रतलाम में अतिथि 'रतलामी'

यह शनिवार 7 फरवरी की दोपहर की बात है। अनुजवत् प्रिय (प्रो) संजय वाते और (प्रो) अभय पाठक के साथ मैं कला एवम् वाणिज्य महाविद्यालय में लगी, रंगकार आलोक भावसार की एकल चित्र प्रदर्शनी देख रहा था। ‘नारी सशक्तिकरण’ पर केन्द्रित, दो दिवसीय सेमीनार के प्रसंग पर यह प्रदर्शनी आयोजित थी। प्रदर्शित चित्र, चित्र नहीं थे। स्केच थे और जलरंग से पूरित थे। पहली ही नजर में अनुभव होता था कि कलाकार और कूची के बीच न केवल दीर्घावधि के सम्बन्ध हैं अपितु परस्पर परिपक्व समझ भी है। कलाकार से मिलने का जी किया। अता-पता पूछा तो पाठकजी ने जो पता बताया तो मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला - 'आप तो रविजी (मेरे ‘उस्ताद‘ श्री रवि रतलामी) का पता बता रहे हैं!' पाठकजी ने पुष्टि की। मन ही मन तय किया कि आलोकजी से पूर्व सम्पर्क कर, मिलने का समय तय करूँगा।

लौटते में रास्ते में ही था कि मोबाइल घनघनाया। पर्दे पर 'रवि रतलामी' उभर रहा था। गाड़ी रोक कर (चलती गाड़ी पर मोबाइल पर बात करने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ) बात की। लेकिन बात केवल बात करने तक ही सीमित नहीं रही। मुझे तो बात के साथ ‘मुलाकात’ का बोनस भी मिल रहा था। रविजी बता रहे थे कि वे रतलाम में ही हैं। मैंने मेरे घर आने का न्यौता दिया तो बोले - ‘आप ही इधर आ जाएँ तो अच्छा रहेगा।’ मैं ने कहा -‘मैं आपका शोषण करना चाहता हूँ इसलिए मेरे घर बुला रहा हूँ।’ वे बोले - ‘यहीं कर लीजिएगा।’ मैं उन्हें मेरे घर में देखना चाहता था। सो कहा -'मुझे मेरे ब्लाग में काफी कुछ जुड़वाना है, सुधार करवाना है। आप जहाँ हैं वहाँ इण्टरनेट सुविधा नहीं होगी।' रविजी ठठाकर बोले - 'जाल में लिपटा हुआ ही रतलाम पहुँचा हूँ। सारी व्यवस्था साथ ही है। आप तो अपना लेप टाप लेकर आ जाईए।' उन्होंने मुझे ‘बेबहाना’ कर दिया।

अपने लेप टाप के साथ कोई सवा दो बजे मैं उनके पास पहुँचा। वे अपने मित्र सारस्वतजी के यहाँ ठहरे थे। सारस्वतजी, रतलाम के उत्कृष्ट विद्यालय में व्याख्याता हैं। रविजी को रतलाम में देखकर आत्मीय प्रसन्नता तो हुई किन्तु 'रतलामी' को रतलाम में अतिथि की दशा में देखकर तनिक असामान्य और असहज अनुभूति ही हुई। (उन्हें अब 'इसी तरह' देखने की आदत मुझे डालनी होगी। वे ऐसे ‘रतलामी’ हैं जो अब भोपाल में पाए जाने लगे हैं।)

‘कुशल क्षेम का शिष्टाचार’ शुरु करने से पहले ही समाप्त कर दिया उन्होंने। हाँ, यह अवश्य बताया कि रतलाम आने का उनका कोई कार्यक्रम नहीं था किन्तु रेखाजी को सेमीनार में आना था सो ‘वे’ ‘उन्हें’ भी साथ ले आईं।

मैं कुछ ‘बतियाना’ शुरु करता उससे पहले ही वे सीधे ‘कामकाज’ की बात पर आ गए। मेरे दूसरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ में आ रही कठिनाइयों के बारे में पूछा। मेरा यह ब्लाग चैबीस घण्टे पीछे चल रहा था, उसमें लेबल नहीं आ रहे थे और ब्लाग खोलने पर केवल नवीनतम पोस्ट ही नहीं, सारी पोस्टें एक साथ सामने आ रही थीं। मैं अपने दोनों ब्लागों पर 'ब्लागवाणी' प्रदर्शित करना चाह रहा था किन्तु ‘तकनीकी ज्ञान-शून्य’ होने के काकरण नहीं कर पा रहा था। रविजी बोले -‘चलिए, देखते हैं कि क्या कुछ किया जा सकता है।’ मैं अपना लेप टाप खोलने लगा तो बोले - ‘रहने दीजिए। मेरे लेप टाप पर ही कर लेते हैं।’ और रविजी शुरु हो गए।

मेरी उपस्थिति का नोटिस उन्होंने तभी लिया जब उन्हें मुझसे कुछ पूछना होता था। वर्ना, वे मेरी उपस्थिति से बेखबर हो, काम में लग गए थे।जल्दी ही उन्होंने ‘सब कुछ’ ठीक कर दिया। मेरा 'मित्र-धन' अब वर्तमान से कदम मिला रहा था। लेबल नजर आने लगे थे, केवल नवीनतम पोस्ट का (केवल एक) पन्ना खुल रहा था और मेरे दोनों ब्लागों पर 'ब्लागवाणी' सज चुका था। एक ही रचनाकार के लिए अलग-अलग लेबल नजर आने पर उन्होंने बताया कि मैं ने हर बार अलग-अलग वर्तनी में इबारत लिखी सो लेबल अलग-अलग नजर आ रहे हैं। उन्होंने मुझे लेबल लगाना भी सिखाया।

मुझे लगा कि मेरा स्वार्थ सध चुका, सो मैं ‘एट ईज’ होने लगा तो बोले -''आपके पास कृतिदेव परिवर्तक का पुराना वर्जन है जिसमें ‘श’ और ‘ष’ आपको ठीक करने पड़ते होंगे। अब नया वर्जन आ गया है।'' कहते-कहते उन्होंने यह नया वर्जन मेरे लेप टाप पर लोड कर दिया।

इतना सब करने के बाद रविजी ने साँस ली और मुझसे मुखातिब हुए। मैं उन्हें धन्यवाद देने लगा तो, अपने स्थापित स्वभाव और चरित्र की रक्षा करते हुए असहज और खिन्न हो गए। बोले - ‘आप ये धन्यवाद, वन्यवाद देना बन्द कीजिए। मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं ने किया ही क्या है?’

ब्लाग विधा और ब्लाग अखाड़े की बातें शुरु हुईं। कुछ भी बोलकर मैं अपना नुकसान ही करता। सो, प्रायः चुप ही रहा। उन्हें सुनता रहा। उतना ही बोला जो उन्हें और बोलने के लिए सहायक हो। ‘ब्लाग’ और इसके भविष्‍य को लेकर उनका विश्वास, उत्साह और मुग्धता अवर्णनीय है। बच्चे भी शर्मा जाएँ।

तभी रेखाजी आ गईं। वे सेमीनार में मिलने वालों के नाम और उनसे हुई चर्चा के अंश प्रस्तुत करने लगीं। अचानक ही पूछ बैठीं - ‘आप लोगों ने पानी-वानी पिया कि नहीं?’ रविजी बोले -‘ वह तो हो गया। चाय मिल जाती तो अच्छा होता।’ सुनते ही रेखाजी मेजबान बन गईं और थोड़ी ही देर में चाय के प्याले हम तीनों के हाथ में थे।

मेरा एक कर्जा इन दोनों के माथे चढ़ा हुआ है। मैं ने अनुरोध किया कि आज शाम वे मेरा यही कर्ज चुका कर मेरी वसूली करवा दें। रविजी ने, शाम की व्यस्तता की लम्बी सूची प्रस्तुत कर दी। मुझे निराश होते देखकर रेखाजी बोलीं -‘आप भोपाल आकर ब्याज सहित अपना कर्ज वसूल कर लें।’ पति-पत्नी की इस जुगलबन्दी ने मेरी आशा पर तुषारापात कर दिया। रतलाम में होते हुए तो मेरा कर्जा नहीं चुका रहे हैं और ‘उधार लेने में माहिर पेशेवर’ की तरह व्यवहार कर, भोपाल आकर वसूली का ‘आफर’ दे रहे हैं! ‘गुरु’ और ‘गुरु-माता’ के सामने ऐसे में मेरी बोलती बन्द ही होनी थी।

तभी मेरी श्रीमतीजी का फोन आया। वे मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं। तय हुआ था कि शाम साढ़े चार बजे मैं उनके स्कूल पहुँचूँगा जहाँ से हम दोनों चाँदनी चैक जाएँगे। दो विवाहों में वधुओं को भेंट देने के लिए उन्हें पायजेबें खरीदनी थीं। उनका फोन आने पर मालूम हुआ कि साढ़े चार बज चुके हैं। सवा दो घण्टे तो एक पल में ही बीत गए। रविजी याद रहे, बाकी सब भूल गया। रविजी में ही गुम हो गया। किन्तु तत्काल नहीं निकलता तो ‘गृहस्थी’ पर संकट आने का खतरा था। सो, रविजी और रेखाजी से क्षमा-याचना करते हुए, विदा ली।

मेरा कैमरा मेरी जेब में ही था। बार-बार जी कर रहा था कि कुछ तस्वीरें ले लूँ। किन्तु रविजी के अन्तर्मुखी स्वभाव और उनके खिन्न हो जाने के भय से अपने मन की नहीं कर सका। लेकिन यह पोस्ट लिखते समय अनुभव हो रहा है कि मैं ने ‘वह अशिष्टता’ कर लेनी चाहिए थी। अगली बार कर ही लूँगा। रविजी को बुरा लगे तो लगे। (वैसे भी, यह सब पढ़कर वे भी तो मेरी भावी अशिष्टता के लिए मानसिक रूप उसे तैयार होंगे ही।)

मैं लौट तो आया किन्तु अकेला नहीं था। क्या कुछ और कितना कुछ मेरे साथ था, यह बता पाना सम्भव नहीं। हाँ, मन में जो आ रहा था, वह कुछ इस प्रकार था-

भोपाली हो गए रतलामी,

बनकर मेहमान आए रतलाम।

था तो मेरा

किन्तु समझा अपना

और

कर गए सारा काम।

एक बार नहीं रविजी!

आपको बार-बार सलाम।
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इस ब्लाग पर, प्रत्येक गुरुवार को, जीवन बीमा से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। (इस स्थिति के अपवाद सम्भव हैं।) आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने का यथा सम्भव प्रयास करूँगा। अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। यह सुविधा पूर्णतः निःशुल्क है।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

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लेप्स पालिसियो के पुनर्चलन का विशेष अभियान

वे समस्त सज्जन इस पोस्ट को ध्यान से पढ़ने के लिए तनिक समय निकाल लें जो भारतीय जीवन बीमा निगम के पालिसीधारक हैं और जिनकी पालिसी/पालिसियाँ बन्द (लेप्स) है/हैं, और जो अपनी पालिसी/पालिसियाँ चालू करवा कर बीमा सुरक्षा पुनः प्राप्त करने को उत्सुक हैं।

लेप्स पालिसियों को चालू कराने के लिए भा.जी.बी.नि. ने विशेष अभियान चलाया है जो 28 फरवरी को समाप्त हो जाएगा। इस अभियान के अन्तर्गत वे सभी पालिसियाँ पुनर्चलित (चालू) की जा सकेंगी जो अपनी पहली बकाया किश्त के दिनांक से सात साल की अवधि पार नहीं हुई हो और जो पेड वेल्यू अर्जित कर चुकी हों।

इस अभियान के अन्तर्गत, पालिसियों के पुनर्चलन के लिए दो स्तरों पर निम्नांकित विशेष, आकर्षक और उल्लेखनीय सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं-

पहली - बकाया किश्तों की रकम पर लगने वाले ब्याज की रकम पर 20 प्रतिशत की छूट दी जा रही है। इस छूट की रकम की अधिकतम सीमा 10,000/- रुपये है।

यह छूट पूरी पालिसी अवधि में अधिकतम दो बार दी जाती है किन्‍‍तु तकनीकी कारणों से उपजी स्थिति के कारण यह सुविधा इस समय प्रत्‍‍येक पालिसी में उपलब्ध है, भले ही यह सुविधा दो बार पहले भी ली जा चुकी हो।

दूसरी - सामान्य स्थितियों में, पालिसियों के पुनर्चलन के समय माँगे जाने वाले, विभिन्न चिकित्सा परीक्षण न कराने की छूट, पुरुषों और महिलाओ को समान रूप से दी गई है।

इस छूट के अन्तर्गत -

(अ) 50 से 55 वर्ष के आयु समूह के पालिसीधारकों को 3,00,000/- रुपये बीमा धन तक

(ब) 56 से 60 वर्ष के आयु समूह के पालिसीधारकों को 1,00,000/- रुपये बीमा धन तक की पालिसियों को चालू कराने के लिए विशेष चिकित्सा परीक्षणों (यथा ई.सी.जी., फास्टिंग ब्लड शुगर आदि) से मुक्त कर दिया गया है और ऐसे पालिसीधारकों से केवल ‘स्वास्थ्य सम्बन्धी घोषणा-पत्र’ (अर्थात् डी.जी.एच. अर्थात् डिक्लेरेशन आफ गुड हेल्थ) लेकर पालिसियाँ पुनर्चलित कर दी जाएँगी।

किन्तु निम्नांकित पालिसियों पर, विशेष स्वास्थ्य परीक्षणों वाली यह छूट लागू नहीं होगी -

1. जीवन साथी (तालिका 89)

2. बीमा सन्देश (तालिका 94)

3. अनमोल जीवन और अनमोल जीवन-1 (तालिका 153 तथा 164)

4. जीवन श्री (तालिका 112)

5. जीवन मित्र (तालिका 88 तथा 133)

6. बीमा किरण (तालिका 111)

7. अमूल्य जीवन तथा अमूल्य जीवन-1 (तालिका 177 तथा 190)

8. आशा दीप तथा आशा दीप-1 ( तालिका 110 तथा 121)

9. जीवन आशा (तालिका 131)

विशेष चिकित्सा परीक्षणों से छूट की सुविधा, पुनर्चलन के लिए प्रस्तुत पालिसी/पालिसियों के सकल बीमा धन के आधार पर उपलब्ध कराई गई है। अर्थात् - यदि, 50 से 55 वर्ष के आयु वर्ग के किसी पालिसीधारक की, पुनर्चलित की जा रही बीमा पालिसी/पालिसियों का सकल बीमा धन तीन लाख रुपयों से अधिक है तो उसे, इस छूट की सुविधा उपलब्ध नहीं हो सकेगी। उस दशा में उसे, पुनर्चलित की जा रही अपनी पालिसी/पालिसियों के सकल बीमा धन के आधार लगने वाले समस्त विशेष चिकित्सा परीक्षण करवा कर उनकी रिपोर्टें प्रस्तुत करनी पड़ेंगी।

