अठारह मई के बाद वाले आठ-दस दिनों के बाद, जब-जब भी फोन घनघनाया, तब-तब, हर बार, भयभीत हुआ - ‘कहीं रविजी का फोन न हो। मेरी आयु का लिहाज कर, वे डाँटें भले ही नहीं, अप्रसन्नता और खिन्नता अवश्य जताएँगे।’ किन्तु हर बार मेरा भय निर्मूल निकला और हर बार राहत की साँस ले, मैं खुश हुआ। किन्तु अचानक ही लगा कि कहीं वे इतने अधिक अप्रसन्न और खिन्न तो नहीं कि फोन ही नहीं कर रहे? इस विचार ने और अधिक भयभीत कर दिया। इस क्षण तक भयभीत हूँ - यह भली प्रकार जानते हुए कि हम दोंनों के बीच ऐसा कोई सम्बन्ध, ऐसी कोई स्थिति नहीं कि वे मुझे कोई हानि पहुँचाएँ। फिर भी भय बना हुआ है।
सत्रह मई के बाद से मेरा ब्लॉग लेखन बन्द पड़ा है। आलस्य के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं। खराब से खराब मनोदशा में भी लिखना जारी रखा जा सकता है - यह मेरा अनुभूत सत्य है। समय भी भरपूर रहता है और विषय भी। आयु का और थकान का भी कोई प्रतिकूल प्रभाव ऐसा और इतना नहीं होता कि इतने दिनों तक जड़ता छाई रहे। ले-दे कर आलस्य ही इसका एकमात्र कारण होता है और मैं इसी के अधीन ‘जड़’ बना रहा।
इस बीच एक बार रविजी से बात हुई। उनका सन्देश मिला था तो बात तो करनी ही थी। डरते-डरते ही फोन किया था। काम की बात होने के बाद भी जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो लगा, वे ‘तनिक अधिक’ से कहीं आगे ‘अत्यधिक’ की सीमा तक अप्रसन्न और खिन्न हैं। सो, अपनी ओर से ही, डरते-डरते स्पष्टीकरण शुरु किया। किन्तु उन्होंने बीच में ही मेरी बात रोक दी। साँत्वना बँधाते हुए (यहाँ मैं ‘साँत्वना बँधाते हुए’ के स्थान पर ‘पुचकारते हुए’ या फिर ‘लाड़ से सहलाते हुए’ जैसी शब्दावली प्रयुक्त करना चाह रहा था) बोले - ‘‘ऐसा होता है। इसे ‘रायटर्स ब्लॉक’ कहते हैं और कोई भी इसका शिकार हो सकता है। आप तो बस कोशिश कीजिए कि इस जकड़न से जल्दी से जल्दी मुक्त हो जाएँ। लिखना शुरु का दें।’
मैं आश्वस्त ही नहीं, चकित भी हुआ था यह सुनकर। उनके स्वरों में उलाहना, क्षोभ जैसा कुछ भी नहीं था। था तो बस मेरा ‘हित चिन्तन।’ उस क्षण लगा था, माँ के बाद गुरु ही, उदारमना हो, शरण दे सकता है और क्षमा कर सकता है।
रविजी मेरे ब्लॉग गुरु हैं। आलसी होने के मेरे अपराध को, मेरी याचना से पहले ही क्षमा कर चुके हैं। ऐसे में, लिखने की शुरुआत के लिए आज, ‘गुरु पूर्णिमा’ से अच्छा दिन और क्या हो सकता है?
'ब्लॉगअड्डा' को दिए अपने इस साक्षात्कार में रविजी ने, ‘ब्लॉग’ की बेहतरी के लिए ‘नियमित ब्लॉग’ लेखन आवश्यक बताया था। नहीं जानता कि मैं कितना नियमित रह सकूँगा किन्तु यथा सम्भव प्रयत्न अवश्य करूँगा कि नियमित रह सकूँ।
सो, आज के पवित्र प्रसंग पर, अपने ब्लॉग गुरु श्री रवि रतलामी को प्रणाम करते हुए, फिर से शुरु हो रहा हूँ।
तस्मै श्री गुरवै नमः।
गुरुजनों का आशीर्वाद आपको मिलता रहे.
ReplyDeleteनियमित रहें, हमें भी लाभ मिलता रहेगा, पढ़ने का..
ReplyDeleteहा हा हा..
ReplyDeleteआपने तो मुझे नया, इंटरनेटी द्रोणाचार्य बना दिया है! :)
लगता है आपके आपके कंप्यूटर का कीबोर्ड ही गुरुदक्षिणा में मांगना पड़ेगा :)
बाकी, बीमा और निवेश विषयों में आप भी हमारे गुरु हैं. आपको भी प्रणाम और शुभकामनाएँ!
मैं भी खुद को 'एकलव्य' ही माने लगा हूँ - अशिष्ट, अवज्ञाकारी, आलसी एकलव्य।
Deleteहम भी अनियमित हो चले हैं, काम के दबाब में
ReplyDeleteadbhut GURU DAKSHINA .
ReplyDeleteसाँत्वना बँधाते, पुचकारते, लाड़ से सहलाते
ReplyDeleteकैसे भी सही
शुरू तो हुए ना!?
बस इत्ता ही चाहिए :-)