तकनीकी प्रभातियों में माँ


गए कुछ दिनों से माँ बहुत याद आ रही है।

किन्तु भला यह भी कोई बात हुई? याद तो उसकी याद आती है जिसे भुला दिया जाए! भला माता-पिता को भुलाया जा सकता है? फिर, माँ के तो हम ‘देहांश’ हैं! माँ का 'देहावसान' अवश्य होता है किन्तु माँ मरती कभी नहीं। वह तो रक्त बनकर हमारी धमनियों में दौड़ती रहती है। चौबीसोंचौबीसों घण्टे। तब भी, जब हम सो रहे होते हैं।

इस चार अप्रेल को पूरे चौबीस बरस हो जाएँगे माँ को मरे। किन्तु गए कुछ दिनों से माँ याद आ रही है। रह-रह कर। बार-बार।

गए कुछ दिनों से मेरे मोबाइल पर ‘शुभ-प्रभात एसएमएस’ (गुड मार्निंग एसएमएस) की मानो बाढ़ आई हुई है। थोड़ी सी बरसात में, गाँव-खेड़े के नाले में जिस तरह पूर आ जाता है, सुबह के दस बजते-बजते, लगभग वैसी ही दशा मेरे मोबाइल की ‘सन्देश पेटी’ की हो जाती है। यह ‘फेस बुक कृपा’ ही है कि भेजनेवालों में कुछ ही देखे-जाने-पहचाने होते हैं, अनदेखे और केवल नाम से पहचाने अधिक। यह भी प्रतिदिन ही होता है कि भेजनेवाले तो अलग-अलग होते हैं किन्तु ‘फारवर्ड कृपा’ के चलते, सन्देश एक ही होता है। स्थिति यह बनती है कि भेजनेवाले तो उन्नीस और सन्देश गिनती के सात।

ये ‘शुभ प्रभात एसएमएस’ ही मुझे माँ की याद दिला रहे हैं।

माँ की आवाज तो मीठी ही होती है। किन्तु मुझे कहने दीजिए कि मेरी माँ की आवाज कुछ अधिक और अतिरिक्त मीठी थी। कुछ ऐसी और इतनी मानो शहतूतों में रस समा नहीं रहा हो। टप-टप टपक रहा हो। निरन्तर। नहीं जानता कि अपने कण्ठ स्वर के इस ईश्वर प्रदत्त अतिरिक्त मिठास की जानकारी उसे थी या नहीं किन्तु जब-जब भी कोई गीत गाती, यह मिठास इस तरह घर-आँगन में बिखर जाती मानो कोई गुड़ की भेली द्रव में बदलकर बहने लगी हो। उसके पास लोक गीतों और भजनों का मानो चिरन्तन कोष था। मालवी लोक जीवन के प्रसंगों से जुड़े गीतों की भरमार थी उसके पास। ‘पारसियों’ (पहेलियों) और ‘गालियों’ में वह विशेषज्ञ थी। अपनी बेटी को ब्याह के बाद पहली बार मायके लिवाने आये अच्छे-अच्छे ‘चतुर-सुजान’ उसकी ‘पारसियों’ को ‘खोलने’ (सुलझाने) में असमर्थ-असफल रह कर, समधिनों के उपहास के स्थायी पात्र बने रहे। वह अपनी भजन-गीत-मण्डली की नेता भले ही नहीं थी किन्तु ‘अनिवार्य’ से कोसों आगे बढ़कर ‘अपरिहार्य’ सदस्य अवश्य थी। वह अपनी मण्डली की सबसे बड़ी शक्ति और ‘पारसियों’ के मामले में अचूक अस्त्र थी।

दिन भर में बीसियों बार मुझे ‘एदी’ (गन्दा/घिनौना), आलसी और निकम्मा कहनेवाली मेरी माँ की सुबह उन मालवी प्रभातियों से होती जिनके जरिए वह मुझे ‘कान्हा’, ‘विट्ठल’ जैसे सम्बोधनों से दुलराते हुए थपथपाती थी। रोज नई-नई प्रभातियाँ गाती किन्तु एक प्रभाती कभी नहीं चूकती -

जागो नी म्हारा परथी का पालनहार,
विठल वेगो जाग रे!

चूँ-चूँ करती चिड़ियाँ बोली, राँभी रामी गाय।
थारे कारण उबो रे कान्हा, ग्वालिड़ा को साथ।
विठल वेगो जाग रे!

निन्द्रा मग्न ‘बाल कृष्ण’ को सम्बोधित इस प्रभाती का अर्थ कुछ इस तरह से होगा - हे! पृथ्वी के पालनहार! उठिए। जागिए। चिड़ियाएँ चहचहा रही हैं, गायें रँभा रही हैं, ग्वाल-बाल आपकी प्रतीक्षा में खड़े हैं। हे! विट्ठल, जागिए।

एसएमएस पढ़ने में मुझे अत्यधिक असुविधा होती है और लिखने में तो मेरी नानी मरती है। कभी लिखना पड़ता है तो लिखने से पहले ही थकान आ जाती है। गए कुछ दिनों से मिल रहे ‘शुभ प्रभात एसएमएस’ से भी मुझे यही सब हो रहा है। जवाब मैंने एक का भी नहीं दिया है। दूँगा भी नहीं। किन्तु ये एसएमएस अनायास ही मुझे मेरी मीठी माँ से जोड़ रहे हैं। मैं इसी बात से खुश हूँ।

ये ‘तकनीकी प्रभातियाँ’ निस्सन्देह मुझे ‘कान्हा’ और ‘विट्ठल’ कह कर नहीं पुकार रहीं किन्तु इन सन्देशों में मैं अपनी माँ की सूरत देख रहा हूँ और ‘एसएमएस’ की सूचना देने वाली ‘टिन-टिन’ में उसके शहतूती स्वरों को सुनने की कोशिश कर रहा हूँ।

अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग


ऐसा होता तो होगा किन्तु यदि मैं अपने अनुभव के आधार पर बात करूँ तो कह सकता हूँ कि यह ‘अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग’ है। पूरे 36 वर्षों में पहली बार मुझे यह अनुभव हुआ है।

इन्दौर और उज्जैन के बीच में एक गाँव पड़ता है - साँवेर। इन्दौर से उज्जैन जाते हुए इन्दौर से 32 किला मीटर की दूरी पर। वहाँ से उज्जैन की दूरी 20 किला मीटर रह जाती है। इसी साँवेर में मेरी ससुराल है। 17 फरवरी 1976 को मेरा विवाह हुआ था। श्रीयुत गोवर्द्धनदासजी महन्त की बड़ी बेटी वीणा मेरी उत्तमार्द्ध बन कर महन्तजी के आँगन से बिदा हुई थी।

पूरे 36 बरस बाद, 17 फरवरी 2012 को एक बार फिर ‘महन्त परिवार’ की एक और बेटी उसी आँगन से बिदा हुई - अपनी ससुराल के लिए। यह बेटी थी, मेरे बड़े साले देवेन्द्र कुमार महन्त की इकलौती बेटी (याने मेरे ससुर श्री गोवर्द्धनदासजी महन्त की पौत्री) हम सबकी प्रिय, चि. नवनी। राजगढ़ (जिला धार, म. प्र.) निवासी श्री महेश बैरागी का इकलौता बेटा चि. आदित्य उसका जीवन साथी बना।

‘उस बिदा’ में और ‘इस बिदा’ मे दो अन्तर रहे। पहला अन्तर - ‘उस बिदा’ में मैं, बिदा करवाने का प्रमुख कारक था जबकि ‘इस बिदा’ में मैं बिदा करनेवाले कारकों में शामिल था।

दूसरा अन्तर - मुझसे ‘बेटी की बिदा’ नहीं देखी जाती। वह वेला मुझे अत्यधिक भावाकुल कर देती है और मुझे रोना आ जाता है। निस्सन्देह यह रोना निःशब्द होता है किन्तु हिचकियाँ मेरे रोने को उजागर कर देती हैं। इसलिए, 17 फरवरी 1976 को अपनी उत्तमार्द्ध को बिदा कराने के लिए मैं रुका नहीं। जनवासे चला आया था। लगा था कि बिदा होती दुल्हन के साथ मेरा रोना लज्जा की बात होगी। कहीं ऐसा न हो कि लोग, पिता के घर सें बिदा हो रही, मेरी नवोढ़ा ब्याहता का रोना अनदेखा कर, आँखें फाड़-फाड़ कर मुझे न देखने लगें - यह विचार मन में आया था। यह भी विचार मन में आया था कि कहीं ऐसा न हो कि मुझे रोता देखकर मेरी उत्तमार्द्ध मेरे बारे में पहली ही राय ‘कमजोर आदमी’ या ‘औरत जैसा आदमी’ की न बना ले।

एक और अन्तर गिना जा सकता है। मेरा पाणिग्रहण संस्कार, महन्तजी के निज-निवास परिसर में हुआ था जबकि नवनी का पाणिग्रहण संस्कार एक मांगलिक भवन परिसर में हुआ। किन्तु इसे मैं गौण मानता हूँ क्योंकि ‘मकान’ भले ही दूसरा हो किन्तु ‘आँगन’ तो वही था - महन्त परिवार का।

हाँ, एक (चौथा) अन्तर और रहा जो दूसरे अन्तर में ही समाहित है। ‘उस बिदा’ में तो मैं दुल्हन को छोड़ आया था किन्तु ‘इस बिदा’ में मैं मौजूद रहा और हिचकियाँ ले-लेकर, धार-धार रोते हुए प्रिय चि. नवनी को बिदा किया।

मुमकिन है, ऐसे ‘अपवादों में आपवादिक सुखद संयोग’ से औरों का भी सामना हुआ हो। किन्तु मेरे साथ तो ऐसा पहली बार हुआ। वह भी पूरे 36 बरसों में पहली बार।

