बाजार की मेनका मेरे घर में


कोई एक पखवाड़े से अखबार ‘निपटाने’ में समय कम लग रहा है। इन दिनों विज्ञापन, वे भी पूरे-पूरे पृष्ठों के, अधिक आ रहे हैं और समाचार मानो निष्कासित कर दिए गए हैं। विज्ञापन भी आकर्षक नहीं। कल्पनाशीलता और प्रस्तुति की सुन्दरता कहीं अनुभव नहीं हो रही। लगता है, ताबडतोड़ ‘कॉपी’ तैयार की जा रही हो। छोटे विज्ञापनों की दशा तो देहातों के परमिटवाली यात्री बसों में ठुँसे हुए यात्रियों जैसी है। जहाँ पाँव रखने की जगह मिल जाए, वहीं टिकने की कोशिश कर लो। कैसा भी विज्ञापन, कहीं भी लगाया जा रहा है। याने, इन दिनों अखबार न तो पठनीय हैं और न ही दर्शनीय।

सुबह चार अखबार आते हैं। ‘पत्रिका’ सबसे पहले, ‘पीपुल्स समाचार’ उसके बाद और ‘जनसत्ता’ तथा ‘भास्कर’ सबसे बाद में। ‘नईदुनिया’ मेरे यहाँ नहीं आता। लगभग दो वर्षों से उसे खरीदना बन्द कर रखा है। इधर-उधर कहीं नजर आ जाता है तो पढ़ लेता हूँ। न पढ़ने पर कोई असुविधा भी नहीं होती। ‘पीपुल्स समाचार’ शायद प्रतिदिन नहीं छपता इसलिए प्रतिदिन नहीं आता। ‘भास्कर’ रतलाम मे ही छपता है किन्तु पता नहीं क्यों, सबसे बाद में आता है जबकि वह तो सबसे पहले मिलना चाहिए। इनमें केवल ‘जनसत्ता’ ही पढ़ने की भरपूर सामग्री देता है। शाम को ‘प्रभातकिरण’ आता है। वह कभी भी दस-पाँच मिनिट से अधिक नहीं लेता।

विकर्षक और कल्पनाशीलताविहीन विज्ञापनों के बीच छप रहे समाचारों में भी बाजार ही बाजार है। लगता है, अखबार अब अखबार न रह कर ‘अनुकूल विपणन स्थितियाँ’ (फेवरेबल मार्केटिंग सुटेबिलिटी) बनाने के औजार बन गए हैं। सब कुछ इस तरह परोसा जा रहा है कि आपको आवश्यकता हो न हो, फलाँ-फलाँ सामान तो आपके घर में होना ही चाहिए। न हुआ तो आप असामाजिक हो जाएँगे। इस हेतु चार-चार पृष्ठोंवाले विशिष्ट परिशिष्ट प्रायः प्रतिदिन ही अखबारों के साथ आ रहे हैं। उनमें उन्हीं दुकानो/संस्थानों के विवरण छपते हैं जिनके विज्ञापन होते हैं। याने, एक ही दुकान/संस्थान का विज्ञापन दो-दो बार। निश्चय ही, अखबारों को विज्ञापनों के इन दोनों स्वरूपों का भुगतान मिल ही रहा होगा।

त्यौहारी खरीद के लिए पहले लोग बाजार में जाया करते थे किन्तु अब तो बाजार, आपके दरवाजे पर नहीं, आपके घर में ही घुसा चला आ रहा है। बाजार जाकर, मनपसन्द चीज खरीदने के लिए किए गए भाव-ताव (या कि झिकझिक) ने कभी भी हीनता बोध पैदा नहीं किया। किन्तु अखबारों के विज्ञापन मानों कहत हैं - यह सामान नहीं खरीदा तो तुम्हारा जीना बेकार है। धिक्कार है तुम्हें।

