गन्ध के झोंके: मनु और प्रज्ञा




1995 की फरवरी की 22 तारीख को उनके आँगन में गूँजी थी पहली किलकारी। ‘अयनी’ जनमी थी उसी दिन। लेकिन वे मुझे मिले थे 'दोनों अकेले', अयनी के जनम से पहले।

निश्चय ही कम से कम पन्द्रह बरस पहले की बात होगी। सर्दियों की सुबह हम सबने किया था नाश्ता पोहा जलेबी का। रतलाम के सर्किट हाउस में। उनके आने की खबर की थी गोर्की ने। उसी के मित्र थे (अभी भी हैं ही) वे दोनों। गोर्की, मेरा छोटा भतीजा। नितिन भाई ने जुटाया था सारा संरजाम।


‘वे दोनों’ याने मनु श्रीवास्तव और प्रज्ञा श्रीवास्तव। मनु, भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के सदस्य और प्रज्ञा, भारतीय पुलिस सेवाओं की। आए-आए ही थे नौकरी में। लबालब थे उत्साह और जोश से। कर गुजरना चाहते थे कुछ ऐसा जो अब तक नहीं किया हो किसी ने। गोया, लिख देना चाह रहे हों अपना नाम अनन्त आकाश के केनवास पर, अपनी उमंग-उछाह की कूची से।


उन ‘दोनों अकेले’ से हुई वह पहली मुलाकात। बनी हुई है अब तक अन्तिम भी। आपने-सामने नहीं मिले हम लोग उसके बाद से अब तक। लेकिन नहीं। लगता है, कह रहा हूँ कुछ गलत मैं। क्योंकि मिलने का मतलब नहीं होता आमने-सामने मिलना या कि एक दूसरे से ‘हाय! हैलो! कह कर हाथ मिलाना ही? दूरी नहीं होती बाधक मिलने में। कुछ लोग सामने होकर भी नहीं मिल पाते। मिल पाना तो छोड़िए, दिखाई भी नहीं देते। नहीं सुनाई देते उनके बोल। और कुछ लोग नजर न आकर भी मिल लेते हैं। छू लेते हैं आपको गन्ध के झोंके की तरह आपके पास से तैरते हुए। लपेट लेते हैं आपको अपने भुजबन्ध से। ऐसे और इतना कस कर कि साँसे घुट जाएँ, इतनी कि प्राणान्त की इच्छा जाग उठे तत्क्षण। इतनी खुशी फिर मिले, न मिले क्या पता? ऐसा ही कर रहे हैं मनु और प्रज्ञा मेरे साथ। गए, कोई पन्द्रह बरस से।


हर साल, पहली जनवरी आती है बाद में। बाद में बदलता है केलेण्डर । पहले थपथपाती हैं मेरा दरवाजा, प्रज्ञा और मनु की शुभ-कामनाएँ। आत्मीयता से भरीं, ऊष्मा से सराबोर। हर साल। बिना नागा किए।


उनका अभिनन्दन पत्र होता है हर बार अनूठा, सबसे अलग। बाजार में नहीं मिलता किसी दुकान पर। और उसमें छपी कविता? क्या कहा जाए उसके बारे में! बहा लेती है हर बार, हर साल मुझे, तटबन्ध तोड़ कर हहराती, उफनती नदी की तरह, अपने साथ।


‘हम सब मिल कर तैयार करते हैं ग्रीटिंग कार्ड’ कह रही थी अयनी फोन पर। शहतूत की मिठास को लजा रही थी उसकी आवाज। ‘हम सबसे क्या मतलब?’ पूछा था मैं ने। ‘हम सब मीन्स माम, पापा, समवी और मैं’ कहा अयनी ने। ‘समवी मेरी यंगर सिस्टर है। अभी नाइंटिंथ डिसेम्बर को मनाया है हमने उसका नाइंथ बर्थ डे।’ बताया था अयनी ने जब पूछा था मैंने - ‘कौन है यह समवी?’