(चित्र में बाँये से - मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी, आदित्य, नवनी और मैं।)

रवि का ढोल

तन्मयता से ढोल बजा रहे रवि ने ध्यानाकर्षित किया। लगभग साढ़े तीन फुट के कद और लगभग दस वर्ष की अवस्थावाला रवि, अपनी काया के अनुपात से कहीं बड़ा ढोल बजाते हुए दीन-दुनिया भूल जाता है। माथा झुकाए, जोर-जोर से डंका और किमची मारता हुआ रवि किसी कुशल नट या फिर गम्भीर साधक जैसा दिखाई देता है। शरीर का पूरा जोर लगाकर ढोल बजाता है किन्तु थकता-हाँफता नहीं। खुश होता है। ऐसे, मानो अपने प्रिय खिलौने से बतियाने का मौज-मजा लूट रहा हो।

वह पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहा है किन्तु नियमित रूप से स्कूल नहीं जा पाता। उसे इस बात का तनिक भी दुःख नहीं है। वह अपने ताऊ के घर रह रहा है-अपने एक छोटे भाई और एक छोटी बहन के साथ। माँ और पिता, अस्सी किलोमीटर दूर, एक औद्योगिक बस्ती में मजदूरी कर रहे हैं। गाँव में न तो अपना घर और न ही खेत। नियमित रूप से दिहाड़ी भी नहीं मिलती। पिता भवन निर्माण में ईंट जुड़ाई का काम करते हैं और माँ उनके साथ ही रेत-सीमेण्ट ढोती है। महीने-दो महीनों में घर आते रहते हैं। बच्चों से मिल लेते हैं और अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने बड़े भाई को दे जाते हैं - रवि और उसके भाई-बहन के खर्च के लिए।

रवि से बात करना इन्द्रधनुषी अनुभव से कम नहीं रहा। बीस-पचीस हजार की आबादीवाले गाँव का रवि पहली ही बार में ऐसा खुलकर मिला मानो टेलिविजन के किसी धारावाहिक का कोई बाल कलाकार हो। कोई संकोच, कोई झिझक नहीं। उसे परीक्षा का कोई भय नहीं है। खूब जानता है कि वह स्कूल जाए या न जाए, पढ़े या न पढ़े, परीक्षा दे या न दे, टीचरजी उसे फेल कर ही नहीं सकते। रवि को मालूम है कि सरकार ने कह रखा है कि हर बच्चे को पास करना ही है। उसे यह भी पता है कि टीचरजी उसे न तो डाँट पाते हैं न ही कोई सजा दे पाते हैं। उल्टे उसकी खुशामद करते हैं। कहते हैं कि रोज स्कूल आया कर। शादी-ब्याह, मौत-मरण या जनम-जलमा के प्रसंगों में रवि को ढोल बजाने जाना पड़ता रहता है। कभी पूर्व नियोजित तो कभी अचानक ही। जब तीन-चार दिन तक लगातार स्कूल नहीं जा पाता तो टीचरजी कुछ बच्चों को रवि के घर भेज देते हैं। वह इतराकर कहलवा देता है - ‘अभी काम पर हूँ। कल आऊँगा।’ अगले दिन स्कूल जाता है तो टीचरजी चाह कर भी गुस्सा नहीं कर पाते। खीझकर कहते हैं - ‘तू तेरे लिए नहीं, मेरी नौकरी के लिए स्कूल आया कर। तू और तेरे जैसे बच्चे मेरा तबादला करवा दोगे।’ टीचरजी के ये बोल सुनकर और उनकी दशा देखकर रवि को बड़ा मजा आता है। उसे पता है कि छात्र संख्या कम होने पर टीचरजी को फटकार लगती है।

रवि को न तो ‘शिक्षा का अधिकार’ के बारे में कुछ पता है और न ही ‘बाल श्रमिक कानून’ के बारे में। लेकिन उसे इतना पता अवश्य है कि स्कूल में उसके नाम का भोजन रोज आता है। वह भोजन उसका पेट तो भरता है किन्तु मजा नहीं आता। दाल के नाम पर मिर्च-मसाले का झोल और सब्जी के नाम पर बेस्वाद कुछ तो भी। रोटियाँ कभी अधजली तो कभी अधपकी।

इसीलिए रवि को ढोल बजाना अच्छा लगता है। जनम-मरण-परण में से प्रसंग कोई भी हो, खबर मिलते ही रवि उत्साह से वहाँ पहुँच जाता है। वहाँ उसे प्रायः ही कोई न कोई पकवान ही मिलता है। और कुछ न हुआ तो पूड़ी-सब्जी तो मिलती ही है। यह बात जरूर है कि सब के जीम लेने के बाद उसे मिलती है किन्तु मिलती तो है। पेट भर खा लेने के बाद वह बेहिचक अपने छोटे भाई-बहन के लिए भी माँग लेता है। एक भी यजमान ने उसे आज तक मना नहीं किया। एक बच्चे को अपने छोटे भाई-बहन की चिन्ता करते देख, प्रसन्नतापूर्वक रवि को खाने का सामान दे देते हैं - आवश्यकता से तनिक अधिक ही। ढोल बजाने की मजदूरी और थोड़ा बहुत ‘नेग’ तो उसे मिलता ही है। उसे इस बात की खुशी है कि इस तरह वह अपने माँ-बाप, ताऊ की मदद कर रहा है और अपने छोटे भाई-बहन की देख भाल भी।

रवि के ढोल की आवाज में, शिक्षा के अधिकार और बाल श्रमिक कानून की सरकारी मुनादियों की आवाजें फिजूल लगती हैं। सुनाई भी नहीं देतीं।

रवि ढोल बजा रहा है। बजाए जा रहा है।

हेप्पी शिवरात्रि

कल, शिवरात्रि का पूरा दिन बिस्तर में बीता। साले की बिटिया का विवाह था। पन्द्रह की शाम ससुराल गया था। उन्नीस की शाम लौटा। वहाँ काम-धाम तो कुछ किया नहीं किन्तु लौटने पर थकान ने बुरी तरह घेर लिया। पोर-पोर में दर्द और पूरे शरीर में एँठन। इतनी और ऐसी कि कुछ नहीं कर पाया। मेरे पुत्रवत मित्र के लिए एक अत्यावश्यक आवेदन तैयार करना था। वह भी नहीं कर पाया। दर्द निवारक गोलियों से आराम तो मिला लेकिन काफी देर से - रात होते-होते। इस समय, सुबह के सवा छह बजे जब यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो, एँठन और दर्द का स्पर्श बना हुआ है तो सही किन्तु तनिक अच्छा लग रहा है।

कल दिन भर मे कोई अठारह एसएमएस आये। सब के सब शिवरात्रि को लेकर। दो-एक सन्देश ‘फारवर्ड’ किए हुए थे, शेष सब अलग-अलग इबारत के। किन्तु एक बात न्यूनाधिक सबमें समान थी - ‘हेप्पी शिवरात्रि।’ यह मेरे लिए सर्वथा नया अनुभव था।

व्यक्तिगत स्तर पर मैं आस्तिक भले ही न होऊँ किन्तु ‘ईश्वरवादी’ तो हूँ ही। मेरा ‘ईश्वर’ साकार भी है और निराकार भी। ऐसा तत्व जो मेरा सबसे पहला विश्वसनीय मित्र है। सदैव साथ बना रहनेवाला। शायद इसी कारण मैं उतना कर्मकाण्डी नहीं हो पाया जितना कि कोई ‘आस्तिक’ लोक-प्रचलित अर्थों में होता है या होना चाहिए। इसीलिए मेरे लिए शिवरात्रि का अर्थ ‘सृजन के प्रारम्भ का शुभ-शकुनी दिन’ है। ऐसे दिन मैं बिस्तर में था।

किन्तु मैं भले ही बिस्तर में था और भले ही पीड़ा और एँठन से परेशान था किन्तु था तो फुरसत में! सो, एसएमएस करनेवाले कुछ मित्रों से बात की। शिवरात्रि पर एसएमएस करने को लेकर उनसे पूछताछ की। उनके जवाब मेरे लिए अपने आप में एक नया अनुभव रहे। ग्यारह लोगों से बात की। उनमें से कुल दो ऐसे निकले जिन्होंने उपवास कर रखा था और शिव दर्शन को मन्दिर गए थे। शेष नौ में से कोई भी मन्दिर नहीं गया था और किसी ने उपवास नहीं किया था। इनमें से दो ने तो होटल पर, जलेबी-पोहा का नाश्ता करते हुए ‘हेप्पी शिवरात्रि’ वाले एसएमएस किए थे। शिवरात्रि पर ऐसे एसएमएस भेजने के पीछे उनका अभीष्ट जानना चाहा तो सबने एक ही जवाब दिया - ‘हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा करने और बढ़ावा देने के लिए’ उन्होंने यह ‘कर्तव्य’ निभाया।

मैं खुश नहीं हो पाया। अकेले में हँस भी नहीं पाया। उलटे, पीड़ा और एँठन में बढ़ोतरी अनुभव हुई। धर्म तो हमारे आचरण में होना चाहिए! किन्तु वैसा कर पाना तनिक कठिन काम है। किन्तु धार्मिक होने के बजाय धार्मिक दिखना अधिक आसान है। अधिक नहीं, बहुत ही आसान है। सो वही कर लिया जाए। हम वही तो कर रहे हैं!

