यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज से मेरी याचना

'बर्ग वार्ता' की आज की पोस्ट दिमागी जर्राही बरास्ता नाक [इस्पात नगरी से - खंड 9] पढ़ कर (और टिप्पणी के रूप में ‘बिन माँगी सलाह’ देकर) चुप बैठ गया था। किन्तु लगा कि कुछ चूक कर रहा हूँ। सो, ब्लाग फिर खोला तो पाया कि प्रदीप मानोरिया भी मेरे अनुमान को पुष्ट करते हुए टिपिया चुके हैं। मनोरियाजी की टिप्पणी से लगा कि मैं ‘जैन साधु’ के विदेश प्रवास से ‘खिन्न’ हूँ। जबकि वास्तविकता इसके पूर्णतः विपरीत है। तब, अनुरागजी की दी हुई, अखबार की लिंक से, ‘पिट्सबर्ग ट्रीब्यून-रीव्यू’ का पूरा समाचार पढ़ा।


यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज की प्रसन्नता भली लगी किन्तु डा. दिनेश मेहता और श्रीकान्त भाई पारीख का ‘स्पष्टीकरण’ अच्छा नहीं लगा। दोनों के ‘स्पष्टीकरण’ में ‘प्रायश्चित भाव’ यद्यपि कहीं नहीं है तदपि ‘अपराध बोध’ को ‘बिटविन द लाइन्स’ आसानी से पढ़ा जा सकता है।


मैं ‘सनातनी’ हूँ किन्तु स्वीकार करता हूँ कि सनातनी साधुओं में से गिनती के साधु ही मुझे आकर्षित कर पाए है और प्रभावित करने वाले तो नगण्य से हैं। वे ‘मोह माया त्याग’ करने का उपदेश देते हैं किन्तु देखता हूँ वे खुद ‘मोह माया’ को चिपटाए बैठे हैं। इनमें से कुछ राजाओं को भी परास्त करते नजर आते हैं तो कई स्थानीय जमीदारों/जागीरदारों जैसे।

इनकी तुलना में जैन साधुओं ने मुझे तनिक अधिक आकर्षित किया। इनमें भी दिगम्बर सन्तों ने अधिक। इनमें से विद्यानन्दजी महाराज को तो मैं अब तक अपनी स्मृति में से रंच मात्र भी मद्धिम नहीं कर पाया हूँ। उनके प्रवचन सुनने के लिए मैं अपने गाँव मनासा से कोई सवा दौ सौ किलोमीटर की यात्रा कर इन्दौर तक गया हूँ। यह सन् 61-62 की बात होगी तब यातायात के साधन अत्यल्प और सीमित थे। आकाशवाणी के इन्दौर केन्द्र के तत्कालीन केन्द्र निदेशक नैयर साहब ने, इन्दौर में उनका साक्षात्कार जब रेकार्ड किया था तब सौभाग्यवश मैं भी उपस्थित था। वह साक्षात्कार, अपने-अपने क्षेत्र के दो महारथियों का ऐसा अविस्मरणीय सम्वाद था जिसमें दोनों ही ‘लुट जाने को उतावले’ हुए जा रहे थे। नैयर साहब घुमा-फिरा कर सवाल कर रहे थे और विद्यानन्दजी महाराज बिना किसी लाग लपेट के उत्तर दिए जा रहे थे वह भी इतना विस्तृत कि नैयर साहब के अगले दो-तीन पूरक प्रश्न उसमें स्वतः ही समाहित हो रहे थे। उस साक्षात्कार में विद्यानन्दजी महाराज ने (सम्भवतः कन्नड़ के) कुछ लोक गीत गाकर सुनाए थे।

उनके बाद मुझे आकर्षित, प्रभावित और मोहित किया, त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर समाज के जयन्‍तसेन सूरिश्वरजी महाराज ने। इनके व्याख्यानों की सादगी और सरलता मेरे अन्तरतम तक पैठ गई और आज दशा यह है कि वे यदि मेरे कस्बे के आसपास कहीं आते हैं तो उनके दर्शनार्थ जाने की कोशिश अवश्य करता हूँ।


मेरे इस आचरण पर सनातनी कम और जैनी अधिक ताज्जुब करते हैं। हाँ, सनातनी इस बात पर रोष अवश्य प्रकट करते हैं कि मैं लोकप्रिय और स्थापित साधु-सन्तों तथा प्रवचनकारों के पाण्डालों की भीड़ में नजर क्यों नहीं आता हूँ। मैं चुप रह जाता हूँ। यह भी नहीं बताता कि जिन, दिगम्बर जैन सन्त तरुणसागरजी के पाण्डालों को ‘दर्शक’ हर बार छोटा और अपर्याप्त साबित करते हैं, मैं वहाँ भी नहीं होता।

सो, मुझे यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज के विदेश प्रवास ने पुलकित ही किया। मैं ने अनुरागजी को उनसे मिलने का आग्रह केवल इसलिए किया ताकि जैन सन्तों के विदेश प्रवास के समर्थन में पुष्ट, शास्त्रोक्त तर्क और प्रमाण प्राप्त किए जा सकें और उनका लाभ विश्व भर के ‘श्रावकों’ को मिल सके। किन्तु डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई के वक्तव्यों ने मुझे निराश किया।


