असली बैरागी


मैं बैरागी हूँ जरूर लेकिन कहने भर को । कोई बाल-बच्चेदार आदमी बैरागी कैसे हो सकता है ? अपने ‘ऐसे बैरागीपन’ के मजे मैं खुद लेता रहता हूँ । लेकिन मणी भाई ने मेरा यह ‘मजा’ मुझसे छीन लिया है । उन्होंने साबित कर दिया है कि कोई बाल-बच्चेदार आदमी भी बैरागी हो सकता है । उन्होंने ‘बैरागी’ की शाब्दिकता को भेदकर (या कहिए कि छिन्न-भिन्न कर) उसकी निराकार आत्मा को अपने आचरण से साकार कर दिया ।

मणी भाई का पूरा नाम मणीलाल जैन है । अभी एक महीना भी नहीं हुआ, इसी 14 मई को उन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष पूरे किए और उसी दिन अपने व्यवसाय से स्वैच्छिक निवृत्ति ले ली । मैं ने ऐसा पहली ही बार देखा । अब तक तो मैं ने यही देखा है कि रिटायर होने से पहले ही लोग दूसरी नौकरी या काम धन्धे की सुनिि‍श्‍चतता कर लेते हैं । आज शाम को कार्यालय से बिदाई समारोह में शाल-श्रीफल के साथ सामूहिक चन्दे की गिट लेकर घर आए और अगली सुबह से नई नौकरी या नया काम शुरू । लेकिन मणी भाई ने ऐसा नहीं किया ।


वे नौकरी में नहीं थे । उनका अपना पैतृक व्यवसाय था । व्यवसाय भी लगभग ‘एक छत्र साम्राज्य’ जैसा । मालवा की जनभाषा में उनके व्यवसाय को ‘स्टेशन दलाल’ कहते हैं जिसे अंग्रेजी ने ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ का अभिजात्य प्रदान कर दिया । मणी भाई के पिताजी (दिवंगत) श्री झब्बालालजी ने जीविकोपार्जन के लिए इस व्यवसाय को अपनाया था । उनका काम इतना साफ-सुथरा और विश्‍वसनीय था कि हेरा-फेरी करने वाले आतंकित होकर उनसे खुद ही दूरी बनाए रखते थे । उन्होंने अपनी फर्म का नाम रखा - मेसर्स मणीलाल झब्बालाल । यह नाम व्यावसायिक ईमानदारी, शुचिता, पारद‍‍िर्शता और विश्‍वसनीयता का प्रामाणिक पर्याय बन गया । इस व्यवसाय में रेल अधिकारियों और कर्मचारियों से चैबीसों घण्टे सम्पर्क बनाए रखना पड़ता है और ‘विविध तथा विचित्र मिजाज’ वाले लोगों से काम निकलवाना पड़ता है । लेकिन झब्बालालजी को कभी कोई असुविधा नहीं हुई और कोई परेशानी नहीं झेलनी पड़ी । उन्होंने अपनी शर्तों पर धन्धा किया । ‘सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं’ वाली कहावत झब्बालालजी के कार्यकाल में, पूरी होने के लिए तरसती रह गई । उनके कार्यकाल में यह कहावत ‘सत्य न तो परेशान होता है और न ही पराजित’ के स्वरूप में ही अनुभव की जाती रही । रतलाम में रेल्वे का मण्डल कार्यालय है जो झब्बालालजी के कामकाज को नियन्त्रित करता रहा । इस कार्यालय के पुराने कर्मचारी आज भी झब्बालालजी के काम की दुहाइयाँ देते मिलते हैं ।


मणी भाई ने अपने पिताजी की परम्परा को न केवल जस का तस चलाया बल्कि उसे अधिक प्रांजल और विस्तारित भी किया । ‘हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर’ को रेल्वे के बड़े ग्राहक संस्थानों (यथा भारतीय खाद्य निगम, भारतीय खाद निगम, कृभको, विभिन्न सीमेण्ट कम्पनियाँ, प्रदेश नागरिक आपूर्ति निगम आदि) और रेल्वे के बीच सेतु का काम करना पड़ता है । व्यापार के व्यवहार, सरकार के कानूनों और प्रक्रियाओं के बीच सदैव ही असंख्य कामकाजी विसंगतियाँ होती हैं । (ज्ञानदत्तजी पाण्डेय इसे अधिक अच्छी तरह समझा सकेंगे । वे तो मणी भाई को व्यक्तिश: जानते भी हैं ।) मणी भाई ने अपने पिताजी की ‘पारदर्शिता, समन्वय, सहयोग’ की परम्परा को पुष्ट ही किया ।


अठारह वर्ष की आयु में मणी भाई ने अपने पिताजी के साथ काम करना शुरू किया । वे अपने पिताजी के ‘वास्तविक मानस पुत्र’ भी साबित हुए । उनके पिताजी ने निर्णय ले रखा था कि जिस दिन उनका व्यापार दस हजार रूपयों का आँकडा को पार कर लेगा, वे सन्यास ले लेंगे । तब दीवाली से दीवाली तक की अवधि का वर्ष हुआ करता था और दस हजार रूपयों का व्यापार बहुत बड़ा हुआ करता था। एक शाम हिसाब करते-करते उन्होंने पाया कि उनका व्यापार दस हजार रूप्ये पार कर चुका है । बस, अगले दिन से उन्होंने न केवल पेढ़ी पर आना बन्द कर दिया अपितु गृहस्थी त्याग की भी इच्छा प्रकट कर दी । उन्हें बड़ी कठिनाई से मनाया गया । वे माने तो जरूर लेकिन उन्होंने मणी भाई को कलम और चाबियाँ सौंप दी और जल्दी ही, परिवार की अनुमति ले कर, घर-बार छोड़ कर सन्यासी बन गए । वे मालवा अंचल में, उनके गुरूजी के सम्प्रदाय में ‘झब्बा मुनि’ के रूप में पहचाने गए । जब तक शरीर ने साथ दिया तब तक वे जैन मुनि के लिए निर्धारित निर्देशों के अनुसार सतत् भ्रमण करते रहे । जब शरीर अशक्त हो गया तो गुरू-आदेश से उन्होंने मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के आगर (मालवा) के जैन स्थानक में मुकाम बनाया और वहीं, गत वर्ष, सन्थारा लेकर आत्म कल्याण प्राप्त किया ।


इस लिहाज से मणी भाई ‘आज्ञाकारी सुपुत्र’ साबित हुए । कोई चार वर्ष पूर्व उन्होंने स्वैच्छिक निर्णय लिया कि वे अपनी आयु के 60 वर्ष पूर्ण होने के बाद व्यापार से निवृत्ति ले लेंगे । जैसा कि होता है, शुरू में उनकी बात को सबने हलके से ही लिया । जिसने गम्भीरता से लिया, उसने समझाइश दी । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम परामर्श एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिए । जैसे-जैसे 14 मई 2008 पास आने लगी वैसे-वैसे मणी भाई की दृढ़ता देख-अनुभव कर उनके परिजन आकुल-व्याकुल होने लगे । पहले खुद ने समझाया, परिवार के बड़ों-सयानों से कहलवाया, कुछ ने तो इस तरह व्यापार छोड़ने को परिजनों के साथ धोखाधड़ी निरूपित कह कर उकसाने की कोशिश की । लेकिन मणी भाई तो ‘नासहा मुझ को न समझा जी मेरा घबराए है / मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन जो मुझे समझाए है’ वाली मुद्रा में बने रहे ।


14 मई 2008 को सवेरे, तमाम अखबारों में मणी भाई का विस्तृत वक्तव्य, विज्ञापन रूपमें हम सबके सामने था । उन्होंने सबके प्रति आभार व्यक्त करते हुए अपनी व्यावसायिक स्वैच्छिक निवृत्ति की एकतरफा सार्वजनिक घोषणा कर दी थी । उन्होंने अविश्वसनीय को सच साबित कर दिखाया ।

वे अपने तमाम गार्हस्थिक उत्तरदायित्व पूरे कर चुके हैं । दोनों बेटियों और इकलौते बेटे का विवाह कर, नाना-दादा बन, नाती-पोतों से खेल रहे हैं । सेवा निवृत्ति के बाद, एक पल के लिए भी अपने कार्य स्थल पर नहीं गए । यह अपने आप में अजूबा ही है । हमारे आस-पास ऐसे अनेक लोग मिल जाएँगे जो वानप्रस्थ की योग्यता अर्जित कर चुके हैं लेकिन तिजोरी की चाबी अपनी अण्टी में कसे हुए हैं, सबसे पहले पेढ़ी पर पहुँचते हैं और सबसे बाद में घर लौटते हैं, अपनी ही अगली पीढ़ी की प्रतिभा, योग्यता, व्यापारिक सूझ-बूझ और क्षमता पर भरोसा नहीं करते, दिन भर नसीहतें झाड़ते रहते हैं और निर्देश देते रहते हैं । लेकिन मणी भाई ने ऐसे तमाम लोगों को बौना और नासमझ साबित कर दिया । उन्हें अपने अनुज सुभाष और बेटे संजय पर न केवल विश्वास है बल्कि गुमान भी है । उनका कहना है कि दोनों काका-भतीजा उनसे (मणी भाई से) अधिक समझदार, अधिक क्षमतावान, अधिक प्रतिभावान और बेहतर व्यवसायी हैं । इन दोनों को कोई परामर्श और निर्देश देने का विचार भी मणी भाई के मन में नहीं आया । अब तक वे व्यापार का आनन्द ले रहे थे, अब अपनी मन-मर्जी का जीवन जीने का आनन्द ले रहे हैं ।


भला बताइए ! असली बैरागी कौन ? मणी भाई का आचरण मुझे अपने आप को बैरागी कहने से रोक रहा है ।मेरी बातों पर विश्वास न हो तो मोबाइल नम्बर 94251 64444 पर खुद मणी भाई से पूछ लीजिए । मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से बाहर के जिज्ञासु इस नम्बर के आगे ‘0’ जरूर लगा लें ।

भिखारी की जूठन


शुक्रवार, 30 मई की शाम से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।

इन दिनों घर में अकेला हूँ । गर्मी की छुट्टियों के कारण पत्नी मायके गई हुई है । बड़ा बेटा नौकरी के प्रयोजन से मुम्बई, बहू अपने मायके और छोटा बेटा पढ़ाई के निमित्त इन्दौर है । भोजन बनाना सीखा नहीं सो नगर की विभिन्न होटलों में पगफेरा बना हुआ है ।

शुक्रवार, 30 मई की शाम एक मित्र से मिलने रेल्वे स्टेशन गया था । वे उज्जैन से सूरत जा रहे थे । उन्हें विदा कर लौटने लगा तब तक रात के आठ बजने ही वाले थे । भूख भी लग आई थी । सो, रेल्वे स्टेशन पर ही, आईआरसीटीसी के नाम पर चलने वाली, ठेकेदार की केण्टीन में भोजन करने का विचार आया ।

ठेके की ऐसी व्यवस्थाओं को अंजाम देने वाले लोग, यन्त्रवत व्यवहार करते हैं । मनुष्यता की सहज ऊष्मा वहाँ गैरहाजिर ही रहती है । सो, भोजन का मूल्य चुका कर पहले टोकन लिया । कर्मचारी ने निर्विकार भाव से, ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ में थाली लगाई । थाली में रखी रोटियाँ देख कर मन असहज हो गया । एक भी रोटी बिना जली हुई नहीं थी । कौर तोड़ने के लिए रोटी थामी तो असहजता, झुंझलाहट में बदलने लगी । रोटियाँ नाम मात्र को भी गर्म नहीं थी । निस्सन्देह वे ‘फ्रीज्ड’ नहीं थी लेकिन ‘रूम टेम्परेचर’ से भी कम तापमान पर थीं । मैं ने तनिक गरम रोटियों का आग्रह किया तो तैनात ‘रोबोट’ ने मेरी ओर देखे बिना कहा - ‘रोटियाँ तो यही हैं ।’ मैं ‘बे-चारा’ दशा में था । मैं ने कौर तोड़ कर दाल के साथ पहला निवाला लिया तो दाल खट्टी लगी । या तो बास गई थी या फिर बासने ही वाली थी । लेकिन कहा कुछ भी नहीं । कहने का कोई मतलब ही नजर नहीं आ रहा था । थाली में रखी सब्जी की दो कटोरियाँ तसल्ली और भरोसा दे रही थीं ।

निवाले को चम्मच की शकल देकर पहली कटोरी की सब्जी ली । लेकिन मुँह में रखते ही मानो आग लग गई । देखने में जो सब्जी आलू की लग रही थी वह वास्तव में मिर्ची की थी । इतनी तेज कि दूसरा निवाला लेने की हिम्मत ही नहीं हुई । दूसरी कटोरी में भजिया कढ़ी थी । अब उसी का आसरा रह गया था । लेकिन उसने भी साथ नहीं दिया । उसमें नमक इतना ज्यादा था मानो, सब्जी के पूरे घान का नमक मेरी कटोरी में मिला दिया गया था ।

कोई बीस-बाईस लोगों की बैठक क्षमता वाली उस केण्टीन में उस समय कुल दो लोग थे - मैं और ठेकेदार का एक कर्मचारी । थाली सामने आए कोई चार-पाँच मिनिट हो चुके थे, भूख जोर से लगी हुई थी लेकिन मैं दूसरा निवाला नहीं ले पा रहा था । केण्टीन में फुटकर रूप से दूसरी ऐसी कोई सामग्री भी नहीं थी जिसके साथ रोटी खाई जा सके ।

मुझे गुस्सा आने लगा था लेकिन उससे पहले और उससे कहीं अधिक भूख जोर मार रही थी । पेट माँग रहा था और जबान कबूल नहीं कर पा रही थी । सोचा, किसी दूसरी होटल में भोजन कर लिया जाए ।

लेकिन यह विचार अकेला नहीं आया । इसके साथ विचारों का झंझावात और मेरे अतीत की पूरी चित्र श्रृंखला भी चली आई ।

हमारा परिवार, भीख की रोटियों पर पला परिवार है । मेरे पिताजी दोनों पैरों और दाहीने हाथ से पूर्णतः और बाँये हाथ से अंशतः जन्मना विकलांग थे । मेरी माँ, चुनिन्दा घरों से रोटियाँ माँग कर लाती थी । ये घर माहेश्वरियों और (दिगम्बर तथा श्वेताम्बर) जैनों के थे । तब मैं बहुत छोटा था लेकिन यह भली प्रकार याद है कि कभी-कभी मैं भी माँ के साथ जाया करता था । तयशुदा घर के दरवाजे पर पहुँच कर माँ आवाज लगाती - ‘रामजी की जय ।’ प्रत्युत्तर में गृहस्वामिनी रोटी लेकर आती । मेरी माँ अपने हाथ का बर्तन सामने करती और रोटी उसमें, हलकी सी ‘झप्प’ की आवाज करती हुई गिरती । रोटी गरम-गरम होती और महत्वपूर्ण बात यह होती कि गृहस्वामिनी की आँखों में न तो कोई दया भाव होता और ही दान करने का । अलग-अलग घर की अलग-अलग रोटी । कभी-कभी कोई गृहस्वामिनी रोटी के साथ सब्जी या कोई मिठाई या मौसम का पकवान रख देती थी ।

सारे घरों का चक्कर लगा कर माँ लौटती तो घर को भोजन मिलता । कभी सब्जी होती तो प्रायः ही नहीं होती । मेरा स्मृति कोष बहुत अधिक सम्पन्न नहीं लेकिन माँ, बड़ी बहन (जीजी) और दादा के मुँह से, माँ की इस भिक्षावृत्ति के असंख्य प्रसंग सुने और असंख्य बार सुने । जीजी भी रोटियाँ माँगने जाती - कभी माँ के साथ तो कभी अकेली । दादा ने भी खूब रोटियाँ माँगीं ।

भिक्षावृत्ति का यह क्रम हमारे परिवार में बरसों तक चला । छठवीं-सातवीं कक्षा तक मैं ने भी घर-घर जाकर, ‘रामजी की जय’ की आवाज लगा कर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगा । दादा को यह वृत्ति कभी पसन्द नहीं आई । लेकिन अपाहिज पिता और विवश माँ की कोई सहायता कर पाना उनके लिए तब सम्भव नहीं हो पा रहा था । वे जैसे ही इस स्थिति में आए, उन्होंने लगभग विद्राह कर, माँ के हाथ से भीख का बर्तन और मेरे हाथ से लोटा छुड़वाया । मेरे पिताजी ने इस निर्णय को कभी स्वीकार नहीं किया । उनकी राय में यह तो हम बैरागी साधुओं का पवित्र कर्तव्‍य था जिसका त्याग कर हम ईश्वर के अपराधी बन रहे थे । लेकिन दादा के तर्कों के आगे पिताजी की एक न चली ।

जिस पहले दिन मेरी माँ रोटी माँगने नहीं गई उस दिन मेरी माँ खूब रोई । लेकिन यह रोना खुशी का था । दादा ने माँ को भिखारी से गृहस्थन का सम्मान और दर्जा जो दिला दिया था । यह दादा ही थे जिन्होंने हमारे पूरे परिवार की दशा सुधारी और सँवारी ।

रेल्वे केण्टीन में, मेरे सामने रखी थाली की रोटियाँ और दाल-सब्जियों की कटोरियाँ मुझे नजर नहीं आ रही थीं । मुझे रोटियाँ माँगती मेरी माँ नजर आ रही थी, मुट्ठी भर आटे के लिए अपने हाथ में थामा, पीतल का बड़ा लोटा आगे करता हुआ मैं अपने आप को देख रहा था । ‘रामजी की जय’ वाली, मेरी माँ की और मेरी आवाजें कानों में इस जोर से गूंज रही थीं मानो मेरे कान फट जाएँगे और उनसे लहू रिसना शुरू हो जाएगा । इस सबके साथ ही साथ, दादा के दिए संस्कार हिमालय बन कर सामने खड़े हो गए थे । दादा ने दो बातें हमें सिखाईं । पहली - थाली में जो भी सामने आए, उसे बिना किसी शिकायत के, पूरे सम्मान और प्रेम सहित स्वीकार करो । दूसरी - थाली में कभी भी जूठन मत छोड़ो ।

सुनसान रेल्वे केण्टीन में मैं जड़वत बैठा था । न बैठते बन रहा था और न ही रूका जा रहा था । मुझे बार-बार लग रहा था मेरी स्वर्गवासी माँ, दादा और राजस्थान के दूर-दराज छोटे से गाँव में रह रही मेरी जीजी, सबके सब मुझे घेर कर खड़े हैं और जिज्ञासा भाव से मेरे निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

मेरी भूख मर गई थी, तेज मिर्ची और खूब सारे नमक का स्वाद जबान से उड़ चुका था, रोटियों का ठण्डापन अपने मायने खो चुका था । सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था । अचानक ही मुँह फिर खारा हो गया - मैं रो रहा था और आँसू बहे जा रहे थे ।

अन्ततः मैं भोजन किए बिना उठ आया । मैं देख पा रहा था कि मेरी माँ, दादा और बड़ी बहन मुझे अविश्वास भाव से घूरे जा रहे हैं । वे मुझसे न तो कुछ पूछ रहे हैं और न ही कुछ कह रहे हैं । बस, मुझे घूरे जा रहे हैं । भिक्षावृत्ति पर पला-बढ़ा और अन्न को सदैव सम्मान देने के लिए संस्कारित कोई उनका अपना, थाली में जूठन छोड़ कर जा रहा है - केवल इसलिए कि रोटियाँ ठण्डी/जली हुई हैं, दाल बासी है, एक सब्जी में मिर्ची बहुत तेज है और दूसरी में नमक बहुत ज्यादा । मैं केण्टीन से बाहर निकलूँ उससे पहले ही वे मेरी ओर पीठ फेर कर धीरे-धीरे चले गए ।

मैं सीधा घर आया । भोजन कर पाना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं रह गया था । भूख मर चुकी थी और शायद उससे पहले मेरी आत्मा । मैं संस्कारच्युत हो चुका था । मैं ने भिखारी की अस्मिता को लांछित और अपमानित कर दिया था । कोई भिखारी भला जूठन कैसे छोड् सकता है १

तब से मैं विकल, व्यथित और क्षुब्ध हूँ । खुद को साक्षी भाव से देखने का मेरा प्रत्येक प्रयास मुझे मेरी ही नजरों में लज्जित कर रहा है और मुझे धिक्कार रहा है ।

जिस देश के 80 प्रतिशत लोग 20 रूपये रोज पर जीवन यापन कर रहे हैं, जिस समाज में, सामूहिक भोज की झूठी पत्तलों के ढेर पर बच्चे टूट पड़ रहे हों, उस देश और समाज में कोई ‘भिखारी’ जूठन छोड़ने का विलासिता भला कैसे कर सकता है ?

