‘अन्न छोड़ रहा हूं । यदि शान्ति नहीं हुई तो अनशन शुरु कर दूंगा ।’ राजेन्द्र प्रसादजी ने इस पत्र की प्रतिलिपियां बड़ी संख्या में, दंगाग्रस्त जिलों में बंटवाईं । जादू जैसा असर हुआ । 24 घण्टों में ही दंगे बन्द हो गए ।


भारत विभाजन और गांधी

(क्या कोई एक घण्टे में डेड़ घण्टे बोल सकता है । नहीं । लेकिन आज नारायण भाई एक घण्टे में डेड़ घण्टा बोले । कथा के इस खण्ड को प्रस्तुत करने में आज नारायण भाई ने मुझे तो मुश्‍िकल में डाला ही, मुझे जैसे तमाम लोगों को भी मुश्‍िकल में डाला होगा । इस खण्ड में वे बहुत ही तेजी से बोले । सांस लेने की अनिवार्यता को छोड़ दें तो कह सकता हूं कि वे अविराम बोले । ऐसा लगता रहा मानो वे एक ही क्षण में ‘सब कुछ’ बताने को व्यग्र हैं ।

नारायण भाई ने इस प्रकरण को तारीखवार सिलसिले से प्रस्तुत किया । लेकिन जहां-जहां अन्तर्कथा आई या कोई अन्य सन्दर्भ आया, वहां-वहां उन्होंने वह भी सविस्तार सुनाया । उस अन्तर्कथा के समाप्त होते ही वे वापस मूल बिन्दु पर आ जाते । सभागार में बैठकर सुनने में यह जितना सरल लगता है, उतना ही अधिक कठिन उसे लिखना होता है । सुनने में क्रम भंग अनुभव नहीं होता लेकिन पढ़ने में क्रम भंग (और रस भंग) होता है । यह अपरिहार्य है । मेरे लिए यह सम्भव नहीं है कि मैं मूल मुद्दे को पहले लिखूं और बाद में फुट नोट की तरह उन अन्तर्कथाओं या सन्दर्भ कथाओं को लिखूं । लिहाजा मैं सारी बातों को उसी क्रम में प्रस्तुत करने की कोशश कर रहा हूं जिस क्रम में नारायण भाई ने कहा । मैं अपनी ओर से कोई घालमेल करने से बचूंगा - जैसा कि मैं अपनी एक पोस्ट में कह चुका हूं । एक बात और । नारायण भाई ‘वेदव्यास’ की तरह बोले लेकिन मैं ‘गणेश’ की तरह नहीं लिख पाया । सो, कुछ न कुछ अन्यथा होने की आशंका मुझे बनी हुई है । कुछ तो मैं नोट कर पाया और काफी-कुछ नहीं । लिहाजा, अपने नोट्स और मेरी दिन-प्रति-दिन क्षीण होती जा रही स्मृति के आधार पर ही आगे लिख रहा हूं । यदि कोई अपराध होता नजर आए तो उसे ‘सदाशयता से, अनजाने में हुआ अपराध’ समझ कर मुझे क्षमा किया जाए - यह मेरी करबद्ध याचना है ।)

