हाँ! सर! मैंने भी दिल खो दिया

यह तीस जून 2018 की शाम है। शाम के 6 बजनेवाले हैं। सुबह के अखबार अभी-अभी देखे और जी धक् से रह गया। उपाध्याय सर के उठावने का विज्ञापन नजर आया। उपाध्याय सर के उठावने की रस्म हुए एक घण्टा होने को आ रहा है। आजकल अखबार देखने को जी ही नहीं करता। इसीलिए अखबार अब देखे। सुबह ही देख लेता तो उतना दुःख तो नहीं ही होता जितना इस समय हो रहा है। कम से कम उठावने में तो शरीक हो जाता।

उपाध्याय सर याने श्री श्यामसुन्दरजी उपाध्याय। हम इन्हें इस नाम से नहीं जानते थे। हमारे लिए वे प्रोफेसर एस. आर. उपाध्याय थे। मूलतः देवास जिले के गाँव सतवास के रहनेवाले थे। इन्हें पहली बार 1965 में देखा था। रामपुरा कॉलेज में। वे वहाँ बॉटनी के प्रोफेसर थे। मैं बी. ए. का विद्यार्थी था। विषय और संकाय के लिहाज से मेरा, इनका कोई नाता नहीं था। लेकिन रामपुरा कॉलेज बहुत छोटा कॉलेज था। इस स्नातकोत्तर कॉलेज की, तीनों संकायों की छात्र संख्या ढाई सौ के आसपास थी। इससे अधिक छात्र संख्या तो, इन्दौर के किसी कॉलेज के एक विषय के, सभी सेक्शनों के पहले वर्ष के छात्रों की हो जाती होगी। इतनी कम छात्र संख्या की वजह से प्रत्येक प्रोफेसर, लगभग प्रत्येक विद्यार्थी को नाम से जानता-पहचानता था। लेकिन उपाध्यायजी से मेरे परिचय का यही एक कारण नहीं था।

उपाध्यायजी थे तो बॉटनी के प्रोफेसर लेकिन नाटक में उनकी भरपूर रुचि थी। गणित विभाग में थे प्रोफेसर जे. सी. मिश्रा। एकदम गंजे। बोलते बहुत कम थे लेकिन मोटे चश्मे से झाँकती उनकी बड़ी-बड़ी आँखें मानो हरदम बतियाती रहती थीं। वे भी नाटक-संगीत में खूब रुचि रखते थे। गाते भी बहुत अच्छा थे। आँखें मूँदकर, अपने आप में डूब कर वे जब सी. एच. आत्मा का गाया गीत ‘प्रीतम आन मिलो’ गाते थे तो लगता था साक्षात महादेव शान्त रस का पाठ कर रहे हों। मिश्राजी राजेन्द्रनगर (इन्दौर) में रहते थे। गए दिनों उनका भी निधन हो गया।

मुझे भी नाटकों और संगीत में रुचि थी। कॉलेज के वार्षिकोत्सव का भार मिश्राजी और उपाध्याय सर के जिम्मे रहता था। इसी कारण इनसे सम्पर्क बना और ऐसा बना कि उपाध्याय सर का घर मेरी सराय बन गया। मैं जब अपने छात्रावास में नहीं होता था तो फिर केवल उपाध्याय सर के यहीं होता था। मेरे घरवालों की तरह वे भी मुझे 'बब्‍बू' ही पुकारने लगे।

उपाध्याय सर से घरोपा इतना बढ़ा कि मेरी भाभीजी एक बार जब रामपुरा आईं तो उपाध्याय सर के यहीं रुकीं। एक बार उपाध्याय सर और ओम ठाकुर सर मेरे घर मनासा आए थे और रात रुके थे। ठाकुर सा’ब हमें हिन्दी पढ़ाते थे। वे मूलतः हैं तो सैलाना के लेकिन इन्दौर में (सुदामा नगर में) ही बस गए हैं। इन्दौर में उनकी गिनती हिन्दी साहित्यकारों की पहली पंक्ति में होती है। अभी 26 जून की शाम, श्री म. भा. हिन्दी साहित्य समिति द्वारा दादा श्री बालकवि बैरागी की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में धर्मेन्द्र रावल के साथ ठाकुर सा’ब से भेंट हुई थी तो हम तीनों देर तक उपाध्याय सर की बातें करते रहे थे।