मैं खुद से नजरें नहीं मिला पा रहा हूँ ।

'शब्‍द' के सम्‍मान की वापसी



‘दैनिक भास्कर’ के, प्रति शनिवार को प्रकाशित होने वाले सिनेमा परिशिष्‍ट ‘रसरंग’ में ‘स्वर पंचमी’ शीर्षक से यूनुस भाई का स्तम्भ प्रकाशित होता है ।

आज के अंक में ‘ लफ़जों के सौदागर’ शीर्षक वाले अपने आलेख में यूनुस भाई ने 6 गीतकारों, सर्वश्री मुन्ना धीमन, इरशाद कामिल, नीलेश मिश्र (जिन्हें अंगे्रजी ने ‘मिश्रा’ बना दिया है), सईद कादरी, स्वानन्द किरकिरे और प्रसनू जोशी पर महत्वपूर्ण और रोचक जानकारी दी है ।

वह जमाना और था जब गीतकारों के नाम लोगों के जेहन में बसा करते थे । आज, बाजार ने निर्ममतापूर्वक कलमकारों को नेपथ्य में धकेल दिया है । आज ‘लिखने वाले’ पर ‘बिकने वाले’ भारी पड़ रहे हैं । ऐसे में यूनुस भाई ने ‘कलम’ और ‘शब्द’ का महत्व रेखांकित करते हुए ‘शब्द’, ‘कलम’ और ‘कलमकार’ के सम्मान की वापसी की बहुत ही सुन्दर कोशिश की है । ।

मुझे साफ-साफ लग रहा है कि आलेख का शीर्षक यूनुस भाई ने नहीं दिया होगा । यदि वे शीर्षक देते तो ‘सौदागर’ की जगह ‘शिल्पकार’ या फिर ‘चितेरे’ लिखते ।

यूनुस भाई का आलेख पढ़ कर मन को बहुत ठण्डक मिली ।

अर्जुन का समाचार



‘‘आज के इस आतंकी आकाश में फैली दहशत भरी हवाओं में और इस विसंगत समय में, जब सुरक्षा का भरोसा देने वाला हर बाजू विकलांग हो चुका हो और जबकि देश के पहरेदार-कर्णधार भी भ्रष्ट आचरण की गलियों में गुम हैं, अविश्वास-असुरक्षा-भय की सुरंगों में हर जिन्दगी का दम घुट रहा हो और सारी ‘सदी’ भागीरथ के पूर्वजों की तरह अकाल मृत्यु से ग्रस्त, उध्दार की अभिलाषा में गंगा की बाट जोहती हो, तब एक पक्ष किसी भागीरथ की तरह विश्वस्त और भरोसेमन्द रह गया है, हम उसी पक्ष ‘समाचार-पत्र’ की सुरक्षा-भरोसे में आज जी रहे हैं । ऐसे ही भरोसे की कड़ी में एक और कड़ी जुड़ गई, वह है ‘महक पंजाब दी’ पत्रिका ।

’’विश्वास कीजिएगा, यह उध्दरण किसी पुस्तक समीक्षा का नहीं बल्कि एक समाचार का अंश है जो साप्ताहिक उपग्रह के, 22 से 28 मई वाले अंक में प्रकाशित हुआ है । मेरे बाल सखा अर्जुन पंजाबी ने यह समाचार लिखा है । अर्जुन केवल मनासा का ही नहीं, मालवा के बड़े हिस्से का स्थापित और लोकप्रिय लेखक है । उसके सामयिक लेख, व्यंग्य और कहानियाँ नीमच-मन्दसौर के लगभग समस्त अखबारों में नियमित रूप से तथा देश के विभिन्न नगरों से प्रकाशित हो रहे पत्र-पत्रिकाओं में प्रायः ही छपते रहते हैं ।

ऐसी भाषा किसी समीक्षा की तो हो सकती है लेकिन समाचार की तो बिलकुल ही नहीं । अर्जुन के लिखे इस समाचार ने मेरी बहुत बड़ी उलझन दूर कर दी । मैं समझ नहीं पा रहा था कि हमारे कलमकारों को लोक-स्वीकार और लोक-सम्मान उतना और उस तरह क्यों नहीं मिलता जैसा कि अन्य भारतीय भाषाओं के कलमकारों को मिलता है । इस समाचार ने मुझे उत्तर दे दिया ।

स्वाधीनता संग्राम के दौर में साहित्यकार और पत्रकार प्रायः समानार्थी और पर्यायवाची बने हुए थे । वे जो भी लिखते थे, वह न केवल लोगों को समझ पड़ता था अपितु लोगों को वह लिखा हुआ अपने मन की बात लगता था । साहित्य की अपनी कोई अलग भाषा नहीं होती थी । जन भाषा ही साहित्य की भाषा होती थी । इसीलिए बच्चा-बच्चा उन कलमकारों को व्यक्तिश: भले ही न जानता रहा हो, उनके प्रति भरपूर सम्मान अपने मन में संजोए रखता था । हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों से उनके पाठकों के आत्मीय जुड़ाव का कारण भी यही है ।

लेकिन हिन्दी के मामलें में आज स्थिति बिलकुल ही बदल गई है । हमारे कलमकारों की भाषा किसी और दुनिया की भाषा लगती है । वे खुद को स्थापित करने के लिए जो ‘शाब्दिक पिश्ट पेषण’ करते हैं उसका जन सामान्य से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं होता । लेखकों के लिखे में लोग अपने आप को तलाश करते हैं और उन्हें मिलता है दूसरे ग्रह की भाषा वापरने वाला कोई ‘एलियन ।’ परिणाम यह होता है कि कलमकारों के बीच भले ही आप स्थापित हो जाएँ लेकिन पाठकों के संसार से आप विस्थापित हो जाते हैं । यह विस्थापन ही अन्ततः सम्वादहीनता से होता हुआ लेखकों के प्रति विकर्षण तक पहुँचता है । मुझे लगता है कि हमारे अधिसंख्य कलमकार इसी कारण ‘लोक’ से बहिष्कृत हो, ‘परलोकवासी’ हो गए हैं । जाहिर है कि इस स्थिति और दशा के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं ।

हमारे कलमकारों को इस सन्दर्भ में हिन्दी ब्लाग जगत को ध्यान से देखना चाहिए । यहाँ दिल की बात सीधे जबान पर आ रही है । भाषा के पेंच और घुमाव यहाँ नदारत हैं । अनगढ़ता लिए इसकी भाषा की सहजता और सीधापन इसकी सबसे बड़ी सुन्दरता बन कर उभर रहा है । यहाँ राजपथ के आतंक की बजाय अपने गाँव-खेड़े की पगडण्डी पर उन्मुक्तता से चलने का आनन्द मिलता है ।

अपनी भावनाएँ जताते हुए मैं ने अर्जुन को पत्र लिखा । उत्तर में उसने फोन पर बात की और बड़ी देर तक की । मैं डर रहा था कि उसका ‘परलोकवासी कलमकार’ हमारी मित्रता के प्राण न ले ले। लेकिन मुझे बड़ी राहत मिली (जो वस्तुतः मुझ पर अर्जुन की कृपा ही है) कि अर्जुन ने सारी बातों को न केवल सहजता से लिया बल्कि मेरी बातों को ‘जस का तस’ स्वीकार भी किया ।

पूर्ववर्ती साहित्यकार लोगों के लिए लिखते थे तो लोग उन्हें सर-आँखों पर उठाते थे । अब लेखक खुद के लिए लिखते हैं तो उन्हें स्वाभाविक रूप से अकेलापन झेलना ही पड़ेगा । हमारे लेखकों के होठों पर जब तक ‘मैं’ रहेगा, वे अकेले रहने को अभिषप्‍त रहेंगे । जिस दिन उनके होठों पर ‘आप’ आ जाएगा उस दिन वे अपने पाठकों से इस तरह और इस सीमा तक घिरे रहेंगे कि एकान्त लिए तरसने लगेंगे ।

आप साहित्य को जन-भाषा नहीं बना सकते । आपको जन भाषा में साहित्य रचना पड़ेगा ।

अर्जुन को धन्यवाद । उसने मेरी बहुत बड़ी जिज्ञासा का समाधान कर दिया ।
(मेरी यह पोस्ट, (तनिक हेर-फेर के साथ) रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के,, 29 मई 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ “शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है ।)

इन्हें कैसे रोकें ?



कर्नाटक विधान सभा के चुनाव परिणामों के राजनीतिक विश्‍लेषण तो होते रहेंगे लेकिन परास्त हुई कांग्रेस के नेता एस. एम. क्रष्‍णा और जद (यू) के नेता, पूर्व मुख्यमन्त्री (विश्वासघाती) कुमारस्वामी ने जिस शहीदाना अन्दाज में, उदारता बरतने की मुद्रा में पराजय स्वीकार की वह चैंकाने वाली है ।

इन दोनों ने यह स्वीकारोक्ति ऐसे की मानो कर्नाटक के मतदाताओं पर उपकार कर रहे हों । दोनों ने मतदाताओं के फैसले को स्वीकार तो किया लेकिन ऐसे, मानो वे चाहते तो मतदाताओं के इस फैसले को अस्वीकार भी कर सकते थे लेकिन यह उनका बड़प्पन है कि इस फैसले को स्वीकार कर रहे हैं ।

हारने वाले दल के नेता ऐसा ही पाखण्ड करते हैं । एक भी कबूल नहीं करता कि मतदाताओं ने उन्हें खारिज कर दिया है और उन्हें बड़े ही अनमनेपन से अब प्रतिपक्ष में बैठना पड़ेगा । लोगों की सेवा करने के नाम पर ये लोग वोट माँगते हैं और जीतने पर, सत्ता में जाते ही सबसे पहले लोगों को भूलते हैं और हारने पर, मन ही मन लोगों को कोसते हैं, उन्हें मूर्ख समझते हैं और इसीलिए लोकतान्त्रिक आदर्श की दुहाइयाँ देते हुए, मतदाताओं को कोसते हुए, प्रतिपक्ष की कुर्सियों पर बैठते हैं । याने, ये लोग जीतें या हारें, सत्ता में बैठें या प्रतिपक्ष में - ये सदैव मतदाताओं पर उपकार ही करते हैं ।

अभी-अभी, कोई एक अठवाड़ा पहले, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चैहान मेरे शहर में आये थे । कोई छः माह बाद मध्यप्रदेश में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं सो शिवराज की दुम में आग लग गई है और वे चैन से नहीं बैठ पा रहे हैं । नारी सशक्तिकरण सम्मेलन के नाम पर पूरे जिले से महिलाओं को रतलाम लाया गया था । इस हेतु सरकार ने विधिवत बजट प्रावधान भी किए थे । महिलाओं से अपनापा जोड़ने की चुनावी ललक में शिवराज ने कहा कि वे पूरे प्रदेश की महिलाओं के भाई हैं और प्रदेश की बच्चियों के मामा । वे कह गए कि अब मध्य प्रदेश में उनकी कोई भी बहन और कोई भी भानजी असुरक्षित नहीं रहेगी ।

तालियाँ बजवाने के लिए यह बहुत ही सही बात थी । लेकिन उनके जाने के अगले ही दिन से, अखबारों में किसी न किसी महिला के साथ बलात्कार, दुराचरण के और किसी न किसी बालिका के साथ अशालीन हरकतों के समाचार निरन्तर छप रहे हैं । शिवराज को चाहिए कि वे अखबारवालों को विशेष रूप से धन्यवाद दें कि अखबारवाले ‘मुख्यमन्त्री की बहन को डायन के सन्देह में पीट-पीट कर मार डाला’, ‘मुख्यमन्त्री की नौ वर्षीया भानजी के साथ बलात्कार’ जैसे शीर्षक नहीं दे रहे हैं ।

चुनाव हर साल कहीं न कहीं होते हैं और महिलाओं/बालिकाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार की घटनाएँ अब सामान्य होती जा रही हैं । ऐसे में, केवल तालियाँ पिटवाने के लिए, रिश्ते जोड़ने वाले ऐसे जुमले उच्चारित करने के क्या मायने ? शिवराज की सगी बहन या सगी भानजी के साथ कोई बड़ी दुर्घटना की बात तो दूर रही, सड़क के दूसरे किनारे से उनकी तरफ यदि कोई मनचला आँख भी मार दे पुलिस वाले उसका चेहरा-चोला बदल देंगे । लेकिन दूरदराज के गाँव-खेड़ों में महिलाओं/बच्चियों के साथ हो रही दुर्घटनाओं की तो एफआईआर भी नहीं लिखी जाती ।

सवाल यही उठता है कि हमारे नेता, जिस सीनाजोरी से, जिस बेशर्मी से, उपकारी मुद्रा में हमसे मुखातिब होते हैं, हमें उपदेश दे जाते हैं - उससे उन्हें कैसे रोका जाए ? सामान्य मतदाता दो वक्त की रोटी जुटाने में ही लगा रहता है इसीलिए वह चाहते हुए भी एकजुट नहीं हो पाता । जन सामान्य की इस विवश असहाय स्थिति का दुरूपयोग हमारे नेता बड़ी सहजता से करते चले आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे ही ।

इन्हें कैसे रोका जाए ।

नासमझी का सुख


हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते । इसलिए समझदारी इसी में है कि उसे केवल यादों के झरोखों से ही देख जाए, उसे वर्तमान से जोड़ने की मूर्खता कर हम दुखी ही होंगे । यही सबक लेकर मैं अपने जन्म नगर मनासा से लौटा ।

एक विवाह में शरीक होने के लिए, पत्नी और नवोढ़ा बहू के साथ मनासा गया था । नगर प्रवेश के लिए टैक्सी ने जैसे ही मोड़ लिया, मैं तनिक अधीर हो उठा । मेरा हायर सेकेण्डरी स्कूल इसी रास्ते पर है । उसे देखने की अजीब सी अकुलाहट मन में ऐसे फूटी जैसे मूसलाधार बरसात के दौरान जंगल में बाँस का कोई अंकुर चट्टान का सीना फाड़ कर धरती पर उग आता है ।

जैसे-जैसे स्कूल पास आता जा रहा था, वैसे-वैसे मन विविधवर्णी होता जा रहा था । लग रहा था कि मैं टैक्सी में हूँ तो जरूर लेकिन वस्तुतः वहाँ हूँ ही नहीं । वहाँ होकर भी न होने की ऐसी अनुभूति मेरे लिए पहली बार थी सो अनूठी और अव्यक्त थी । मैं अपने हृदय की धड़कन की ‘धक्-धक्’ साफ-साफ सुन पा रहा था । कानों में सीटियाँ बजने रही थीं और शरीर पर मानो चींटियाँ रेंग रही थीं । ‘बेभान’ होने की यह दशा लगभग वैसी ही थी जैसी कि, राजस्थान-मालवा के गाँव-खेड़ों में देवी-देवता के ‘भाव’ आने वालों की दिखाई देती है ।

लेकिन यह क्या ? मेरी तन्द्रा भंग हो गई । टैक्सी अस्पताल को पार कर रही थी जबकि स्कूल तो अस्पताल से पहले था ! स्कूल कहाँ चला गया ? मैं ने टैक्सी रुकवाई और ड्रायवर से कहा - गाड़ी पीछे लो । पिछली सीट पर बैठी पत्नी की आँखें में उठा सवाल जबान तक नहीं आया । मेरे कहने पर ड्रायवर ने गाड़ी रिवर्स में ही ली, धीरे-धीरे । स्कूल फिर से निकल न जाए इसलिए आँखों को, जोर देकर खुली रखनी पड़ी । स्कूल बिल्डिंग कहीं नजर नहीं आ रही थी । ऐसे में, स्कूल के ‘गेट’ ने सहायता की । वह मानो ‘जीवाष्म’ बन कर खड़ा था - लगभग वैसा का वैसा जैसा कि मैं 1964 में छोड़ कर आया था ।

