रतलाम में अतिथि 'रतलामी'

यह शनिवार 7 फरवरी की दोपहर की बात है। अनुजवत् प्रिय (प्रो) संजय वाते और (प्रो) अभय पाठक के साथ मैं कला एवम् वाणिज्य महाविद्यालय में लगी, रंगकार आलोक भावसार की एकल चित्र प्रदर्शनी देख रहा था। ‘नारी सशक्तिकरण’ पर केन्द्रित, दो दिवसीय सेमीनार के प्रसंग पर यह प्रदर्शनी आयोजित थी। प्रदर्शित चित्र, चित्र नहीं थे। स्केच थे और जलरंग से पूरित थे। पहली ही नजर में अनुभव होता था कि कलाकार और कूची के बीच न केवल दीर्घावधि के सम्बन्ध हैं अपितु परस्पर परिपक्व समझ भी है। कलाकार से मिलने का जी किया। अता-पता पूछा तो पाठकजी ने जो पता बताया तो मेरे मुँह से बेसाख्ता निकला - 'आप तो रविजी (मेरे ‘उस्ताद‘ श्री रवि रतलामी) का पता बता रहे हैं!' पाठकजी ने पुष्टि की। मन ही मन तय किया कि आलोकजी से पूर्व सम्पर्क कर, मिलने का समय तय करूँगा।

लौटते में रास्ते में ही था कि मोबाइल घनघनाया। पर्दे पर 'रवि रतलामी' उभर रहा था। गाड़ी रोक कर (चलती गाड़ी पर मोबाइल पर बात करने का साहस अब तक नहीं जुटा पाया हूँ) बात की। लेकिन बात केवल बात करने तक ही सीमित नहीं रही। मुझे तो बात के साथ ‘मुलाकात’ का बोनस भी मिल रहा था। रविजी बता रहे थे कि वे रतलाम में ही हैं। मैंने मेरे घर आने का न्यौता दिया तो बोले - ‘आप ही इधर आ जाएँ तो अच्छा रहेगा।’ मैं ने कहा -‘मैं आपका शोषण करना चाहता हूँ इसलिए मेरे घर बुला रहा हूँ।’ वे बोले - ‘यहीं कर लीजिएगा।’ मैं उन्हें मेरे घर में देखना चाहता था। सो कहा -'मुझे मेरे ब्लाग में काफी कुछ जुड़वाना है, सुधार करवाना है। आप जहाँ हैं वहाँ इण्टरनेट सुविधा नहीं होगी।' रविजी ठठाकर बोले - 'जाल में लिपटा हुआ ही रतलाम पहुँचा हूँ। सारी व्यवस्था साथ ही है। आप तो अपना लेप टाप लेकर आ जाईए।' उन्होंने मुझे ‘बेबहाना’ कर दिया।

अपने लेप टाप के साथ कोई सवा दो बजे मैं उनके पास पहुँचा। वे अपने मित्र सारस्वतजी के यहाँ ठहरे थे। सारस्वतजी, रतलाम के उत्कृष्ट विद्यालय में व्याख्याता हैं। रविजी को रतलाम में देखकर आत्मीय प्रसन्नता तो हुई किन्तु 'रतलामी' को रतलाम में अतिथि की दशा में देखकर तनिक असामान्य और असहज अनुभूति ही हुई। (उन्हें अब 'इसी तरह' देखने की आदत मुझे डालनी होगी। वे ऐसे ‘रतलामी’ हैं जो अब भोपाल में पाए जाने लगे हैं।)

‘कुशल क्षेम का शिष्टाचार’ शुरु करने से पहले ही समाप्त कर दिया उन्होंने। हाँ, यह अवश्य बताया कि रतलाम आने का उनका कोई कार्यक्रम नहीं था किन्तु रेखाजी को सेमीनार में आना था सो ‘वे’ ‘उन्हें’ भी साथ ले आईं।

