विवश कर दिया भुवनेश ने

गई रात काम-काज निपटाते-निपटाते कुछ अधिक ही देर हो गई। सवेरे तीन बजे बिस्तर पर जा पाया। तय किया था कि आज ब्लाग पर कुछ भी नहीं लिखूँगा। किन्तु भुवनेश ने ‘निश्चय भंग’ कर दिया।

कोई तीस-पैंतीस वर्षों से भुवनेश से सम्पर्क है। पता ही नहीं चला कि ‘दशोत्तरजी’ का रूपान्तरण कब और कैसे ‘भुवनेश’ में हो गया! जतन करने पर भी याद नहीं आ रहा। अब हम पारिवारिक स्तर पर जुड़े हुए हैं। मानसिक तादात्म्य उससे तनिक अधिक है। महीनों न मिलने पर भी कोई असुविधा और शिकायत नहीं होती।


भुवनेश रेल्वे में ‘चीफ ट्रेन गुड्स क्लर्क’के पद पर कार्यरत था। अभी-अभी, दिसम्बर 2008 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली है। दो बेटियों और एक बेटे का प्रेमल और जिम्मेदार पिता। तीनों बच्चे कामकाजी हैं। बड़ी बेटी का विवाह अभी-अभी किया है।


भुवनेश की पत्नी, हम सबकी सुषमा भाभी, कन्धे से कन्धा मिला कर भुवनेश का साथ निभाने वाली जुझारु और कर्मठ महिला। अपनी वृध्द सास और ‘चारों बच्चों’ की देखभाल बिलकुल ऐसे करती हैं जैसे कोटर में बैठे अपने बच्चों की देखभाल कोई कबूतरी करती है। परिवार का मुखिया निस्सन्देह भुवनेश ही है किन्तु घर तो सुषमा भाभी का है।


बीमा एजेण्ट होने के कारण मुझे असंख्य परिवारों में जाना पड़ता है। सो, अधिकारपूर्वक कहने की स्थिति में हूँ कि भुवनेश का परिवार सचमुच में ‘सबसे न्यारा’ ही है। ऐसा कम ही होता है कि परिवार के सारे सदस्यों की रुचि समान हो। जिसे यह अनूठापन देखना हो, वह भुवनेश-सुषमा का यह परिवार देख ले। पूरा परिवार अभिरुचि सम्पन्न है और इस अभिरुचि में भी ‘कला फिल्में’ (या कि समान्तर फिल्में) सबको समान रुप से पसन्द हैं। मधुबाला और मीनाकुमारी के ‘वाल साइज’ वाले ‘ब्लेक एण्ड व्हाइट पोस्टर’ मैंने पहली बार (और अब तक अन्तिम बार भी) मैंने भुवनेश के घर में ही देखे थे। सामाजिक और जातिगत स्तर पर मिलने-जुलने वाले और औपचारिक व्यवहार रखने वालों के बीच यह ‘दशोत्तर परिवार’ कभी ‘विचित्र किन्तु सत्य’ तो कभी ‘समझ में नहीं आता’ जैसे मुहावरों से उल्लेखित किया जाता है। रेल्वे-मित्रों के बीच भुवनेश को ‘पिछड़ा’ कहा और माना जाता रहा। 33 वर्षों की अपनी नौकरी में उसने ‘सूखी तनख्वाह’ से आगे बढ़ कर कभी सोचा ही नहीं। इस मायने में तो वह सचमुच में ‘पिछड़ा’ ही है। वर्ना, अच्छी-भली ‘सैल्स टैक्स इन्सपेक्टरी’ छोड़ कर रेल्वे की बाबूगिरी करना क्यों पसन्द करता?


अपनी अभिरुचि के अधीन ही भुवनेश को कलम ने आकर्षित किया। वह नियमित लेखक नहीं है। कभी-कभार ‘कुछ’ लिख लेता है। ‘प्रेम’ में भुवनेश का अगाध विश्वास है। कोई उससे प्रेम करे-न-करे, वह सबसे प्रेम करता है। इसी के चलते, ‘वेलेण्टाइन डे’ पर निकलने वाले अखबारी परिशिष्टों वे, जेब से रोकड़ा खर्च कर, ‘प्रेम सन्देश’ प्रकाशित करवाता है। इसमें उल्लेखनीय बात यह कि सुषमा भाभी भी इस ‘प्रेम प्रकटीकरण’ में ‘रोकड़ा से रोकड़ा मिलाकर’ भुवनेश का साथ देती हैं।