बापू बिहार में थे । उन्हें वाइस राय लार्ड माउण्टबेटन का सन्देश मिला - दिल्ली आकर मिलिए । बापू दिल्ली पहुंचे । इस बार उन्हें दिल्ली लम्बे अरसे तक रुकना पड़ा । दिल्ली उन दिनों ‘भारत को आजादी कैसे मिले’ इस विषय की चर्चा स्थली बनी हुई थी । माउण्ट बेटन ब्रिटिश राज परिवार के सदस्य थे और ब्रिटिश फौज में ऊंचे ओहदों पर काम कर चुके थे । इसलिए वे, सबसे तनिक हटकर और बेहतर थे । खुद माउण्ट बेटन भी ऐसा न केवल मानते थे बल्कि इस कारण अतिरिक्त सावधान भी रहते थे और यह सब जताते भी रहते थे । भारत आते समय ब्रिटेन की साम्राज्ञी, प्रधान मन्त्री और नेता प्रतिपक्ष ने उन्हें ‘मेण्डेट’ देकर भेजा था कि वे जून 1948 तक भारत से अंगे्रजी राज की वापसी करा ही दें । उन्हें साफ-साफ बता दिया गया था कि इस वापसी के लिए यदि भारत का विभाजन भी करना पड़े तो हिचकें नहीं । द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद अंगे्रज सरकार खोखली हो गई थी साम्राज्य समेटना ही लाभदायक था । माउण्ट बेटन ने इस वास्तविकता को और आगे बढ़कर अनुभव किया कि भारत से अंग्रेजों की वापसी जितनी जल्दी होगी उतना ही अच्छा होगा । सो, वे इस मामले में अधिक आतुर और प्रयत्नशील थे । इसके साथ ही साथ उन्हें यह भी सुनिश्‍िचत करना था कि भारत, राष्‍ट्रकुल में बना रहे ताकि भारत की इस उपस्थिति का लाभ ब्रिटेन को निरन्तर मिलता रहे । लेकिन अंग्रेज सरकार की नौकरशाही के कई बड़े अधिकारी इस वापसी के खिलाफ थे ।

माउण्ट बेटन ने जल्दी ही अनुभव कर लिया था कि भारत विभाजन को टाला नहीं जा सकता । एक पक्ष पहले से ही इस विभाजन की मांग कर रहा था, यह उनके लिए तनिक सुविधाजनक था । ऐसे लोग मुट्ठी भर ही थे लेकिन थे तो सही । लेकिन लगभग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस, विभाजन का विरोध कर रही थी । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और गम्भीर बात यह थी कि गांधी को तो विभाजन सपने में भी मंजूर नहीं था । लेकिन माउण्ट बेटन को इससे अधिक चिन्ता इस बात की थी कि यदि गृह युद्ध छिड़ गया तो उससे निपटने की तैयारी कांग्रेस के पास नहीं थी । विभाजन के बिना भारत की आजादी की सम्भावना जब क्षीणतम रह गई और माउण्ट बेटन को जब यह विश्‍वास हो गया कि गांधी विभाजन को स्वीकार नहीं ही करेंगे तो (जैसा कि उन्होंने, भारत वापसी के बाद, लन्दन की एक सभा में स्वीकार किया था) उन्होंने दो ‘मेननों’ (कृष्‍ण मेनन और वी. पी. मेनन) के जरिए, नेहरु और पटेल को विभाजन के लिए समहत करा लिया । चूंकि उन्हें पता था कि वे गांधी को नहीं मना सकेंगे सो, उन्होंने न केवल इस दिशा को ही छोड़ दिया बल्कि चतुराई से यह भी कर लिया कि नेहरु - पटेल को साधने के उपक्रम से गांधी को अनभिज्ञ भी रखा ।

देश को विभाजन से बचाने के लिए गांधी ने जिन्ना को स्वाधीन भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव भी किया । यह प्रस्ताव देते समय उनके मन में ‘राजा सोलोमन’ वाला वह प्रकरण था जिसमें, एक बच्चे के लिए जब दो महिलाओं ने खुद को वास्तविक मां बताने का दावा किया था तब राजा सोलोमन ने उस बच्चे के दो टुकड़े कर, एक-एक टुकड़ा दोनों को देने का फैसला सुनाया था । इस फैसले पर वास्तविक मां ने कहा था कि बच्चा दूसरी महिला को दे दिया जाए । नारायण भाई ने कहा - अपने देश को बचाने के लिए गांधी ने भी बच्चे की वास्तविक मां जैसा ही व्यवहार किया । इस प्रस्ताव में नौ शर्तें थीं । लेकिन जिन्ना तो धर्म के आधार पर अलग पाकिस्तान लेने पर अड़े हुए थे, सो उन्होंने गांधी के प्रस्ताव को देखना भी ठीक नहीं समझा ।