‘जैन मत’ के बारे में मेरी जानकारियाँ उतनी ही हैं जितनी कि किसी ‘सड़कछाप आदमी’ की हैं। किन्तु जैन सन्तों सहित मैं समस्त धर्मों, समुदायों के ‘साधु-सन्तों’ के विदेश प्रवास का ‘धुर समर्थक’ हूँ। इसके पीछे हैं - विवेकानन्द। वे भी ‘साधु-सन्त’ ही थे। वे यदि भारत से बाहर नहीं जाते तो अमरीकी समाज को भारत और भारतीयता की आत्मा के दर्शन नहीं हो पाते।

इस क्षण जैन सन्त सुशील मुनिजी महाराज बड़ी शिद्दत से याद आ रहे हैं। उन्होंने न केवल विदेश यात्राएँ कीं अपितु विदेशी महिलाओं को अपने शिष्य मण्डल में भी सम्मिलित किया। सुशील मुनिजी के इस आचरण पर तब हल्ला मचा था किन्तु वे अविचलित रहे। आज भी उनके अनुयायी पूरी दुनिया में मौजूद है और इससे बड़ी तथा महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें ‘अजैन’ अथवा ‘जैन विरोधी’ घोषित कर उनका बहिष्कार नहीं किया गया।


मालवा स्थित भानपुरा (जिला मन्दसौर, मध्य प्रदेश) स्थित शंकराखर्य उप पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी सत्यमि़त्रानन्दजी गिरी ने समस्त निषेधों को परे धकेल कर, सत्तर की दशक के पूर्वार्द्ध में विदेश यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान उन्हें उपलब्ध ‘स्त्री गाईड’ ने बीसियों बार उनका कन्धा थपथपाते हुए, ‘सी, मिस्टर गिरी’ कह कर महत्वपूर्ण स्थानों/चीजों की ओर उनका ध्यानाकर्षित किया जबकि उनके लिए ‘स्त्री स्पर्श’ वर्जित था। ये बातें स्वयम् सत्यमित्रानन्दजी ने मेरे गृह नगर मनासा में, दादा को दिए एक साक्षात्कार में बीसियों भक्तों की उपस्थिति में बताई थीं। यह साक्षात्कार उन दिनों, मन्दसौर से प्रकाशित हो रहे ‘दैनिक कीर्तिमान’ में ‘सुरा लोक में शंकराचार्य’ शीर्षक से श्रृंखलाबध्द सचित्र प्रकाशित हुआ था। सत्यमित्रानन्दजी का सान्निध्य और मार्ग दर्शन आज भी समूचे सनातन समाज को प्राप्त है और उनके प्रति आदर भाव में रंच मात्र भी कमी नहीं है।


ऐसे में यशोविजय सूरिजी महाराज का पिट्सबर्ग जाना, अपनी शल्य चिकित्सा कराना मुझे न केवल भला और आह्लादकारी लगा अपितु, ‘जीव जगत् की बड़ी सेवा’ भी लगा। महाराजजी की पिट्सबर्ग यात्रा को मैं तो ‘ईश्वरेच्छा’ से तनिक आगे बढ़ कर ‘ईश्वरीय आदेश’ मानता हूँ। डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई को तो, महाराजजी के पिट्सबर्ग आगमन के प्रसंग से, वहाँ उपजे उल्लास और उत्सव भाव का उद्घोषक बन कर, यह कहना बन्द कर देना चाहिए कि महाराजजी वहाँ केवल चिकित्सा हेतु पहुँचे हैं सो चिकित्सा करवाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करेंगे, कुछ भी नहीं कहेंगे।


‘साधु-सन्त’ किसी भी समाज की मूल्यवान परिसम्पत्ति मात्र नहीं होते, वे तो समाज की सबसे बड़ी ‘आश्वस्ति’ होते हैं। परिवार के बड़े-बूढ़ों की उपस्थिति से समूचे परिवार में जो निश्चिन्तता उपजती है, वही निश्चिन्तता पूरा समाज अपने साधु-सन्तों कर उपस्थिति के कारण अनुभव करता है।

डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई ने सूचित किया है कि अपनी विदेश यात्रा के ‘पातक के प्रायश्चितरूवरूप’ महाराजजी आने वाले दिनो में उपवास करेंगे। इस सूचना से ‘उत्साहित’ और तनिक अधिक ‘लालची’ होकर (कि जब आप 'प्रायश्चित-उपवास' कर ही रहे हैं तो), मैं आदरणीय यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज साहब से कर बध्द याचना कर रहा हूँ - ‘‘महावीर की इच्छा (या कि आदेश) के अधीन आप पिट्सबर्ग पहुँचे हैं। वहाँ के ‘जैन श्रावाकों’ पर ही नहीं, वहाँ प्रकृति में उपस्थित समस्त जीवों पर कृपा कीजिए, उन्हें ‘महावीर वाणी’ का अमृत पान कराने का पुण्योपकार करें। उन सबके सौभाग्य से ही आप वहाँ विराजमान हुए हैं। इस ‘अजैन श्रावक’ की यह याचना स्वीकार करने का उपकार करें। आप चाहेंगे तो, आपके प्रायश्चित में, अपनी क्षमतानुरूप मैं भी शामिल होने का प्रयत्न करूँगा।