ऐसे में, अब, चौबीस घण्टे बाद ही सही। हेप्पी शिवरात्रि।

मूक मालियों का ‘अंकुर’


रविवार की सुबह वे ‘दोनों प्रकाश’ मुझे वहाँ नजर आए जहाँ उनका होना असामान्य और अनपेक्षित था। किन्तु दोनों के चेहरे, ‘सब ठीक है’ की हाँक लगा रहे थे। मैं जल्दी में था। रुका नहीं। इशारों में ही अभिवादन कर निकल गया।

‘दोनों प्रकाश’ याने प्रकाश अग्रवाल और प्रकाश जैन। यहाँ भले ही दोनों को ‘प्रकाश’ लिख रहा हूँ किन्तु सम्बोधित करता हूँ ‘प्रकाशजी’ कह कर ही। दोनों ही बैंक ऑफ बड़ौदा के कर्मचारी। ऐसे कर्मचारी जो सुबह तनिक जल्दी दफ्तर पहुँचते हैं और शाम देर तक काम करते रहते हैं। वैसे, यह अलग बात है कि इन दिनों बैंक कर्मचारियों पर काम का बोझ इतना बढ़ गया है कि न्यूनाधिक प्रत्येक कर्मचारी की यही दशा हो गई है - जल्दी पहुँचना और देर से लौटना।

अगले दिन मैंने पूछताछ की तो बड़े संकोच से बताया कि वे अखबार की रद्दी लेने के लिए वहाँ खड़े थे। मुझे लगा, निजी समय में रद्दी का व्यापार करते हैं। एकाधिक कारणों से मुझे ऐसा लगा। पहला तो यह कि दोनों ही अत्यधिक परिश्रमी हैं और अतिरिक्त सक्रिय रहते हैं - बिलकुल किसी उद्यमी की तरह। दूसरा यह कि दोनों ही ‘व्यापारी समुदाय’ से हैं। और तीसरा यह कि मेरे कस्बे में ऐसे लोग हैं जो भंगार/कबाड़ और रद्दी का व्यापार करते हुए 30 प्रतिशत की ‘कर-दर’ से आय-कर चुका रहे हैं। ऐसे में ‘दोनों प्रकाश’ भी यदि ऐसा ही और यही कर रहे हों तो अचरज कैसा?

किन्तु दोनों ने मेरी धारणा खण्डित कर दी।

दोनों ने ससंकोच बताया कि वे और उनके कुछ सहकर्मी-मित्र, प्रत्येक रविवार को, पूर्व निर्धारित परिवारों से सूचना पाकर, उनके यहाँ एकत्र, अखबारी रद्दी लेने जाते हैं जिसे बेचकर वे गरीब और असहाय लोगों को चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने में मदद करते हैं। शुरुआत तो इन्होंने बच्चों को शिक्षा सहायता उपलब्ध कराने से की थी। बैंक से शिक्षा ऋण हेतु आनेवालों से इनका सामना होता था। सो, सबसे पहले यही बात सामने आई। किन्तु जल्दी ही यह बात भी सामने आ गई कि माध्यमिक स्तर तक के बच्चों को लगभग सारी सुविधाएँ (पुस्तकें और कपड़े) शासकीय स्‍तर पर निःशुल्क मिल जाती हैं और उच्च स्तर की आवश्यकताएँ अधिक खर्चीली होती हैं - इनकी सीमाओं से परे। सो इन्होंने अपने अभियान को स्वास्थ्य क्षेत्र की ओर मोड़ दिया। किन्तु प्रारम्भिक काल में शुरु की गई शिक्षा सहायता जारी रखना अनिवार्य था। सो, गए दो वर्षों से 10-10 बच्चों को, दो हजार रुपये प्रति बच्चे के मान से अब तक 40 हजार रुपये दे चुके हैं। अपने अभियान को इन्होंने ‘अंकुर’ नाम दिया हुआ है। आज ‘अंकुर’ के खाते मे लगभग 40 हजार रुपये जमा हैं।

दो साल पहले जब इन्होंने यह काम शुरु किया था तो इनकी बैंक की स्थानीय शाखाओं के अनेक (लगभग सारे के सारे) सहकर्मी ‘अंकुर’ से जुड़े हुए थे। किन्तु धीरे-धीरे वे लोग स्थानान्तरित होते गए और नए आए लोगों को ‘अंकुर’ से या तो ये जोड़ नहीं पाए या वे ही नहीं जुड़ पाए। इस समय मुख्यतः 5 लोग ही ‘अंकुर’ की देखभाल कर रहे हैं। इनमें से चार रतलाम में और पाँचवा, रतलाम के पास की ही एक शाखा में पदस्थ है।

अखबारी रद्दी लेना इनके लिए अब कठिनाईवाला काम बनता जा रहा है। देनेवालों की संख्या बढ़ती जा रही है और लेनेवाले घटते जा रहे हैं। देनेवाले फोन पर फोन करते हैं - ‘रद्दी उठाओ।’ इनकी दिक्कत यह कि आदमी और साधन-संसाधन सीमित। कभी-कभी पाँच क्विण्टल रद्दी एकत्र हो जाती है। यह काम बैंक की नौकरी और परिवार के कामों से फुरसत निकाल कर ही करना पड़ता है। सुनकर मुझे अच्छा लगा। काम अच्छा है। किन्तु इतनी मेहनत कर पाना मेरे लिए तो मुमकिन नहीं! जो काम खुद नहीं कर सको, उससे जुड़ जाओ। सो, मैंने अपना नाम-पता भी ‘अंकुर’ की सूची में लिखवा दिया। अपने कुछ मित्रों/परिचितों से बात की तो वे भी सहर्ष तैयार हो गए। अगले ही दिन उन सबके भी नाम-पते प्रकाशजी को लिखवाए। नाम-पते लिखते हुए प्रकाशजी ससंकोच बोले - ‘पता नहीं आप क्या समझेंगे, किन्तु एक निवेदन है। हम और हमारे साधन नाम मात्र के हैं। इसलिए अभी हम इसे अपनी क्षमतानुसार ही विस्तारित कर पाएँगे। आप तो बीमा एजेण्ट हैं! आपका परिचय क्षेत्र व्यापक है। इसलिए हम आपकी गति से शायद ही चल पाएँ।’ मैंने संकेत समझा और कहा - ‘मैं भी अपने साधन सहित आपके साथ हूँ। अपनी रद्दी, जहाँ आप कहेंगे, वहाँ पहुँचा दूँगा। अपने मिलनेवालों से भी ऐसा ही करने को कहूँगा। यदि वे ऐसा नहीं कर पाए तो उनके यहाँ से रद्दी लाने के बारे में मैं सोचूँगा और तदनुसार ही कोशिश भी करूँगा। आप हिम्मत रखिए। नेक इरादों को मंजिल मिल ही जाती है। ताज्जुब मत कीजिएगा यदि लोग आपको बुलाने की बजाय आप तक पहुँचना शुरु कर दें!’ यह कहते समय मैंने मन ही मन तय कर लिया कि मेरे घर की रद्दी के लिए मैं इन्हें नहीं बुलाऊँगा। मैं खुद ही इनके कहे स्थान पर पहुँचा दूँगा। पता नहीं क्यों, मुझे आशा है कि मेरे मित्र/परिचित भी ऐसा कर लेंगे।

मुमकिन है, इस लिखे को रतलाम के लोग भी पढ़ें और ‘अंकुर’ को ‘वट वृक्ष’ बनाने में सहायक बनना चाहें। इसलिए ‘अंकुर’ के पाँचों ‘मालियों’ के नाम और मोबाइल नम्बर दे रहा हूँ - प्रकाश अग्रवाल (94240 48484), दर्शन सिंह अरोड़ा (99931 08384), प्रकाश जैन (94251 04292) (यहाँ दिए चित्र में तीनों इसी क्रम में नजर आ रहे हैं), मिलिन्द तम्हाणे (94066 36401) और विजय राव तावरे (94251 02491)।

कूरीयर सेवाएँ: जाएँ तो जाएँ कहाँ?

एक निजी कूरीयर कम्पनी ने मेरा कार्यक्रम घ्वस्त कर दिया।

अपने बीमा रेकार्ड के लिए मैंने जयपुर की निजी साफ्टवेयर कम्पनी का साफ्टवेयर ले रखा है। उसमें आई तकनीकी गड़बड़ दूर करने के लिए उसका ताला मुझे जयपुर भेजना पड़ा। शनिवार, 4 फरवरी को मैंने ताला स्पीड पोस्ट से भेजा जो कम्पनी को सोमवार, 6 फरवरी को मिल गया। कम्पनी ने तत्परता बरतते हुए ताले को उसी दिन ठीक कर दिया। मैंने अनुरोध किया था कि वे मुझे ताला स्पीड पोस्ट से ही भेजें। किन्तु एक तो कर्मचारियों की आदत और दूसरे, कूरीयर कम्पनी से रोज का सम्पर्क - इन्हीं कारणों से कम्पनी ने ट्रेकान कूरीयर्स से मुझे 6 फरवरी को ही ताला भेज दिया।

मुझे उम्मीद थी कि ताला मुझे या तो 7 फरवरी को और बहुत हुआ तो 8 फरवरी को तो मिल ही जाएगा। किन्तु 8 फरवरी की अपराह्न 4 बजे तक मुझे ताला नहीं मिला तो मैंने जयपुर फोन लगा कर कूरीयर सेवा के रतलाम कार्यालय का पता और फोन नम्बर जानना चाहा। मुझे उतावली इसलिए थी क्यों कि, बीमा अभिकर्ताओं के अधिवेशन के लिए मुझे 9 फरवरी की सुबह भोपाल के लिए निकलना था।

