यह ईश्वरेच्छा ही थी कि मैं ज्ञानजी (याने, अग्रणी और स्थापित ब्लॉगीया श्री ज्ञानदत्त पाण्डेय) से ‘अब’ मिलूँ। ‘अब’ याने, 16 जुलाई 2012 की शाम को। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि ज्ञानजी के, लगभग डेड़ दशक के रतलाम आवास के दौरान उनसे मिलना नहीं हुआ।
मैं तो उनके बारे में थोड़ा बहुत जानता था किन्तु वे मेरे बारे में नहीं जानते थे। ‘ब्लॉग’ के कारण ही उन्होंने फौरी तौर पर मेरे बारे में जाना और जब जाना तो तनिक अचरज से पूछा - ‘आप रतलाम से? फिर अपना मिलना क्यों नहीं हुआ?’ जवाब में मैंने कहा था - ‘तब आपसे मिलना आसान कहाँ था?’ तब वे एक ‘कड़क’ अफसर के रुप में पहचाने जाते थे और मुझे कभी ऐसा कोई काम नहीं पड़ा कि उनके दफ्तर जाना पड़े। अब सोचता हूँ, ईश्वर चाहता था कि ‘तब’ हम दोनों नहीं मिलें। मिल लेते तो यह पोस्ट नहीं लिखी जाती। उनका ‘कड़कपन’ और मेरा ‘अक्खड़पन’ निश्चय ही, कहीं न कहीं ऐसा टकराता कि हम दोनों एक दूसरे को प्रेमपूर्वक शायद ही याद कर पाते और मिलने पर इस तरह गले मिल कर नहीं मिलते जैसे कि 16 जुलाई की शाम को मिले। इसीलिए शुरु में कहा कि ज्ञानजी से मेरा मिलना ‘अब’ हो, यह ईश्वरेच्छा ही थी। और अब यह भी कह लेने दीजिए कि ईश्वर कभी बुरा नहीं करता। जो भी करता है, अच्छा करता है और अच्छे के लिए ही करता है।
मैं तो उनके बारे में थोड़ा बहुत जानता था किन्तु वे मेरे बारे में नहीं जानते थे। ‘ब्लॉग’ के कारण ही उन्होंने फौरी तौर पर मेरे बारे में जाना और जब जाना तो तनिक अचरज से पूछा - ‘आप रतलाम से? फिर अपना मिलना क्यों नहीं हुआ?’ जवाब में मैंने कहा था - ‘तब आपसे मिलना आसान कहाँ था?’ तब वे एक ‘कड़क’ अफसर के रुप में पहचाने जाते थे और मुझे कभी ऐसा कोई काम नहीं पड़ा कि उनके दफ्तर जाना पड़े। अब सोचता हूँ, ईश्वर चाहता था कि ‘तब’ हम दोनों नहीं मिलें। मिल लेते तो यह पोस्ट नहीं लिखी जाती। उनका ‘कड़कपन’ और मेरा ‘अक्खड़पन’ निश्चय ही, कहीं न कहीं ऐसा टकराता कि हम दोनों एक दूसरे को प्रेमपूर्वक शायद ही याद कर पाते और मिलने पर इस तरह गले मिल कर नहीं मिलते जैसे कि 16 जुलाई की शाम को मिले। इसीलिए शुरु में कहा कि ज्ञानजी से मेरा मिलना ‘अब’ हो, यह ईश्वरेच्छा ही थी। और अब यह भी कह लेने दीजिए कि ईश्वर कभी बुरा नहीं करता। जो भी करता है, अच्छा करता है और अच्छे के लिए ही करता है।
मैं ज्ञानजी का लगभग नियमित पाठक हूँ। उनका लेखन मुझे, ‘डायरी लेखन’ की लुप्त होती जा रही विधा की तरह लगता रहा। कुछ ऐसा कि मानो उन्हें पढ़ते हुए उनके साथ ही चला जा रहा हो या कि उन्हें डायरी लिखते हुए देखा जा रहा हो। अपने आसपास के धार्मिक-स्थलों, लोक-विश्वासों और ‘आबादी’ को ‘लोक’ में बदलनेवाले गुमनाम चेहरों/व्यक्तित्वों का अभिलेखीकरण (डाक्यूमेण्टेशन) करना लगता रहा मुझे ज्ञानजी का लेखन। इसकी रोचकता और वर्णन-प्रवाह यदि इसे ‘आज’ ‘अनिवार्यतः पठनीय’ बनाता लगता है तो भविष्य के जिज्ञासु पाठकों/अध्येताओं के लिए लिए ‘अत्यधिक उपयोगी विशाल सन्दर्भ ग्रन्थ’ अनुभव होता है। इन्हीं सब बातों के कारण ज्ञानजी का लेखन मुझे तनिक अतिरिक्त रूप से आकर्षित करता रहा और इसीलिए मैं उनका नियमित पाठक बना और बना हुआ हूँ।
