भली प्रकार जानता हूँ कि यह कष्ट न तो पहला है और नही मुझ अकेले का। अब तो यह ‘घर-घर की कहानी’ का रुतबा हासिल करने के रास्ते पर है। आश्चर्य नहीं कि यह पढ़कर आप या आपमें से कई चौंक कर सोचने लगें - ‘यह तो मेरे साथ भी हो रहा है किन्तु इस ओर, इस तरह कभी सोचा नहीं।’ ऐसे कृपालु यह मान लें कि उनकी तरफ से मैं यह सब लिख रहा हूँ।
नवनी और आदित्य, अपने विवाह के बाद पहली बार हमारे यहाँ आए - तीन दिन पहले। नवनी (जिसे हम घर में ‘बबली’ कह कर पुकारते हैं) मेरे बड़े साले की बिटिया याने ‘हमारी’ भतीजी है और आदित्य ‘हमारा’ दामाद। और इनके विवाह का सन्दर्भ मैंने अपनी इस पोस्ट में दिया था। दोनों, अपराह्न साढ़े चार बजे के आसपास आए और अगली सुबह दस बजे लौट गए। कुल जमा अठारह घण्टों से भी कम रहे दोनों हमारे साथ।
अपनी भतीजी के आगमन की सूचना मात्र से ही मेरी उत्तमार्द्ध अति उत्साहित और परम प्रसन्न थीं। एक दिन पहले से ही ‘बबली और कँवर सा‘ब (हिन्दी का ‘कुँवर’ मालवी में ‘कँवर’ बन जाता है) आ रहे हैं’ मानो उनका ‘उद्घोष’ बन गया था। नौकरी से सन्ध्या पाँच बजे लौटनेवाली ‘बहनजी’ उस दिन, विशेष अनुमति ले, चार बजे ही घर आ गई थीं। और दिनों तो वे आते ही निढाल हो जाती हैं, चाय भी बड़ी मुश्किल से बना पाती हैं। किन्तु ‘बबली और कँवर सा’ब आ रहे हैं’ इन सात शब्दों ने मानो न केवल उनकी थकावट दूर कर दी अपितु अतिरिक्त ऊर्जा भी भर दी थी। ‘बबली और कँवर सा’ब’ के आगमन से लेकर प्रस्थान तक मेरी उत्तमार्द्ध का, मानो चोला बदल गया था। उन्होंने कोशिश की कि बबली को पानी का ग्लास भी नहीं उठाना पड़े। वे न्यौछावर हुई जा रही थीं और उन्हें देख-देख कर बबली ‘क्या बुआजी! आप भी...!’ कह-कह हर हँसे जा रही थी।
अपनी उत्तमार्द्ध का भरसक साथ देते हुए मैंने, यथा शक्ति, यथा सामर्थ्य उन दोनों की आवभगत की, खोज-खबर ली और ‘नेगचार’ किया। हम दोनों को अच्छा लगा यह देखकर कि वे दोनों जितने खुश-खुश आए थे, उससे कम खुश नहीं लौटे।
लेकिन यह सब बताना मेरा अभीष्ट नहीं है। बबली तो यहाँ आती-जाती रही है, सो उसे कोई असुविधा नहीं हुई, कुछ भी अटपटा नहीं लगा। किन्तु मुझे तब भी लगा था और अब भी लग रहा है कि आदित्य के साथ अच्छी-खासी परेशानी रही।
आदित्य की अवस्था इस समय 25 वर्ष है। मेरी अवस्था 65 वर्ष और मेरी उत्तमार्द्ध की 56 वर्ष है। आयु का यह अन्तर ही आदित्य की (और उतनी ही हमारी भी) परेशानी का कारण बना रहा। अठारह घण्टों में आदित्य के और हमारे बीच अठारह वाक्यों का भी सम्वाद नहीं हुआ। यहाँ, घर में हम पति-पत्नी ही थे, आदित्य के किसी सम-आयु का होना तो दूर की बात रही, कोई तीसरा भी नहीं था। पचीस वर्षीय नौजवान की ‘कम्पनी’ के लिए बस मैं, पैंसठ वर्षीय एक बूढ़ा ही था। हम दोनों बात करते तो क्या करते? आयु का अन्तर पाटने का मैंने यथासम्भव प्रयत्न किया तो सही किन्तु