साफ्टवेयर कम्पनी की रिसेप्शनिस्ट ने मुझे होल्ड करने को कहा और दूसरे फोन से कूरीयर कम्पनी को फोन लगाया। कूरीयर वाला क्या बोल रहा था यह तो मुझे सुनाई नहीं पड़ रहा था किन्तु रिसेप्शनिस्ट का कहा तो मैं साफ-साफ सुन रहा था। उसकी बातों से लग रहा था कि कूरीयर वाले को उनेक रतलाम कायालय का पता और फोन नम्बर मालूम नहीं है। अलबत्ता वह आश्चर्य कर रहा था कि ताला अब तक क्यों नहीं पहुँचा! रिसेप्शनिस्ट को मैंने कहते हुए सुना कि उसे ‘आर्टिकल की लोकेशन’ नहीं जाननी, उसे तो कूरीयर कम्पनी के रतलाम सम्पर्क के ब्यौरे चाहिए। थोड़ी ही देर में रिसेप्शनिस्ट ने, समुचित और अपेक्षित सहायता न कर पाने के लिए मुझसे क्षमा माँगते हुए कूरीयर कम्पनी की वेब साइट का पता और स्लिप नम्बर लिखवा दिया।

मैंने ताबड़तोड़ कूरीयर कम्पनी की वेब साइट खोली और सन्दर्भित स्लिप का ट्रेकिंग चार्ट देखा तो पाया कि उसमें केवल जयपुर से भेजने के ब्यौरे अंकित थे। आगे का कुछ भी अता-पता नहीं था।

मैंने फिर जयपुर फोन लगा कर रिसेप्शनिस्ट से मदद माँगी। उसने फिर मुझे ‘होल्ड’ पर रखकर कूरीयर कम्पनी को फोन लगाया। इस बार उसने एक मोबाइल नम्बर लिखवाया। फोन रखकर मैंने उस मोबाइल नम्बर को डायल किया तो सन्देश मिला कि यह मोबाइल बन्द है।

मैंने फिर जयपुर फोन लगाया। मदद माँगी। रिसेप्शनिस्ट ने फिर सम्पर्क किया और कहा कि मुझे कूरीयर कम्पनी की वेब साइट से ही उनके रतलाम कार्यालय का अता-पता और फोन नम्बर तलाश करना पड़ेगा।

मैंने फिर पूरा उपक्रम दोहराया। थोड़ी उठापटक की तो ज्ञान प्राप्ति हुई कि रतलाम में उस कम्पनी का अपना कोई कार्यालय है ही नहीं। दूसरे नाम की कूरीयर कम्पनीवाले से उन्होंने अनुबन्ध कर रखा था। वहाँ फोन लगाया तो मुझे थोड़ी देर बाद फोन करने को कहा गया क्योंकि ‘मालिक अभी नहीं है।’

इस उठापटक में शाम के 6 बज गए। जयपुर में साफ्टवेयर कम्पनी का कार्यालय बन्द हो चुका था। मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय इसके कि मैं अगले दिन तक प्रतीक्षा करूँ। याने, मेरा भोपाल कार्यक्रम स्थगित।

अगले दिन मैंने रतलामवाली कूरीयर कम्पनी को फोन लगाया तो बताया गया कि मेरा सामान तो आ गया है किन्तु वितरण करने के लिए कोई लड़का अभी नहीं है। आएगा, तब भेज देंगे। मैंने अपनी स्थिति बताई और चाहा कि मेरा सामान मुझे तत्काल भेज दिया जाए। उसने कहा कि ऐसा मुमकिन नहीं है और यदि मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकता तो बेहतर है कि मैं उसकी दुकान पर आकर अपना सामान ले लूँ।

मुझे यही करना पड़ा। उसकी दुकान पर गया तो मुझसे पहले दो और लोग खड़े थे, अपना सामान लेने के लिए। अपना नम्बर आने पर मैंने अपना सामाना लिया और घर आया और जयपुर से सम्पर्क कर अपनी समस्या हल करने में लग गया।

मैं 10 फरवरी को ही, चौबीस घण्टे विलम्ब से भोपाल हेतु निकल पाया।

बड़े-बड़े नामवाली और ‘अनुपम-उत्कृष्ट ग्राहक सेवा’ देने के बड़े-बड़े तथा लुभावने वादे करनेवाली इन कूरीयर कम्पनियों की यह छोटी सी हकीकत है। बड़े शहरों में तो ये कम्पनियाँ हवाई जहाज से सामान/पत्र पहुँचा देती होंगी किन्तु मेरे कस्बे जैसे छोटे स्थानों के लिए इनके पास वे ही व्यवस्थाएँ हैं जो छोटे कस्बों में चल रही स्थानीय कूरीयर कम्पनियों की होती हैं।

‘नाम बड़े और दर्शन खोटे’ इसी को कहते होंगे। लोगों की विवशताओं का अनुमान लगाया जा सकता है - वे क्या करें और क्या न करें? डाक विभाग परोक्षतः, ऐसी कम्पनियों के लिए मैदान छोड़ता जा रहा है और ये कम्पनियाँ इस तरह लोगों को परेशान कर रही हैं।

ब्लॉग ने बचाया ठगी से

मैं इसे, स्थानीय स्तर पर ब्लॉग की बड़ी सफलता मानता हूँ। और यह भी कि ‘ब्लॉग’ आनेवाले दिनों में सामाजिक चेतना और बदलाव का धारदार औजार बनेगा - जैसा कि मैं इससे जुड़ने के पहले ही दिन से मान रहा हूँ।

रातों-रात लखपति बनने के लालच में, ‘स्पीक एशिया’ के चंगुल में आकर अपनी कड़ी मेहनत की रकम फँसाए बैठे अनेक लोगों को सर्वोच्च न्यायालय ने बहु प्रतीक्षित राहत दी है। निवेशकों की याचिका पर निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कम्पनी को निर्देश दिया है कि वह दो सप्ताह में निवेशकों को उनकी रकम (जो पहली नजर में लगभग 1300 करोड़ रुपये है) लौटाए।

अब ठीक-ठीक दिन और महीना याद नहीं किन्तु कुछ ही महीनों पहले श्री विवेक रस्तोगी ने अपने ब्लॉग कल्पनाओं का वृक्ष पर ‘स्पीक एशिया’ द्वारा लोगों के साथ, व्यापक स्तर पर की जा रही ठगी का सविस्तार वर्णन किया था।

रस्तोगीजी की उस पोस्ट को छाप कर मैंने अपने, अधिकाधिक बीमा अभिकर्ता मित्रों को बाँटी थी। मेरे कस्बे में, भारतीय जीवन बीमा निगम की तीन शाखाएँ हैं। मैंने लगातार कई दिनों तक, तीनों शाखाओं में जा-जा कर अभिकर्ता साथियों को, आते-जाते, रोक-रोक कर ‘स्पीक एशिया’ की कारगुजारियों की जानकारी दी। मेरी शाखा में तो मैंने बीमा अभिकर्ताओं के हमारे संगठन ‘लियाफी’ के सूचना पटल पर भी इस बारे में विस्तृत जानकारी प्रदर्शित की। उन दिनों न जाने कहाँ-कहाँ से हम अभिकर्ताओं के पास फोन आ रहे थे - स्पीक एशिया से जुड़कर आर्थिक लाभ उठाने के लिए।

मुझे आत्म सन्तोष तो हुआ ही, अपने साथी अभिकर्ताओं पर गर्व भी हुआ कि मेरे कस्बे का, भारतीय जीवन बीमा निगम का एक भी (जी हाँ, एक भी) अभिकर्ता साथी इस कम्पनी से नहीं जुड़ा।

कल जब यह समाचार अखबारों में छपा तो मेरे अनेक अभिकर्ता साथियों ने मुझे फोन पर और व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद दिया और आभार प्रकट किया।

मैं कल्पना कर रहा हूँ कि यदि मैंने अभियान नहीं चलाया होता तो भले ही गिनती के ही सही, बीमा अभिकर्ता इस ठग कम्पनी से खुद भी जुड़ते और मुमकिन है कि अपने मिलनेवालों को भी जोड़ते। वे सब के सब, इस ठग कम्पनी के चंगुल में आने से बच गए।

यदि यह किसी प्रकार की सफलता है तो मैं इसे श्री विवेक रस्तोगी के खाते में और उससे पहले ‘ब्लॉग विधा’ के खाते में जमा करता हूँ।

इस घटना से मेरा उत्साह बढ़ा है। मैं चुनाव सुधारों को लेकर ब्लॉग के जरिए कुछ करने का मन कई दिनों से बना रहा था किन्तु साहस नहीं हो रहा था। इस घटना ने मेरा साहस भी बढ़ाया है।

मैं समस्त ब्लॉग लेखकों को इस नेक काम के लिए बधाइयाँ देता हूँ और अभिनन्दन करता हूँ कि वे सब आनेवाले दिनों में ऐसे अनेक परिवर्तनों के वाहक और निमित्त बनेंगे जिनकी आवश्यकता आज सारे देश में तीव्रता से अनुभव की जा रही है।

सहजता से असहज करना

हम कितनी सहजता से सामनेवाले को असहज कर देते हैं?

