ऐसा क्यों होता है कि बात नई न होने पर भी कचोटती, ध्यानाकर्षित करती है? यह बात का प्रभाव है या अनदेखी न करने की आदत का दुःख? पता नहीं। किन्तु हर बार की तरह ही, बात बहुत छोटी तो है ही, कचोटनेवाली और ध्यानाकर्षित करनेवाली भी है ही।
रविवार, 24 जून को मैं अवधेशजी के घर बैठा था। वे एक शासकीय विद्यालय के प्रधानाध्यापक हैं। हम दोनों बातों में मगन थे कि किसीने दरवाजा खटखटाया। अवधेशजी ने हाँक लगाई - ‘दरवाजा खुला है। आ जाईए।’ दरवाजा खुला। एक सज्जन अन्दर आए। हम दोनों को देखकर तय नहीं कर पाए कि गृहस्वामी कौन है। सो, नमस्कार किया और कहा - ‘मुझे अवधेश सर से मिलना है। बात करनी है।’ अवधेशजी ने उन्हें सादर खाली कुर्सी पर बैठाया और कहा - ‘मैं अवधेश हूँ। कहिए?’ मेरी उपस्थिति आगन्तुक को असहज करती लगी। अवधेशजी ने कहा - ‘ये अपनेवाले ही हैं। कहिए! क्या बात करनी है?’
कुछ ‘कहने‘ के बजाय आगन्तुक ने ‘पूछा’ - ‘सर! आपके स्कूल में लेट्रीन बनवाने के लिए 45 हजार का अलॉटमेण्ट आया है। आप कब बनवा रहे हैं?’ अवधेशजी चौंके। बोले - ‘आपको कैसे मालूम? आप कौन हैं?’ आगन्तुक ने बताया कि वह सरकारी ठेकेदार है और उसे केवल अवधेशजी के स्कूल के ही नहीं, नगर के तमाम स्कूलों के आबण्टन की जानकारी है। उसने यह भी बताया कि ऐसे काम करने में वह ‘एक्सपर्ट’ है और उसके काम से आज तक कोई ‘नाराज’ नहीं हुआ है। यदि अवधेशजी उसे ‘सेवा’ का मौका देंगे तो वह सबको साध लेगा और अवधेशजी को भी नाराज होने का मौका नहीं देगा।
ठेकेदार की बात सुनकर मुझे उस पर दया आ गई। वह अवधेशजी को जानता होता तो यह ‘मूर्खता’ कदापि नहीं करता। मैं साँस रोक कर किसी ‘अनहोनी’ के घटित होने की प्रतीक्षा करने लगा। किन्तु इस बार अवधेशजी ने मुझे निराश कर दिया। हँसते हुए बोले - ‘यार! ठेकेदारजी! जितना काम होना है, वह इन 45 हजार में होगा नहीं। जब ये 45 हजार मूल काम में ही कम पड़ रहे हैं तो आप शौचालय बनाने के साथ, सबको ‘खुश’ कैसे कर लेंगे?’ ठेकेदारजी ने सहजता से कहा - ‘वह आप मुझ पर छोड़ दीजिए सर। सब हो जाएगा। इसी बात के तो पैसे लेते हैं हम लोग!’ अवधेशजी को अब शायद मजा आने लगा था। बोले - ‘जरा खुलकर समझाओ यार!’ अवधेशजी की जिज्ञासा शान्त करते हुए ठेकेदार ने पूरा हिसाब बता दिया जिसमें अवधेशजी से लेकर, निरीक्षण करने और वित्तीय स्वीकृती देने तक की पूरी श्रृंखला के अधिकारियों/कर्मचारियों के ‘परसेण्टेज’ का खुलासा था। सुनकर अवधेशजी ने पूछा - ‘यार! इतना सब बाँट दोगे तो बननेवाला शौचालय कितने दिन चलेगा?’ ठेकेदार ने ‘सहज लापरवाही’ से कहा - ‘जितने दिन चलना होगा, चल जाएगा। उसकी फिकर किसी को नहीं करनी है। बस! एक बार बना हुआ नजर आ जाना चाहिए। फायनल इन्स्पेक्शन हुआ और बात खतम।’ अवधेशजी बोले - ‘यार! यह शौचालय तो एक महीना भी नहीं चलेगा। मुझे तो इसके बनने से पहले ही इसकी मरम्मत कराने की तैयारी करनी पड़ेगी।’ ठेकेदार ने अवधेशजी को ढाढस बँधाया - ‘हाँ। वो तो है। लेकिन उसकी फिकर आप क्यों करते हैं। मैं हूँ ना! रिपेयरिंग के लिए आपको अलग से बजट मिल जाएगा। मेरा तो काम ही यही है। आप एक बार सेवा का मौका तो दीजिए!’