कांग्रेस द्वारा देश का विभाजन स्वीकार कर लेने की बात गांधी को अखबारों से तब मालूम हुई जब बंटवारे के कागजों पर हस्ताक्षर हो गए । इससे पहले, अंग्रेज सरकार द्वारा भारत-विभाजन के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए कांग्रेस ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की मांग कर ली थी । यह सोचकर कि यह मांग नहीं मानी जाएगी और देश के बटवारे की बात भी स्वतः खारिज हो जाएगी । लेकिन गांधी ने कांग्रेस की इस मांग का विरोध किया क्योंकि यह विभाजन भी धर्म आधारित था । गांधी ने कहा था कि इस प्रस्ताव का मतलब था - धर्म के आधार पर पृथक देश की, जिन्ना की मांग का समर्थन करना ।

भारत विभाजन के कागजों पर हस्ताक्षर होने की खबर अखबारों में पढ़कर गांधी ने उस दिन नौ पत्र लिखे । इनमें से एक-एक पत्र नेहरु और पटेल के नाम था । गांधी ने दोनों को लिखा - ‘मैं ने अखबारों में पढ़ा । मैं समझ नहीं पाया ! क्या आप मुझे समझाएंगे ?’ नेहरु ने तो पत्र का उत्तर ही नहीं दिया । पटेल ने लिखा - जब यह सब हुआ तब आप बहुत दूर थे इसलिए आपसे सम्पर्क नहीं किया जा सका । पर आप विश्‍वास रखिए कि जो भी हुआ, वह पूर्ण विचार के बाद ही हुआ है । गांधी को अन्देशा हो चुका था कि ऐसा कुछ हो सकता है और उन्हें अलूफ रखा जा सकता है । इसका अनुमान उन्होंने काफी पहले, ‘हरिजन’ में अपने लेख मे उजागर कर दिया था जिसमें उन्होंने लिखा था - ‘मैं कहता हूं लेकिन मेरी सुनता कौन है ?’

लेकिन गांधी ने इस विभाजन को नहीं माना । उन्होंने कहा - ‘जो हुआ सो हुआ । लेकिन मैं इसे नहीं मानता । इसलिए मैं तो अपना कार्यक्रम, एक देश मानकर ही बनाऊंगा ।’ नारायण भाई ने कहा - पाकिस्तान जाने का कार्यक्रम बापू बना चुके थे । इसी सिलसिले में सुशीला बहन, 30 जनवरी 1948 को लाहौर में थीं जहां उन्हें बापू हत्या का समाचार मिला । समाचार सुनते ही वे वायुयान से भारत लौटीं । विमान में मियां इतेखार भी थे । उन्होंने सुशीला बहन से कहा - ‘गांधी को मारने वाला कोई एक अकेला आदमी नहीं है । उनके मारने वालों में हम सब शरीक हैं ।’


जन-स्थानान्तरण (ट्रांसफर आफ पापुलेशन)


बंटवारा तो तय था लेकिन यह तय नहीं था कि बंटवारा शुरु कहां से होगा । इस स्थानान्तरण के लिए भौगोलिक विभाजन रेखा खींची जानी थी । इस काम के लिए ब्रिटिश सांसद रेडक्लिफ को नियुक्त किया गया जो भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे । अपने संसदीय जीवन काल में उन्होंने एक बार भी ‘इण्डिया’ शब्द का उच्चारण नहीं किया था । लेकिन उनके इसी अज्ञान को उनकी नियुक्ति का आधार बनाया गया, यह कह कर कि चूंकि वे कुछ भी जानते इसलिए वे पूर्ण तटस्थ होकर ही वास्तविक निर्णय देंगे ।


बापू ने इस विचार का ही विरोध किया था । इसके गम्भीर परिणामों को वे खूब अच्छी तरह जानते थे । लेकिन उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और इसका भीषण परिणाम सारी दुनिया ने देखा ।

नारायण भाई ने दो प्रसंग प्रस्तुत किए । पहला प्रसंग जिन्ना को लेकर था । जिन्ना, क्वेटा में मृत्यु शैया पर थे । किसी ने उनसे पूछा - ‘कायदे आजम ! आपने ही हमारा मुल्क बनाया । इस सबमें आपने कोई भूल तो नहीं की ?’ जिन्ना बोले - ‘हर शख्स करता है ।’ सवाल आया - ‘सबसे बड़ी भूल कौन सी थी ?’ जिन्ना ने कहा - ‘छोड़ो भी ।’ सवाल दुहराया गया तो जिन्ना कहा - ‘भारत का विभाजन सबसे बड़ी भूल थी ।’

