क्या यह सम्भव है कि अपने मनचाहे परिणाम आप उन्हीं लोगों की सहायता से हासिल कर लें जिनसे डर हो कि वे आपको आपके वांछित परिणाम पाने में बाधक हो सकते हैं या आपके लिए असुविधा पैदा कर सकते हैं? नहीं न? लेकिन मैंने ऐसा होते देखा। देखा ही नहीं, इसका भागीदार बन कर देखा। यह करिश्मा किया श्री बी. एल. अकोतिया ने। वे, भारतीय जीवन बीमा निगम के, इन्दौर स्थित विक्रय प्रशिक्षण केन्द्र के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। उनका चित्र आप मेरी कलवाली पोस्ट में देख चुके हैं।
23 जुलाई से 25 जुलाई वाले, तीन दिवसीय प्रशिक्षण सत्र में हम कुल 34 एजेण्ट प्रशिक्षणार्थी थे। एक तो प्रशिक्षण के सारे विषय प्रायः वे ही पुराने, जाने-पहचाने और उस पर तुर्रा यह कि प्रत्येक पीरीयड डेड़ घण्टे का। सो कुछ ‘समझदार और अनुभवी’ एजेण्ट तनिक देर से आते हैं, कुछ सबसे पीछे बैठकर ‘ध्यान मुद्रा’ का सुख लेने की कोशिशें करते हैं, कुछ पड़ौसी का ज्ञानवर्द्धन करने लगते हैं। इन सबका एक ही असर होता है - ‘व्याख्यान में व्यवधान।’ प्राध्यापक की कठिनाई कहें या विवशता कि सारे के सारे अभिकर्ता ‘छँटे हुए’ (‘और कुछ’, ‘गलत-सलत’ मत समझिए। ‘छँटे हुए’ याने अंग्रेजी के ‘सेलेक्टेड’) वरिष्ठ, अग्रणी होते हैं और अतिरिक्त विवशता/कठिनाई यह कि कई पूर्व परिचित होते हैं। कुछ के साथ तो वे शाखाओं में काम भी कर चुके होते हैं। ऐसे में ‘बड़ापन और बड़प्पन’ निभाना, प्राध्यापकों के ही खाते में जमा होता है।
किन्तु इस प्रशिक्षण में अकोतियाजी ने खुद को और अपने तमाम साथी प्राध्यापकों को इस परेशानी और तनाव से सौ टका मुक्त किए रखा। सारा का सारा तनाव और परेशानी उन्होंने, बड़ी ही चतुराई से हम एजेण्टों के खाते में जमा कर दी - वह भी हमारी सहमति से।
उन्होंने हम सबको 7-7 के समूह में बाँट दिया। चूँकि हम 34 थे, सो चार समूह तो 7-7 एजेण्टों के बने और पाँचवा समूह 6 एजेण्टों का। किन्तु इसमें भी उन्होंने ‘प्रबन्धकीय कौशल’ बरता। प्रशिक्षणों में एक ही शाखा से दो-दो, तीन-तीन एजेण्ट भी भेजे जाते हैं। ऐसे एजेण्ट कक्षा में एक साथ बैठते हैं। यदि एक शाखा से एक ही एजेण्ट गया है तो वह अपने किसी पूर्व परिचित को तलाश कर, उसके पास बैठता है। ‘अपनी ही शाखा का’ या ‘पूर्व परिचित’ होने के कारण, ऐसे एजेण्ट चलते व्याख्यान में, आपस में बातें करने लगते हैं। अकोतियाजी ने ऐसे ‘साथ’ को भंग कर दिया। उन्होंने हम सबसे, एक से सात तक गिनती जोर-जोर से उच्चारित करवाई। जैसे ही आठवें का नम्बर आया, उससे एक नम्बर से गिनती शुरु करवाई। अब हमारी कक्षा में ‘एक’ नम्बर उच्चारित करनेवाले पाँच-पाँच एजेण्ट थे। यही स्थिति 2 से लेकर 7 नम्बर तक की थी। इसके बाद अकोतियाजी ने कहा - ‘एक नम्बर बोलनेवाले सारे एजेण्ट एक साथ बैठ जाएँ। आप सब, ग्रुप नम्बर एक हैं।’ इसी तरह उन्होंने सात-सात एजेण्टों के, 1 से लेकर 7 नम्बर तक के पाँच समूह बना दिए। इससे हुआ यह कि सारे समूहों के सदस्य आपस में अपरिचित। इसके बाद अकोतियाजी ने पाँचों समूहों को परस्पर प्रतियोगी बना दिया। कहा - ‘जो ग्रुप सवालों के सही जवाब सबसे पहले देगा, उसे प्रति सवाल 20 नम्बर दिए जाएँगे। किसी ग्रुप के गलत जवाब को जो ग्रुप दुरुस्त करेगा उसे बोनस के 10 अंक दिए जाएँगे। यदि किसी ग्रुप का कोई सदस्य ऐसी कोई जानकारी देता है या ऐसा कोई काम करता है जो तनिक अनूठा और सबके लिए उपयोगी हो तो उस ग्रुप को अतिरिक्त अंक दिए जाएँगे। इसके विपरीत यदि किसी ग्रुप का कोई सदस्य देर से आएगा या किसी के मोबाइल की घण्टी बजेगी या कोई अनुचित आचरण करेगा तो उस ग्रुप के 10 नम्बर कट जाएँगे। इस तरह जिस ग्रुप को सर्वाधिक अंक मिलेंगे उस ग्रुप का, सत्र के समापन समारोह में पुरुस्कृत किया जाएगा।’ सुनकर हम सबने खुश होकर खूब तालियाँ बजाईं और खूब जोर-जोर से बजाईं।