इसे और अधिक स्पष्ट कर रहा हूँ-उपरोक्त उदाहरण वाले प्रकरण में यदि सकल बीमा धन चार लाख रुपये है तो उसे, चार लाख रुपये बीमा धन के लिए आवश्यक, समस्त विशेष चिकित्सा परीक्षण कराने पडेंगे। अन्यथा, ऐसे मामलों में लोग स्वतः ही धारणा बना लेते हैं कि तीन लाख रुपये बीमा धन की छूट के बाद, केवल एक लाख रुपये बीमा धन के लिए लगने वाले विशेष चिकित्सा परीक्षण कराए जाने चाहिए। कृपया ऐसी धारणा बनाने से बचें।

ब्याज की छूट वाली बात को दुहरा रहा हूँ - ब्याज की रकम में 20 प्रतिशत की छूट उपलब्ध कराई गई है। छूट की रकम की अधिकतम सीमा 10,000/- रुपये है और यह सुविधा समस्त पालिसियों में समान रूप से उपलब्ध है।

50 वर्ष की आयु के बाद बीमा कराने पर, बीमा धन के आधार पर कई विशेष चिकित्सा परीक्षण कराने पड़ते हैं और यदि उनके निष्कर्ष प्रतिकूल आते हैं तो या तो बीमा मिलता ही नहीं है या फिर अतिरिक्त प्रीमीयम के साथ (अर्थात् सामान्य से अधिक प्रीमीयम दर पर) मिलता है।

इस दृष्टि से, विशेष स्वास्थ्य परीक्षण कराए बिना, अपनी लेप्स पालिसी को चालू कराने का यह सुन्दर अवसर है। मेरे विचार से समस्‍त सम्बन्धितों को इसका लाभ उठाना ही चाहिए।

यदि आपका एजेण्‍ट 'अन्‍तर्ध्‍यान' हो गया है तो भी चिन्ता न करें और सीधे ही, अपनी पालिसी वाले शाखा कार्यालय से सम्पर्क करें। वहाँ आपको समुचित सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।

पालिसी लेप्स होने से सर्वाधिक घाटा (आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से और बीमा सुरक्षा न मिलने के रूप से भी) ग्राहक को ही होता है। अधिकांश लोग आलस्यवश अथवा अपने एतेण्‍‍‍ट से खिन्न/क्षुब्ध होकर अपनी पालिसी चालू नहीं कराते हैं। यह आत्मघाती मानसिकता है। यदि दुर्योगवश आप भी इसी मानसिकता में हैं तो कृपया इससे तत्‍‍‍‍क्षण उबरें और अपनी पालिसी अविलम्ब चालू करा लें। इसी में समझदारी भी है और फायदा भी।

पूर्वानुसार ही कृपया ध्यान दीजिएगा - ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, भारतीय जीवन बीमा निगम के नहीं।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

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बीमा किश्‍त भुगतान की विधियाँ

‘भुगतान विधियाँ’ से यहाँ तात्पर्य है, किश्‍त भुगतान करने में उपलब्ध अन्तराल सुविधा।


किन्तु इससे पहले यह जानना रोचक होगा कि भुगतान के लिए विभिन्न अन्तरालों की सुविधा भले ही उपलब्ध कराई जाए, किश्‍त का दायित्व वार्षिक आधार पर ही निर्धारित होता है। इस बात को विस्तार से आगे समझा जा सकेगा।

यहाँ उपलब्ध कराई गई सारी जानकारियाँ, भारतीय जीवन बीमा निगम के सन्दर्भ में हैं-यह याद रखिएगा। और यह भी याद रखने की कृपा कीजिएगा कि यहाँ प्रस्तुत विचार और मन्तव्य पूर्णतः मेरे निजी हैं, भारतीय जीवन बीमा निगम के नहीं।

किश्‍त भुगतान के लिए वार्षिक, अर्ध्‍द वार्षिक, तिमाही, मासिक, वेतन बचत योजना के अन्तर्गत मासिक अन्तराल वाली भुगतान विधियाँ प्रचलन में हैं।

वार्षिक - इस भुगतान विधि के अन्तर्गत ग्राहक वर्ष में एक बार अपनी किश्‍त चुकाता है। वार्षिक किश्‍त चुकाने पर बीमा कम्पनी अपने ग्राहक को मूल प्रीमीयम दर पर तीन प्रतिशत की छूट देती है। (कुछ पालिसियों में यह छूट 1.5 प्रतिशत है। ऐसी पालिसियों में अर्ध्‍द वार्षिक भुगतान विधि मे कोई छूट नहीं है।)

अर्ध्‍द वार्षिक - इस भुगतान विधि के अन्तर्गत ग्राहक अपनी बीमा किश्‍त 6-6 महीनों के अन्तराल से वर्ष में दो बार जमा कराता है। इस विधि से किश्‍त भुगतान करने वाले ग्राहक को बीमा कम्पनी मूल प्रीमीयम दर पर 1.5 प्रतिशत की छूट देती है।

तिमाही - इस भुगतान विधि के अन्तर्गत ग्राहक अपनी बीमा किश्‍त 3-3 महीनों के अन्तराल से वर्ष में चार बार जमा कराता है। इस भुगतान विधि पर बीमा कम्पनी ग्राहक को मूल प्रीमीयम दर पर कोई छूट नहीं देती है।

मासिक - इस भुगतान विधि में ग्राहक अपनी बीमा किश्‍त प्रति माह (वर्ष में 12 बार) जमा कराता है। इस विधि से भुगतान करने वाले ग्राहक से बीमा कम्पनी, मूल प्रीमीयम दर पर 5 प्रतिशत अतिरिक्त रकम वसूल करती है।

वेतन बचत योजना - इस विधि के अन्तर्गत किश्‍त भुगतान की सुविधा वेतन भोगी ग्राहकों को ही उपलब्ध होती है। अधिकांश संस्थान/विभाग अपने कर्मचारियो के लिए यह सुविधा उपलब्ध कराती हैं। इस हेतु संस्थान/विभाग और बीमा कम्पनी के बीच एक लिखित अनुबन्ध सम्पादित होता जिसमें संस्थान/विभाग, अपने कर्मचारियों के वेतन से प्रति माह बीमा किश्‍त की कटौती कर बीमा कम्पनी को भेजने का वचन देता है। यह कटौती उसी कर्मचारी के वेतन से होती है जो ऐसी कटौती के लिए अपने नियोक्ता से लिखित अनुरोध करता है।

इस विधि के अन्तर्गत ग्राहक यद्यपि मासिक अन्तराल पर किश्‍त भुगतान करता है किन्तु ग्राहक से कोई अतिरिक्त प्रीमीयम नहीं ली जाती, जैसी कि ‘मासिक भुगतान विधि’ में ली जाती है।

निम्नांकित उदाहरण से बात अधिक स्पष्‍ट हो जाएगी -

26 वर्षीय व्यक्ति यदि 1,00,000 रुपये बीमा धन की, 20 वर्षीय धन वापसी योजना (तालिका 75 वाली मनी बेक पालिसी) लेता है तो उसकी विभिन्न भुगतान विधियों वाली किश्‍तों की रकम इस प्रकार होगी -

वार्षिक - रुपये 6,387/-

अर्ध्‍द वार्षिक - रुपये 3,243/- (अर्थात् रुपये 6,486/- प्रति वर्ष)

तिमाही - रुपये 1,646/- (अर्थात् रुपये 6,584/- प्रति वर्ष)

मासिक - रुपये 576/- (अर्थात् रुपये 6,912/- प्रति वर्ष)

वेतन बचत योजना - रुपये 549/- (अर्थात् रुपये 6,588/- प्रति वर्’ा)

उपरोक्त उदाहरण से स्पष्‍ट है कि किश्‍त भुगतान विधि में अन्तराल जितना कम होता है, किश्‍त की रकम बढ़ती जाती है।

वेतन बचत योजना और तिमाही विधि से भुगतान करने पर वार्षिक रकम में कोई विशेष अन्तर नहीं आता। इसका कारण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।

वार्षिक विधि से भुगतान करने वाले ग्रहकों को बीमा कम्पनी पर खर्च और श्रम कम करना पड़ता है। उसके लिए वर्ष में एक सूचना पत्र भेजा जाता है, एक रसीद जारी करनी पड़ती है, सम्बन्धित कर्मचारी का समय वर्ष में एक ही बार लगता है, खाता संधारण में भी समय और श्रम की बचत होती है।

अर्ध्‍द वार्षिक विधि से भुगतान करने वाले ग्राहक के लिए बीमा कम्पनी को यह सब कुछ दुगुना, तिमाही विधि से भुगतान करने वाले ग्राहकों के लिए चार गुना और मासिक भुगतान विधि वालों के लिए बारह गुना करना पड़ता है।

वेतन बचत योजानान्तर्गत भुगतान करने वाले ग्राहकों को कोई अन्तर न पड़ने का कारण बहुत ही सीधा-सादा है। इस योजानन्तर्गत बीमा कम्पनी को एक ही चेक से कई ग्राहकों की किश्‍त प्राप्त होती है। ऐसे भुगतान के लिए बीमा कम्पनी को कोई सूचना पत्र नहीं भेजना पड़ता और प्रत्येक ग्राहक की अलग-अलग रसीद जारी नहीं करनी पड़ती। खाता संधारण पर होने वाला श्रम और लगने वाला समय यद्यपि तनिक भी कम नहीं होता तदपि इस योजना से मिलने वाली सुविधा के कारण कर्मचारी बीमा कराने को सहजता से तैयार हो जाते हैं क्यों कि किश्‍त कटौती वेतन से होने के कारण उन्हें आर्थिक भार की विशेष अनुभूति नहीं होती। वैसे भी कर्मचारी वर्ग ऐसी कटौती की मानसिकता लिए हुए होता है।

सुविधा अन्तराल की : किश्‍त की वसूली पूरी

यह बहुत ही महत्वपूर्ण बिन्दु है।

‘भगवान’ और ‘भाग्य’ वाले हमारे समाज में बीमा बेचना अत्यधिक कठिन काम है और बीमे के लिए एक मुश्‍त रकम निकाल पाना सामान्य मध्यमवर्गीय व्यक्ति के लिए मानसिक और व्यावहारिक रुप से, प्रथम दृष्‍टया तनिक कठिन ही अनुभव होता है। इस दो तरफा कठिनाई को कम करने तथा अधिकाधिक लोगों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने की सदाशयता से विभिन्न अन्तराल वाली भुगतान विधियों की सुविधा उपलब्ध कराई जाती हैं। किन्तु जैसा कि इस पोस्ट के प्रारम्भ में ही कहा गया है, किश्‍त की वसूली सदैव ही वार्षिक आधार पर ही की जाती है।

उदाहरणार्थ : किसी व्यक्ति ने जनवरी में बीमा पालिसी ली और किश्‍त भुगतान के लिए ‘तिमाही भुगतान विधि’ का विकल्प लिया। अर्थात् अब यह ग्राहक प्रति वर्ष जनवरी, अप्रेल, जुलाई और अक्टूबर में अपनी कि”त का भुगतान करेगा।

पालिसी अवधि के दौरान किसी वर्ष में, दुर्भाग्‍यवश ऐसे ग्राहक की मुत्यु अगस्त महीने में हो गई। तब तक वह जनवरी, अप्रेल और जुलाई की देय, तीन तिमाही किश्‍तों का भुगतान कर चुका था। जब उसकी पालिसी के मृत्यु दावे का भुगतान किया जाएगा तक अक्टूबर वाली तिमाही किश्‍त की रकम उसमें से काट ली जाएगी।

स्पष्‍ट है कि केवल भुगतान सुविधा के लिए विभिन्न अन्तरालों की विधियाँ उपलब्ध कराई जाती हैं, किश्‍त की वसूली वार्षिक आधार पर ही की जाती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि वाहन बीमा किश्‍त सदैव वार्षिक ली जाती है।

मेरा सुझाव - वार्षिक भुगतान विधि सदैव ही सबके लिए लाभकारी और हितकारी होती है। यदि यह सम्भव न हो तो अर्ध्‍द वार्षिक भुगतान विधि के विकल्प में भी कोई हर्ज नहीं है। किन्तु तिमाही भुगतान विधि का विकल्प लेने से बचा जाना चाहिए। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि लेप्स होने वाली पालिसियों में तिमाही भुगतान वाली पालिसियों का प्रतिशत 90 तक है। मासिक भुगतान विधि वाला विकल्‍प तो नहीं ही लें।

ऐसी ही कुछ और बातें फिर कभी।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्‍य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍य भेजें । मेरा पता है - विष्‍णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

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लो जी! मैं उकस गया

कल वाली मेरी पोस्ट राष्‍‍ट्र बनाम ‘माँ’ और ‘वार वनीता’ पर मायोपिकजी की टिप्पणी नहीं आती तो सच मानिए मेरी दशा उस महिला जैसी हो जाती जिसने नई, मँहगी, भारी-भरकम बनारसी साड़ी पहनी हो और कोई उससे यह भी न पूछे-‘साड़ी नई है? कितने की है?’


सो, सबसे पहले मायोपिकजी को अन्तर्मन से धन्यवाद और आभार। यदि वे ‘अपनीवाली’ पर नहीं आते तो मुझे यह सब कहने का निमित्त कैसे मिलता?


