कल का सवेरा वल्कल के फोन से हुआ। मेरी, कलवाली पोस्ट पढ़ते ही उसने फोन किया था। बोला - ‘‘पापा! फोन में आप ‘गेलेरी’ में जाकर, अपना मनपसन्द फोटो छाँटकर, जरा ध्यान से, फोन पर, फोटू के आसपास देखना। आप फोटो को फोन से ही सीधे खुदकी आई डी पर फोटो को ई-मेल से अपने लेप टॉप पर ले सकते हो। डोरी की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’ उसने कहा तो वही जो मैंने लिखा और आपने पढ़ा। किन्तु मैंने सुना - ‘क्या पापा! मैं तों आपकी समझ पर भरोसा करता हूँ और आप हैं कि इतना भी नहीं सोच/कर पाए?’ सुबह-सुबह का समय तनिक अधिक व्यस्ततावाला होता है, सो कहा - ‘ठीक है। मैं अपनी सुविधा से देख लूँगा और फोटू निकाल पर पोस्ट पर चिपका दूँगा।’
दोपहर में, बीमा दफ्तर में बैठे-बैठे, फोन को टटोला, ‘सेण्ड’ विकल्प का उपयोग कर, खुद की ई-मेल आई डी पर दोनों फोटू भेज दिए। भेज तो दिए किन्तु मालूम नहीं हो पाया कि वास्तव में गए भी या नहीं? आँखों को, ‘योर मेसेज हेज बीन सेण्ट’ की आदत जो पड़ी हुई है! रात होते-होते मैंने अपनी डाक-पेटी खोली तो पाया कि दोनों फोटू आ गए हैं। जी खुश हो गया। फोन से, डोरी के बिना, अपने लेप टॉप पर फोटू हासिल करना सीख लिया था मैंने। यह अलग बात रही कि मुट्ठी में सुविधा थी और मुझे पता ही नहीं था। छोरा बगल में था और मैं सारे नगर में ढिंढोरा पीट चुका था। पैंसठ की उम्र में मैं सचमुच में किसी बच्चे की तरह ही खुश हुआ और इस डर से कि इस खुशी का असर कम न हो जाए, तत्काल ही वल्कल को बताया तो वह और अधिक खुश हुआ। बोला - ‘चलो! अच्छा हुआ। अब आप ज्यादा आसानी से काम कर पाएँगे।’
वल्कल की अनुशंसा पर ही मैंने नया, मँहगा (वास्तव में मँहगा, मुझ जैसे व्यक्ति की घामड़-देहाती मानसिकता और औसत मध्यमवर्गीय आर्थिक हैसियत से कहीं ज्यादा मँहगा) फोन खरीदा है - सेमसंग, गेलेक्सी प्लस। जब-जब भी मैं इसके मँहगे होने की बात करता हूँ तो साथी, नौजवान बीमा एजेण्ट मुझ पर हँसते हैं - ‘क्या दादा? यह मँहगा है? अरे! यह तो इस रेंज का शुरुआती कीमतवाला फोन है - सबसे सस्ता।’ मैं चकित हो जाता हूँ। इतने मँहगे और ढेर सारी सुविधाओं/व्यवस्थाओंवाले फोन की आवश्यकता नहीं है मुझे। मेरा काम तो, मोबाइल फोन की पहली पीढ़ी के शुरुआती संस्करण से ही चल जाता है। किन्तु वल्कल ने बताया कि इस फोन पर मैं अपने सारे ‘अन्नदाताओं’ के पॉलिसी रेकार्ड रख सकूँगा तो मैंने इसे खरीदने में पल भर की भी देर नहीं लगाई। यह मेरे लिए, ‘ग्राहक सेवा का औजार’ बनेगा, विलासिता की वस्तु नहीं।
फोन लेने के बाद जब मैं और वल्कल पहली बार मिले तो उसने मुझे इसके विभिन्न, उपयोगी प्रावधानों/व्यवस्थाओं/सुविधाओं की जानकारी दी और मुझसे ‘कर के बताइए’ वाले ‘अभ्यास’ भी करवाए। वल्कल ऐसा ही करता है। जब भी मिलता है, उसकी इच्छा रहती है कि मैं, कम्प्यूटर तकनीक के मामले में कुछ न कुछ नया सीखूँ। ऐसा करते समय मुझे वह हर बार एक ‘धैर्यवान, धीर-गम्भीर अध्यापक’ अनुभव हुआ। जब भी छूटा, मेरा ही धैर्य छूटा। ‘बस! आज बहुत हो गया भैया! नहीं सीखना मुझे अब और कुछ। मेरी उम्र नहीं है यह सब सीखने की और तू है कि मुझे बच्चे की तरह समझाए जा रहा है! अब मुझसे नहीं बैठा जाता।’ कह कर (वस्तुतः ‘झल्लाकर’) मैं ही उठा उसके पास से हर बार। मेरी शकल देख कर वह मुस्कुरा देता है, कुछ इस तरह मानो कह रहा हो - ‘सीखने के लिए बच्चा बनना ही पड़ता है।’ या फिर - ‘बच्चा ही सीख सकता है।’ उसकी यह नजर मुझे पेरशान कर देती है। मैं झेंप जाता हूँ।
