बीमा किश्तों के भुगतान के लिए भा.जी.बी.नि. अपने ग्राहकों को रियायती अवधि (ग्रेस पीरीयड) उपलब्ध कराता है। यह अवधि, सामान्यतः देय दिनांक से एक माह (किन्तु 30 दिन से कम नहीं) की होती है जबकि ‘कुछ पालिसियों’ में यह 15 दिनों की ही होती है।
वार्षिक, अध्र्द वार्षिक और तिमाही किश्त भुगतान विधि में यह अवधि एक माह (30 दिन से कम नहीं) और मासिक किश्त भुगतान विधि में 15 दिन होती है। किन्तु उपरोल्लेखित ‘कुछ पालिसियों’ यह अवधि सदैव 15 दिन ही होती है भले ही उनकी किश्त भुगतान विधि वार्षिक, अध्र्द वार्षिक अथवा तिमाही ही क्यों न हो।
रियायती अवधि सदैव ही ‘देय दिनांक’ से प्रारम्भ होती है। यह देय दिनांक वही होता है जो पालिसी का प्रारम्भ दिनांक होता है। वार्षिक विधि से किश्त भुगतान विधि वाली पालिसियों में देय माह भी वही होता है जो पालिसी का प्रारम्भ माह होता है।
इसे, इस उदाहरण से समझें।
किसी पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर है। यदि इसकी किश्त भुगतान विधि वार्षिक है तो इसकी किश्त प्रति वर्ष 28 दिसम्बर को देय होगी। किन्तु यदि इसकी किश्त भुगतान विधि अर्ध्द वार्षिक है तो इसकी किश्तें प्रति वर्ष 28 दिसम्बर और 28 जून को देय होंगी और यदि इसकी किश्त भुगतान विधि तिमाही है तो इसकी किश्त देय दिनांक प्रति वर्ष 28 दिसम्बर, 28 मार्च, 28 जून तथा 28 सितम्बर होगी। मासिक किश्त भुगतान विधि में प्रत्येक माह की 28 तारीख, देय दिनांक होगी। रियायती अवधि, इसी देय दिनांक से प्रारम्भ होगी।
इस रियायती अवधि का महत्व और इसकी गम्भीरता अधिकांश ग्राहकों को पता नहीं होती। ग्राहक सामान्यतः इसका एक ही अर्थ निकालते हैं कि इस अवधि में किश्त जमा करने पर किश्त की रकम पर ब्याज अथवा विलम्ब शुल्क नहीं देना पड़ता है। किन्तु इसका महत्व इसके अतिरिक्त भी है।
यह अवधि ‘निगम’ अपनी ओर से, स्वैच्छिक रूप से उपलब्ध कराता है इसलिए इस अवधि में ग्राहक किश्त जमा कराए या नहीं, उसे पूरी-पूरी बीमा सुरक्षा उपलब्ध रहती है। अर्थात्, 28 दिसम्बर को देय किश्त 27 जनवरी तक भी जमा नहीं कराई जाए और (इस अवधि के दौरान) ग्राहक की मृत्यु हो जाए तो ‘निगम’ उसके नामित (नामिनी) को मृत्यु दावे की रकम चुकाएगा।
इसमें एक बारीक बात और जिसके बारे में बहुत कम जानते हैं। रियायती अवधि के अन्तिम दिनांक को भी यदि ग्राहक ने किश्त जमा नहीं कराई और उस दिनांक की रात्रि 12 बजे से पहले उसकी मृत्यु हो गई तो भी ग्राहक के नामित को मृत्यु दावा देय होगा। इस बात में ‘पेंच’ मात्र यही है कि किश्त जमा कराने (आर्थिक ‘लेन-देन’) का समय बीमा कम्पनी अपनी सुविधा से (जैसे, सामान्य दिनों में अपराह्न साढ़े तीन बजे तक और शनिवार को दोपहर एक बजे तक) निर्धारित करती है जबकि ‘रिस्क कवरेज’ तो उस ‘पूरी तारीख’ (अर्थात् रात 12 बजे) तक उपलब्ध रहता है।
स्थिति का दूसरा पक्ष उपरोक्त विवरण से स्वतः स्पष्ट हो जाता है। अर्थात्, रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं कराने पर पालिसी स्वतः ही कालातीत (लेप्स) हो जाती है और ग्राहक बीमा सुरक्षा से वंचित हो जाता है। अर्थात्, रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं हो और ग्राहक की मृत्यु हो जाए तो ऐसे प्रकरण में मृत्यु दावा की रकम देय नहीं होगी।
अर्थात्, बीमा सुरक्षा निरन्तर प्राप्त करते रहने के लिए, ग्राहक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी पालिसी को चालू बनाए रखे जिसके लिए, रियायती अवधि में अपनी किश्त जमा कराना उसके लिए एक मात्र उपाय है।
इस पोस्ट के प्रारम्भ में ऐसी ‘कुछ पालिसियाँ’ उल्लेखित की गई हैं जिनकी किश्तें जमा कराने के लिए यह रियायती अवधि 15 दिनों की होती है। ये ऐसी पालिसियाँ होती हैं जिनमें, बहुत ही कम प्रीमीयम में ग्राहक को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराई जाती है। ऐसी पालिसियों में ग्राहक को परिपक्वता राशि (मेच्योरिटी वेल्यू) या तो बिलकुल ही नहीं मिलती (वाहन बीमा की तरह) या फिर, पालिसी अवधि में जमा कराई गई किश्तों की रकम में से कुछ रकम कम कर, ग्राहक को लौटाई जाती है। ऐसी पालिसियों को ‘शुद्ध बीमा’ (प्योअर इंश्योरेंस) अथवा ‘अवधि बीमा’ (टर्म इंश्योरेंस) अथवा ‘उच्च जोखिम योजना’ (हाई रिस्क प्लान) कहा जाता है। जैसा कि शुरु में कहा गया है, ऐसी पालिसियों की किश्त भुगतान विधि कोई सी भी हो, रियायती अवधि 15 दिन ही होती है।
इन ‘हाई रिस्क प्लान’ वाली लेप्स पालिसियों को चालू कराने के लिए वे समस्त औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं जो पालिसी लेते समय की गई थीं। केवल नया प्रस्ताव पत्र नहीं लिया जाता। इन औपचारिकताओं में यदि चिकित्सा परीक्षण भी शामिल हैं तो वे सब परीक्षण ग्राहक को अपने ही खर्चे से कराने पड़ते हैं। ऐसी योजनाओं में अमूल्य जीवन तथा अमूल्य जीवन-1 (तालिका 179 तथा 190), अनमोल जीवन तथा अनमोल जीवन-1 (तालिका 153 तथा 164), बीमा सन्देश (तालिका 94), तथा बीमा किरण और न्यू बीमा किरण (तालिका 111 तथा 150) प्रमुख हैं। इनमें से बीमा किरण तथा न्यू बीमा किरण में रियायती अवधि यद्यपि 30 दिनों की दी गई है किन्तु लेप्स पालिसी चालू कराने के लिए समस्त औपारिकताएँ पूरी करना इनके लिए भी अनिवार्य है।
शेष पालिसियों में, रियाती अवधि के बाद भी, भले ही भुगतान खिड़की पर, विलम्ब शुल्क अथवा ब्याज के साथ बीमा किश्त जमा कर ली जाती है किन्तु तब भी वह ‘लेप्स पालिसी का पुनर्चलन’ ही हो रहा होता है। ग्राहक को इसकी जानकारी केवल इसलिए नहीं होती क्योंकि उससे कोई औपचारिकता पूरी नहीं कराई जाती।
रियायती अवधि के बाद किश्त जमा कराने पर ग्राहक से, किश्त की रकम पर, रियायती अवधि का भी विलम्ब शुल्क अथवा ब्याज लिया जाता है। अर्थात् रियायती अवधि की छूट, रियायती अवधि तक ही उपलब्ध होती है। अवधि की समाप्ति के साथ ही साथ, सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो जाती हैं।
इसलिए, ग्राहक की बेहतरी इसी में है कि रियायती अवधि में अपनी किश्त जमा कराए और निरन्तर बीमा सुरक्षा प्राप्त करता रहे।
पालिसी लेप्स होने पर उसे चालू कराने के साथ ही ग्राहक को बीमा सुरक्षा फिर से मिलने लगती है। किन्तु लेप्स पालिसी चालू करा लेने के बाद भी, (पालिसी के लेप्स होने के कारण उपजा खतरा और उससे होने वाली हानि के कारण) ग्राहक ने अपना कितना बड़ा नुकसान कर लिया है, यह ग्राहक को मालूम नहीं हो पाता।
इस खतरे के बारे में और ऐसी ही कुछ और छोटी-छोटी बातें फिर कभी।
अन्त में वही निवेदन - ये विचार मेरे हैं। कृपया इन्हें, भारतीय जीवन बीमा निगम के विचार न समझें।
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बहुत उपयोगी आलेख है। मेरी तो क्लास ही हो गई है।
ReplyDeleteबहुत उपयोगी जानकारी दी है आपने।आभार।
ReplyDeleteबैरागी जी,अपने बहुत ही उपयोगी जानकारी प्रदान की.....आभार
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