बह रही थी पहाड़ी नदी की तरह किलकारियाँ मारती अयनी फोन पर। ‘दीपावली से ही शुरु कर लेते हैं नेक्स्ट ईयर के ग्रीटिंग कार्ड की तैयारी हम सब मिल कर। तय होती है थीम सबसे पहले और बनाते हैं उसके चित्र हम सब बारी-बारी से। चारों का काण्ट्रीब्यूशन कम्पलसरी होता है इसमें। पापा लिखते हैं कविता। वे ही छपाते हैं इस कार्ड को। खास हम सबका होता है यह कार्ड। इसीलिए नहीं मिलता किसी दुकान में, छान मारें आप दुनिया भर के बाजार तो भी।’

अयनी की बातें मुझे ठेल देती हैं पुराने बक्से की ओर। तलाशने लगता हूँ मैं प्रज्ञा और मनु के भेजे पुराने बधाई पत्र। आँखें चुराने लगता हूँ अपने आप से थोड़ी ही देर में। एक भी कार्ड नहीं तलाश पाता हूँ इसलिए। लेकिन प्रज्ञा-मनु के भुजबन्ध की कसावट तिल भर भी नहीं होती ढीली। कसती जा रही है यह साल, दर साल। मैं जकड़ा जा रहा हूँ इसमें । और। और, और।

शब्द कैसे रीतते हैं और बोलता मनुज कैसे हो जाता होगा गूँगा, अनुभव हो रहा है मुझे इस पल। कितना भी चाह लूँ, अधूरा, अव्यक्त ही रह जाऊँगा मैं।

सब कुछ समझा देगी , खुद मनु की कविता आपको। खुद के बारे में भी और कर देगी बखान, ‘इस पल उपस्थित मेरी अक्षमता’ का भी।किसी की पैरवी की नहीं मोहताज यह कविता-


कविताओं
नर्सरी की किताबों

और आसमान में,

भले ही चाँद आवारा घूमा करे।


अपने कागजों, कम्प्यूटर-स्क्रीनों पर

अपने रिश्तों, सपनों में,

रचें खुद का एक चाँद,

बेहद पर्सनल

खास सिर्फ अपना।


फिर भरें उसमें अपने पसन्दीदा रंग

अपनी-सी मुस्कान

किसी पुरानी चोट का बचा हुआ निशान

आँखें-खुद में उतरती हुईं

बाल-घुँघराले, कुछ बिखरे से।



इस साल,

अपने अपने राकेटों और पतवारों के साथ

अपने जुनून और दीवानगी से लैस

अपनी परछाईयों को पीछे छोड़ते हुए,

चल निकलें अपने चन्द्रयान पर
पहुँचने अपने चाँद तक।


तब फिर

पहुँचा हुआ होगा

यह साल,

चाँद सा साल।





पहले चित्र में श्रीवास्‍तव परिवार और दूसरा चित्र उनके 2009 के अभिनन्‍दन-पत्र का।

नितिन वैद्य मेरी मुम्बई में जावरा का ओटला शीर्षक पोस्‍ट के नायक हैं।


मनु श्रीवास्तव, भारत सरकार के पेट्रोलियम एवम् गैस मन्त्रालय में डायरेक्टर के पद पर और प्रज्ञा श्रीवास्तव, केन्द्रीय विद्यालय संगठन में संयुक्त आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं। मनुजी से srimanu@hotmail.com पर और प्रज्ञाजी से pragyarsrivastava@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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7 comments:

  1. संस्मरण रोचक रहा, कविता ने हंगामा किया. आभार

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  2. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति है। खुद कार्ड बनाना और छपवाना, बहुत शानदार विचार है।

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  3. Very nice introduction of both the Great Personalities. It seems as you are talking about some super "man" and "woman"............may be. Poem on the new year is very nice, inspiring and expecting all of us to be true to our nation, society, humanity and moreover becoming true to OURSELVES.

    Thanks for publishing such motivational material.
    Narinder

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  4. aap ka sansmaran padha..Srivastav family se chitron ke zareey miley.beema sambandhit jaankariyon ki suvidha se pathak jarur labh uthayengey.
    dhnywaad.

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  5. आपका आभार कैसे कहूं
    आपने ऋणी बना लिया मुझे
    मनु सर पर पोस्ट लिख कर
    जबलपुर के संस्मरण भी पोस्ट
    करने जा रहा हूँ
    आभार आभार आभार

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  6. ऐसे लोगो के विषय में जानकर लगता है,

    लाख बुरी है दुनिया फिर भी जीने के काबिल है

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