मेरे लेप टाप की घड़ी के मुताबिक इस समय 12 और 13 फरवरी की दरमियानी रात के दो बजने वाले हैं। ‘ब्लागवाणी’ के जरिए ढेर सारे ब्लागों की सैर की। कुछ पर टिप्पणी की। अचानक ही इस पोस्ट का विषय मन में कौंधा। मुमकिन है कि यह ‘कुविचार’ अथवा ‘कुतर्क’ हो किन्तु अन्ततः इसमें ‘विचार’ और ‘तर्क’ तो है ही। इसलिए इसके साथ तनिक अतिरिक्त सदाशयता और उदारता बरती जाए, यह अनुरोध भी है और अपेक्षा भी।
वेलेण्टाइन डे के विरोध का आधारभूत तर्क है कि यह नितान्त पाश्चात्य अवधारणा है और भारतीयता से इसका कोई तादात्म्य नहीं है। सही है। किन्तु यह एकमात्र ऐसी पाश्चात्य अवधारणा क्यों है जो आँखों में खटक रही है? अनेक पाश्चात्य अवधारणाएँ और परम्पराएँ हमने अत्यन्त उदारतापूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक अंगीकर कर रखी हैं-बरसों से। जैसे कि, जन्म दिन पर केक काटना।
केक काटने में पहले, केक पर लगी मोम बत्तियाँ फूँक मार कर बुझाई जाती हैं। इसके ठीक विपरीत, भारतीय परम्परा में तो ऐसे प्रसंगों पर दीप प्रज्ज्वलन किया जाता है। कहाँ है वह परम्परा? और तो और, भारतीयता के ज्वाजल्य प्रतीक पुरुष अटलजी के जन्म दिन पर भी केक काटा जाता है! यही क्यों, अब तो मन्दिरों में भी केक काटे जाने लगे हैं! मेरे बच्चे भी केक काट कर ही अपना जन्म दिन मनाते हैं।
एक और पाश्चात्य परम्परा हम समारोहपूर्वक अंगीकार करने लगे हैं। यह है - रिंग सेरेमनी। भारतीय संस्कार सूची में ‘रिंग सेरेमनी’ कहीं है ही नहीं। हाँ, 'वाग्दान संस्कार' का उल्लेख अवश्य है। लेकिन इसका स्थान अब ‘रिंग सेरेमनी’ ने ले लिया है। मेरे बेटे का ‘वाग्दान संस्कार’ जब सम्पन्न हो रहा था तब ‘रिंग सेरेमनी‘ की आवाज उठी थी। मैं ने सहज भाव से इससे इंकार कर दिया था और कहा था कि भारतीय परम्परा में ‘रिंग सेरेमनी’ नहीं है। मेरी बात तब भले ही मान ली गई थी किन्तु कई लोग अब भी मुझसे खिन्न बैठे हैं और गाहे-बगाहे मुझे उलाहना दे ही देते हैं कि मैं ने एक रस्म पूरी नहीं होने दी।
हाथ मिलाना भी भारतीय परम्परा नहीं है। भारतीय परम्परा में तो अपने ही दोनों हाथ जोड़ कर, यथा सम्भव नत-मस्तक हो, सामने वाले का अभिवादन किया जाता है। लेकिन हम सब देख रहे हैं कि ‘करतल युग्म से नमस्कार’ करें न करें, हाथ अवश्य मिलाते हैं।
हाथ मिलाना पूर्णतः पाश्चात्य परम्परा है जिसका अपना अनुशासन है। इसमें ‘जूनीयर’ केवल ‘विश’ (यथा,गुड मार्निंग गुड नून,) करता है और प्रत्युत्तर में ‘सीनीयर’ हाथ बढ़ाते हुए ‘विश’ का जवाब देते हुए कुशलक्षेम पूछता है-‘हाऊ डू यू डू?’ किन्तु हमने न केवल इस पाश्चात्य परम्परा को प्रेमपूर्वक आत्मसात कर लिया है अपितु इसका भारतीयकरण भी कर लिया है-अब ‘जूनीयर‘ भी मिलते ही तपाक् से अपना हाथ आगे बढ़ा देता है और कोई भी इस ‘अशिष्टता’ का बुरा मानना तो दूर रहा, इसका नोटिस भी नहीं लेता!
नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा भी हमारे लिए एक समारोह मात्र है। इस प्रसंग का उपयोग हम अपनी भारतीयता को याद करने और प्रदर्शित करने के लिए करते हैं और जैसे ही हमारा यह ‘मतलब’ पूरा होता है, हम इसे तत्काल ही भूल जाते हैं। हममें से कितने लोग अपने दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय महीनों और तिथियों का उपयोग करते हैं? अपवादों को छोड़ दें तो, कोई नहीं। हम सब ‘ईस्वी’ सन् और तारीखें ही प्रयुक्त करते हैं और ऐसा करते हुए क्षणांश को भी अनुचित, अन्यथा अथवा अटपटा नहीं लगता।
ये तो गिनती की बाते हैं जो मुझे इस समय बिना किसी कोशिश के याद आ रही हैं। कोशिश करने पर ऐसी बीसियों बातें निकाली जा सकती हैं।
फिर, आखिर वेलेण्टाईन डे का ही विरोध क्यों? मुझे सन्देह होने लगा है कि यह विरोध कहीं प्रायोजित अथवा ‘डब्ल्यू डब्ल्यू एफ’ की तरह ‘नूरा कुश्ती’ तो नहीं?
इस दिन कोई आयोजन नहीं होते, कोई समारोह नहीं होते। होने के नाम पर बस, आपस में कार्ड का या भेंट का या फूलों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे ‘डे’ और इनके बधाई पत्र भी भारतीय परम्परा का अंग नहीं हैं। किन्तु अनेक विदेशी कम्पनियाँ इनका उत्पादन/व्यापार करती हैं। इस व्यापार के आँकड़े अरबों-खरबों के निकल आएँ तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा। यही नहीं, यह आँकड़ा वर्ष-प्रति-वर्ष तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। मुझे सन्देह हो रहा है कि कहीं, इन कार्डों का उत्पादन/व्यापार करने वाली विदेशी कम्पनियाँ ही तो यह विरोध प्रायोजित नहीं करवा रहीं? सन्देह इसलिए भी हो रहा है क्यों कि विरोध करने वाले भाई लोग इन कार्डों का विक्रय करने वाली दुकानों को तो निशाने पर लेते हैं पर इन्हें उत्पादित करने वाली फैक्ट्रियों की तरफ देखते भी नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘वहाँ’ न देखने की एवज में ‘पार्टी फण्ड’ मिलता हो और यहाँ ‘देख लेने’ के नाम पर वसूली हो रही हो?
वेलेण्टाईन डे का विरोध करने वालों का विरोध करने के लिए अब गुलाबी चड्डियाँ भेजे जाने का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज में ‘चड्डी’ कभी भी विरोध का प्रतीक अथवा माध्यम नहीं रही। यह भी पूरी तरह से पाश्चात्य प्रतीक और परम्परा है। इसके उत्पादन और व्यापार में भी विदेशी कम्पनियाँ अग्रणी हैं। कहीं यह अभियान भी तो प्रायोजित नहीं?
मुझे तो इस सबके पीछे कोई ‘विशेषज्ञ’ (मैं ‘माहिर’ और ‘शातिर’ जैसे विशेषण प्रयुक्त करने से बचना चाह रहा हूँ) ‘मानव मनोविज्ञानी मस्तिष्क’ अनुभव हो रहा है। सामान्य मनुष्य प्रकृति के अधीन ‘निषेध सदैव ही आकर्षित करते हैं।’ सो, इसी मनुष्य प्रकृति का ‘वाणिज्यिक उपयोग’ करने के लिए, वेलेण्टाईन डे का विरोध करवाया जा रहा हो ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा इसकी ओर आकर्षित हों, (और विदेशी कम्पनियों को मालामाल करने के लिए) ज्यादा से ज्यादा बधाई पत्र, भेंट दी जाने वाल वस्तुएँ खरीदें। इसे ‘दबाने पर गेंद और ज्यादा उछलती है’ या फिर ‘न्यूटन के गति नियमों’ के अनुसार ‘किसी भी क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’ भी कहा जा सकता है।
अब ‘विरोध का विरोध’ भी चड्डियों के जरिए हो रहा है। मुझे तो यह भी ‘फारेन गुड्स की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी’ ही अनुभव हो रही है और प्रायोजित या कि ‘नूरा कुश्ती’ ही लग रही है।
आधी रात को मन में उठी इन बातों का मेरे पास न तो कोई आधार है और न ही कोई तथ्यात्मक प्रमाण। ‘यही सही है’ यह कहने की स्थिति में मैं बिलकुल ही नहीं हूँ। किन्तु ‘यह सही क्यों नहीं हो सकता?’ जैसा सवाल, इस समय तो मुझे मथ ही रहा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि भारतीयता की रक्षा के नाम अपने ही लोग अपने ही लोगों को पीट रहे हैं और जेबें भर रहे हैं विदेशियों की?