मैं कांग्रेसी हूँ या नहीं इसकी सफाई व्यर्थ होगी (क्योंकि मायोपिकजी ने मेरी सारी पोस्टें थोड़े ही पढ़ी हैं?) किन्तु यह कहना जरूरी है कि मैं बरसों 'शाखा' में गया हूँ, खूब 'दक्ष-आराम' किया है और ‘धरम पर मरना सीखा है, धरम से कैसे हट जाएँ’ तथा ‘भारत के वीरों जागो, सोये सितारों जागो’ जैसे समवेत गीतों में अपना कण्ठ मिलाया है।


‘संघ’ की अनेक ‘परोक्ष विशेषताएँ’ मेरे लिए सदैव आकर्षण का विषय। रहीं उनमें से चार मुझे महत्वपूर्ण लगीं। पहली : जिस काम के लिए दूसरों को वर्जित करो वही काम दबंगता से खुद करो किन्तु हाँ, अकेले मत करो, सामूहिक रूप से करो और दबदबा बनाते हुए करो ताकि तत्काल प्रतिरोध, प्रतिवाद और प्रतिकार करने का साहस कोई नहीं जुटा पाए। दूसरी : स्‍ववर्जित काम करते हुए पकड़े जाओ तो जोर-जोर से कहो कि वह काम मैं ने किया ही नहीं, लोग झूठ बोल रहे हैं। तीसरी : फिर भी लोग न मानें और बात बनती न दिखाई दे तो अपने विरोधी की वैसी ही गलती बताओ और उसे दलील बना कर अपनी गलती का औचित्य साबित करो। चौथी : ऐसा करते समय यह विशेष ध्यान रखो कि वृत्ति का हवाला मत दो, व्यक्ति का हवाला दो क्योंकि लोग वृत्ति को नहीं जानते, व्यक्ति को जानते हैं। (संघ के विरोधी इस तरीके को ‘व्यक्तित्व हनन‘ अथवा ‘चरित्र हनन’ करना कहते हैं।)


मायोपिकजी की राजनीतिक प्रतिबध्दता मुझे नहीं पता किन्तु वे संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक की तरह व्यवहार करते दिखाई दे रहे हैं और यही भूमिका निभाते हुए उन्होंने इन्हीं विशेषताओं का सहारा लिया। उनकी ट्रेनिंग सफल रही। बधाई।


मैंने अपनी पोस्ट में किसी का नाम नहीं लिया किन्तु मायोपिकजी को शायद समस्त सम्बन्धितों के नाम नजर आ गए। ऐसा ही होता है। आदमी सारी दुनिया से अपने पाप छुपा ले, अपने आपसे नहीं छुपा पाता और ऐसे में यदि कोई किसी और की बात करे तो भी उसे अपना ही उल्लेख अनुभव होता है।


मायोपिकजी ने किन्हीं कांग्रेसी मिनिस्टर किरण चौधरी द्वारा, राष्‍‍ट्रीय शोक काल में सूरजकुण्ड मेले का रंगारंग उद्घाटन का उल्लेख कर मुझे ‘उकसाते’ हुए पूछा है कि मैं चौधरीजी पर कब लिख रहा हूँ। नेक काम में देरी कैसी? लो जी! लिख दिया। फौरन। किरण चौधरी कोई ‘पवित्र गाय’ नहीं है जो राष्‍ट्रीय शोक काल में उत्सव मनाने के अपराध से मुक्त हो जाएँ। वे कांग्रेसी हों या कोई और, अपराध तो अपराध है। उनकी सजा भी वही जो मध्य प्रदेश के ‘संघियों’ की। अब मायोपिकजी की बारी है। वे बताएँ कि मध्यप्रदेश के संघियों को कब सजा दिलवा रहे हैं ताकि किरण चौधरी को सजा दिलवाने का उपक्रम शुरु किया जा सके?


लेकिन किरण चौधरी में और मायोपिकजी की जमात में एक मूलभूत अन्तर है। किरण चौधरी की जमात के लोग राष्ट्रवाद की ठेकेदारी नहीं करते। वे संस्कृति, नैतिकता, ईमानदारी, सदाचार और ऐसी ही तमाम बातों की दुहाइयाँ नहीं देते। वे अपनी गरेबान में भले ही न झाँकते हों किन्तु दूसरों की गरेबान पर भी नजर नहीं डालते। वे 'सोशल पुलिसिंग' भी नहीं करते। वे ‘भारतीय संस्‍कृति’ की दुहाई देकर महिलाओं को सड़कों पर नहीं पीटते। जो काम वे खुद करते हैं वे काम दूसरे करें तो आपत्ति नहीं उठाते।


इसके ठीक विपरीत संघ परिवारी वह सब करते हैं जिसके लिए वे दूसरों को मना करते हैं। वे ईमानदारी की दुहाई देते हैं और उनके आनुषांगिक संगठन भाजपा के राष्‍‍ट्रीय अध्यक्ष कैमरे के सामने 'मिठाई' के निमित्त प्रसन्नतापूर्वक रिश्‍वत लेते हैं। ‘हिन्दुओं की घर वापसी’ का अभियान चलाने वाले उनके जन-नायक, 'पैसा खुदा तो नहीं लेकिन खुदा कसम, खुदा से कम भी नहीं' कहते हुए नोटों की गड्डियाँ लेने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। वे ‘चरित्र’ की दुहाइयाँ देते हैं और उनके स्वयंसेवक, रंगरेलियाँ मनाते हुए 'मादरजात' अवस्‍‍था में पकड़े जाते हैं।


किसी गरीब हिन्दू की बेटी यदि किसी मुसलमान से प्रेम कर बैठे तो समूचे हिन्दुत्व पर संकट आ जाता है लेकिन खुद आडवाणी की सगी भतीजी एक मुसलमान के बच्चों की माँ बनी हुई है, इसका जिक्र नहीं करते। सुना तो यह भी है कि भाजपा के कम से कम दो मुसलमान नेताओं (उनमें से एक तो भूतपूर्व केन्द्रीय मन्त्री बताए जाते हैं) की वंश बेल बढ़ाने का पुण्य कार्य भी हिन्दू स्त्रियों के ही खाते में जमा है जिस पर एक भी ‘हिन्दू धर्म रक्षक संघी’ को आज तक आपत्ति नहीं हुई है।


वे इसाई मिशनरी संचालित स्कूलों को इसाईयत के प्रचार केन्द्र और धर्मान्तरण के कारखाने कहते हैं लेकिन मेरे शहर में आ जाइए, आपको ऐसे बीसियों ‘हिन्दू वीरों’ के दर्शन करा दूँगा जो सवेरे तो 'शाखा' में जाते हैं और दोपहर में अपने बच्चों या पोतों/पोतियो को लेने के लिए कान्वेण्ट स्कूल के सामने प्रतीक्षारत खड़े हैं। ‘संघ’ के कुछ 'निष्‍‍ठावान स्वयंसेवकों' ने, ‘धर्मान्तरण के ऐसे कारखानों’ में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए मुझसे सिफारिश कराई है।


‘संघ परिवारी’ आज भी 6 दिसम्बर को ‘हिन्दू शौर्य दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इसी दिन बाबरी मस्जिद का ध्वंस, सुनियोजित तरीके से किया गया था। लेकिन मजे की बात यह है कि ‘छोटे सरदार’ से लेकर मेरे मोहल्ले के छुटभैया स्वयंसेवक तक, एक भी ‘हिन्दू नर पुंगव’ इस ‘शौर्य’ की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। सब के सब एक स्वर में कहते हैं - ‘‘हिन्दू शौर्य दिवस का कारण बना ‘बाबरी मस्जिद ध्वंस’ मैं ने नहीं किया।’’ अपनी-अपनी जमानत का जुगाड़ सबकी जिन्दगी और मौत का सबब बन गया-हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व गया भाड़ में। श्रेय लेने के लिए 'शूर वीर' हैं और जिम्मेदारी लेने के नाम पर 'शिखण्डी' को शर्मिन्दा कर दें। ये न तो बाप का नाम बताते हैं और न ही श्राध्द करते हैं। ये सबके सब मादा हैं, यह जानने के लिए इनकी पूँछे उठाकर देखने की भी जरूरत नहीं रखी भाई लोगों ने।


लेकिन मैं यह सब क्यो कह रहा हूँ? यह सब ही नहीं, इसका करोड़ गुना अधिक तो खुद मायोपिकजी को मालूम है-वह सब भी, जो दुनिया को नहीं मालूम। लेकिन यह सब नहीं कहता/लिखता तो मायोपिकजी निराश हो जाते, मुझे उकसाने का उनका उपक्रम अपूर्ण रह जाता।


सो, मायोपिकजी शायद अब अनुभव करें कि जिस जमात की सरपरस्ती वे उत्साह के अतिरेक की सीमा तक करते हैं उस जमात के बन्दे भी औसत मनुष्‍य ही हैं-देवता नहीं। उनमें भी वे तमाम कमजोरियाँ हैं जो बाकी सबमें हैं। उनकी जमात के लोग भी बाकी सब लोगों की तरह रिश्वत लेते-देते हैं, टैक्स चुराते हैं, नम्बर दो में खरीद-बिक्री करते हैं, यातायात के नियमों का उल्लंघन करते हैं, लोक भय के अधीन एक सामान्य व्यक्ति जितना चरित्रवान रह पाता है, उतने ही चरित्रवान वे भी रह पाते हैं, अपने स्वार्थ के लिए बिना सोचे, अपने सम्पूर्ण आत्म विश्‍‍वास से झूठ बोल लेते हैं, पाखण्ड करने में तो उनका कोई सानी है ही नहीं।


इसलिए, हे! राष्ट्रीयता के ठेकेदारों के सरपरस्त श्रीमान् मायोपिकजी! मुद्दे की बात यह है कि आप और आपकी जमात के लोग जिस सहजता से पैमानों का दोहरीकरण कर रहे हैं, उस पर पुनर्विचार कीजिए। राष्‍‍ट्रीयता की दुहाई आप बेशक दें किन्तु अपनी बारी आने पर उस दुहाई को याद रखें। आप लोगों की ऐसी ही हरकतों के कारण ‘संघ’ को लांछन और आरोप झेलने पड़ रहे हैं। राष्‍‍ट्रीय प्रतीक का अपमान कोई भी करे, अपराध है। कोई कांग्रेसी है या संघी, इस आधार पर वह अपराध मुक्त नहीं होता।


दूसरों के अपराध को बचाव की दलील की तरह प्रयुक्त करने से आप निर्दोष नहीं हो जाते। उनके उन तमाम अपराधों को गिनवा कर तथा लोगों को वैसे अपराधों से मुक्ति दिलाने का वादा कर आप सत्ता में आते हैं तो आपकी यह न्यूनतम जिम्मदारी (मेरी हिम्मत देखिए कि मैं आपसे ‘जिम्मेदारी’ की उम्मीद करने लगा!) होती है कि आप वैसी कोई गलती नहीं करें। यदि दूसरों के अपराध के आधार पर आप अपराध करने की सुविधा और छूट लेना चाहते हैं तो फिर पुराने वाले ही क्या बुरे थे? लोगों ने उन्हें हटाया ही क्यों? उस दशा में तो फिर उन्हें ही चुना जाना चाहिए था-वे आपसे अधिक ‘अनुभवी अपराधी’ जो थे!

इसीलिए अपनी कल वाली पोस्ट की अन्तिम बात फिर कह रहा हूँ। यदि आप चाहते हैं कि आपकी ‘माँ’ को सारी दुनिया ‘देवी’ माने और उसकी पूजा करे तो इसकी शुरुआत आपको ही करनी पड़ेगी। यह बिलकुल नहीं चलेगा कि आप तो अपनी माँ के साथ ‘वार वनीता’ जैसा व्यवहार करें और चाहें कि बाकी सब उसे देवी मानें और पूजा करें।


यह न तो सम्भव है और न ही उचित।
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राष्‍ट्र बनाम ‘माँ’ और ‘वार वनीता’

पुलिसवालों के बीच एक कहावत अत्यधिक लोकप्रिय ही नहीं है, वे इसे अपनी सफलता का मूल-मन्त्र भी मानते हैं। कहावत है-‘काम मत कर, काम की फिक्र कर, फिक्र का जिक्र कर। तेरा प्रमोशन पक्का।’

संघ परिवार की गतिविधियाँ देख कर लगता है कि या तो उसने पुलिसवालों की इस कहावत को अपना भी आदर्श बना रखा है या फिर पुलिसवालों ने यह आदर्श, संघ परिवार से ग्रहण किया है।

भोपाल के, इसाई मिशनरी संचालित एक स्कूल में घुसकर अ.भा.वि.प. कार्यकर्ताओं ने तोड़फोड़ कर दी। गणतन्त्र दिवस समारोह में, इस स्कूल के प्राचार्य ने, ध्वजारोहण के बाद, राष्ट्रगीत शुरु करने वाले एक अध्यापक को बीच में ही रोक दिया था। अ.भा.वि.प. के कार्यकर्ता, प्राचार्य के इस 'अनुचित और राष्ट्र विरोधी आचरण' से उत्तेजित थे। तोड़फोड़ करने वालों में, बजरंग दल के कार्यकर्ता भी शरीक हो गए। पुलिस ने प्राचार्य को गिरतार किया जिसे बाद मे जमानत पर छोड़ दिया गया।

राष्‍‍ट्र और राष्‍‍ट्रीय प्रतीकों के सम्मान की चिन्ता तो की ही जानी चाहिए और ऐसा करना निस्सन्देह प्रशंसनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है। किन्तु ऐसा, प्रत्येक अवसर पर समान रूप से किया जाना चाहिए। याने, पैमाने दोहरे नहीं होने चाहिए।

गणतन्त्र दिवस के आयोजनों में, मध्य प्रदेश में दो स्थानों पर, भाजपा पार्षदों और पदाधिकारियों ने राष्‍‍ट्रध्वज के स्थान पर पार्टी का झण्डा फहरा दिया। एक भी संघ परिवारी ने इस पर कार्रवाई करना तो कोसों दूर की बात रही, इसका नोटिस भी नहीं लिया। इसके विपरीत, भाजपाइयों के इस आचरण का बचाव किया गया और इस आचरण का औचित्य प्रतिपादित किया गया। भोपाल के, इसाई मिशनरी संचालित स्कूल के प्राचार्य का आचरण यदि राष्‍‍ट्र विरोधी था तो, राष्‍‍ट्रीय ध्वज के स्थान पर पार्टी ध्वज फहराना राष्‍‍ट्र विरोधी क्यों नहीं है?