सुबह-सुबह वर्माजी का फोन आया। बोले - ‘बहू की तबीयत खराब है। डॉक्टर सुभेदार साहब को दिखाने जा रहा हूँ। अपाइण्टमेण्ट ले लिया है। साढ़े दस बजे का समय दिया है। आप जरा उन्हें फोन कर दीजिएगा कि जरा ध्यान से देखलें और बढ़िया इलाज कर दें।’ मुझे अच्छा नहीं लगा। कहा - ‘वे सबको ध्यान से ही देखते हैं और सबका इलाज बढ़िया ही करते हैं। उन्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।’ वर्माजी ने जवाब दिया - ‘हाँ। यह तो मैं भी जानता हूँ। फिर भी आप एक बार मेरी तसल्ली के लिए कह दीजिए।’ मैंने कहा - ‘जब आप सब जानते हैं तो कहने-कहलवाने की बात क्यों कर रहे हैं?’ वर्माजी बोले - ‘आपका-उनका रोज का मिलना-जुलना है। आपकी बात का असर पड़ेगा।’ मैंने तनिक रूखेपन से कहा - ‘माफ करें। जैसा आप चाहते हैं, वैसा मैं नहीं कह सकूँगा। ऐसा कहना उनकी ईमानदारी पर सन्देह करना होगा।’ वर्माजी नाराज हो गए। बोेले - ‘आपकी दो तोले की जबान हिलाने से हमारा सेर भर फायदा होगा। आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि आपकी जेब से कुछ खर्च हो रहा हो!’ मैंने कहा - ‘मेरी जेब से तो कुछ खर्च नहीं हो रहा किन्तु किसी डॉक्टर से कहना कि वह मरीज को ध्यान से देखे और बढ़िया इलाज करे, उसके मुँह पर उसकी बेइज्जती करना है। सरकारी अस्पताल होता तो आप एक बार शंका कर सकते थे। किन्तु आप तो प्रायवेट मे दिखा रहे हैं। आपको उन पर कोई सन्देह भी नहीं है। फिर ऐसी बात करना उनकी बेइज्जती करने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। मैं ऐसा नहीं कर सकता।’

वर्माजी को अच्छा नहीं लगा। किन्तु उनकी बात सुनकर मुझे तो उनसे पहले ही अच्छा नहीं लगा था।

दो-एक बार मुझे अनिच्छापूर्वक, संकोचग्रस्त होकर ऐसी (डॉक्टर की अवमानना करनेवाली) अनुचित सिफारिश करनी पड़ी थी। उसका असर यह हुआ कि डॉक्टर साहब ने, पहले से पंक्तिबद्ध मरीजों को छोड़कर, मेरे अनुशंसित मरीज को बुला कर देखा और परामर्श शुल्क भी नहीं लिया। शुल्क न लेनेवाली बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं किन्तु पहले से नम्बर लगाए बैठे मरीजों को बाद में देखना मुझे अपराध बोध से ग्रस्त कर गया। भला उन मरीजों का क्या अपराध था?

लगभग ऐसे ही एक और मामले का गवाह बना था मैं। महाविद्यालय के भौतिक शास्त्र के प्राध्यापकजी के घर बैठा था। उनसे बीमे की बात चल रही थी। एक सज्जन आए। उनका बेटा साथ था। वह इन प्राध्यापकजी का छात्र था। अभिवादन के बाद पिता बोला - ‘सर! आप जरा इस पर विशेष ध्याने देने की महरबानी कर दें।’ मेरे मित्र बोले - ‘यह तो कक्षा मे आता ही नहीं। मैं क्या ध्यान रखूँ?’ पिता बोला - ‘जानता हूँ सर और इसीलिए रिक्वेस्ट कर रहा हूँ। घर से तो कॉलेज के लिए निकलता है। पता नहीं कहाँ घूमता रहता है। आप ध्यान देंगे तो साल बच जाएगा।’ मित्र ने कहा - ‘इससे कहो कि रोज क्लास मे आया करे और वहाँ कोई बात समझ में न आए तो शाम को मेरे घर आ कर पूछ ले।’ पिता बोला - ‘सर! जब कॉलेज ही नहीं आता तो आपके घर क्या आएगा? आप तो इतनी मेहरबानी कर दें कि यह जब भी कॉलेज आए, इस पर विशेष रूप से ध्यान दें। आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।’ मित्र ने असमर्थता जताई तो पिता मुझसे मुखातिब हो गया - ‘आप ही सिफारिश कर दीजिए न? गरीब का भला हो जाएगा।’ मुझे अजीब लगा। कहा - ‘आप अपने बेटे को न तो कॉलेज भेजने को तैयार हैं और न ही प्रोफेसर साहब के घर पर। भला ऐसे में ये उसका ध्यान विशेष रूप से कैसे रख सकते हैं?’ पिता बोला - ‘भगवान ने आप लोगों को हमारी मदद करने की ताकत दी है और आप लोग मदद नहीं कर रहे हो। भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा।’

कह कर दोनों बाप-बेटे तो चले गए लेकिन हम दोनों उजबक की तरह एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।

हम सोचने की कोशिश ही नहीं करते कि हम कितनी सहजता से सामनेवाले को असहज कर देते हैं।

मिर्ची में मिर्ची मिलने की जुगत


‘घर से दूर एक घर’ वाला मुहावरा मैंने अनेक होटलों में देखा है। मित्रों/परिचितों बड़ी संख्या मेरी धरोहर है। जहाँ कहीं जाता हूँ, अपनापन पाता हूँ। सब जगह ‘घर जैसा’ ही होता है किन्तु इस शब्द युग्म का ‘जैसा’ पल-पल जताता रहता है कि घर जैसा कहीं, कुछ नहीं होता। घर, घर ही होता है। इसीलिए, घर से दूर, घर तलाशने की सनातन प्रक्रिया बनी रहती है।

वेंकटरमण सिंह श्याम ने यही सब आभास कराया मुझे। वे गोंडवानी चित्र कला शैली के उभरते, आश्वस्तिदायक चित्रकार हैं। डिंडोरी से आये हैं। मेरे कस्बे में चल रहे चित्रकला उत्सव ‘वर्णागम-वनजन’ में भाग ले रहे हैं। आज उनके पास कुछ देर बैठा रहा। उनकी कूची को कैनवास पर अठखेलियाँ करते देखता रहा। वे अपने काम में मगन थे और मेरे पास कोई काम नहीं था। किसी को अपना काम करते देखना भी भला कोई काम होता है? सो, बीच-बीच में उनसे बतियाता भी रहा, इस डर के साथ कि मेरा बतियाना उन्हें बाधित न कर दे।

कला से दूर का भी जिसका नाता न हो, ऐसा अदमी किसी कलाकार से कला पर बात करने का मूर्खतापूर्ण खतरा नहीं लेता। मैंने भी यही सावधानी बरती। उनके मिजाज और घर से दूर रहने पर खान-पान को लेकर होनेवाली असुवधिओं जैसे पारम्परिक विषय पर बात ले आया।

उन्होंने मालवा की, यहाँ के मौसम की, जितने लोग उनसे मिले उनके व्यवहार की, कला शिविर की व्यवस्थाओं की मुक्त कण्ठ और अन्तर्मन से प्रशंसा की। यह सब कहते हुए वे नाटक नहीं कर रहे हैं, यह उनकी आँखों, भंगिमाओं और स्वरों से सहज ही अनुभव होता था। किन्तु भोजन को लेकर वे तनिक समस्याग्रस्त लगे। थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि यह समस्या अकेले श्याम की नहीं, डिंडोरी-मण्डला से आये सारे चित्रकारों की समस्या थी।

श्याम के अनुसार यहाँ उनकी खूब आवभगत हो रही है। कोई कमी नहीं है। काम करने का अनुकूल वातावरण मिला है। सब कुछ निर्बन्ध और निर्बाध है। मालवा के विभिन्न व्यंजनों से पहली बार परिचय हुआ है। सब कुछ ठीक है किन्तु ‘थोड़ी सी कसर’ है। यह ‘थोड़ी सी कसर’ ही श्याम सहित सारे गोंड कलाकारों की समस्या है। मैंने कुरेदा तो तनिक संकोच से बोले - ‘आप अन्यथा मत ले लीजिएगा। यह आलोचना बिलकुल नहीं है। आप पूछ रहे हैं तो बता रहा हूँ। यहाँ पेट तो भर रहा है किन्तु तृप्ति नहीं मिल रही।’ मैंने सहज ही कहा कि वे बता देंगे तो उनके मनपसन्द व्यंजन जुटाने की कोशिश की जा सकती है। अत्यन्त संकोच और सम्पूर्ण विनम्रता से श्याम ने कहा - ‘आप ठीक कह रहे हैं किन्तु यहाँ वैसा हो पाना मुमकिन नहीं क्योंकि वे चाह कर भी नहीं बनाए जा सकेंगे।’

घर से दूर, खान-पान की थोड़ी-बहुत असुविधा तो हम सबको होती ही है। किन्तु इसका समानान्तर सच यह भी है कि हम सब प्रायः ही स्थिति के अनुसार खुद को ढाल कर, हमें परोसे जानेवाले आंचलिक व्यंजनों को आनन्द लेने की कोशिश करने लगते हैं और प्रायः ही इसमें सफल भी होते हैं। किन्तु श्याम की बातों से लग रहा था कि उनकी कोशिशें कामयाब नहीं हो रही थीं। मैंने कुरेदा तो मालूम हुआ कि ‘कोंदो’ किस्म का चावल और कुटकी की सब्जी उनके अंचल का लोक-भोजन है। वह यहाँ, मालवा में मिलना नितान्त असम्भव है। इसलिए किसी से (शिविर व्यवस्थापकों से) कहने का मतलब सामनेवाले को संकोच में डालना होगा।

श्याम की उदारता और सहृदयता मुझे छू गई। मैंने सहज ही पूछा कि इन व्यंजनों के विकल्प के रूप में किन्हीं और व्यंजनों की व्यवस्था करवाई जाए? पूर्ववत् ही विनम और संकोचग्रस्त श्याम ने जो कहा उसने, मेरे सामने संकटों का नया आयाम उद्घाटित किया। अनुकूल व्यंजन न मिलने के समानान्तर समस्या थी - भोजन में तेज मिर्च-मसालों का न होना। मैंने कहा - ‘आप लोग लाल या हरी मिर्च ही क्यों नहीं माँग लेते?’ जवाब में श्याम ने जो कहा, उसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। श्याम का उत्तर सुनकर मुझे ‘परदेस कलेस नरेसन को’ काव्य-पंक्ति याद आ गई। अत्यधिक असहज होकर श्याम ने कहा - ‘माँगी थी। लकिन आपके यहाँ की तो मिर्ची में भी तेजी नहीं है।’

मैं सोच में पड़ गया। ऐसी समस्या से मैं अब तक कभी भी रू-ब-रू नहीं हुआ। मिर्ची की तेजी बढ़ाने के लिए मिर्ची में कौन सी मिर्ची मिलाई जाए?