गाड़ी रूकवाई लेकिन नीचे उतरने की हिम्मत नहीं हुई । गेट की, लगभग पचीस-तीस फीट की चैड़ाई भर स्कूल नजर आ रहा था । सुन्दरता के लिए की गई टेड़ी-मेढ़ी घड़ावट वाले पत्थरों के डग्गरों के कुल जमा दो खम्भे ही नजर आ रहे थे । उनके पीछे आठ-दस फीट की चैड़ाई वाले बरामदे पर सुवाखेड़ा के चैकोर पत्थरों का फर्श साफ-साफ नजर आ रहा था और उसके बाद थी, पीडब्ल्यूडी द्वारा पोते गए चूने की सफेदी वाली दीवार । बस । इससे अधिक कुछ भी नहीं ।

मैं हतप्रभ था । यह तो मेरा स्कूल नहीं है ! ‘मेन गेट’ से कोई सौ-सवा सौ कदमों से पार किया जाने वाला मैदान और उसके बाद स्कूल का भवन । सब कुछ, मेंहदी की ऊँची बागड़ से घिरा हुआ । ऐसा लगता था, भूरे-मटमैले पत्थरों वाले खम्भों वाला बरामदा, बरामदे पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ और स्कूल भवन मानो मेंहदी के पौधों की हरी-हरी फुनगियों के आधार पर टिके हुए हों । सड़्क के दूसरे किनारे से मुझे मेरा स्कूल किसी परी महल जैसा दिखता था । यह अलग बात थी कि वहाँ परियों के बजाय रूखा पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले अध्यापक होते थे जिनमें से कुछ को हम बहुत चाहते थे थे तो किसी से बहुत ज्यादा चिढ़ते, घबराते और डरते थे । स्कूल का खेल मैदान इतना लम्बा-चैड़ा कि सारे मैदानी खेल एक साथ आयोजित कर लिए जाएँ । इस मैदान को समतल करने और उसे साफ-सुथरा बनाने के लिए बीसियों बार पूरे स्कूल के बच्चे लगा दिए जाते थे । यह मैदान हमें अपनी सम्पत्ति लगता था । लेकिन जब सजा के तौर पर इस मैदान का एक चक्कर लगाना पड़ता तो यही सम्पत्ति हमें दुखदायी लगती थी ।

लेकिन, स्कूल के मेन गेट के ठीक सामने खड़ी टैक्सी में से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । न तो मैदान, न किसी कमरे की खिड़की । स्कूल का, मुख्य सड़क वाला पूरा हिस्सा दुकानों से ढँका हुआ था । अजीब बात यह थी कि इन दुकानो में कापी-किताबों की दुकान अपवादस्वरूप ही थी । मैं अपना स्कूल देखना चाह रहा था, वहाँ की गई शरारतें, धृष्टताएँ, गेदरिंग की रोशनियाँ, प्राचार्य के खिलाफ निकाले गए जुलूस, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए दिन-रात रट कर तैयार किए गए भाषण और उन पर बजती तालियों की आवाजें सुनना चाह रहा था लेकिन मुझे नजर आ रहे थे रेडीमेड शर्ट, जीन्स, साड़ियाँ, टाप, बरमूडा और सुनाई पड़ रही थी दुकानदारों-ग्राहकों द्वारा किए जा रहे मोल-भाव, आती-जाती बसों, कारों, फटफटियों के इंजनों की गुर्राहटें और हार्नों की, पिघलते सीसे जैसी आवाजें ।

मैं अकबका गया । कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी दशा, खिलौनों की दुकान के सामने खड़े उस बच्चे जैसी हो गई थी जो यह देखकर हताश था कि दुकान में उसके मनपसन्द खिलौने के सिवाय बाकी सारे खिलौने हैं । लग रहा था मानो मेरा सब कुछ लुट गया है या फिर जिस देवता से मैं सब कुछ माँगने आया था वह देवता ही मेरे सामने विवश-मूक खड़ा है । इतना विवश कि मुझसे अपनी असहायता भी व्यक्त नहीं कर पा रहा है । मेरी साँसें घुटने लगी थीं । मुझे रूलाई आ रही थी लेकिन ‘समझदारी’ आड़े आ रही थी । कुदरत और समझदारी के संघर्ष में दम इतना घुटने लगा था मानो मेरे प्राण ही निकल जाएँगे । मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी कल्पना का इन्द्रधनुष गुम था ।

या तो मेरा ध्यानाकर्षित करने के लिए या फिर सचमुच में किसी वाजिब वजह से ड्रायवर ने एक्सीलरेटर पर दाब बढ़ाकर रेज दी । एंजिन की, अचानक तेज हुई गुर्राहट ने मेरी तन्द्र भंग की । ऐसा लगा, एंजिन ही जीवित है और टैक्सी में बैठे हम सब निर्जीव । मेरे मँह से निकला ‘चलो । गाड़ी बढ़ाओ ।’ तीन शब्दों वाले ये दो वाक्य मानों किसी गहरे कुए की तलछट से, तैरते-तैरते मुँडेर पर आए थे ।

विवाह में शरीक होकर मैं लौट तो आया लेकिन मन अब तक स्कूल की तलाश में वही, सड़क पर खड़ा है । मेरा दिल वहीं है लेकिन दिमाग मुझ पर हँस रहा है । पूछ रहा है - ‘स्कूल वैसा का वैसा ही नजर आता तो क्या कर लेते ?’ कोई जवाब नहीं सूझ रहा इस सवाल का । जवाब नहीं मिले तो ही अच्छा है । क्या पता, जवाब और अधिक पीड़ा दे जाए ।

जीवन का आनन्द नासमझी में अधिकता से लिया जा सकता है । समझदार की मौत है ।

अपने पेशे का सम्मान


खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे ‘पूत माँगने गई थी, खसम गँवा कर लौटी’ वाली कहावत याद आ गई । वहाँ, ‘कौमी एकता वारसी ग्रुप’ द्वारा आयोजित मुशायरे के मंच पर, नामचीन शायरों के बीच दो स्थानीय नेताओं को भी बैठा लिया । दोनों नेता वरस्पर विरोधी थे । जाहिर है कि ये नेता अपनी मर्जी से नहीं बल्कि बुलाने पर ही गए थे ।

रात कोई साढ़े ग्यारह बजे मुशायरा शुरू हुआ । दो शायरों ने अपना कलाम पेश किया । मुशायरे की रंगत बढ़ने लगी थी । कोई साढ़े बारह बजे जनाब नईम फराज माइक पर आए । उन्होंने शेर पढ़ा -

ताज रखा है सरों पर जमाने ने उनके
थे जो उस्ताद के जूतों को उठाने वाले

शेर सुनते ही दोनों नेताओं ने एक दूसरे को देखा और इशारों ही इशारों में एक दूसरे को ‘उस्ताद के जूते उठाने वाले’ कहा । बस, फिर क्या था ! मारपीट शुरू हो गई और ऐसी हुई कि भगदड़ मच गई । बड़ी मुश्किल से स्थित नियन्त्रित की जा सकी ।

मुशायरा फिर शुरू हुआ और सेवेर पाँच बजे समाप्त हुआ । खण्डवा के लोगों को आनन्द तो आया लेकिन इस बात का मलाल आजीवन रहेगा कि साहित्यिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों में अपनी विशिष्ट पहचान वाले उनके प्यारे शहर की परम्परा कलंकित हो गई ।

खण्डवा का समाचार पढ़ कर मुझे रतलाम की, लोक कथा बन चुकी, एक घटना याद हो आई । एक साहित्यिक संस्था ने प्रेमचन्द जयन्ती आयोजित की । आयोजन की रूपरेखा पर विचार-विमर्श के दौरान सुझाव आया कि नगर के अग्रणी राजनेता को मुख्य अतिथि बनाया जाए । अधिकांश लोग इससे सहमत नहीं थे लेकिन ये ‘अधिकांश’ ‘मिमिया’ रहे थे जबकि नेताजी को बुलाकर अपनी ‘झाँकी’ जमाने वाले गिनती के लोग ‘दहाड़’ रहे थे । ‘मिमियाहट’ पर ‘दहाड़’ भारी पड़नी ही थी । पड़ी ।

तयशुदा समय पर नेताजी पधारे । कुर्सी पर बिराजे । संस्थाध्यक्ष के निर्देश पर सूत्रधार ने माइक सम्हाला । ‘संचालन का सौजन्य’ बरतते हुए उन्होंने कार्यक्रम शुरू करने की अनुमति माँगी । वे आगे बढ़ते उससे पहले ही नेताजी ने टोका - ‘पहले प्रेमचन्दजी को तो आ जाने दो ।’ सभा में हँसी बिखर गई । मिमियाने वाले खुल कर हँस रहे थे और दहाड़ने वाले मिमिया भी नहीं पा रहे थे । नेताजी को न तो समझ आया और न ही उन्होंने कुछ समझना ही चाहा । वे अपनी स्थापित ‘बिन्दास’ मुद्रा में सस्मित बैठे थे । बैठे रहे ।

उस आयोजन का क्या हुआ - यह जाने दीजिए । बस, यूँ समझ लीजिए कि जयन्ती के स्थान पर प्रेमचन्दजी की पुण्यतिथि मन गई ।

आयोजन की विषय वस्तु से असम्बध्द लोगों को महफिल में बुलाने पर कैसी जग हँसाई होती है, यह इन दोनों हकीकतों से समझा जा सकता है । ऐसी घटनाएँ प्रायः ही होती रहती हैं । कुछ प्रकाश में आ जाती हैं जबकि ऐसी अधिकांश घटनाएँ लोगों तक पहुँच ही नहीं पातीं । जेबी संस्थाओं के आयोजनों में ऐसी घटनाएँ अत्यन्त सहजता से ली जाती हैं क्यों कि उन आयोजनों और आयोजकों का मकसद वह नहीं होता जो विज्ञापित और प्रचारित किया जाता है ।

गाँधी ने साध्य की शुचिता के साथ-साथ साधनों की शुचिता पर भी जोर दिया था । उनका कहना था कि अपवित्र साधनों से पवित्र साध्य कभी नहीं साधा जा सकता । लेकिन गाँधी की बातें गाँधी के साथ चली गईं । अब तो आयोजन महत्वपूर्ण है, आयोजन के लिए जुटाए गए अपवित्र संरजामों पर न तो कोई गौर करता है और न ही कोई ऐसे अपवित्र संरजामों का बुरा ही मानता है । शायद इसीलिए यह हो सका कि गए दिनों नीमच में सम्पन्न एक बड़े साहित्यिक आयोजन में दारू के एक ठेकेदार को केवल इसलिए मंचासीन कर मालाएँ पहनाई गई क्यों कि प्रतिभागी साहित्यकारों के सुस्वादु भोजन का भार उसने उठाया था । भोजन करते हुए, प्रतिभागी साहित्यकारों को स्वाद आया या नहीं लेकिन मेरे मुँह का जायका तो यह समाचार पढ़ कर ही बिगड़ गया - ‘द-दवात का’ से बदल कर ‘द-दारू का’ जो हो गया था !

ऐसे में मुझे, गए दिनों मेरे शहर रतलाम में सम्पन्न एक फोटो प्रदर्शनी का आयोजन बहुत ही भला लगा । आज का रतलाम पूरी तरह से व्यापारिक-वाणिज्यिक शहर है । किसी जमाने में यहाँ साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अविराम सिलसिला चला करता था । नाटकों के प्रेक्षागृह ठसाठस भरे रहते थे । कवि सम्मेलनों के लिए एक रात कम पड़ती थी । नीरजजी तो आज भी रतलाम के नाम पर नंगे पाँवों चले आते हैं । तब का ऐसा कोई स्थापित साहित्यकार-लेखक नहीं था जो रतलाम नहीं आया हो । लेकिन आज वह सब अतीत की बात हो गई । नई पीढ़ी के बच्चे इन सारी बातों को ऐसे सुनते हैं मानो ‘टाइम मशीन’ की कहानी सुन रहे हों । ऐसे में यहाँ ‘कैमरा कला’ या कि ‘फोटाग्राफी आर्ट’ की बात तो ‘आकाश कुसुम’ है । लेकिन कुछ सिरफिरे या कि पागल लोग हर समय हरकत में बने रहते हैं । यहाँ के चन्द ‘कैमरा कलाकार’ कोई चार-पाँच वर्षों से सक्रिय बने हुए हैं । वे ‘सृजन कैमरा क्लब’ के नाम से अपने आयोजन करते रहते हैं । उनके आयोजन में गिनती के ही लोग जुट पाते हैं । लेकिन उनके जीवट की दाद दी जानी चाहिए कि वे न तो निराश होते हैं और न ही थकते हैं । सुनसान बीहड़ में पगडण्डी बनाने में उनके पाँव लहू-लुहान हुए जा रहे हैं लेकिन भाई लोग हैं कि लगे हुए हैं ।

गए दिनों उन्होंने दो दिवसीय फोटो प्रदर्शनी आयोजित की । इसके उद्घाटन समारोह के समाचार ने मेरा ध्यानाकर्षित किया क्यों कि इस प्रदर्शनी का उद्घाटन किसी ‘विजातीय’ से नहीं बल्कि एक कैमरा कलाकार से कराया गया था । मैं दूसरी शाम को पहुँचा - प्रदर्शनी के समापन से कुछ ही समय पहले । प्रदर्शनी बाद में देखी, पहले वहां मौजूद तमाम कलाकारों को, अपने शौक के प्रति बरते गए स्वाभिमान के लिए साधुवाद अर्पित किया । यदि हम खुद, अपने पेशे का, अपने शौक का सम्मान नहीं करेंगे तो भला दूसरे लोग क्यों हमारा, हमारे पेशे का, हमारे शौक का सम्मान करेंगे ? निस्सन्देह, ‘सृजन कैमरा क्लब’ का आयोजन बहुत ही छोटा था, गिनती के लोगों की उपस्थिति वाला था लेकिन मेरे तईं यह एक ईमानदार आयोजन था जिसमें खुद को, खुद की नजरों में गिरने से बचाने का उपक्रम पूरी चिन्ता और पूरे जतन से किया गया था ।


(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, दिनांक 22 मई 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है ।)

खुद से दूर होने की कोशिश‍

14 अक्टूबर 2007 को मैं ने अपनी अन्तिम पोस्ट लिखी थी । उसके बाद बकौल मेरे उस्ताद श्री रवि रतलामी ‘राइटर्स ब्लाक’ का शिकार हो गया । मैं ‘राइटर्स ब्लाक’ से उबरूँ, इस हेतु इस इन सवा सात महीनों में रविजी ने क्या नहीं किया ? जब-जब मिले, तब-तब टोका, पे्ररित-प्रोत्साहित किया । लेकिन इस पके हाँडे पर मिट्टी नहीं लगी सो नहीं लगी ।

ऐसा भी नहीं कि इस अवधि में ‘एकोऽहम्’ ने कुरेदा नहीं । कुरेदा और बार-बार कुरेदा । लेकिन असर फिर भी नहीं हुआ । इस बीच, 18 अपे्रल को एक विवाह समारोह में भोजन करते हुए रविजी की पकड़ में आ गया । उन्होंने फिर पे्रमपूर्वक टोका । उनकी जीवनसंगिनी रेखाजी भी साथ में थी । उन्होंने कहा तो कुछ नहीं किन्तु जिस नजर से मुझे देखा, वह मुझे ठेठ भीतर तक भेद गई । मुझे बड़ी शर्म आई । सोचा - घर जाते ही पोस्ट लिखूँगा । लेकिन सोच, हकीकत में नहीं बदल पाई ।

23 अपे्रल को मै ने अपना मेल-बाक्स खोला (इन दिनों मेल बाक्स खोलने में भी अच्छा-खासा अलालपन छाया रहा) तो रविजी का मेल पाया जिसमें उन्होंने अपने चिट्ठे पर, 19 अपे्रल को लिखी पोस्ट भेजी थी । इसमें 18 अपे्रल की, भोजन वाली मुलाकात का जिक्र रविजी ने किया था । लेकिन मानो रविजी की पोस्ट ही काफी नहीं थी, इस पोस्ट पर युनूस भाई और मैथिलीजी की टिप्पणियों ने तो पानी-पानी कर दिया । मैं ने रविजी को लिखा - ‘अब तो शर्म को भी शर्म आने लगी है ।’ यह लिखते समय फिर तय किया कि अब तो पोस्ट लिख ही देनी है । लेकिन फिर भी नहीं लिख पाया ।

29 अपे्रल को मनासा गया । मनासा मेरा जन्म स्थान है । वहाँ मेरा घर हुआ करता था - अब नहीं है । वहाँ डाक्टर संघई साहब (वे और उनका परिवार हमारे परिवार का ‘रखवाला परिवार’ है) के बड़े बेटे प्रिय डाक्टर मनोज संघई ने मुझे ‘जोर का धक्का, धीरे से' दिया यह पूछ कर कि मैं अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? मनोज के सवाल ने मुझे एक बार फिर अपनी ही नजरों में गिरा दिया । मैं सफाई देता तो क्या देता ? लेकिन शुरूआत फिर भी नहीं हो सकी ।

यह शायद शुक्रवार 16 मई की बात है । उस दिन दैनिक भास्कर में मेरा एक पत्र छपा था । रविजी ने फोन किया और तनिक आहत स्वरों में उलाहना दिया कि मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में अपना स्तम्भ नियमित लिख रहा हूँ, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिख रहा हूँ, अपना नियमित पत्राचार बराबर कर रहा हूँ तो फिर अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? रविजी की बात ने नहीं, उनके स्वरों की पीड़ा ने मुझे व्यथित कर दिया । वे मेरे गुरू हैं और मैं हूँ कि उनकी अनदेखी और उनकी बातों को अनसुनी किए जा रहा हूँ ! मेरे ब्लाग लेखन से उन्हें क्या मिलेगा ? उनका क्या स्वार्थ ?