उनसे मिलने की इच्छा तो थी और यह इच्छा अचानक ही कल पूरी हो गई। रविवार, 15 जुलाई की रात कोई साढ़े दस-पौने ग्यारह बजे हाशमीजी ने फोन पर ज्ञानजी के रतलाम आगमन की सूचना दी और कहा - ‘कल उनसे मिलने चलते हैं और लंच उनके साथ ही लेंगे।’ मेरी अपनी पारिवारिक बाध्यताओं के कारण, मैं पौने ग्यारह बजे से पहले उनसे मिल नहीं सकता था। सो मैंने हाशमीजी से निवेदन किया कि वे पहले पहुँच जाएँ। पौने ग्यारह बजते-बजते मैं भी पहुँच जाऊँगा। किन्तु ‘ईश्वरेच्छा’ थी कि मैं उनसे शाम को ही मिलूँ।
साढ़े दस बजे के आसपास मैं घर से निकलने की तैयारी कर रहा था कि ज्ञानजी का फोन आया। कह रहे थे कि पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं के चलते उन्हें तत्काल निकलना पड़ रहा है इसलिए मैं अभी नहीं पहुँचूँ। उन्होंने कहा - ‘शाम को फ्री होते ही मैं आपको खबर करूँगा।’ मालूम हुआ कि हाशमीजी वहीं बैठे थे।
शाम लगभग साढ़े पाँच बजे ज्ञानजी का फोन आया - ‘मैं मुकाम पर पहुँच गया हूँ।’ मैंने पूछा - ‘मैं कब आऊँ?’ जवाब मिला - ‘कभी भी आ जाईए।’ कपड़े बदलते-बदलते सोचा, हाशमीजी से पूछ लूँ। उनसे बात हुई तो मालूम हुआ कि ज्ञानजी से एक बार फिर मिलने की उनकी ‘बेकरारी’, उनके घर आए कुछ मेहमानों के कारण ‘बेबसी’ में बदल गई है। सो, मैं अकेला ही पहुँचा।
रतलाम रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नम्बर चार से लगी साइडिंग पर ज्ञानजी का ‘निरीक्षण यान’ (सैलून) खड़ा था। यान के एक छोर पर बैठे परिचर को मैंने अपना नाम बताया। मुझे प्रतीक्षा करने की कह कर वह अन्दर गया और कुछ ही पलों में, यान का मध्यवर्ती दरवाजा खोल कर मुझे आमन्त्रित किया। दरवाजे में घुसा तो मैंने खुद को ज्ञानजी के ‘ड्राइंग रूम’ में पाया। मैं सोफे पर टिका ही था कि ज्ञानजी प्रकट हुए - दोनों बाँहें फैलाए हुए। हम दोनों गले मिले। हाथ मिलाया। हम दोनों मिले, रतलाम में ही मिले लेकिन उनके रतलाम आवास के दौरान नहीं। तब मिले जब वे खुद रतलाम के अतिथि बने हुए थे।
वे ‘प्रसन्न वदन’ तो थे किन्तु पहली ही नजर में मुझे ‘क्लान्त’ लगे। जैसा कि मैंने अनुमान लगाया था, स्वास्थ्य उन्हें सामान्य नहीं होने दे रहा था। पहली बार आमने-सामने मिलनेवाले दो अनजान लोगों की तरह ही हम दोनों के पास कहने-सुनने के लिए कोई खास विषय नहीं थे किन्तु ऐसा भी नहीं हुआ कि हम शुरुआत ही मौसम की बातों से करते। श्री प्रवीण पाण्डेय को ब्लॉग जगत में लाने के लिए मैंने उन्हें विशेष धन्यवाद दिया। बिना माँगी सलाह दी कि वे अपने लिखे को पुस्तकाकार में प्रकाशित करने पर विचार करें। उन्होंने ‘तत्क्षण’ (जिसे अंग्रेजी में ‘विदाउट थॉट’ कहते हैं) उत्तर दिया - ‘प्रिण्ट में मेरी रुचि नहीं है।’ उनके लेखन को लेकर मैंने अपनी राय उन्हें बताई और कहा कि इलाहाबाद-बनारस अंचल में ‘अध्ययन और अनुसन्धान’ एक परम्परा है और इलाहाबाद के जिन सन्दर्भों का वे ‘डायरी नोट्स’ की शकल में अभिलेखीकरण कर रहे हैं, वह ‘अध्येताओं’ के लिए आधार-भूमि का काम करेगा। मैंने यह भी कहा कि हम लोग भले ही ‘नेट-नेट’ करते रहें किन्तु हकीकत यह है कि आबादी का अल्पांश ही अब तक ‘नेट’ से जुड़ा हुआ है और अधिसंख्य लोग आज भी ‘प्रिण्ट’ के आदी हैं और उसी पर ही निर्भर भी। इसलिए भी उन्हें मेरी बात पर विचार करना चाहिए। मैंने कहा - ‘आप भले ही समझ रहे हों कि आप इलाहाबाद को लिख रहे हैं किन्तु हकीकत यह है कि इलाहाबाद आपके जरिए खुद बोल रहा है।’ उन्होंने हामी तो भरी किन्तु ऐसी और इस तरह कि इंकार ही सुनाई दिया।
पाण्डे दम्पति
ज्ञानजी का डेड़ दशक का रतलाम आवास, मेरे पहुँचने से पहले ही सैलून में अपना संसार बसा चुका था। दो लोग तो पहले से प्रतीक्षारत थे ही, मेरे पहुँचने के बाद भी लोगों का आना बराबर बना रहा। मेरे सिवाय कोई भी खाली हाथ नहीं था। मित्र से आगे बढ़कर मेरे संरक्षक बन चुके, रेलवे के हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर सुभाष भाई को जब मैंने ज्ञानजी के रतलाम में होने की जानकारी दी तो वे परेशान हो गए। वे भी मिलना चाह रहे थे किन्तु पूर्व निर्धारित व्यस्तताओं ने उन्हें जकड़ रखा था। उनके नमस्कार और क्षमा-याचना मैंने ज्ञानली को सौंपी ही थी कि उनका सन्देशवाहक पहुँच गया। रतलाम के पर्याय पुरुष बन चुके डॉक्टर जयकुमारजी जलज की पुस्तक ‘भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन’ की दो प्रतियाँ सुभाष भाई ने ज्ञानजी के लिए पहुँचाई थीं। इसी बीच ज्ञानजी की उत्तमार्द्ध रीताजी भी ड्राइंग रूम में आ चुकी थीं। उनके पास कहने को इतना कुछ था कि हममें से किसी को बोलने की आवश्यकता ही नहीं हो। विगलित होने की सीमा तक वे बार-बार कह रही थीं - ‘रतलाम ने हमें जो दिया, उसे भुलाया नहीं जा सकता।’ वे यही रट लगाए हुए थीं और मैं हर बार टोक रहा था - ‘आपने सद्भाव के बीज बोए थे, उसी की फसल के ढेर आपके आँगन में जमा हुए।’ मिलनेवाला जो भी आ रहा था, ज्ञानजी के सहयोग, संरक्षण, उपकार गिना रहा था। एक सज्जन ने बताया (उनका नाम मुझे भटनागर साहब याद आ रहा है) कि वे इन्दौर से आए थे और अचानक ही उन्हें ज्ञानजी के रतलाम में होने की जानकारी मिली तो वे भाग कर ‘सैलून’ पर पहुँचे। बात करने की उनकी प्रत्येक कोशिश गले की भर्राहट में बदलती रही। आँसू भरी उनकी बातों का निष्कर्ष था कि ज्ञानजी के कारण ही उनके परिवार का भविष्य सुधर गया, उनके बच्चे समुचित रूप से उच्च शिक्षित हो सके। साफ लग रहा था कि उनका मन जाने का बिलकुल ही नहीं था किन्तु जाना उनकी मजबूरी थी। जाते-जाते रुँधे कण्ठ से बोले - ‘सर! आज तो मुझे अचानक मालूम हो गया। अगली बार आप जब भी पधारें, मुझे अलग से खबर जरूर कीजिएगा।’ कह कर वे रीताजी की ओर मुखतिब हो गए। बोले - ‘मैडम! आप नहीं जानतीं, सर ने मेरे लिए क्या किया?’ और जाने के लिए खड़े हुए भटनागरजी ने खड़े-खड़े ही एक बार फिर वे सारी बातें कहीं जो वे पहले रुक-रुक कर कह पाए था। यह एक नमूना था, ज्ञानजी की ‘अर्जित सम्पदा’ का।