मेरे कस्बे में कालिदास


यह अनुभव मेरे लिए वर्णनातीत है। इससे पहले ऐसा मैंने कभी नहीं देखा। यहाँ मैं केवल सूचनाएँ दे पा रहा हूँ। अपने अनुभव को व्यक्त कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा।

मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद् की ओर से, कालिदास संस्कृत परिषद्, उज्जैन के तत्वावधान में मेरे कस्बे में, पहली फरवरी से एक चित्रकला उत्सव चल रहा है। कालिदास की कृतियों पर आधारित, पारम्परिक और लोक शैलियों पर केन्द्रित इस चित्रांकन उत्सव को ‘वर्णागम वनजन’ नाम दिया गया है इसका अर्थ मैं नहीं समझ पाया हूँ। शिमला, मणीपुर, राजस्थान से लेकर चैन्नई तक के, देश भर के स्थापित और नवोदित 32 कलाकार इसमें भाग ले रहे हैं। 18-20 वर्ष से लेकर 80 वर्ष तक के स्त्री-पुरुष चित्रकार यहाँ मौजूद हैं। सुबह नाश्ता-पानी कर सब अपने-अपने कैनवास पर जुट जाते हैं।

गोंड चित्रांकन शैली के आठ-दस कलाकारों ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। ये सब मध्य प्रदेश के मण्डला और डिण्डोरी जिलों से आए हैं। बाकी सब कलाकार या तो हॉल में या बरामदे में बैठकर काम कर रहे हैं किन्तु गोंड शैली में का कर रहे ये सारे खुले में, पेड़ों के नीचे बैठ कर चित्रांकन कर रहे हैं।

पारम्परिक गोंड वेष-भूषा में चित्रांकन कर रही महिलाएँ आँखों में समाए नहीं समाती। दीन-दुनिया से बे-भान ये महिलाएँ मानो समूचे आकाश पर अपनी मनोभावनाएँ अपने मनपसन्द रंगों में पोत देना चाहती हों, कुछ इसी तरह डूब कर ये अपने काम में लगी हुई नजर आईं मुझे। मैं हिम्मत नहीं कर पाया कि इनसे पूछूँ कि ये कहाँ तक पढ़ी-लिखी हैं और कालिदास तथा उनकी कृतियों के बारे में कितना जानती हैं? और यह भी कि यदि कुछ जानती हैं तो कैसे?

अब तक तो चित्र प्रदर्शनियाँ देखने का ही काम पड़ा है मुझे। किन्तु चित्रों को बनते देखना पहला ही अनुभव है मेरा। रंगों के संसार का रहस्य मुझे सदैव जिज्ञासु बनाए रखता है। पहली बार ऐसा हुआ कि मैं सृजन प्रक्रिया को प्रत्यक्षतः देख पा रहा हूँ।

मैं कल वहाँ गया था। कोई दो-ढाई घण्टे इन कलाकारों को देखता रहा। आज भी गया था। डॉक्टर मुरलीधरजी चाँदनीवाला और उनकी उत्तमार्द्ध प्रतिभाजी पहले से ही मौजूद थे वहाँ। चाँदनीवालाजी, कालिदास के ‘पागल प्रेमी’ से कम नहीं हैं। वे परम् जिज्ञासा भाव से, इन महिला कलाकारों के पास गए। उनमें से एक का कैनवास देखते ही, चकित भाव से बोले - ‘यह तो कुमार समवम् है!’ अपने कैनवास और कूची पर नजर गड़ाए कलाकार बोली - ‘जी! सर। कुमार सम्भवम् ही है।’ कह कर उसने चाँदनीवालाजी की ओर गरदन घुमाई और चित्र सन्दर्भ की जानकारी दे दी। चाँदनीवालाजी निहाल हो गए।

कोई ढाई-तीन घण्टे हम लोग वहाँ रहे। चाँदनीवालाजी ने कहा - ‘अपना जो प्रिय काम हम नहीं कर पाते, वही काम इन कलाकारों को करते देख कर बहुत अच्छा लग रहा है। आपको कैसा लग रहा है?’ मैंने कहा - ‘मुझे तो ये लोग देवता लग रहे हैं। मेरी मनोकामनाएँ पूरी करनेवाले देवता।’ चाँदनीवालाजी ने कहा - ‘अपने इस अनुभव को आप कैसे बयान करेंगे?’ मैंने कहा - ‘मेरे लिए मुमकिन नहीं।’ उन्होंने उकसाया - ‘नहीं! नहीं! आपको कुछ तो कहना ही पड़ेगा।’ मैंने कहा - ‘आप साहित्यिक आदमी हैं और मैं अनगढ़। आप जिद ही कर रहे हैं इसलिए कह रहा हूँ। मुझे ऐसा लग रहा है मानो किसी विवाह समारोह की भोजनाशाला में अपना मनपसन्द व्यंजन बनते हुए देख रहा हूँ।’ चाँदनीवालाजी उछल पड़े। बोले - ‘आपकी इस अनगढ़ता में सम्प्रेषण पूरा-पूरा है।’

दो बातें मुझे तकलीफ दे रही हैं। पहली तो यह कि इस आयोजन का पूर्व प्रचार नाम मात्र को भी नहीं हुआ। दूसरी यह कि जानकारी होने के बाद भी मेरे कस्बे के चित्र कलाकार और इस विधा के विद्यार्थी वहाँ अब तक नहीं पहुँचे हैं। उन्हें तो, इस शिविर अवधि तक यहीं जम जाना चाहिए था।

सरकारी काम याने मेरी गिरफ्तारी

‘इस कार्यालय के पत्र क्रमांक फलाँ-फलाँ, दिनांक फलाँ-फलाँ द्वारा आपको सूचित किया गया था कि आप रुपये 6,846/- जमा कराएँ। आपने उपरोक्त रकम अब तक जमा नहीं की है। इस पत्र द्वारा आपको अन्तिम सूचना दी जाती है कि दिनांक फलाँ-फलाँ तक उपरोक्त रकम जमा कर दें। ऐसा न करने की दशा में आपके विरुद्ध गिरफ्तारी वारण्ट जारी करने कार्रवाई शुरु कर दी जाएगी।’ कर्मचारी भविष्य निधि के उज्जैन स्थित कार्यालय से जारी यह पत्र पाकर हैरान ही हुआ।

हम तीन मित्रों ने 1977 में दवाइयाँ बनाने की लघु उद्योग इकाई शुरु की थी जो 1992 में बन्द करनी पड़ी। उसे विसर्जित करने हेतु तमाम कानूनी कार्रवाइयाँ पूरी कीं और तमाम आर्थिक जिम्मेदारियाँ अन्तिम रूप से चुकता कर दी गईं।

किन्तु अब, कोई 30 वर्षों के बाद उपरोक्त पत्र मिला। मालूम हुआ कि ऐसा पत्र हम तीनों भागीदारों को भेजा गया है। हम तीनों में से किसी के पास अब उस इकाई से सम्बन्धित कोई कागज-पत्तर नहीं है।

पत्र पाकर पहले तो हम तीनों खूब हँसे। फिर, कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय से सम्पर्क रखनेवाले परामर्शदाता से सम्पर्क किया। उन्होंने तलाश कर बताया कि इकाई के चलते रहने के दौरान हम लोगों ने कोई भुगतान देर से किया था। नोटिस में वर्णित रकम, चुकाई गई रकम पर, उसी विलम्बित अवधि के ब्याज की रकम थी।

नोटिस और रकम से अधिक रोचक बात हमें यह लग रही थी कि 30 वर्षों बाद यह वसूली क्यों और किस तरह सतह पर आई? इसके समानान्तर हम तीनों इस बात के लिए भी विभाग को धन्यवाद दे रहे थे कि केवल विलम्बित अवधि का ब्याज जोड़ा गया था - अब तक की, 25-30 वर्षों की अवधि का ब्याज नहीं जोड़ा गया था।

परामर्शदाता ने बताया कि कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय का कम्प्यूटरीकरण अभी-अभी पूरा हुआ है। इस प्रक्रिया को पूरी करने के लिए, कार्यालय में पड़ी सारी फाइलों की धूल झाड़ी गई। उसी में हमारी इकाई की फाइल भी निकल आई। परामर्शदाता ने कहा - ‘आपमें से किसी के पास कोई कागज नहीं है। फिर भी आप कानूनी लड़ाई लड़ें तो मुमकिन है कि इस रकम से मुक्ति पा लें। लेकिन ऐसा कितने समय में और कैसे होगा, यह आप खुद ही देख लें। किन्तु उससे पहले आप तीनों की गिरफ्तारी जरूर हो जाएगी, भले ही वह कागजों पर ही हो। आखिर सरकारी काम है। इसलिए मेरी सलाह तो यही है कि आप यह रकम जमा करा दें और सारी झंझट से बचें। आगे आपकी मर्जी।’

हम तीनों ने पहले ही क्षण में परामर्शदाता की सलाह मान ली। अपने-अपने हिस्से की रकम परामर्शदाता को सौंप दी। बैंक ड्राफ्ट बनवाना और उज्जैन कार्यालय में जमा करवाने का काम वे कर लेंगे।

हम तीनों परम प्रसन्न हैं कि हमने सरकारी काम पूरा करने में सहायता की।

चार्वाक : अमरीकियों के आदर्श?