भूतपूर्व राष्‍‍ट्रपति वेंकटरमण के निधन के कारण देश में सात दिनों का राष्‍‍ट्रीय शोक घोषित किया गया। किन्तु इसी अवधि में कटनी के एक स्कूल के वार्षिकोत्सव में फिल्मी गीतों पर नृत्यों सहित रंगारंग कार्यक्रम आयोजित हुए। इस आयोजन में भाजपा विधायक मुख्य अतिथि थे तथा स्थानीय निकायों के पदों पर आसीन भाजपाई प्रमुखता से उपस्थित थे। लोगों ने इस पर जब आपत्ति ली तो अपनी गलती स्वीकार करने के स्थान पर पचासों ‘किन्तु-परन्तु’ के साथ इस सबका औचित्य प्रतिपादित किया गया।

राष्‍‍ट्रीय शोक की इसी अवधि में, सिवनी जिले की पेंच वेली में, सरकारी स्तर पर ‘मोगली महोत्सव’ ससमारोह आयोजित किया गया। इस पर आपत्ति उठाई गई तो इसका भी बचाव किया गया।

राष्‍‍ट्रीय सम्मान के पैमाने सभी मामलों में, सभी स्थानों पर समान होते हैं। किन्तु संघ परिवार इस मामले में जो दोहरापन अपना रहा है उससे वह आज भले ही खुश हो जाए किन्तु अन्ततः यह न केवल संघ परिवार के लिए अपितु समूचे राष्‍‍ट्र के लिए अत्यधिक घातक होगा।

व्यक्ति उसकी बातों से नहीं, आचरण से जाना जाता है। राष्ट्र और राष्‍‍ट्रीय प्रतीकों के सम्मान को लेकर संघ परिवार का आचरण ईमानदार नजर नहीं आता। वह इस सम्मान को अपने आचरण में उतारने के बजाय इसे अपनी चिन्ता का विषय और अपनी इस चिन्ता के सार्वजनिक प्रकटीकरण को (पुलिसिया कहावत को चरितार्थ करता हुआ) अपना अन्तिम विषय तथा लक्ष्य बनाता हुआ नजर आ रहा है। कथनी और करनी में 180 डिग्री का यह अन्तर संघ परिवार की मंशा पर प्रश्न चिह्न लगाता है।

‘चिन्ता’ यदि ‘आचरण’ में नहीं बदलती है तो वह ‘पाखण्ड’ हो जाती है।

अपने आनुषांगिक संठन ‘भाजपा’ के जरिए संघ आज यदि सत्ता में है तो राष्‍‍ट्र और राष्‍‍ट्रीय प्रतीकों के सम्मान के सन्दर्भ में उसकी जिम्‍मेदारी और अधिक बढ़ जाती है। किन्तु वह जिम्मेदार होने के स्थान पर ‘पद-मदान्ध’ होकर उच्छृंखल आचरण करता नजर आ रहा है। वह 'वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति' उक्ति को चरितार्थ करता दिखाई दे रहा है और राष्ट्र तथा राष्‍‍ट्रीय सम्मान के लिए पैमानों का दोहरीकरण कर रहा है। वह चाह रहा है कि दूसरे तो राष्‍‍ट्र और राष्‍‍ट्रीय प्रतीकों का समुचित सम्मान करे किन्तु उसे इस मामले में मनमानी करने की सुविधा मिले।

दूसरों को सुधारने के प्रयत्नों में सफलता सदैव संदिग्ध ही रहती है जबकि खुद को सुधारने के प्रयत्नों में सफलता असंदिग्ध तथा सुनिश्चित होती है।

संघ परिवार यदि सचमुच में राष्‍‍ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान की चिन्ता करता है तो उसकी ईमानदारी लोगों को अनुभव भी होनी चाहिए। वर्ना परिदृश्‍‍य पर अभी तो स्थिति ‘भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ’ वाली अनुभव हो रही है।

अपनी माँ के प्रति आपका व्यवहार तो ‘वार वनीता’ जैसा हो और आप चाहें कि बाकी सारी दुनिया उसे देवी की तरह पूजे।

क्या यह सम्भव है? और उससे भी पहले, क्या यह उचित है?

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‘सम्बन्ध’ तोड़ दिया मेरी वाली ‘इस लड़की’ ने

हे! प्रभु, कैसी विवशता? कैसी असहाय दशा? कहाँ तो जी कर रहा है कि ‘इस’ लड़की के चित्र से अनन्त आकाश को ढँक दूँ और कहाँ यह लाचारी कि उसका चित्र तो दूर की बात रही, उसका नाम भी अपने ब्लाग पर नहीं दे पा रहा हूँ।

उसके विवाह की तारीख तय हो चुकी थी। निमन्त्रण पत्र छप चुके थे। आयोजन हेतु परिसर आरक्षित कर उसका अग्रिम भुगतान किया जा चुका था। आमन्त्रि अतिथियों के ठहरने के लिए होटल बुक की जा चुकी थी। वस्त्राभूषणों की सारी खरीदी हो चुकी थी। शेष था तो केवल बारात का आना, तोरण का मारा जाना और पाणिग्रहण संस्कार का सम्पन्न होना। किन्तु परसों 'उसने' ‘यह रिश्‍ता’ तोड़ दिया-अपनी ओर से। अत्यन्त विनम्रतापूर्वक किन्तु उतनी ही दृढ़तापूर्वक।

'वह' बेंगलुरु की एक कम्प्यूटर कम्पनी में साफ्टवेयर इंजीनीयर है। कोई डेड़-दो महीने पहले ही उसका ‘सम्बन्ध’ तय हुआ था। सब कुछ उसके पिता ने किया था। उसने लड़का देखने या उससे मिलने की कोई उत्सुकता नहीं जताई थी। पिता ने जो किया, उसे सर-माथे चढ़ा लिया था। बस, यही कहा था कि विवाहोपरान्त भी वह नौकरी करती रहेगी। ‘सम्बन्ध’ तय होने से पहले लड़के और उसके पिता को भी यह बात साफ-साफ बता दी गई थी। दोनों ने इसे स्वीकार किया था। उसके बाद ही जन्म पत्रियों का मिलान और बाकी सारी बातें हुई थीं और ‘सम्बन्ध’ तय हुआ था।

किन्तु कोई एक पखवाड़ा पहले ‘लड़के’ ने अपना विचार बदलने की सूचना दी। दोनों पिता असहज हुए। आपस में बात की और तय किया इस बारे में लड़का-लड़की ही आपस में बात करें और अन्तिम निर्णय लें। सो, दोनों ने बात की, बार-बार की। यह महत्वपूर्ण नहीं था कि लड़के ने विचार क्यों बदला। यही महत्वपूर्ण था कि लड़के ने विचार बदला है। हाँ, लड़के ने इतनी रियायत दी कि शादी के बाद पाँच-सात महीने तक लड़की नौकरी कर सकेगी किन्तु अन्ततः उसे नौकरी तो छोड़नी ही पड़ेगी। लड़की इसके लिए जब शुरु से ही तैयार नहीं थी तो अब क्या तैयार होती? सो, अन्तिम निर्णय लड़की ने लिया-‘तो फिर मैं यह शादी नहीं करूँगी।’ दोनों ने यह भी तय किया कि अपने-अपने पिता को इस निर्णय की जानकारी वे खुद ही देंगे।

और कल ‘उसने’ अपने पिता को बैंगलुरु से फोन पर खबर दी-‘पापा! आज मैंने शादी से इंकार कर दिया है।’ पिता यह आशंका पहले ही लिए बैठे थे। सो, असहज तो अवश्‍य हुए किन्तु उन पर पहाड़ नहीं टूटा। थोड़ी ही देर में लड़के के पिता का फोन आ गया और दोनों ने एक दूसरे से क्षमा-याचना कर ली। दोनों दुःखी अवश्‍य थे किन्तु किसी के मन पर बोझ नहीं था। यह फैसला उन दोनों में से किसी का नहीं था।

लड़की के पिता ने विस्तार से मुझे सारी बात बताई। मैंने लड़की से बात की। वह किंचित मात्र भी असहज नहीं थी। मैंने पूछा-‘अब आगे क्या?’ वह बोली-‘आगे क्या, क्या? मुझे थोड़े ही कुछ करना है? सब कुछ पापा ही करेंगे। पापा का फैसला, मेरा फैसला। बस, शादी के बाद भी नौकरी करने की मेरी शर्त बरकरार है और पापा यह अच्छी तरह जानते हैं।’

मुझे इस लड़की पर बड़ा मान हो आया। कोई ‘किन्तु-परन्तु’ नहीं। अपनी इच्छा और मानसिकता को लेकर न तो कोई संशय और न ही कोई भ्रम। अपनी पढ़ाई और उसके दम पर कर रही अच्छी-खासी कमाई का कोई गुमान और अहंकार भी नहीं। पिता पर अन्धविश्‍वास! लड़का कौन हो, कैसा हो, कहाँ का हो, इन सारी बातों से कोई लेना-देना नहीं। पिता जो भी करेंगे, श्रेष्‍ठ और हितकारी ही करेंगे। किन्तु अपनी पहचान और आर्थिक स्वतन्त्रता के मुद्दे पर कोई समझौता नहीं।

अपनी जड़ों से जुड़े रहकर मध्यवर्गीय परिवार की कोई औसत लड़की कितनी प्रगतिशील, कितनी आत्म विश्‍वासी और कितनी दृढ़ इच्छा शक्ति वाली हो सकती है-यह अनूठा अनुभव मुझे आज हुआ।

इस लड़की से बात करते हुए मुझे मैंगलोर में, पब से घसीटी जा रही और पिट रही लड़कियाँ याद आने लगीं। मुश्‍िकल से पाँच लाख की आबादी वाले कस्बे की, मेरी वाली ‘यह लड़की’ अभी भी ‘जीन्स’ तक नहीं पहुँची है। आज भी सलवार-सूट ही पहनती है। लेकिन यह मन से कितनी प्रगतिशील है और आत्मा से कितनी संस्कारशील?

कुँवारी कन्या को सौ वर। सो, मेरी वाली ‘इस लड़की’ की शादी भी होगी और ईश्‍वर ने चाहा तो जल्दी ही होगी। तब, आपको ‘उससे’ अवश्‍य मिलवाऊँगा। वादा रहा।

तब तक आप मेरी वाली ‘इस लड़की’ की बेहतरी के लिए ईश्‍वर से प्रार्थना कीजिएगा। प्लीज।

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जड़ों में बैठे लोग

मालवा की एक कहावत है - ‘भूतों का डेरा इमली पर।’ आज के सारे के सारे भूत राजनीति की इमली पर एकत्र और एकजुट हो गए हैं।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री अम्बुमणी रामदास को लोगों के स्वास्थ्य की सचमुच में अत्यधिक चिन्ता है। वे इसी में दुबले हुए जा रहे हैं। तम्बाकू को देश का सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं। चाहते हैं कि लोग तम्बाकू का सेवन या तो करें ही नहीं और करें तो कम से कम और वह भी अपने-अपने घर में। इसीलिए सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान को दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया है। चाहते तो थे कि गरीब की बीड़ी को भी कब्जे में ले लेते किन्तु लोग ही उनके साथ नहीं आए। फिल्मों में उड़ते सिगरेट के छल्ले रामदास को अपने आसपास घेरा कसते लगने लगे थे। उन्हें प्रतिबन्धित किया तो सर्वोच्च न्यायालय ने खेल बिगाड़ दिया।

रामदास अब पब संस्कृति का विरोध कर रहे हैं। उनके लिए राहत की बात है कि येदुरप्पा उनके लिए पहले ही भूमिका बनाए बैठे हैं। भगवा और तिरंगा कहीं तो एक हुए! हालाँकि दोनों ही ‘कोतवाल’ हैं लेकिन अपना-अपना कोतवालपन भूल जाना चाहते हैं।

ये दोनों और इनके जैसे सारे लोग पानी में लट्ठ मारने और छाया पर तलवार चलाने का शानदार स्वांग कर रहे हैं। गजब के साहसी भी हैं! चाहते हैं कि सारा देश इनके इस स्वांग को सच माने! दोनों ही यदि गम्भीर और ईमानदार हैं तो एक झटके में अपने-अपने क्षेत्राधिकार में ‘पब’ समूल नष्‍ट कर सकते हैं। लेकिन करेंगे नहीं। इनसे अच्छी तो मध्यप्रदेश की सरकार है जो गाँव-गाँव में बिना मिलावट वाली 'शुध्द शराब' उपलब्ध कराने का वादा करती है। (यह अलग बात है कि अपने नागरिकों को पेय जल उपलब्ध कराने के नाम पर गूँगी बन जाती है।)

ये तमाम लोग खुद की सहित सारी असलियत खूब अच्छी तरह जानते हैं। रामदास भली प्रकार जानते हैं कि तम्बाकू की खेती पर रोक लगाने से उनकी सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो सकती है और येदुरप्पा जानते हैं कि उनकी कलम की एक जुम्बिश, भारतीय संस्कृति को बचाने की उनकी दलील को हकीकत में बदल सकती है। लेकिन दोनों अनजान बने रहना चाहते हैं।

ये ऐसे लोग हैं जो चोर की माँ को जानते तो हैं लेकिन उसकी तरफ देखते भी नहीं और चाहते हैं कि न तो चोर रहे और न ही चोरी हो। ये लोग चोर की माँ की हिफाजत पूरी ईमानदारी से करते हैं क्योंकि वही तो इन्हें चुनाव लड़ने के लिए धन उपलब्ध कराती है। ऐसे लोग अनूठे मातृभक्त और इनकी माँ की दुनिया की सर्वाधिक ममतामयी माँ।

ये फुनगियों की छँटाई करते हैं और जड़ों की हिफाजत।

करें भी क्यों नहीं? जड़ों में ये ही तो बैठे हैं!
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वसन्त की गुमशुदगी

सवेरे-सवेरे कोई पाँच-सात किलोमीटर हो आया हूँ। नहीं। पैदल नहीं। मोटर सायकिल पर।

कहीं कुछ असामान्य और विशेष नहीं है। रेल्वे स्टेशन पर टिकिट खिड़िकियों के सामने लम्बी कतारें, प्री-पेड बूथ पर पर्चियाँ बनवाते लोग, ‘प्लेटफार्म पर नहीं छोड़ूँगा, गाड़ी में आपको बैठाकर, आपके पास आपका सामान रख कर आऊँगा‘ जैसी बातें कह कर अपना पारिश्रमिक तय करने के लिए जद्दोजहद करते कुली, अपने-अपने मुकाम के ‘रूट’ वाले टेम्पो को तलाश में लगभग बदहवास लोग।

तीन स्कूलों के सामने से जानबूझकर निकला। किन्तु वहाँ भी सब कुछ प्रतिदिन जैसा। आटो रिक्शा से उतरते बच्चे, अपने बच्चों को छोड़कर घर लौटने को उतावले पिता, बच्चों से पहले स्कूल में पहुँचने के लिए लगभग दौड़ कर आ रही अध्यापिकाएँ, गेट पर खड़ा, निर्विकार भाव से सब-कुछ देखते हुए खड़ा चैकीदार। औत्सुक्य भाव लिए कहीं कुछ अनूठा नहीं।

घर से बाहर जाते समय भी और लौटते समय भी वे ही और वैसी की वैसी ही सड़कें, झाड़ू लगाती, कचरे के ढेर बना कर उन ढेरों में चिंगारी सुलगाती सफाई कर्मचारी, दो बत्ती पर और राम मन्दिर के सामने, अपने पसीने के खरीददार की प्रतीक्षा के लिए ‘मण्डी’ बनने के लिए पहुँचते मजदूर, चाय का पहला कप धरती को अर्पित कर रहा होटल मालिक और उस चाय को आँखों से पी जाने की कोशिश कर रहा भिखारी। सब कुछ ऐसा मानो समूची सृष्‍िट, यन्त्र हो गई हो।

वांछित की असफल तलाश से लस्त-पस्त हो मैं घर लौटा हूँ। यहाँ भी सब कुछ ‘वही का वही’ है। गेट के पास पड़े अखबार, चाय बनाकर प्रतीक्षा कर रही पत्नी, पड़ौसी को आवाज लगा रहा दूधवाला, भोपाल पेसेंजर पकड़ने के उपक्रम में अपने आसपास को भी भूल जाने वाले जैन साहब।