दूसरा प्रसंग माउण्ट बेटन से जुड़ा सुनाया । ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के लेखकद्वय, किताब लिखने के सिलसिले में लार्ड माउण्ट बेटन से मिले । जन-स्थानान्तरण को लेकर माउण्ट बेटन ने कहा -‘ऐसा न करने के लिए एक आदमी (गांधी) ने मुझे बार-बार कहा था । उस आदमी को जनता की नब्ज पता थी । उसने कहा था कि ऐसा करने पर खून की नदियां बहेंगी । लेकिन मेरे तीनों गवर्नरों ने मुझे सही अनुमान नहीं होने दिया और मैं ने गांधी की बात अनसुनी कर दी ।’ यह कह कर माउण्ट बेटन फूट-फूट कर रो दिए ।

नारायण भाई ने कहा - सारे सम्बन्धितों ने गांधी की बात न मानने की स्वीकारोक्तियां कीं लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी ।

बंटवारे से पहले की एक और घटना नारायण भाई ने सुनाई । डाक्टर जाकीर हुसैन, जामिया मीलिया इस्लामिया के प्रमुख थे । वे अमृतसर गए । उन्हें बताना नहीं पड़ता था कि वे मुसलमान हैं । यह उनके पहनावे और दाढ़ी से अपने आप ही जाहिर हो जाता था । अमृतसर स्टेशन पर ही उन पर प्राणलेवा हमला हुआ । वे लौटकर दिल्ली आए तो बापू से मिले । बापू ने पूछा - ‘क्या हुआ ?’ डाक्टर जाकीर हुसैन ने आपबीती के बारे में तो एक शब्द भी नहीं कहा और बोले -‘बापू ! मनुष्‍यता के धरातल पर हम जितना नीचे गिर सकते थे, गिर चुके हैं । अब यदि कोई उम्मीद बची है तो वह आपसे ही है ।’


विभाजन के बाद

वे गहरे शोक भरे, वेदनामय दिन थे । बापू ने अब अकेले ही चलने का फैसला किया । कहा - ‘अब मुझ अकेले से जो कुछ, जितना कुछ बन पड़ेगा, करुंगा ।’ वे शरणार्थियों की छावनियों में जाते । उनसे बात करते, ढाढस बंधाते । सब उनकी बात सुनते लेकिन कुछ उनका विरोध भी करते । कुछ ने कहा कि वे अपनी सर्व-धर्म प्रार्थना में कुरान की आयतों का पाठ न करें क्यों कि उन आयतों में तो खुदा से कहा गया कि हमें सीधी राह पर चलाए, टेढ़ी-मेड़ी राह पर चलने से बचाए लेकिन मुसलमानों का आचरण तो इसके प्रतिकूल है । बापू ने यह सुझाव मानने से इंकार कर दिया और कहा कि कुरान की आयतों के बिना सर्व-धर्म प्रार्थना करने के बजाय वे सार्वजनिक रुप से प्रार्थना ही नहीं करेंगे ।

नारायण भाई ने कहा कि तीन बार ऐसा हुआ कि बापू का सार्वजनिक प्रार्थना का नियम भंग हुआ और उन्होंने बन्द कमरे में प्रार्थना की । प्रायः रोज ही उनकी सार्वजनिक प्रार्थना में व्यवधान होता था । ईश्‍वर प्रार्थना का विरोध बापू के लिए असह्य वेदना का विषय था । नारायण भाई के अनुसार इस व्यवधान का खुलासा, नाथूराम गोड़से के, कोर्ट में दिए गए उस बयान से होता है जिसमें उसने स्वीकार किया - ‘गांधी को हम लोगों ने परेशान (डिस्टर्ब) किया ।’