बॉटनी के प्रोफेसर और बी ए के विद्यार्थी का रिश्ता ऐसा रहा कि उपाध्याय सर की छोटी बहन कृष्णा के विवाह में शामिल होने के लिए मैं सतवास गया था। मैं अकेला नहीं था। जमनालाल (राठौर) के साथ गया था। जमनालाल और मैं कॉलेज में ‘जुगल-जोड़ी’ के रूप में पहचाने जाते थे।

उपाध्याय सर केवल मेरे ही नहीं, मुझ जैसे कुछ ‘बागड़बिल्लों’ के संरक्षक और पथप्रदर्शक थे। वे हमसे परेशान भी खूब रहते थे और हमें चाहते भी उतना ही थे। घरोपे के घनत्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे जब हमे डाँटते तो मनोरमा भाभी हमें, सचमुच में अपने पीछे, अपनी ओट में लेकर, हमारा बचाव करते हुए उपाध्याय सर से झगड़ लिया करती थीं। उपाध्याय सर मन मसोस कर रह जाते और हम खुश होकर भाभी की चापलूसी में लग जाते। वे मखमली मिजाज के, बेहद सम्‍वेदनशील व्‍यक्ति थे।

एक बार कुछ लड़कों ने उपाध्याय सर के साथ बदतमीजी कर दी। वे मर्माहत हुए। कई दिनों तक दुखी रहे। इतने कि घोषणा कर दी - ‘मैं पप्पू को गुण्डा बनाऊँगा। वह एक-एक को निपटेगा।’ पप्पू उनका बेटा था-चार बहनों (अर्पिता, अर्चना, वन्‍दना और मंगला) का इकलौता भाई। बड़ा होकर पप्पू गुण्डा नहीं, कामयाब दन्त चिकित्सक बना। उसे डॉक्टर राघवेन्द्र उपाध्याय के नाम से पहचाना गया। इन्दौर में, टोरी कार्नर पर उसकी क्लीनिक थी। सर की चार बेटियों में से मुझे इस समय केवल उनकी बड़ी बेटी अर्पिता की याद है। वह हम सबकी ‘गुड्डी’ थी। बड़ी शान्त चित्त बच्ची थी वह। 

मुझे यह देख-देखकर मर्मान्तक दुःख और आश्चर्य होता रहा कि ईश्वर ने उपाध्याय सर जैसे सन्त, सात्विक, निष्कलुष, निश्छल, सर्वथा अहानिकारक आदमी को किस बात की, इतनी सजाएँ दीं? पहले तो उनसे हमारी भाभीजी को छीन लिया और फिर इकलौते बेटे राघवेन्द्र को। राघवेन्द्र का निधन इतना आकस्मिक, इस तरह हुआ कि जब मुझे खबर लगी तो लगा, मुझसे क्रूर मजाक किया जा रहा है। राघवेन्द्र उज्जैन में अपनी छोटी बहन का विवाह संस्कार निपटा कर लौटा ही था कि शायद एक सप्ताह के आसपास ही हृदयाघात से उसका अवसान हो गया। सर ने उसकी मृत्यु की खबर देनेवाला अन्तर्देशीय पत्र भेजा था तो देखकर, खोलने से पहले मुझे लगा था कि यह उज्जैन में, शादी में शामिल होने के लिए आभार-पत्र होगा। लेकिन मेरा दुर्भाग्य था कि वह पप्पू के निधन की सूचना थी।

पता नहीं ईश्वर उनसे इतना नाराज, कुपित क्यों रहा होगा? पप्पू के अवसान से पहले उपाध्याय सर अपनी ‘एक और सन्तान’ की जवान-मृत्यु का आघात झेल चुके थे। चूँकि इस ‘जवान मृत्यु’ की सूचना किसी को नहीं दी गई थी इसलिए इसकी आघात की जानकारी बहुत ही कम लोगों को रही होगी। 