बस ! ‘सतसैया’ के इस ‘दोहरे’ ने गम्भीर घाव किया । रविवार 18 मई को मैं रविजी के निवास पर पहुँचा । सच कहूँ, मेरा पोर-पोर अपराध-बोध से ग्रस्त था । रविजी और रेखाजी ने जिस आत्मीय ऊष्मा से मेरी अगवानी की उससे हिम्मत बँधनी शुरू हुई जो बँधती ही चली गई । कोई सवा-डेढ़ घण्टे बाद जब मैं लौटा तो मानो मेरा कायान्तरण हो चुका था । मेरा लेपटाप, रविजी द्वारा स्थापित ‘फाण्ट कनवर्टर’ से समृध्द हो चुका था ।

14 अक्टूबर 2007 से अब तक मुझे स्वर्गीय मुकेश का एक गीत बराबर याद आता रहा -

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक,
अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं ।
तुम्हें पा के हम खुद से दूर हो गए थे,
तुम्हें छोड़ कर खुद के पास आ गए हैं ।।

यकीनन, ब्लाग लेखन बन्द कर मैं खुद के पास था लेकिन बहुत अकेला था । इस अकेलेपन से मुक्ति का एक ही उपाय है - खुद से दूर हो जाना । याने सबके पास आने की कोशिश करना । आज की यह शुरूआत, यह कोशिश ही है । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मै खुद से दूर हो सकूँ और खुद से दूर ही रहूँ ।

इसी में मेरी भलाई भी है ।

खुद से दूर होने की कोशिश‍

14 अक्टूबर 2007 को मैं ने अपनी अन्तिम पोस्ट लिखी थी । उसके बाद बकौल मेरे उस्ताद श्री रवि रतलामी ‘राइटर्स ब्लाक’ का शिकार हो गया । मैं ‘राइटर्स ब्लाक’ से उबरूँ, इस हेतु इस इन सवा सात महीनों में रविजी ने क्या नहीं किया ? जब-जब मिले, तब-तब टोका, पे्ररित-प्रोत्साहित किया । लेकिन इस पके हाँडे पर मिट्टी नहीं लगी सो नहीं लगी ।

ऐसा भी नहीं कि इस अवधि में ‘एकोऽहम्’ ने कुरेदा नहीं । कुरेदा और बार-बार कुरेदा । लेकिन असर फिर भी नहीं हुआ । इस बीच, 18 अपे्रल को एक विवाह समारोह में भोजन करते हुए रविजी की पकड़ में आ गया । उन्होंने फिर पे्रमपूर्वक टोका । उनकी जीवनसंगिनी रेखाजी भी साथ में थी । उन्होंने कहा तो कुछ नहीं किन्तु जिस नजर से मुझे देखा, वह मुझे ठेठ भीतर तक भेद गई । मुझे बड़ी शर्म आई । सोचा - घर जाते ही पोस्ट लिखूँगा । लेकिन सोच, हकीकत में नहीं बदल पाई ।

23 अपे्रल को मै ने अपना मेल-बाक्स खोला (इन दिनों मेल बाक्स खोलने में भी अच्छा-खासा अलालपन छाया रहा) तो रविजी का मेल पाया जिसमें उन्होंने अपने चिट्ठे पर, 19 अपे्रल को लिखी पोस्ट भेजी थी । इसमें 18 अपे्रल की, भोजन वाली मुलाकात का जिक्र रविजी ने किया था । लेकिन मानो रविजी की पोस्ट ही काफी नहीं थी, इस पोस्ट पर युनूस भाई और मैथिलीजी की टिप्पणियों ने तो पानी-पानी कर दिया । मैं ने रविजी को लिखा - ‘अब तो शर्म को भी शर्म आने लगी है ।’ यह लिखते समय फिर तय किया कि अब तो पोस्ट लिख ही देनी है । लेकिन फिर भी नहीं लिख पाया ।

29 अपे्रल को मनासा गया । मनासा मेरा जन्म स्थान है । वहाँ मेरा घर हुआ करता था - अब नहीं है । वहाँ डाक्टर संघई साहब (वे और उनका परिवार हमारे परिवार का ‘रखवाला परिवार’ है) के बड़े बेटे प्रिय डाक्टर मनोज संघई ने मुझे ‘जोर का धक्का, धीरे से' दिया यह पूछ कर कि मैं अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? मनोज के सवाल ने मुझे एक बार फिर अपनी ही नजरों में गिरा दिया । मैं सफाई देता तो क्या देता ? लेकिन शुरूआत फिर भी नहीं हो सकी ।

यह शायद शुक्रवार 16 मई की बात है । उस दिन दैनिक भास्कर में मेरा एक पत्र छपा था । रविजी ने फोन किया और तनिक आहत स्वरों में उलाहना दिया कि मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में अपना स्तम्भ नियमित लिख रहा हूँ, अखबारों में सम्पादक के नाम पत्र लिख रहा हूँ, अपना नियमित पत्राचार बराबर कर रहा हूँ तो फिर अपना ब्लाग क्यों नहीं लिख रहा हूँ ? रविजी की बात ने नहीं, उनके स्वरों की पीड़ा ने मुझे व्यथित कर दिया । वे मेरे गुरू हैं और मैं हूँ कि उनकी अनदेखी और उनकी बातों को अनसुनी किए जा रहा हूँ ! मेरे ब्लाग लेखन से उन्हें क्या मिलेगा ? उनका क्या स्वार्थ ?

बस ! ‘सतसैया’ के इस ‘दोहरे’ ने गम्भीर घाव किया । रविवार 18 मई को मैं रविजी के निवास पर पहुँचा । सच कहूँ, मेरा पोर-पोर अपराध-बोध से ग्रस्त था । रविजी और रेखाजी ने जिस आत्मीय ऊष्मा से मेरी अगवानी की उससे हिम्मत बँधनी शुरू हुई जो बँधती ही चली गई । कोई सवा-डेढ़ घण्टे बाद जब मैं लौटा तो मानो मेरा कायान्तरण हो चुका था । मेरा लेपटाप, रविजी द्वारा स्थापित ‘फाण्ट कनवर्टर’ से समृध्द हो चुका था ।

14 अक्टूबर 2007 से अब तक मुझे स्वर्गीय मुकेश का एक गीत बराबर याद आता रहा -

तुम्हें जिन्दगी के उजाले मुबारक,
अँधेरे हमें आज रास आ गए हैं ।
तुम्हें पा के हम खुद से दूर हो गए थे,
तुम्हें छोड़ कर खुद के पास आ गए हैं ।।

यकीनन, ब्लाग लेखन बन्द कर मैं खुद के पास था लेकिन बहुत अकेला था । इस अकेलेपन से मुक्ति का एक ही उपाय है - खुद से दूर हो जाना । याने सबके पास आने की कोशिश करना । आज की यह शुरूआत, यह कोशिश ही है । ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिए कि मै खुद से दूर हो सकूँ और खुद से दूर ही रहूँ ।

इसी में मेरी भलाई भी है ।
संजय तिवारी फिर अखबारों में
रतलाम से प्रकाशित हो रहे 'साप्ताहिक उपग्रह' ने एक बार फिर श्री संजय तिवारी के ब्लाग 'विस्फोट' से सामग्री ली है ।
अपने ताजा (11 से 17 अक्टूबर 2007 वाले) अंक में 'उपग्रह' ने श्री तिवारी के 'गांधी से राहुल गांधी तक' शीर्षक लेख को छापा है और उनके ब्लाग 'विस्फोट' का उल्लेख भी किया है ।

अच्छी सूचना यह भी है कि श्री तिवारी के 'भाजपा और रामसेतु' शीर्षक लेख को, इन्दौर के अग्रणी सान्ध्य दैनिक 'प्रभातकिरण' ने भी अपने 2 अक्टूबर 2007 के अंक में, सम्पादकीय पन्ने पर छापा है ।

ब्लागियों को बधाई ।

राम सेतु : नई जानकारी

'नईदुनिया' (इन्‍दौर) के, आज ( 13 अक्‍टूबर 2007) के अंक में, पण्डित श्रीयुत ओम प्रकाश शर्मा भारद्वाज (राज मोहल्‍ला, महू) का एक प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्‍होंने 'राम सेतु' को लेकर रोचक और महत्‍वपूर्ण जानकारी दी है । यह पत्र किसी व्‍याख्‍या की मांग नहीं करता । 'नईदुनिया' में प्रकाशित यह पत्र प्रस्‍तुत है -

'श्रीराम सेतु'

आजकल सम्‍पूर्ण भारत में श्री रामसेतु विवाद छाया हुआ है । इस विशय पर श्री मानस का शोध छात्र होने के नाते मैं कुछ तथ्‍यों की ओर देश का ध्‍यान दिलाना चाहता हूं ।


वानर सेना की सहायता व कुशलता से निर्मित इस रामसेतु के माध्‍यम से जब प्रभु श्रीराम लंका विजय पश्‍चात् विभीषण को लंका का राज्‍य देकर वापस श्रीअध्‍योध्‍याजी आ रहे थे, तब विभीषण की प्रार्थना पर इसी रारमसेतु के तीन खण्‍ड प्रभु श्रीराम ने अपने धनुष से कर इसे खण्डित कर दिया । आज वे ही खण्डित भाग दृष्टिगोचर हो रहे हैं ।


हमारी हिन्‍दू संस्‍कृति मान्‍यतानुसार किसी भी खण्डित वस्‍तु या प्रतिमा आदि का पूजन, स्‍पर्श व दर्शन नहीं किया जाता । जब प्रभु श्रीराम ने स्‍वयम् इस सेतु को खण्डित किया, तब आज उसी खण्डित वस्‍तु पर धार्मिक आस्‍थाओं को उभारना उचित नहीं । श्रीराम सेतु समुद्र में डूबा है जहां पूजा-अर्चना सम्‍भव नहीं । अत: इस धार्मिक उन्‍माद पर अंकुश लगाना होगा ।

मर गई, फिर भी सौभाग्‍य कांक्षिणी !

मैं हिन्‍दी के प्रति भावुक जरूर हूं किन्‍तु शुध्‍दता का आग्रही नहीं हूं क्‍यों कि जानता हूं कि शुध्‍द सोने के गहने नहीं बनते । फिर, भाषा तो 'बहती नदी' है । जितने घाटों को छुएगी, उतनी ही सम्‍पदा साथ लेती जाएगी । लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं होना चाहिए कि वह नदी ही न रहे । लिहाजा, न्‍यूनतम सावधानी तो बरतनी ही चाहिए ।

दो उदाहरण प्रस्‍तुत हैं । निष्‍कर्ष खुद निकालिएगा ।

रतलाम निवासी, जैन मतावलम्‍बी एक महिला ने 31 दिनों के उपवास किए । जैन सम्‍प्रदाय में इसे 'तपस्‍या' कहा जाता है और इसका धार्मिक महत्‍व बहुत ज्‍यादा है । जिस परिवार का कोई सदस्‍य यह 'तपस्‍या' कर लेता है, उस परिवार के लिए यह सौभाग्‍य, गर्व और उत्‍सव का कारण बन जाता है । इस महिला की इस उपलब्धि को सार्वजनकि करने के लिए जो प्रेस नोट प्रसारित किया गया उसमें इसे 'सौभाग्‍य कांक्षिणी' के रूप में उल्‍लेखित किया गया जब कि यह महिला न केवल विवाहित है बल्कि बच्‍चों की मां भी है । मजे की बात यह रही कि अधिकांश अखबारों ने इस प्रेस नोट को ज्‍यों का त्‍यों छापा । इस स्थिति को क्‍या कहा जाए ? यह माना जाए कि यह बाल बच्‍चेदार सुहागन एक और विवाह करना चाहती है ?

लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है । सबसे तेज गति से बढने का दावा करने वाले, बहु संस्‍करणीय, हिन्‍दी के एक अग्रणी अखबार ने तो कमाल ही कर दिया । एक महिला के अवसान पर, उसके उठावने के विज्ञापन (दिनांक 21 सितम्‍बर 2007) में इस अखबार ने उस महिला के नाम से पहले 'सौभाग्‍य कांक्षिणी' विशेषण प्रयुक्‍त किया है ।

मुमकिन है कि प्रेस नोट तैयार करने वाले और विज्ञापन बनाने वाले का भाषा ज्ञान शून्‍यवत रहा हो लेकिन उन्‍हें छापने वाले अखबारों का भाषा ज्ञान तो भरपूर रहा होगा ? वे तो भाषा की ही रोटी खाते हैं ? फिर, अखबारों को तो यह ध्‍यान भी रखना चाहिए कि लोग उनकी भाषा की नकल करते हैं । उनकी जिम्‍मेदारी तो और अधिक होती है ।

लिहाजा, शुध्‍दता का आग्रह न करते हुए भी, 'अर्थ का अनर्थ न करने का आग्रह' तो किया ही जा सकता है ।

यह आग्रह अनुचित है ?

संजय तिवारी : ब्‍लाग से अखबार पर

ब्‍लागियों के लिए अच्‍छी खबर है । अब छापने वाले भी उन पर न केवल नजर रखने लगे हैं बल्कि उनके लिखे को अपने पन्‍नों पर छापने भी लगे हैं । पहले, तीन ब्‍लागियों के लेख 'बया' ने छापे थे । अब एक साप्‍ताहिक अखबार ने ब्‍लाग से लेकर एक लेख छापा है ।


'विस्‍फोट' वाले श्री संजय तिवारी का लेख 'रामसेतु और भाजपा' रतलाम से प्रकाशित हो रहे साप्‍ताहिक 'उपग्रह' ने अपने, 20 सितम्‍बर 2007 वाले अंक में प्रकाशित किया है । 'बया' का कलेवर, परिवेश और प्रसार पूरी तरह से साहित्यिक और अकादमिक है जबकि 'उपग्रह' पूरी तरह से स्‍थानीयता पर केन्द्रित है । 'रवि रतलामी' के शहर से प्रकाशित हो रहा यह अखबार अपनी शालीनता, सादगी और अव्‍यावसायिकता के लिए विशेष रूप से पहचाना जाता है । इसके संचालक सर्वश्री सुरेन्‍द्रजी छाजेड, सुशीलजी छाजेड और अनुजजी छाजेड इस अखबार को अपने स्‍वर्गीय पिताजी (श्री आनन्‍दसिंहजी छाजेड) की स्‍मृति को बनाए रखने के लिए इसे निरन्‍तर बनाए हुए हैं । स्‍वर्गीय आनन्‍दसिंहजी छाजेड पूरी तरह से जनोन्‍मुखी पत्रकार थे । पत्रकारों के बीच वे 'डैडी' के नाम से पहचाने और पुकारे जाते थे । समझौता शब्‍द उनके शब्‍दकोश में स्‍थान पाने को आजीवन तरसता रहा । इसी 'दुर्गुण' के कारण आपातकाल में उन्‍हें जेल जाना पडा और जेल में ही उनकी मृत्‍यु हुई । पत्रकार समुदाय में उनके लिए कहा जाता था - 'डैडी से डर कर रहो, वे खुद के खिलाफ भी छापने की हिम्‍मत और ताकत रखते हैं ।'


सन् 1963 से लगातार प्रकाशित हो रहे इस अखबार का आयतन भले ही जिज्ञासा का विषय बना हुआ हो लेकिन स्‍थानीय स्‍तर पर इसका घनत्‍व किसी भी राष्‍ट्रीय अखबार से टक्‍कर लेता है । इसमें छपने के लिए लोग शब्‍दश: पंक्तिबध्‍द रहते हैं और इसमें छपी बात पर आंख मूंद कर विश्‍वास करते हैं ।


इसी 'उपग्रह' ने श्री संजय तिवारी का उपरोल्‍लेखित लेख, उनके ब्‍लाग 'विस्‍फोट' के उल्‍लेख सहित अपने सम्‍पादकीय पृष्‍ठ पर छापा है । यह मेरा अभाग्‍य ही है कि मेरे गुरु श्री रवि रतलामी द्वारा सिखाये जाने के बावजूद मैं इस अखबार का वह पृष्‍ठ यहां चिपका नहीं पा रहा हूं । 'उपग्रह' का अंक देख कर कल सवेरे संजयजी को ई-मेल कर उनका पता पूछा । 'उपग्रह' की एक प्रति उन्‍हें भेज रहा हूं । वे ठीक समझें तो उसका सम्‍बन्धित पृष्‍ठ अपने ब्‍लाग पर दे दें । इस बीच मैं भी कोशिश करता रहूंगा ।



ब्‍लागियो के लिए यह खबर निश्‍चय ही प्रसन्‍नतादायक और उत्‍साहजनक होगी क्‍यों कि रतलाम बहुत ही छोटा शहर है - लगभग पौने तीन लाख की आबादी वाला । यहां ब्‍लाग लिखने वालों की संख्‍या पांच तक भी नहीं पहुंची है । इतनी छोटी जगह पर ब्‍लागियों का नोटिस लिया जाना सचमुच में सुखद आश्‍चर्य है ।

सबको लख-लख बधाइयां ।

ब्‍लाग लेखन वर्कशाप श्रृंखला इन्‍दौर में

हिन्‍दी को तकनीक से जोडने की शुभेच्‍छा से और कम्‍प्‍यूटर को कलम की तरह औजार बना कर हिन्‍दी ब्‍लाग लेखन के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए, श्री म.भा. हिन्‍दी साहित्‍य समिति, इन्‍दौर जल्‍दी ही एक वर्कशापों की श्रृंखला शुरु कर रही है । इन वर्कशापों के दो लक्ष्‍य होंगे । पहला - जनमानस में फैला यह भ्रम तोडने की कोशिश करना कि कम्‍प्‍यूटर पर केवल अंग्रेजी में ही काम किया जा सकता है और दूसरा - ब्‍लाग लेखन से अधिकाधिक लोगों को जोड कर सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीक के जरिये, हिन्‍दी की क्रियाशीलता को बढावा देने की कोशिश करना ।



इन वर्कशापों के केन्‍द्र में मुख्‍यत: वे लोग होंगे जो न तो तकनीक के जानकार हैं और न ही अंग्रेजी के । गैर जानकारों को जानकार बनाने की कोशिश इन वर्कशापों में की जाएगी । पत्रकारों, साहित्‍यकारों और साहित्‍य प्रेमियों के लिए भी अलग-अलग वर्कशाप आयोजित की जाएंगी लेकिन इस बात का खास ध्‍यान रखा जाएगा कि ब्‍लाग लेखन और साहित्‍य लेखन को पर्याय न समझा जाए । ये सारी बातें मुझे, श्री म.भा;हिन्‍दी साहित्‍य समिति से जुडे श्री सुबोध खण्‍डेलवाल ने कल शाम मुझे फोन पर विस्‍तार से बताईं ।



श्री म.भा;हिन्‍दी साहित्‍य समिति, इन्‍दौर हिन्‍दी को समर्पित देश की अग्रणी संस्‍था है जिसका शुभारम्‍भ महात्‍मा गांधी ने किया था