मैं ‘उदास सा’ होने से बचने के लिए अपना अतीत खँगालने लगता हूँ। आज के दिन पिताजी सवेरे जल्दी उठा देते थे-लगभग ‘हाँक’ लगा कर। मैं भागकर, पास के गाँव ‘पुरोहित पीपल्या’ के बाहर खड़े आम के वृक्ष से कुछ ‘बौर’ तोड़ता और भाग कर ही घर लौटता। स्नान कर तैयार होता उससे पहले ही माँ ‘तरबेणे’ (सम्भवतः ‘त्रिवेणी’ का अपभ्रंश पुल्लिंग, ताँबे का बना तसला, जिसमें ठाकुरजी को स्नान कराया जाता था) में गुलाल रख कर ले आती। मैं, आम के ‘बौर’ को उस तरबेणे में रखता और बीच रास्ते खड़ा हो जाता। आते-जाते लोगों के माथे पर गुलाल लगाता। वे प्रसन्न होकर आशीष देते। उनमें से कुछ, 'तरबेणे' में छोद वाला ताँबे का एक पैसा, अधन्ना (आधा आना) डाल देते। मुझे अच्छा लगता। खुश हो जाता और अपेक्षा करता कि वे सब, जिनके माथे पर मैं गुलाल लगा रहा हूँ, कुछ न कुछ ‘तरबेणे‘ में जरूर डालें। लेकिन ऐसा नहीं होता। मैं शिकायत भरी नजरों से पिताजी की ओर देखता। वे हँस कर कहते - ‘अपन साधु हैं। अपने को अपने पास कुछ भी नहीं रखना है। अपने को तो देना ही देना है। आज बसन्त पंचमी है। लोगों को तो अपने काम से ही फुरसत नहीं होती। उन्हें कौन याद दिलाए कि आज बसन्त पंचमी है। आज से ऋतु बदल रही है। आम के बौर के ‘दर्शन’ करा कर तू उन सबको इस बदलाव की याद दिला रहा है। इससे उन्हें खुशी होगी। तू गुलाल नहीं लगा रहा है, उन्हें खुशियाँ बाँट रहा है। उनके मन में जो आनन्द पैदा होता है उसका कोई मोल नहीं है। पैसों का क्या है? पैसा तो हाथ का मैल है। परवाह मत कर। प्रसन्न मन से गुलाल लगा।’ आज सोच-सोच कर हैरत में पड़ रहा हूँ कि भिक्षा वृत्ति पर आश्रित परिवार का मुखिया पैसे को हाथ का मैल कैसे कह पा रहा होगा? वह भी हँसते-हँसते? शायद यह भी वसन्त-आगमन से उपजे उल्लास का ही प्रभाव होता होगा कि भिखारी भी पैसे को हाथ का मैल कह दे।

जब थोड़ा बड़ा हुआ तो, सेवेर गुलाल लगाने की ‘ड्यूटी’ पूरी करने के बाद स्कूल पहुँचता तो स्कूल पूरा का पूरा बदला हुआ नजर आता। मुख्य द्वारा पर आम के पत्तों की बन्दनवारें सजी होतीं। प्रधानाध्यापकजी और सारे गुरुजी किसी न किसी उपक्रम में व्यस्त होते। स्कूल के अन्दर वाले खुले मैदान के एक कोने में टेबल के ऊपर कुर्सी रख कर उसे रंगीन पकड़े से ढक दिया गया होता था और उस पर विद्या की देवी, माँ सरस्वती की तस्वीर रखी होती थी। सीनीयर बच्चे ‘बेटी के बाप’ की तरह व्यवस्थाएँ कर रहे होते। घण्टी बजती। प्रार्थना होती और उसके ठीक बाद सरस्वती पूजा का आयोजन शुरु हो जाता। हम छोटे बच्चों को जो भी कुछ ‘गीत-कविता’ याद होती, प्रस्तुत करते। मेरी माँ के पास लोकगीतों का खजाना था और कोयल का कण्ठ। उसी के खजाने से मैं कुछ ‘बधावे‘ गाता और वाहवाही पाता। बड़े बच्चे पाठ्य पुस्तकों की कविताएँ प्रस्तुत करते। हिन्दी वाले ‘सर‘ घनानन्द के छन्दों का पाठ करते जो हमारी समझ में नहीं आता। संस्कृत वाले 'शास्त्री सर' अत्यन्त गर्वपूर्वक ‘जाने क्या-क्या’ उच्चारते। बरसों बाद समझ आया कि वे सरस्वती स्तुति करते थे। सबसे अन्त में हमारे प्रधानाध्यापकजी का भाषण होता। कार्यक्रम का समापन जलेबी से होता। हम लोग उस पूरे दिन सरस्वती पूजन और जलेबी की बातें करते।

आज सेवेर से मैं वही सब कुछ तलाश करने निकला था। लेकिन खाली हाथ लौटा हूँ। मुझे न तो ‘वसन्त’ मिला और न ही उसके आने की ‘पदचाप’ ही सुनाई दी है। अखबार के मुख पृष्ठ पर जरूर वसन्त है किन्तु त्यौहार की तरह नहीं, ‘इवेण्ट’ के रूप में।

सोच रहा हूँ, नहा-धो कर आज किसी से बीमा की बात करने के बजाय पहले पुलिस स्टेशन जाऊँ और दरोगाजी से गुहार लगाऊँ-'मेरी मदद कीजिए। मेरा वसन्त खो गया है। ढूँढ दीजिए।'

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बीमा: लायसेंस किसी और का बीमा करे कोई और


22 जनवरी की, बीमा एजेण्ट की आचरण संहिता शीर्षक मेरी पोस्ट पर श्री Smart Indian - स्मार्ट इंडियन ने अत्यन्त आधारभूत और महत्वपूर्ण बात कही/पूछी है -‘‘हमें तो यह भी पता नहीं था की बीमा-एजेंट का लाइसेंस भी माँगा जा सकता है. उस स्थिति में अपनी पत्नी, या भाई आदि के लाइसेंस के नाम पर कार्यस्थान पर ख़ुद पालिसी बेचने का व्यवसाय कर रहे लोगों के बारे में क्या निर्देश हैं? साथ ही कुछ एजेंट पहली किस्त में से कुछ रकम पालिसी धारक को वापस दे देते हैं, क्या इसके बारे में भी कोई आधिकारिक नियम है? जो एजेंट ऐसा वादा करके पालिसी बेच-बेचकर फ़िर उसे कभी पूरा नहीं करते, क्या उनके ख़िलाफ़ कुछ कारवाई होनी चाहिए?’’

आपके माँगने पर एजेण्ट जैसे ही अपना लायसेंस आपको बताता है, आपको उसकी वास्तविकता मालूम हो जाती है। यदि वह ‘वास्तविक एजेण्ट’ है तब तो कोई बात ही नहीं। किन्तु यदि वह (अपने किसी परिजन अथवा और किसी के नाम पर काम कर रहा) ‘छाया एजेण्ट’ (डमी एजेण्ट) है तो यह आप पर निर्भर है कि आप उससे बात करें अथवा नहीं।

मेरा मत तो यही है कि ऐसे लोगों को निरुत्साहित ही किया जाना चाहिए। ‘छाया एजेण्ट’ की आजीविका चूँकि बीमा एजेन्सी नहीं होती इसलिए वह इसके प्रति न तो गम्भीर होता है और न ही अपने ग्राहकों को अपेक्षित समय और, विक्रयोपारान्त ग्राहक सेवा दे पाता है। आपके आसपास आपको ऐसे अनेक बीमाधारक मिल जाएँगे जिनका बीमा करने वाले एजेण्ट ने पलटकर नहीं देखा होगा। या तो वे पालिसी बेचने के बाद अपना काम समाप्त मान लेते हैं या फिर वे काम करना ही छोड़ देते हैं। ऐसे एजेण्टों के बीमाधारकों को, बीमा क्षेत्र में ‘अनाथ पालिसीधारक’ (आरफन पालिसीहोल्डर्स) के रूप में जाना जाता है। ऐसा पालिसीधारक यदि गम्भीर हुआ तो अपना बीमा जीवित रखने के लिए वह बार-बार बीमा कम्पनी के कार्यालय के चक्कर काटने को विवश होता है। अगम्भीर पालिसीधारक झुंझलाकर अपनी पालिसी बन्द कर देता है। असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों (अथवा भूतपूर्व पालिसीधारकों) में 99 प्रतिशत पालिसीधारक ऐसे ही ‘छाया एजेण्टों’ के शिकार होते हैं।

मेरा अनुभव है कि ऐसे ‘छाया एजेण्ट’ सबके लिए गम्भीर समस्या होते हैं। यदि ये नहीं रहें तो असन्तुष्‍ट पालिसीधारकों की संख्या, अनुपात और प्रतिशत में उल्लेखनीय कमी आ सकती है। अधिकाधिक व्यवसाय प्राप्त करने के लालच में ‘छाया एजेण्ट’ बना दिए जाते हैं और अपवादों को यदि छोड़ दें तो ये सबके सब अन्ततः समस्या ही साबित होते हैं। लायसेंस देखते ही यदि ग्राहक इनसे बात करने से इंकार कर दें तो इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।

पहली किश्‍त में छूट देने का चलन इस व्यवसाय का ही नहीं, समूचे बीमा उद्योग का नासूर बना हुआ है। इसकी शुरुआत, बीमा करने वालों में से ही किसी न किसी ने की होगी क्यों कि सम्भावित ग्राहकों को तो इस बारे में जानकारी शायद ही रही होगी। यह ऐसी शुरुआत हुई है जो अब चाहने पर बन्द होती नजर नहीं आती।

ग्राहक को अपना कमीशन लौटाना ऐसा गम्भीर अपराध है जिसके साबित हो जाने पर एजेण्ट को न केवल अपनी एजेन्सी से हाथ धोना पड़ सकता है अपितु उसे, अपने किए गए सम्पूर्ण व्यवसाय पर भविष्‍य में मिलने वाले कमीशन से भी हाथ धोना पड़ सकता है।

बीमा अधिनियम 1938 की धारा 41 के अन्तर्गत, कमीशन के इस लेन-देन को अनुचित घोषित किया गया है और इस शर्त का उल्लंघन करने वाले (ग्राहक और एजेण्ट) को 500 रुपयों तक का जुर्माना किए जाने का प्रावधान है। इस धारा का उल्लेख (अन्य बीमा कम्पनियों के बारे में तो मुझे नहीं पता किन्तु, भारतीय जीवन बीमा निगम के) बीमा प्रस्ताव प्रपत्र में स्पष्‍ट रूप से किया गया है। किन्तु अधिकांश (प्रायः समस्त) ग्राहक न तो बीमा प्रस्ताव पत्र देख पाते हैं और न ही खुद भरते हैं। बीमा एजेण्ट, अलग कागज पर सम्भावित ग्राहक के (बीमा प्रस्ताव में भरे जाने वाले) समस्त ब्यौरे लिख लेते हैं और सम्भावित ग्राहक से कोरे प्रस्ताव पत्र पर हस्ताक्षर करा लेते हैं। यह अत्यन्त सामान्य व्यवहार हो गया है किन्तु प्रसन्नता तथा सन्तोष की बात है कि इसका दुरुपयोग होने अथवा इस व्यवहार के कारण ग्राहक को नुकसान होने का कोई प्रकरण अब तक सामने नहीं आया है।

मेरा अनुभव है कि इन दिनों, सम्भावित बीमा ग्राहक, बीमा पर बात की शुरुआत ही इस ‘कमीशन वापसी’ से करते हैं। मैं उन्हें इस व्यवहार के लिए हतोत्साहित करता हूँ क्योंकि यदि एजेण्ट को कमीशन ही नहीं मिलेगा तो वह आपमें रुचि क्यों लेगा? उसके हिस्से का कमीशन अपनी जेब में रखकर आप उससे उत्कृष्‍ट ग्राहक सेवा की अपेक्षा क्यों और कैसे कर सकते हैं? बीमा करने के बाद ग्राहक की ओर पलट कर न देखने के पीछे, यह भी एक बडा और महत्‍वपूर्ण कारण हो सकता है।

पूरे न किए जान सकने वाले वादे करने के लिए किसी एजेण्ट पर कार्रवाई करना अथवा करा पाना मुझे प्रथम दृष्‍टया असम्भवप्रायः ही अनुभव होता है क्यों कि ऐसे वादे न तो लिखित में किए जाते हैं और ऐसे वादों का, सामान्यतः कोई गवाह भी नहीं होता। मेरी, अब तक की एजेन्सी अवधि में ऐसा एक भी प्रकरण सामने नहीं आया है।

ऐसे समस्त मामलों में एक तकनीकी तथ्य यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि बीमा एजेण्ट, कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता। इसलिए भी एजेण्ट पर कार्रवाई करना और करा पाना मुझे तनिक श्रमसाध्य और अत्यधिक दुरुह अनुभव होता है।

मुझे प्रसन्नता होगी यदि कोई और जिज्ञासा यहाँ प्रस्तुत की जाए। इसका सर्वाधिक लाभ मुझे ही मिलेगा।
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शुध्‍द बधाइयाँ, क्यों कि ये मेरी नहीं हैं

अभी सवेरे के आठ ही बजे होंगे। माघ अमावस्या की यह सुबह पर्याप्त ठण्डी है। लेकिन मैं अव्यक्त ऊष्‍मा की गुनगुनी शाल से लिपटा अनुभव कर रहा हूँ अपने आप को।
श्रीमतीजी को छोड़ कर अभी ही लौटा हूँ। वे शासकीय विद्यालय में अध्यापक हैं। उन्हें स्कूल छोड़ना मेरी दिनचर्या का अंग है। उन्हें आज जल्दी पहुँचना था। स्कूल में ध्वजारोहण समय पर हो जाना चाहिए।

आज सूरज भी अधिक खुश लगा। बादलों की कैद से मुक्त जो था। स्कूल की धुली ड्रेस पहन कर उल्लास से उछलते हुए, स्कूल जा रहे, किसी गरीब माँ के बेटे की तरह खुश लग रहा था। उसके बस्ते में आज ढेर सारी किरणें थीं : नरम-नरम और ठण्ड को हड़काती हुई।

सड़कों पर आवाजाही रोज सवेरे के मुकाबले तनिक अधिक थी लेकिन अधिकांश स्कूली बच्चे ही थे। सबके सब खुश। लगा, आज वे सब एक साथ स्कूल पहुँचना चाह रहे थे और इसीलिए एक-के-पीछे-एक पंक्तिबध्द होने के बजाय, हाथ में हाथ डाले चल रहे थे, पूरी सड़क पर फैलकर। मानो, न तो कोई आगे रहना चाह रहा हो और न ही किसी को पीछे रहने देना चाह रहा हो। सबके सब, सरपट भागते, एक-दूसरे का नाम जोर-जोर से लेकर पुकारते और साइकिलों पर पीछे से आकर उन्हें पीछे छोड़ते बच्चों की परवाह किए बगैर।

ऐसा नहीं कि सड़कों पर बच्चों के सिवाय और कोई नहीं था। सयाने लोग भी थे लेकिन असहज और शायद तनावग्रस्त। सरकारी कर्मचारी होंगे। समय पर मुकाम पर पहुँचने का तनाव उनक चेहरों पर चिपका हुआ था। वे बच्चों की तरह न तो उल्लसित थे और न ही तरोताजा। दिन शुरु होने से पहले ही थकने की तैयारी में हों मानो।