उसकी भी एक सीमा थी। आदित्य को, शुक्रवार को प्रदर्शित हुई फिल्म पर बात करनी थी और मुझे इसका कोई अता-पता ही नहीं था। मैं स्वयम् को अपनी अवस्था के अन्य लोगों की अपेक्षा तनिक अधिक बेहतर स्थिति में मानता हूँ क्योंकि बीमा एजेन्सी के कारण मुझे प्रतिदिन अनेक लोगों से मिलना पड़ता है और प्रायः आज के अधिकांश विषयों पर बात करनी पड़ती है। इसके बाद भी मैंने अनुभव किया कि आदित्य से बात करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था।
यह तो एक नमूना है। केवल सम्वादहीनता का। अन्य बातें जैसे साथ बैठना, साथ भोजन करना, पाठन-रुचि जैसी अनेक बातें रहीं जिन पर आदित्य और मैं, एक ही कमरे में होते हुए भी अलग-अलग टापू बने रहे। आदित्य कभी अन्दरवाले कमरे में जाता तो कभी आगेवाले कमरे में आता। घर ही घर के इस आवागमन के कारण ही वह तनिक व्यस्त हो सका होगा। अन्यथा, उसने समय कैसे काटा होगा - इस बात का जवाब मुझे अब तक नहीं मिल पा रहा है।
अब घर-घर में यही स्थिति है। बच्चे या तो हैं नहीं और हैं तो या तो अपनी पढ़ाई में लगे हुए हैं या फिर पढ़-लिख कर अपने-अपने काम-धन्धे के कारण बाहर हैं। घर में केवल माँ-बाप हैं। अकेले रह रहे बूढ़े चाहते हैं कि बच्चे आएँ, उनके पास बैठें, बतियाएँ। किन्तु बूढ़ों के पास बतियाने के नाम पर ‘अपनी हाँकने’ या फिर उपदेश और बहुत हुआ तो शिकायत के अतिरिक्त शायद ही कुछ और हो। वे सुनाने को आतुर और बच्चों की परेशानी यह कि उनके पास भी काफी-कुछ होता है सुनाने को। उनकी परेशानियाँ, बूढ़ों की परेशानियों से कम नहीं। उन्हें सुनना तो दूर, उन परेशानियों की कल्पना भी बूढ़े नहीं कर पाते। उनके लिए भी यह सम्भव नहीं। ऐसे में, दूसरे बच्चे तो दूर रहे, अपने ही बच्चे भी कतराने लगें तो आश्चर्य क्या?
यदि मैं अपनी गली को आधार बना कर बात करूँ तो अब चारों ओर बूढ़े ही बूढ़े नजर आते हैं और सबके सब खुद को उपेक्षित अनुभव कर रहे, अपनी-अपनी सुनाने को उतावले और स्थिति यह कि सुननेवाला कोई नहीं।
पता नहीं क्यों मैं यह सब कह बैठा - यह भली प्रकार जानते हुए भी कि यह सब केवल मेरे साथ नहीं हो रहा, सबकी, घर-घर की कहानी है।
ऐसी कहानी, जिसे श्रोताओं की तलाश है।
जहाँ पर आयु और सम्मान का प्राधान्य हो जाता है, संवाद कम हो जाता है..सच में यह कहानी है घर घर की।
ReplyDeleteएक कारण यह भी ...
Deleteसहमत /
आयु का अन्तर सम्वादहीनता का कारण बनना स्वाभाविक बात हैं पर ऐसा क्यों होता हैं ? ... शोध का विषय भी ...!!
ReplyDeleteBhaijee ! 1962 ke kisson me ab kisi ki ruchi nahi rahi,sivoy hum logon ke !
ReplyDeleteसही कहा आपने। पर हम अतीत से न तो मुक्त हो सकते हैं और न ही उसकी मरम्मत कर सकते हैं। हम अतीत पर या तो गर्व कर सकते है या लज्जित हो सकते हैं या फिर एक ही रास्ता बचता है - हम उससे सबक लेकर आगे बढें।
Deleteअरे!
