‘संयुक्त’ से ‘सूक्ष्म’ के अकेलेपन तक

यह, मेरी कलवाली  पोस्ट  का  विस्तार ही समझा जा सकता है किन्तु हो रहा है सब कुछ अकस्मात और अनायास ही। ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के मन कछु और‘ की तरह। सच है, खाली दिमाग शैतान का घर।

गए कुछ बरसों से ‘परिवार’ के नाम पर यहाँ ‘हम दोनों, अकेले’ ही हैं। घर के सारे काम, अन्दर के हों या बाहर के, हमें ही निपटाने पड़ते हैं। सहायक की आवश्यकता हर बार अनुभव होती है किन्तु काम इतना भी नहीं कि पूर्णकालिक सहायक रखा जाए। दो-एक लोगों से बात की तो उनकी माँग के अनुसार भुगतान करने के बाद भी मना कर गए। बोले - ‘आपके यहाँ काम है ही क्या? हमें तो खाली बैठना पड़ेगा!’ ऐसे में, जिस तरह से मेरे निजी और पारिवारिक काम पूरे हो रहे हैं वह सब देख-देख कर वह कहावत शब्दशः सच लग रही है - सबसे पहला रिश्तेदार पड़ौसी होता है। ‘ये रिश्तेदार’ न हों तो मैं भूखों भले ही न मरूँ, आय में अच्छी-खासी कमी अवश्य आ जाए।

हम एक ‘कामकाजी दम्पति’ हैं। मेरी उत्तमार्द्ध अध्यापक हैं और मैं बीमा एजेण्ट। सुबह सवा दस बजते-बजते, वे अपनी नौकरी पर निकल जाती हैं और चूँकि उन्हें नौकरी के मुकाम तक पहुँचाना मेरा काम है, इसलिए मैं भी उनके साथ ही निकल जाता हूँ। याने, साढ़े दस बजे से पहले ही हमारे मकान पर ताला लग जाता है। मेरी वापसी का कोई ठिकाना नहीं। कभी-कभार जल्दी भी लौट आता हूँ। वरना, शाम सवा पाँच-साढ़े पाँच बजे ही लौट पाता हूँ- उत्तमार्द्ध को नौकरी के मुकाम से वापस लाना जो होता है! ऐसे में, हमारे मकान पर प्रायः दिन भर ही ताला लगा रहता है। यही कारण है कि पड़ौसियों के रिश्तेदार होने की प्रतीति पल-पल बनी रहती है।

गैस बुक कराने के फौरन बाद चिन्ता घर कर जाती है - डिलीवरी बॉय कब आएगा? गैस एजेन्सी वाले से पूछता हूँ - ‘सिलेण्डर कितने दिन में आ जाएगा?’ मेरी ओर देखे बिना ही वह कहता है - ‘पाँच दिनों में।’ जानता हूँ कि उसका कहना अनुमानों पर आधारित होता है। सिलेण्डर पहले भी आ सकता है। सो, न चाहने पर भी, चिन्ता घर कर जाती है। गैस बुक कराने के तीसरे दिन से, कूपन, रुपये और किताब पड़ौसी को दे जाता हूँ। दाहिनी ओरवाले को देता हूँ तो बाँयी ओर वाले को जता देता हूँ और बाँयी ओरवाले को दिए तो दाहिनी ओरवाले को। पता नहीं, डिलीवरी बॉय किससे पूछे? चिन्ता फिर भी कम नहीं होती। पड़ौसी भी तो अपनी घर-गिरस्ती लेकर बैठा है! पचासों काम हैं उसके भी। जरूरी नहीं कि डिलीवरी बॉय के आने की चौकीदारी वह करे। मेरी तकदीर से, डिलीवरी बॉय ने यदि आसपास का दरवाजा खटखटा दिया तो सिलेण्डर रखवा लेगा वरना, पाँच दिनों की प्रतीक्षा अवधि के बाद, गैस एजेन्सी पर तलाश करनी होती है। मालूम होता है, डिलीवरी बॉय ताला देखकर लौट गया। तब, सिलेण्डर हासिल करने के लिए अतिरिक्त जतन करने पड़ते हैं और सारे काम छोड़ कर तब तक घर पर बने रहना पड़ता है जब तक कि सिलेण्डर कब्जे में न आ जाए। पड़ौसियों के भरपूर सहयोग के बाद भी इस काम का यथेष्ठ अनुभव हो गया है अब तो मुझे।

लगभग यही दशा डाक के मामले में भी होती है। रजिस्टर्ड या स्पीड पोस्टवाले पत्र आने पर, डाकिया या तो पड़ौसियों को दे जाता है या फिर पर्ची छोड़ जाता है - ‘आपकी रजिस्ट्री आई है। साढ़े तीन बजे आकर प्राप्त कर लें।’ किन्तु कूरीयर सेवाएँ यह सुख नहीं देतीं। उनके कारिन्दे, जिम्मेदारी का निर्वहन यन्त्रवत करते हैं - पानेवाला मिल गया तो पत्र दे दिया अन्यथा पत्र लौटा दिया। ऐसे ‘लौटा दिए गए’ पत्रों की जानकारी तब होती है जब अपना पत्र वापस पाकर, भेजनेवाला झुंझलाकर खरी-खोटी सुनाता है। उसका तो पैसा भी लगा और काम फिर भी नहीं हुआ! ऐसा अनगिनत बार हो चुका है और कई बार मेरे महत्वपूर्ण दस्तावेज लौट गए। कूरीयर सेवावालों के साथ एक दिक्कत यह भी कि, डाकिए की तरह उनके आने का कोई समय निर्धारित नहीं होता। जितनी कूरीयर सेवाएँ, उतने पत्र वाहक और सबका अपना-अपना समय। मौत और ग्राहक की तरह ही, कूरीयर सेवाओं के कारिन्दे कभी भी आ सकते हैं। इन लोगों ने मेरे पड़ौसियों को रिश्तेदारी या पड़ौसी धर्म निभाने का अवसर एक बार भी नहीं दिया।

