दशकों बाद मुझ तक पहुँचा ‘नेता’

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी की कही बात फौरन समझ में नहीं आती। जब समझानेवाला ही समझाने में मुश्किल अनुभव करे तो भला समझनेवाला कैसे समझे? स्थिति तब और तनिक कठिन हो जाती है जब, समझनेवाला लिहाज के मारे दूसरी बार पूछ भी न सके। तब, वह पल टल तो जाता है किन्तु दोनों ही उलझन में बने रह जाते हैं।

ऐसा ही एक बार हम दोनों भाइयों के बीच हो गया। न मैं समझ सका, न वे समझा पाए। लेकिन उस पल को टालने के लिए उन्होंने जो कहा था वह अब, लगभग सैंतालीस बरस बाद मुझ पर हकीकत बन कर गुजर गया।

यह सत्तर के दशक की बात होगी। मन्दसौर से एक साप्ताहिक अखबार शुरु हुआ। उद्घाटन किया इन्दौर के जुझारू प्रतीक श्री सुरेश सेठ ने। कार्यक्रम की अध्यक्षता दादा (श्री बालकवि बैरागी) ने की। मैं उसका संस्थापक सम्पादक बना। अखबार को लोकप्रिय बनाने के लिहाज से दादा से आग्रह किया कि वे अखबार के पाठकों के प्रश्नों के उत्तर दें। उन्होंने हाँ भर दी। अखबार को जो पत्र मिलते, वे दादा को पहुँचा दिए जाते। उनकी सुविधा से उत्तर आ जाते। स्तम्भ लोकप्रिय हो चला। पाठकों के प्रश्नों की संख्या सप्ताह-प्रति-सप्ताह बढ़ने लगी। इन्हीं में एक प्रश्न आया - ‘विश्वसनीय नेता की क्या पहचान?’ यह प्रश्न मेरी नजर में चढ़ गया। दादा को भेजकर उनके उत्तर की राह देखने लगा। 

दादा के जवाबों का लिफाफा आया तो मैंने अपने सारे काम छोड़कर उसे टटोला। दादा ने जवाब लिखा था - ‘जो अपने कार्यकर्ताओं, अनुयायियों के पीछे खड़ा रहने, उनके पीछे-पीछे चलने की हिम्मत कर सके।’ बात मेरी समझ में बिलकुल ही नहीं आई। उन दिनों आज जैसी फोन-सुविधा तो थी नहीं। दादा का कोई ठौर-ठिकाना नहीं। ‘कविता-काँग्रेस-कवि सम्मेलन’ के चलते आज यहाँ तो कल वहाँ। उनसे बात तब ही हो सकती थी जब या तो वे खुद फोन करें या मन्दसौर आएँ। जवाब को तो छपना था। छाप दिया गया। लेकिन मैं अधीरता से दादा के फोन की या उनके आने की राह देखने लगा।

मेरी तकदीर अच्छी थी कि कुछ ही दिनों बाद अचानक ही वे मन्दसौर आ गए। हम दोनों मिले तो मैंने उनका जवाब समझना चाहा। उन्होंने कोशिश तो की किन्तु न वे खुद ही सन्तुष्ट हो पाए न ही मैं। मैंने कहा - ‘नेता तो सदैव आगे ही रहता है। यह शब्द तो बना ही नेतृत्व से है। ऐसे में पीछे खड़ा रहनेवाला या चलनेवाला भला नेता कैसे हो सकता है?’ मैंने उनसे कोई उदाहरण देकर समझाने को कहा। वे विचार में पड़ गए। मैंने हिम्मत करके कहा - ‘आपने शायद जवाब देने के लिए जवाब दे दिया। ऐसा होता नहीं होगा।’ विचारमग्न स्थिति में ही वे बोले - ‘नहीं। यह कोई टालनेवाली बात नहीं है। यह मेरा विश्वास तो है ही, एक विचार है जिसके उदाहरण शायद ही मिले। आज मैं कोई उदाहरण नहीं दे पा रहा हूँ लेकिन अपने जवाब पर कायम हूँ। आज न सही, कभी ऐसा कोई मौका आएगा जरूर जब तुझे मेरी बात समझ में आएगी।’ मैं क्षणांश को भी सन्तुष्ट नहीं हुआ किन्तु दूसरी बार पूछने की न तो स्थिति थी न ही  हिम्मत।

किन्तु अभी-अभी, दो दिन पहले दादा की बात सच साबित हो गई। मेरा दिमाग झनझना गया। रोंगटे खड़े हो गए।