यह 1965 से 1968 के कालखण्ड की ही बात है। उपाध्याय सर बताते रहते थे कि उनकी, बॉटनी की एक किताब आनेवाली है। उसके प्रूफ उनके पास डाक से आया करते थे। किताब इन्दौर में छप रही थी। उनका कोई जूनीयर साथी उस किताब का काम देख रहा था। कुछ महीनों बाद उन्होंने खुशी से चहकते-महकते खबर दी थी - ‘बब्बू! किताब छप गई है। कॉपी डाक से आ रही है।’ लेकिन डाक से कॉपी आई तो उपाध्याय सर की सारी खुशी हवा में उड़ गई। उनके उस जूनीयर साथी ने, उपाध्याय सर के साथ अपना नाम भी लेखक के रूप में दे दिया था। किताब देख कर उपाध्याय सर मुरझा गए थे। उस दिन कॉलेज नहीं जा पाए। उसके बाद हफ्तों तक अनमने रहे। पता नहीं, भाभी ने किस तरह उनकी उदासी हटाई।

उपाध्याय सर से मेरी अन्तिम मुलाकात 13 जनवरी 2017
को हुई थी। सुनील (बिरथरे) उनके बारे में मुझे बराबर खबर दिया करता था। उस दिन की मुलाकात का श्रेय भी सुनील को ही है। कनाड़िया रोड़ से आईपीएस एकेडमी के फार्मेसी विभाग तक की यात्रा मैंने एक स्कूटी से की थी। मैंने जब उनके पाँव छुए थे तो बहुत खुश भी हुए थे और विगलित भी। मेरे जाते ही मुझसे बात नहीं कर पाए थे। एक-डेड़ मिनिट बाद ही बोल पाए थे।

हम दोनों बड़ी देर तक रामपुरा को जीते रहे थे। आज के लोक-व्यवहार में आई कृत्रिमता (सिथेटिकनेस) से आहत थे। बड़ी पीड़ा से उन्होंने कहा था - ‘बब्बू! हमने दिमाग तो खूब पा लिए लेकिन दिल खो दिए।’ मैंने उस दिन उनके और सुनील के कुछ फोटू लिए थे। कहा था - ‘अपने ब्लॉग पर डालूँगा।’ लेकिन उपाध्याय सर वाला ब्लॉग लिखना हर बार टलता गया।

मैं जब भी इन्दौर पहुँचता हूँ तो इन्दौरी मित्रों के लिए बनाई गई ब्राडकास्ट लिस्ट पर खबर करता हूँ। 13 जनवरी 2017 के बाद मैंने जब-जब अपने इन्दौर पहुँचने की खबर की, तब-तब हर बार सुनील नाराज हुआ और उलाहना दिया - ‘अपनी इन्दौर यात्रा में आप अपने बुजुर्गों के लिए समय रखते हैं या नहीं?’ उसका इशारा उपाध्याय सर के लिए होता। मैं हँस कर रह जाता। सुनील को कैसे कहूँ कि मैं भी सत्तर पार कर चुका हूँ। बुजुर्ग की श्रेणी में आ गया हूँ। स्कूटर/स्कूटी पर इतनी लम्बी यात्रा करने में मुझे असुविधा होती है। लेकिन उपाध्याय सर की चिन्ता करते हुए सुनील मेरी इन हकीकतों की अनदेखी कर जाता।

आज जब उपाध्याय सर के उठावने का विज्ञापन देखा तो एक अपराध बोध मन में उभर आया। जो ब्लॉग जनवरी 2017 में, सर से मिलने के बाद आते ही लिख दिया जाना चाहिए था, वह आज लिख रहा हूँ। वह भी इसलिए कि अभी ही मुझे उपाध्याय सर के निधन की जानकारी हुई है। 

ब्लॉग तो लिखना ही था। लेकिन 2017 में लिख लेता तो उपाध्याय सर देख कर, पढ़ कर कितना खुश होते? इस खुशी से उनके चेहरे पर कितना उजास हो आता? उस उजास से मैं खुद कितना खुश होता? लेकिन अपनी यह खुशी तो मैंने ही खुद से छीन ली।

आपने सच कहा था सर! और लोगों की तरह आपके बब्बू नेे भी दिमाग पा लिया। दिल खो दिया।
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2 comments:

  1. ईश्वर के फैसले के आगे सब नतमस्तक है ।

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  2. यह दिल ही तो है जो अपने सर को इतनी शिद्दत से याद कर रहा है,उनकी स्मृति को विनम्र नमन..प्रणाम।

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