प्रयत्नवादी प्राचार्य : परिणाममूलक परिश्रम

‘‘आपमें से किसी ने कहा कि मैं तीन दिनों में आज नजर आई हूँ। वह भी सत्र समापन के मौके पर। मैं तो आज भी नहीं आती। लेकिन आपमें से दो सज्जनों ने अपने आकलन (मार्किंग) में, हमारे दो फेकल्टी मेम्बरांे को ‘सामान्य से कम’ की रेंकिंग दी है। मैं तो वही जानने आई हूँ कि हममें क्या कमियाँ है ताकि उन्हें दूर कर, आपके लिए अच्छी से अच्छी ट्रेनिंग की व्यवस्था की जा सके। मैं तो पर्दे के पीछे ही रहना चाहती हूँ। सामने नहीं आना चाहती। आपने फिल्में देखी हैं? किसी में आपने डायरेक्टर को देखा है? नहीं ना? मैं भी बस वैसी ही हूँ। मुझे अपने दिखने की नहीं, अपनी फिल्म की, उसके हिट होने की चिन्ता रहती है। वही मेरा काम भी है और मैं वही कर रही हूँ - आपके लिए बढ़िया ट्रेनिंग की, आवास और खान-पान की बढ़िया व्यवस्थाएँ जुटाने की कोशिशें।’’ कह कर श्रीमती प्रीती पँवार थमीं तो कक्षा में कुछ पल तो ‘सुई-पटक सन्नाटा’ (पिन ड्रॉप सायलेंस) छाया रहा और फिर तालियाँ गूँज उठीं।

साल भर से ऊपर हो गया है प्रीतीजी को, हमारे (भारतीय जीवन बीमा निगम के) इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र का प्राचार्य बन कर आए। मुझे तो कुछ भी पता नहीं किन्तु प्रशिक्षण में आए कुछ एजेण्ट मित्रों ने बताया कि वे गए बरसों में पाँच-सात बार आ चुके हैं किन्तु प्रीतीजी के आने के बाद से ‘केन्द्र’ की दशा और दिशा में ‘आमूलचूल परिवर्तन’ आया है। सब कुछ बदल गया है। लगता ही नहीं कि यह पहलेवाला ही प्रशिक्षण केन्द्र है।

हम एजेण्ट लोग तारीफ करने के मामले में कंजूस हैं। खासकर अपने अधिकारियों की तारीफ करने के मामले में। और बात जब पीठ पीछे बातें करने की हो तो यह कंजूसी, आलोचना करने और खिल्ली उड़ाने की ‘अतिशय उदारता’ में बदल जाती है। किन्तु प्रीतीजी के मामले में यहाँ तो बिलकुल ही उल्टा हो रहा था। इस ‘उल्टेपन’ ने ही मेरी जिज्ञासा बढ़ाई और खोज-बीन में जो हासिल हुआ वह अभूतपूर्व हो न हो, उल्लेखनीय तो है ही।

प्रशिक्षण को लेकर प्रीतीजी ने समस्त संकाय सदस्यों से बात कर, उन्हें विश्वास में लेकर, प्रशिक्षण के व्यवहार में ‘अवधारणागत, चारित्रिक आमूलचूल परिवर्तन’ किया। वही, जिसे अंग्रेजी में ‘रेडीकल चेंज’ कहा जाता है। सबसे पहला काम उन्होंने किया - सारा काम, समूचा सम्वाद-सम्प्रेषण हिन्दी में करने का। उन्हें अंग्रेजी से न तो परहेज है और न ही बैर। किन्तु ‘‘अपनी बात यदि ‘लक्ष्य’ (एजेण्टों) तक नहीं पहुँचे तो सारी उठापटक व्यर्थ हो जाती है, समूचा परिश्रम, सारे साधन-संसाधन निरर्थक हो जाते हैं और प्रशिक्षण का औचित्य ही नष्ट हो जाता है। इसलिए, सम्प्रेषण का हमारा माध्यम वही हो, जहाँ हम काम कर रहे हैं और जिनके लिए काम कर रहे हैं।’’ सो, सब कुछ ‘स्थानीय’ हो गया। इस सीमा तक कि उनके दो अग्रणी सहयोगियों, श्री बी. एल. अकोतिया और श्री एस. सी. पालोद्रिया के व्याख्यानों में मालवी के ठेठ देशज शब्द आने लगे। (कोई ताज्जुब नहीं कि यह महत्वपूर्ण बात खुद इन दोनों सज्जनों को भी पता न हो।)
                                                      अकोतियाजी और प्रीतीजी के साथ मैं