अब स्थिति यह कि कक्षा चल रही हो या भोजन या अल्पाहार-विराम से लौटना हो, प्रत्येक समूह का सदस्य अपने शेष साथियों की निगरानी करने लगा। ‘चलो! चलो! जल्दी चलो! नही तो नम्बर कट जाएँगे।’ ‘देखना! मोबाइल साइलेण्ट मोड पर किया कि नहीं? ला! मुझे बता। तू बहुत लापरवाह है। तेरे कारण नम्बर कट जाएँगे।’ जैसी ‘हाँकें’ मानो ‘कोरस’ बन गईं। और तो और, उबासियाँ लेने में घबराने लगे हम लोग। ‘नम्बर कटने’ के आतंक का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि हमारी कक्षा साढ़े नौ बजे शुरु होनी थी और एक दिन केण्टीन में नौ बीस तक नाश्ता ही नहीं लगा तो बिना किसी से बात किए प्रत्येक ने तय कर लिया - ‘पहले क्लास में पहुँचो। वहीं बताएँगे कि केण्टीन ठेकेदार ने अब तक नाश्ता नहीं लगाया है। पहले वक्त की पाबन्दी कर लें, नाश्ता बाद में कर लेंगे।’
सत्र के तीनों ही दिन यही स्थिति बनी रही और हुआ यह कि प्राध्यापक के कक्षा में आने से पहले हम चौंतीस के चौंतीस, चाक-चौबन्द, उनकी प्रतीक्षा में बैठे हुए मिले। केवल, इन्दौर की जिला शाखा का एजेण्ट विनोद टेकचन्दानी दो बार देर से आया और प्राध्यापक उससे कुछ कहते उससे पहले ही उसके छहों साथी उसकी लू उतार चुके होते। यही स्थिति मोबाइल की घण्टी बजने को लेकर रही - तीन दिनों में, अपवादस्वरूप ही दो-तीन बार मोबाइल बजा। याने, समयबद्धता और अनुशासन पालन के मामले मे हमारा सत्र ‘समझदार बच्चों’ वाला सत्र रहा। सब कुछ व्यवस्थित और शान्तिमय।
सत्र के अन्तिम दिन, सारे पीरीयड पूरे होने के बाद, समापन समारोह के ठीक पहले हम सब बतियाते हुए, अपनी इस ‘उपलब्धि’ पर खुश हुए जा रहे थे। एक ने चहकते हुए, मुझे सम्बोधित करते हुए कहा - ‘अपन ने वह कर दिखाया जो आज तक किसी बेच ने नहीं किया होगा। है ना दादा?’ मेरी हँसी छूट गई। मैंने कहा - ‘अकोतियाजी ने बड़ी चतुराई से अपन सबको उल्लू बनाया और अपन सब भी खुशी-खुशी उल्लू बन गए और पूरे तीन दिनों तक उल्लू बने रहे। अभी भी बने हुए हैं।’ सबने चौंक कर, सवालिया नजरों से मेरी ओर देखा। मैंने कहा - ‘मालवा में एक परम्परा है। फसल पकने के मौसम में खेतों में खूब चोरियाँ होती हैं। सबको पता भी होता है कि चौर कौन है। किन्तु, सबूत नहीं होने के कारण कोई कुछ बोल नहीं पाता, कुछ कर नहीं पाता। ऐसे में, उस चोर को ही खेत की रखवाली दे दी जाती है। ओतियाजी ने भी यही किया। अपन चोरों को खेत की रखवाली दे दी और खुद गहरी नींद और मीठे सपनों के मजे लेते रहे।’ मेरी बात सुनकर सब ‘सन्न’ रह गए। सन्नाटा छा गया। लेकिन पल भर में एक ठहाके से सन्नाटा भंग हो गया।
यह ठहाका अकोतियाजी का था। और हम सब? हम सब झेंप कर गूँगे हो गए थे। और चूँकि गूँगे हो गए थे तो उनके इस ‘अभिनव प्रबन्धकीय कौशल’ की तारीफ भी कैसे करते? सो, अकोतियाजी ठहाके लगाते रहे और हम, सारे के सारे ‘छँटे हुए’ एजेण्ट, झेंपते ही रहे।
और ये हैं हम, 'छँटे हुए' 34 एजेण्ट। मैं,कुर्सीवाली पंक्ति में बॉंये से दूसरी कुर्सी पर हूँ।
चित्र पर चटकारा लगा कर चित्र को बडे आकार में देखें।
वाह, अत्यन्त रोचक..
ReplyDeleteप्रशिक्षण सत्र, खासकर जब वह वयस्क-प्रौढ़ों के लिए हो, उसे रोचक और जीवन्त बनाना, पहली आवश्यकता होती है.
ReplyDeleteवैसे प्रशिक्षक के लिए प्रशिक्षर्तियों को बांधे रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. (स्वयं का अनुभव)
ReplyDeleteफेस बुक पर श्री दिनेश राय द्विवेदी, कोटा की टिप्पणी -
ReplyDeleteबेहतरीन।
फेस बुक पर श्री शरद श्रीवास्तव, मुम्बई की टिप्पणी -
ReplyDeleteएक पाठ जो सभी प्रौढ़ प्रशिक्षकों के लिये ज़रूरी है।
फेस बुक पर, श्री सुरेशचन्द्र करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteबड़े दिन से आज तुम्हारा ब्लॉग पढ़ पाया हूँ। कारण, लैपटॉप ख़राब हो गया था। वह ऐसे अच्छे शागिर्द बने रहो।