खूब अच्छी तरह याद है, स्कूली दिनों में केवल ‘गुरु पुष्य‘ की चर्चा होती थी और खरीदी के लिए वही मुहूर्त महत्वपूर्ण माना जाता था। तब, यह मुहूर्त व्यापारियों के लिए ही माना जाता था, जन-सामान्य से मानो इसका कोई लेना-देना नहीं होता था। व्यापारी इस मुहूर्त की प्रतीक्षा अधीरता से करते थे और ‘गुरु पुष्य’ की अवधि वाला समय पूरी तरह खाली रखते थे कि फालतू कामों में उलझ कर इस मुहूर्त में खरीददारी से चूक न जाएँ। लेकिन देख रहा हूँ कि गए कुछ बरसों से ‘रवि पुष्य’ भी ‘गुरु पुष्य’ की प्रतियोगिता में ला खड़ा कर दिया गया है और अभी-अभी ‘शनि पुष्य’ को स्थापित करने का मानो अभियान ही शुरु कर दिया है। इन दिनों अखबारों से ‘गुरु पुष्य’ और ‘रवि पुष्य’ गुम हैं और ‘शनि पुष्य’ छाया हुआ है। सारी दुनिया को समझाया (इसे ‘चेताया’ कहना अधिक उपयुक्त होगा) कि यह ‘दुर्लभ योग’ दस वर्षों में आया है। गोया, यदि इस मुहूर्त में खरीदी नहीं की गई तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। पहले जो इकलौता मुहूर्त केवल व्यापारियों के लिए माना जाता था, आज उसके दो और विकल्प प्रस्तुत कर तीन गुना अवसर उपलब्ध करा दिए गए हैं। अब तीनों के तीनों ही मुहूर्त मानो सबके लिए ‘समान रूप से खोल दिए गए’ हैं। पहले व्यापारी खरीदी करते थे, अब आप-हमको व्यापारियों के लिए खरीदी करनी है।

‘आक्रामक विपणन नीति’ (एग्रेसिव मार्केटिंग स्ट्रेटेजी) पूरी मारक क्षमता से छायी हुई है। अच्छे-अच्छों का संयम डिग जाए, ऐसी कोशिशें चौडे-धाले की जा रही हैं। पहले आप जरूरत का सामान लेने के लिए बाजार जाते थे। अब बाजार आपके घर में घुस आया है। पहले जरूरत के लिए सामान तलाशा जाता था। अब, सामान के हिमालय आपके चारों ओर खड़े कर दिए गए हैं। आपको कुछ न कुछ तो खरीदना ही पड़ेगा - जरूरत हो न हो।

उपभोक्तावाद की इस मेनका से कितने विश्वामित्र, कितने समय तक खुद को बचा पाएँगे, यह देखना रोचक होगा। अधिक रोचक यह देखना होगा कि बचा पाएँगे भी या नहीं?
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6 comments:

  1. बिल्कुल सही विज्ञापन देखकर ही खरीदारी के लिये उत्सुक कर देते हैं, नहीं जरुरत हो तब भी लुभावने ऑफ़र देखकर खरीदारी कर ही डालते हैं।

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  2. सुबह निपटाने में बचा समय शाम को बीबी-बच्चों के साथ शॉपिंग में दोगुना खर्च भी तो हो रहा है. नावाँ अलग से जा रहा है. नुकसान ही नुकसान है. :(

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  3. अभी दो परिशिष्ट छिपा कर आ रहा हूँ।

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  4. हमारे यहां ऎसे समाचार पत्र फ़्रि मे मिल जाते हे, क्योकि यह कमाई तो इन विग्यापनो से कर लेते हे, ओर जब हम पहले इन्हे खरीदते थे तो गुस्सा आता था, धीरे धीरे लोगो ने इन्हे खरीदना बन्द कर दिया, अब यह हमे प्रलोभन देते हे मुफ़त मे लेने के लिये, यही हाल यहा टी वी का हे जिन चेनल पर विग्यापन होते हे वो विलकुल मुफ़त, जिन पर कोई विग्यापन नही वो पैसे दे कर देखो, भाई जनता अब सयानी हो रही हे, क्यो इन के दोनो हाथो मे लड्डू पकडाये, अगर भारत मे भी जनता ऎसा करे तो देखे यह केसे नही सीधे होते

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  5. बाजारवाद ज़िन्दाबाद। अच्छा आलेख है। आभार।

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