ReplyDeleteहम छोटे थे तो उज्जैन अपने छोटे दादा जी के यहाँ गए थे। माँ पिताजी साथ थे। मंदिर मंदिर घूम कर बोर हो गए। चौथे दिन दादा जी बोले -यहाँ आए कित्ते दिन हुए? मैं ने कहा चार दिन। कितनी फिल्में देखीं? मैं ने कहा एक भी नहीं। फिर कैसे बच्चे हो? चलो तुम्हें पिक्चर दिखाने ले चलता हूँ। पिताजी अम्माँ को फिल्म का शौक नहीं था। दादा जी हमें पिक्चर दिखाने ले गए।
बाजार में पिताजी और छोटे दादा जी के साथ घूम रहे थे। छोटी बहिन ने कहा मुझे चप्पलें लेनी हैं। एक जूते की दुकान में घुस गए। पिताजी ने दुकान दार से जितनी चप्पलें दिखाई वे सब बिना हील वाली थीं। उन्हें हील पसंद नहीं थी। बहिन ने उन में से एक पसंद कर ली।
दादा जी कहने लगे चप्पल खुद के लिए खरीद रही हो या अम्मा के लिए। तो बहिन बोली मेरे लिए। दादा जी बोले -तो क्या ये पुरानी डिजाइन की पसंद कर रही हो। जरा हील वाली खरीदो। अब पिताजी क्या बोलते। बहिन खुश हो गई। उस ने हील वाली चप्पलें खरीद लीं।
आप को भी मेरे छोटे दादा जी की तरह हो जाना चाहिए था, आदित्य के सामने। आदित्य से पूछते उस ने कौन सी फिल्म देखी? उस में कौन कौन कलाकार थे? कहानी क्या थी? फिर वह शुरु हो जाता, आप सुनते रहते। एक अच्छे श्रोता की तरह। बीच बीच में हूँकारे की तरह एकाध वाक्य दोहराते जाते।
आप तो बीमा एजेंट है। सामने वाले की बात को घोल पी कर अपनी बात मनवाने वाले। आप आदित्य की पसंद की सब बातें करते। फिर देखते आदित्य को कितना आनंद आता। चलो अगली बार आजमाइयेगा।
sahi kah rahe dadda aap....
Deletepranam.
@दिनेशराय द्विवेदी
Deleteआपका यह संस्मरण, आपकी पोस्ट पर काफी पहले पढ चुका हूँ और यह मुझे याद भी आया था। किन्तु 'समय' ने मुझे समय नहीं दिया - दोनों बच्चे बहुत जल्दी चले गए। अन्यथा, तय मानिए कि मैं वही करता जो आपने पहले लिखा था और िजसे अब दुहराया है।
युवाओं से हम नयी नयी बातें सीख सकते हैं. हाँ उनकी सुननी होगी.
ReplyDeleteअभी भोपाल जाना हुआ था, हमारे बैंक का प्रशिक्षण केन्द्र है वहाँ| सप्ताह भर की ट्रेनिंग के आख़िरी सेशन में एक काफी सीनियर अधिकारी ने इस बात पर ओब्जेक्शन किया था कि सीनियर्स और जूनियर्स को एक साथ क्यों ट्रेनिंग दी जा रही है? जबकि मेरा अपना अनुभव इससे बिलकुल उलट था, युवाओं की ऊर्जा और सीनियर्स के अनुभव को थोडा सा एहतियात से मिलाया जा सके तो आश्चर्यजनक परिणाम आ सकते हैं| ये तो हुई व्यावसायिक बात, आम जीवन में इस विषयं को अपने पंजाब प्रवास में बहुत नजदीक से देखा है| गाँव के गाँव बूढों से भरे पड़े हैं, जवान सब डालर कमाने निकले हैं, वही डालर रुपयों में कन्वर्ट होकर यहाँ समृद्धि बढ़ा रहे हैं लेकिन गाँव, कोठियां सुनसान पडी हैं|
ReplyDeleteआपकी परेशानी जायज़ है ... लेकिन जहां अपनापन हो तो संवाद हीनता घर नहीं करती ...
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन देखा और हैरत में पड गया। बाप रे! कितनी मेहनत करते हैं आप? आपके परिश्रम को नमन।
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग को शामिल करने के लिए कोटिश: आभार और धन्यवाद।
सबकी, घर-घर की कहानी है।
ReplyDeleteऐसी कहानी, जिसे श्रोताओं की तलाश है।
तबतक ऐसा रहेगा जबतक हमारी जीवनशैली में बडा परिवर्तन नहीं होगा !!
लगता है आपने बच्चों को अपना ब्लॉग नहीं पढाया! :)
ReplyDeleteऐसी संवादहीनता कई बार हमारे साथ भी होती है, परंतु हम ऐसी स्थितियों में अगले का मनपसंदीदा विषय चुनकर शुरू हो जाते हैं ।
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त, श्री जीवन कुमार निमावत की टिप्पणी -
ReplyDeleteअभी-अभी आपका लेख पढा। आपने बहुत अच्छा लिखा। किन्तु बूढों या वरिष्ठ नागरिकों से मेरा कहना है कि वे यह न सोचें कि वे बूढे हो रहे हैं। वे सोचें कि वे बडे हो रहे हैं। याने, वे बूढे नहीं हो रहे, आगे बढ रहे हैं। अगर सभी लोग इस तरह सोचने लगेंगे तो ''कँवर सा'ब'' के साथ बैठकर बात कर सकते हैं - आप भी। बूढा होने में और बडा होने में जमीन आसमान का फर्क है। और फर्क जब सिर्फ सोचने में ही है तो क्यों न ऐसा सोचें जिसमें ज्यादा फायदा है?
इस विषय पर मैं जल्दी ही आपको एक कहानी भेजूँगा।