तथागत, मेरा छोटा बेटा, इसके ठीक उलट है। मुझे सीखाने के लिए उसे खुद पर काबू किए रखना पड़ता है। दो मिनिट हुए तो बहुत हो गए। कुर्सी खिसका कर उठ खड़ा होता है - ‘क्या पापा? आप तो कुछ भी नहीं समझते हो। छोटी सी तो बात है! आप भैया से समझ लेना।’
दोनों भाइयों में नौ वर्षों का अन्तर है। हैं तो दोनों एक ही पीढ़ी के किन्तु तकनीकी उन्नति की तेज गति के इस समय में, दोनों के बीच आयु का यह अन्तर कुछ ऐसा लगता है मानो तथागत, वल्कल का छोटा भाई नहीं, वल्कल के बादवाली तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधि हो। वल्कल कहता भी है - ‘मेरी पढ़ाई हो गई, नौकरी लग गई। अब मैं सीख नहीं रहा, काम कर रहा हूँ जबकि तथागत के पास तो पल-पल की, नई से नई जानकारियाँ हैं।’ गोया, पीढ़ियों का निर्धारण अब आयु के मान से नहीं, तकनीक के ज्ञान से होगा।
कुछ ऐसी ही, समझी-नासमझी की स्थितियों में, चाहे-अनचाहे, कुछ न कुछ सीख रहा हूँ (या कि सीखना पड़ रहा है) इस उम्र में।
आखिरी उम्र में मुसलमान बनना शायद यही होता है।
एक पीढी का अंतर बहुत होता है।
ReplyDeleteआखिरी उम्र में मुसलमान बनना नहीं, आजकल अपने आप को अपडेट करना ही अपने आप को नई पीढ़ी में शामिल करता है, और इसके लिये ऊर्जा, धैर्य और समय की जरूरत होती है।
ReplyDeleteआज हम सभी लोग निजी उद्यमों में कार्य कर रहे हैं और वहाँ नित नये काम आते हैं, इसलिये पूछ परख भी उन्हीं की ज्यादा होती है जिन्हें नई तकनीक का ज्ञान होता है, हम तो सीखने के लिये बच्चे बने रहते हैं । जितने भी सॉफ़्टवेयरों का उपयोग करते हैं, उसके नये संस्करणों में इतने विकल्प होते हैं, कि बहुत काम आते हैं, और वाकई जब हम किसी की मदद करते हैं तो जो धन्यवाद आपको मिलता है वह अनोखा ही होता है।
लड़का जब किसी गेम के गुर बताता है तो ऐसे ही ऐंठता है..
ReplyDeleteइसका सारा श्रेय आपको ही जाता है. आपसे सीखा है की सिखने और उम्र में कोई रिश्ता नहीं है. बचपन से देखता आया हूँ की जब मोबाइल के बारे में लोग केवल सुना करते थे तब आपने मोबाइल साथ में रखना शुरू कर दिया था, डिजिटल डायरी का इस्तेमाल करते हुवे कैसे आपने आपके कार्य-क्षेत्र में एक मिसाल कायम कर दी थी, आप पहले ऐसे बीमा एजेंट थे शहर में जिसके पास कंप्यूटर और सॉफ्टवेर न केवल मौजूद था बल्कि उसका उपयोग भी जानते थे. ब्लॉग लिखना शुरू करके आप ने साबित कर दिया था की बेटा कितना भी बड़ा हो जाए बाप से छोटा ही रहता है :)
ReplyDeleteहाल ही में आपने केवल 2 घंटे में Excel सीख कर मुझे अचंभित कर दिया. आप एक ऐसा केस हो जिसको उधृत कर के मैं लोगो का उत्साह बढ़ा पाता हूँ.
लगे रहिये . . . ये तो बस शुरुवात है.
नयी पीढ़ी के साथ चलने के लिये नयी तकनीक और नए तौर तरीके सीखना ज़रूरी हो गया है...
ReplyDeleteचाहे कितना भी सीख जाएं ..
ReplyDeleteनई उम्र के बच्चों से अपनी तुलना नहीं कर सकते हम ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
हमारे यहाँ एक कहावत जैसी है जब बाप का जूता बेटे के पैर में आ जाये तो उसे अपने मित्रवत समझना चाहिए . सुन्दर पारिवारिक पोस्ट .
ReplyDeleteBhaijee ! Umra kaa antar to taa-umra jus-kaa-tus rahtaa hai par akla (buddhi) ke Barometer ki reading kuchh aur bolne lagti hai .Ab to yah ghar-ghar ki kahaani hai.
ReplyDeleteबस हम भी यही कहेंगे, लगे रहिये यह तो शुरूआत ही है.
ReplyDeleteवल्कल जी का कमेन्ट पढ़ना अच्छा लगा.
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