ऐसा बीसियों बार हुआ कि मुझे भाग कर घर आना पड़ा। मैं किसी ग्राहक को बीमा समझा रहा होता हूँ कि दूर-दराज से आया मेरा कोई सम्बन्धी फोन करता है - ‘आप कहाँ हैं? मैं दरवाजे पर खड़ा हूँ।’ सुनकर पहले क्षण तो उस पर गुस्सा आता है - ‘भैया! जिस तरह से आने के बाद फोन कर रहे हो, उसी तरह से, आने से पहले खबर कर दी होती!’ किन्तु अगले ही क्षण यह गुस्सा खुद पर आने लगता है। जो हो गया सो हो गया। गुस्सा करने से क्या लाभ? क्या मतलब? ईश्वर को धन्यवाद दो कि कोई तुम्हारे यहाँ आया। वर्ना, अब इस जमाने में किसे फुरसत कि समय निकाल कर किसी के यहाँ जाए?

विभिन्न प्रसंगों पर, व्यवहार निभाने के लिए जब-जब भी हम दोनों को, दो-चार दिनों के लिए बाहर जाना होता है तो नींद हराम हो जाती है। किसके भरोसे घर छोड़ा जाए? सबकी दशा, न्यूनाधिक हम जैसी ही तो है? यदि कोई हमारे घर की रखवाली के लिए यहाँ सोएगा तो उसके घरवाले चिन्तित हो जाएँगे! लेकिन जाना, टाला भी तो नहीं जा सकता! ऐसे में, जी कड़ा करके, भगवान का नाम लेकर निकल तो पड़ते हैं किन्तु मन, घर में ही रमा रहता है। ‘चोरी-चकारी हो गई तो?’ यह विचार मन में से निकलता ही नहीं। जहाँ गए, वहाँ की व्यस्तता से जैसे ही फुरसत मिली कि यही बात हावी हो जाती है। तब, हम दोनों एक दूसरे को ढाढस बँधाते हैं - ‘अपना पैसा हराम का नहीं है। पसीने का है। फिर, अपने पास है ही क्या जो कोई ले जाएगा? और ले जाए तो ले जाने दो! अपने भाग्य में जो होगा वही तो रहेगा अपने पास! भगवान पर भरोसा रखो और यहाँ का आनन्द लो। भगवान सब ठीक करेगा।’

ये तो वे स्थितियाँ हैं जो बिना कोशिश के आँखों के सामने आ गईं। कोशिश करने पर ऐसी ही कुछ और स्थितियाँ तलाशी जा सकती हैं लिखी जा सकती हैं। किन्तु सोच रहा हूँ कि यह दशा केवल हमारी ही नहीं है। यह ‘घर-घर की कहानी’ भले ही न हो, कई घरों की तो होगी ही। परिवार ‘संयुक्त’ से ‘एकल’ हुए और अब ‘सूक्ष्म’ हो गए। किन्तु ‘सूक्ष्म’ होने का अर्थ ‘अकेला हो जाना’ तो नहीं होता!

‘पारिवारिकता’ के व्यसनी हम लोग कहाँ आ गए? कहीं वैश्वीकरण की उदारवादी आर्थिक नीतियाँ तो हमें इस मुकाम पर नहीं ले आईं?  

8 comments:

  1. अपना घर अपना पता बना रहे.
    (वैसे भी आपका घर तो मित्र धन है.)

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  2. घर को इतना अकेलापन कैसे सहा जायेगा, कोई सहायक रख लीजिये।

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  3. बैरागी भैया जी कोशिश कीजिये निंदक नियरे रखिये ..............

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  4. वैश्वीकरण के बारे में क्या कहूँ? अपने परिवार में कई पीढियाँ और अनेक कुटुम्बीजनों के अनुभव से इतना ही कह सकता हूँ कि हम लोग तो दो वक़्त की रोटी की व्यवस्था के कारण शायद सदा-सर्वदा ही इसी मुक़ाम पर रहे।

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  5. Ak taraf Soniaji aur Rahulji dono akele poora Desh chalaa rahe hain aur ak aap hain ki.....................!

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  6. अकेले में ऐसी बहुत मुश्किलें आती हैं, जिनका सामना सूझबूझ से करना पड़ता है । हम भी कर रहे हैं, जैसे आप कर रहे हैं ।

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  7. हमारी भी यही गति है.

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  8. ye desh sonia or rahul mil kar kha rhe hai na ki cchla rhe hai wo dimak ki tarah is desh is matrabhumi ko khokla kr rhe hai....jis k sine mai dil hota hai usi ko akele hone ka dard hota hai isliye mahoday ko dard hota hai sonia ki tarah bina dil k nhi hai yha sab.

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