अवधेशजी तनिक असहज हुए। बोले - ‘अभी तो मैंने अलॉटमेण्ट लेटर भी ध्यान से नहीं देखा है। आप अपना मोबाइल नम्बर दे जाइए। मैं आपको बाद में खबर कर दूँगा।’ ठेकेदार को मानो अवधेशजी का जवाब मालूम था। उसने फौरन अपना विजिटिंग कार्ड दिया और बोला - ‘मैं आपके फोन की राह देखूँगा। लेकिन जरा जल्दी कीजिएगा। बरसात का मौसम आ गया है। काम तेजी से निपटाना पड़ेगा।’
अवधेशजी ने ‘हाँ’ में अपनी मुण्डी हिलाई और नमस्कार कर, ठेकेदार को विदा करने हेतु दरवाजे तक गए। ठेकेदार ने ‘विनयावनत’ मुद्रा में हाथ जोड़कर नमस्कार किया और कहा - ‘सर! एक रिक्वेस्ट है। आपके पास और ठेकेदार भी आएँगे। लेकिन आप याद रखिएगा कि सबसे पहले मैं आया था। आपके काम पर पहला हक मेरा है। आप सेवा का मौका दीजिए। मेरा वादा है कि मुझसे डील करने के बाद आप किसी और को याद नहीं करेंगे।’
ठेकेदार चला गया। मैं अवधेशजी की शकल देख रहा था। वे सबसे अलग, सबसे हटकर हैं। उनकी ‘कार्य शैली’ से उनके तमाम अधिकारी दुखी, अप्रसन्न, क्षुब्ध और तनिक आतंकित भी रहते हैं। वे, ईश्वर आराधना की तरह नौकरी करते हैं। तबादला कल होता हो तो आज हो जाए, लेकिन अनुचित न तो किया और न ही होने दिया। मैंने पूछा - ‘अवधेशजी! क्या करेंगे?’ वे खुलकर हँसे और बोले - ‘आपको कुछ पता नहीं। कुछ बरस पहले मैं अपनी शाला का भवन बनवा चुका हूँ। कागजी कार्रवाई और निर्धारित प्रक्रिया पूरी की। भवन निर्धारित समयावधि में बना। एक पैसा इधर से उधर नहीं जाने दिया। इंजीनीयर ने और दफ्तर के बाबुओं, साहबों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। ऑडिट में पचासों रोड़े अटकाए। लेकिन सबको धूल चटा दी। मेरे शाला भवन के साथ बने तमाम शाला भवन खण्डहर हो गए हैं लेकिन मेरा शाला भवन वैसा का वैसा खड़ा हुआ है। मरम्मत के नाम पर अब तक एक पैसा भी नहीं लगा। मेरे यहाँ इन्स्पेक्शन के लिए कोई नहीं आता। सब जानते हैं कि क्या पता, पानी भी मिले, न मिले। मेरे यहाँ एक ही काम होता है - पढ़ाई और केवल पढ़ाई।’
वे अपनी रौ में बह रहे थे, मेरी उपस्थिति से बेखबर। मानो छत को भेद कर शून्य में देख रहे हों, कुछ इस तरह देखते हुए बोले - ‘आप देखना! इसी रकम में मैं यह शौचालय भी बनवाऊँगा और ऐसा बनवाऊँगा कि मेरे बच्चों-बच्चियों को जिन्दगी भर का आराम हो जाएगा।’
और इसके बाद अवधेशजी ने जो कहा, उसने मुझे मथ दिया। आहत स्वरों में बोले - ‘शर्म और तकलीफ इस बात की है कि मेरे रास्ते में वे ही लोग बाधाएँ खड़ी करते हैं जो दिन भर बच्चों को ‘सदा सच बोलो’ का पाठ पढ़ाते हैं।’
हमारी गप्प गोष्ठी अब शोक सभा में बदल गई थी। और शोक सभा तो दो मिनिट के मौन के साथ ही समाप्त हो जाती है!