‘‘आपका यह कृपापूर्ण आचरण महावीर की महत् सेवा की दिशा में ऐसा ‘छोटा सा कदम’ होगा जिससे बनी पगडण्डी, वैश्विक राजमार्ग में परिवर्तित होगी।

‘‘कृपया मेरी वन्दना स्वीकार कर मुझे उपकृत करें।’’

(मेरी यह पोस्ट ‘स्मार्ट इण्डियन’ श्री अनुराग शर्मा को समर्पित है। यह उनकी निजी सम्पत्ति है। वे अपनी इच्छानुसार इसका उपयोग करने को अधिकृत तथा स्वतन्त्र हैं।)

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3 comments:

  1. आपकी पोस्ट पढकर दूसरी कई बातोँ का पता चला है - मेरे पति दीपक जी जैन धर्मी हैँ उन्हेँ बतलाऊँगी अत: आभार !
    - लावण्या

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  2. वैरागी जी,
    यूपीएमसी चिकित्सकों के एक दल द्वारा भारत से आए जैन संत आचार्य यशोविजय सूरीश्वर जी की शल्यक्रिया से सम्बंधित
    अपनी पोस्ट पर आपकी टिप्पणी पढी, अच्छा लगा. इस बड़े हिन्दी ब्लॉग परिवार में हम सब लोग ही कुछ न कुछ लिखते रहते हैं. जितना भी सम्भव होता है पढता हूँ, विचारता हूँ और समझने का प्रयास करता हूँ. कहना न होगा की आप भी उन चुने हुए ब्लॉग लेखकों में से हैं जिनके प्रति मेरे मन में बहुत आदर है. कई विषयों पर आलस (कभी-कभी दिमागी आलस भी) में आकर टिप्पणी न भी करुँ, मगर जो भी आप लिखते हैं पढता ज़रूर हूँ. आपके लेख और टिप्पणियाँ दोनों ही सटीक और मूल्यवान होती हैं. आपकी टिप्पणी से बहुत कुछ नया जानने को मिला जिसे बाद में मनोरिया जी और फ़िर सुब्रमनियन जी और दिलीप कवठेकर जी ने भी दोहराया. इन टिप्पणियों से मुझे जैन संस्कृति के बारे में बिल्कुल नयी बात पता चली और तब इस शल्यक्रिया के बारे में भक्तों के कथन के पीछे की सकुचाहट का कारण भी स्पष्ट हुआ. (सकुचाहट का कारण मुझे भले ही पहले न पता रहा हो मगर वह थी बहुत स्पष्ट.) बाद में आपने यह पोस्ट लिखी और उससे यह खुलासा हुआ कि समाज के हित में पुराने अव्यावहारिक रिवाजों को पीछे छोड़कर समाज के उत्थान के लिए नए (और पुराने भी) क्रांतिकारी विचारों को अपनाना ही होगा. और इस विचार को समझाने का काम संतों से बेहतर कौन कर सकता सकता है.

    आपके लेख से प्रेरणा लेकर मैंने ट्रिब्यून-रिव्यू में उद्धृत एक स्थानीय अग्रणी श्री दोषी जी का दूरभाष ढूंढकर उनसे बात की और आचार्य जी की कुशल क्षेम पूछी. उन्होंने बताया कि भारतीय भक्तों का आग्रह है कि आचार्य जी आज के चेकअप के बाद आज रात ही भारत वापस रवाना हो जाएँ.

    दोषी जी से यह निश्चित कराने के बाद कि मेरे आने से आचार्य जी को कोई असुविधा नहीं होगी, मैंने दोपहर में उनके होटल में मिलने का कार्यक्रम बनाया. सोचा था कि यदि सम्भव हुआ तो प्रश्नों के उत्तर भी मिल जायेंगे. अन्यथा एक महापुरुष के दर्शन का लाभ तो मिलेगा ही.

    निश्चित समय पर पत्नी के साथ वहाँ पहुंचा और वहाँ किसी को भी न पाया. पड़ताल करने पर पता लगा कि आचार्य जी तो वापस चले गए. मैंने दोषी जी को दोबारा फोन करके तकलीफ देना ठीक नहीं समझा और वापस चला आया.

    तो यह था मेरा आज का (फेल्ड) अड्वेंचर. आपके चिंतन, आपकी पोस्ट और मेरी एक साधारण से पोस्ट पर इतना ध्यान देने के लिए आपका आभार. छोटा भाई हूँ, आगे भी ऐसी ही कृपादृष्टि मांगता हूँ. (यह शायद मेरी आज तक की सबसे लम्बी टिप्पणी है)
    ~अनुराग शर्मा.

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  3. सब ओर सार्थक परिवर्तन हो रहे हैं। अच्छा लगा यह पढ़ कर।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.