जोखिम लेने का साहस

यह बन्द कमरे की एक गोष्ठी का वाकया है।

हम कोई पैंतालीस-पचास श्रोता थे। विषय था - ‘भ्रष्टाचार : समस्या, कारण और निदान।’ जिलाधिकारी से ठीक बादवाले पदाधिकारी (उप जिलाधीश, उप पुलिस अधीक्षक, सहायक जिला आबकारी अधिकारी जैसे) स्तर के अधिकारी-सज्जन एकमात्र वक्ता थे। उनका विभाग भ्रष्टाचार के लिए जाना जाता है। मेरे घनिष्ठ तो नहीं किन्तु सामान्य से कुछ अधिक ही परिचित। हम दोनों का एक दूसरे के घर आना-जाना है। इस विषय पर हम दोनों में प्रायः ही बात होती ही रहती है। इसलिए, उनकी बातें मेरे लिए नई नहीं थीं। सब कुछ मेरा जाना-पहचाना और पहले से ही सुना हुआ था। उनकी बातें चूँकि मेरे मनोनुकूल थीं इसलिए मुझे अच्छी लग रही थीं और मैं उनसे सहमत था। भ्रष्टाचार को लेकर हम दोनों इस बात पर एकमत थे कि रिश्वत देना हमारी मजबूरी हो सकती है किन्तु रिश्वत लेना हमारी मजबूरी नहीं होती। इसलिए, जब रिश्वत लेने की बारी आए तो हमने नहीं लेनी चाहिए। तभी हम भ्रष्टाचार का विरोध करने का नैतिक साहस और आत्म-बल जुटा पाएँगे। इन अधिकारीजी ने मेरी इस धारणा में तनिक व्यावहारिक बढ़ोतरी की। इनका कहना था कि रिश्वत लेना मजबूरी बन जाने की दशा में कम से कम रिश्वत ली जानी चाहिए। मैं इस बात से सहमत नहीं था किन्तु अधिकारीजी ने ‘सापेक्षिता सिद्धान्त’ से अपनी बात का तार्किक औचित्य प्रतिपादित कर मेरी बोलती बन्द कर दी थी।

यही अधिकारीजी इस गोष्ठी के एकमात्र वक्ता थे और यथेष्ठ प्रभावशीलता से, अधिकारपूर्वक भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी बात कहे जा रहे थे। भ्रष्टाचार का पर्याय बने किसी विभाग का कोई अधिकारी, भ्रष्टाचार को लेकर ऐसे आदर्श बघारे - प्रसादजी को यही गले नहीं उतर रहा था। हम चूँकि श्रोताओं में सबसे पीछे बैठे थे, इसलिए भँवरों की तरह ‘गुन-गुन’ करते हुए बातें कर पा रहे थे। अधिकारीजी के भाषण से प्रसादजी की अकुलाहट क्षण-प्रति-क्षण बढ़ती ही जा रही थी। अन्ततः मुझे तनिक कठोर हो कर कहना पड़ा - ‘भाषण के बाद जब चाय-पान होगा, तब अधिकारीजी से आप खुद ही पूछ लीजिएगा।’