गांधी जब बार-बार ‘देश का विभाजन, मेरा विभाजन है’ कहते थे तो कुछ लोग पूछते थे कि ऐसा है तो गांधी ने आत्महत्या क्यों नहीं की । नारायण भाई ने कहा - ‘नोआखली मे वे जो कर रहे थे वह तिल-तिल कर मरना ही था ।’ इस प्रसंग में नारायण भाई ने, बापू की डायरी के अंश को पढ़ कर सुनाया - ‘भावी पीढ़ियों को जान लेने दो कि उनके बारे में सोचते हुए इस बूढ़े को कितनी पीड़ा हुई है, कितनी यात्राओं से गुजरना पड़ा है । हिन्द के विभाजन के अभिशाप में गांधी का तनिक भी हिस्सा नहीं था - यह भावी पीढ़ियों को जान लेने दो ।’

कुछ लोगों के इस सन्देह भरी जिज्ञासा का कि ’आखिरकार गांधी को क्यों मारा ? उन्होंने कुछ तो गड़बड़ की होगी ?’ नारायण भाई ने कहा - ‘हां, गांधी ने वही गड़बड़ की जो जीसस क्राइस्ट ने की थी - दूसरों के पापों को अपना पाप मानना । इसीलिए दोनों मारे गए ।’

नारायण भाई ने इस जन-भ्रान्ति का खण्डन किया कि 15 अगस्त 1947 को बापू नोआखली में थे । उस दिन उन्हें नोआखली जाते हुए रास्ते में, कलकत्ता रोक लिया गया था । रोके जाने पर बापू ने सुहरावर्दी से शर्त रखी कि कलकत्ता में दोनों एक ही मकान में रहेंगे । हैदरी मेंशन में दोनों का निवास हुआ ।

वे कलकत्ता में ही थे कि दल्ली से बुलावा आया । बापू ने आने से मना कर दिया । बुलावा फिर आया । इस बार सन्देश भी था - ‘आप नहीं आएंगे तो बहुत बुरा हो जाएगा ।’ बापू ने जवाब दिया -‘जो होना है होने दो । मैं नहीं आऊंगा ।’ बापू का जवाब सुनकर दिल्ली से सुधीर घोष को, वायुयान से भेजा गया । वे शाम को कलकत्ता पहुंचे । आते ही उन्होंने कहा - ‘मैं दिल्ली से सन्देश लाया हूं ।’ बापू ने कहा - ‘लम्बी यात्रा से हाए हो । थक गए होगे । पहले भोजन कर लो ।’

बात अगली सुबह हुई । सुधीर घोष ने कहा - ‘आपको आना चाहिए ।’ बापू ने कहा - ‘मेरी इच्छा नहीं होती, आजादी का उत्सव मनाने की ।’ बात करते-करते वे सुधीर घोष को बाहर, हैदरी मेंशन के आंगन में, पेड़ के नीचे ले आए । साफ-सुथरे आंगन में, एक सूखी पत्ती पड़ी थी । उसे दिखाते हुए बापू सुधीर घोष से बोले - ‘मेरी स्थिति इस पत्ती जैसी है ।’ सुनकर सुधीर घोष की आंखों से आंसुओं की धार बह चली । आंसू की एक बूंद, संयोगवश उस पत्ती पर पड़ गई । यह देख बापू बोले -‘मेरी मनोदशा कैसी भी हो, तुम्हारी आंसू की बूंद ने उसे हरा तो कर दिया ।’

सुधीर घोष ने कहा - (मन्त्री पद की) शपथ ग्रहण करने वालों को अपने आशीर्वाद तो दीजिए । बापू ने कहा - ‘नम्र बनो । धैर्य रखो । तुम्हारी असली कर्साटी अब शुरु होती है । सत्ता से सावधान रहो-यह भ्रष्‍ट करती है । इसके तामझाम से चैंधिया मत जाना । तुम देहातों के गरीब लोगों के प्रतिनिधि बन कर सत्ता ग्रहण कर रहे हो, इस बात को कभी मत भूलना ।’

15 अगस्त को बापू ने कहा था - ‘मुझे (देश में) एकता के दर्शन तो होते हैं लेकिन मुझे यह सतही लगता है । इसके पीछे वैमनस्य न हो ।’