हिन्‍दी के लिए समर्पित, ब्‍लाग विश्‍व के सुपरिचित और लोकप्रिय, 'सारथी' के स्‍वामी श्री शास्‍त्री जे. सी. फिलिप जल्‍दी ही ग्‍वालियर आने वाले हैं । सुबोध ने बताया कि शास्‍त्रीजी की उस यात्रा को किसी न किसी वर्कशाप से जोडने का प्रयास किया जाएगा । अच्‍छी खबर यह है कि शास्‍त्रीजी ने भी इन्‍दौर पहुंच कर वर्कशापों की किसी कडी में शामिल होने की भावना जताई है ।



मेरे अनुरोध पर सुबोध ने वादा किया है कि वर्कशाप की पहली तारीख तय होते ही वे मुझे सूचित करेंगे ताकि अधिकाधिक लोगों तक यह सूचना पहुंचाई जा सके ।



सोने में सुहागा वाली बात यह होगी कि श्री संजय पटेल भी इन वर्कशापों में 'जोग लिखी' लिखते हुए मिलेंगे ।


अगली सूचना सुबोध से खबर मिलने के बाद ।

नोश फरमाईए : 'झन्‍नाट' रतलामी सेव

इशारों-इशारों में मेरे गुरू श्री रवि रतलाम ने चाहा है कि मैं आपको रतलामी सेव से रू-ब-रू कराऊं । सो, तैयार हो जाईए, आपकी खिदमत में पेश है - रतलामी सेव । क्षमा करें, 'झन्‍नाट रतलामी सेव'



हम रतलामियों को पांच व्‍‍यसन हैं । पहला : आने वालों को रीसिव करना, दूसरा : जाने वालों का रिजर्वेशन कराना, तीसरा : रिजर्वेशन केंसल कराना, चौथा : सी-ऑफ करना और पांचवा : झन्‍नाट रतलामी सेव पहुंचाना । पहले चार से रतलामी एक बार बच भी जाएं लेकिन वह रतलामी ही क्‍या जो पांचवें से बच जाए । जो इनसे जी चुराए, वह और कुछ भी हो सकता है, रतलामी नहीं हो सकता ।



सच तो यह है कि रतलाम के साथ तीन 'स' जुडे हुए हैं जो इसके पर्याय हैं । ये हैं - सोना, सेव और साडी । इनमें से सोना हर किसी की पहुंच में नहीं है, साडी कई लोगों की पहुंच में है लेकिन सेव सबकी पहुंच में है - राजा से लेकर रंक तक और बिडला से लेकर बैरागी तक की पहुंच में । सो, रतलाम की नमकीन सेव या कि बेसन सेव, रतलाम की 'सर्वहारा पहचान' है ।



सेव केवल रतलाम में ही बनती हो, ऐसा बिलकुल नहीं है । विभिन्‍न रूपों, स्‍वरूपों में प्राय: पूरे देश में सेव बनती, बिकती और खाई जाती है । किन्‍तु मालवा इसका मायका है । जैसी सेव मालवा में बनती है, वैसी और कहीं नहीं बनती । बेसन इसका एकमात्र कच्‍चा माल है और विभिन्‍न मसाले इसे जायकेदार बनाते हैं । नमक, मिर्ची, अजवाईन इसके सामान्‍य और सर्वमान्‍य आवश्‍यक तत्‍व हैं । जायके की आवश्‍यकतानुसार इन तत्‍वों के आनुपातिक मिश्रण को आटे की तरह गूंध कर, बारीक छेदों वाले 'झारे' से, भरपूर दबाव देकर निकाल कर खौलते तेल में तल कर सेव बनाई जाती है ।



लेकिन इस प्रकार बनी हुई सेव को रतलामी सेव मानने की चूक मत कर ली‍जि‍एगा । ऐसी बनी सेव खाकर कोई नहीं बता सकता कि यह सेव किस शहर की, किस दूकान की या किस कारीगर की बनाई हुई है । जबकि रतलामी सेव की पहली फक्‍की मारते ही आप खुद-ब-खुद बोल उठेंगे - 'यह रतलामी सेव तो नहीं ?' गोया सेव न हुई, 'ज्ञान बूटी' हो गई



आपकी बेचैनी बढाने में मेरी कोई दिलचस्‍पी नहीं । आपकी नाराजी का खतरा मोल लेने की हिम्‍मत मुझमें नहीं । सो, सीधे-सीधे 'झन्‍नाट रतलामी सेव' पर आ जाता हूं ।


रतलामी सेव के साथ 'झन्‍नाट' का अलंकरण लगता ही लगता है । इस सेव में लौंग, काली मिर्च और हींग न केवल अतिरिक्‍त रूप से बल्कि विशेष रूप से मिलाई जाती है और ये तीन चीजें ही इसे सारी दुनिया से अलग करती हुई इसकी अलग पहचान बनाती हैं । ये तीन 'तत्‍व' देश की अन्‍य किसी सेव में शायद ही मिलें । इनकी वजह से सेव में जो तेजी, तुर्शी और चिरमिराहट भरा तीखापन आता है, उसे ही रतलामी लोग 'झन्‍नाट' बोलते हैं । इसका यह 'झन्‍नाटा' ही इसे सारी दुनिया में बनने वाली सेव से अलग करता है ।



लेकिन केवल यही इसकी खासियत नहीं है । इसके लिए बेसन-मसाला तैयार कर, गूंधने से पहले इसमें भरपूर मात्रा में तेल मिलाया जाता है जिसे गृहिणियां 'मोइन' कहती हैं । इसके कारण सेव में जो नजाकत (मालवी में इसे 'फोसरापन' कहते हैं) आती है उसी के दम पर दावा किया जाता है क‍ि रतलामी सेव खाने के लिए दांतों की जरूरत नहीं होती, इसे होठों से ही चबाया जा सकता है । इसीलिए रतलामी सेव, 'आबाल-वृध्‍द' में समान रूप से लोकप्रिय है ।


यह सेव रतलाम के अर्थशास्‍त्र की रीढ है । आप यदि रतलाम आएं तो आपको न चाहने पर भी सौ-पचास जगह बनती सेव देखनी ही पडेगी । यह रतलाम का सबसे बडा कुटीर उद्योग है । गली-गली में सेव बनती रहती है । रतलाम में प्रतिदिन, कितने स्‍थानों पर, कितनी सेव बनती है, कितनी सेव रतलाम 'प्रापर' में बिकती है और कितनी सेव बाहर भेजी जाती है, इसका निश्चित आंकडा शायद ही मिल सके । यह तभी तय किया जा सकता है जब, सर्वेक्षण करने वाले, शहर की प्रत्‍येक गली में, एक ही समय पर मौजूद रहें । किश्‍तों में किया गया प्रत्‍येक सर्वेक्षण सदैव अधूरा ही साबित होगा । यह व्‍यवसाय रोजगार का सबसे बडा स्रोत है । इसने व्‍यापार के अभिनव तरीके भी प्रदान किए हैं । कुछ सेव निर्माता ऐसे हैं जो में अपनी सेव का एक दाना भी रतलाम में नहीं बेचते, सारी की सारी सेव बाहर भेजते हैं । कुछ नि‍र्माता ऐसे हैं जो केवल थोक व्‍यापारियों को अपना माल बेचते हैं । कई निर्माता सबके लिए अपना दरवाजा खुला रखते हैं । याने वे थोक दुकानदारों को भी माल देते हैं, फुट कर व्‍यापारियों को भी देते हैं और दुकान पर आए ग्राहक को पचास ग्राम तक सेव देते हैं । ऐसे दुकानदार 'एक भाव' याने कि 'फिक्‍स रेट' की नीति पर कायम रहते हैं । एक टन लीजि‍ए या पचास ग्राम - एक ही भाव । न तो किसी के साथ कोई रियायत न किसी से ज्‍यादा वसूली । लेकिन ऐसे निर्माता- व्‍यापारी गिनती के ही हैं ।



अधिकांश लोग, निर्माताओं/थोक व्‍यापारियों से सेव खरीद कर आसपास के देहातों में सप्‍लाय करते हैं तो कई लोग देहातों में अपनी दुकानें खोले बैठे हैं । रतलाम से बाहर के कई बडे शहरों में कई लोग इस सेव के दम पर ही प्रतिष्ठित जीवन-यापन कर रहे हैं । मुम्‍बई में ऐसे अनेक लोग हैं जो फोन पर रतलामी सेव की बुकिंग करते हैं, रतलाम के निर्माताओं से माल प्राप्‍त कर, पर्याप्‍त मुनाफा वसूल कर, मुम्‍बई में घर-घर सेव पहुंचाते हैं ।



मैं रतलाम का मूल निवासी नहीं हूं । सन् 1977 में मैं यहां आकर बसा । अपने पैतृक कस्‍बे में मैं भोजन के साथ नियमित रूप से सेव खाता रहा हूं । लेकिन रतलाम आकर मेरा सेव खाना छूट गया । छूट क्‍या गया, छोडना पडा । कारण ? वही 'झन्‍नाटा', इसकी खासियत, जिसका बखान कर-कर मैं हलकान हुआ जा रहा हूं । इतना तीखापन, इतनी तेजी, इतना चरपरापन मेरी बर्दाश्‍त के बाहर की बात है । इसका 'झन्‍नाटा' मेरे लिए गूढ रहस्‍य बना रहा । सचमुच में गहरी खोजबीन करनी पडी । हकीकत बताई डॉक्‍टर मित्रों ने । उनके अनुसार, रतलाम का पानी तनिक भारी है और इसी कारण यहां 'कब्‍ज रोगी' बडी संख्‍या में हैं । सम्‍भवत: इसी कारण लोगों पर 'आवश्‍यकता ही आविष्‍कार की जननी है' वाली बात लागू हुई होगी और लोगों ने अपने स्‍तर पर 'झन्‍नाटा' ईजाद किया होगा । चूंकि मैं 'इसका' शिकार नहीं हूं सो, 'झन्‍नाट रतलामी सेव' से दूर रहता हूं और मौका मिलते ही मनासा या नीमच से अपने लिए बेसन सेव मंगवाता रहता हूं ।



रतलाम से बाहर के लोगों के लिए 'झन्‍नाट रतलामी सेव' निस्‍सन्‍देह चुम्‍बकीय आकर्षण लिए हुए है । इसे खाने के बाद अच्‍छे-अच्‍छे 'सूरजवंशी', अगली सुबह 'ब्राह्म मुहूर्त' में उठने का पुण्‍य लाभ लेने को विवश हो जाते हैं । तब वे, कान पकड कर 'तौबा' करते हैं लेकिन जैसे ही मौका मिलता हैं, फिर 'झन्‍नाट रतलामी सेव' खाने से खुद को रोक नहीं पाते हैं और 'सामने है ढेर, टूटे हुए पैमानों का' वाली मिसाल को जिन्‍दा कर देते हैं । हां, सुरा प्रेमियों के बीच यह जबरदस्‍त लोकप्रिय है । उनका कहना है कि 'यह', 'उसका' जायका और सीटींग का आनन्‍द बढा देती है । वे, इसकी मुंह मांगी कीमत देने को तैयार रहते हैं । मनुष्‍यत्‍व को त्‍याग कर देवत्‍व प्राप्‍त करने को उतावले रहने वाले मेरे ऐसे कई मित्रों के लिए मुझे गाहे-ब-गाहे इसके पार्सल भेजने पडते हैं । वे अनुरोध नहीं करते, आदेश देते हैं । मैं लेतलाली करता हूं तो भयादोहन पर उतर आते हैं । कहते हैं, रतलाम आकर तुम्‍हें जबरन खिलाएंगे । मेरे पास बचाव का कोई रास्‍ता नहीं होता ।



समय के हिसाब से रतलामी सेव भी 'नवोन्‍मेष' प्राप्‍त करती रही है । आपको लहसुन की सेव, टमाटर की सेव, पालक की सेव भी मिल जाएगी । लेकिन ये सब 'फैन्‍सी आयटम' की तरह हैं - केवल वेरायटी और रेंज बढाने के लिए । असली सेव तो वही है - झन्‍नाट रतलामी सेव ।

रतलाम के लोक जीवन में इसकी अपरिहार्यता और लोकप्रियता, दोनों ही सम्‍भवत: 'चरम' पर हैं । रतलाम की प्रत्‍येक होटल के 'मेनू कार्ड' में आपको 'सेव की सब्‍जी' षामिल मिलेगी । इतना ही नहीं, शादी-ब्‍याह जैसे तमाम मंगल प्रसंगों पर आयोजित समारोहों में परोसे जाने वाले व्‍यंजनों में भी 'सेव की सब्‍जी' प्रमुखता से मिलेगी । इसकी तलाश में स्‍टाल-स्‍टाल, तांक-झांक करने वाले अलग से ही पहचाने जा सकते हैं ।


यह सब पढते-पढते आप के मुंह में पानी नहीं भी आया हो तो जिज्ञासा तो यकीनन मरोडें मारने लगी होगी । सारे काम छोडिए और फौरन रतलाम चले आईए । झन्‍नाट रतलामी सेव के साथ मैं आपकी खिदमत के लिए तैयार हूं । हां, भरपूर समय निकाल कर आइएगा । मुमकिन है आपको चिकित्‍सकीय सहयोग की आवश्‍यकता पड जाए । लेकिन घबराईए बिलकुल मत । ललचाई नीयत से तरस-तरस कर जीने के बजाय खा-खा कर दुखी होकर जीना ज्‍यादा अच्‍छा । इस मामले में गांधी को भूल जाइए और ओशो को याद रखिए । गांधी इच्‍छाओं के दमन में विश्‍वास रखते थे और ओशो उनके शमन में ।



रतलाम में आपका स्‍वागत है ।

रवि रतलामी आज सीएनएन आईबीएन पर

और वह प्रतीक्षित घडी आ गई है । सीएनएन आईबीएन के सम्‍वाददाता प्रिय आसिम ने कल शाम फोन पर सूचित किया कि रविवार 16 सितम्‍बर 2007 की शाम को 6.30 बजे, सीएनएन आईबीएन चेनल पर, श्री रवि रतलामी को, समाचार स्‍थल से सीधे ब्‍लागिंग करने वाला अंक दिखाया जाएगा ।
आपको याद होगा कि, छोटे कस्‍बों में बैठकर, इण्‍टरनेट का उपयोग करने वालों और ब्‍लागिंग करने वालों पर, सीएनएन आईबीएन द्वारा श्रृंखलाबध्‍द समाचार कथा प्रसारित करने की सूचना और उस हेतु रतलाम में की गई शूटिंग की विस्‍तृत जानकारी मैं ने आपको अपनी एक पोस्‍ट में दी थी जिसमें मेरे ब्‍लाग-गुरु श्री रवि रतलामी को काम करते हुए दिखाया गया है । रविजी से छोटा सा साक्षात्‍कार भी लिया गया था ।


प्रिय आसिम ने अपना वादा निभाते हुए, चौबीस घण्‍टे पहले इस प्रसारण की सूचना दी है ।


मैं अधीरता से इस प्रसारण की प्रतीक्षा अभी से ही करने लगा हूं क्‍यों कि 'फूलों के साथ धागा भी भगवान के कण्‍ठ तक पहुंच जाता है' वाली बात मुझ पर लागू हो सकती है । रविजी के आग्रह पर प्रिय आसिम ने मुझे भी 'शूट' किया था । मुमकिन है, मुझे भी दिखा दिया जाए ।


आप सबसे मेरा आग्रह है कि कृपया यह प्रसारण अवश्‍य देखिएगा और अपनी राय रविजी तक अवश्‍य पहुंचाइएगा । मुमकिन हो तो अपना 'कृपा प्रसाद' मुझ पर भी बरसाइएगा ।


रविजी की भावना है कि इस प्रसारण की रेकार्डिंग कर, उसके सम्‍पादित अंश वे अपने ब्‍लाग पर प्रस्‍तुत करें । लेकिन वह तभी सम्‍भ्‍ाव हो सकेगा जब सब कुछ न केवल ठीक ठाक रहे बल्कि अनुकूल भी रहे याने बिजली आंख मिचौली न खेले और सारे उपकरण बराबर साथ दें ।

सस्‍ती खरीद के लिए मंहगा भुगतान

हिन्‍दी दिवस प्रसंग पर मैं, बैंक ऑफ बडौदा की स्‍टेशन मार्ग शाखा में मुख्‍य अतिथि के रूप में उपस्थित था । ऐसे आयोजनों को मैं 'राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के परिपालन हेतु, विवशतावश किए जाने वाले शासकीय पाखण्‍ड' ही मानता हूं । ऐसे आयोजनों में आत्‍मीयता और सहज प्रसन्‍नता पर खानापूर्ति की मानसिकता शुरु से लेकर अन्‍त तक हावी रहती है । इसके बावजूद ऐसे आयोजनों में मैं इसलिए शरीक होता हूं कि जैसे भी हों, अन्‍तत: ये हिन्‍दी के लिए हैं और हिन्‍दी न केवल मेरी मातृ भाषा है अपितु मैं अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी हिन्‍दी से ही हासिल कर पा रहा हूं, इसलिए मेरी जिम्‍मेदारी और अधिक बढ जाती है । तिस पर भाई श्री प्रकाश अग्रवाल और श्री प्रकाश जैन का ऐसा आग्रह जिसमें वे मेरी मंजूरी पहले ही मान चुके थे और मुझसे उसकी पुष्टि भर चाहते थे । सो, मैं अपने पूरे मन से वहां पहुंचा ।



आयोजन का समय, बैंक के कामकाजी समय में ही था । इसलिए, जैसा कि होना ही था, श्रोताओं की उपस्थिति गिनती की थी, बैंक शाखा के कुछ कर्मचारी, चाह कर आयोजन में उपस्थित नहीं हो सकते थे । वे अपना काम करते हुए आयोजन को देख-सुन रहे थे । याने आयोजक, अतिथि और श्रोता - सबके सब न केवल एक दूसरे को भली प्रकार देख पा रहे थे बल्कि एक दूसरे को व्‍यक्तिगत स्‍तर पर जानते भी थे ।



