कल पूरे दिन और कोई आधी रात भर से मैं असमंजस में हूँ। ‘चिट्ठा‘ और ‘चिट्ठाकारी’ को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अखबार और पत्रकारिता के समान ही, अभिव्यक्ति का सार्वजनिक माध्यम मानकर, उस पर प्रकाशित सामग्री को अवमानना की परिधि में लेने के समाचार कुछ चिट्ठों पर पढ़े और प्रायः सब पर टिप्पणी भी दी।
किन्तु मन-मस्तिष्क का द्वन्द्व अभी भी असमाप्त है। व्यवहार में चिट्ठा अवश्य नितान्त व्यक्तिगत-अभिव्यक्ति है किन्तु अब ‘चिट्ठा-विश्व’ का निरन्तर होता जा रहा विस्तार इसकी ‘व्यक्तिगतता’ को ‘सार्वजनिक‘ में बदल रहा है, यह भी सत्य है। मई 2007 में मैं ने जब इस विश्व में पाँव रखा तो चिट्ठों की संख्या 2000 भी नहीं थी। आज यह संख्या चार गुना बढ़कर तेजी से पाँच गुना होने को अग्रसर है। मैथिलीजी तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस दशा पर प्रसन्न हुआ जाए या सतर्क क्यों कि चिट्ठा-संख्या के इस तीव्र गति वाले विस्तार के कारण एग्रीगेटर पर चिट्ठों और टिप्पणियों का ‘गोचर जीवन काल’ कम से कमतर होता जाएगा।
मैं ‘लेखक’ कभी नहीं रहा और अब तक बन भी नहीं पाया। किन्तु वर्तमान पर टिप्पणी करने का ‘व्यसन’ मेरे लेखक होने का भ्रम बनाता लगता है। एक टिप्पणीकार के रूप में भी मैं पहले ही क्षण से इस बात का पक्षधर हूँ कि जो भी लिखा जाए, जिस भी स्थिति में लिखा जाए, उसमें ‘उत्तरदायित्व भाव’ अवश्य हो। मेरे लिए तो ‘स्वान्तः सुखाय लेखन’ भी अन्ततः ‘सामामजिक सरोकार‘ लिए होता है। सो, जहाँ ‘उत्तरदायित्व भाव’ नहीं, वहाँ न तो प्राण हैं और न ही विश्वसनीयता। ऐसा प्रत्येक ‘लेखन’ (वह ‘सृजन‘ हो अथवा ‘टिप्पणी’) मुझे ‘अवैध सन्तान’ ही लगता है।
सो, सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय मुझे तनिक भी अस्वाभाविक/असहज नहीं लगा। चिट्ठों पर आई टिप्पणियों को भी चिट्ठाकार का उत्तरदायित्व मानना मुझे आपत्तिजनक नहीं लगता। यदि चिट्ठे को ‘अखबार’ माना जाए तो उस पर आई टिप्पणी स्वतः ही ‘सम्पादक के नाम पत्र’ की हैसियत प्राप्त कर लेती है। तब यह, प्रकाशन के पहले ही क्षण से चिट्ठाकार का उत्तरदायित्व तो बनती ही है।मेरा द्वन्द्व इसी बात को लेकर है। मैं अभिव्यक्ति पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध अस्वीकार करता रहा हूँ। आपातकाल में आरोपित की गई सेंसरशिप का विरोध करने के कारण मुझे तब आकाशवाणी का सम्वाददाता बनाने से इंकार कर दिया गया था। किन्तु अपने उस निर्णय का मुझे न तब दुख था न अब है।
इसी मानसिकता के अधीन, चिट्ठों पर ‘वर्ड वेरीफिकेशन’ और ‘कमेण्ट माडरेशन’ के प्रावधान मुझे नहीं सुहाते। मेरे गुरु रविजी ने एक बार, धीमे से मुझे परामर्श दिया था - कमेण्ट माडरेशन की व्यवस्था अपने ब्लाग पर लागू करने का। निस्सन्देह उन्हें आगत की आहट सुनाई दे रही होगी और वे मेरी चिन्ता ही कर रहे होंगे। किन्तु उन्होंने जितना लिहाज बरतते हुए मुझे परामर्श दिया था, उससे अधिक विनम्र-दृढ़ता बरतते हुए मैं ने इंकार कर दिया था।
किन्तु कल से मैं द्वन्द्व में हूँ। क्या करूँ? मेरे लिखे का उत्तरदायित्व तो असंदिग्ध रूप से मेरा ही है। किन्तु टिप्पणियों का उत्तरदायित्व? मैं तो उसके लिए भी तत्पर हो सकता हूँ किन्तु मुझे यह तो मालूम हो कि टिप्पणीकार कौन है! इस जगत् में ‘एनानिमसों’ की संख्या ‘कुकुरमुत्तों’ की तरह बढ़ती जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि एक ही विषय पर एक ‘एनानीमसजी‘ सहमति जताते हैं तो उसी टिप्पणी के ठीक नीचे दूसरे ‘एनानीमसजी’ असहमति अंकित कर रहे होते हैं। यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि ये दो अलगःअलग आत्माएँ हैं या एक ही व्यक्ति सुविधा के दुरुपयोग का खेल, खेल रहा है!