उनकी यह आशंका जल्दी ही सच साबित हुई । सितम्बर में फिर दंगा शुरु हो गया ।

वे हैदरी मेंशन में रह रहे थे । लोगों का एक दल आया । पत्थरों और लाठियों से हमला किया । एक लाठी बापू के बहुत ही पास से गुजर गई । बापू के चेहरे के भाव देख कर सवाल आया - ‘अनशन करने की सोच रहे हैं ?’ बापू ने कहा - ‘हां, मैं वही सोच रहा हूं । अब तो नोआखली जाने की भी जरुरत नहीं रही ।’ और उन्होंने अनशन शुरु कर दिया । लोगों ने कहना शुरु कर दिया - ‘इस आदमी के उपवास से क्या होगा ?’ अमिय बाबू ने कहा - ‘बस, देखते रहो ।’

और बापू का अनशन जन-चर्चा का ही नहीं, जन-चिन्ता का विषय बन गया । आने-जाने वाले अनजान, अपरिचित लोगों से रिक्‍शावाले, कुली, सड़क पर दुकान लगाने वाले, खोमचे वाले पूछते - ‘गांधी बाबा की तबीयत कैसी है ?’

ऐसे में नारायण भाई ने एक अत्यन्त मार्मिक प्रसंग सुनाया ।

कलकत्ता का एक निम्नवर्गीय परिवार । गृहस्वामिनी का नाम - गिन्नी । गृह स्वामी एक शाम काम से लौटा । गिन्नी ने उसके लिए भोजन लगाया । पति ने गिन्नी से कहा - तुम भी खा लो । गिन्नी ने कहा - तुम खाओ । भोजन करते-करते पति ने पूछा - तुम क्यों नहीं खा रही ? गिन्नी बोली - ‘‘खाने को मन नहीं करता। हम खा रहे हैं और ‘वह’ हमारे लिए उपवास कर रहा है ।’’

गिन्नी की बात ने मानो बन्दूक की गोली सा असर किया । आधा भोजन छोड़ कर पति ने थैली पर टंगे झोले में से हथगोला निकाला (जो उसने ही बनाया था) और ज्यों का त्यों हैदरी मेंशन पहुंचा । बापू को हथगोला दिया और बोला - ‘यह हथगोला मैं ने बनाया था । आप रख लो और खाना खाओ । मेरी गिन्नी खाना नहीं खा रही है ।’ यह अद्भुत और अभूतपूर्व दृष्‍य था । बापू ने कहा - ‘खमीर ने काम करना शुरु कर दिया है ।’

बापू के उपवास को तीन दिन हो गए थे । कलकत्ता में मानो हा ! हा ! कार मच गया । शान्ति अपील का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी को सौंपी गई । उन्होंने इस शर्त पर मसौदा तैयार किया कि वह बापू को दिखाया जाएगा । बापू ने उसे मूलतः स्वीकार किया । उस पर 50 नेताओं के हस्ताक्षर हुए । चौथे दिन बापू ने अनशन तोड़ा ।

अनशन तोड़ते ही बापू ने बंगाल के गवर्नर राज गोपालाचारी को अपने पास बुलाया और कहा - ‘आप तो गवर्नर हैं । मेरे लिए एक काम करें । कल सवेरे की गाड़ी से मैं पंजाब जाना चाहता हूं । कल की रेलगाड़ी में मेरा आरक्षण करा दीजिए ।’ सुनकर सब परेशान हो गए । तीन दिनों का अनशन । उन्हें आराम की जरुरत थी और वे हैं कि लम्बी यात्रा करना चाहते हैं ! वस्तुतः बापू ने वादा किया था कि आजादी मिलते ही वे पंजाब जाएंगे । वे अपना यही वादा पूरा करना चाह रहे थे । सुहरवार्दी अड़ गए । इंकार कर दिया । उनके आग्रह पर बापू दो दिन और कलकत्ता रुक गए । दो दिन बाद, बापू को स्टेशन पर विदा करते हुए सुहरावर्दी फूट-फूट कर रोए, बच्चों की तरह बिल-बिलख कर ।

कलकत्ता से पंजाब जाते समय बापू को दिल्ली में ही रोक लिया गया और यह मुकाम ही अन्तिम प्रयाण में बदल गया ।