हो गई।
ईमानदार आदमी को बहुत तेजतर्रार, दबंद और बेईमानों से दो कदम आगे की सोच रखनेवाला होना चाहिए नहीं तो उसकी खाट खड़े होते देर नहीं लगती, ऐसा एक बार फुरसतिया जी की पोस्ट में पढ़ा था. आशा है आपके मित्र अधिक नहीं तो पर्याप्त कठोर और 'तिकड़मी' होंगे. ऐसे ही लोगों की ज़रुरत है. दुर्भाग्यवश ज्यादातर ईमानदार लोग लल्लू होते हैं.
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ReplyDeleteमैं भी यह पाता हूँ की किसी भी सार्वजानिक कार्य के लिए पैसों के आवंटन का सदुपयोग अगर पूरी ईमानदारी से हो तो बेहतरीन नतीजे आना कोई मुश्किल नहीं ... और बेईमानों प्रति भी द्वेष की जगह करुण भाव की बहुलता को अंतर्मन में धारण करके कार्यों को किया जाएँ तो और आश्चर्यजनक नतीजे आते हैं ... साथ लाते हैं सकारात्मकता का विस्तार जो बेईमानी की जड़ों तक भी अपना असर दिखाती हैं ... और ईमानदारी के नतीजों को कम से कम घर्षण के साथ दूर तक ले जाती हैं ...
ReplyDeleteहमारे युवा वर्ग के लिए एक मार्गदर्शक आलेख ... जिसमें बीमारी और उसका व्यवहारिक इलाज एक साथ हैं ... साधुवाद !!!
ईमानदारी और देशभक्ति साबित करने के लिए नारों की जरुरत नहीं, यह कार्य में होना चहिये, ऐसे इमानदार अवधेश जी को प्रणाम.
ReplyDeleteएक तन्त्र निश्चित कर दिया है, जिसमें पानी बह कर नीचे तक पहुँचता ही नहीं है..
ReplyDeleteद्रव्य बीच में ही रिस जाता है.
ReplyDeleteकाश ऐसे ईमानदारी से काम करने वाले कुछ और लोग हों ...
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री रंजन पँवार, इन्दौर की टिप्पणी -
ReplyDeleteईमानदारी और देशभक्ति साबित करने के लिए नारों की जरुरत नहीं,यह कार्य में होना चहिये। ऐसे ईमानदार अवधेश जी को प्रणाम।
अवधेशजी को नमन.
ReplyDelete@‘शर्म और तकलीफ इस बात की है कि मेरे रास्ते में वे ही लोग बाधाएँ खड़ी करते हैं जो दिन भर बच्चों को ‘सदा सच बोलो’ का पाठ पढ़ाते हैं।’
ReplyDelete- ऐसे लोगों के बच्चे भी जानते हैं कि माता-पिता किस "सच" के गुण गाते फिरते हैं। अवधेश जी को प्रणाम! भगवान आज भी उन जैसे लोग बनाता है वर्ना पूरे देश का हाल उस ठेकेदार के बनाये खंडहरों जैसा ही होता।
अवधेश जी को प्रणाम, आपको धन्यवाद. अपने ही शहर के इस आदर्श सज्जन से अबतक न मिल सकने का अफ़सोस है. अब आपके ज़रिये ज़रूर इनसे मुलाक़ात करना चाहूँगा.
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