कोई चालीस मिनिट का भाषण समाप्त हुआ। श्रोताओं को चाय पहुँचाई जाने लगी। हम सबसे पीछे बैठे थे सो हमारा नम्बर सबसे बाद मे ही आना था। प्रसादजी को फिर मौका मिल गया। बोले - ‘आप पूछिएगा जरूर। भ्रष्टाचार करते हुए भ्रष्टाचार के विरुद्ध कोई कैसे बोल सकता है?’ मैंने कहा - ‘आपका भी तो इनसे मिलना-जुलना है। आप ही पूछिएगा।’ प्रसादजी तनिक घबरा गए। बोले - ‘बुरा मान गए तो?’ मैंने कहा - ‘मानें तो मान लें। आपका क्या बिगाड़ लेंगे?’ प्रसादजी की घबराहट तनिक बढ़ गई। बोले - ‘कैसी बातें करते हैं आप? बड़े अफसर हैं। नुकसान तो कर ही सकते हैं।’ उपेक्षा भाव से मैंने कहा - ‘तो मत पूछिए।’ प्रसादजी बोले - ‘आपने ऐसे कैसे कह दिया कि मत पूछना? आप हिम्मतवाले हैं और आपकी स्पष्टवादिता के बारे में सब जानते हैं। आप ही पूछिएगा।’ आँखें तरेरते हुए मैंने जवाब दिया - ‘और वे मुझसे बुरा मान गए तो? मेरा नुकसान कर दिया तो?’ खिसिया कर, निष्प्राण हँसी हँसते हुए प्रसादजी बोले - ‘नहीं। नहीं। आपका कोई क्या बिगाड़ लेगा। आप ही पूछिएगा।’ शुष्क और कठोर स्वरों में मैंने जवाब दिया - ‘मैं तो इन्हें और इनके बारे में काफी-कुछ जानता हूँ। मुझे कुछ नहीं पूछना। पूछना हो तो आप ही पूछिएगा।’ प्रसादजी असहज हो गए। कुछ बोलते उससे पहले ही खुद अधिकारीजी हम दोनों के लिए चाय के गिलास लिए चले आए। ‘नमस्कार-चमत्कार’ की रस्म अदायगी के साथ गिलास लेते हुए मैंने कहा - ‘ये प्रसादजी हैं। मेरे मित्र हैं। इनका मानना है कि आप खुद रिश्वत लेते हैं इसलिए भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाषण देने का आपको कोई नैतिक अधिकार नहीं है। ये आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।’ प्रसादजी को काटो तो खून नहीं। मानो संज्ञा शून्य हो गए हों। ‘हें, हें’ करते भी नहीं बना। चेहरा पीला पड़ गया। जड़वत् हो, अधिकारीजी का मुँह देख रहे थे। अधिकारीजी हँस कर बोले - ‘सारे सवालों का जवाब दूँगा। किन्तु यह समय और जगह ठीक नहीं है। कल रविवार है। कल सुबह की चाय मेरे साथ ही पीजिए।’ प्रसादजी तब भी जस के तस बने हुए थे। अधिकारीजी उन्हीं से बोले - ‘बैरागीजी को कल सुबह मेरे घर लाना आपकी जिम्मेदारी रही प्रसादजी। मैं आप दोनों की राह देखूँगा। ऐसा न हो कि कल मुझे बिना चाय के रह जाना पड़े।’ कह कर, अधिकारीजी फुर्र हो गए।

‘यह आपने क्या कर दिया? कहाँ फँसा दिया आपने मुझे? पता नहीं कल क्या होगा।’ ‘भई गति साँप छछूँदर केरी’ वाली दशा में प्रसादजी मानो घरघरा रहे थे। उनके मजे लेते हुए मैंने कहा - ‘यह तो अब कल ही मालूम हो सकेगा। जो होना होगा, हो जाएगा। यह बताइए कि कल सुबह कितने बजे आएँगे मुझे लेने?’ जिबह होने से पहले बकरा जिन नजरों से कसाई को देखता होगा, कुछ ऐसी ही नजरों से देखते हुए प्रसादजी बोले - ‘आठ बजे आ जाऊँगा। लेकिन मुझे बचा लीजिएगा। मेरा कोई नुकसान न हो जाए।’ अब मैं खुलकर हँसा और बोला - ‘प्रसादजी! कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है। अपने सवालों के जवाब मुफ्त में पाने की उम्मीद बिलकुल मत कीजिएगा।’ और पसीना-पसीना दशा में प्रसादजी को छोड़ मैं चला आया।