यहाँ चिपकाया गया समाचार पढ़कर मुझे अनायास ही महर्षि चार्वाक याद आ गए। अपनी विख्यात उक्ति ‘ऋणं कृत्वा, घृतं पीवेत्’ लिखते समय उनके मानस में अमेरीका था या अमरीका ने चार्वाक की उक्ति को अपनी आर्थिक नीतियों का आधार बना लिया?

सुनता हूँ कि दुनिया का सबसे कर्जदार देश अमरीका ही है। यह भी सुनता हूँ कि अमरीका अपने नागरिकों को बेरोजगारी भत्ता देता है। शायद इसी कारण समूचे अमरीकी समाज ने उपभोक्तावाद को अपना रखा है। इसीलिए वे आज को, ‘खाओ-पीयो-मौज करो’, को जीते हैं। ‘कल के लिए’ बचाने में विश्वास नहीं करते। उन्हें इसकी आवश्यकता अनुभव ही नहीं हुई होगी। हो भी क्यों? सरकार जो है! बचत क्यों की जाए? किसके लिए की जाए? बेरोजगारी के आलम में भी भूखों मरने की नौबत तो आने से रही! याने, जीवन-यापन के लिए किसी अमरीकी को न तो बचत करनी जरूरी और न ही कर्ज लेना। इसीके चलते यह मजेदार (और विचारणीय) स्थिति है कि एक भी अमरीकी कर्जदार नहीं है लेकिन उनका देश दुनिया का सर्वाधिक कर्जदार देश!

हम अलग हैं। सारी दुनिया से। अपने कल की बेहतरी सुनिश्चित करने के लिए अपना आज बिगाड़ देते हैं। हम आज भूखे रह लेते हैं ताकि कल हमारे बच्चे भूखे न रहें। हम ‘उड़ाने’ में नहीं, ‘बचाने’ में विश्वास करते हैं। ‘खाओ-पीयो-जीयो’ के स्थान पर ‘रूखी-सूखी खाय के ठण्डा पानी पीव’ पर अमल करते हैं। हम सरकार के भरोसे नहीं रहते। रह ही नहीं सकते। ‘भार वहन’ के मामले में सरकार हमारे लिए शायद ही हो किन्तु सरकारों का भार वहन करने के लिए तो हम ही हैं। हम व्यक्तिगत रूप से भी कर्जदार हैं और सरकार के स्तर पर भी। भारतीय भी कर्जदार और भारत भी! कोई साढ़े तीन-चार साल पहले आए वैश्विक मन्दी के दौर में भी हमारे पाँव टिक रहे तो इसका श्रेय हमारी सरकार और उसकी नीतियों को कम और ‘बचत’ करने की हमारी ‘मध्यमवर्गीय मानसिकता’ को ज्यादा है।

अमरीकी अपने लिए कुछ नहीं बचाते। कमाते हैं और खर्च कर देते हैं। लेकिन सुनता हूँ कि इस खर्च में सरकार को चुकाए गए कर भी शामिल होते हैं। कहीं पढ़ा था कि सुबह घर से निकला अमरीकी शाम को घर लौटता है तो कम से कम 53 टैक्स चुका कर आता है। हम ऐसा नहीं करते। हम अपनी सरकार को ‘चोट्टी सरकार’ मानते/कहते हैं (ऐसा मानने/कहने के लिए हमारे नेताओं ने हमे विवश जो कर दिया है!) इसलिए भला चोरों को, अपनी कड़ी मेहनत की कमाई कैसे दे दें? इसीलिए हम, कर देने में कम और देने से बचने में (यहाँ ‘बचने’ के स्थान पर मैं ‘चुराने’ प्रयुक्त करना चाह रहा हूँ किन्तु ‘लोक पिटाई’ के भय से ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ) अधिक विश्वास करते हैं और तदनुसार ही अमल भी करते हैं।

हमारी सरकार सारी दुनिया से खुद भी कर्ज लेती है, हमसे भी लेती है फिर भी हमारी देखभाल नहीं करती। उधर अमरीकी सरकार है जो खुद कर्ज लेकर अपने नागरिकों को कर्ज-मुक्त रखती है।

कहीं इसीलिए तो अमीरीकियों ने अनजाने में ही चार्वाक को आत्मसात नहीं कर रखा है?

अथ गणदेवताय नम:

यह मेरी खानापूर्ति पोस्टहै। इस ब्लॉग के लिए लिखी गई पोस्ट नहीं। दैनिक भास्करके, देवास तथा झाबुआ जिलों के संस्करणों के, गणतन्त्र दिवस 2012 पर प्रकाशित स्थानीय परिशिष्टों में यह मुख्य आलेखके रूप में प्रथम पृष्ठ पर, सचित्र प्रकाशित हुई थी।

हे! गणदेवता, यह सब क्या हो रहा है? और तुम क्या कर रहे हो?

ऐसा तो इस देश में कभी नहीं हुआ! तब भी नहीं, जब अंग्रेजों का राज था। तब तो एक ही दुःख था कि हम अंग्रेजों के गुलाम हैं। आज तो हम अंग्रेजों के गुलाम नहीं हैं, आजाद हैं और हालत यह है कि लोग अंग्रेजों का राज याद करने लगे हैं! कहने लगे हैं कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का राज था! यह सब हो रहा है और तुम गूँगे और असहाय बने, अकर्मण्य बैठे हो? कुछ भी पूछो तो जवाब देते हो - मैं कर ही क्या सकता हूँ?’ जिन स्वरों ने अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिए उन स्वरों में इतनी दयनीयता? इतनी लाचारी? क्या हो गया है तुम्हें?

तब की बात और थी। वे तो परदेसी थे। उन्हें भारत की कोई चिन्ता नहीं थी। उन्हें मतलब था अपनी थैलियाँ भरने का, भारत की सम्पदा के दोहन का। अमानवीय और क्रूर शोषण के बावजूद एक बहाना था, एक तसल्ली थी कि कोई अपनेवाला हमारे साथ यह सब नहीं कर रहा है। लेकिन आज तो सब के सब अपनेवाले ही हैं! क्या इसीलिए चुप बैठे हो कि सब अपनेवाले हैं?

ऐसे कैसे अपनेवाले? ये तो हमारी चौकीदारी करने की, हमारी बेहतरी की जिम्मेदारी लेने का भरोसा दिलाते हैं लेकिन सबके सब डकैतों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। सत्ता-लोलुप नेताओं, भ्रष्ट अफसरों और स्वार्थी-लालची धन-पशुओं की तिकड़ी ने ताण्डव मचा रखा है। अंग्रेजों के राज में पूरा देश एक था - भारत। भारत को ही अंग्रेजों से आजाद कराया था। लेकिन इन सबने तो देश को दो हिस्सों में, इण्डिया और भारत में बाँट कर रख दिया है! देश की तीन चौथाई सम्पत्ति, देश के गिनती के घरानों की तिजोरियों में बन्द हो गई है। आँकड़ों के दम पर देश को दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्तियों में जगह मिलने का दावा किया जाता है और इधर हकीकत यह है कि गरीब को तो साँस लेना भी दूभर हो रहा है। हमारे नेताओं को इस बात पर तो गुमान है कि दुनिया के धनवानों की सूची में अब कुछ भारतीयों के नाम भी नजर आने लगे हैं। लेकिन इनमें से किसी को इस बात पर क्षण भर भी शर्म नहीं आती कि इनके लिए अन्न उपजानेवाला, इनका अन्नदाता’, इन्हें जिन्दा रखने के लिए खुद आत्महत्या कर रहा है।

देश की अधिसंख्य आबादी आज भी देहातों में बसती है और खेती-किसानी-मजदूरी पर निर्भर है। किन्तु नीतियाँ बन रही हैं कार्पोरेट घरानों की बेहतरी केा ध्यान में रखकर। आम आदमी के विरुद्ध इस अमानवीय और प्राणलेवा षड़यन्त्र में सारे राजनीतिक दल और राजनेता मानो सबसे आगे रहने की प्रतियोगिता में लगे हैं। जिस संसद में भारत के जन सामान्य की झलक नजर आनी चाहिए थी, जहाँ किसानों-मजदूरों की आवाज प्रतिध्वनित होनी चाहिए थी, आजादी के शुरुआती दौर में जहाँ धोती-कुर्ते-गमछे नजर आते थे वहाँ आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के, सूट-बूट में सजे नुमाइन्दे नजर आ रहे हैं, उन्हीं कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाने की जुगतें भिड़ाई जा रही हैं। कतार में खड़े अन्तिम आदमी की चिन्ता करते हुए, आजीवन अधनंगे रहनेवाले गाँधी की दुहाइयाँ देकर उसी अन्तिम आदमी की लंगोटी तक छीनने के जतन किए जा रहे हैं। आम आदमी के जिस नमक को गाँधी ने अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाया था वही नमक आज उसी आम अदमी के लिए विलासिता की वस्तु बना दी गई है। जिस गाँधी को आज सारी दुनिया आत्मसात कर रही है, लगता है कि उसी गाँधी के देश में, गाँधी की समाधि राज-घाट का नीलाम होना ही बाकी रह गया है!