कर्मचारी मित्रों ने 'क्‍या राष्‍ट्रीयक़त बैंक, निजी बैंकों की चुनौती स्‍वीकार करने में समर्थ हैं' विषय पर एक वाद विवाद प्रतियोगिता रखी थी । निर्णायक मैं ही था । पक्ष में बोलने वाले अधिक थे जबकि प्रतिपक्ष में कुल दो कर्मचारी बोले । श्रीमती सुरेखा सक्‍सेना पक्ष में और श्री प्रकाश जैन प्रतिपक्ष में प्रथम रहे । श्रीमती सुरेखा सक्‍सेना ने मुझे चौंकाया । मैं जब-जब भी बैंक में गया (मेरा बचत खाता इसी बैंक में है) तब-तब मैं ने उन्‍हें चुपचाप, अपना काम करते पाया । वे तभी बोलती हैं जब कोई उनसे कुछ पूछता है । लेकिन उस दिन वे जिस सुन्‍दर वाक्‍य रचना, शब्‍द चयन और धारा प्रवहता से बोलीं वह मेरे लिए अनूठा ही था ।



लेकिन जिस बात को लेकर मैं यह टिप्‍पणी लिख रहा हूं वह भाई प्रकाश जैन ने कही । निजी बैंकों के काम काज की विशिष्‍टताएं गिनवाते हुए उनकी दो बातों ने मेरा ध्‍यान विशेष रूप से आकर्षित किया । पहली तो यह कि निजी बैंकों के कर्मचारियों में नौजवानों का प्राधान्‍य है जबकि राष्‍ट्रीयकृत बैंकों में अधेडों-बूढों की भीड दिखाई देती । जाहिर है कि वर्तमान से जुडने और वर्तमान की आवश्‍यकताओं को अनुभव करने में बूढों-अधेडों के मुकाबले नौजवानों को अधिक कामयाबी मिलती है । वे किसी भी बदलाव के लिए तैयार रहते हैं जबकि बूढे-अधेड अपनी मानसिकता और मान्‍यताओं को बदलने के लिए शायद ही तैयार हो पाते हों । इससे भी आगे बढकर, वे तो नौजवानों की समझ पर भी विश्‍वास नहीं कर पाते । जिस समाज का 54 प्रतिशत युवाओं के कब्‍जें में हो, वहां यह बात बहुत ही महत्‍वपूर्ण है । पीढियों के इस अन्‍तर को इस तरह समझा जा सकता है कि प्रत्‍येक बाप अपने बेटे की पात्रता, योग्‍यता, क्षमता पर सन्‍देह करता रहता है, भले ही यह सन्‍देह वह अपने बेटे का हित चिन्‍तन करते हुए, शुभेच्‍छापूर्वक और सम्‍पूर्ण सदाशयता से करता हो ।



दूसरी बात प्रकाशजी ने जो कही वह मुझे बहुत अधिक खतरनाक लगी । उन्‍होंने कहा कि निजी बैंक अपने अपनी लक्ष्‍य पूर्ति के लिए 'आक्रामक विपणन नीति' (एग्रेसिव मार्केटिंग स्‍ट्रेटेजी) अपनाए हुए हैं जिसमें न तो किसी की भावना की चिन्‍ता की जाती है और न ही किसी को सोचने का अवसर दिया जाता है । इसी बात ने मुझे गहरे सोच और चिन्‍ता में डाल दिया ।



उदारीकरण, निजीकरण और वैश्‍वीकरण (एलपीजी) के चलते हमने हमारे बच्‍चों का बचपन छीन कर उन्‍हें पूरी तरह से 'कैरीयरिस्‍ट' बनने के लिए धकेल दिया । हमने उनसे त्‍यौहार छीन लिए और दादी-नानी की कहानियां छीन लीं । देश में छाया हुआ भौतिकतावाद और उपभोक्‍तावाद इन्‍हीं नीतियों की देन है । हमारी भाषा ही नहीं बदली, हमारा सोच, हमारी प्राथमिकताएं, हमारा व्‍यवहार याने सब कुछ बदल गया है । हममें से प्रत्‍येक व्‍यक्ति इस स्थिति से परेशान भी है और चिन्तित भी लेकिन सबके सब असहाय हैं । ऐसे में अपने संस्‍कारों, परम्‍पराओं को क्षरित होते देखते रहने के लिए हम सब अभिशप्‍त हो गए प्रतीत होते हैं । 'आक्रामकता' जहां होगी वहां 'भावुकता' सबसे पहले बिदा होगी । जबकि हम 'पूरबवाले' अपनी भावनाओं के कारण ही दुनिया भर में पहचाने जाते रहे हैं । 'आक्रामक विपणन नीति' के क्रियान्‍वयन में हमारे बच्‍चे अनजाने में ही पहले तो भावनाविहीन और अन्‍तत: सम्‍वेदनाविहीन नहीं हो जाएंगे ? हमारे बच्‍चे 'पेकेज' के आंकडों को अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्‍य मान कर 'रुपया बनाने वाले यन्‍त्र' बन कर रह जाएंगे ? क्‍या 'कैरीयरिस्‍ट' होने का मतलब असम्‍वेदन हो जाना होता है ? कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पडता है । लेकिन क्‍या यह नहीं देखा जाना चाहिए अधिक मूल्‍यवान क्‍या है - जो प्राप्‍त कर रहे हैं वह या जो खो रहे हैं वह ? यदि यह व्‍यापार है तो व्‍यापार के आधारभूत सिध्‍दान्‍तों को भी नहीं भूला जाना चाहिए ।



यकीनन, हम जो खो रहे हैं वह अधिक मूल्‍यवान, अधिक आवश्‍यक तथा अधिक मानवीय है । लेकिन इसे शायद इसलिए अनुभव नहीं किया जा रहा है कि प्राप्तियां हमें भौतिक रूप में (वस्‍तु या मुद्रा के रूप में) सीधे-सीधे नजर आ रही हैं, हमारे हाथ में आ रही हैं और जो हम खो रहे हैं वह निराकार है और जिसके जाने से (और निरन्‍तर जाते रहने से) हमें तत्‍काल कोई फर्क नहीं पड रहा है ।



कहीं ऐसा तो नहीं कि हम 'सुविधा' के लिए 'संस्‍कारों' का, अपनी 'संस्‍कृति' का, 'सम्‍पूर्ण भारतीयता' का भुगतान कर रहे हैं ?

इंगलैण्‍ड में असभ्‍यों की भाषा थी - अंग्रेजी

अंग्रेजी ने आज भले ही अन्‍तरराष्‍ट्रीय भाषा होने का भ्रामक दर्जा हा‍सिल कर रखा हो लेकिन कोई शायद ही विश्‍वास करे कि अपने ही देश में अंग्रेजी को हेय दृष्टि से देखा जाता था और खुद को सभ्‍य मानने/कहने वाले नागरिक इस भाषा में बात करना अपनी शान के खिलाफ समझते थे ।



इतिहास साक्षी है कि इंगलैण्‍ड पर फ्रांस का आधिपत्‍य था । 12वीं, 13वीं शताब्‍दी में फ्रेंच वहां के अभिजात्‍य वर्ग की भाषा थी और अंग्रेजी को देहातियों, अनपढों, किसानों, मजदूरों, नौकरों, भिखारियों, जाहिलों, गंवारों की भाषा माना जाता था । तब इंगलैण्‍ड में फ्रेंच के प्रति वही मोह, आकर्षण और 'क्रेज' था जो आज भारत में अंग्रेजी के प्रति है । अभिजात्‍य वर्ग अंग्रेजी में बात करना अपनी शान के खिलाफ मानता था ।


लेकिन मातृ भूमि के प्रति प्रेम और सम्‍मान सार्वभौमिक स्‍थायी भाव है । इसी के चलते अपनी मातृ भाषा के सम्‍मान की स्‍थापना की ललक मन में रखने वाले मातृ भाषा प्रेमी, अंग्रेजी को उसका स्‍थान और सम्‍मान दिलाने के लिए सतत् प्रयत्‍नरत और संघर्षरत थे । इसी कारण सन् 1362 में 'स्‍टेच्‍यूट ऑफ प्‍लीडिंग एक्‍ट' पारित हुआ और अदालतों में अंग्रेजी के उपयोग की अनुमति मिल गई । लेकिन जैसा कि होना ही था, इसका कडा विरोध हुआ । जजों, वकीलों ने अंग्रेजी में काम करने से साफ-साफ इंकार तो नहीं किया लेकिन तर्क किया कि विधि और न्‍याय क्षेत्र में जब अंग्रेजी पुस्‍तकें ही नहीं हैं तो अंग्रेजी में बहस कैसे हो सकेगी और अंग्रेजी में निर्णय कैसे दिए जा सकेंगे ? लिहाजा, उपरोक्‍त अधिनियम पारित होने के बावजूद सारा कामकाज फ्रेंच में ही होता रहा । लेकिन अंग्रेजी को, थोडा-थोडा और धीरे-धीरे ही सही, प्रश्रय मिलने लगा । यह देख कर कट्टरपंथियों ने फ्रेंच की पक्षधरता का मानो अभियान ही शुरू कर दिया । इनकी अगुवाई कर रहे जॉन बर्टन ने फ्रेंच के पक्ष में तीन प्रबल तर्क दिए - पहला : फ्रेंच आन्‍तरिक एवम् अन्‍तरराष्‍ट्रीय संचार का माध्‍यम है, दूसरा : कला, विज्ञान, वाणिज्‍य, विधि और प्रशासन की मानक पुस्‍तकें केवल फ्रेंच में ही उपलब्‍ध हैं और तीसरा : इंगलैण्‍ड के प्रेमी युगल, अपना प्रेम प्रदर्शन फ्रेंच भाषा में ही करते हैं ।


लेकिन मातृ भाषा प्रेमी इन और ऐसे तर्कों से न तो रूके, न हारे और न ही हतोत्‍साहित हुए । उन्‍होंने इस लडाई को भावनाओं के स्‍तर पर ला खडा किया । उन्‍होंने कहा कि वे मानते हैं कि फ्रेंच, लैटीन और ग्रीक भाषाओं की तुलना में अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी साहित्‍य, नगण्‍य, तुच्‍छ और हेय है लेकिन जैसी भी है, अंग्रेजी हमारी मातृ भाषा है । उन्‍होंने पूछा - क्‍या हम अपनी मां का तिरस्‍कार केवल इसलिए कर दें कि दूसरों की माताएं अधिक सुन्‍दर, अधिक सम्‍पन्‍न हैं ?



सन् 1582 में एक कवि ने कहा -


मैं रोम को ह्रदय से प्‍यार करता हूं
पर लन्‍दन को उससे भी अधिक चाहता हूं
मैं इटली को समर्थन देता हूं
पर इंगलैण्‍ड को उससे भी अधिक समर्थन देता हूं
मैं लैटीन का आदर करता हूं
पर अंग्रेजी की पूजा करता हूं


मातृ भाषा प्रेमियों को अन्‍तत: सफलता मिली और 17वीं शताब्‍दी के आरम्‍भ होते-होते दृढ निश्‍चय कर लिया गया कि अब इंगलैण्‍ड का सारा कामकाज अंग्रेजी में ही किया जाएगा । लेकिन निश्‍चय का क्रियान्‍वन आसान नहीं था । भावनाओं के धरातल पर लडी गई लडाई की सफलता, वास्‍तविकता और व्‍यावहारिकता के धरातल पर अपने आप में एक युध्‍द में बदलती दिखाई देने लगी । शब्‍दावली सबसे बडी समस्‍या बन कर सामने आई । हालत यह थी कि प्रशासन के क्षेत्र में केवल 'क्रिग' और 'क्‍वीन' ही शुध्‍द अंग्रेजी शब्‍द थे । क्‍या किया जाए ? प्रश्‍नों के बीहड में रास्‍ता निकाला गया - जो शब्‍द चलन में हैं, उन्‍हें जस का तस स्‍वीकार कर लिया जाए । मुश्किलें आसान हो गईं और प्रशासन के क्षेत्र में गवर्नमेण्‍ट, क्राउन, स्‍टेट, एम्‍पायर, रॉयल, पार्लियामेण्‍ट, असेम्‍बली, स्‍टेच्‍यूट, प्रिंस ड्यूक, मिनिस्‍टर, मैडम आदि तमाम शब्‍द फ्रेंच से लिए गए । इसी प्रकार विधि-न्‍याय के क्षेत्र में जस्टिस, क्राइम, बार, एडवोकेट, जज, पीटीशन, कम्‍पलेण्‍ट, सम्‍मन, वारण्‍ट आदि और दैनन्दिन व्‍यवहार में ड्रेस, फैशन, कॉलर, बटन, डिनर, फिश, टोस्‍ट, बिस्किट, क्रीम, शुगर, ऑरेंज आदि शब्‍द भी फ्रेंच से ले लिए गए । 'ए हिस्‍ट्री ऑफ इंगलिश लेंग्‍वेज' के अनुसार, फ्रेंच से 10 हजार शब्‍द लिए गए । इस प्रकार फ्रेंच तथा अन्‍य भाषाओं से 50 हजार से भी अधिक शब्‍द उधार लिए गए । लेकिन इस 'उधार की पूंजी' से अंग्रेजी क्लिष्‍ट हो गई और इसकी शुध्‍दता खतरे में पड गई । तब शुध्‍दता के मामले में उदार रुख अपनाया गया और विदेशी शब्‍दों के अर्थ के लिए पारिभाषिक शब्‍दावलियां तैयार की गईं । इसके बाद करने के नाम पर केवल आधिकारिक स्‍वीकृति और घोषणा का काम ही बचा था । सो, सन् 1755 में, डॉक्‍टर जॉनसन ने अंग्रेजी भाषा के प्रामाणिक शब्‍दकोश में इन 50 हजार शब्‍दों का समावेश कर, इन पर अंग्रेजी शब्‍द होने का ठप्‍पा लगा दिया । इसी के साथ, 12वीं शताब्‍दी में शुरु हुई, स्‍वभाषा के ससम्‍मान स्‍थापना की लडाई, 19वीं शताब्‍दी के मध्‍य काल में समाप्‍त हुई और इंगलैण्‍ड में अंग्रेजी लागू हो गई ।
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विशेष - कृपया इसे 'मेरा लेख' न समझें । कोई 18-20 वर्ष पहले, 'नव भारत टाइम्‍स' (दिल्‍ली) में, 'और इस तरह लादी गई इंगलैण्‍ड पर अंग्रेजी' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ था । उसके लेखक का नाम तो अब याद नहीं लेकिन उस लेख के नोट्स अब तक मेरे पास रखे हुए मिल गए । उन्‍हीं के आधार पर ये सूचनाएं प्रस्‍तुत हैं ।

तस्‍करों के 'पार्टनर' भगवान

तस्‍करी यूं तो गैर कानूनी हरकत है, ऐसा दण्‍डनीय अपराध है जिसमें कम से कम दस साल की कैद सजा भुगतनी पड सकती है लेकिन जब खुद भगवान ही तस्‍करों के भागीदार हों तो कैसा कानून और कैसी सजा ?



मध्‍य प्रदेश के सीमान्‍त जिला मुख्‍यालय नीमच से राजस्‍थान की झीलों की नगरी उदयपुर जाने वाली सडक पर, नीमच से मात्र 80 किलो मीटर दूर स्थित है - राजस्‍थान और मालवा का प्रख्‍यात तीर्थ स्‍थल : श्री सांवलियाजी । यहां, भगवान श्री कृष्‍ण का, 400 वर्ष पुराना, अत्‍यन्‍त भव्‍य और विशाल मन्दिर है और मन्दिर में विराजित भगवान को 'भगवान श्री कृष्‍ण' के बजाय 'सांवलिया सेठ' के नाम से जाना-पहचाना-पुकारा जाता है । जिस गांव में यह मन्दिर बना है उसका नाम है - मण्‍डपिया । यह गांव राजस्‍थान के चित्‍तौडगढ जिले की निम्‍बाहेडा तहसील के अन्‍तर्गत आता है । 'सांवलिया सेठ' यूं तो सबकी मनौतियां पूरी करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन अफीम तस्‍करों में ये न केवल विशेष लोकप्रिय हैं बल्कि अफीम तस्‍करों के बडे भरोसेमन्‍द भगवान भी हैं । इतने भरोसेमन्‍द कि वे इन्‍हें अपना पार्टनर बनाए हुए हैं । भरोसे की पराकाष्‍ठा यह है कि 'सांवलिया सेठ' को इन अफीम तस्‍करों का भागीदार बनना मंजूर है या नहीं - यह जाने की जरूरत भी अनुभव नहीं होती ।



तस्‍करी अभियान पर जाने से पहले या अभियान शुरू करने से पहले, ये तस्‍कर इस मन्दिर पर दर्शन के लिए आते हैं और मनौती मानने के साथ ही अपने अभियान की सफलता पर 'सांवलिया सेठ' की भगीदारी भी तय करते हैं । यह भागीदारी कभी आय का एक निश्चित प्रतिशत होती है तो कभी अफीम की निश्चित मात्रा । स्‍वैच्छिक रूप से, एकतरफा तय की गई इस भगीदारी को निभाने में ये तस्‍कर बडी ईमानदारी बरतते हैं और अभियान की सफलता पर तयशुदा नगद रकम या अफीम 'सांवलिया सेठ' की दान पेटी में डाल देते हैं । यह दान पेटी प्रत्‍येक महीने की अमावस्‍या को, सबके सामने खुलती है । इस दानपेटी से निकलने वाल रकम प्रति माह बढती जा रही है । जून 2007 में खुली पेटी में से 76 लाख रूपये निकले जो अब तक की सर्वाधिक राशि साबित हुई है । जुलाई और अगस्‍त के आंकडे अभी सामने नहीं आ पाए हैं । नकदी के अलावा सोने-चांदी के गहने भी दान पेटी से निकलते हैं । इस लिहाज से यह मन्दिर मालवा, मेवाड एवम् मारवाड का 'तिरूपति' बनता जा रहा है



मालवा-राजस्‍थान में अफीम की खेती न केवल लाभदायक सौदा माना जाता है बल्कि यह सामाजिक प्रतिष्‍ठा का एक महत्‍वपूर्ण पैमाना भी है । अफीम उत्‍पादक किसान को सम्‍पन्‍न माना ही जाता है । जिसके पास जितनी ज्‍यादा अफीम खेती का पट्टा (लायसेंस), वह उतना अधिक हैसियतदार । न्‍यूनतम सीमा - 10 आरी । आरी याने भूमि रकबे की एक इकाई । पट्टे (लायसेंस) के आधार पर किसान को सरकार को दी जाने वाली अफीम की न्‍यूनतम मात्रा का निर्धारण सरकार करती है जो वास्‍तविक उपज से कम ही होती है । सरकार को अफीम जमा करा देने के बाद जो अफीम बचती है वह तस्‍करी के जरिए बेच दी जाती है । इसमें खतरा तो अच्‍छा खासा होता है लेकिन लाभ उससे भी ज्‍यादा अच्‍छा खासा होता है । सो, प्रत्‍येक किसान कम से कम 10 आरी का पट्टा (लायसेंस) प्राप्‍त करने के लिए जी-जान लगा देता है । पट्टा (लायसेंस) जारी करने के प्रावधान इतने स्‍पष्‍ट और सख्‍त हैं कि इसमें राजनीतिक सिफारिश नहीं चल पाती है । ऐसे में किसानों और तस्‍करों को 'सांवलिया सेठ' का ही भरोसा होता है । 'लोक विश्‍वास' है कि 'सांवलिया सेठ' को 'पार्टनर' बनाने पर शत प्रतिशत सफलता सुनिश्चित है ।



दान पेटी में डाली गई रकम तो मन्दिर के बजट में आ जाती है लेकिन अफीम का क्‍या किया जाए ? उसे बेचना तो कठोर दण्‍डनीय अपराध है । सो, आसान और अनूठा रास्‍ता यह निकाला कि इस अफीम का घोल बना कर 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' के रूप में दर्शनार्थियों को वितरित कर दिया जाए । सो, जब-जब भी 'सांवलिया सेठ' (अब आप चाहें तो इन्‍हें, 'तस्‍करों का पार्टनर' होने के कारण 'तस्‍कर सांवलिया सेठ' भी कह लें तो खुद 'सांवलिया सेठ' भी शायद ही प्रतिवाद करें) की दान पेटी में अफीम निकलती है तो 'अफीमचियों' की लॉटरी खुल जाती है ।



भगवान और धर्म के इस 'अनुपम उपयोग' पर नारकोटिक्‍स विभाग, राज्‍य सरकार और तमाम राजनीतिक दल 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे' की तरह चुप हैं । कौन बोले और क्‍या बोले ?