लौटते में सड़कों पर आवाजाही तो उतनी ही थी किन्तु गति सबकी तनिक तेज थी। दो बार टकराते-टकराते बचा। दोनों ही बार सामने से सायकलों पर आ रहे बच्चे थे। मुझे कोई जल्दी नहीं थी लेकिन बच्चों को तो थी। पहले वाला बच्चा तो मुझे देखकर, मुस्कुरा कर अपनी सायकल पर सवार हो गया किन्तु दूसरा वाले ने ऐसा नहीं किया। ‘सारी अंकल! हेप्पी रिपब्लिक डे अंकल!’ कह कर तेजी से पैडल मारते हुए तेजी से बढ़ चला।

उसने जिस प्रसन्नता, उल्लास, उत्साह और निश्‍छल आत्मीयता से मुझे ‘विश’ (मुझे नहीं पता कि यहाँ 'विश' लिख्ना चाहिए या ‘ग्रीट’) किया उसके सामने दुनिया के सारे गुलाब शर्मा गए, चिडियाएं चहकना भूल गईं, सूरज की चमक कम हो गई, हवाएँ ठिठक गईं मानो, इस प्रतीक्षा में कि वह बच्चा उन्हें भी ‘हेप्पी रिपब्लिक डे’ कहे।

उस बच्चे ने मुझे निहाल कर दिया। लौटकर दरवाजे का ताला खोलकर घर में प्रवेश किया तो लगा कि उस अपरिचित बच्चे का निष्‍कुलश मन और खिलखिलाता, झरने की तरह कल-कल करता लाड़-प्यार भी मेरे साथ चला आया है।

मैं सिस्टम खोल कर यह पोस्ट लिख रहा हूँ। अंगुलियाँ बार-बार अटक रही हैं, मन भटक रहा है। स्क्रीन धुंधला रहा है। टाइपिंग की गति बाधित हो रही है।

बरसों बाद ऐसा उल्लास भरा, जगर-मगर करता, उजला-उजला गणतन्त्र दिवस अनुभव हुआ है मुझे। उस अबोध बच्चे ने मुझे जिस अयाचित अकूत सम्पत्ति से मालामाल कर दिया है, वह सबकी सब मैं आप सबको अर्पित करता हूँ।

अपनी भावनाएँ मिला दूँगा तो बधाई दूषित हो जाएंगी। सो, इस गणतन्त्र दिवस पर आप सबको, मेरे जरिए उस अपरिचित, अबोध बच्चे की, बिना मिलावटवाली, शुध्द बधाइयाँ।

बहुत-बहुत बधाइयाँ।

हार्दिक अभिनन्दन।

जैसा त्यौहार मेरा हुआ, वैसा आप सबका भी हो।

अमर रहे गणतन्त्र हमारा।

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बागी हो जाने का मंगल मुहूर्त

'प्रसंग-लेखन' मुझे आपवादिक ही भाता है। यह मुझे रस्म अदायगी या कि खानापूर्ति लगता है। कर्मकाण्ड की तरह। पुरोहित मन्त्रोच्चार कर रहा है, मन्त्र का अर्थ किसी को समझ नहीं पड़ रहा है और लोग पुरोहित के कहे अनुसार क्रियाएँ सम्पादित कर रहे हों। ठीक वैसे ही जैसे कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधु कर रहे होते हैं।

इसलिए मैंने तय किया था कि ‘गणतन्त्र दिवस’ को विषय बना कर मैं कुछ नहीं लिखूँगा। फिर ध्यान आया कि इस बार का गणतन्त्र दिवस तनिक विशेषता और अनूठापन लिए हुए है। इसलिए, अपने निश्‍चय से हट रहा हूँ।

मुम्बई पर हुए, पाकिस्तान-पोषित/संरक्षित आतंकी आक्रमण के बाद का यह ठीक पहला गणतन्त्र दिवस है। उस आक्रमण ने पूरे देश को उद्वेलित, आक्रोशित, उत्तेजित और विचलित कर दिया था। सारा देश आड़ोलित हो उठा था। इस आक्रमण में हुए शहीदों के प्रति सम्मान जताने, आक्रमण का विरोध करने और देश के प्रति अपना प्रेम, समर्पण प्रकट करने के लिए लोगों ने अपने-अपने तरीके से आयोजन किए थे, शपथ ली थी, मानव श्रृंखलाएँ बनाई थीं, मोमबत्तियाँ जलाने के विराट् आयोजन किए थे। मुम्बई में तो बिना किसी निमन्त्रण के, मात्र परस्पर ‘एसएमएसीय सम्वाद’ से लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे। सब अपने नेताओं को बोरे में बाँध कर समुद्र में फेंक देने की बातें कर रहे थे। पाकिस्तान पर आक्रमण न करने के लिए अधिसंख्य नागरिक अपनी ही सरकार के पुंसत्व पर, सार्वजनिक रुप से सन्देह व्यक्त कर रहे थे और लगने लगा था कि सरकार यदि इसी तरह चुपचाप, हाथों पर हाथ धरे बैठे रही तो नागरिक खुद ही चल कर पाकिस्तान पहुँच जाएँगे।

वह सब देखना, उसके बारे में पढ़ना-जानना मुझे तब अच्छा तो लग रहा था किन्तु मुझे वह ‘श्‍मशान वैराग्य’ ही लग रहा था-किसी की भी नियत पर सन्देह किए बिना। आचरण की माँग करने वाले प्रसंगों को हम लोग उत्सवों में बदलकर, बड़ी ही कुशलता से, अपने-आप से झूठ बोल लेते हैं, आँख चुरा लेते हैं-सीनाजोर की तरह।


आज, जबकि बवण्डर की धूल बैठ चुकी है, (सरकार की ‘रणनीतिक सफलता’ के चलते) पाकिस्तान पर अन्तरराष्‍ट्रीय दबाव बढ़ने लगा है, वह अकेला पड़ कर अपने संरक्षक बदलने लगा है तब मुझे यह देखकर सचमुच में मर्मान्तक पीड़ा हो रही है कि मेरा सोचना सच साबित हुआ। ‘वह सब’ हमारा श्‍मशान वैराग्य ही था।

आज अपने आस-पास देखें तो सब कुछ वही का वही और वैसे का वैसा ही है जैसा कि 26 नवम्बर से पहले था। बड़ी-बड़ी बातें न करें, अपने ही गली-मुहल्ले की छोटी-छोटी बातें देखें। दैनिक भास्कर ने, शासकीय कर्मचारियों के, देर से कार्यालय पहुँचने और कामकाजी समय पर कार्यालयों से कर्मचारियों की अनुपस्थिति को लेकर एक समाचार कथा प्रकाशित की। खाली टेबलों-कुर्सियों के चित्र छापे। कलेक्टर को भी इसी से मालूम हुआ कि उनके अधीनस्थ ‘कामचोरी’ कर रहे हैं। उन्होंने कार्रवाई करने की घोषणा की रस्म अदायगी कर दी। हर कोई जानता है कि होना-जाना कुछ नहीं है। ‘फिर वही रतार बेढंगी’ वाली स्थिति अगले ही दिन लौट आएगी, इस पर सबको भरोसा था। वही हुआ भी।

‘मुम्बई-आक्रमण’ से ‘प्रभावित’ होकर कर्मचारियों के संगठनों ने कलेक्टोरेट में एक आयोजन किया था जिसमें अधिकांश कर्मचारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। शहीदों को भाव-भीनी श्रध्दांजलि दी थी और राष्‍ट्र के प्रति समर्पण की शपथ ली थी। वह शपथ ‘दो कौड़ी’ की साबित कर दी गई। समय पर कार्यालय पहुँचना और कार्यालय पहुँच कर अपनी कुर्सी पर बने रहकर काम करना शायद राष्‍ट्र-सेवा नहीं, कुछ और होता होगा!

इन्दौर यातायात पुलिस ने इन दिनों अपना पूरा अमला नगर के चार-पाँच क्षेत्रों में तैनात कर रखा है। इन क्षेत्रो को ‘इन्फोर्समेण्ट झोन’ घोषित कर, वहाँ लोगों का यातायात के साधारण नियमों का ज्ञान कराया जा रहा है और उनका पालन करवाया जा रहा है। लोग इससे असुविधा अनुभव कर रहे हैं। वे पुलिसकर्मियों के सामने ही नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। ताजा खबर है कि इस ‘पुलिसिया अत्याचार’ से बचने के लिए लोगों ने मुख्य सड़कों पर चलना बन्द कर दिया है और अब वे गलियों में होकर अपने गन्तव्य पर पहुँच रहे हैं। यातायात नियमों का ईमानदारी से पालन करना भी राष्‍ट्र-प्रेम नहीं होता!

विधिक विवादों के चलते, आजाद चौक उपेक्षा और अव्यवस्था का शिकार बना हुआ है। वहाँ अशोक स्तम्भ भी स्थापित है। अखबारों में खबर है कि ‘आजाद क्लब’ ने नगर निगम से माँग की है कि वहाँ व्यापक पैमाने पर सफाई और समुचित प्रकाश व्यवस्था करवा कर मंच और माइक की वैकल्पिक व्यवस्था की जाए (ताकि ‘आजाद क्लब’ वहाँ ‘गणतन्त्र दिवस समारोह’ सम्पन्न करा सके)। ‘अपना काम’ कराने के लिए हम हजारों रुपयों की रिश्‍वत दे देंगे, मांगलिक प्रसंगों के आयोजनों पर मूर्खतापूर्ण और अनावश्‍यक मदों पर हजारों रुपये खर्च कर देंगे, नेता के प्रति निष्‍ठा प्रदर्शित करने के लिए हजार-हजार पटाखों वाली बीसियों लड़ियाँ ‘छोड़’ देंगे। किन्तु गणतन्त्र दिवस जैसे ‘राष्‍ट्रीय त्यौहार’ पर अपनी ही झाँकी जमाने के लिए हम नगर निगम से व्यवस्थाओं की माँग करेंगे। हम देश के लिए खून देने की बातें तो करते हैं लेकिन हमारा आचरण बार-बार (और अत्यधिक निर्लज्जता से) साबित करता है कि हमारे खून में देश तो कहीं है ही नहीं!


ऐसे में, अपनी उनसठवीं वर्ष गाँठ के इन क्षणों में हमारा (साठवाँ) गणतन्त्र दिवस हमारे सामने आत्म-परीक्षण की कसौटी बन कर खड़ा है। निस्सन्देह हम समारोह करें, उत्सव मनाएँ किन्तु अपने आप से सवाल करने का साहस भी करें। मुमकिन है, हमारा जवाब हमें ही शर्मिन्दा करने वाला हो। लेकिन ‘जवाब’ और ‘जवाबदेही’ से बचते रहकर हम और सब कुछ हो सकते हैं, बस! राष्‍ट्र-भक्त नहीं होंगे। आजादी केवल अधिकार नहीं होती। अधिकार से पहले वह जवाबदारी होती है। अधिकार और जवाबदारी-आजादी के सिक्के के दो पहलू हैं। एक भी पहलू की अनुपस्थिति में सिक्का अपना मूल्य खो देता है। बात कड़वी है किन्तु क्या किया जाए-सच है कि हम अपनी आजादी को खोटे सिक्के में बदलने का राष्‍ट्रीय-अपराध (इसे राष्‍ट्र-द्रोह क्यों न कहा जाए?) कर रहे हैं।

देश प्रेम का अर्थ केवल, युध्द काल में सीमाओं पर प्राण दे देना नहीं होता। किसी भी कौम के राष्‍ट्र-प्रेम या कि देश-भक्ति की असली परीक्षा तो सदैव शान्ति काल में ही होती है। शान्ति काल में यदि हम अनुशासनहीन हैं, अपने ही देश के कानूनों का निर्लज्ज उल्लंघन कर रहे हैं, व्यवस्थाओं को भंग कर रहे हैं तो किसी को कितना ही बुरा क्यों न लगे, इसका एक ही मतलब है कि हम अपने देश से गद्दारी कर रहे हैं और गद्दारी के सिवाय और कुछ भी नहीं कर रहे हैं।


मेरी बातों की खिल्ली उड़ाई जा सकती है और हँस कर खारिज किया जा सकता है किन्तु यह सच है कि जिन छोटी-छोटी बातों को हम महत्वहीन मानते हैं वे ही बड़े मायने रखती हैं। मेरे हिसाब से तो यातायात के नियमों का पालन करना भी देश के प्रति वफादारी निभाना है।


सो, इस पावन प्रसंग पर यदि हम सचमुच में कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना ही करें कि खुद से ईमानदारी बरतते हुए खुद से वादा करें कि हम अपने आचरण में देश को उतारेंगे और ऐसा करते हुए लोग हम पर कितना ही हँसे, हम अपने वादे से मुकरेंगे बिलकुल ही नहीं। वादा केवल वादा होता है, छोटा या बड़ा नहीं होता। कम से कम एक वादा हम खुद से करें और उसे पूरी ईमानदारी से इस तरह निभाएँ कि खुद से शर्मिन्दा न होना पड़े।

अपने प्रिय कवि-मित्र विजय वाते का एक शेर एक बार फिर प्रस्तुत कर रहा हूं जो हमारी असलियत (या कि बेशर्मी) को बड़ी ही बेबाकी से उघाड़ता है -

चाहते हैं सब के बदले ये अंधेरों का निजाम

पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

लेकिन अब तो पानी सर से ऊपर बह रहा है। अपने घर में बागी पैदा करने जितना वक्त भी नहीं है। अब तो खुद बागी बन जाने का वक्त आ गया है-फौरन।

आईए। अपने वतन के लिए बागी बन जाएँ।

(मेरी यह पोस्‍ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, 'साप्‍ताहिक उपग्रह' के 'गणतन्‍त्र दिवस विशेषांक' के लिए लिखी गई है जो कल प्रकाशित होगा। इसे यहां देने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।)
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लड़कियाँ अच्छी लगती हैं मुझे

पता नहीं, पण्डित जसराज ने, किस सन्दर्भ और प्रसंग में ‘मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं’ कहा होगा। किन्तु वे विवादास्पद तो हो ही गए। मेरा इरादा विवादास्पद होने का बिलकुल ही नहीं है फिर भी स्वीकार करता हूँ - हाँ, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को सतत् देखते रहना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि अपने अन्तिम क्षण तक उन्हें, आँखों से पीता रहूँ। वे एक क्षण भी मेरी आँखों से ओझल न हों।