मैं कुछ ‘बतियाना’ शुरु करता उससे पहले ही वे सीधे ‘कामकाज’ की बात पर आ गए। मेरे दूसरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ में आ रही कठिनाइयों के बारे में पूछा। मेरा यह ब्लाग चैबीस घण्टे पीछे चल रहा था, उसमें लेबल नहीं आ रहे थे और ब्लाग खोलने पर केवल नवीनतम पोस्ट ही नहीं, सारी पोस्टें एक साथ सामने आ रही थीं। मैं अपने दोनों ब्लागों पर 'ब्लागवाणी' प्रदर्शित करना चाह रहा था किन्तु ‘तकनीकी ज्ञान-शून्य’ होने के काकरण नहीं कर पा रहा था। रविजी बोले -‘चलिए, देखते हैं कि क्या कुछ किया जा सकता है।’ मैं अपना लेप टाप खोलने लगा तो बोले - ‘रहने दीजिए। मेरे लेप टाप पर ही कर लेते हैं।’ और रविजी शुरु हो गए।

मेरी उपस्थिति का नोटिस उन्होंने तभी लिया जब उन्हें मुझसे कुछ पूछना होता था। वर्ना, वे मेरी उपस्थिति से बेखबर हो, काम में लग गए थे।जल्दी ही उन्होंने ‘सब कुछ’ ठीक कर दिया। मेरा 'मित्र-धन' अब वर्तमान से कदम मिला रहा था। लेबल नजर आने लगे थे, केवल नवीनतम पोस्ट का (केवल एक) पन्ना खुल रहा था और मेरे दोनों ब्लागों पर 'ब्लागवाणी' सज चुका था। एक ही रचनाकार के लिए अलग-अलग लेबल नजर आने पर उन्होंने बताया कि मैं ने हर बार अलग-अलग वर्तनी में इबारत लिखी सो लेबल अलग-अलग नजर आ रहे हैं। उन्होंने मुझे लेबल लगाना भी सिखाया।

मुझे लगा कि मेरा स्वार्थ सध चुका, सो मैं ‘एट ईज’ होने लगा तो बोले -''आपके पास कृतिदेव परिवर्तक का पुराना वर्जन है जिसमें ‘श’ और ‘ष’ आपको ठीक करने पड़ते होंगे। अब नया वर्जन आ गया है।'' कहते-कहते उन्होंने यह नया वर्जन मेरे लेप टाप पर लोड कर दिया।

इतना सब करने के बाद रविजी ने साँस ली और मुझसे मुखातिब हुए। मैं उन्हें धन्यवाद देने लगा तो, अपने स्थापित स्वभाव और चरित्र की रक्षा करते हुए असहज और खिन्न हो गए। बोले - ‘आप ये धन्यवाद, वन्यवाद देना बन्द कीजिए। मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं ने किया ही क्या है?’

ब्लाग विधा और ब्लाग अखाड़े की बातें शुरु हुईं। कुछ भी बोलकर मैं अपना नुकसान ही करता। सो, प्रायः चुप ही रहा। उन्हें सुनता रहा। उतना ही बोला जो उन्हें और बोलने के लिए सहायक हो। ‘ब्लाग’ और इसके भविष्‍य को लेकर उनका विश्वास, उत्साह और मुग्धता अवर्णनीय है। बच्चे भी शर्मा जाएँ।

तभी रेखाजी आ गईं। वे सेमीनार में मिलने वालों के नाम और उनसे हुई चर्चा के अंश प्रस्तुत करने लगीं। अचानक ही पूछ बैठीं - ‘आप लोगों ने पानी-वानी पिया कि नहीं?’ रविजी बोले -‘ वह तो हो गया। चाय मिल जाती तो अच्छा होता।’ सुनते ही रेखाजी मेजबान बन गईं और थोड़ी ही देर में चाय के प्याले हम तीनों के हाथ में थे।