उदयपुर, नीमच, चित्‍तौड और निम्‍बाहेडा ये चारों नगर/कस्‍बे रेल्‍वे से जुडे हुए हैं (मुमकिन है कि ज्ञानदत्‍तजी ने इस मन्दिर की यात्रा की हो) और 'श्री सांवलियाजी' (याने मण्‍डपिया गांव) जाने के लिए ठसाठस भरी जीपें उपलब्‍ध रहती हैं । मण्‍डपिया में ढेरों धर्मशालाएं और दाल-बाटी वाले भोजनालय आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । एक बार जाइए और इस विवरण की पुष्टि कीजिए । हां, यह जरूर बताइएगा कि 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' का पान करने के बाद आप किस गति को प्राप्‍त हुए और उस गति में कितनी देर रहे ।

बाफला और कलेक्‍टर की बर्खास्‍तगी


मालवा का जग विख्‍यात सुस्‍वादु व्‍यंजन 'बाफला' एक कलेक्‍टर की बर्खास्‍तगी का सबब बन ही गया था । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । किसका भाग्‍य अच्‍छा था - बाफले का या कलेक्‍टर का, यह आप ही तय कीजिएगा ।

वाकया 1970 का ही है । पण्डित श्‍यामाचरण शुक्‍ल के नेतृत्‍व वाले, मध्‍य प्रदेश के कांग्रेसी मन्त्रि मण्‍डल में श्री वसन्‍तराव उइके शिक्षा मन्‍त्री और श्री बालकवि बैरागी, सूचना प्रकाशन राज्‍य मन्‍त्री थे । उइके साहब सिवनी जिले से तथा बैरागीजी मन्‍दसौर जिले से थे । उन दिनों मन्त्रियों को जन सम्‍पर्क दौरे करने पडते थे । (इन्‍हीं जन सम्‍पर्क दौरों को मीडीया ने इन दिनों 'रोड शो' का नाम दे रखा है ।) इसी चलन के चलते, उइके साहब, मन्‍दसौर जिले के जन सम्‍पर्क दौरे पर थे ।

मन्‍दसौर जिले में एक गांव है - भाऊगढ । मन्‍दसौर से महू की ओर जाते समय, कोई बीस-बाईस किलोमीटर के बाद, दलौदा के पास से, सडक से लगभग 34-35 किलोमीटर अन्‍दर स्थित यह गांव आज तो आधुनिक सुविधाओं से लैस है लेकिन तब वहां जाने के लिए गिट्टी वाली सडक भी नहीं थी । बैलगाडी से जाना पडता था । बरसात के मौसम में यह गांव दुनिया से मानो कट ही जाता था । जिसे भी भाऊगढ से शहर आना हो या शहर से भाऊगढ जाना हो तो 34-35 किलोमीटर की यह दूरी, घुटनों-घुटनों कीचड पार करनी पडती थी । उन दिनों भाऊगढ को 'काला पानी' कहा जाता था और जिस सरकारी कमर्चारी से राजनीकि बदला लेना होता, उसका तबादला भाऊगढ करा दिया जाता था । भाऊगढ तबादला होने की कल्‍पना मात्र से सरकारी कर्मचारियों की रीढ की हड्डी में भी कंपकंपी छूट जाती थी ।

तब भाऊगढ में आठवीं कक्षा तक का, मिडिल स्‍कूल था । गांव वाले अपने यहां हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल चाहते थे । चूंकि बैरागीजी मन्‍दसौर जिले से थे सो, भाऊगढ के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने बैरागीजी से सम्‍पर्क साधा । बैरागीजी ने कहा कि वे शिक्षा मन्‍त्रीजी को भाऊगढ में ला कर खडा कर देंगे, हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल की मांग को अपनी मांग भी कह देंगे लेकिन उइके साहब को मनाने का काम तो भाऊगढवालों को ही करना होगा । भाऊगढवालों ने कहा - 'आप तो उइके साहब को ले आओ, बाकी हम देख लेंगे ।'

इसी सम्‍वाद के तारतम्‍य में, उइके साहब के जनसम्‍पर्क दौरे में भाऊगढ भी शरीक किया गया और इस तरह किया गया कि उइके साहब का, उस दिन का दोपहर का भोजन भाऊगढ में ही हो ।

तयशुदा कार्यक्रमानुसार, जीपों के काफिले और सरकारी लाव-लश्‍कर के साथ उइके साहब और बैरागीजी भाऊगढ पहुंचे । लोगों ने सचमुच में पलक पांवडे बिछा दिए । गांव की कोई गली ऐसी नहीं बची जिसमें स्‍वागत द्वार न बना हो और जिसमें से दोनों मन्त्रियों को न घुमाया गया हो । भाऊगढ जितनी जन संख्‍या वाले और किसी भी गांव में उइके साहब ने इतनी मालाएं अपने जीवन में न तो तब पहनी थीं और न बाद में कभी पहनी होंगी । ढोल ढमाकों के अलावा आसपास से बैण्‍ड भी बुलवाया गया था । गोटा-किनारी और इसी के फूलों से जगर-मगर करते, चमचमाते, रंगीन लुगडे ओढे, औरतें बधावे और मंगल गीत गा रही थीं, नाच रही थीं । लगता था मानो समूचे मालवा के सारे उत्‍सवों की रंगीनी और मस्‍ती-मादकता भाऊगढ की गलियों में सिमट आई थी । भाऊगढवालों ने इतनी गुलाल उडाई कि दोनों मन्त्रियों की दशा 'जित देखो तित लाल' हो गई थी । उइके साहब 'गदगद' और 'पुलकित' के पर्याय हो गए थे । उन्‍हें विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा स्‍वागत भी हो सकता है ।

अन्‍तत:, दोनों मन्त्रियों का जुलूस मंच-मुकाम पर पहुंचा । यहां एक बार फिर उइके साहब को फूलों से लाद दिया गया । गांव वालों की ओर से ज्‍यादा भाषणबाजी नहीं हुई । एक ही बात कही गई - 'हमें सडक, पानी, बिजली कुछ भी नहीं चाहिए । हमें तो बस, हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल दे दीजिए ।' स्‍थानीय मन्‍त्री की हैसियत से बोलते हुए बैरागीजी ने गांववालों की मांग को अपनी मांग कहा और बैठ गए । अब बारी उइके साहब की थी । वे अनुभवी, परिपक्‍व और मंजे हुए नेता थे । लोगों की नब्‍ज पहचानने में महारत थी उन्‍हें । उन्‍होंने बिना वक्‍त जाया किए, भाऊगढ में हायर सेकेण्‍डरी स्‍कूल खोलने की घोषणा कर दी । घोषणा क्‍या हुई मानो चमत्‍कार हो गया । 'उइके साहब - जिन्‍दाबाद' के नारे लगने लगे, गांव के बूढे मारे खुशी के रोने लगे, लोगों के कण्‍ठ रुंध गए, हिचकियां बंध गईं । औरतें बलैयां ले-ले कर उइके साहब को असीसने लगीं । मंजर इतना जजबाती हो गया कि खुद उइके साहब की आंखें भर आईं । ऐसी घोषणाएं उन्‍होंने पहले भी कई जगहों पर की थीं लेकिन ऐसा प्रतिसाद तो उन्‍हें कहीं नहीं मिला था जो उनके लिए आजीवन अविस्‍मरणीय और अनुपम परिसम्‍पत्ति बन गया । वे भी भाव विह्वल और विगलित हो गए ।


जैसे-तैसे समारोह समाप्‍त हुआ । अब भोजन की बारी आई । मालवा में विशेष प्रसंग पर भोजन में छिलके वाली उडद की दालदाल, बाफले और चूरमा के लड्डू के सिवाय और बन ही क्‍या सकता था ? यही सब बना था । बाफला कितना स्‍वादिष्‍ट और कितना 'भारी' होता है यह आप 'हथियार भी है मालवी बाफला' वाली पोस्‍ट से जान ही चुके हैं । इसमें एक बात और जोड लीजिए । बाफले में घी जितना अधिक मिलाया (या डाला) जाता है, उसका स्‍वाद और 'भारीपन' उतना ही बढता जाता है । ठीक उसी तरह जिस तरह कि आयुर्वेदिक दवाइयों को घोटने पर उनकी 'पोटेंसी' बढती है । भाऊगढ में तो उस दिन होली- दीवाली सहित सारे त्‍यौहार आ गए थे और भाऊगढवाले उइके साहब पर न्‍यौछावर होने का कोई भी क्षण नहीं छोडना चाहते थे । सो, बाफलों को 'स्‍पेशल ट्रीटमेण्‍ट' यह दिया गया कि बाफलों में घी डालने के बजाय बाफलों को घी में डाल दिया गया - बिलकुल गुलाब जामुन की तरह । बाफलों को गुलाब जामुन की तरह, घी से लबालब भरी गहरी कढाई में तैरते हुए मैं ने न उससे पहले कभी देखा था और न ही उसके बाद से अब तक देखा है । परोसने के लिए बाफले को जब कढाई में से निकाला जा रहा था तो घी, धार बन कर चू रहा था । बाफला परोसने काबिल हो, इसके लिए उसे कढाई में से निकालने के बाद कोई आधा मिनिट तक प्रतीक्षा करनी पड रही थी ।

पंगत लगी । दाल, आधा-आधा बाफला और चूरमा लड्डू परोसे गए और लोगों ने दोनों हाथ जोड कर उइके साहब से निवेदन किया - 'करो लक्ष्‍मीनारायण ।' भोजन शुरू करने के लिए मालवा में यही कह कर निवेदन‍ किया जाता है । उइके साहब ने पहला कौर तोडा । कौर क्‍या था मानों रूई का फाहा हाथ में आ गया हो - मक्‍खन से भी ज्‍यादा मुलायम । कौर को दाल में डुबो कर मुंह में रखा तो उइके साहब उछल ही पडे । ऐसी रसानुभूति उन्‍हें पहली ही बार हुई थी । 'पांचों पकवान और पचीसों व्‍यंजन' दाल-बाफले के सामने 'धूल धुसरित' हो चुके थे । अपेक्षा से कहीं कम समय में ही उइके साहब ने आधा बाफला समाप्‍त कर, और बाफले की इच्‍छा प्रकट कर दी । पूरा भाऊगढ उइके साहब की सेवा में था । उइके साहब ने कहने में जितनी देर लगाई उसके हजारवें हिस्‍से में बाफला उनकी पत्‍तल पर था । मेहमान और मेजबान की इस 'फुर्ती प्रतियोगिता' में बैरागीजी ने व्‍यवधान डाला । उइके साहब से बोले - 'भाई साहब ! और मत लीजिए, आधा ही बहुत है ।' उइके साहब को यह 'रस-भंग' अच्‍छा नहीं लगा । उन्‍होंने बैरागीजी की तरफ सरोष देखा और लगभग झिडकते हुए कहा कि उन्‍हें बैरागीजी से इस अशिष्‍टता की उम्‍मीद नहीं थी । कहां तो बैरागीजी मालवा की मुनहार-परम्‍परा का बखान करते रहे हैं और आज जब स्‍वादिष्‍ट व्‍यंजन का आनन्‍द लेने का अवसर मिला है तो मनुहार करना तो दूर रहा, मांगने पर भी रोक लगा रहे हैं ? बैरागीजी सकपकाए जरूर लेकिन वे 'आगत की आहट' खूब अच्‍छी तरह सुन रहे थे । सो, उन्‍होंने अपनी सीमाओं में रहते हुए एक बार फिर समझाने की नाकाम कोशिश की और बदले में और अधिक जोरदार झिडकी खाई । बैरागीजी ने चुप रहने में ही भलाई समझी क्‍यों कि उइके साहब के साथ-साथ भाऊगढवाले भी बैरागीजी से नाराजी जताने लगे थे । इसी माहौल में उइके साहब ने लगभग सवा दो बाफले 'जीम' लिए ।


भोजन करते ही अगले पडाव के लिए चल पडना था । लेकि‍न यह भी तो नहीं होता कि हाथ धोये और चल दिए । सो, पंगत से उठ कर, हाथ धो कर, पानी पी कर, हाथ-मुंह पोंछते-पोंछते जीप तक आएं तब तक पन्‍द्रह-सत्रह मिनिट तो हो ही गए । बातें करते-करते उइके साहब ने अनुभव किया कि उनका गला तेजी से सूख रहा है और बोलने में कठिनाई हो रही है । उन्‍होंने पानी मांगा । लोगों को पता था । सो, फौरन ही ठण्‍डा पानी पेश कर दिया गया । उइके साहब ने भरपूर मात्रा पानी पिया तो सही लेकिन उन्‍हें लगा कि उनका पेट अतिरिक्‍त रूप से तन रहा है । लेकिन उन्‍होंने इसे 'परदेस के खाने में ऐसा हो जाता होगा' जैसा तर्क देकर खुद को समझाया । वे जीप में बैठने लगे तो बैरागीजी ने कहा - 'भाई साहब ! आप बीच में, ड्रायवर के पास बैठिये और मुझे बाहर की ओर बैठने दीजिए ।' उइके साहब सचमुच में नाराज हो गए । बोले - ' एक तो मैं केबिनेट मिनिस्‍टर हूं और तुम स्‍टेट मिनिस्‍टर । फिर, यह जनसम्‍पर्क दौरा मेरा है । तुम बाहर की ओर कैसे बैठ सकते हो ? तुम्‍हें हो क्‍या गया है ? ऐसा कहने से पहले तुमने जरा भी नहीं सोचा कि यह प्रोटोकाल के खिलाफ है ?' बैरागीजी काफी कुछ कहना चाहते थे लेकिन उन्‍होंने चुप रहने में ही अपनी खैर समझी । जीप के खुले वाले एक ओर के हिस्‍से में ड्रायवर, दूसरी ओर वाले खुले हिस्‍से में उइके साहब और दोनों के बीच में बैरागीजी बैठे ।


यात्रा शुरू हुई तो थोडी ही देर में बैरागीजी को अपना दाहिना हाथ, उइके साहब की पीठ के पीछे से ले जाकर, उइके साहब के दाहिने कन्‍धे पर रखकर, उइके साहब को पकड कर बैठना पडा क्‍यों कि उइके साहब, तेज चलती जीप में भी खूब गहरी नींद में सो गए थे । उनकी गर्दन, जीप के सामने वाले काच तक झुक आई थी और उबड-खाबड रास्‍तों की वजह से, जीप के हिचकोलों से भी उनकी नींद में कोई व्‍यवधान नहीं आ रहा था । बरसातों के ठीक बाद का मौसम था, गांवों के कच्‍चे रास्‍तों में खूब गहरे गड्ढे थे, उन्‍हें पार करने में जीप उचक-उचक जा रही थी और साथ-साथ उइके साहब भी । लेकिन नींद थी कि बराबर बनी हुई थी । उइके साहब गिर न जाएं, इसलिए बैरागीजी उन्‍हें अपनी पूरी ताकत से थामे हुए थे । हिचकोले खाती जीप में, हिचकोले खाते, निन्‍द्रामग्‍न उइके साहब के भारी भरकम शरीर को सम्‍हालने में बैरागीजी को अपनी ताकत से ज्‍यादा मशक्‍कत करनी पड रही थी ।