लोगों का आना-जाना बना हुआ था। मुझसे बाद में आए लोग, मुझसे पहले, मेरे सामने ही विदा हो रहे थे लेकिन मैं सोफे में धँसा बैठा था - जस का तस। रीताजी के मुँह से रतलाम के बारे में सुनना मुझे अच्छा लग रहा था। कैसे उनके किराना व्यापारी ने उन्हें पहली ही नजर में पहचान लिया, कैसे जलाराम स्वीट्सवाला उन्हें देखकर खुशी के मारे अकबका गया, ऑरो आश्रम में पहुँचने पर कैसे उन्हें सब कुछ वैसा का वैसा ही लगा आदि-आदि। लग रहा था, वे कुछ ही पलों में समूचे डेड़ दशक के प्रत्येक पल को एक बार फिर जी लेना चाह रही हों - किसी स्कूली बच्चे की तरह। इस दौरान वे, स्वल्पाहार की व्यवस्था कर सुघढ़ और जिम्मेदार गृहिणी की भूमिका भी निभा रही थीं।
समय चक्र भले ही अविराम चलता रहे किन्तु समय के अधीन लोगों को तो विराम लेना ही पड़ता है। सो, मुझ ‘बतरस के व्यसनी’ ने भी विराम लिया। पाण्डेय दम्पति से विदा ली। ज्ञानजी से अनुरोध किया कि वे खुद के लिए न सही, ब्लॉग जगत के लिए स्वस्थ रहें। (इस बारे में वे मुझे भरपूर सतर्क लगे। इसीलिए, सुबह हाशमजी द्वारा लाई गई, रतलाम की प्रख्यात ‘कारू मामा की कचोरी’ को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया। कहा कि वे इसके ‘जायके का आनन्द लेने की जोखिम’ इलाहाबाद पहुँच कर ही उठाएँगे।) सैलून के दरवाजे तक आकर दोनों पति-पत्नी ने मुझे विदा किया।
मुझे भूखा रख दिया दोनों ने
बात पहले ही काफी लम्बी हो गई है किन्तु दो ‘बड़े-बूढ़े ब्लॉगियों’ द्वारा मुझ ‘बच्चा ब्लॉगीया’ पर किया गया अत्याचार परोसने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ।
रविवार की रात को हाशमीजी ने जब कहा कि सोमवार को लंच ज्ञानजी के साथ लेंगे तो मैंने तत्क्षण ही मेरी उत्तमार्द्ध को कहा - ‘कल मेरा भोजन मत बनाइएगा। ज्ञानजी के साथ भोजन होगा।’ उन्होंने मेरा कहा माना। मेरा भोजन नहीं बनाया। और जैसा कि मैंने कहा, घर से निकलने से ठीक पहले ज्ञानजी का सन्देश मिला कि वे तो निकल रहे हैं और शाम को ही मिलेंगे। हाशमजी वहीं बैठे थे। उनसे पूछा - ‘अब लंच का क्या?’ अत्यधिक संकोचग्रस्त हाशमीजी बोले - ‘अब मैं क्या कहूँ? सारी बात तो आपके सामने है!’ और इस तरह मेरे दानों ‘वरिष्ठों’ ने अनजाने ही मेरा ‘श्रावण सोमवार व्रत’ करवा दिया।
यह विचित्र कष्ट
मेरे बड़े बेटे ने मुझे मँहगा मोबाइल दिलवाया हुआ है। उसी से मैंने पाण्डेय दम्पति के चित्र लिए और ज्ञानजी के एक मिलनेवाले से मेरा और ज्ञानजी का चित्र खिंचवाया। किन्तु मेरा अभाग्य कि मोबाइल को कम्प्यूटर से जोड़नेवाली डोरी मुझे मिल ही नहीं रही। इसलिए, वे चित्र मैं इस समय यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ। हाशमीजी ने फेस बुक पर, अपने पन्ने पर जो चित्र लगाया है, वही मैंने भी उपयोग में लिया है।
आपकी पोस्ट इतनी धारा प्रवाह होती है कि पढ़ते वक़्त एक क्षण भी नहीं रुकते है और ख़त्म होने पर लगता है कि बड़ी जल्दी ख़त्म हो गई.