मेरा एक कर्जा इन दोनों के माथे चढ़ा हुआ है। मैं ने अनुरोध किया कि आज शाम वे मेरा यही कर्ज चुका कर मेरी वसूली करवा दें। रविजी ने, शाम की व्यस्तता की लम्बी सूची प्रस्तुत कर दी। मुझे निराश होते देखकर रेखाजी बोलीं -‘आप भोपाल आकर ब्याज सहित अपना कर्ज वसूल कर लें।’ पति-पत्नी की इस जुगलबन्दी ने मेरी आशा पर तुषारापात कर दिया। रतलाम में होते हुए तो मेरा कर्जा नहीं चुका रहे हैं और ‘उधार लेने में माहिर पेशेवर’ की तरह व्यवहार कर, भोपाल आकर वसूली का ‘आफर’ दे रहे हैं! ‘गुरु’ और ‘गुरु-माता’ के सामने ऐसे में मेरी बोलती बन्द ही होनी थी।

तभी मेरी श्रीमतीजी का फोन आया। वे मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं। तय हुआ था कि शाम साढ़े चार बजे मैं उनके स्कूल पहुँचूँगा जहाँ से हम दोनों चाँदनी चैक जाएँगे। दो विवाहों में वधुओं को भेंट देने के लिए उन्हें पायजेबें खरीदनी थीं। उनका फोन आने पर मालूम हुआ कि साढ़े चार बज चुके हैं। सवा दो घण्टे तो एक पल में ही बीत गए। रविजी याद रहे, बाकी सब भूल गया। रविजी में ही गुम हो गया। किन्तु तत्काल नहीं निकलता तो ‘गृहस्थी’ पर संकट आने का खतरा था। सो, रविजी और रेखाजी से क्षमा-याचना करते हुए, विदा ली।

मेरा कैमरा मेरी जेब में ही था। बार-बार जी कर रहा था कि कुछ तस्वीरें ले लूँ। किन्तु रविजी के अन्तर्मुखी स्वभाव और उनके खिन्न हो जाने के भय से अपने मन की नहीं कर सका। लेकिन यह पोस्ट लिखते समय अनुभव हो रहा है कि मैं ने ‘वह अशिष्टता’ कर लेनी चाहिए थी। अगली बार कर ही लूँगा। रविजी को बुरा लगे तो लगे। (वैसे भी, यह सब पढ़कर वे भी तो मेरी भावी अशिष्टता के लिए मानसिक रूप उसे तैयार होंगे ही।)

मैं लौट तो आया किन्तु अकेला नहीं था। क्या कुछ और कितना कुछ मेरे साथ था, यह बता पाना सम्भव नहीं। हाँ, मन में जो आ रहा था, वह कुछ इस प्रकार था-

भोपाली हो गए रतलामी,

बनकर मेहमान आए रतलाम।

था तो मेरा

किन्तु समझा अपना

और

कर गए सारा काम।

एक बार नहीं रविजी!

आपको बार-बार सलाम।
-----


इस ब्लाग पर, प्रत्येक गुरुवार को, जीवन बीमा से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। (इस स्थिति के अपवाद सम्भव हैं।) आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने का यथा सम्भव प्रयास करूँगा। अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। यह सुविधा पूर्णतः निःशुल्क है।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कृपया मेरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com पर भी एक नजर डालें ।

6 comments:

  1. aapko badhai ki aapki blog ki samasyaen khatm hooi aur aapka samadhan hooa.

    ReplyDelete
  2. रवि जी ऐसे ही हैं। न जाने कब उन से मिलना हो सकेगा। भोपाल में कुछ घंटे रुका भी था लेकिन तब मिल पाना संभव नहीं हो सका। आगे देखते हैं।

    ReplyDelete
  3. येल्लो, जिसे देखो वही अन्तर्मुखी है। हम तो अपने को ही तुर्रमखां समझते थे!

    ReplyDelete
  4. रवि रतलामी की सिनर्जी का मैं कायल हूं और बहुत लाभ उठाया है - आमने सामने न मिलने पर भी।

    ReplyDelete
  5. अच्छा लगा पढ़कर, सही मौज है आप लोगों की!

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.