तो मैं क्या करूँ? जो मुझे सपने में भी स्वीकार नहीं, वही कमेण्ट माडरेशन की व्यवस्था अपने चिट्ठे पर लागू कर लूँ? या फिर चिट्ठा जगत को ही नमस्कार कर लूँ? दोनों ही स्थितियाँ मेरे लिए तो प्राणलेवा है।
या फिर, अपने चिट्ठे पर ‘न्यायिक क्षेत्राधिकार’ की घोषणा स्थायी रूप से अंकित कर दूँ? ताकि, यदि कोई मुझ पर कानूनी कार्रवाई करे तो मैं देश की विभिन्न अदालतों में उपस्थिति देने के लिए किए जाने वाले ‘आशंकित विवश देशाटन’ से बच सकूँ।
क्या यह द्वन्द्व मुझे अकेले का है?
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जी आपकी हाँ में हाँ ! मौजू है आपकी प्रविष्टि !माडरेशन आन कर लें !
ReplyDeleteसर्वोच्च न्यायालय का निर्णय बिल्कुल सही है...हमें वर्ड वेरिफिकेशन और कमेंट मोडरेशन लगाकर ही रखना पडेगा ...ताकि हमलोग कानूनी पचडे में न पडे।
ReplyDeletebilkul thik bat hai jee. narayan narayan
ReplyDeleteबैरागी साहब, हम अपने विचारों को सार्वजनिक अभिव्यक्ति देते हैं तो आप अपने विचारों के लिये जिम्मेदार होते हीं है. हम चाहे वो विचार किसी को पत्र लिखकर करते हैं, या कोई पैम्फलैट बांटकर करते हैं, किसी किताब या अखबार के माध्यम से करते हैं या किसी वेबसाईट या ब्लाग से करते हैं. हर सार्वजनिक अभिव्यक्ति के लिये हम स्वयं जिम्मेदार होते ही हैं.
ReplyDeleteवेबसाईट या ब्लाग भी अन्य अभिव्यक्तियों के माध्यम की तरह से ही है और हम शुरू से ही अपने विचारों के लिये जिम्मेदार हैं हीं. एसा सर्वौच्च न्यायालय के फैसले से पहले भी होता था. यदि आप किसी विचार के फैलने में सहायक होते हैं और उन विचारों से किसी को हानि होती है तब आप फैलाने वाले के रूप में भी जिम्मेदारी ओढ़ लेते हैं. भारतीय व विदेशी वेबसाईट और ब्लागर अपनी जिम्मेदारी भुगतते ही आ रहे हैं. आपके ब्लाग पर की गई टिप्पणी के आप कापीराईट धारक नहीं है लेकिन इनके प्रति जिम्मेदारी तो ब्लागर की ही है.
और हम इस पर ‘न्यायिक क्षेत्राधिकार’ की घोषणा से भी नहीं बच सकते हैं. होस्टिंग अमेरिका में है क्या यह अमेरिकी न्यायिक क्षेत्र में आयेगा? लिखा गया मध्यप्रदेश के भोपाल में क्या यह भोपाल के न्यायिक क्षेत्र में आयेगा? आत्मा दुखी राजस्थान के एक छोटे से गांव भौंदूखेड़ा में तो क्या यह भोंदूखेड़ा के न्यायिक क्षेत्र में आयेगा? कोई विचार किसी जगह अपराध है और किसी जगह अपराध नहीं है. कानून की बांह बहुत लचीली होती हैं और इन्हें अपने मनमाफिक तोड़ा मरोड़ा जा सकता है.