अगली सुबह हम दोनों अधिकारीजी के ‘बंगले’ पर पहुँचे। मैं तो दसियों बार आ चुका था। प्रसादजी पहली बार आए थे। सो, कौतूहल की बस्ती उनकी नजरों में ही बसी हुई थी। ‘ड्राइंग रूम’ कहीं से भी ‘ड्राइंग रूम’ नहीं था - किसी दफ्तर के बड़े बाबू के ‘ड्राइंग रूम’ से भी गया-बीता। खुद अधिकारीजी ने दरवाजा खोला। ग्यारहवीं में पढ़ रहा उनका बड़ा बेटा पहले पानी और थोड़ी देर बाद चाय लाया। चाय बिलकुल ‘सूखी’ थी - साथ में बिस्किट भी नहीं। अधिकारीजी ने प्रसादजी से कहा - ‘कहिए! क्या जानना चाहते हैं मुझसे?’ प्रसादजी निःशब्द। मानो, मुँह में जबान ही न हो। रुँआसी मुख-मुद्रा में मेरी ओर देखने लगे। मैंने कहा - ‘मैं कुछ भी नहीं बोलूँगा। जो भी बोलना है, आप ही बोलेंगे। और यह भी जान लीजिए कि कल रात इनसे मेरी बात हो गई है। जब तक आप पूरी पूछताछ न कर लेंगे, ये आपको जाने नहीं देंगे।’ प्रसादजी का कण्ठ सूख गया था। आवाज नहीं निकल रही थी। चाय का कप नीचे रखकर पहले दो घूँट पानी पीया और मानो माफी की याचना और अपेक्षा करते हुए कोई गुनाह मंजूर कर रहे हों इस तरह अपने सवाल रखे।

अधिकारीजी ने विस्तार से अपनी बात कही। वे रिश्वत लेते हैं लेकिन उतनी ही जितनी उन्हें ‘ऊपर’ पहुँचानी होती है। रिश्वत का एक पैसा भी अपने घर में नहीं रहने देते। उन्होंने कहा - ‘नौकरी करता हूँ, इसलिए रिश्वत लेनी पड़ती है। रिश्वत लेने के लिए नौकरी नहीं करता।’ वे नायब तहसीलदार स्तर पद पर नौकरी में आए थे। दो पदोन्नतियाँ लीं और दोनों ही अपनी योग्यता और परिश्रम के दम पर लीं। पदोन्नति के लिए एक पैसे की रिश्वत नहीं दी। रोज का रोज निपटा कर आते हैं। कोई फाइल नहीं रोकते। जो भी फाइल टेबल पर आती है, हाथों-हाथ निपटा देते हैं। गैर कानूनी काम नहीं करते। यदि करना पड़े तो इस हेतु उच्चाधिकारियों से लिखित में आदेश लेते हैं। पद और अनुशासन क नाम पर अपने अधीनस्थों को भयभीत नहीं करते किन्तु कामचोरों को बख्शते भी नहीं। नौकरी के दौरान, जब-जब, जहाँ-जहाँ तबादला हुआ, प्रसन्नतापूर्वक गए। सरकारी वाहन का निजी उपयोग आपात स्थितियों में ही करते हैं। घरु कामों के लिए अपने ‘बंगले’ पर दफ्तर के कर्मचारियों को बुलाना पसन्द नहीं करते।

दो बेटे हैं। दोनों ही मध्यम दर्जे के निजी स्कूल में पढ़ते हैं। अपनी जरूरतें कम रखते हैं और कोई व्यसन नहीं पालते। इनके स्वभाव और पूर्वाचरण को देखते हुए अब तो उच्चाधिकारी भी इनसे गैर वाजिब काम नहीं कराते और न ही ‘धन संग्रह’ की जिम्मेदारी सौंपते हैं। इनकी ‘ख्याति’ के चलते, नेता भी इनके पास अपरिहार्य स्थिति में ही जाते हैं। कामकाज इतना पारदर्शी और साफ-सुथरा कि अधिकारियों/नेताओं को असुविधा भले ही होती हो, शिकायत का मौका नहीं मिलता। इनके दिए निर्णयों में से एक पर भी अपील नहीं हुई है।