मध्य प्रदेश के वाणिज्यिक कर विभाग के सेवा निवृत्त एक बड़े अधिकारी श्री रमेश भाई गोधवानी ने वाट्स एप पर मुझे एक वीडियो कतरन भेजी। अन्तरिक्ष वैज्ञानिक, भारत रत्न डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम की, एक मिनिट की इस वीडियो कतरन ने दशकों पुरानी मेरी जिज्ञासा एक झटके में हल कर दी। मुझे मिलने के अगले ही दिन से यह कतरन फेस बुक पर भी आ गई है। हममें से अधिकांश अब तक इसे देख चुके होंगे।

इस कतरन में डॉक्टर कलाम अपना एक अनुभव सुनाते हुए बताते हैं कि 1979 में वे, उपग्रह एसएलवी-3 के प्रोजेक्ट डायरेक्टर, मिशन डायरेक्टर थे। प्रक्षेपण करते समय कम्प्यूटर के पर्दे पर दो शब्द चमके - ‘डोण्ट लांच।’ लेकिन डॉक्टर कलाम कहते हैं - ‘मैंने इसकी अनदेखी कर दी और उपग्रह प्रक्षेपित कर दिया। लेकिन वह अपनी कक्षा में स्थापित होने के बजाय बंगाल की खाड़ी में गिर गया।’ डॉक्टर कलाम ने कहा - प्रक्षेपण सफल होता तो मैं बात करता। लेकिन असफल हो गया। अब क्या बात करूँ? लेकिन तभी, भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के चेयरमेन डॉक्टर सतीश धवन आए और बोले - ‘चलो, पत्रकारों से बात करते हैं।’ मैं घबरा गया। पता नहीं क्या होगा? मुझे अपराधी घोषित कर दिया जाएगा। 

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए डॉक्टर कलाम कहते हैं - उन्होंने (डॉक्टर धवन ने) पत्रकारों से कहा - ‘हम असफल हुए हैं। लेकिन मैं अपनी टीम के साथ हूँ और उनका समर्थन करता हूँ। हमारी टीम बहुत बढ़िया टीम है। हम अगले वर्ष सफल होंगे।

और इसके बाद डॉक्टर कलाम ने जो कहा, उसने मेरे बरसों की अनुत्तरित कुँवारी जिज्ञासा को सुहागन कर दिया। डॉक्टर कलाम कहते हैं - अगले वर्ष प्रक्षेपण कामयाब रहा। डॉक्टर धवन आए और मुझसे कहा - ‘जाओ! पत्रकार वार्ता को सम्बोधित करो। वीडियो कतरन, डॉक्टर कलाम के इस वाक्य से समाप्त होती है - ‘नेता वो जो असफलता की जिम्मेदारी खुद ले और सफलता का श्रेय अपने सहयोगियों को दे।’ 

इसके बाद मेरे लिए कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रह जाता। अपने आसपास देखता हूँ तो ‘नेता’ को लेकर अपने समय के अभाग्य पर क्षुब्ध होता हूँ। जिस भारतीय महानता की हम दुहाइयाँ देते हैं उसके चलते तो ऐसे उदाहरण हमारे लिए ‘आम’ होने चाहिए किन्तु ऐसा है नहीं। आज तो ऐसे उदाहरण ‘दुर्लभों में दुर्लभ’ हो गए हैं। 

बाकी की तो मैं नहीं जानता। अपनी कह पा रहा हूँ - ‘मैं भाग्यवान हूँ कि एक भुक्तभोगी-नायक द्वारा ऐसे उदाहरण का बखान अपनी आँखों देख पाया, कानों सुन सुन पाया।

समय हर बात का जवाब देता तो है किन्तु अपनी शर्तों पर। धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना शायद उसकी शर्तों में से एक है।

धन्यवाद रमेश भाई गोधवानी। 
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(मेरा अंग्रेजी ज्ञान शून्यवत है। मैंने अपनी सूझ-समझ के अनुसार, डॉक्टर कलाम के वक्तव्य का भावानुवाद करने की कोशिश अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से की है। यदि कोई चूक हुई हो तो मैं करबद्ध क्षमा याचना करता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि मेरी चूक दुरुस्त करने में  मदद करने का उपकार करें। प्रस्तुत चित्र गूगल से लिया है जिसका कोई वाणिज्यिक उपयोग नहीं किया गया है।)

7 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंलवार (21-02-2017) को
    सो जा चादर तान के, रविकर दिया जवाब; (चर्चामंच 2596)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन भवानी प्रसाद मिश्र और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  3. दिनांक 22/02/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंदhttps://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  4. बहुत सुन्दर प्रेरक प्रस्तुति।
    महान शख्सियत से मिलकर बहुत कुछ ज्ञान तो मिलता है।
    कलाम साहब को नमन!

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  5. जो बात जल्दी समझ में ना आए समझना चाहिए , उसे समझना बहुत ज़रूरी हैं।

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