हे! गणदेवता, ऐसे में तुम चुप कैसे बैठ सकते हो? अंग्रेजों से आजाद कराकर हमने भारत को गणतन्त्रका रूप दिया है। इस शब्द का अर्थ और महत्व समझो।

दो शब्दों, ‘गणऔर तन्त्रसे बना यह एक शब्द तुम्हारे-हमारे लिए आराध्य की साधना का मूल-मन्त्रहै। गणका अर्थ है - लोग। याने, हम सब। और तन्त्रका अर्थ है - शासन व्यवस्था जिसे शासकीय अमला या अफसरों-बाबुओं-कर्मचारियों की जमात। अब गणतन्त्रपर तनिक ध्यान दो। इसमें गणपहले है और तन्त्रबाद में । सीधा और एकमात्र मतलब है कि गणको आगे रहना है और तन्त्रको उसका अनुगमन करना है, ‘गणके पीछे-पीछे चलना है। किन्तु आज सब कुछ उलटा हो गया है। गणकी चुप्पी और लापरवाही के कारण तन्त्रने गणपर सवारी कर ली है। अफसरशाही-बाबूशाही ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया है। बची-खुची कसर सत्तालोलुप नेताओं ने पूरी कर दी। यह अचानक नहीं हुआ। धीरे-धीरे हुआ और इसलिए हुआ कि गणने अपनी जिम्म्ेदारी पूरी नहीं की। वह तन्त्रपर निर्भर हो गया। हम सब भूल गए कि आजादी केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी भी है। हम अधिकारों की माँग करते रहे और जिम्मेदारी भूल गए। गैर जिम्मेदार लोग किसी भी तन्त्रके लिए सर्वाधिक आसान शिकार होते हैं। यही हमारा कष्ट है।

इसलिए हे! गणदेवता, जागो। अंग्रेजों की गुलामी के दौर में, देश की जनसंख्या में नौजवानों की उपस्थिति के मुकाबले आज नौजवानों की तादाद अधिक है - देश की जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा। कोई भी देश अपने नौजवानों की ही सम्पत्ति होता है। इसीलिए तो नौजवानों को देश का भविष्य कहा जाता है! देश की यह दुर्दशा हमने ही की है। इसलिए इससे उबरना भी हमारी ही जिम्मेदारी है। वैसे भी स्वर्ग देखने के लिए मरना पड़ता है। आज स्थिति यह है कि देश की अधिसंख्य आबादी मर मरकर जी रही है। इससे अच्छा तो यही है एक बार जी कर मर जाएँ।

इसलिए हे! गणदेवता, उठो! अपनी कराहों, सिसकियों को हुँकार में और असहाय विवशता को बेचैनी भरे आक्रोश में बदलो। बाजी पलटना यदि आसान नहीं है तो तय मानो कि मुश्किल कुछ भी नहीं। इतिहास गवाह है कि प्रयत्नों को ही परिणाम मिलते हैं और मेहनत करनेवालों की हार नहीं होती। हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते किन्तु वर्तमान में संघर्ष कर भविष्य सँवारने के जतन तो कर ही सकते हैं।

इसलिए हे! गणदेवता, उठो! निराशा की कन्दरा से बाहर आओ। साध्य तो तय है। आवश्यकता है, साधनों की। वे चारों ओर बिखरे पड़े हैं। उन्हें समेटो। ध्यान इतना ही रखना कि उनमें से केवल पवित्र साधन नही चुनना। वर्ना, अपवित्र साधनों के चलते जो दुर्दशा अण्णा-आन्दोलन की हुई है, उसका दुहराव हो जाएगा। सावधानी बस इतनी ही बरतनी है कि देश की दुहाई देकर पार्टी लाइन पर मत उतर जाना। जो गलत है, वह गलत ही होता है, कोई भी करे - अपनेवाला या सामनेवाला। यदि बिना भेदभाव किए गलत का प्रतिकार कर लोगे तो इतिहास बना दोगे वर्ना इतिहास के गर्त में चले जाओगे।

हे! गणदेवता, उठो! सफलता तुम्हारे कदम चूमने को बेताब है। तुम कदम तो उठाओ!

एक पिछड़ा, नासमझ राष्ट्रवादी

मेरी उत्तमार्द्ध ‘बहनजी’ हैं। ‘बहनजी’ याने शिक्षक। रोज सुबह उन्हें स्कूल छोड़ना और शाम को स्कूल से लाना मेरी दिनचर्या का अनिवार्य अंग है।

26 जनवरी को जब मैं उन्हें ले कर लौट रहा था तो बोलीं - ‘जब से इस स्कूल में आई हूँ, हर साल छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त को हमारे स्कूल के झण्डे की प्रेस के पैसे नहीं देने पड़े। हम बच्चों से पुछवाते हैं तो वह प्रेसवाला बताता ही नहीं। पैसे लेने से मना कर देता है।’ मैंने उसके बारे में पूछा तो बोलीं कि नाम जानना तो दूर की बात रही, उन्होंने तो उसकी शकल भी नहीं देखी है। सुनकर मुझे अच्छा तो लगा ही, इस्तरी करनेवाले से मिलने की इच्छा भी बलवती हुई। चार दिनों तक लगातार कोशिश की उससे मिलने की किन्तु सफलता कल, पाँचवें दिन, 31 जनवरी की शाम को मिली।

उसे देखकर मेरी कल्पना की मूरत ध्वस्त हो गई। मेरा कम्प्यूटर खराब होने के कारण मैं उसका चित्र यहाँ नहीं दे पा रहा हूँ। (अब ठीक हो गया है तो फिरोज का चित्र लगा रहा हूँ।) मेरे कस्बे के रोटरी बाल उद्यान के बाहर, ठेले पर, इस्तरी करने की ‘पोर्टेबल’ दुकान चलाता है। सुबह आकर दुकान जमाना और सूरज ढलते-ढलते समेट लेना। पहली ही नजर में मालूम हो जाता है कि उसकी दुकान, नगर निगम की जमीन पर अस्थायी अतिक्रमण है। क्षीणकाय, चेहरे पर कोई उल्लास नहीं, उलझे-बिखरे लम्बे बाल, गालों की हड्डियाँ बाहर निकली हुईं, कोई तीस-पैंतीस बरस के ‘नौजवान’ से मेरा सामना हुआ।

वह अपनी दुकान समेट रहा था। मैंने कहा - ‘यार! तुम अजीब आदमी हो! प्रेस करने के पैसे नहीं लेते? तुम्हारा नाम क्या है?’ जवाब आया - ‘पैसे क्यों नहीं लूँगा? पैसे नहीं लूँगा तो खाऊँगा क्या?’ मैंने कहा - ‘झूठ बोलते हो। चार दिन पहले तुमने झण्डे की प्रेस करने के पैसे नहीं लिए।’ दुकान समेट रहे उसके हाथ रुक गए। आँखों में चमक आ गई। बोला - ‘अरे! वो! आप झण्डे की बात कर रहे हो? अरे क्या सा‘ब! आपने भी क्या बात कर दी? वो तो ‘अपना झण्डा’ है। उसकी प्रेस करने के पैसे कैसे ले सकता हूँ?’

उसका ‘अपना झण्डा’ कहने पर जोर देना मुझे विगलित कर गया।

बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो मालूम हुआ कि दिन भर में 60-70 रुपयों की ग्राहकी हो जाती है। यह रकम गुजारे के लिए कम तो पड़ती है किन्तु वह कोशिश करने के सिवाय और कर ही क्या सकता है? प्रति वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को आसपास के स्कूलों से और विभिन्न संस्थाओं से लगभग बीस-बाईस झण्डे उसके पास प्रेस करने के लिए आते हैं। वह किसी से पैसे नहीं लेता। ‘अपना झण्डा’ जो है! उसकी बातों से मालूम हुआ कि इन दिनों चार रुपये प्रति कपड़े से कम का भाव नहीं है इस्तरी करने का। मैंने हिसाब लगाया, 26 जनवरी और 15 अगस्त को वह अपने दिन भर की ग्राहकी से अधिक की रकम की प्रेस मुफ्त में करता है - ‘अपना झण्डा’ जो है! पहली बार तो उसने अपना नाम नहीं बताया। दूसरी बार पूछा तो लापरवाही से बोला - ‘फिरोज।’

झण्डों की इस्तरी मुफ्त में करने के लिए उससे किसी ने नहीं कहा। ‘अपने झण्डे’ की खिदमत करने की भावना से, अपनी मर्जी से वह यह काम कर रहा है। जब वह यह सब बता रहा था तो उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था - मुद्राविहीन मुद्रा में बता रहा था यह सब। जी में आया, उससे पूछूँ कि क्या यार फिरोज! पैसे नहीं लेते तो मत लो। कोई बात नहीं। पर अपने इस काम का एक प्रेस नोट तो जारी कर देते। साथ में अपना फोटू भी दे देते तो अच्छा होता। लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हुई। डर लगा। कहीं पलट कर न कह दे - ‘क्या सा’ब! कैसी बातें करते हो? यह तो ‘अपने झण्डे’ का काम है! इसका क्या बखान करना? क्या लोगों को बताना?’

इस ‘पिछड़े और नासमझ राष्ट्रवादी’ पर मुझे गुमान हो आया। उसे तो पता भी नहीं होगा कि वह 'राष्‍ट्रवादी' है। मुझे बरबस ही वे लोग याद आ गए जो अपने राष्ट्रवादी होने का ढिंढोरा पीटने के मौके तलाश करते हैं और न मिले तो पैदा कर लेते हैं। राष्ट्र के नाम पर भारी-भरकम आयोजनों के लिए लोगों से चन्दा एँठते हैं, सचित्र प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी करते हैं और अपने ऐसे कारनामों से रौब जमाते हैं। एक यह फिरोज है जो अपने किए की बात भी पूरी-पूरी नहीं बताता!

फिरोज के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर मैंने भरे गले से कहा - ‘भाई फिरोज! मैं तुम्हें सलाम करता हूँ। तुम मुझसे बेहतर आदमी और बेहतर हिन्दुस्तानी हो।’