हम दोनों भाइयों को दो-दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पिताजी को हम दोनों भाइयों ने पता नहीं कोई सुख दिया या नहीं किन्तु एक दुख से हम उन्हें आजीवन मुक्त नहीं कर पाए-‘पोती का दादा न बनने का दुख।’ जब भी कोई प्रसंग आता, वे गहरी निःश्‍वास छोड़ते हुए, हम दोनों भाइयों को दयनीय दृष्‍िट से देखते हुए कहते-‘अवश्‍य ही तुम दोनों ने ईश्‍वर के प्रति कोई अक्षम्य अपराध किया होगा, इसीलिए भगवान ने तुम दोनों को बेटी नहीं दी। तुम अभागे हो।’
वे जन्मना अपंग थे फिर भी यथासम्भव अधिकाधिक कर्मकाण्डी और रूढ़ी-प्रिय थे। किन्तु हमारे यहाँ बेटी न जन्मने को लेकर उन्होंने कभी भी कोई रूढ़ीवादी अथवा पारम्परिक उलाहना नहीं दिया। न ही कभी ‘जिन कन्या-धन को दान कियो, तिन और को दान कियो न कियो’ कह कर हमें धिक्कारा। उन्होंने ‘बेटी के होने’ को सदैव ही व्यक्ति के सामाजिक आचरण और बोलचाल (अर्थात् भाषा) के संस्कारों से जोड़ा।

उनकी कही बातें मुझे पल-पल याद आती हैं। घर में एक बेटी हो तो पूरे परिवार की भाषा शालीन और सुघड़ हो जाती है। आदमी, पर-पीड़ा तनिक अधिक सम्वेदनशीलता से अनुभव कर सकता है। उसके मुँहफट (साफ-साफ कहूँ कि ‘अशिष्‍ट’) होने की आशंका कम रहती है। महिलाओं के प्रति उसके दृष्‍िटकोण, सोच और व्यवहार में अनायास ही सम्मान-भाव आता ही है।

पिताजी की प्रत्येक बात मुझे खुद पर खरी होती अनुभव होती है। मुझे बेटी होती तो मैं सम्भवतः इतना शुष्‍क, इतना अव्यावहारिक, सामनेवाले की भावनाओं की चिन्ता किए बगैर ‘पत्थर-मार’ (जिसे हम मालवी में ‘भाटा-फेंक’ कहते हैं) बोलनेवाला न होता। मुझे दूसरों के कष्‍टों का तनिक अधिक अनुमान होता।

जब हमारा छोटा बेटा तथागत गर्भस्थ था तब हम पति-पत्नी ने कौन-कौन सी मनौतियाँ नहीं लीं? खूब देवी-देवता याद किए। मन्दिर-देवल पर माथा टेका। किन्तु सचमुच में मेरा अपराध ऐसा गम्भीर रहा होगा और कि ‘करुणा सागर’ भी नहीं द्रवित नहीं हुए और मैं ‘बेटी का बाप’ नहीं बन सका।

पत्नी के दोनों प्रसव चूँकि ‘सीजेरियन’ हुए थे, डाक्टरों ने ‘दो-टूक’ चेतावनी दे दी थी-‘तीसरा प्रसव आपकी पत्नी के लिए प्राणलेवा होगा।’ अन्यथा, ‘जनसंख्या नियन्त्रण’ में अटूट आस्था रखने के बाद भी मैं ‘बेटी की आस’ में तीसरी सन्तान अवश्‍य चाहता।
बड़े बेटे का विवाह हुआ तो हमने बहू में बेटी को देखना चाहा। किन्तु लगभग एक वर्ष पूरा होने वाला है, हमारी चाहत पूरी होती नहीं दीख रही।

एक चुटकुला मेरी सहायता करेगा। पति-पत्नी मन्दिर गए। दोनों ने मौन प्रार्थना की। लौटते में पति ने पत्नी से पूछा-‘मैं ने तो भगवान से धन-दौलत माँगी। तुमने क्या माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘सद्बुद्धि।’ पति ने सरोष पूछा-‘क्यों, धन क्यों नहीं माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘जिसके पास जो नहीं होता, भगवान से वही माँगता है।’

मेरी भी यही दशा है। मेरे घर में कोई ‘लड़की’ नहीं है। इसीलिए मैं लड़कियाँ देखता रहता हूँ। उन्हें अपनी आँखों से पी लेना चाहता हूँ। लड़कियाँ : गोद में, पालने में किलकारियाँ मारती लड़कियाँ, आँगन में फुदकतीं, छोटे भाइयों के मुकाबले उपेक्षित/प्रताड़ित होती, पैदल, सायकिल, रिक्‍शे में स्कूल जाती लड़कियाँ, किताबें छाती से चिपटाए, झुकी-झुकी नजरों को चपलता से घुमाते-फिराते अपने आस-पास के खतरों को भाँपती लड़कियाँ, सारी दुनिया की वर्जनाओं को ठेंगा दिखाकर, बेलौस, आकाश-फाड़ हँसी हँसती लड़कियाँ। बस, लड़कियाँ ही लड़कियाँ।

मेरी अपनी कोई लड़की नहीं है सो मैं लड़कियों से सम्पर्क बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। किन्तु उनसे सम्पर्क बनाए रखते हुए लगातार डरता भी रहता हूँ कि कहीं नाराज होकर वह मुझसे सम्पर्क न तोड़ ले।

मैं भूल जाना चाहता हूँ कि मेरे घर में कोई लड़की नहीं है। मैं अपने घर के इस (कभी न भरे जाने वाले) अधूरेपन को बार-बार भूल जाना चाहता हूँ। इस तरह कि फिर कभी याद न आए। लेकिन बार-बार भूलने की कोशिश ही प्रमाण है कि मैं यह बात अब तक, एक बार भी भूल नहीं पाया हूँ।

आज तो मेरे पास भूलने का कोई बहाना भी नहीं रहा। अखबारों के पन्ने आज -‘राष्‍ट्रीय बालिका दिवस’ के नाम पर लड़कियों पर केन्द्रित विज्ञापनों और समाचारों से अटे पड़े हैं।
जो लड़की ‘न होकर’ भी मेरी आत्मा पर चैबीसों घण्टे ‘हुई होकर’ बनी रहती है उसी लड़की को मैं रोज की तरह आज भी दिन भर देखने की कोशिश करता रहूँगा : आती-जाती लड़कियो को देखते रह कर, निर्निमेष और अपलक नेत्रों से।

मेरे घर में, अखबारों में छपी लड़की है। लेकिन कागजी लड़की की अपनी सीमाएँ हैं। मुझे ऐसी लड़की चाहिए जो मेरे कान उमेठे, जिद करे, रूठ कर खाना खाने से इंकार करे और मैं उसे मनाऊँ, जिसे बड़ा होते देख कर मेरी नींद हराम हो जाए, जिसकी शादी की चिन्ता मुझे दुबला बना दे, जिसकी खिन्नता मुझे डराती रहे, जिसमें मैं अपनी माँ प्राप्त कर सकूँ ।

इसीलिए, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को अतृप्त नजरों से लगातार देखते रहना चाहता हूँ। तब तक, जब तक कि मेरे प्राण न निकल जाएँ।
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दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह


रतलाम से इन्दौर रेल-यात्रा के दौरान मुझे यह चित्र मिला था, कोई तीन माह पहले। तबसे लेकर अब तक इस चित्र को कई बार देखा। बार-बार देखा और हर बार यह चित्र मुझे अनूठा तथा और अधिक सुन्दर लगा।


नहीं, इसमें न तो फोटोग्राफिक-ब्यूटी है और न ही पिक्टोरियल ब्यूटी। और जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझमें तो फोटो लेने का ढंग भी नहीं है। माँ की गोद में निश्‍िचन्तता से सो रहा बच्चा-यही इस चित्र की सुन्दरता मुझे लगी।


रतलाम-इन्दौर रेल खण्ड के एक भाग में रेल खूब उछलती है। यात्री ऊँचे-नीचे होने लगते हैं, दचके लगते हैं। बैठे यात्री असहज हो जाते हैं और साये हुओं की निन्द्रा भंग हो जाती है। तब भी ये बच्चे गहरी नींद में ही थे।


दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह, माँ की गोद ही तो होती है! मनुष्‍य किलकारी मारे या क्रन्दन करे-उसके स्वरों में 'माँ' ही होती है। मनुष्‍य के जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा अन्ततः 'माँ से माँ तक की यात्रा' ही होती है।


माँ : कहने, देखने, सुनने को मात्र एक शब्द। वह भी मात्र एक अक्षर का। किन्तु जिसमें सारी दुनिया समा जाए और जगह फिर भी बची रहे। इतनी कि कई-कई सृष्‍िटयाँ समा जाए।


माँ : कितना कुछ लिखा गया माँ पर? किन्तु सबका सब अधूरा और अपर्याप्त!


माँ : जिसके लिए कहा गया कि ईश्‍वर तो सबके साथ हो नहीं सकता इसलिए ईश्‍वर ने माँ बना दी।


माँ : जो कभी नहीं मरती। हमारी धमनियों में अनवरत बहती रहती है। रक्त में बनकर।


माँ : जिसे भले ही ईश्‍वर ने बनाया किन्तु जिसकी आवश्‍यकता खुद ईश्‍वर को रहती है।


बस! इस ‘माँ’ और ‘माँ की गोद’ के कारण ही मुझे यह चित्र सुन्दर लगा।


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बीमा एजेण्ट की आचरण संहिता

बीमा एजेण्टों को तो सब कोई जानते हैं किन्तु बीमा एजेण्टों के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। और उनके काम-काज के बारे में? शायद और भी बहुत कम लोग जानते होंगे। इसका बड़ा कारण सम्भवतः यही है कि बीमा एजेण्ट जब भी मिलता है तो वह या तो अपनी बात कहता है या फिर आपसे, आपके बारे में पूछताछ करता है। बीमा एजेण्ट की सामान्य छवि ‘माथा खाऊ’ या फिर ‘चिपकू‘ की बनी हुई है।


आज आप जानिए कि आप भी बीमा एजेण्ट से काफी कुछ पूछ सकते हैं। इस ‘पूछ-ताछ’ का अधिकार आपको दिया है - बीमा विनियामक एवम् विकास प्राधिकरण ने जिसे 'आईआरडीए' के नाम से जाना-पहचाना जाने लगा है। किन्तु पूछताछ का यह अधिकार इस तरह दिया गया है कि जनसामान्य को इसकी जानकारी नहीं हो पाई है। यह अधिकार, एजेण्टों के लिए निर्धारित की गई, सत्रह सूत्री आचरण संहिता के अन्तर्गत दिया गया है। चूँकि यह आचरण संहिता केवल एजेण्टों के तक ही सीमित ही है, सो इसकी जानकारी जन सामान्य को न तो हुई है और न ही हो सकेगी।


आपकी जानकारी के लिए मैं इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ।


1- सम्भावित ग्राहक को अपनी कम्पनी का परिचय देना।


2-सम्भावित ग्राहक के माँगने पर, अपना लायसेन्स दिखाना।


3-अपनी कम्पनी की बीमा योजनाओं की विस्तृत और पूरी जानकारी देना।


4-सम्भावित ग्राहक की आवश्‍यकताओं को जानकर, उन्हें अनुभव कर, तदनुरूप उचित बीमा योजना बताना। (अर्थात् अपने कमीशन की कम और ग्राहक की चिन्‍ता ज्‍यादा करना तथा सबसे पहले करना।)


5-सम्भावित ग्राहक के पूछने पर उसे (एजेण्ट को) मिलने वाले कमीशन की दरें बताना।


6-प्रस्ताव-पत्र में माँगी गई जानकारियों की प्रकृति एवम् महत्व बताना।


7-सम्भावित ग्राहक को समझाना कि वह (सम्भावित ग्राहक) कोई जानकारी छिपाए नहीं।


8-'सम्भावित ग्राहक' के 'बीमा ग्राहक' बन जाने की दशा में, बीमा ग्राहक के बारे में, सभी प्रकार की जाँच पड़ताल करना। अर्थात्-बीमा ग्राहक ने जो सूचनाएँ दी हैं, उनकी वास्तविकता जानने की कोशिश करना।


9- बीमा ग्राहक को उन महत्वपूर्ण तथ्यों (जिनमें बीमा ग्राहक की आदतें भी शामिल हैं) की जानकारी देना जिनका प्रतिकूल प्रभाव, बीमांकन सम्बन्धी निर्णय पर हो सकता है।

10-बीमा ग्राहक के बीमा प्रस्ताव के निपटान (स्वीकृत/अस्वीकृत होने) की सूचना बीमा ग्राहक को देना।


11-बीमा कम्पनी यदि अनुभव करे कि कुछ आवश्‍यकताओं का पालन करने के लिए, किसी एजेण्ट को पालिसीधारकों/दावाकर्ताओं की यथोचित सहायता करनी चाहिए तो बीमा कम्पनी के कहने पर ऐसी सहायता करना। अर्थात्, बीमा कम्पनी के कहने पर, उन पालिसीधारकों/दावाकर्ताओं की भी सहायता करना जिनका बीमा उसने नहीं किया है।


12-बीमा ग्राहक से आग्रह करना कि बीमा प्रस्ताव में नामांकन अवश्‍य कराए।


13-यथा सम्भव प्रयास करते हुए सुनिश्‍िचत करना कि (उसके द्वारा बेची गई पालिसियों के) पालिसीधारकों ने, देय प्रीमीयम, निर्धारित समयावधि में जमा करा दी है। इस हेतु अपने पालिसीधारकों को लिखित/मौखिक सूचना देना। {सामान्य अनुभव है कि पालिसी बेचने के बाद बीमा एजेण्ट पलट कर नहीं देखता। जबकि मेरा मानना है (और जैसा कि मैं अपने सम्भावित बीमा ग्राहकों को कहता भी हूँ) कि पालिसी बेचने के अगले ही क्षण से बीमा एजेण्ट का वास्तविक काम शुरू होता है। मेरा सुनिश्‍िचत मत है कि जिस समयावधि की पालिसी बेची गई है, उस समयावधि तक के लिए बीमा ऐजण्ट का सम्बन्ध, अपने बीमाधारक से शुरू होता है।}


14-गलत जानकारी देने के लिए सम्भावित बीमा ग्राहक को प्रोत्साहित नहीं करना।


15-दूसरे बीमा एजेण्टों द्वारा लाए गए बीमा प्रस्तावों में हस्तक्षेप नहीं करना।


16-पालिसीधारकों को बीमा कम्पनी से मिलने वाले भुगतान/लाभांश में न तो हिस्सा माँगना और न ही (पालिसीधारक द्वारा स्वैच्छिक रूप से दिए जाने पर भी) स्वीकार करना।


17-सम्भावित बीमा ग्राहक से नया बीमा प्राप्त करने के लिए (सम्भावित बीमा ग्राहक की) कोई चालू पालिसी बन्द/निरस्त नहीं कराना।


यहाँ मैं ने, आईआरडीए द्वारा प्रसारित आचरण संहिता को शब्दश: प्रस्तुत करने के स्थान पर उसे सामान्य भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मूल भाषा/शब्दावली मुझे तनिक क्लिष्‍ट अनुभव हुई सो मैं ने अपने स्तर पर यह कोशश की है। अतः, यहाँ प्रस्तुत बातें, आईआरडीए द्वारा प्रसारित आचरण संहिता का सरलीकृत रूप है, आधिकारिक रूप नहीं।


अब जरा याद कीजिए कि आपसे किसी बीमा एजेण्ट ने जब मुलाकात की थी तब उसने, इस आचरण संहिता के किसी निर्देश का उल्लंघन तो नहीं किया था?