मुझे किसी की नीयत पर सन्देह नहीं है। किन्तु सन्देह के बीज को अंकुरित होने के लिए न तो उपजाऊ जमीन की आवश्यकता होती है और न ही खाद-पानी की। फिर, जयचन्द और मीर जाफर जैसे नाम, ऐसे क्षणों में न चाहते हुए भी मन में उठने लगें और ‘विश्वामित्र-मेनका’ जैसे प्रसंग आँखों के सामने नाचने लगें तो ऐसे ‘कुविचार‘ और ‘कुतर्क’ सच अनुभव होने लगें तो आश्चर्य नहीं।
-----
इस ब्लाग पर, प्रत्येक गुरुवार को, जीवन बीमा से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। (इस स्थिति के अपवाद सम्भव हैं।) आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने का यथा सम्भव प्रयास करूँगा। अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। यह सुविधा पूर्णतः निःशुल्क है।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
कृपया मेरे ब्लाग ‘मित्र-धन’ http://mitradhan.blogspot.com पर भी एक नजर डालें ।
ReplyDeleteसहमत हूँ श्रीमान.. यह बरोबर मार्केटिंग का फ़ँडा ( फँदा ) है..
नित नये दिवस.. और उनसे जुड़ी कोई एक बेकार सी उपभोग्य सामग्री के बिक्री की रणनीति !
ये सब प्रचार पाने के हथकंडे है इन लोगो को भारतीय परम्परा से कुछ लेना देना नही ! भारतीय परम्परा में न तो इस तरह किसी को कोई त्योंहार मनाने से रोकने के लिए जगह है और न ही इस तरह से विरोध करने वालों के लिए ! ये सब प्रचार पाने के हथकंडो के अलावा कुछ नही |
ReplyDeletesirji,
ReplyDeletevirodhi bhi prachaarak hi hain
aap bhool gaye kya?
विरोध जो हम करना चाहते हैं वह मात्र नंगाई का है. फ़िर सोचते हैं कि इसका विरोध भी क्यों. नंगे तो पैदा ही हुए थे. आभार.
ReplyDeleteकल इस पर टिप्पणी नहीं कर पाया था। आज हो रही है। देश में मूल समस्याओं से भटकाने वाले बहुत से कृत्य होते हैं। यह भी इन में से ही एक है।
ReplyDeleteआपकी आंशकांए निर्मूल नहीं हैं। आज के इस व्यावसायिक युग में मैनेजमेंट के धनी लोग मार्केट कैप्चर करने का कोई फंडा (डा0 अमर कुमार जी के शब्दों में फंदा) छोडने को तैयार नहीं हैं। और हम लोग भी दो ही चीजें जानते हैं या तो अंध विरोध या अंध भक्ति। जो रास्ता बीच का है – प्यार का, समझ का, दोस्ती का, सह्रदयता का, अपनत्व का वह इस अंध भक्ति और अंध विरोध के बीच कहीं खोता सा जा रहा है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख , सहमत हूँ आपसे !
ReplyDelete"सन्देह के बीज को अंकुरित होने के लिए न तो उपजाऊ जमीन की आवश्यकता होती है और न ही खाद-पानी की। "
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा
Sabhee kee ray ekdam saaf hai ji
ReplyDeleteप्रिय विष्णु जी, हर विदेशी बात की अंधाधुंध विरोध की जरूरत नहीं है. उदाहरण के लिये विदेशियों के समय की पाबंदी एक ऐसी चीज है जिसका हमें हर तरह से अनुकरण करना चाहिये.
ReplyDeleteलेकिन हमें उन विदेशी चीजों का विरोध जरूर करना चाहिये:
1. जो हमारी संस्कृति को आमूल बदल सकते है
2. जो हमारी संस्कृति को नुकसान कर सकते है
3. जो भारतीय नैतिक मूल्यों के साथ खिलवाड करती है
आपके विश्लेषण हम सब को चिंतन के लिये प्रोत्साहित करते हैं एवं इस के लिये दिली आभार !!!
सस्नेह -- शास्त्री
-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.
महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
@ हममें से कितने लोग अपने दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय महीनों और तिथियों का उपयोग करते हैं? अपवादों को छोड़ दें तो, कोई नहीं। हम सब ‘ईस्वी’ सन् और तारीखें ही प्रयुक्त करते हैं और ऐसा करते हुए क्षणांश को भी अनुचित, अन्यथा अथवा अटपटा नहीं लगता ...
ReplyDeleteसच है, जिस बात को हम अपने दैनिक जीवन में नहीं अपनाते उस पर लिप सर्विस से कुछ लाभ होने वाला नहीं है।