अधिकारीजी कह रहे थे और प्रसादजी ‘विचित्र किन्तु सत्य’ की तरह सुने जा रहे थे। मेरे लिए नया कुछ भी नहीं था। सब कुछ ‘बासी’ था। इस बीच चाय खत्म हो चुकी थी। अधिकारीजी ने दूसरी बार बनवाई। वह भी खत्म हो रही थी। अपनी बात समाप्त करते हुए अधिकारीजी ने कहा - ‘प्रसादजी! जितना मुझे कहना था, कह दिया। आपको और कुछ पूछना हो तो पूछिए। मेरी बातो को आप सच मानें या न मानें, मेरे बारे में आप क्या धारणा बनाएँ, मुझे ईमानदार मानें या भ्रष्ट, यह चिन्ता मुझे बिलकुल ही नहीं है। मुझे आपके नहीं, अपने ही सवालों के जवाब खुद को देने हैं। इतना भरोसा कीजिएगा कि आपने जो चाय पी है, उसकी एक बूँद भी रिश्वत या भ्रष्टाचार की नहीं है।’

प्रसादजी ‘बुड़बक’ की तरह, हक्के-बक्के, स्तब्ध, अविचल बैठे, सूनी नजरों से अधिकारीजी को देखे जा रहे थे। उन्हें कुछ भी सम्पट नहीं पड़ रही थी। मैंने उनका कन्धा सहलाया और कहा - ‘और कुछ पूछना हो तो पूछिए। वर्ना चलें।’ प्रसादजी अपने में लौटे और हड़बड़ा कर खड़े हो गए। चाय के लिए धन्यवाद देना तो दूर रहा, चलने से पहले, ढंग से नमस्कार भी नहीं कर पाए।

मुझे घर छोड़ने तक भी वे सहज नहीं हो पाए। उनकी दशा ऐसी थी मानो किसी शाप-मुक्त यक्ष ने उनकी आत्मा को सहला दिया हो। मुझसे भी बिना नमस्कार किए चले गए।

तब से लेकर अब तक मैं बहुत खुश हूँ। इसलिए नहीं कि किसी ईमानदार (या कम भ्रष्ट) अधिकारी से मैं मिला या किसी को मैंने मिलवा दिया। इसलिए कि भले ही विवशता में या संकोच में पड़कर या मुसीबत में फँसकर ही सही, एक आदमी ने सवाल करने की जोखिम लेने का साहस तो किया!
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8 comments:

  1. वैसे तो सारा उपक्रम ही रोचक है मगर सबसे मज़ेदार बात है, "बड़े अफसर हैं। नुकसान तो कर ही सकते हैं।"

    ऐसे भयातुर लोगों को तो भ्रष्टाचार आदि की बात करने का भी हक़ नहीं है।

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  2. सरकारी अमला हो या समाज, चर्चा उन्‍हीं की ज्‍यादा होती है, जो धूम मचाते रहते हैं लेकिन ऐसे लोग कम नहीं जिनके दम पर व्‍यवस्‍था टिकी रहती है.

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  3. कितने ही लोग ऐसा डर पाले चुपचाप निकल जाते हैं..कम से कम प्रसाद जी की भटक तो आपने खोल ही दी.

    रोचक वृतांत.

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  4. बहुत अच्‍छी पोस्‍ट। तुम पूछो, तुम पूछो वाले लोगों से हमेशा ही पाला पड़ता है। अरे भाई तुम ही क्‍यों नहीं पूछ लेते? स्‍वयं भले बने रहने की चाहत को क्‍या कहेंगे? या दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने वालों को क्‍या कहेंगे? वैसे अधिकारीजी का रोल पसन्‍द आया।

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  5. आपकी और अधिकारीजी की इस सहमती में उनका घूस लेना लाजमी है कि घूस देना गलत नहीं है ।

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  6. lajawaab - ‘नौकरी करता हूँ, इसलिए रिश्वत लेनी पड़ती है। रिश्वत लेने के लिए नौकरी नहीं करता।’

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  7. अपना अपना दृष्टिकोण है इसके बारे में।

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