पटेल और प्रधान मन्त्री पद

सरदार पटेल के बजाय जवाहरलाल नेहरु का प्रधान मन्त्री बनना, तत्कालीन परिस्थितियों की अनिवार्यता और अपरिहार्यता थी । नेहरु के मुकाबले पटेल न केवल अधिक वृध्द थे वरन् बीमार भी थे । जब भी कभी बापू और पटेल का मुकाम एक स्थान पर होता तो बापू कहते - ‘सरदार को मेरे साथ ही ठहरवाना । वे बीमार हैं ।’ लेकिन इसके समानान्तर बापू यह भी जानते थे कि दोनों (पटेल और नेहरु) का एक साथ बने रहना देश की एकता और स्थिरता के लिए अनिवार्य है । सो, उन्होंने सरदार को बुला कर कहा कि उन्हें (बापू को) देश की एकता की अत्यधिक चिन्ता है । देश की एकता के लिए ‘आप चाहें न चाहें, आपको और जवाहर को साथ-साथ ही रहना पड़ेगा ।’ इसके बाद बापू ने कहा - ‘आपको तो यह मैं ने कह दिया । आज प्रार्थना के बाद जवाहर से भी यही बात कहूंगा ।’ लेकिन बापू वह प्रार्थना कर ही नहीं सके ।


बापू की हत्या

इस मुद्दे पर नारायण भाई ने सर्वथा अनूठी, नई और अविश्‍वसनीय सूचनाएं दीं और उन सबकी पुष्‍िट में प्रमाण भी दिए ।

नारायण भाई के अनुसार 30 जनवरी 1948 को की गई गांधी-हत्या अनायास नहीं की गई । इस हत्या के लिए कम से कम 14 वर्ष पहले से सुनियोजित प्रयास किए जा रहे थे । 30 जनवरी को किया गया हत्या का प्रयास छठवां और अन्तिम सफल प्रयास रहा । उससे पहले पांच प्रयास और किए जा चुके थे ।

नारायण भाई ने कुछ प्रसंग सविस्तार सुनाए ।

पचगनी में बापू आराम कर रहे थे । तभी कुछ लोगों की भीड़ चिल्ला-चिल्ला कर ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाने लगी । बापू ने कहा - ’उन लोगों को बुलाओ । मैं उनसे मिलना चाहता हूं ।’ इन लोगों में नाथूराम गोड़से न केवल शरीक था बल्कि उसके पास 6 इंच का छुरा भी था ।

जिन्ना से मिलने के लिए गांधी का जाना तय था । हैदराबाद के खाकसार लोगों ने कहा कि वे गांधी को जिन्ना से मिलने नहीं देंगे, वर्धा से ही नहीं निकलने देंगे । सरकार ने गांधीजी को सतर्क किया कि एक दस्ता उनके (गांधीजी के) लिए निकला है । थोड़ी ही देर बाद सूचना आई कि गांधीजी अब निश्‍िचन्त रह सकते हैं क्यों कि सरकार ने अपने एक आदमी को उस दल में मिला दिया था जिसकी सूचना के आधार पर दल के लोगों को गिरतार कर लिया गया है । गिरफतार लोगों में से एक के थैले से छुरा बरामद हुआ । इस दल के सदस्यों में एक सदस्य था - नाथूराम गोड़से ।

बापू ने एक बार कहा था कि वे 120 वर्ष जीना चाहते हैं । इस पर ‘अग्रणी’ नामक अखबार ने सम्पादकीय लिखा - ‘लेकिन जीने कौन देगा ?’ यह सम्पादकीय लिखने वाला, इस अखबार का सम्पादक था - नाथूराम गोड़से ।

‘गांधी-हत्या’ को ‘गांधी-वध’ कहने के पैरोकारों ने गांधी की हत्या को मुस्लिम लीग द्वारा 1940 में व्यक्त की गई ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ की प्रतिक्रिया कहा था । लेकिन बकौल नारायण भाई देसाई, इससे 17 वर्ष पहले ही, 1923 में सावरकर अपनी पुस्तक में ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ प्रस्तुत कर चुके थे ।