‘निगम प्रबन्धन’ इन दिनों, ‘वित्त प्रबन्धकों तथा सम्पदा प्रबन्धकों’ (फायनेंशियल मेनेजर तथा वेल्थ मेनेजर) के एकीकृत प्रशिक्षण (यूनीफाइड ट्रेनिंग) पर जोर दे रहा है। प्रीतीजी ने इस प्रशिक्षण की, पॉवर प्वाइण्ट प्रस्तुतियों की 272 स्लाइडें हिन्दी में बनवाईं। मैंने अनुभव किया है कि इन स्लाइडों की हिन्दी तनिक अशुद्ध तथा वाक्य विन्यास सुधार की सम्भावनाओंवाला है किन्तु ‘रोमन में हिन्दी’ के मुकाबले ‘देवनागरी में अंग्रेजी’ अधिक ग्राह्य तथा अधिक स्वीकार्य हो रही है, बात एजेण्टों तक सीधे पहुँच रही है।

प्रीतीजी यहीं तक सीमित नहीं हैं। वे ‘प्रशिक्षण की आवश्यकताओं का विश्लेषण’ लगातार कर रही हैं और इसी के चलते अब तक 700 से अधिक एजेण्टों के लिखित ‘फीड बेक’ के आधार पर, प्रशिक्षण में निरन्तर परिवर्तन और परिवर्द्धन कर रही हैं। इस फीड बेक के विश्लेषण के लिए उन्होंने विशेष माड्यूल भी तैयार करवाया है।


किन्तु मुझे जिस बात ने अधिक प्रभावित और आकर्षित किया वह कुछ और ही है। अपने संकाय सदस्यों से ‘खुली चर्चा’ कर उन्होंने अभूतपूर्व परिवर्तन किया है। अब तक यह होता आया है कि प्रशिक्षण का स्तर और ढाँचा पूर्व निर्धारित होता था और एजेण्टों को उसके अनुसार खुद को तैयार करना पड़ता था। प्रीतीजी ने इसे एकदम उलट दिया। अब प्रशिक्षण से पहले, एजेण्टों का स्तर तलाशने के लिए एक छोटी सी लिखित परीक्षा ली जाती है जो परीक्षा नहीं होती - एजेण्टों को जानने की कोशिश होती है। तमाम प्रतिभागियों के जवाबों के आधार पर एक औसत स्तर तय कर, तदनुसार ही प्रशिक्षण का स्तर तय किया जाता है। स्तर का यह निर्धारण, प्रशिक्षण के प्रत्येक सत्र में, हर बार होता है। याने, प्रत्येक सत्र के प्रशिक्षण का स्तर आवश्यकतानुसार, अलग-अलग तय किया जाता है। इसे यूँ समझा जा सकता है कि अब तक, ‘प्रशिक्षण’ तीसरी मंजिल पर स्थित होता था और एजेण्ट को वहाँ पहुँचना होता था। अब प्रीतीजी ने यह कर दिया है कि ‘प्रशिक्षण’, दरवाजे पर खड़े एजेण्ट के पास जाता है और उसकी अंगुली पकड़कर उसे तीसरी मंजिल पर लाता है। इसके लिए प्रीतीजी ने अपने संकाय सदस्यों की बैठकें लेकर व्याख्यानों का ‘ड्राय रन’ भी लिया - याने, प्राध्यापकों ने, खाली कक्षाओं में एकाधिक बार ‘अभ्यास-व्याख्यान’ दिए।

                      
संकाय सदस्य श्रीमती मन्‍दाकिनी पेशवे, सर्वश्री बी.एल.अकोतिया,एस.सी्. पालोद्रिया, डी.मोहन तथा नितिन वैद्य

इस ‘तरीके’ के परिणाम बिलकुल वैसे ही मिले जैसे कि मिलने चाहिए थे। प्रीतीजी के आने से पहलेवाले वर्ष में, इन्दौर केन्द्र ने लगभग सवा तेरह सौ एजेण्टों को प्रशिक्षण दिया था जबकि प्रीतीजी के आने के बादवाले वर्ष में यह आँकड़ा सवा दो हजार से अधिक का हो गया है। यह क्रम बना हुआ है और चालू वर्ष के पहले चार महीनों में लगभग एक हजार एजेण्ट यहाँ से प्रशिक्षण ले चुके हैं। प्रीतीजी खुद भी कभी-कभार पीरीयड लेती हैं और अन्य संकाय सदस्यों की कक्षा में बैठक कर ‘प्रशिक्षु’ की तरह व्याख्यान सुनती हैं।

जैसा कि शुरु में ही मालूम हुआ था, प्रीतीजी एक ‘डायरेक्टर’ की तरह ही व्यवहार करती हैं। वे अपने कार्यालय में बन्द होकर नहीं बैठतीं। जब सब अपने काम में लगे होते हैं तो वे छात्रावास का मुआयना करती हैं, साफ-सफाई का जायजा लेती हैं। अपने ‘हाउस कीपिंग’ विभाग पर वे इन दिनों तनिक अधिक ध्यान देती लगीं मुझे। प्रशिक्षण के प्रत्येक सत्र में वे कम से कम एक बार, एजेण्टों के साथ केण्टीन में अकस्मात ही भोजन करने पहुँच जाती हैं। वे केवल ‘प्रयत्नवादी’ नहीं हैं, वे सजग रहती हैं कि उनका परिश्रम ‘परिणाममूलक’ भी हो।