ReplyDeleteखुबसूरत संस्मरण
ReplyDeleteआपका बड़ा बेटा बिलकुल निठल्ला है. उसे मेरी ओर से एक चपत लगाइए. इतना महंगा मोबाइल आपको दिला दिया मगर उसका प्रयोग करना नहीं सिखाया. महंगे मोबाइल से फोटो कंप्यूटर और इंटरनेट में डालने के लिए डोरी की तो जरूरत होती ही नहीं है - ब्लूटूथ और वाई फाई या 3जी नेट कनेक्शन से बिना डोरी के यह काम होता है. यह जल्द सीख लें. :)
ReplyDeleteसही में, मेरा फ़ोन तो सस्ता है, पर बिना डोरी के फ़ोटो उससे इधर उधर बिना झंझट के कर लेता हूं। डोरी ले कर चलता भी नहीं।
Deleteरवि जी इस स्नेह के लिए आपका धन्यवाद.
Deleteमुझे सुबह पोस्ट पढ़ते ही लग गया था की आज पापा को 'गेजेट ज्ञान' मिलने वाला है.
आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है; लगता है की अब 'डोरी' की डोर से पापा को निजात मिल जाएगी. आज सुबह एक तरीका सुझाया है, देखे काम होता है या दूसरा तरीका आजमाना पड़ेगा.
'चपत' लगाते रहें, आशीर्वाद बरसाते रहें.
रविजी,
Deleteआज का सवेरा वल्कल के फोन से ही हुआ। उसने बताया कि मैं बिना डोरी के ही चित्र अपने लेप टॉप पर प्राप्त कर सकता हूँ। अपनी व्यस्तता के कारण मैं तत्काल तो कुछ नहीं कर पाया किन्तु अभी-अभी थोडी देर पहले, मोबाइल से दोनों चित्र, ई-मेल के जरिए अपने लेप टॉप पर प्राप्त कर, पोस्ट पर चिपका दिए हैं। यह अनुभव मेरे लिए 'रोमांचक' से कम नहीं है।
आपकी फटकार को सलाम। वल्कल बडभागी है जो उसे आपकी ओर से यह उपहार मिला। उस पर नजर बनाए रखिएगा।
अरे, हम सोच रहे थे कि आपने फ़ोटो अपलोड किया होगा। डोरी तलाशिये न!
ReplyDeleteज्ञानजी,
Deleteरविजी को लिखा मेरा उत्तर और पोस्ट देख लीजिएगा। बिना डोरी के चित्र चिपकाने का रोमांचक काम कर लिया मैंने।
आपके साथ ऐसा लगा जैसे हमारी भी मुलाकात हो रही है, सब कुछ सामने ही घटित हो रहा है ।
ReplyDeleteकृष्ण सुदामा मिलन जैसा कुछ कुछ. बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteआपने बिलकुल ठीक कहा। बतियाते हुए पूरे समय मुझे यही लगता रहा कि मैं रूकमिणी-कृष्ण से बतिया रहा हूँ।
Deleteमिलो तो ऐसे मिलो.. बहुत सुन्दर शब्द यात्रा करा दी आपने।
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ReplyDeleteबहुत बढ़िया हुआ जो आप दोनों मिल लिये। ज्ञानदत्तजी का ही वरदहस्त है जो इतना नियमित लिखने का क्रम बन गया है।
ReplyDeleteइस विवरण की प्रतीक्षा थी । आपने भी रतलामी तड़का लगाते हुए इस मुलाकात को स्वादिष्ट बनाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी ।
ReplyDeleteपंद्रह बरस कम नहीं होते । अपने ज्ञानजी को रतलामी भी हैं और इलाहाबादी भी ।
बहुत अच्छा लगा पढकर ...
ReplyDeleteएक नजर समग्र गत्यात्मक ज्योतिष पर भी डालें
वाह! चलिए आपकी तो मुलाकात हो गई ज्ञानजी से। देखें हमारी मुलाकात कब होती है।
ReplyDeleteइस मुलाकात के साक्षी हम भी बन गए और पूरा का पूरा आनंद भी ले लिया।
ReplyDeleteआनन्द! विशिष्ट ब्लॉगरों का मिलन! काश मैं भी वहाँ होता!
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