ऐसे उदाहरण देने के बाद नारायण भाई ने कहा - ‘गांधी हत्या के पीछे सुनिश्‍िचत, योजनाबद्ध रणनीति और एक दर्शन था । यह दर्शन, कुछ न कुछ मात्रा में, हममें भी है ।’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए नारायण भाई बोले - ‘हम अज्ञान रहें हों या चुप रहे हों, आज की स्थितियां हम सबकी जिम्मेदारी हैं ।’


गांधी-मृत्यु: इच्छा मृत्यु

जिस दशा और जिस घटनाक्रम में बापू की मृत्यु हुई क्या इस सबका उन्हें पूर्वानुमान हो गया था ? क्या यह सब उन्होंने ही चाहा था ? क्या यह इच्छा मृत्यु थी ? नारायण भाई के अनुसार - लगता तो ऐसा ही है ।

उन्होंने मनु बहन की डायरी का, 30 जनवरी 1947 (मृत्यु से ठीक एक वर्ष पूर्व) के पृष्‍ठ का उल्लेख किया । मनु बहन ने ऐसा कुछ लिखा - ‘आज बापू ने कुछ अजीब कहा । उन्होंने कहा कि अगर मैं बीमारी से मरूं तो छत पर चढ़कर चिल्ला कर जमाने से कहना कि जिसे तुम महात्मा मानते हो, वह महात्मा नहीं था । लेकिन यदि कोई मुझे सामने से आकर मारे, मरते समय मेरे होठों पर राम का नाम हो और मारने वाले के प्रति मेरे मन में कोई द्वेष न हो तो कहना कि वह महात्मा तो नहीं लेकिन भगवान का एक साधक जरूर था ।’

अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले से बापू बार-बार प्रभु से प्रार्थना करने लगे थे - ‘इस तमस में से मुझे अपने प्रकाश में कब ले जाएगा ?

’नारायण भाई ने कहा कि सुब्बरावजी (डाक्टर एस.एन.सुब्बराव) ने अपनी चर्चाओं में उद्घाटित किया कि बापू ने एक बार लार्ड माउण्ट बेटन से कहा था - ‘मैं तो कभी प्रार्थना में जाऊंगा तब ही कोई मुझे मारेगा ।’

प्रार्थना से पहले हुई मुत्यु को नारायण भाई ने अनूठी व्याख्या दी । उन्होंने कहा - भक्त को यदि भगवान से मिलने की उतावली थी तो भगवान को उससे भी अधिक उतावली थी । इसीलिए तो, बापू को प्रार्थना तक पहुंचने नहीं दिया । उससे पहले ही प्रभु ने अपनी गोद में ले लिया ।

’बापू के अन्तिम शब्दों को भी नारायण भाई ने अद्भुत और आध्यात्मिक स्वरूप दिया । उन्होंने कहा - ‘‘तीन गोलियों का जवाब बापू ने तीन अविनाशी अक्षरों ‘हे ! राम’ से दिया ।’’

नारायण भाई ने आह्वान किया - ‘गांधी की प्रासंगिकता आज की आवश्‍यकता है । यह शक्य है या नहीं, यह आप-हम पर निर्भर है । यदि इसे शक्य नहीं बनाया जा सका तो गांधी की प्रासंगिकता समझने वाले ही अप्रासंगिक हो जाएंगे ।’

‘अपने हृदय की वेदना से भरा मौन ही गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि है’ नारायण भाई के इस आग्रह के साथ ही सभागार में तीन मिनिट के मौन का साम्राज्य हो गया । जिसे ‘शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः’ उच्चारण के साथ तोड़ कर नारायण भाई ने पांच दिवसीय ‘बापू कथा’ का समापन किया ।

सभागार में उपस्थित कोई साढ़े तीन हजार से अधिक लोग जब विसर्जित हुए तब भी गहरा मौन पसरा हुआ था । कोई किसी से नहीं बोल रहा था । शायद प्रत्येक के मन में एक जैसी ही बात रही होगी जिसे व्यक्त करना प्रत्येक ने अनावश्‍यक और अविवेक ही माना होगा ।