जिस मनोयोग से वे प्रशिक्षण केन्द्र की सकल बेहतरी के लिए जुटी हुई हैं, उससे मेरी पहली धारणा यह बनी कि वे कुशल प्रशासनिक अधिकारी तो हैं ही किन्तु उससे अधिक वे कुशल अकादमिक अधिकारी हैं। अनायास ही लगने लगता है मानो वे ‘प्रशिक्षण’ के लिए ही बनी हों।
मैंने उनके ‘विजन’ के बारे में उन्हें टटोलना चाहा तो वे हँस कर रह गईं। जो कुछ उन्होंने बताया उसका एक ही मतलब निकाल पाया कि वे प्रशिक्षण केन्द्र की सफलता में ही अपनी सफलता देखती हैं। मेरे अनुमान के अनुसार उनकी इच्छा और कोशिश है कि इन्दौर प्रशिक्षण केन्द्र, ‘निगम’ के, देश में स्थित 34 प्रशिक्षण केन्द्रों में यदि प्रथम स्थान पर न आ सके तो कम से कम प्रथम दस में तो आ ही जाए।

भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है - कोई नहीं जानता। वैसे भी हमारे नियन्त्रण में केवल प्रयत्न  हैं। परिणाम नहीं।  किन्तु जिस लगन और  ‘प्रीती भाव’ से प्रीतीजी अपने अभियान में जुटी हुई हैं और अपने संकाय सदस्यों का जो आत्मपरक सहयोग उन्हें मिल रहा है, उसे देखकर सहज ही विश्वास होता है कि सफलता भी उनसे प्रीती जताएगी और उनकी मनोकामनाएँ पल्लवित, पुष्पित होने से आगे बढ़कर फलवती होंगी।

भगवान करे, ऐसी प्रीतीकारी प्राचार्य हमारे प्रत्येक प्रशिक्षण केन्द्र को मिले।

7 comments:

  1. समझबुझ के साथ कर्मठता का संयोग अनूठा और अनुकरणीय हैं ... देश के बड़े मंगल का कारण भी ... वें अपने प्रयत्नों से खूब सफल हो /

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  2. काम हो, नाम तो उस के पीछे चलता है।

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  3. प्रीती जी का अबिनंदन करता हूँ.

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  4. सरकारी संस्थाओं में ऐसे उदाहरण आमतौर पर अपवाद स्वरूप होते हैं. इक्का दुक्का. प्रीति जी को हमारा भी नमन.

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  5. प्रबन्धन की कई बातें सीखी जा सकती हैं प्रीती जी से...

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  6. Dear Vishnu ji,
    Maaf kijiyega mai hindi me nahi likh raha hun.
    Apni patni ke baare me yeh sab padhkar bahut achha laga, bahut dhanyawad.
    Meri training abhi 25 varsho ke saath ke baad bhi chal rahi hai to aap andaaz laga sakte hain ki kitni 'kharab' trainer hain wo.
    Aadar Sahit
    Col Mahak Singh Panwar
    +232 78367252

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    1. आपका सन्‍देश मेरे लिए 'सुखद आश्‍चर्य' है। कल्‍पनातीत। सर्वथा अनपेक्षित। समझ नहीं पा रहा हूँ कि यह सब आपने कैसे पढ लिया? आपकी टिप्‍पणी के लिए कोटिश: धन्‍यवाद और आभार। यदि आप नियमित 'ब्‍लॉग पाठक' हैं तो यह मेरे लिए अतिरिक्‍त प्रसन्‍नता का विषय है।

      जिस ट्रेनिंग की वजह से मैंने 'यह सब' लिखा है, उसमें हम 34 ट्रेनी एजेण्‍ट थे। किन्‍तु सबके अनुभव एक जैसे नहीं रहे। हो भी नहीं सकते। कुछ ट्रेनी ऐसे भी होते हैं जो अच्‍छे-अच्‍छे, तीसमारखॉं, सूरमा ट्रेनरों को पानी पिला देते हैं, धोबीपछाड के जरिए आसमान दिखा देते हैं।

      आपकी टिप्‍पणी से मुझे बडा सुख मिला। लगा, टिप्‍पणी के नीचे मेरे नाम के स्‍थान पर गलती से अपका नाम लिख दिया गया है। मैं भी, 36 वर्षों के बाद भी, अब तक ट्रेण्‍ड नहीं हो पाया हूँ। आपकी टिप्‍पणी से प्रोत्‍साहित होकर मैं आपका शागिर्द बनना चाहता हूँ। अर्जी भेजने का अता-पता उपलब्‍ध कराऍं। आपको भी मुझ जैसा शागिर्द पाकर यदि अच्‍छा नहीं लगेगा तो बुरा भी नहीं लगेगा।

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