अगला पडाव आया । जीप रूकी । रास्‍ते किनारे, प्रतीक्षारत गांववाले, हाथों में मालाएं लिए, जिन्‍दाबाद के नारे लगा रहे थे लेकिन उइके साहब तो मानो 'फूलों की सेज' पर सोए हुए थे । बैरागीजी उन्‍हें जोर-जोर से झकझोर कर जगाने की कोशिश करने लगे । उन्‍हें झिंझोडते, झकझोरते हुए 'भाई साहब ! भाई साहब !! उठिए । गांव आ गया है । लोग आपको मालाएं पहनाना चाहते हैं । उठिए ।' कहे जा रहे थे । उइके साहब कुनमुनाए, 'ऊं, आं' करते हुए आंखें खोलने की कोशिश की लेकिन आंखें खुल नहीं पाईं । उन्‍होंने जोर-जोर से अपनी आंखें मसलीं, आस-पास देखा, बमुश्किल जीप से उतरे और बोले - 'माला बाद में पहनाना, पहले पानी पिलाओ ।' पानी जीप में था ही । प्रस्‍तुत किया गया । उन्‍होंने फिर भरपूर पानी पीया और पानी पीते-पीते उन्‍हें एक बार फिर वही अनुभूति हुई - उनका पेट तनने लगा है । उन्‍होंने पूछा - 'मुझे यह क्‍या हो रहा है ?' बैरागीजी बोले - 'मैं ने आपसे कहा था न कि आधा बाफला ही काफी होगा । लेकिन आप मुझ पर नाराज हो गए । यह सब बाफले का ही असर है ।' उइके साहब ने अविश्‍वास से बैरागीजी की ओर देखा और फिर, जीप में पीछे की ओर बैठे, कांग्रेस कार्यकर्ताओं की ओर सवालिया निगाहों से देखा । सबने बैरागीजी की बात की पुष्टि की । तसल्‍ली होते ही उन्‍होंने जोर से आवाज लगाई - 'मुदलियार !' मुदलियार याने मन्‍दसौर जिले के (तत्‍कालीन) कलेक्‍टर श्री पी जी वाय मुदलियार - बडे सुलझे हुए, अनुभवी और प्रत्‍युत्‍पन्‍नमति वाले, भारतीय प्रशासकीय सेवाओं के वरिष्‍ठ सदस्‍य । भाऊगढ में उन्‍होंने, दोनों मन्त्रियों के साथ ही भोजन किया था और बाफलों की 'घातक-मारक शक्ति' से भली प्रकार वाकिफ थे । इस स्थिति का पूर्वानुमान वे, उइके साहब को 'प्रेमपूर्वक बाफला सेवन' करते हुए देख कर लगा चुके थे । उइके साहब की जीप के ठीक पीछे उनकी जीप थी । उइके साहब की जीप रूकते ही उनकी जीप भी रूक ही गई थी और उइके साहब उन्‍हें पुकारते, उससे पहले ही वे उइके साहब के ठीक पीछे आकर खडे हो गए थे । सो, उइके साहब की 'हांक' सुनते ही, सामने प्रकट होकर, आज्ञाकारिता की चाशनी घोलते हुए बोले - 'यस सर !' उइके साहब ने कहा - 'ये जो आज मैं ने भोजन में खाए हैं........' वे अपनी बात पूरी करते, उससे पहले ही मुदलियार साहब बोले - 'बाफले सर !' उइके साहब बोले - 'हां वही ।' मुदलियार साहब ने पूछा - 'सो व्‍हाट अबाउट बाफला सर ?' उइके साहब बोले - 'व्‍हाट अबाउट क्‍या, इस मिनिट के बाद से मेरे भोजन में, मेरे सामने ये एटम बम आ गए तो मैं तुम्‍हें बर्खास्‍त कर दूंगा ।' मुदलियार साहब ने कहा - 'डोण्‍ट वरी सर ! नाउ ड्यूरिंग योर दिस टूर, यू विल नॉट सी बाफला इन योर मील्‍स सर ।' उइके साहब ने पूछा - 'श्‍योर ?' खातरी दिलाते हुए मुदलियार साहब बोले - 'डेड श्‍योर सर । ऑफ्टर ऑल दिस इज क्‍वेश्‍चन ऑफ माई सर्विस सर ।' और कह कर, पीठ फेर कर, बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए, अपनी जीप में जा बैठे ।

उसके बाद कैसे, क्‍या हुआ - ये सारी बातें बरसों तक मन्‍दसौर जिले में लोक कथाओं की तरह कही-सुनी जाती रहीं । उइके साहब के शेष जनसम्‍पर्क में उनके भोजन के लिए चांवल और केरी का पना स्‍थायी व्‍यंजन बने रहे । लेकिन बाफले तो मालवा का अविभाज्‍य, अपरिहार्य बल्कि मालवा को पूर्णता प्रदान करने वाला व्‍यंजन है, सो जनसम्‍पर्क के दौरान, कई गांवों में उइके साहब को बाफलों की मनुहार का सामना करना पडा । जैसे ही उनके सामने बाफला परोसने वाला आता, वे लगभग दुत्‍कारते हुए कहते - 'अरे ! हिश्‍ट । हटाओ इन बम के गोलों को मेरे सामने से ।' इसी बीच मुदलियार साहब तेजी से वहां पहुंचते, बाफला परोसने वाले को भगाते और हंसते हुए 'सॉरी सर ! सॉरी सर !!' कहते-कहते उइके साहब के सामने ही खडे हो जाते ताकि बाफला परोसने वाला कोई दूसरा आदमी वहां न आ जाए । उइके साहब भी मन्‍द-मन्‍द मुस्‍कुराते और कहते -'जाओ मुदलियार ! तुम भी खाना खा लो ।' मुदलियार साहब गम्‍भीरता ओढ कर कहते - 'नो सर ! ऑफ्टर ऑल इट इज क्‍वेश्‍चन ऑफ माई सर्विस । आई डोण्‍ट वाण्‍ट टू बी टर्मिनेटेड एण्‍ड देट इज टू जस्‍ट बिकाज ऑफ बाफलाज !'


और इस तरह, उइके साहब का शेष जनसम्‍पर्क दौरा बिना बाफला के, शान्तिपूर्वक सम्‍पन्‍न हो गया । अब आप ही तय कीजिए कि किसका भाग्‍य अच्‍छा था - बाफले का या कलेक्‍टर का ?

हथियार भी है मालवी बाफला

मालवा के स्‍वादि‍ष्‍ट व्‍यंजन 'बाफला' की प्रारम्भिक जानकारी आपने चिपलूनकरजी के चिट्ठे से हासिल कर ली होगी । बाफला बनाने का जो तरीका उन्‍होंने बताया है, वह 'सर्वहारा' का सामान्‍य तरीका है । वर्ना इस क्षेत्र में भी 'विशेषज्ञ' मौजूद हैं जो तरह-तरह से, तरह-तरह के बाफले बना कर आपको अपना मुरीद बना लेंगे । लेकिन इन 'तरह-तरह' के बाफलों में एक विश्‍व व्‍यापी समानता यह है कि अन्तिम प्रभाव सबका एक जैसा ही होता है । बाफले का एकमेव, अन्तिम और अपरिहार्य प्रभाव होता है - इसे खाने के बाद आप लाख चाहें तो भी काम नहीं कर पाते । इसे खाने के बाद आपको आराम करना ही करना है ।बाफले के इस प्रभाव का 'उपयोग' अपने पक्ष में कोई कैसे कर सकता है और इसके उपयोग से कोई खुद को किस तरह से परेशान कर सकता है, इसके दो 'अनुपम' संस्‍मरण मेरे पास हैं । यकीनन, इनका जायका बाफलों के सामने कुछ भी नहीं है लेकिन इतना बुरा और इतना कम भी नहीं है कि आपको मजा ही न आए ।



लखनऊ निवासी, हिन्‍दी के ख्‍यात समीक्षक-आलोचक श्री राजनारायण बिसारिया, कोई सैंतीस-अडतीस बरस पहले बाफला-प्रभावित हुए थे, यह खुद बिसारियाजी, अब तक भी नहीं जानते होंगे । यह बात सम्‍भवत: सन् 1969 की है । 1967 में बनी, मध्‍य प्रदेश की संविद (संयुक्‍त विधायक दल) सरकार का पतन होने के बाद, पण्डित श्‍यामाचरण शुक्‍ल के नेतृत्‍व में कांग्रेस सरकार बनी थी । घोषित प्रतिकूल गुटीय निष्‍ठा के बावजूद उन्‍होंने श्री बालकवि बैरागी को राज्‍य मन्‍त्री के रूप में अपने मन्त्रि मण्‍डल में शामिल किया था । किसी साहित्‍यकार को मन्‍त्री बनाए जाने से तब, साहित्‍यकारों की जमात में अपेक्षित प्रसन्‍नता व्‍याप्‍त थी । बैरागीजी के बंगले पर साहित्‍यकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जमावडा बराबर बना रहता था ।


इसी क्रम में एक दिन सवेरे-सवेरे, श्री राजनारायण बिसारिया लखनऊ से चलकर भोपाल पहुंचे । अपने मित्र से मिल कर बधाई और शुभ-कामनाएं देना उनका एकमात्र 'पाक मकसद' था, इसके सिवाय उन्‍हें भोपाल में और कोई काम नहीं था । ऐसे 'निश्‍छल आगमन' से बैरागीजी पुलकित, मुदित हो गए ।


नित्‍यकर्म से मुक्‍त होकर दोनों मित्र बतियाने बैठे । बातों का सिलसिला शुरू हुआ ही था कि बैरागीजी के निजी सचिव (पी ए) निरखेजी ने फोन पर सूचना दी कि मुख्‍यमन्‍त्रीजी ने दोपहर में, मन्त्रि मण्‍डल की आवश्‍यक बैठक बुलाई है । बैरागीजी असहज हो गए । विवेक पर आत्‍मा भारी पडने लगी थी । बिसारियाजी को छोड नहीं सकते और मन्त्रि मण्‍डल की बैठक से तडी मारने की तो कल्‍पना भी नहीं की जा सकती थी । बडा धरम संकट खडा हो गया था और दोनों धरम निभाना जरूरी था । 'क्‍या करें, क्‍या न करें' के उहापोह में फंसे बैरागीजी को 'संकटमोचक' के रूप में 'बाफला' याद हो आया । उन्‍होंने बिसारियाजी के आतिथ्‍य को मालवा की विशिष्‍टता का स्‍पर्श देते हुए, भोजन में 'दाल-बाफला' बनाने का निर्देश दिया ।


इधर दोनों मित्र बतियाते रहे और उधर बाफले बनते रहे । बीच-बीच में बैरागीजी अपना 'राज-काज' भी निपटाते रहे । थोडी ही देर में भोजन का बुलावा आया । बिसारियाजी ने इससे पहले बाफला देखा भी नहीं था तो चखने का तो सवाल ही नहीं उठता । बैरागीजी ने अपनी साहित्यिकता का सम्‍पूर्ण उपयोग करते हुए बाफला की खासियतों को बखान कुछ इस तरह से किया कि बिसारियाजी के दिल-दिमाग पर बाफला पूरी तरह काबिज हो गया । जिसने कभी बाफला खाया होगा वह भली प्रकार जानता होगा कि इसका स्‍वाद, आदमी को लगभग अनियन्त्रित कर देता है । फिर, बैरागीजी द्वारा की जा रही मनुहार पर मनुहार और लखनवी मिजाज के बिसारियाजी मनुहार के कच्‍चे । सो,बिसारियाजी को पता ही नहीं चला कि वे अपनी आवश्‍यकता से कुछ अधिक ही खा बैठे हैं ।


भोजन से निवृत्‍त हुए तो बिसारियाजी के होठों पर बाफलों के कसीदे छाए हुए थे । वे इसे अपने अब तक के जीवन का आनन्‍ददायी और अविस्‍मरणीय 'भोजन-अनुभव' बता रहे थे । बीस-पचीस मिनिट भी नहीं बीते थे कि बाफला-प्रभाव रंग जमाने लगा । बिसारियाजी को यकायक ही तेज प्‍यास लग आई । उन्‍होंने एक ही सांस में डेड ग्‍लास पानी पी लिया । लगा कि प्‍यास बुझ गई है । लेकिन थोडी ही देर में फिर प्‍यास लग आई । फिर पानी पिया । कुछ मिनिट और बीते होंगे कि बिसारियाजी की पलकें भारी होने लगीं । बैरागीजी से बात करते-करते उनकी पलकें मुंदने लगीं और कुछ ही पलों में नींद के आगोश में चले गए ।


बैरागीजी को पहले से न केवल यह सब पता बल्कि यह सब तो उन्‍हीं का किया कराया था । बिसारियाजी को नींद आते ही बैरागीजी उठ खडे हुए, बिसारियाजी के पास ग्‍लास और ठण्‍डे पानी का जग रखने का निर्देश सेवकों को दिया, कपडे बदले और मन्त्रि मण्‍डल की बैठक में भाग लेने के लिए चल दिए ।


कोई दो ढाई घण्‍टे बाद बैरागीजी लौटे तो बिसारियाजी की नींद खुली ही थी । वे आंखें मलते हुए, जम्‍हाइयां ले रहे थे और विस्मित भाव से परेशान हो रहे थे कि यह सब क्‍या हो गया, उन्‍हें असमय नींद क्‍यों और कैसे आ गई । अपने पास रखे जग में से ग्‍लास में पानी उंडेलते हुए वे इस अपराध बोध से भी ग्रस्‍त हो रहे थे कि बेचारे बैरागीजी तो अपना सारा काम-काज छोड कर उनके पास बैठे थे और वे थे कि सो गए । लखनवी मिजाज उनके अपराध बोध को और भारी किए जा रहे था । उन्‍होंने अत्‍यधिक संकोच के साथ बैरागीजी से क्षमा याचना की । 'मित्रों के बीच कैसी औपचारिकता और कैसी क्षमा याचना' वाली मुद्रा में बैरागीजी ने बिसारियाजी को इस नैतिक संकट से उबारा और बताया कि बिसारियाजी को सोता देख, वे भी अपनी एक मीटिंग निपटा आए हैं । बिसारियाजी ने इस बात का शुक्र मनाया और खुद को यह कह कर तसल्‍ली दी कि उनका 'अनपेक्षित और आकस्मिक शयन' बैरागीजी को मुफीद हो गया वर्ना उन्‍हें इस बात का मलाल आजीवन रहता कि उनके कारण बैरागीजी को अपना जरूरी काम छोडना पडा था ।


वातावरण पूरी तरह सामान्‍य हो चुका था और दोनों मित्र एक बार फिर सहजता और आत्‍मीयता से बतिया रहे थे । फर्क इतना ही था कि एक जानता था जो हुआ वह क्‍या और क्‍यों हुआ था और दूसरा इस सबसे अनजान था ।


यह वाकया तो सहज रहा । लेकिन बाफला प्रभाव का दूसरा वाकया थोडा सा दूसरा रंग लिए हुए है । इसके 'बाफला प्रभावित नायक' थे (अब स्‍वर्गीय) श्री बसन्‍तरावजी उइके । वे उन दिनों मध्‍य प्रदेश के शिक्षा मन्‍त्री थे । उनके साथ बाफला ने क्‍या हरकत की - यह जल्‍दी ही देखेंगे, हम लोग ।

'अक्षर' के आगे नतमस्‍तक 'राज दण्‍ड'

आज की सुबह आंखों को ठण्‍डक और मन को तसल्‍ली देने वाली हुई है । 'नईदुनिया' के अन्तिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित एक चित्र ने मानो 'मंगल प्रभाती' की प्रस्‍तुति दी है ।




इस चित्र में, दिल्‍ली की मुख्‍यमन्‍त्री श्रीमती शीला दीक्षित, शब्‍द पुरुष, कवि त्रिलोचन को प्रणाम कर रही हैं । चित्र गाजियाबाद का है । याने मुख्‍यमन्‍त्री, कवि के निवास पर पहुंच कर उन्‍हें प्रणाम कर रही हैं । मुख्‍यमन्‍त्री के मन में क्‍या है, यह तो चित्र से जान पाना असम्‍भ्‍व प्राय: ही है, लेकिन जिस तरह लगभग दोहरी होकर, नेत्र बन्‍द कर वे प्रणाम कर रही हैं उससे प्रथम दृष्‍टया अनुभव होता है कि वे अन्‍तर्मन से ही यह सब कर रही हैं । यदि यह वास्‍तविकता है तो इससे बढिया बात और क्‍या हो सकती है ? यदि यह दिखावा है तो भी बुरा नहीं है ।




चित्र में, कवि त्रिलोचन के पीठ-कन्‍धों पर, बादामी किनारी वाली सफेद शाल दिखाई दे रही है । लगता है कि प्रणाम करने से पहले मुख्‍यमन्‍त्री ने शाल ओढाई है । प्रत्‍युत्‍तर में कवि त्रिलोचन भी अपनी गरिमानुरूप, माथा झुका कर, दोनों हाथ जोड कर अभिवादन कर रहे हैं । उनके नेत्र भी बन्‍द हैं ।




'अक्षर' से विमुख होते जा रहे इस समय में यह चित्र मन को बडी तसल्‍ली दे रहा है । राजनीति के लिए साहित्‍य तभी आवश्‍यक होता है जब वह उसके लिए 'लाभदायक' या 'विवशता' हो । वर्ना, 'राज दण्‍ड' तो 'शब्‍द' को 'क्रीत दास' से अधिक की हैसियत देने को कभी तैयार नहीं होता । मैं यह गुंजाइश रख कर चल रहा हूं कि शीला दीक्षित भी 'शब्‍द' के प्रति अनुरागवश, कवि त्रिलोचन के निवास पर नहीं पहुंची होंगी । वे किसी सरकारी औपचारिकता की पू‍र्ति करने की विवशता के अधीन ही वहां पहुंची होंगी । किन्‍तु फिर भी यह चित्र मन को सुकून दे रहा है, उम्‍मीदें जगा रहा है । 'सत्‍ता' सदैव इसी मुद्रा में दिखती रहे - यह कामना मन में ठाठें मार रही हैं ।




'नईदुनिया' हमारे इलाके का वह अग्रणी अखबार है जो ऐसे प्रसंगों को प्रमुखता से छापता रहता है । इसे 'पत्रकारिता का मदरसा' कहा जाता है । लेकिन उपभोक्‍तावाद के इस विकट समय में यह भी अछूता नहीं रह पा रहा है । शायद इसी कारण, यह चित्र अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह पा सका है । वर्ना होना तो यह चाहिए था कि इसे मुख पृष्‍ठ पर जगह मिलती क्‍यों कि 'अखबार' भी अन्‍तत: 'अक्षर तनय' ही है । लेकिन खराबी में अच्‍छाई देखने की अपनी आदत के कारण मैं इस स्थिति में भी प्रसन्‍न हूं । आज अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह मिली है, कल मुख पृष्‍ठ पर मिलेगी ।




अपने तकनीकी अज्ञान के कारण मैं यह चित्र यहां प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहा हूं । क्षमा प्रार्थी हूं । लेकिन उम्‍मीद करता हूं कि गाजियाबाद से सैंकडों मील दूर, इन्‍दौर के अखबार ने जब इसे छापा है तो देश के अन्‍य अखबारों ने भी इसे छापा ही होगा ।




'साहित्‍य' के आगे नतमस्‍तक 'राजनीति', हमारे समाज का सर्वकालिक स्‍थायी भाव हो ।