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हाय! रे चुनाव, हाय! रे वोट


मेरा कस्बा यूँ तो जिला मुख्यालय है किन्तु लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के हिसाब से, झाबुआ संसदीय क्षेत्र का हिस्सा है। नए परिसीमन के बाद अब इसका नाम ‘झाबुआ संसदीय क्षेत्र’ से बदल कर ‘रतलाम संसदीय क्षेत्र’ अवश्‍य हो गया है किन्तु इसकी संचरचना यथावत् है। अर्थात्, पूरा झाबुआ जिला और रतलाम जिले के तीन विधान सभा क्षेत्र (रतलाम नगर, रतलाम ग्रामीण और सैलाना)। अन्तर केवल यह हुआ है कि नामांकन प्रस्तुत करने, नामांकनों की जाँच जैसे जो काम पहले झाबुआ जिला मुख्यालय पर हुआ करते थे, वे सब अब रतलाम जिला मुख्यालय पर होंगे। स्पष्‍ट है कि इस सबमें केवल अधिकारियों की सुख-सुविधा की चिन्ता के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है।


कान्तिलाल भूरिया, लोकसभा में हमारे प्रतिनिधि हैं। वे केन्द्रीय मन्त्रि-मण्डल में कृषि राज्य मन्त्री भी हैं। लोकसभा के अगले चुनावों में उनकी उम्मीदवारी सौ टका पक्की है।


अभी-अभी हुए विधान सभा चुनावों में रतलाम नगर विधान सभा क्षेत्र में कांग्रेस की जमानत जप्त हो गई। हर कोई कहता मिल रहा है कि कान्तिलाल भूरिया ने अपने प्रिय पात्र को उम्मीदवारी दिलवाई थी किन्तु उसे जितवाना तो दूर रहा, उसकी जमानत बचाने में भी वे सफल नहीं रह पाए।


विधान सभा चुनावों में कांग्रेसियों द्वारा कांग्रेस को हराने की बात चैड़े-धाले जाहिर हुई। कांग्रेस को इस मुकाम पर लाने वालों को कान्तिलाल भूरिया और उनका प्रिय पात्र ही नहीं, सारा शहर भली प्रकार जानता है। एक ‘संगठन’ के नाते होना तो यह चाहिए था कि भीतरघात करनेवालों पर तत्काल कड़ी कार्रवाई होती। किन्तु लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसा करना अत्यन्त घातक होता।


सो, अभी-अभी (दो दिन पूर्व) कान्तिलाल भूरिया ने रतलाम में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बैठक में और बाद में पत्रकार वार्ता में घोषणा की कि लोकसभा चुनावों में जिस वार्ड में कांग्रेस हारेगी वहाँ के वार्ड पार्षद को, नगर निगम के चुनावों में कांग्रेस का उम्मीदवार नहीं बनाया जाएगा। यह विचार करने की आवश्‍यकता बिलकुल ही नहीं है कि भूरिया की यह घोषणा, घोषणा नहीं, चेतावनी है या फिर राजनीतिक ब्लेक मेलिंग है। यदि इनमें से कुछ नहीं है तो फिर यह या तो लालच है या फिर याचना।


हमारे राजनेताओं का असली चेहरा यही है। यदि संगठन की चिन्ता होती तो भूरिया को चाहिए था कि विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की दुर्गत करनेवालों को आज ही सबक सिखा देते। किन्तु ऐसा करने के लिए राजनीतिक साहस चाहिए जो आज हमारे राजनेताओं में विलुप्त होता जा रहा है।


मजे की बात यह है कि जब पत्रकारों ने, विधान सभा चुनावों में भीतरघात करनेवाले कांग्रेसियों पर की जाने वाली कार्रवाई की बाबत पूछा तो भूरिया ने कहा कि मामला हाईकमान के सामने लम्बित है। किन्तु यही भूरिया, अपनी जीत सुनिश्‍िचत करने के लिए अभी से चेतावनी (जिसे जैसा कि ऊपर कहा गया है, धमकी, लालच या फिर याचना) का सहारा ले रहे हैं। कार्रवाई न करने के लिए एक ओर हाईकमान के नाम का बहाना और दूसरी ओर सुनिश्‍िचत कार्रवाई करने की पूर्व घोषणा।


भूरिया अकेले नहीं जो ऐसा कर रहे हैं। वे तो ऐसा करने वालों की भीड़ के सामान्य प्रतिनिधि मात्र हैं।


हाय! रे चुनाव, हाय! रे वोट।
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बोलने की कीमत


इस चित्र में सबसे बांये है राकेश, मध्‍य में अविनाश और सबसे दाहिने है अशोक सिंह। प्रदेश के मूलत: भिण्ड निवासी, अशोक सिंह, स्‍टेट बैंक आफ इन्‍दौर में परिवीक्षाधीन अधिकारी के पद पर कार्यरत है। अविवाहित है (अभी-अभी सगाई हुई है) और घर से सैंकड़ो किलोमीटर दूर, ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है।


अशोक के बीमा प्रस्ताव के लिए लिपिडोग्राम परीक्षण कराना था। एजेण्ट की जिम्मेदारी होती है कि प्रस्तावक को साथ ले जाए, उसकी पहचान की पुष्टि करे। हम दोनों सवेरे-सवेरे ही पैथालाजी लेब गए। कर्मचारी ने अशोक के रक्त का नमूना लिया। परीक्षण शुल्क का भुगतान अग्रिम करना था। कर्मचारी को पाँच सौ रुपयों का नोट दिया। हम सम्भवतः पहले ही ग्राहक थे। उसके पास छुट्टे नहीं थे। सो वह लेब-स्वामी के पास गया। उसकी वापसी तक हम दोनों फुर्सत में थे। हम दोनों की नजर, लेब के पारदर्शी दरवाजे पर चिपके उस पोस्टर पर गई जिसका चित्र यहाँ दिया गया है।



हमने चारों ‘सुभाषित’ परामर्शों पर मन्थन शुरु कर दिया और जल्दी ही इन निष्‍‍कर्षों पर पहुँच गए - ‘न बोलना तो असम्भव प्रायः है ही, कम बोलना भी कम कठिन नहीं।’ और ‘आदमी को बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’ छुट्टे लेकर कर्मचारी लौटा। अपनी बकाया रकम लेकर हम लोग लौट आए।



अशोक का निवास रास्ते में ही था। मैंने अपनी मोटर सायकिल धीमी की। अशोक ने उतरने की तैयारी करते हुए कहा-‘सर! आधा-आधा कप चाय हो जाए।’ सुनकर, इससे पहले कि अशोक उतर पाता, मैंने तत्क्षण ही गाड़ी बढ़ा ली। मैंने विचार किया कि अकेला आदमी कहाँ चाय बनाने का खटकरम करेगा? मैं भले ही बैरागी हूँ किन्तु हूँ तो 'बाल-बच्चेदार, गृहस्थ बैरागी'! पत्नी फटाफट चाय बना देगी। अशोक व्यर्थ के परिश्रम से बच जाएगा और चाय भी मिल जाएगी।



जैसे ही मैंने गाड़ी बढ़ाई, अशोक ने कहा-‘अरे! सर। माँ ने खाना बना लिया होगा। अभी चाय पी लूँगा तो खाना खराब हो जाएगा।’ मैं तो अशोक को रतलाम में ‘फक्कड़’ ही मान रहा था। लेकिन मालूम हुआ कि उसकी माँ साथ ही है। किन्तु माँ के साथ होने की सूचना से अधिक मुझे अशोक के तर्क पर अचरज हुआ।



मैंने गाड़ी धीमी कर पूछा - ‘यह क्या बात हुई? यदि तुम्हारे घर चाय पीते तो तुम्हारा खाना खराब नहीं होता। और तुम्हारी चिन्ता कर मैं तुम्हारे लिए मेरे घर चाय बनवाऊँगा तो (चाय पीने से) तुम्हारा खाना खराब हो जाएगा?’



अशोक कोई जवाब देता उससे पहले ही मेरा घर आ गया। हम दोनों उतरे। अशोक का एक परम मित्र अविनाश मेरे ही मकान मे रह रहा है। वह भी उसी बैक में परीविक्षाधीन अधिकारी है और पटना से हजारों किलोमीटर दूर, अशोक की ही तरह ‘परदेस’ में नौकरी कर रहा है। मैंने अशोक से कहा कि अविनाश को भी बुला लाए। तीनों साथ-साथ चाय पीएँगे।



मैंने मेरी श्रीमतीजी को चाय बनाने को कहा। वे दोनों आए और हमारी बातें शुरु हो गईं। बात फिर ‘न बालने’ और ‘कम बोलने’ पर आ गई। मैंने एक लोक कथा सुनाई जिसमें, एक चेला अपने गुरु की अनुपस्थिति में एक राजा को (राजा पर अपना प्रभाव जताने की नीयत से) ‘पुत्रवान भवः’ का आशीर्वाद दे देता है, यह जानते हुए भी कि राजा को पुत्र योग नहीं है। लौटने पर गुरु को चेले की करनी मालूम होती है तो वे कहते हैं कि अपना आशीर्वाद फलित करने के लिए चेले को प्राण त्याग कर राजा के यहाँ जन्म लेना पड़ेगा। अर्थात् चेले को बोलने की कीमत चुकानी पड़ेगी। इस कथा में, बोलने के कारण एक हिरण को अपनी जान से हाथ धोने पड़ते हैं और बोलने के कारण ही राजा के महामन्त्री की जान पर बन आती है।
लोक कथा सुन कर अशोक और अविनाश खूब हँसे। कहानी कहने-सुनने में हमारी चाय हो चुकी थी। दोनों को नौकरी पर जाना था और मुझे भी अपने काम-धन्धे से लगना था। सो मैंने दोनों को विदा किया।



चाय के लिए धन्यवाद देकर, विदा-नमस्कार करते हुए अशोक ने सस्मित कहा-‘सर! कहाँ तो मैं चाहता था कि आप मेरे निवास पर चाय पीएँ। लेकिन मैंने खाना खराब होने की बात बोली तो मुझे आपके यहाँ चाय पीनी पड़ी। आपका मेजबान बनने के बजाय मैं आपका मेहमान बन गया। आपके साथ चाय तो पी ली किन्तु मेरी भावना धरी रह गई और मेरी भूमिका बदल गई। वाकई में बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।’



अशोक ने अत्यन्त प्रभावशीलता से सन्दर्भ को जोड़ते हुए जिस परिहासपूर्ण शैली में यह सब कहा उससे हम तीनों ही, दरवाजे पर खड़े रह कर देर तक हँसते रहे।



हम सब, एक लोक कथा को साकार होने के साक्षी बन गए थे।
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आगत की आहट

दो दिनों से मैं हतप्रभ और चकित हूँ। हम हमारी राजनीति को किस दिशा में ले जा रहे हैं और कहाँ पहुँचाना चाहते हैं?

संजय दत्त को चुनाव लड़ाने की घोषणा न केवल सहजता से अपितु अतिरिक्त आत्म विश्‍वास से ऐसे गर्वपूर्वक की जा रही है मानो दे”ा पर ‘महत् उपकार’ किया जा रहा हो। और संजय के चुनाव न लड़ने की दशा में नम्रता को चुनाव लड़ाने का भरोसा ऐसे दिया जा रहा है मानो किसी बड़ी-गम्भीर हानि से बचा लिए जाने की सूचना दी जा रही हो।

उधर अम्बानी और मित्तल परामर्श दे रहे हैं-मोदी को प्रधान मन्त्री बनाया जाए। मोदी को प्रधान मन्त्री बनाए जाने पर किसी को ऐतराज नहीं हो सकता किन्तु परामर्श देने वालों के दुस्साहस भरे आत्म-विश्‍वास पर आक्रोश आता है।

हमने लोकतान्त्रिक संसदीय शासन पध्दति स्वीकार की हुई है। नाम से ही स्पष्‍ट है कि हमारी शासन पध्दति 'लोक आधारित, लोक केन्द्रित और लोक लक्ष्यित' है। इसका क्रमिक सत्य यही है कि हमारे राजनेताओं (शासकों) को ‘लोक’ की रग-रग की जानकारी होनी चाहिए। इसीलिए हमारी अलिखित परम्परा रही है कि निर्वाचित जन-प्रतिनिधि ही हमारा प्रधान मन्त्री हो। इस परम्परा का खण्डन मनमोहनसिंह के प्रधान मन्त्री बनने से प्रारम्भ हुआ अवयय है किन्तु लगता नहीं कि ‘यह खण्डन’ परम्परा बन पाएगा।

संजय दत्त, अम्बानी, मित्तल और इनके जैसे लोग ‘लोक’ का मर्म और महत्व क्या जानें? 'ओस' का नाम सुनकर जिन्हें जुकाम हो जाए, वे लोग शासक बनेंगे तो देश की दुर्दशा भी अकल्पनीय होगी। जिस देश की 34 प्रतिशत जनसंख्या घोषित रूप से गरीबी रेखा के नीचे जी रही हो और 80 प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रहे हों वहाँ अम्बानी-मित्तल की सिफारिश पर कुर्सियों पर बैठने वाले और संजय दत्त जैसे, अवास्तविक जीवन जीने वाले लोगों से ‘गरीब के पैर में फटी बिवाई’ की बात करने और सुनने की कल्पना ही बेमानी होगी।

बम्बईया अभिनेताओं की अब तक की राजनीतिक भूमिका सर्वथा निराश करने वाली ही रही है। अमिताभ बच्चन से लेकर गोविन्दा तक का कोई योगदान अनुभव नहीं होता। दक्षिण भारतीय अभिनेताओं के सामने ये अभिनेता ‘पिद्दी और पिद्दी का शोरबा’ भी नहीं हैं। एन.टी.रामाराव से उनके एक प्रशंसंक ने पूछा था कि उनके अभिनय से उसे (प्रशंसक) क्या हासिल है? उत्तर में एनटीआर ने तेलुगुदेशम बना कर सफल राजनीतिक पारी खेली। मुम्बईया अभिनेताओं के पास इस बात को कोई जवाब नहीं है कि वे राजनीति में किस उद्देश्‍य से आए हैं।

पहले ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगा था जो ‘गरीब हटाओ’ में बदलता अनुभव होने लगा था। अब तो लग रहा है कि ‘गरीब को मारो‘ वाली दिशा में हमारी राजनीति अग्रसर हो रही है।
संजय गाँधी के जमाने में कांग्रेस में ‘छाताधारी उम्मीदवार’ (कमलनाथ इस ‘हरावल दस्ते’ के सबसे पहले और सबसे आगे वाले ‘सिपाही’ थे) उतरने की शुरुआत आज ‘समाजवादी पार्टी’ पर अमरसिंह जैसे दलाल के कब्जे तक पहुँच गई है।

आसार अच्छे नहीं हैं।

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