इसी भुवनेश ने आज, पोस्ट न लिखने का मेरा निश्चय भंग कर दिया। श्रीमतीजी की भाभी की शल्यक्रिया हुई है। उनकी मिजाजपुर्सी के लिए वे इन्दौर गई हुई हैं। सो, उठ कर (यह उठना दस बजे हो पाया), नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, चाय बनाई और फैली टाँगो पर अखबार बिछा लिया। पढ़ते-देखते, ‘नईदुनिया’ के रविवारीय परिशिष्ट का अन्तिम पन्ना सामने आया तो अन्तिम कालम में ‘राइट टाप’ पर, ‘फोर कलर’ में छपी भुवनेश की कविता नजर आई। मेरे लिए यह भुवनेश की पहली कविता थी। सो ‘लपक’ कर पढ़ना शुरु किया और एक साँस में पढ गया। एक बार पढ़ी। दूसरी बार पढ़ी। फिर पढ़ी। ‘इतनी बार’ पढ़ने का कारण केवल उसका ‘अच्छा लगना’ नहीं था। एक कारण और था। यह कविता ‘प्रेम’ पर नहीं थी। अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अपने बच्चों के माध्यम से पूरे करने वाल ‘आप-हम जैसे अतिरेकी पालकों से त्रस्त स्कूली बच्चों’ पर थी यह कविता। इस कविता ने मुझे चैंकाया ही।


और कुछ कहूँ इससे अच्छा तो यही होगा कि आप खुद ‘गुमशुदा बचपन’ शीर्षक से प्रकाशित वह कविता पढ़ लें और मेरे चैंकने का कारण जान लें -


बचपन

हम बड़ों की भीड़ मे गुमशुदा है

हमने उसे बना लिया है

अपनी लालसाओं का शिकार।

उसके नन्हें कन्धों पर लाद दिए हैं

भारी भरकम बस्ते

प्रतिशतों से भयभीत मासूम

हाँफ रहा है

कोचिंग कक्षाओं के बीच।

बचपन को खड़ा कर दिया है हमने

दिखावटी मंच पर

उसके मुँह में डाल दिए हैं अपने

भद्दे चुटकुले।

उसके पास खड़ी कर दी हैं

छोटे वस्त्रों में इतराती

धरती की अप्सराएँ

वह नाच रहा है रुमानी गीतों

और

आयटम डांस की जहरीली थिरकन पर।

तालियों की गड़गड़ाहट में

ईर्ष्‍या और द्वेष लील रहे हैं

उसकी मासूमियत।

तथाकथित न्यायाधीशों से घिरा

भयभीत नौनिहाल

एसएमएस की दया माँग रहा है

और हम सब कभी खुशी कभी गम के इस प्रायोजित खेल में

अपनी विषबुझी महत्वाकांक्षाओं के साथ

सहर्ष शामिल हैं।

क्योंकि हमारे पास बचपन के लिए न तितली है, न चिड़िया

ना ही पहाड़, नदी और झरने

ना घरौंदे, ना लुका छिपी

और ना ही छुकछुक गाड़ी का खेल।

हम तो सिर्फ

बचपन को जल्दी से जल्दी

बड़ा करने की होड़ में हैं।

उसे एक चूहा दौड़ में

शामिल कर देने की तेज होती दौड़ में हैं।


इसके बाद कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रह जाता। मेरी विवशता और आपकी समझदारी पर मुझे पूरा भरोसा है।
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इस ब्लाग पर, प्रत्येक गुरुवार को, जीवन बीमा से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। (इस स्थिति के अपवाद सम्भव हैं।) आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने का यथा सम्भव प्रयास करूँगा। अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। यह सुविधा पूर्णतः निःशुल्क है।

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7 comments:

  1. ब्लोग के नशे से हम सभी ग्रसित हैं।
    फिर भी स्वास्थय का ख्याल रखें।

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  2. बचपन को जल्दी से जल्दी

    बड़ा करने की होड़ में हैं।

    उसे एक चूहा दौड़ में

    शामिल कर देने की तेज होती दौड़ में हैं।

    bahut achcha likha hai...inehe bhi blogging me le aain

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  3. भुवनेश जी कि कविता सुंदर थी. सच में बचपन को ग्रहण लग गया है. हमने गगन शर्मा जी कि बात को आत्मसात कर लिया है. ३ या ४ दिनों के अंतराल में ही कुछ पोस्ट करते हैं. इस बीच प्यार मोहब्बत बनाये रखने के लिए टिपियाते रहते हैं. पढने के लिए समय भी मिल जाता है. आभार.

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  4. भुवनेश जी ,
    बचपन के बिखरते तार पर आप द्वारा लिखी गई कविता अच्छी लगी .
    कभी जवानों के खोते जोश पर भी कोई कविता लिखे .
    लतिकेश
    मुंबई

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  5. बहुत आभार विष्णू जी आपका, अपने मित्र भुवनेश जी से परिचित करवाने का एवं उनकी जबरदस्त रचना पढ़वाने का:

    हम तो सिर्फ
    बचपन को जल्दी से जल्दी
    बड़ा करने की होड़ में हैं।

    -कितने गहरी बात है.

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  6. विष्णु भैया अच्छा लगा भुवनेश जी के बारे मे जानकर और उनकी कविता पढकर।सच मे लगता है जैसे बचपन का अपहरण बड़ो ने कर लिया है।

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