रवि भाई सही कहते हैं, आप एनानीमस के लिये जगह छोड़िये लेकिन माडरेशन जरूर रखिये, आप अपनी आलोचना सुनना सहन कर सकते हैं और कभी उकस कर जबाब भी दे सकते हैं :). लेकिन हमें अपने ब्लाग पर किसी दूसरे के लिये लिखी गलत बातों को तो हटाना ही पड़ेगा.
और ब्लागों की संख्या बढ़ती है तो इस पर खुश ही हुआ जाय. एग्रीगेटर भी आवश्यकतानुसार अपने आपको सुधार ही लेंगे. मेरे हिसाब से तो महत्वपूर्ण ब्लाग पोस्ट और टिप्पणियों का गोचरकाल और विस्तृत होगा.
विष्णु जी, आपकी पोस्ट विचारणीय है. जैसा कि सभी जिम्मेदार लोग जानते हैं कि हमारे अधिकार-क्षेत्र या हमारी संपत्ति पर होने वाले कृत्य की जिम्मेदारी हमारी ही होनी चाहिए.कानून हो या न हो, हम अपने ब्लॉग व टिप्पणी के प्रति अपनी इस नैतिक जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. मैंने शुरू से ही मोडरेशन ऑन रखा है और इस विषय पर होने वाली बहसों में इसके कारणों को स्पष्ट करने का प्रयास भी हमेशा ही किया है. कुछ लोग उससे खफा भी हुए हैं, मगर मैथिल जी की बात से पूर्ण सहमत हूँ. अभिव्यक्ति की भी एक सीमा होनी चाहिए. हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे गालियाँ दें या सुनें. उदाहरण के लिए - एक विशिष्ट प्रकार के साहित्य और पेयों को हम खुले रूप से उपलब्ध नहीं करा सकते हैं, मगर उस साहित्य और पेयों के गैर-जिम्मेदार विक्रेता चुपचाप किसी टिप्पणी के रूप में अपना विज्ञापन चेप जाते हैं तो हमारा यह कर्त्तव्य बनता है कि या तो हम अपने ब्लॉग का दरवाजा सीमित आयु-वर्ग के लिए ही खुला रखें या फिर उस टिप्पणी को नियंत्रित करें.
ReplyDeleteकमेन्ट मोडरेशन के पक्ष में अरविन्द मिश्र जी ने सर्वप्रथम अपनी राय दी. क्योंकि वे भुक्त भोगी हैं. हम भी इसके पक्ष में हैं. आभार.
ReplyDeleteइस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय का मूल निर्णय बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिला है। तलाश कर रहा हूँ। लेकिन ऊपर जितनी भी टिप्पणियाँ आई हैं उनमें जो बात कही गई है वह सही है। हमारे लिखे के लिए हम जिम्मेदार हैं और टिप्पणी के लिए टिप्पणीकार लेकिन टिप्पणी के प्रकाशक तो हम हैं। इस कारण से टिप्पणी प्रकाशित करने से पहले उसे जाँच लेना उचित है। कमेंट मॉडरेशन लगा लेना ही उचित होगा।
ReplyDeleteलिक्खाड़,धुरन्धर और सबके प्यारे ब्लोगर बैरागी जी .आप सबसे ज्यादा लिखते हैं, इसलिये आपकी चिन्ता सबसे गंभीर होना जायज़ है.अब बात का निचोड़ यह हैं प्यारे अब तक जो मैदान में
ReplyDeleteदौड़ते थे,वो अब पगडंडी पर चलेंगे.
मैं श्री अनुराग शर्माजी (Smart Indian) की बात से सहमत हूं.
ReplyDeleteआपने बडे काम का सवाल ऊठाया है. धन्यवाद.
रामराम.
मुझे भी अब और डर कर रहना होगा ....पहले तो, अभी जाकर अपने ब्लॉग की टिप्पणियों पर ताला ठोक देता हूँ (चाभी अपनी जेब में रखूंगा).. हम्म्म .. स्वछन्द विचरण करने वाले टिपण्णी कार मुझे क्षमा करें.
ReplyDeleteमैं भी इसी बात को लेकर परेशान थी। मुझे भी टिप्पणियों पर पाबन्दी लगाना पसन्द नहीं है। अच्छा हुआ जो आपने यह विषय उठाया। अधिक से अधिक लोग इस विषय पर अपनी राय दें तो हम कोई सही निर्णय ले पाएँ। तबतक के लिए लगता है कि सुरक्षित रहने में ही सुरक्षा है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती